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प्रस्तावना पएणत्तोका यह अंश यदि वीरसेनस्वामीके सामने मौजूद होता तो "वे इसका प्रमाणरूपसे उल्लेख नहीं करते यह कभी संभव नहीं था। चूंकि वीरसेनने तिलोयपण्णत्तीकी उक्तगाथाएँ अथवा दूसरा अंश धवलामें अपने विचारके अवसर पर प्रमाणरूपसे उपस्थित नहीं किया अतः उनके सामने जो तिलोयपएणती थी और जिसके अनेक प्रमाण उन्होंने धवलामे उद्धृत किये हैं वह वर्तमान तिलोयपएणत्ती नहीं थी इससे भिन्न दूसरी ही तिलोयपण्णत्ती होनी चाहिये, यह निश्चित होता है।
(२) “तिलोयपण्णत्तीमें पहले अधिकारको ७ वी गाथासे लेकर ८७ वी गाथा तक ८१ गाथाओंमे मगल आदि छह अधिकारोंका वर्णन है । यह पूराका पूरा वर्णन संतपरूवणाको धवलाटीकामे आये हुए वर्णनसे मिलता हुआ है।। ये छह अधिकार तिलोयपएणत्तीमे अन्यत्रसे सग्रह किये गये हैं इस बातका उल्लेख स्वयं तिलोयपण्णत्तीकारने पहले अधिकारकी ८५ वीं गाथा 'मे किया है तथा धवलामें इन छह अधिकारोका वर्णन करते समय जितनी गाथा या श्लोक उद्धृत किये गये हैं वे सब अन्यत्रसे लिये गये हैं तिलोयपएणत्तीसे नहीं, इससे मालूम होता है कि तिलोयपएणत्तिकारके सामने धवला अवश्य रही है।
(दोनों ग्रन्थोंके कुल समान उद्धरणोंके अनन्तर) "इसी प्रकार के पचासों उद्धरण दिये जा सकते हैं जिनसे यह जाना जा सकता है कि एक ग्रन्थ लिखते समय दूसरा ग्रथ अवश्य सामने रहा है । यहाँ पाठक एक विशेषता और देखेंगे कि धवलामे जो गाथा या श्लोक अन्यत्रसे उद्धृत हैं तिलोयपएणत्तिमे वे भी मूलमें शामिल कर लिये गए हैं । इससे तो यही ज्ञात होता है कि तिलोयपण्णत्ति लिखते समय लेखकके सामने धवला अवश्य रही है।"
(३) " 'ज्ञानं प्रमाणमात्मादेः' इत्यादि श्लोक इन (भट्टाकलंकदेव) की मौलिक कृति है जो लघीयस्त्रयके छठे अध्यायमे आया है । तिलोयपएणत्तिकारने इसे भी नहीं छोड़ा । लघीयस्त्रयमे जहाँ यह श्लोक आया है वहाँसे इसके अलग करदेने पर प्रकरण ही अधूरा रह जाता है। पर तिलोयपएणत्तिमे इसके परिवर्तित रूपकी स्थिति ऐसे स्थल पर है कि यदि वहाँसे उसे अलग भी कर दिया जाय तो भी प्रकरणकी एकरूपता बनी रहती है। वीरसेन स्वामीने धवलामे उक्त श्लोकको उद्घृत किया है । तिलोयपएणत्तिको देखनेसे ऐसा मालूम होता है कि तिलोयपएणत्तिकारने इसे लघीयस्त्रयसे न लेकर धवलासे ही लिया है, क्योंकि धवलामे इसके साथ जो एक दूसरा शोक उद्धृत है उसे भी उसी क्रमसे तिलोयपएणत्तिकारने अपना लिया है। इससे भी यही प्रतात होता है कि तिलोयपएणत्तिकी रचना धवलाके बाद हुई है ।"
___(४) "धवला द्रव्यप्रमाणानुयोगद्वारके पृष्ठ ३६ मे तिलोयपएणत्तिका एक गाथांश उद्घृत किया है जो निम्न प्रकार है
'दुगुणदुगुणो दुवग्गो णिरंतरो तिरियलोगो' त्ति । वर्तमान तिलोयपएणत्तिमे इसकी पर्याप्त खोज की, किन्तु उसमे यह नहीं मिला । हॉ, इस प्रकारकी एक गाथा स्पर्शानुयोगमें वीरसेन स्वामीने अवश्य उघृत की है, जो इस प्रकार है:
'चंदाइच्चगहेहिं चेवं णक्खत्तताररुवेहिं ।
दुगुण दुगुणेहि णीरंतरेहि दुवग्गो तिरियलोगो॥' १ "मंगलपहुदिछक्कं वक्खाणिय विविहगंयजुत्तीहि ।”