Book Title: Shatkhandagama Pustak 07
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
१०) छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, १, ७. एदीए सुत्तगाहाए सह विरोहो होदि त्ति वुत्ते ण होदि, ओदइया बंधयरा त्ति वुत्ते ण सव्वेसिमोदइयाणं भावाणं गहणं, गदि-जादिआदीणं पि ओदइयभावाणं बंधकारणत्तप्पसंगा । देवगदीउदएण वि काओ वि पयडीयो वज्झमाणियाओ दीसंति, तासिं देवगदिउदओ किण्ण कारणं होदि ति वुत्ते ण होदि, देवगदिउदयाभावेण तार्सि णियमेण बंधाभावाणुवलंभादो । 'जस्स अण्णय-वदिरेगेहि णियमेण जस्सण्णय-वदिरेगा उवलंभंति तं तस्स कज्जमियरं च कारणं' इदि णायादो मिच्छत्तादीणि चेव बंधकारणाणि ।
तत्थ मिच्छत्त-णबुंसयवेद-णिरयाउ-णिरयगइ-एइंदिय-बीइंदिय-तीइंदिय-चदुरिदियजादि हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसरीरसंघडण-णिरयगइपाओग्गाणुपुवी-आदाव-थावर-सुहुमअपजत्त-साहारणाणं सोलसण्हं पयडीणं बंधस्स मिच्छत्तुदओ कारणं, तदुदयण्णय-वदिरेगेहि सोलसपयडीबंधस्स अण्णय-वदिरेगाणमुवलंभादो । णिहाणिद्दा-पयलापयला-थीणगिद्धी
इस सूत्रगाथाके साथ विरोध उत्पन्न होता है । . समाधान-विरोध नहीं उत्पन्न होता है, क्योंकि 'औदयिक भाव बन्धके कारण हैं ' ऐसा कहनेपर सभी औदयिक भावोंका ग्रहण नहीं समझना चाहिये, क्योंकि वैसा माननेपर गति, जाति आदि नामकर्मसम्बन्धी औदयिक भावोंके भी बन्धके कारण होनेका प्रसंग आ जायगा।
शंका-देवगतिके उदयके साथ भी तो कितनी ही प्रकृतियोंका बन्ध होना देखा जाता है, फिर उनका कारण देवगतिका उदय क्यों नहीं होता?
समाधान-उनका कारण देवगतिका उदय नहीं होता, क्योंकि देवगतिके उदयके अभावमें नियमसे उनके बन्धका अभाव नहीं पाया जाता।" जिसके अन्वय और व्यतिरेकके साथ नियमसे जिसके अन्वय और व्यतिरेक पाये जावें वह उसका कार्य और दूसरा कारण होता है" (अर्थात् जब एकके सद्भावमें दूसरेका सद्भाव और उसके अभावमें दूसरेका भी अभाव पाया जावे तभी उनमें कार्य-कारणभाव संभव हो सकता है, अन्यथा नहीं।) इस न्यायसे मिथ्यात्व आदिक ही बन्धके कारण हैं।
इन कारणोंमें मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, नरकायु, नरकगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय व चतुरिन्द्रिय जाति, हुंडसंस्थान, असंप्राप्तसृपाटिका शरीरसंहनन, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आताप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण, इन सोलह प्रकृतियोंके बन्धका मिथ्यात्वोदय कारण है, क्योंकि मिथ्यात्वोदयके अन्वय और व्यतिरेकके साथ इन सोलह प्रकृतियोंके बन्धका अन्वय और व्यतिरेक पाया जाता है।
निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और
......................
१ अ-कप्रत्योः · अष्णय-वदिरेगेण हि ' इति पाठः।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org