Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थश्लोकार्तिके
श्रुतसे भी मिच, है तथा विषयरूप अर्थ, कारण आदिके भेदोंसे भी मतिज्ञान, श्रुतज्ञानोंका, भेद है, यह बात भल्ले प्रकार निश्चित करदी गयी है।
___ यथैवः सवधिमनःपर्ययकेवलानां परस्परं मतेः खलक्षणभेदोर्थमेदः कारणादिभेदश्च सिद्धस्तथा श्रुतस्यापीति युक्तं वस्य मतेर्नानात्वमवध्यादिवत् । ततः-सूक्तं मल्यादिज्ञानपंचकम् ।
जैसे ही अवधिज्ञान, मनापर्ययज्ञान, और केवलज्ञानका परस्परमें, तथा मतिज्ञानकी, अपेक्षासे अपने अपने लक्षणोंका भेद है, जानने योग्य विषयका भेद है, कारण क्षयोपशम,उत्पत्तिक्रम आदिका भेद सिद्ध होरहा है, इस ही प्रकार श्रुतज्ञानका भी मतिज्ञानसे स्वलक्षण आदिकी अपेक्षा भेद है। इस कारण उस श्रुतज्ञानको अवधि आदिके समान मतिज्ञानसे मिन्नपना युक्त है । तिस कारण उमास्वामी महाराजने मति आदिक न्यारे न्यारे पांच ज्ञान बहुत अच्छे कहे हैं, ऐसे निर्दोष सूत्रोंको सुनकर सभी वादी प्रतिवादियोंको प्रसन्न होनेका अवसर प्राप्त हो जाता है।
सर्वज्ञानमनध्यक्षं प्रत्यक्षार्थः परिस्फुटः। इति केचिदनात्मज्ञाः प्रमाणव्याहतं विदुः ॥ ३६ ॥
प्रत्यक्ष, अनुमान आदि सब ही ज्ञान परोक्षरूप हैं। यानी जैनोंके सिद्धांत अनुसार सभी प्रत्यक्ष, अनुमान, संशय, विपर्यय आदि ज्ञानोंका खांशमें स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होना हम मीमांसकोंको इष्ट नहीं है । हां, स्वयंको प्रत्यक्ष न करनेवाला प्रत्यक्षप्रमाण स्वयं अंधेरेमें पडा होकर भी घट, पट, आदि पदार्थोका अधिक स्पष्टतासे प्रत्यक्ष कर लेता है । जैसे कि आंखके चकाचोंदको बचानेके लिए दीपककी लौका आवरण कर देनेपर दीपकका प्रत्यक्ष तो नहीं होता है, किन्तु उससे प्रकाशित पदार्थोका प्रत्यक्ष हो जाता है । यशकी चाह नहीं कर ठोस उपकारको करनेवाला सेठ जैसे गुप्त दान करता है, दिनमें कार्य करनेवाले सर्वदा सूर्यको ही नहीं देखते रहते हैं, फिर भी सूर्यसे प्रकाशित अर्थोका स्पष्ट प्रत्यक्ष हो रहा है, इसी प्रकार परोक्ष ज्ञानोंसे भी प्रत्यक्ष स्वरूप ज्ञप्ति हो सकती है। अनुमान आदिक परोक्षोंसे परोक्ष ज्ञप्ति तो जैनोंने भी मानी है। हाँ, उन अनुमान आदिकोंका स्वांशमें प्रत्यक्ष ज्ञान और विषय अंशमें परोक्ष ज्ञान माना है । अर्धजरतीय न्यायसे यह ज्ञानोंका स्वांशमें प्रत्यक्ष होना हमको इष्ट नहीं है । इस प्रकार कोई मीमांसक कह रहे हैं । आचार्य कहते हैं कि ज्ञानस्वरूप अपनी आत्माको नहीं जानते हुए वे भी प्रमाणोंसे व्याघात दोषको प्राप्त हुए अर्थको समझ बैठे हैं, यह उनकी अन्धबुद्धिकी बलिहारी है।
परोक्षा नो बुद्धिः प्रत्यक्षोर्थः स हि बहिर्देश संबंधः प्रत्यक्षमनुभूयत इति केचित् संपतिप्रजास्तेप्यनात्मज्ञा प्रमाणव्याहताभिधायित्वात् । ..