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पुरातन-जैनवाक्य-सूची वचनोंके सामान्य और विशेपरूप प्रस्तारके मूलप्रतिपादक ये ही दो नय है-शेष सब नय इन्हींके विकल्प है, उन्हीं के भेद-प्रभेदों तथा विपयका अच्छा सुन्दर विवेचन और संसूचन किया गया है। दूसरे काण्डको उन प्रतियोंमें 'जीवकाण्ड' बतलाया है-लिखा है “जीवकंडयं सम्मत्तं"। पं० सुखलालजी और पं० वेचरदासजीकी रायमे यह नामकरण ठीक नहीं है, इसके स्थानपर, 'ज्ञानकाण्ड' या 'उपयोगकाण्ड' नाम होना चाहिये; क्योंकि इस काण्डमें; उनके कथनानुसार, जीवतत्त्वकी चर्चा ही नहीं है-पूर्ण तथा मुख्य चर्चा ज्ञानकी है । यह ठीक है कि इस काण्डमे ज्ञानकी चर्चा एक प्रकारसे मुख्य है परन्तु वह दर्शनकी चर्चाको भी साथमे लिये हुए है-उतीसे चचांका प्रारंभ है-और ज्ञान-दर्शन दोनो जीवद्रव्यकी पर्याय है, जीवद्रव्यसे भिन्न उनकी कहीं कोई सत्ता नहीं, और इसलिये उनकी चर्चाको जीवद्रव्य "की ही चर्चा कहा जा सकता है। फिर भी ऐसा नहीं है कि इसमें प्रकटरूपसे जीवतत्त्वकी कोई चर्चा ही न हो-दूसरी गाथामे 'दव्वटिश्रो वि होऊण दंसणे पज्जवडिओ होई' इत्यादिरूपसे जीवद्रव्यका कथन किया गया है, जिसे पं० सुखलालजी आदिने भी अपने अनुवादमे 'श्रात्मा दर्शन वखते” इत्यादिरूपसे स्वीकार किया है। अनेक गाथाओं में कथन-सम्बन्धको लिये हुए सर्वज्ञ, केवली, अर्हन्त तथा जिन जैसे अर्थपदोंका भी प्रयोग है जो जीवके ही विशेष है । और अन्तकी 'जीवो अणाइणिहणो' से प्रारंभ होकर 'अण्णे वि य जीवपज्जाया' पर समाप्त होनेवाली सात गाथाओं मे तो जीवका स्पष्ट ही नामोल्लेखपूर्वक कथन है-वही चर्चाका विषय बना हुआ है। ऐसी स्थितिमे यह कहना समुचित प्रतीत नहीं होता कि 'इस काण्डमे जीवतत्त्वकी चर्चा ही नहीं है और न 'जीवकाण्ड' इस नामकरणको सर्वथा अनुचित अथवा अयथार्थ ही कहा जा सकता है। कितने ही ग्रंथोंमे ऐसी परिपाटी देखनेमे आती है कि पर्व तथा अधिकारादिके अन्तमे जो विपय चर्चित होता है उसीपरसे उस पर्वादिकका नामकरण किया जाता है। इस दृष्टिसे भी काण्डके अन्तमे चर्चित जीवद्रव्यकी चोंके कारण उसे 'जीवकाण्ड' कहना अनुचित नहीं कहा जा सकता। अब रही तीसरे काण्डकी बात, उसे कोई नाम दिया हुआ नहीं मिलता। जिस किसाने दो काण्डोंका नामकरण किया है उसने तीसरे काण्डका भी नामकरण जरूर किया होगा, सभव है खोज करते हुए किसी प्राचीन प्रतिपरसे वह उपलब्ध हो जाए । डाक्टर पी० एल० वैद्य एम० ए० ने, न्यायावतारको प्रस्तावना (Introduction) मे, इस काण्डका नाम असंदिग्धरूपसे 'अनेकान्तवादकाण्ड' प्रकट किया है। मालूम नहीं यह नाम उन्हें किस प्रति परसे उपलब्ध हुआ है। काण्डके अन्तमे चर्चित विपयादिककी दृष्टिसे यह नाम भी ठीक हो सकता है। यह काण्ड अनेकान्तदृष्टिको लेकर अधिकाँशमे सामान्य-विशेषरूपसे अर्थकी प्ररूपणा और विवेचनाको लिये हुए है, और इसलिये इसका नाम 'सामान्य-विशेषकाण्ड' अथवा 'द्रव्य-पर्याय-काण्ड' जैसा भी कोई हो सकता है। पं० सुखनालजी और पं० बेचरदासजीने इसे 'ज्ञेय-काण्ड' सूचित किया है,जो पूर्वकाण्डको 'ज्ञानकाण्ड' नाम देने और दोनों काण्डोंके नामोंमे श्रीकुन्दकुन्दाचार्य-प्रणीत प्रवचनसारके ज्ञान ज्ञयाधिकारनामोंके साथ समानता लानेकी दृष्टिसे सम्बद्ध जान पड़ता है।
इस ग्रंथकी गाथा-संख्या ५४, ५३, ७० के क्रमसे कुल १६७ है। परन्तु पं० सुखलालजी और प० वेचरदासजो उसे अव १६६ मानते हैं। क्योंकि तीसरे काण्डमे अन्तिम गाथाके पूर्व जो निम्न गाथा लिखित तथा मुद्रित मूलप्रतियों में पाई जाती है उसे वे इसलिये बादको प्रक्षिप्त हुई समझते हैं कि उसपर अभयदेवसूरिकी टीका नहीं है:,तित्ययर-वयण-सगह-विसेस-पत्यारमूलवागरणी । दवष्टियो य पजवणो य सेसा वियप्पाति ॥ ३॥ - जैसे जिनसेनकृत हरिवंशपुराण के तृतीय सर्गका नाम 'श्रेणिकप्रश्नवर्णन', जब कि प्रश्न के पूर्व में वीरके
विहारादिका और तत्त्वोपदेशका कितना ही विशेष वर्णन है ।