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(५३) ऐसा कहकर अपने गुरुको धीरज देके गुरुके साथही विहार करके "श्रीआत्मारामजी" शहर दिल्ली में गये. दिल्लीके ढुंढक श्रावकोंने, अमरसिंघजीके पत्र पहुंचनेसें इरादा किया कि,"आत्मारामजी'को चरचामें निरुत्तर करके निकाल देवें. परंतु वहांपर "श्रीआत्मारामजी ने श्री " उत्तराध्ययन" सूत्र सटीक अध्ययन २८ मा व्याख्यानमें वांचना शुरु किया. जिसके सुननेसें दिल्लीके श्रावक बहुत खुश हुए कि, " हमने आजतक किसी भी ढुंढिये साधुका इसतरहका व्याख्यान नहीं सुना. " व्याख्यानके सुननेसेंही लोगोंको निश्चय होगया कि, "हम यदि इनसें चरचा करेंगे तो जरूर हम हार जावेंगे. क्योंकि, यह बड़े पढे हुए हैं, हमारी शक्ति इनको जवाब देनेकी नहीं है. और चरचाके होनेसें, यातो समग्र, नही तो आधे तो, जरूरही इनके पक्षमें होजावेंगे. इस वास्ते चरचा चुरचाको छोडके, जिसतरह भाव भक्तिके साथ विहार करजावे वैसा करना चाहिये. " ऐसा निश्चय करके सब चूपके होरहे. सत्य है
तावद्गर्जति खद्योत, स्तावद्गर्जति चंद्रमाः॥
उदिते तु सहस्रांशी, न खद्योतो न चंद्रमाः॥१॥ भावार्थः-तबतकही खद्योत (जुगनु-खजुआ-टटाणा-आगीआ) गर्जताहै,(अर्थात् अपना चांदना दिखाताहै) और तबतकही चंद्रमा भी गर्जताहै कि, जबतक सूर्यका उदय नहीं होता है, जब सूर्योदय होताहै तो, फिर न तो खद्योत, और न चंद्रमा,दोनोंमेंसें कोई भी नहीं गर्जताहै.
दिल्लीसे विहार करके, “श्रीआत्मारामजी, " " लुहारा” गाममें आये, जहां रातके समय फिर जीवणमल्लजी रोकर कहने लगे कि, “ आत्मारामजी! तैने कब भी मेरे हुकुमका अपमान नहीं किया है. मैं अच्छी तरांह जानताहूं कि, तूं बडाही विनयवान है, परंतु मैं क्या करूं? अमरसिंघके बहकानेसें तेरे जैसे लायक शिष्यके साथ अणबनाव (नाइतफाकी ) का काम, मैंने किया, जोकि, विना विचारे लेखपर मैंने अपने दसखत करदिये. अब मैं इस बातका बडा पश्चाचाप कर रहा हूं." तब फिर भी “श्रीआत्मारामजीने धीरज देकर कहाकि, “ स्वामीजी! आप इसबातका बिलकुल फिकर न करें, अपना पुण्यतेज होवे तो, दुश्मन क्या करसकता है ? यदि अमरासिंघने दसखत करालिये हैं तो, क्या हुआ? और अमरसिंघ मेरा क्या कर सकताहै ? यह सुनकर, जीवणमल्लजी चूप होगये. बाद लुहारा गामसें विहार करके “श्रीआत्मारामजी," बडौत गाममें आये, जहां श्री आत्मारामजीको मालुम हुआ कि, दिल्लीके कितनेही ढुंढक श्रावकोने, अमरसिंघजीके पत्रकी प्रेरणासें, बहुत शहरोंमें पत्र भेजेहैं, जिनमें लिखाहै कि, " आत्मारामजीकी श्रद्धा, ढुंढकमतसें बदल गई है, और पूज्यजी साहिब अमरसिंघजीने, इनको पंजाब देशसे निकाल दिया है, इत्यादि"-इस वर्णनके सुननेसें, "श्रीआत्मारामजीने" अपने दिलमें पूर्ण धर्मश्रद्धा होजानेसें विचार किया कि, "जहां मैं जाऊंगा, वहांही इस तरह के पत्र प्रथमही पहुंच गये होंगे. इस तरह तो किसी जगा भी रहना नहीं होसकेगा, इसवास्ते पीछे पंजाबदेशही जाना ठीक है. जैसा होवेगा, देखा जायगा. यद्यपि इसवखत पंजाबमें, निःशंक होके, मुजे मदद देनेवाले कोई नहीं है, तथापि सच्चे धर्मके प्रतापसे,कोई न कोई,पुण्यवान्, साहायक, होजावेगा.'' ऐसा निश्चय करके, “श्रीआत्मारामजी " बडौतसे विहार करके शहर अंबालामें आय; और
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