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(५४) निडर होकर, यथार्थ सत्य सनातन जैनधर्मका उपदेश, जो कि इतने समयतक प्रच्छन्नपणे किसी किसीको सुनातेथे पर्षदाके बिच सुनाने लगगये, जिससे " जमनादास” “सरस्वतीमल" " नानकचंद ११ “ गोंदामल्ल, " गंगाराम, १ " लालचंद, " आदि बहुत श्रावकोंने जैनमतका सच्चा श्रद्धान, अंगिकार किया, जिससे “श्रीआत्मारामजी को भी, उत्साह अधिक हुआ. सत्यहै, 'साचको आंच कभी नहीं.'
अंबालासें विहार करके “पटियाला, नाभा" होकर "मालेरकोटला में आये. और सत्यधर्मकी प्ररूपणा करी, जिसको बहुत श्रावकोंने अंगिकार की,और चौमासा करनेके लिये विनती की. चौमासेको देर होनेसें कोटलेसे विहार करके "श्रीआत्मारामजी" शहर " लुधिआना" में आये, और खुब सन्मार्गका प्रकाश किया. यहां "घोलुमल्ल, सेढमल्ल, वधावामल्ल, निहालचंद, प्रभदयाल नाजर" वगैरह श्रावकोंके दिलसें ढुंढक तिमिरका नाश किया, और एक महिने बाद विहार करके, संवत् १९२६ का चौमासा, "मालेरकोटला" में जा किया, और भव्य जीवोंको प्रतिबोध दिया. चौमासे बाद कोटलासे विहार करके एक शिष्यकी लालचसे, " श्री आत्मारामजी" बिनौलीके तरफ गये. और संवत् १९२७ का चौमासा, बिनौलीमें किया. और अध्यात्ममय “आत्म बावनी" नाम छोटासा ग्रंथ तैयार किया. इधर पंजाब देशमें "श्रीविश्नचंदजी, हुकमचंदजी" वगैरह, बडे बडे शहरोंमें फिरकर प्रच्छन्नपणे श्रावकोंको प्रतिबोध करने लगे, जिससे " श्रीआत्मारामजी के श्रावकोंकी वृद्धि होती रही.
चौमासे बाद बिनौलीसें विहार करके “ श्रीआत्मारामजी", अंबाला पटियाला, नाभा, कोटला, रायदाकोट होते हुए " जगरांवा" गाममें आये; और जगरांवा विहार, " जिरा को किया. रस्ते में "किशनपुरा गामके पास, दैवयोगसें अनायासही, कितनेही चेलोंके साथ "पूज्य अमरासिंघजी" जोकि जिरेसें विहार करके जगरांवाको आतेथे, " श्रीआत्मारामजी". को मिले. "श्रीआत्मारामजी को देखके, लाल आंखे करके, रस्ता छोडके, किनारे होके, जाने लगे. तब श्रीआत्मारामजीने, जोरावरी हाथ पकडके, अमरसिंघजीको बेठा लिया. वंदना करके, सुखसाता पूछके, हाथ जोडके, नम्रता करके, पूछाकि, " पूज्यजी महाराज. मैंने आपका क्या गुनाह किया है ? आपने मेरे ऊपर इतना गुस्सा क्या किया? " तब पूज्य अमरसिंघने लाल आंखे करके कांपते कांपते कहा कि. " तू लोंगोंके आगे कहता फिरता है कि, अमरसिंघ मेरी रोटी, वंदना वगैरह बंध कराता है. सो तूं इस बातको सत्य करदे, नहीं तो अठाइ ( आठ व्रत्त ) का दंड ले. " तब "श्रीआत्मारामजी ने कहाकि “ महाराजजी!" "मोहनलाल, " और " छज्जुमल्ल ! तुमारे श्रावकोंने, यह समाचार कहांहै. यदि यह बात सत्य है तो, इसका दंड आपको लेना चाहिये. और यदि जूठ है तो, " मोहनलाल, छज्जुमल" तुमारे श्रावकोंको यह दंड लेना चाहिये. परतुं मुजे किसीतरह भी, दंड नहीं चाहिये. यह सुनकर, अमरसिंघजी निरुत्तर होगये, और क्रोध करके पराङ्मुख होकर, अपने रस्ते चलते होगये. स. त्य है " जूठेको क्रोधकाही शरण है." श्रीआत्मारामजी वहांसें चलकर, जिरामें गये. यहांके
ओसवालोंको अमरसिंघजी धीरज देकर, बडे पक्के करके कहगयेथे कि, " तुम आत्मारामका कहना, नही मानना.” परंतु जिराके लोग बड़े अक्कलमंद, और इलमवाले होनेसें, " श्रीआत्मा
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