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के आगमन के पूर्व में विद्यमान धर्म है । उन्होंने इसे सर्वाधिक प्राचीन द्रविड़ युग का धर्म कहा है ।" वैदिक साहित्य
ऋषभदेव को जैन धर्म का संस्थापक स्वीकार करता हुआ, उनको अपना भी पूज्य अवतार अंगीकार करता है । भागवत के ऋषभावतार स्कन्ध में ऋषभनाथ भगवान को "गगन- परिधानः " आकाश रूपी वस्त्र का धारक बताते हुए यह भी कहा है कि उन्होंने महामुनियों को श्रेष्ठधर्म --- परमहंस धर्म अर्थात् दिगम्बरत्व का उपदेश दिया था । उस कथन से यह स्पष्ट ध्वनित होता है कि वे भगवान परमहंस महामुनियों के भी परम पूज्य तथा वंदनीय थे । उन्होंने “भक्ति - ज्ञान-वैराग्यलक्षणं पारमहंस्यधर्ममुपशिक्ष्यमाणः " - भक्ति ( सम्यग्दर्शन), ज्ञान तथा वैराग्य ( सम्यक् चारित्र) रूप परम हंस - धर्म ( जैनधर्म) का उपदेश दिया था ( भागवत स्कंध ५, अ. ५, पाद २८ ) ।
भागवत के एकादश स्कंध के द्वितीय अध्याय में लिखा है
प्रियव्रतो नाम सुतो मनोः स्वायंभुवस्य यः । तस्याग्नीघ्र स्ततो नाभि-ऋषभस्तत्सुतः स्मृतः ॥ १५ ॥
स्वायंभुव नामके मनुके पुत्र प्रियव्रत हुए । इनके पुत्र आग्नीध्र और अग्नीघ्र के नाभि तथा नाभि के पुत्र ऋषभ हुए। जैन शास्त्रों में भगवान ऋषभदेव को नाभिराज का पुत्र बताया है । ऋषभदेव को जैन धर्म में प्रथम तीर्थंकर माना गया है । हिन्दू धर्म शास्त्र उनको वासुदेवांश - विष्णु का अंश मानता है । विचारक वर्ग का ध्यान इस भागवत वाक्य की ओर जाना उचित है :
(2) It (Jainism ) reflects the cosmology and anthropology of a much older pre-Aryan upper class of north-eastern India - ( P217)
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Dr. Zimmer regarded Jainism as the oldest of the nonAryan group ( Sankhya, Yoga and Jainism.). Dr. Zimmer believed that there is truth in the Jaina idea that their religion goes back to a remote antiquity, the antiquity in question being that of the pre-Aryan, socalled Dravidian period, which has recently been dramatically illuminated by the discovery of a series of the great Late Stone Age cities in the Indus Valley, dating from the third and perhaps even fourth millennium B. C. (P. 60) Philosophies of India by Dr. Zimmer
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