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त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी
प्रकार से नहीं हो सकेगा।'
• पू.आ.भ.श्री अभयदेवसूरिजी को चैत्यवंदन महाभाष्यकार के वचन मान्य हैं । इसलिए भाष्यकार द्वारा प्ररुपित चैत्यवंदन के नौ प्रकार तथा चतुर्थस्तुतिका समर्थन भी मान्य है ही । यह स्वयमेव सिद्ध हो जाता है। इसलिए पू.आ.भ.श्री अभयदेवसूरिजी चतुर्थस्तुति को अशठ पुरुषों द्वारा मान्य होने से जीत व्यवहार के लक्षण से युक्त मानते हैं। जेसे आगम वचन मान्य हैं, वैसे ही अशठ पुरुषों द्वारा आचरित जीत व्यवहार भी मान्य हैही। • यहां पाठकों को यह भी ध्यान में लेना चाहिए कि, पू.आ.भ.श्री
अभयदेवसूरिजी जिस चैत्यवंदन महाभाष्य को सर्व प्रकार से प्रमाणभूत मानते हैं और इसके बावजूद भाष्यमें कही गई चार थोय व आठ थोय की चैत्यवंदना को छोडकर तीन थोय से उत्कृष्ट चैत्यवंदना होती है और चौथी थोय नई है। ऐसा प्रचार उनके नाम से करना मिथ्याभिनिवेश पूर्वक असत्य प्रलाप नहीं तो और क्या है? भाष्यकार परमर्षि स्पष्टतया चार तथा आठ थोय की चैत्यवंदना के विधान प्रतिपादन करते हैं और पू.आ.भ.श्री अभयदेवसूरिजी उसे प्रमाणभूत मानते हैं । ऐसी स्थितिमें कौन सुज्ञ व्यक्ति कहेगा कि, पू.आ.भ.श्री अभयदेवसूरिजीने चतुर्थस्तुति नवीन कही है ? पू.आ.भ.श्री ने तो मात्र इसका उल्लेख किया है और उसमें भी 'चतुर्थस्तुतिः किलार्वाचीन' इस प्रकार 'किल' शब्दप्रयोग करके अन्य की बात में अपनी अरुचि जाहिर की है।
प्रश्न : पू.आ.भ.श्री अभयदेवसूरिजीने 'किल' शब्द का प्रयोग करके चतुर्थ स्तुतिमें अरुचि जाहिर की है कि अन्य व्यक्ति चतुर्थ स्तुति को नवीन मानते हैं, उसमें अरुचि जाहिर की है?