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पुरातन-जैनवाक्य-सूची कोई दूसरा मार्ग न चुना हो । सम्भवतः अपने साथ किये गये ऐसे किसी दुर्व्यवहारके कारण ही उन्होंने पुराणपन्थियो अथवा पुरातनप्रेमी एकान्तियोंकी (द्वा० ६में) कड़ी आलोचनाएँ की हैं।)
यह भी हो सकता है कि एक सम्प्रदायने दूसरे सम्प्रदायकी इस उज्जयिनीवाली घटनाको अपने सिद्धसेनके लिये अपनाया हो अथवा यह घटना मूलतः कॉची या काशीमें घटित होनेवाली समन्तभद्रकी घटनाको ही एक प्रकारसे कापी हो और इसके द्वारा सिद्धसेनको भी उसप्रकारका प्रभावक ख्यापित करना अभीष्ट रहा हो । कुछ भी हो, उक्त द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता सिद्धसेन अपने उदार विचार एव प्रभावादिके कारण दोनों सम्प्रदायोंमें समानरूपसे माने जाते हैं- चाहे वे किसी भी सम्प्रदायमे पहले अथवा पीछे दीक्षित क्यों न हुए हों।
___ परन्तु न्यायावतारके कर्ता सिद्धसेनकी दिगम्बर सम्प्रदायमे वैसी कोई खास मान्यता मालूम नहीं होती और न उस ग्रन्थपर दिगम्बरोंकी किसी खास टीका-टिप्पणका ही पता चलता है, इसीसे वे प्रायः श्वेताम्बर जान पड़ते हैं। श्वेताम्बरोके अनेक टीका-टिप्पण भी न्यायावतारपर उपलब्ध होते हैं-उसके 'प्रमाण स्वपराभासि' इत्यादि प्रथम श्लोकको लेकर तो विक्रमकी ११वीं शताब्दीके विद्वान् जिनेश्वरसूरिने उसपर 'प्रमालक्ष्म' नामका एक सटीक वार्तिक ही रच डाला है, जिसके अन्तमें उसके रचनेमें प्रवृत्त होनेका कारण उन दुर्जनवाक्योंको बतलाया है जिनमें यह कहा गया है कि इन 'श्वेताम्बरोंके शब्दलक्षण और प्रमाणलक्षणविषयक कोई ग्रन्थ अपने नहीं हैं, ये परलक्षणोपजीवी है-बौद्ध तथा दिगम्बरादि ग्रन्थोंसे अपना निर्वाह करनेवाले है अतः ये आदिसे नहीं-किसी निमित्तसे नये ही पैदा हुए अर्वाचीन है। साथ ही यह भी बतलाया है कि 'हरिभद्र, मल्लवादी और अमयदेवसूरि-जैसे महान् आचार्योके द्वारा इन विषयोकी उपेक्षा किये जानेपर भी हमने उक्त कारणसे यह 'प्रमालक्ष्म' नामका ग्रन्थ वार्तिकरूपमे अपने पूर्वाचार्यका गौरव प्रदर्शित करनेके लिये (टोका'पूर्वाचार्यगौरव-दर्शनार्थ") रचा है और (हमारे भाई) बुद्धिसागराचार्यने संस्कृत-प्राकृत शब्दोकी सिद्धिके लिये पद्योमे व्याकरण ग्रन्थकी रचना की है।)
इस तरह सन्मतिसूत्रके कर्ता सिद्धसेन दिगम्बर और न्यायावतारके कर्ता सिद्धसेन श्वेताम्बर जाने जाते हैं। द्वात्रिंशिकाओंमेंसे कुछके कर्ता सिद्धसेन दिगम्बर और कुछके कता श्वेताम्बर जान पड़ते हैं और वे उक्त दोनों सिद्धसेनोसे भिन्न पूर्ववर्ती तथा उत्तरवर्ती अथवा उनसे अभिन्न भी हो सकते है। ऐसा मालूम होता है कि उज्जयिनीकी उस घटनाके साथ जिन सिद्धसेनका सम्बन्ध बतलाया जाता है उन्होने सबसे पहले कुछ द्वात्रिंशिकाओंकी रचना की है, उनके बाद दूसरे सिद्धसेनोने भी कुछ द्वात्रिंशिकाएँ रची हैं और वे सब रचयिताओके नामसाम्यके कारण परस्परमें मिलजुल गई हैं, अतः उपलब्ध द्वात्रिशिकाओंमें यह निश्चय करना कि कौन-सी द्वात्रिंशिका किस सिद्धसेनकी कृति है विशेष अनुसन्धानसे सम्बन्ध रखता है। साधारणतौरपर उपयोग-द्वयके युगपद्वादादिकी दृष्टिसे, जिसे पीछे स्पष्ट किया जा चुका है। प्रथमादि पॉच द्वात्रिंशिकाओको दिगम्बर सिद्धसेनकी, १९वी तथा २१वी द्वानिाशकार श्वेताम्बर सिद्धसेनकी और शेष द्वात्रिशिकाओको दोनोमेंसे किसी भी सम्प्रदायक सिद्धसनका अथवा दोनो ही सम्प्रदायोके सिद्धसेनोंकी अलग अलग कृति कहा जा सकता है। यहा इन विभिन्न सिद्धसेनोके सम्प्रदाय-विषयक विवेचनका सार है।
१ देखो, वार्तिक नं०४०१से ४०५ और उनकी टीका अथवा जैनहितैषी भाग १३ अङ्क प्रकाशित मुनि जिनविजयजीका 'मालक्षण' नामक लेख ।