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प्रस्तावना
पुरातन भारत के इतिहास का पर्यवेक्षण करने पर यह ज्ञात होगा कि यहाँ श्रमण और वैदिक संस्कृति रूप द्विविध विचारधाराएँ विद्यमान थीं। श्रमण शब्द द्वारा जैन तथा बौद्ध विचारधाराओं को ग्रहण किया जाता है। बौद्ध विचार धारा की प्राणप्रतिष्ठा गौतम बुद्ध के द्वारा हुई थी, अतः गौतम बुद्ध के जीवन के पूर्व भारत में श्रमण. विचार धारा का प्रतिनिधित्व केवल जैन विचार तथा प्राचार पद्धति करती रही है। जैन विचार पद्धति का उदय इस अवपिणी काल में भगवान ऋषभदेव के द्वारा हुआ, जिन्हें जैन धर्म अपना प्रथम तीर्थंकर स्वीकार करता है । जैन आगम के अनुसार जैन तत्वचिंतन प्रणाली अनादि है, फिर भी इस युग की अपेक्षा जैन धर्म की स्थापना का गौरव भगवान ऋषभदेव को प्रदान किया जाता है। चौबीस तीर्थंकरों में ऋषभदेव प्रथम तीर्थकर माने गए है । जैन शास्त्रों का अभ्यास तथा परिचय न होने से कभी कभी अनेक व्यक्ति अंतिम तीर्थकर भगवान महावीर को जैन धर्म का संस्थापक कह देते है; किन्तु यह धारणा भ्रान्ति तथा असत्य कल्पना पर अवस्थित है।
आज के युग की उपलब्ध प्राचीनतम सामग्री तीर्थंकर ऋषभदेव के 'सद्भाव एवं प्रभाव को सूचित करती है । मोहनजोदरो, हड़प्पा के उत्खनन द्वारा जो नग्न वैराग्यभावपूर्ण मूर्तियाँ मिली हैं, वे स्पष्टतया ऋषभदेव तीर्थंकर के प्रभाव को व्यक्त करती है ।' उनका चिन्ह वृषभ (बैल) था । इस प्रकाश में मोहनजोदारो, हड़प्पा की सामग्री का यदि अध्ययन किया जाय तो यह स्वीकार करना होगा, कि सिन्धु नदी की सभ्यता के समय में जैन धम तथा ऋषभदेव का प्रभाव था । डॉ० हेनरिच ज़िमर ने अपने महान ग्रंथ 'फिलासफीज़ आफ इंडिया' में लिखा है कि जैन धर्म अत्यंत प्राचीन है । वह आर्यों
(1) The standing figures of the Indus seals three to five (plate II F. G. H.) with a bull in the foreground may be the pretotype of Rishabha "-Modern Review August 1932.
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