Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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रत्नकरण्डशायकाचार स्वच्छता एवं निर्मलता पराकाष्ठाको प्राप्त कर चुकी है यद्यपि उसकी वृत्ति या प्रवृत्ति ध्रुवरूपसे अन्तर्मुख बन गई है परन्तु समस्त चराचर कालिक जगत उसमें प्रतिक्षण प्रतिभासित रहा करता है । चेतनाका यह स्वभाव है कि---
पदार्थ उममें प्रतिविम्बित हों जिस तरह दर्पणका यह स्वभाव है कि उसके सम्मुख जो भी पदार्थ जिसरूप में भी उपस्थित होता है वह उसी उसमें प्रतिफलित हुआ करता है चेतना की स्वच्छता इससे भी अधिक और विचित्र है उसमें विद्यमान और अविद्यमान अनन्तानन्त पदार्थ भी युमपत प्रतिभासित हश्रा करते हैं। जिनतरह दर्पण शिसी पदार्थको देखनेका स्वयं प्रयन नहीं करना परन्तु जो भी उसके सम्मुख अाता है वह स्वयं ही उसमें स्वभावतः दर्पण की स्वच्छता विशेषके कारण प्रतिधिम्बित ही आया करता है. उसी तरह सर्वज्ञकी चेतना पदार्थ को जाननेका स्वयं प्रयास नहीं करती जिस तरह छप्रस्थ-श्रम्पज्ञसंसारी जीवोंकी चेतना पदार्थ की तरफ उन्मुख होकर कमसे और योग्य पदार्थ को ही. ग्रहण किया करती है वैसा सर्वज्ञकी चेतनामें नहीं हुआ करता । वह पदार्थों की तरफ उन्मुख नहीं हुआ करती स्वयं पदार्थ ही उसमें प्रतिभासित हुमा करते हैं । फिर वे पदार्थ चांह विद्यमान हो चाहे अविद्यमान भूत भविष्यत्१ और कितने ही प्रमाणापों न हो। वह सभी पदायों को एक साथ रहण कर लेती है। ऐसा जो कहा जाता है उसका तात्पर्य यही है कि उनमें सभी पदाय एक साथ प्रतिविम्बित हो जाया करते हैं ! चेतनाकी यह अबस्था जब होती है तब उसमें यह भी एक विशेषता प्रजाती है कि उसमें फिर किसी भी तरह की न्यूनाधिक ना नहीं आया करनी। जिस तरह संसारी जीवाका ज्ञान न्यूनाधिक द्या करता है वैसा सर्वज्ञका नहीं हुया करता । वह अपने जिस पूर्ण रूपको धारण कर प्रकट होता है वह फिर अनन्न कालतक उसी रूप में रहा करता है।
कोई २ दर्पण के स्थानपर श्रोताओं की कल्पना करके इस वाक्यका इसतरहसे अर्थ करते हुए देखे गये हैं कि "जिस तरह दर्पण में पदार्थ प्रतिविम्बित हुआ करते हैं उसी तरह भगवान् का ज्ञान लोक अलोरके स्वरूपको श्रोताओं में प्रतिधिम्बित करदिया करता है।" सी ठीक नहीं है "पणायते' क्रिया है, यद्विधा उसका कर्ता है, "त्रिलोकानां कर्म है, ओर "सालोकानां" कर्मका विशेषण है इस बात को ध्यान में रखकर अर्थ करनेसे मालूम हो सकता है कि सर्वज्ञ के ज्ञानको ही दर्पणक स्थानापन्न समझकर अर्थ करना उचित एवं संगत है जैसा कि ऊपर किया गया है। गुणोंकी मो अवस्थाएं पलटती है उनको गुणपर्याय अथवा अर्थपर्याय कहते हैं । इनके विस्तृत भेदों और उनके लक्षणाको जानने के लिये देखो नालापपद्धति पंचाध्यायी आदि । परिणमदो खलु पारणं पञ्चरखा सम्बदथ्य पज्जाया । सोणेव से वि जाणदि उगह पूव्वा हि किरियाहिं ॥ १ गा०२शा जेणेच हि संजाया खलु गट्टा भधीय पज्जाया । ते होंति असटभूदा पज्जाया पाणपश्चरखा ॥ १ गा० ३८|| जं तालियमिदरं जापादि जुगवं समंतो सव्यं । अस्थं विचित्तविसमणाणं खाइयं भणियं ।। प्रवचन सार गा ४७ ॥ इत्यादि
१- देखो प्रवचनसार भ०१मा०५७, २८, ३६ ।