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इस कथन के प्रकाश में तुलनात्मक तत्वज्ञान के अभ्यासी विद्वान् जैनधर्म का अस्तित्व वेदों के पूर्वकालीन स्वीकार करते हैं, क्योंकि जैनधर्म के संस्थापक भगवान ऋषभदेव का अस्तित्व वेदों के भी पूर्व का सिद्ध होता है। इससे उन लोगों का उत्तर हो जाता है, जो जैनधर्म का स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार करने में कठिनता का अनुभव करते हैं। प्रकाण्ड विद्वान् डाक्टर मंगलदेव एम० ए० डी० लिट्, काशी के ये विचार गंभीर तत्वचिंतन के फल स्वरूप लिखे गए है, "वेदों का, विशेषतः ऋग्वेद का काल अति प्राचीन है। उसके नादसीय सदृश सूक्तों और मंत्रों में उत्कृष्ट दार्शनिक विचारधारा पाई जाती है। ऐसे युग के साथ जबकि प्रकृति के कार्य निर्वाहक तत्तद देवताओं की स्तुति आदि के रूप में अत्यंत जटिल वैदिक कर्मकांड ही आर्य जाति का परम ध्येय हो रहा था, उपर्युक्त उत्कृष्ट दार्शनिक विचार की संगति बैठाना कुछ कठिन ही दिखाई देता है । हो सकता है कि उस दार्शनिक विचारधारा का प्रादि स्रोत वैदिक धारा से पृथक या उससे पहले का हो।"
"ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य में कपिल-सांख्यदर्शन के लिये स्पष्टतः अवैदिक कहा है । “न तया श्रुतिविरुद्धमपि कापिलं मतं श्रद्धातुं शक्यम्" (ब्र० स० शां० भा० २।१।११) । इस कथन से तो हमें कुछ ऐसी ध्वनि प्रतीत होती है, कि उसकी परम्परा प्राग्वैदिक या वैदिकेतर हो सकती है। जो कुछ भी हो, ऋग्वेद संहिता में जो उत्कृष्ट दार्शनिक विचार अंकित है, उनकी स्वयं परम्परा और भी प्राचीनतर होनी चाहिये। डॉ० मङ्गलदेव का यह कथन ध्यान देने योग्य है--(१) "जैनदर्शन की सारी दार्शनिक दृष्टि वैदिक दार्शनिक दृष्टि से स्वतन्त्र ही नहीं, भिन्न भी है । इसमें किसी को संदेह नहीं हो सकता । (२) हमें तो ऐसा प्रतीत होता है, कि उपर्यक्त दार्शनिक धारा को हमने ऊपर जिस प्राग्वैदिक परम्परा से जोड़ा है, मूलतः जैन-दर्शन भी उसके स्वतन्त्र-विकास की एक शाखा हो सकता है।
(१) जैनदर्शन की भूमिका, पृष्ठ १०
(२) स्व० जर्मन शोधक विद्वान् अ० जैकोबी ने अमधर्म की स्वतन्त्रता तथा मौलिकता पर अन्तर्राष्ट्रीय कांग्रेस में चर्चा करते हुए कहा था:
“In conclusion let me assert my conviction that Jainism is an original system, quite distinct and independent from all others and that therefore it is of great importance for the study of philosophical thought and religious life in ancient India"--Studies in Jainism P-60.
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