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अवतारों में सर्व प्रथम मानव अवतार रूप युक्त ऋषभदेव के प्रतापी ब्रह्मज्ञान (परा विद्या) के पारगामी पुत्र भरतराज के कारण इस देश को भारतवर्ष स्वीकार न कर अन्य भरत नाम को कारण बताना असम्यक् है । स्वयं वैदिक महान शास्त्रों की मान्यता के भी प्रतिकूल है । महापुराण में भगवज्जिनसेन स्वामी कहते हैं :--
प्रमोदभरतः प्रेमनिर्भरा बंधुता तदा। तमाह भरतं भावि समस्तभरताधिपम् ।।१५८।। तन्नाम्ना भारतं वर्षमिति ह्यासीज्जनास्पदम्।
हिमाद्रेरासमुद्रांच्च क्षेत्रं चक्रभृतामिदम् ॥१५६ पर्व १५॥ भरत के जन्म समय प्रेम परिपूर्ण बंधुवर्ग ने प्रमोद के भार से समस्त भरत के भावी स्वामी को भरत कहा । भरत के नाम से हिमालय से समुद्र पर्यन्त चक्रवर्ती का क्षेत्र भारतवर्ष के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
भागवत के एकादशम् स्कन्ध से ज्ञात होता है :--
नवाभवन् महाभागा मुनयो ह्यर्थशंसिनः । श्रमणा वातरशना प्रात्मविद्याविशारदाः ॥२-२०॥
उन सौ पत्रों में नौ पुत्रों ने सन्यास वृत्ति धारण की थी। वे महाभाग्य शाली थे। तत्वोपदेष्टा थे। आत्मविद्या में ये अत्यंत प्रवीण थे तथा दिगम्बर मुद्राधारी थे।
भगवान ऋषभदेव ने जो उपदेश दिया, उसका प्राण अहिंसा धर्म था। जिस अहिंसा धर्म की जैन धर्म में महान प्रतिष्ठा है, उसे भागवत में भी मान्यता देते हुए सन्यासी का मुख्य धर्म कहां है।
भागवत के १८ स्कन्ध में कहा है :--- भिक्षोधर्मः शमोऽहिंसा तप-ईक्षा वनौकसः ।
गृहणो भूत-रक्षेज्या द्विजस्याचार्यसेवनम् ॥४२॥
सन्यासी का मुख्य धर्म है शांति और अहिंसा; वानप्रस्थी का धर्म है तपस्या तथा भगवद्भाव, गृहस्थ का मुख्य धर्म है जीव रक्षा तथा पूजा, ब्रह्मचारी का धर्म है प्राचार्य की सेवा करना।
महाभारत में लिखा है कि अहिंसा के द्वारा स्वर्ग प्राप्त होता है :। अहिसार्थ-समायुक्तः कारणः स्वर्गमश्नुते ॥१०॥-अ. १८१ हिंसा करने वाला पशु योनि में आता है।
कामक्रोध-समायुक्तो हिंसा-लोभ-समन्वितः। मनुष्यत्वात्पारिभृष्टस्तिर्यग्योनौ प्रसूयते ॥१२, प्र. १८१॥
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