Book Title: Shatkhandagama Pustak 07
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, १, १. बंधया त्ति वुत्तं होदि । कुदो ? दोण्हं पि पदाणमेक्ककारये णिप्पत्तीदो । तिरिक्खा बंधा ॥४॥
कुदो ? मिच्छत्तासंजम-कसाय-जोगाणं बंधकारणाणं तत्थुवलंभादो । एत्थ तिरिक्खगदीए इदि किण्ण वुत्तं ? ण एस दोसो, अत्थावत्तीए तदुवलंभादो।
देवा बंधा॥५॥ सुगममेदं । मणुसा बंधा वि अस्थि, अबंधा वि अत्थि ॥ ६॥
मिच्छत्तासंजम-कसाय-जोगाणं बंधकारणाणं' सव्वेसिमजोगिम्हि अभावा अजोगिणो अबंधया । सेसा सब्बे मणुस्सा बंधया, मिच्छत्तादिबंधकारणसंजुत्तत्तादो ।
सिद्धा अबंधा ॥७॥
... यहां सूत्रोक्त 'बन्ध' शब्दसे बन्धकका ही अभिप्राय है, क्योंकि, बन्ध और बन्धक इन दोनों पदोंकी एक ही कारकमें निष्पत्ति है । अर्थात् ये दोनों ही शब्द 'बन्ध्' धातुसे का कारकके अर्थमें क्रमशः 'अच् ' व 'वुल' प्रत्यय लगकर बने हैं।
तिर्यच बन्धक हैं ॥ ४ ॥
क्योंकि, उनमें बन्धके करणभूत मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग पाये जाते हैं।
शंका-यहां सूत्रमें 'तिरिक्खगदीए ' अर्थात् 'तिर्यंच गतिमें ' ऐसा पद क्यों नहीं कहा?
समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, तिर्यंच गतिका अर्थ वहां अर्थापत्ति न्यायसे आ ही जाता है।
देव बन्धक हैं॥५॥ यह सूत्र सुगम है। मनुष्य बन्धक भी हैं, अबन्धक भी हैं ॥६॥
कर्मबन्धके कारणभूत मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग, इन सबका अयोगिकेवली गुणस्थानमें अभाव होनेसे अयोगी जिन अबन्धक हैं। शेष सब मनुष्य बन्धक हैं, क्योंकि, मिथ्यात्वादि बन्धके कारणोंसे संयुक्त पाये जाते हैं।
सिद्ध अबन्धक हैं ॥७॥
१ प्रतिषु ' -जोगाणुबंधकारणाणं ' इति पाठः ।
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