Book Title: Tattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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दीपिकानियुक्तिश्च अ०१
जीवस्य षड्भावनिरूपणम् १५ उमास्वातिकृततत्त्वार्थसूत्रे औपशमिकादयः पञ्चैव भावाः प्रतिपादिता सन्ति सान्निपातिको भावस्तत्र नोक्तस्तथापि वक्ष्यमाणागमवचनप्रामाण्यात् तस्यापि सान्निपातिकभावस्य पार्थक्येनोपादानावश्यकत्वात्, तथाचोक्तम् स्थानाङ्कस्य ६ स्थाने ५३७ सूत्रे-“छविहे भावे पण्णत्ते, तंजहा-ओदइए, उवसमिए,खाइए, खायोवसमिए, पारिणामिए, संनिवाइए" षविधो भावः प्रज्ञप्तः तद्यथा औदयिकः औपशमिकः क्षायिकः क्षायोपशमिकः पारिणामिकः सान्निपातिक चेति, तथा च मिश्र ग्रहणेन युगपदेकस्मिन् जीवे निपतनशीलस्य सान्निपातिकभावस्य औपशमिकादीनां भावानां द्विकादिसंयोगेन निष्पद्यमानस्यान्तर्भाव संभवेऽपि उक्तागमप्रामाण्यात् तस्य पृथग्ग्रहणस्यैवौचित्यादिति भावः । सूत्र । १४
मूलम् “एगवीसइवेनोहादसतिनेगभेया जहाकम-" सू.१५ छाया-“एकविंशतिद्विनवाष्टादशत्रिनैकमेदा यथाक्रमम्-" सू. १५
दीपिका--पूर्व सूत्रे तावत् जीवस्यौदयिकादयः षड्भावाः स्वरूपतो लक्षणतश्च निरूपिता सम्प्रति तेषामेव षड्भावानां प्रत्येकं भेदप्रदर्शनार्थमाह-“एगबीसइवेनोहादसतिनेगभेया जहाकम" इति, तत्र यथाक्रमम् क्रमानुसारेण औदयिकस्य भावस्यैकविंशतिर्मेदाः, औपशमिकभावस्य द्वौ भेदौ स्तः क्षायिकभावस्य नव भेदाः सन्ति, क्षायोपशमिकभावस्य मिश्ररूपस्याष्टादशभेदाः पारिणामिकभावस्य त्रयो भेदाः, सान्निपातिकस्य च भावस्य अनेकभेदाः सन्ति, तत्रौदयिकभावस्यैकविंशतिमेंदा यथा नारक-तैर्यग्योन-मानुष्य-देवगतिभेदात् चतुर्विधा गतिः ४ क्रोधमानमायालोभभेदाच्च
यद्यपि उमास्वातिकृत तत्त्वार्थसूत्र में औपशमिक आदि पाँच ही भाव कहे हैं, सान्निपातिक भाव नहीं कहा है तथापि आगे कहे जाने वाले आगमप्रमाण के अनुसार सान्निपातिक भाव को भी पृथक् कहना आवश्यक है । स्थानांगसूत्र के छठे स्थान के ५३७ वे सूत्र में कहा है-छह प्रकार के भाव कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) औदयिक (२)औपशमिक (३) क्षायिक (४) क्षायोपशमिक (५)पारिणामिक और (६) सान्निपातिक । ऐसी स्थिति में मिश्र का ग्रहण करने से एक जीव में उत्पन्न होने वाले सान्निपातिक भाव का, जो कि औपशमिक आदि भावोंमें से दो तीन चार आदि के संयोग से उत्पन्न होता है, अन्तर्भाव होने पर भी उक्त आगम के प्रमाण से उसे अलग ग्रहण करना ही उचित है ॥१४॥
मूलसूत्रार्थ --- 'एगवीसइबेनोहादसत्ति, इत्यादि। पूर्वोक्त छह भावों के अनुक्रम से इक्कीस दो, नौ, अठारह, तीन और अनेक मेद हैं ।
तत्त्वार्थदीपिका-पूर्वसूत्र में जीव के औदयिक आदि छह भावों का स्वरूप और लक्षण निरूपण किया गया है। अब उनमें से प्रत्येक के भेद बतलाने के लिए कहते हैं___ अनुक्रम से औदयिक भाव के इक्कीस भेद हैं, औपशमिक भाव के दो भेद है, क्षायिक भाव के नौ भेद हैं, मिश्ररूप क्षयोपशमिक भाव के अठारह भेद हैं, पारिणामिक भाव के तीन भेद हैं और सान्निपातिकभाव के अनेक भेद हैं।
औदयिक भाव के इक्कीस भेद--(१-४) नरकगति तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति के मेद से चार प्रकार की गति, (५-८) क्रोध मान माया और लोभ के भेद से चार कषाय,
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧