Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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"हम लोगोंकी सम्पूर्ण बुद्धियां परोक्ष हैं, किंतु स्वांश में परोक्ष हो रहे, प्रत्यक्ष प्रमाणके विषय घट, पट, आदिक पदार्थ प्रत्यक्ष हैं। जिस कारण कि वह अर्थ बाहरके देशों में सम्बन्धित हो रहा प्रत्यक्षरूप अनुभवा जा रहा है । किंन्तु अन्तरंगके ज्ञान तो प्रत्यक्षरूप नहीं जाने जा रहे हैं । 'इन्द्रिका प्रत्यक्ष नहीं होते हुए भी उनके द्वारा स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, अथवा इनसे विशिष्ट 'अर्थोक और शब्दका प्रत्यक्ष हो जाता है । नेत्रमें सन्मुखस्थित पदार्थके पडे हुए प्रतिबिंबको कोई नहीं देखता है, किन्तु उसके बलबूतेपर हुई चाक्षुषज्ञप्तिको सर्व जानते हैं । इस प्रकार कोई भट्ट या प्रभाकर, मीमांसक भले प्रकार विश्वास कर बैठे हैं । किन्तु वे भी आत्मतत्त्वको जाननेवाले नहीं हैं। क्योंकि प्रमाणोंसे व्याहत हो रहे पदार्थोंका कथन कर रहे हैं । बाल, गोपाल, पशु, पक्षियों तक में अपने अपने ज्ञानोंका स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होना देखा जाता है । तभी तो कभी कभी उन ज्ञानोंका स्मरण होना और प्रत्यभिज्ञान होना बनता है । धारणारूपसे प्रत्यक्ष हुये विना किसीकी स्मृति या प्रत्यभिज्ञान नहीं हो पाते हैं ।' चोइन्द्रिय बरे, मधुमक्षिका आदिक भी अपने नियत छत्तों [ घरों ] को लौटती हैं, स्मरण रखती हैं । किंतु यह सब वासनायुक्त अवग्रह रूप प्रतिज्ञान है । छोटा ज्ञान भी बडे बडे चमत्कारक कार्योको कर देता है । थोडे ज्ञानवाले पंडित पुज जाते हैं और विशेष ज्ञानी वैसा बहिरंग में चमत्कार नहीं दिखा सकते हैं । स्वयं तत्त्वान्वेष करते बैठते हैं । "ईहा, अवाय, धारणा तो संज्ञी जीवोंके ही होते हैं । द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी जीवोंका तीव्र अनुभागवाली कषायसे मिश्रित हुआ ज्ञान ही गृह बनाना, बच्चे बनाना, बच्चोंके शरीर उपयोगी सन्मूर्च्छन करनेवाले पदार्थोंको ढूंढ निकालना आदि आश्चर्यकारक कार्योंको करा देता है ।
प्रत्यक्षमात्मनि ज्ञानमपरत्रानुमानिकम् ।
प्रत्यात्मवेद्यमाहेति तत्परोक्षत्वकल्पनाम् ॥ ३७ ॥
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अपनी आत्मामें तो वह ज्ञान स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से प्रतिभास रहा ही है । और दूसरे यज्ञदत्त, जिनदत्त, आदि आत्माओंमें उत्पन्न हुआ ज्ञान उन उनको प्रत्यक्ष द्वारा दीख रहा है, इस बातको हम अनुमान द्वारा जान लेते हैं । अतः प्रत्येक आत्मामें स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से जाने जा रहे ज्ञानका "प्रत्यक्षपना उस ज्ञान के परीक्षपनकी कल्पनाको सब ओरसे नष्ट कर देता है । भावार्थ सर्वज्ञको तो सभी पदार्थोंका प्रत्यक्ष है । अतः अपने ज्ञानका प्रत्यक्ष तो अवश्य होगा हो और अपने ज्ञानका " स्वसंवेदन : प्रत्यक्ष बालकोंतकको हो रहा है। तथा धीमान् जीव दूसरे आत्माओं में उत्पन्न हुये * ज्ञानका स्वयं अपने अपने द्वारा प्रत्यक्ष हो जानेका अनुमान कर लेते हैं। जैसे कि अपनी मस्तक 'पीडाका प्रत्यक्ष कर दूसरोंकी मस्तक पीडाके प्रत्यक्ष दुःख अनुभवको घरके अन्य जन अनुमानसे " जान लेते हैं । अतः सम्पूर्ण ज्ञान स्वांशको जाननेमें प्रत्यक्ष प्रमाणरूप हैं ।