Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामाणः
वह लखपति नहीं कहा जाता है। यदि हजारों स्थानोंपर गढे हुये अज्ञात भूमिधनसे ही मनुष्य धनाढ्य बन जावें, तब तो उस धनसे सभी कोई धनाढ्य बन सकते हैं। कोई रोकनेवाला नहीं है । ऐसी दशामें किसी एक ही को धनपति कहना और अन्योंको धनपति न कहना व्याघात दोष युक्त है । अंधेरेमें भिन्न पडी हुयी सर्वसाधारण सम्पत्तिपर सबका एकसा अधिकार होना चाहिये । पक्षपात करनेवाला पीटा जायगा ।
ततः परं च विज्ञानं किमर्थमुपकल्प्यते । कादाचित्कत्वसिध्द्यर्थमर्थज्ञप्तेन सा परा ॥ ३९ ॥ विज्ञानादित्यनध्यक्षात् कुतो विज्ञायते परैः। लिंगाचेत्तत्परिच्छित्तिरपि लिगांतरादिति ॥ ४० ॥ कावस्थानमनेनैव तत्रार्थापत्तिराहता।
अविज्ञातस्य सर्वस्य ज्ञापकत्वविरोधतः ॥४१॥
एक बात यह भी है कि मीमांसकके यहां अर्थकी ज्ञप्ति यदि प्रत्यक्षरूप हो रही है तो उससे न्यारा करणज्ञान पुनः किस प्रयोजनके लिए कल्पित किया जा रहा है ? यदि मीमांसक यों कहें कि अर्थज्ञप्तिके कभी कभी होनेपनकी सिद्धिके लिए प्रमाणात्मक करणज्ञान एक द्वार माना गया है। इसपर हम जैनोंका यह कहना है कि वह अर्थज्ञप्ति तो ज्ञानसे भिन्न कोई न्यारी वस्तु नहीं है । यदि परोक्ष करणज्ञानसे प्रत्यक्षज्ञप्तिको मिन्न माना जायगा तो बताओ वह दूसरों करके कैसे जानी जा सकेगी ? यदि किसी अविनाभावी हेतुसे उस अर्थज्ञप्तिका ज्ञान करोगे तो उस हेतुका ज्ञान भी अन्य हेतुओंसे जाना जा सकेगा और उन तीसरे हेतुओंका ज्ञान भी चौथे आदि हेतुओंसे ज्ञात होगा। इस प्रकार भला कहां अवस्थिति होगी ? यों तो अनवस्था दोष हो जायगा। इस कथनसे अर्थापत्तिके द्वारा हेतुओंका ज्ञान माननेपर अनवस्था हो जानेके कारण वहां अर्थापत्ति भी मर गई समझ लेनी चाहिये । नहीं जाने हुये सब ज्ञापकोंको ज्ञापकपनका विरोध है। " नाज्ञातं ज्ञापकं "। अर्थज्ञप्ति और उसको जतानेवाले हेतु ज्ञापक हैं । इस कारण उनका ज्ञान होना आवश्यक है। कारक हेतु तो अज्ञात होकर भी कार्यको कर देता है । किन्तु ज्ञापक हेतु तो ज्ञात हुआ ही अन्य पदार्थको समझाता है । अन्यथा नहीं।
स्वतः प्रत्यक्षादर्थात्परं विज्ञानं किमर्थ चोपकल्पित इति च वक्तव्यं परैः कादाचिस्कत्वसिध्यर्थमर्थज्ञप्तेरिति चेत्, उच्यते । न सा पराविज्ञानात् ततो नाध्यक्षा सती कुतो विज्ञातव्या ? लिंगाच्चेत्तत्परिच्छित्तिरपि लिंगांतरादेव इत्येतदुपस्थापनविरोधाविशेषात् । अर्थापत्यंतराचस्य ज्ञानेनवस्थानात् ।