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( १३ )
जो व्यक्ति काम, क्रोध युक्त होता हुआ, हिंसा तथा लोभ को प्राप्त होता है, वह मानवता से गिरकर पशु योनि में उत्पन्न होता है।
गीता में दैवी संपत्ति को मोक्ष का हेतु बताया है। 'दैवी संपद्विमोक्षाय" (१६ अ-५)। उस दैवी संपदा में अहिंसा की परिगणता की गई है :--
अहिंसा-सत्य-मक्रोधस्त्यागः शांतिरपैशुनम् ॥ दयाभूतेस्वलोलुप्त्वं मार्दवं-हीरचापलम् ॥१६-२॥
दैवी संपदा को प्राप्त पुरुष के लक्षणों में अहिंसा, सत्य, अक्रोध, त्याग, शांति, अनिन्दापना, जीवदया, चंचलता का त्याग, मृदुता, लज्जा, व्यर्थ की चेष्टाओं का अभाव आदि गुण पाए जाते हैं ।।
इस अहिंसा विद्या को जैन तीर्थकर ऋषभदेव आदि ने धर्म तथा आत्म विकास का प्राण माना है।
भागवत की सुखसागरी टीका के एकादशम स्कन्ध के चतुर्थ अध्याय में लिखा है, “परमेश्वर का स्मरण व ध्यान चौबीस अवतारों में से, जिस पर जिसका मन चाहे, उसी रूप में पूजा व भक्ति करे।” (पृ० १०६६) उक्त ग्रंथ में यह महत्व की बात आई है “राजा ऋषभदेव जी ने धर्म के साथ प्रजा का पालन करके ऐसा राज्य किया, कि उनके राज्य में बाघ और बकरी एक घाट पानी पीते थे। कोई प्रजा दुःखी व कंगाल न थी। देवता उनकी स्तुति देव-लोक में किया करते थे। जब राजा इंद्र ने उनका यश सुना, तब डाह से उनके राज्य भरतखण्ड में पानी नहीं बरसाया । इस पर ऋषभदेव ने इंद्र के अज्ञान पर हंसकर अपने योगबल से ऐसा कर दिया कि उनके राज्य में जिस समय प्रजा के लोग पानी चाहते थे, उसी समय नारायण की कृपा से जल बरसाया था; तब इंद्र ने उनको भगवान का अवतार जान कर अपना अपराध क्षमा कराया ।" (पृष्ठ २६८) उक्त ग्रंथ में यह भी लिखा है "ऋषभदेव के मत को मानने वाले जैनधर्मी कहलाते हैं।"
ऋषभनाथ भगवान के सम्बन्ध में ऋग्वेद का यह मंत्र महत्व पूर्ण है :--
ऋषभं मासमानानां सपत्नानां विषासहि । हंतारं शत्रूणां कृधि विराजं गोपितं गवाम् ॥१०१-२१-६६॥ इसका अर्थ वेदतीर्थ पं० विरुपाक्ष एम० ए० इस प्रकार करते हैं:
हे रुद्रतुल्य देव ! क्या तुम हम उच्च वंश वालों में ऋषभदेव के समान प्रात्मा को उत्पन्न नहीं करोगे? उनकी 'अर्हन' उपाधि आदि उनको धर्मोपदेष्टा द्योतित करती है, उसे शत्रुओं का विनाशक बनाओ।" वैदिक
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