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त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी जैसे सर्व शाखाओं का मूल स्कन्ध (थड़) है। छोटी शाखाओं का मूल जैसे मुख्य शाखाएं है, फल का मूल जैसे पुष्प है और पुष्प तथा अंकुर का मूल बीज है। इसी प्रकार सभी धर्मानुष्ठानों का मूल चित्तकी स्वस्थता रुप समाधि है। (क्योंकि, चित्तकी स्वस्थता के योग से आत्मा का कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेक जीवंत रहता है। इसके योग से कर्तव्यमें प्रवृत्ति के लिए हमेशा तत्पर रहता है। चित्तकी अस्वस्थता हो तो वैसे प्रकार का विवेक जीवंत नहीं रहता इसके योगसे कर्त्तव्यमें (धर्मानुष्ठानोंमें) प्रवृत्ति नहीं हो सकती । इसलिए चित्तकी स्वस्थता धर्मानुष्ठान का मूल है।) व चित्त की स्वस्थता बिना कैसा भी धर्मानुष्ठान हो, तो भी वह कष्ट क्रिया तुल्य है। कायक्लेश का कारण बनता है। (अर्थात् चित्त की स्वस्थता के बिना धर्मानुष्ठान से यथार्थ आत्मकल्याण नहीं होता । आत्मामें कुशल संस्कारों का सिंचन होना और कुसंस्कारोंका सानुबंध परिहास होना व उसके योग से आत्मा की मोक्ष तरफी गति तीव्र बनना, यह यथार्थ आत्मकल्याण है । चित्तकी स्वस्थतापूर्वक किया गया धर्मानुष्ठान ही आत्मस्पर्शी एंव सातत्यपूर्ण बनता है।आत्मस्पर्शी व सातत्यपूर्ण अनुष्ठान ही सुसंस्कारो का सिंचन करता है और कुसंस्कारो का नाश करता है। इसके योग से यथार्थ आत्मकल्याण होता है । इसलिए धर्मानुष्ठानमें चित्तकी स्वस्थ समाधि अत्यंत आवश्यक है।)
चित्त की स्वस्थता का नाश करनेवाले उद्देश आधि-व्याधि इत्यादि हैं। आधि-व्याधि-उपाधि का निरोध हो तो चित्तकी स्वस्थता अच्छी रहती है। इन आधि-व्याधि-उपाधि का निरोध भी तब ही होता है कि, जब उसमें कारणभूत उपसर्गों का निवारण हो । अर्थात् उपसर्गोंके निवारण द्वारा (चित्तस्वस्थता का नाश करनेवाले) आधि-व्याधि-उपाधि आदि कारणों का निरोध होता है और चित्त समाधि प्राप्त होती है। इस प्रकार यहां सम्यग्दृष्टि देवताओं से जो समाधि की प्रार्थना की जाती है, वह समाधिमें उपर दर्शाए अनुसार विघातक उपसर्गों का निवारण करने की अपेक्षा से की जाती है।