Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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रलकरण्वश्रावकाचार दूसरी बात यह भी यहां विचारणीय है कि निधृतकलिसात्मा का अर्थ यहां वीतरागता करना चाहिये अथवा निदोषता ? प्रश्न यह होसकता है कि वीतरामता और निदोपतामें क्या अंतर है ? उत्तर सहज है कि मोहकर्म के अभावसे चीतरागता और सम्पूर्ण दोषोंके न रहने पर निर्दोषता हुआ करती हैं । दोष १८ गिनाये १ है | वे मोहकमसे हो सम्बन्ध नहीं रखते। उनका सम्बन्ध पाठों ही कर्मों से है । इस विषय का खुलासा आगे चलकर किया जायगा । फिर भी संक्षेपमें इतना समझ लेना चाहिये कि वीतरागता और निर्दोषतामे विषम व्याप्ति है न कि समध्याप्ति । अर्थात् जहां जहां वीतरागता है यहां वहां निदोषता भी हो यह नियम नहीं है परन्तु जहां निर्दोषता है वहां वीतरागता अवश्य रहा करती है। क्योंकि श्राश्वर्य आदि दोषों के कारणभूत शानावरुणादि का जहां तक उदय बना हुआ है यहां तक वास्तबमें धीतरागताके रहते हुए भी निदोपता नहीं कही जा सकती परन्तु यह बात सत्य है कि बीतरामताके होजाने पर ही निर्दोषता इया करती हैं। आगममें जिनेंद्र भगवान को ही १८ दोषों से रहित बताया है कि छयस्थ तीजमोह को । इस परसे वीतरागता और निर्दोषता में क्या अंतर हैं सो समझमें आसकता है। परन्तु यह विचारणीय है कि यहां पर निर्धत कलिलात्मतासं क्या अभिप्राय लेना अधिक संगत
और उचित प्रतीत होता है । उसका अर्थ वीतरागक्षा करना अधिक उचित है अथवा निर्दोषता ? इसका बिचार भी करना चाहिये ।
पाठक महानुभाव ध्यान दें कि ग्रन्थकारने आगे चलकर कारिका नं०५ में यहा जिसको नमस्कार किया उसीका स्वरूप बताया है। उसमें "नितिफलिशात्मा" के स्थान पर "उच्छिमदोष" शब्द का प्रयोग किया है । मतलब स्पष्ट है कि नमस्य प्राप्त का स्वरूप बताते हुए यहां जिस अर्थमें निधूतकलिलामा शब्द का प्रयोग किया है उसी अर्थ में वहां पर चलकर उच्छिन्नदोष या उत्सन्न दोषर शब्द का प्रयोग किया है इससे मालूम होजाता है कि अन्धकार को नि तकलिलात्मा कहने से वीतरागता बताने का नहीं किन्तु निर्दोषता दिखानेका अभिप्राय अभीष्ट है। और यह ठीक भी ह क्योंकि निदोष कहनसे तो वीचरागता अर्थ भी सम्मिलित हो ही जाता है । परन्तु यदि वीतरामता मात्र ही यदि अर्थ लिया जाय तो निदोषता का अर्थ नियमित रूपसे उसमें गर्मित होगया ऐसा नहीं कहा जासकता। अतएव निधुतकलिलात्माका अर्थ निर्दोषतारूप व्यापक धर्म से युक्त करना ही अधिक सुसंगत और उचित प्रतीत होता है। क्याकि इस विषय में ऊपर भी लिखा जा चुकी है अतएव इस विषय को दुहराने की आवश्यकता नहीं है यह बात स्वयं समझी जासकती है कि चारतव में वीतरागलका सम्बन्ध जबकि कंबल मोहनीय कर्मके अभावसे और निर्दोषता का सम्बन्ध सम्पूर्ण वातिककर्मों के निमूल होजाने के साथ साथ अन्य असाता वेदनीय आदि पापकर्मो के अपना अपना कार्य करने में असमर्थ होजाने से
१-चुसिपामा आदि कारिकाके व्याख्यान में।२-कहीं जाच्छन्न दोषेण और कहीं उत्सन्न दोषेण' दोनो ही तरह का पाठ पाया जाता है।