Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यश्लोकवार्तिके
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साक्षात्सतिभासमानं हि प्रत्यक्षं स्वस्मिन् विज्ञानमनुमेयमपरत्र व्याहारादेरिति प्रत्यात्मवेद्यं सर्वस्य ज्ञानपरोक्षत्वकल्पनामाईत्येव । किंच
जिस कारण कि अपनेमें तो साक्षात् रूपसे प्रत्यक्ष प्रतिभास रहा ज्ञान है ही और दूसरोंकी आत्मामें अपने अपने ज्ञानका प्रत्यक्षपना हम वचनकुशलता, चेष्टा, प्रवृत्ति, स्मरण होना आदिकसे अनुमान कर लेते हैं, इस कारण प्रत्येक आत्माओंमें अपने अपने स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे जाना जा रहा ज्ञान सभी ज्ञानोंके स्वांशमें परोक्षपनकी कल्पनाको समूल चूल नष्ट कर ही देता है। अथवा सभी वादियों द्वारा माने गये अपने द्वारा ही ज्ञानके प्रत्यक्ष न होनेपनको वह प्रत्यक्षरूप अनुभव किया जा रहा ज्ञान खण्डन कर देता है। ऐसी अधिक प्रसिद्ध बातको सिद्ध करनेके लिये हम विशेष परिश्रम या चिन्ता क्यों करें ? दूसरी बात यह है कि
विज्ञानस्य परोक्षत्वे प्रत्यक्षार्थः स्वतः कथम् ।
सर्वदा सर्वथा सर्वः सर्वस्य न तथा भवेत् ॥ ३८ ॥
विज्ञानको सर्वथा परोक्ष माननेपर सभी जीवोंके सदा, सभी प्रकारसे, सम्पूर्ण पदार्थ तिस प्रकार स्वतः ही क्यों न प्रत्यक्ष हो जावें । भावार्थ-देवदत्तको जैसे अपना ज्ञान परोक्ष है, और उस परोक्षज्ञान द्वारा देवदत्तको जैसे घटका प्रत्यक्ष हो जाता है, उसी प्रकार इन्द्रदत्त, चन्द्रदत्त आदिकोंको भी देवदत्तका ज्ञान परोक्ष है। यानी देवदत्तको जैसे अपने ज्ञानकी बप्ति ( इल्म ) नहीं हैं, वैसे ही इन्द्रदत्त आदिको भी देवदत्तके ज्ञानकी ज्ञप्ति नहीं है, तो फिर देवदत्तको ही सहारनपुरमें घट, पट आदिकोंका प्रत्यक्ष ज्ञान हो जाय और उस देवदत्तके परोक्ष ज्ञान द्वारा बम्बईमें बैठे हुये इन्द्रदत्त आदिको उन घट आदिकोंका ज्ञान नहीं होय, इसका नियामक कौम है ! बताओ। परोक्षज्ञानसे तो सब जीवोंको सदा, सभी प्रकार सम्पूर्ण अर्थाका प्रत्यक्ष होते रहना चाहिये। आत्मामें भिन्न पडे परोक्ष ज्ञानोंपर सबका एकसा अधिकार है । सभी जीव दूसरोंके परोक्ष ज्ञानसे तज्ज्ञेयपदार्थोकी ज्ञप्तियां कर बैठेंगे । छुट्टी दे देनेपर अन्धेरेमें चाहे जो मन चला पुरुष चाहे जिस पदार्थपर अधिकार (कबजा ) कर सकता है।
ग्राहकपरोक्षत्वेपि सर्वदा सर्वया सर्वस्य पुंसः कस्यचिदेव स्वतः प्रत्यक्षार्थ कश्चित्कदाचित्कथंचिदिति व्याहततरां ।
पदार्थोका ग्रहण करनेवाले ज्ञानको परोक्षपना होते हुये भी सदा सभी प्रकार सभी जीवोंमेंसे किस ही एक जीवके किस ही समय किसी प्रकार किसी एक अर्थका ही स्वतः प्रत्यक्ष होवे यह तो पूर्वापर वचनोंका प्रकृष्ट रूपसे अत्यधिक व्याघात हो रहा है । जैसे कि घास ,खोदनेवालेकी झोपडीमें चार हाथ नीचे भूमिमें धन गढा हुआ है। किन्तु उस गंवारको धनका ज्ञान न होनेसे