________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
यावश्यक दिग्दर्शन दुल्लहे. खलु माणुसे भवे,
चिर कालेण वि सव्वपाणिणं । गाढा प विधाग कम्मुरणो, ___ समयं गोयम ! मा पमायए ॥
(उत्तराध्ययन १० । ४) जैन संस्कृति में मानव-जन्म को बहुत ही दुर्लभ एवं महान् माना गया है। मनुष्य जन्म पाना, किस प्रकार दुलभ है, इस के लिए जैन संस्कृति के व्याख्याताओं ने दश दृष्टान्तों का निरूपण किया है । सब के सब उदाहरणों के कहने का न यहाँ अवकाश ही है और न औचित्य ही । वस्तु-स्थिति की स्पष्टता के लिए कुछ बातें आपके सामने रक्खी जा रही हैं, आशा है, आप जैसे जिज्ञासु इन्हीं के द्वारा मानवजीवन का महत्त्व समझ सकेंगे। __"कल्पना करो कि भारत वर्ष के जितने भी छोटे बड़े धान्य हो, उन सब को एक देवता किसी स्थान-विशेष पर यदि इकट्ठा करे, पहाड़ जितना ऊँचा गगन चुम्बी ढेर लगा दे । और उस ढेर में एक सेर सरसों मिलादे, खूब अच्छी तरह उथल पुथल कर । सो वर्ष की बुढ़िया, जिसके हाथ काँपते हों, गर्दन काँपती हो, और आँखों से भी कम दीखता हो ! उस को छाज देकर कहा जाय कि 'इस धान्य के ढेर में से सेर भर सरसों निकाल दो।' क्या वह बुढ़िया सरसों का एक एक दाना बीन कर पुनः सेर सर सरसों का अलग ढेर निकाल सकती है ? श्राप को असंभव मालूम होता है । परन्तु यह सब तो किसी तरह देवशक्ति श्रादि के द्वारा संभव भी हो सकता है, परन्तु एक बार मनुष्यजन्म पाकर खो देने के बाद पुनः उसे प्राप्त करना सहज नहीं है।" ____ "एक बहुत लम्बा चौड़ा जलाशय था, जो हजारों वर्षों से शैवाल (काई ) की मोटी तह से आच्छादित रहता प्राया था। एक कछुवा अपने परिवार के साथ जब से जन्मा, तभी से शवाल के नीचे अन्धकार
For Private And Personal