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अस्याकारः [ प्रा० स०] 1. घृणा, कलंक, निन्दा, श्लाघात्याकारतदेवेतेषु पा० ५।१।१३४; 2. बड़ा डील डील, विशाल शरीर ।
अत्याचार ( वि० ) [ आचार मति क्रान्तः ] मानी हुई थाओं और आचारों के विपरीत चलने वाला, उपेक्षक; -र: आचारानुमोदित कार्यों का न करना, धर्म के विपरीत आचरण | अस्यादित्य ( वि० ) [ प्रा० स० ] सूर्य की ज्योति से अधिक चमकने वाला; - अत्यादित्यं हुतवहमुखे संभृतं तद्धि तेज:- मेघ० ४३ ।
अत्यानन्दा [ प्रा० स०] मैथुन के प्रति उदासीनता । अत्याय: [ प्रा० स०] ] 1. अतिक्रमण, उल्लंघन 2. आधिक्य । अत्यारूढ (वि० ) [ प्रा० स०] बहुत बढ़ा हुआ, छं, --डि: (स्त्री०) बहुत ऊँची पदवी अभ्युदय ।
अत्याश्रमः [प्रा० स०] 1. जीवन का सबसे बड़ा आश्रम
- संन्यास 2. इस आश्रम में स्थित संन्यासिन् । अत्याहितं [ अति + आ + घा+क्त] 1. बड़ी विपत्ति भय, दुर्भाग्य, अनर्थ, दुर्घटना न किमप्यत्याहितम् श० १. प्रायः विस्मयादिद्योतक के रूप में प्रयोग हाय दई, हाय रे 2. उद्दंड तथा साहसिक कार्य - - पांडुपुत्रैर्न किमप्यत्याहितमाचेष्टितं भवेत् - वेणी० २ । अत्युक्तिः (स्त्री० ) [ अति + वच् + क्तिन्] बढ़ा चढ़ा कर कहना, अतिशयोक्ति, अधिकृष्ट रंगीन चित्रण -- अत्युक्तौ यदि न प्रकुप्यसि मृषावादं च नो मन्यसे - उद्भट० दे० अतिशयोक्ति भी ।
अत्युपध (वि० ) [ उपधामतिक्रान्तः - प्रा० स०] परीक्षित, विश्वस्त ।
अत्यूहः [प्रा० स०] 1. गहन चिन्तन या मनन गंभीर तर्कना, 2. जलकुकुट ।
अत्र ( अव्य० ) [ इदम् + त्रल् प्रकृतेः अश्भावश्च] 1. इस स्थान पर, यहाँ अपि सन्निहितोऽत्र कुलपतिः - श० १; 2. इस विषय में, बात में, मामले में, इस संबंध में सम० - अन्तरे ( क्रि० वि०) इसी बीच में, भवत् (पुं० - भवान् ) सम्मानसूचक विशेषण जो 'आदरणीय' 'सम्माननीय' 'मान्यवर श्रीमान्' अर्थ को प्रकट करता है तथा उस व्यक्ति की ओर संकेत करता है जो वक्ता के पास उपस्थित या निकट विद्यमान हो; दूरवर्ती या परोक्ष के लिए तत्रभवत् शब्द है; भवती = आदरणीय श्रीमती; (पूज्यं तत्रभवानत्रभवांश्च भगवानपि ), अत्र भवान् प्रकृतिमापन्नः - श० २; वृक्षसेचनादेव परिश्रांतामत्रभवती लक्षये - श० १ । अत्रत्य ( वि० ) [ अत्रभवः - अत्र + त्यप् ] 1. इस स्थान का, या यहां से संबंध रखने वाला 2. यहां उत्पन्न, यहां पाया गया, या इस स्थान का, स्थानीय । अत्र ( वि० ) [ न० ब० ] निर्लज्ज, अविनीत, अशिष्ट ।
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अत्रिः (स० अत्रि ) [ अद् + त्रिन्] एक प्रसिद्ध ऋषि जो वेद के कई सूक्तों के द्रष्टा हैं । सम० - जः, -जातः, -ग्ज:, - नेत्रप्रसूतः - प्रभवः - भवः चन्द्रमा, तु०, अथ नयनसमुत्थं ज्योतिरत्रेरिव द्यौः - रघु० २।७५ ।
aa (अव्य० ) [ अर्थ + ड पृषो० रलोपः ] 1. मंगलसूचक शब्द जो किसी रचना के आरंभ में प्रयुक्त होता है-- और जिसका अनुवाद 'यहां' 'अब' – मंगल, आरंभ, अधिकार, किया जाता है । परन्तु यदि सही रूप से देखा जाय तो 'अथ' का अर्थ 'मंगल' नहीं है, तो भी इस शब्द का उच्चारण या श्रवणमात्र 'मंगल' का सूचक समझा जाता है, क्योंकि यह शब्द ब्रह्मा के कण्ठ से निकला हुआ माना जाता है - ओंकारश्चाथशब्दश्च द्वावेतौ ब्रह्मणः पुरा । कंठं भित्त्वा विनिर्यातौ तेन मांगलिकावुभौ । और इसी लिए हम शांकरभाष्य में देखते हैंअर्थान्तरप्रयुक्तः अथशब्दः श्रुत्या मंगलमारचयति, अथ निर्वचनम्, अथ योगानुशासनम् (बहुधा अंत में 'इति' शब्द का प्रयोग पाया जाता है-इति प्रथमोऽङ्कः समाप्तः - आदि) 2. तब उसके पश्चात् - अथ प्रजानामधिपः प्रभाते बनाय धेनुं मुमोच – रघु० २१ प्रायः 'यदि' या 'चेत्' का सहसंबन्धी 3. यदि, कल्पना करते हुए, अच्छा तो, ऐसी स्थिति में, परंतु यदि - अथ कौतुकमावेदयामि का० १४४; अथ मरणमवइयमेव जन्तोः किमिति मुधा मलिनं यशः कुरुध्वम् - वेणी० ४, 4. और, इसी से तो और भी, इसी भांति-भीमोऽ थार्जुन: - गण० 5. प्रश्न आरंभ करते समय या पूछते समय, बहुधा प्रश्नवाचक शब्द के साथ -- अथ सा तत्रभवती किमाख्यस्य राजर्षेः पत्नी- श० ७, 6. समष्टि, सम्पूर्णता, अथ धर्मं व्याख्यास्यामः -- गण ०, अब हम 'धर्म' की (विवरण सहित) पूरी व्याख्या करेंगें 7. संदेह, अनिश्चितता - शब्दो नित्योऽथानित्यःगण० । सम० अपि (अव्य० ) और भी, और फिर आदि ( = 'अथ' अधिकांश स्थानों पर ), किम् ( अव्य० ) और क्या, हाँ, ठीक ऐसा ही, बिल्कुल ऐसा ही, अवश्य ही, च ( अव्य० ) और भी, इसी प्रकार, - बा ( अव्य० ) 1. या ; 2. अधिकतर क्यों, कदाचित्, पिछली बात को संशुद्ध करते हुए - गमिष्याम्युपहास्यताम्······ अथवा कृतवाग्द्वारे वंशेऽस्मिन् रघु० १।३-४; अथवा मृदु वस्तु हिंसितुम् - ८१४५, दीयें किं न सहस्रघाहमथवा रामेण कि दुष्करम् - उत्त०
६।४० ।
अथर्वन् (पुं० ) [ अथ + ऋ + वनिप् ] 1. अग्नि और सोम का उपासक पुरोहित 2. अथर्वा ऋषि की सन्तान - ब्राह्मण, ( ब० व०), अथर्वा ऋषि की सन्तान, अथर्ववेद के सूक्त, (पुं० – अथर्वा तथा नपुं० – अथवं), 'वेदः अथर्ववेद जो चौथा वेद माना जाता है, तथा जिसमें
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