Book Title: Puratan Jain Vakya Suchi 01
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4431 VIR-SEWA MANDIR GRANTHMALA PURATANA-JAINVAKYA-SUCHI PART I DIGAMBAR JAIN PRAKRITA-PADYANUKRAMANI ( An alphabetical index of Verses from Digambar Jain works in Prakrita) Compiled and Edited BY OR JUGAL KISHORE MUKHTAR 'YUGVIR' ADHISHTHATA VIR-SEWA-MANDIR FIRST EDITION WITH A Foreword by Dr. Kalidas Nag, M. A, D. Litt and an Introduction by Dr. A. N. Upadhye, M. A, D. Litt. Assistant Editors Pandit Darbarilal Jain Kothia, Nyayacharya Pandit Parmanand Jain, Shastri, Publishers VIR-SEWA-MANDIR SARSAWA, District SAHARANPUR (U. P) Beata fa-ccia નચપુર 1 1950 Price Rs. 15/-/ HARISH CHANDRA THOLIA Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थानुकूम १ प्रकाशकीय वक्तव्य २ धन्यवाद ३ वाक्य सूचीके श्रावारभूत मूल ग्रन्थ ४. तृतीय परिशिष्ट के यावारभूत टीकादि ग्रन्थ ५. ग्रन्थ-संकेत-सूची ६ Foreword ७ Introduction ८ प्रस्तावना - १ ग्रन्थकी योजना और उसकी उपयोगिता २ ग्रन्थका कुछ विशेष परिचय ३ प्राकृतमे वर्ण-विकार ४ ग्रन्थ और ग्रन्यकार सक्षेप - विस्तार से प्रायः विवेचनात्मक परिचय ) ५ उपहार और ग्राभार ६४ ग्रन्या और उनके रचियता याचायों आदिका ६ प्रस्तावनाका सशोधन १०. प्रस्तावनाकी नाम -सूची ११ पुरातन जैन वाक्य-सूची ( दि० जैनप्राकृतपद्यानुक्रमणी ) १२. परिशिष्ट १ वाक्य सूचीमे छपने से छूटे हुए वाक्य २ पट्खण्डागम-गाथासूत्र-सूत्री ३ टीकादिप्रत्योंमे उपलब्ध अन्य प्राकृत पद्योंकी सूची ४ चवला - जयधवला के मगलादिपद्योंकी सूची ५. शुद्धि पत्र ५. is w ८ ११ १३ १-२ १-४ ५-१६६ ५. ८ १० ११- १६८ १६६ १७० १७१-१७६ १-३०८ ३०६-३२४ ३०६ ३१० ३११ ३२१ ३२३ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय वक्तव्य इस 'पुरातन-जैन-वाक्य-सूची' को प्रेसकी हवा खाते-खाते छह वर्षसे ऊपर समय वीत गया । सन् १९४३ मे जब यह अथ श्रीवास्तव-प्रेसमें छपनेको दिया गया तब इसके ३-४ महीनेमे ही छपकर प्रकाशित होजानेकी आशा की गई थी और तदनुसार 'अनेकान्त' मासिकमे सूचना भी करदी गई थी, परन्तु प्रेसने अपने वचनों एवं आश्वासनोंके विरुद्ध कुछ ही समय बाद इतना मन्दगतिसे काम किया और कभी-कभी सप्ताहोतक छपाईका काम बन्द भी कर दिया कि उससे प्रस्तावनादि लिखनेका जो उत्साह था वह सब मन्द पड गया । और इसलिये कोई एक वर्ष बाद जब प्रथके छपनेकी सूचना अनेकान्त' मे निकाली गई तब यह लिखना पडा कि प्रयकी प्रस्तावना और कुछ परिशिष्टोंका छपना आदि कार्य अभी बाकी है। उस समय यह सोचा गया था कि अवशिष्ट कार्य प्रायः दो महीनेमें पूरा होकर प्रथ अब जल्दी ही प्रकाशमें आजाएगा और इसीसे ग्रथका मूल्य निर्धारित करके उसके ग्राहक बननेकी भी प्रेरणा करदी ।ई थी, जिसके फलस्वरूप कितने ही ग्राहकोके नाम दर्जरजिस्टर हुए और कुछसे मूल्य भी प्राप्त होगया। इधर परिशिष्टोंका निर्माण होकर छपनेका कुछ कार्य प्रारम्भ हुआ और उधर सरकारकी तरफसे कागजके कंट्रोल आदिका आर्डर जारी होकर ग्रन्योंके छपनेपर खासा प्रतिबन्ध लगा दिया गया। उस समय अपना कितना ही काराज ग्रयोंकी छपाई के लिए देहलीके एक प्रेसमें रक्खा हुआ था, जब सरकारको पोरसे यह स्पष्ट होगया कि जिन ग्रंथोंके आर्डर प्रेसोको पहलेसे दिये हुए हैं उनपर उक्त कट्रोल आर्डर लागू नहीं होगा-वे कागजके उपयोगसन्बन्धी कोटेका कोई खयाल न रखते हुए भी अवधिके भीतर छपाये जा सकेंगे, तब यही मुनासिब और पहला काम समझा गया कि उस कागजपर अपने उन ग्रंथोंको छपालिया जाय जिनके लिये वह कागज़ रिजर्व रक्खा हुआ है । तदनुसार इधरका काम छोड देहली जाकर उन ग्रन्थों में जो कार्य शेष था उसे यथासाध्य प्रस्तावनादि के साथ पूरा करते हुए उनका छपाना प्रारम्भ किया गया, जिसमें १।। सालके करीब समय निकल गया । इसी बीचमे वीर-शासन जयन्ती-सम्बन्धी राजगृह तथा कलकत्तेके महोत्सव भी हो गये, जिनमें भी शक्तिका कितना ही व्यय करना पड़ा है। ___ इसके सिवाय 'अनेकान्त' पत्रको बरावर चालू रक्खा गया है और उसमें समयकी आवश्यकता तथा उपयोगिताको ध्यानमें रखते हुए कितने ही महत्वके आवश्यक लेखोको समयपर लिखने तथा लिखानेमे प्रवृत्त होना पड़ा है। दूसरे, स्वास्थ्यने भी ठीक साथ नहीं दिया, वह अनेक वार गडबडमें ही चलता रहा है और कभी-कभी तो किसी दुःस्वप्नादिके कारण ऐसा भी महसूस होने लगा था कि शायद जीवन अब जल्दी ही समाप्त होजाय और इससे तदनुरूप कुछ चिन्ताओंने भी आ घेरा था। तीसरे, स्याद्वादमहाविद्यालय काशीके प्रधान अध्यापक पं० श्री कैलाशचन्दजी शास्त्रीकी तथा और भी कुछ विद्वानोंकी ऐसी इच्छा जान पड़ी कि यदि प्रस्तावनामें इन प्राकृत ग्रथों और इनके रचयिताओका कुछ परिचय मुख्तार सा० की (मेरी) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 पुरातन जैन चास्य सूची लेखनी से लिखा जाय तो वह साहित्य और इतिहासकी एक खास चीज होगी, परन्तु उसके लिखने योग्य चित्तकी स्थिरता और निराकुलतामें बराबर बाबा पडती रही, सस्थाके प्रबन्धादिककी चिन्ताएँ भी सताती रही और मोहवश लिखनेके उस विचार‌को छोडा भी नहीं जा सका । इस तरह अथवा इन्हीं सब कारणो के वश प्रस्तावनाका मेरे द्वारा लिखा जाना बराबर टलता रहा, फलतः ग्रन्थका प्रकाशन भी टलता रहा और इससे ग्रन्थावलोकनके लिये उत्सुक विद्वानोकी इच्छा में बराबर व्याघात पडता रहा और उन लोगोको तो बहुत ही बुरा मालूम हुआ जिन्होने ग्रंथके शीघ्र प्रकाशित होनेकी सूचना पाकर मूल्य पेशगी भेज दिया। उनमें से कुछ के धैर्यका तो बांध ही टूट गया और उन्होने सख्त ताकीदी पत्र लिखे, उलहने तथा आरोपोंके रूपमें अपना रोप व्यक्त किया और दो-एक ने अपना मूल्य भी वापिस भेज देने के लिये बाध्य किया जो अन्तको उन्हें वापिस भेज दिया गया । ग्राहको के इस रोप पर मुझे जरा भी क्षोभ नहीं हुआ, क्योंकि मैं इसमे उनका कोई दोष नहीं देखता था - आखिर धैर्यकी भी कोई सीमा होती है, फिर भी मैं उनकी तत्काल इच्छापूर्ति करनेमे असमर्थ था - अपनी परिस्थितियो के कारण मजबूर था। हॉ, एक दो बार मैंने यह जरूर चाहा है कि अपनी संस्थाके विद्वानोमे से कोई विद्वान इस प्रस्तावनाको जैसे तैसे लिख दे, जिससे ग्रथ जल्दी प्रकाशित होकर झगड़ा मिटे परन्तु किसीने भी अपने को उसके लिये प्रस्तुत नहीं किया- मुझे ही उसको लिखनेकी बराबर प्ररेणा की जाती रही । डाक्टर ए० एन० उपाध्येने अपनी अग्रेजी भूमिका ( Introduction ) तो मई सन् १९४५ में ही लिख कर भेज दी थी। I आखिर अक्तूबर सन् १६४६ के अन्त मे प्रस्तावनाका लिखना प्रारम्भ हुआ । उसके प्रथम तीन प्रकरण और अन्तका पाँचवा प्रकरणतो ७ नवम्बर सन् १६४६ को ही लिखकर समाप्त हो गये थे, परन्तु 'ग्रन्थ और ग्रन्थकार' नामक चोथा महाप्रकरण कुछ और बादमें— सभवतः सन् १९४७ के शुरू में - लिखा जाना प्रारम्भ हुआ और उसे समय, स्वास्थ्य, शक्ति और परिस्थिति आदिकी जैसी कुछ अनुकूलता मिली उसके अनुसार वह वराबर लिखा जाता रहा है । जब प्रस्तावनाका अधिकांश भाग लिखा जा चुका तब उसे शुरू जनवरी सन् १९४८ को प्रेसमें दिया गया और छापकर देनेके लिये अधिकसे अधिक तीन महीनेका वादा लिया गया, परन्तु प्रेसने अपनी उसी बेढंगी चाल से चलकर प्रस्तावना के १३२ पेजोके छापनेमे ही पूरा साल गाल दिया । और आगे को अपनी कुछ परिस्थितियोंके वश छापनेसे साफ जवाब दे दिया । तब प्रस्तावना के शेष ३७ पेजोको रायल प्रिंटिंग प्रेस सहारनपुर में छपाया गया। इसके बाद दूसरी अनेक परिस्थितियोके वश अवशिष्ट छपाईका काम फिर कुछ समय के लिये टल गया और वह अन्तको देहलीके रामा प्रिटिंग प्रेस द्वारा पूरा किया गया है । इस प्रकार यह इस ग्रन्थके अतिविलम्ब अथवा आशातीत विलम्ब से प्रकाशित होने की कहानी है, जिसका प्रधान जिम्मेदार इन पंक्तियो का लेखक ही है - वह प्रस्तावनाको जल्दी लिखकर नहीं दे सका और न अन्यत्र किसी ऐसे प्रेसका प्रबन्ध ही कर रूका है जो शीघ्र छापकर दे सके, और यह एक ऐसा अपराध है जिसके लिये वह अपनेको क्षमा-याचनाका * डाक्टर ए० एन० उपाध्येजी एम० ए० कोल्हापुर प० नाथूरामजी प्रेमी बम्बई और प० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य बनारसने तो ग्रन्थ के छपे फार्मोको मॅगाकर समयपर अपनी तत्कालीन इच्छा तथा श्रावश्यकताकी पूर्ति करली थी । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय वक्तव्य • अधिकारी भी नही समझता। मेरी इस शिथिलता, अयोग्यता, अव्यवस्था अथवा परिस्थिातयों की विवशताके कारण अनेक पाठक सज्जनोको जो प्रतीक्षाजन्य कष्ट उठाना पड़ा है उसका मुझे भारी खेद है । अस्तु, प्रस्तावनाके पीछे जो भारी परिश्रम हुआ है, जो अनुसन्धान-कार्य किया गया है और उसके कितने ही लेखो-खासकर 'सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन', गोम्मटसार और नेमिचन्द्र, 'तिलोयपएणत्ती और यतिवृषभ' जैसे निबन्धो-द्वारा जो नई नई विशिष्ट खोजें प्रस्तुत की गई हैं उन सबको देखकर संभव है कि आकुलित हृदय पाठकोको सान्त्वना मिले और वे अपने उस प्रतीक्षाजन्य कष्ट का भूल जाय । यदि ऐसा हुआ तो यही मेरे लिये सन्तोपका कारण होगा। __यह ग्रन्थ क्योंकर बना और इसकी क्या उपयोगिता है. इस बातको प्रस्तावनामें भले प्रकार व्यक्त किया गया है। यहाँ पर मैं सिर्फ इतना ही बतलादेना चाहता हूँ कि इस प्रथके निर्माण और प्रकाशनका प्रधान लक्ष्य रिसर्च स्कॉलरो-शोध-खोसके विद्वानोको उनके कार्यमे सहायता पहुँचाना रहा है। ऐसे विद्वान कम है, इसलिये ग्रंथकी कुल ३०० प्रतिया ही छपाई गई है, कागज़की महंगाई और उसकी यथेष्ठ प्राप्तिका न होना भी प्रतियोके कम छपानेमे एक कारण रहा है। प्रन्थकी प्रस्तावनाको जो रूप प्राप्त हुआ है यदि पहलेसे वह रूप देना इष्ट होता तो प्रन्थकी प्रतिया हजार भी छपाई जाती तो वे अधिक न पडती, क्योकि प्रस्तावना अब सभी साहित्य तथा इतिहासके प्रेमियोकी रुचिका विषय बन गई है। परन्तु जो हुआ सो हो गया, उसकी चिन्ता अव व्यर्थ है। हॉ, प्रतियोंकी इस कमीके कारण ग्रन्थका जो भी मूल्य रक्खा गया है वह लागतसे बहुत कम है। पहले इस सजिल्द ग्रन्थका मूल्य १२) रु० रक्खा गया था और यह घोषणा की गई थी कि जो ग्राहक महाशय मूल्य के १२) रु. पेशगी भेज देंगे उन्हें उतनेमें ही ग्रन्थ घर वैठे पहुंचा दिया जायगा-पोष्टेज खर्च देना नहीं पडेगा । परन्तु इधर प्रस्तावना धारणासे अधिक बढ़ गई और उधर प्रस्तावनादिकी छपाईका चार्ज प्रायः दुगुना देना पड़ा । साथ ही कागजकी जो कमी पडी उसे अधिक दामोमे कागज खरीदकर पूरा किया गया । इसलिये प्रन्थका मूल्य अब तैयारी पर लागतसे कम १५) रु० रक्खा गया है, फिर भी जिन ग्राहकोसे १२) रु० मूल्य पेशगी आचुका है उन्हें उसी मूल्यमे अपना पोष्टेज लगाकर ग्रंथ भेजा जायगा। शेषको पोण्टेजके अलावा १५) रु. में ही दिया जायगा और उनमे उन ग्राहकोंको प्रधानता दी जायगी जिनके नाम पहलेसे ग्राहकश्रेणीमें दर्ज हो चुके हैं। अन्तमें मैं संस्थाकी ओरसे डा० ए० एन० उपाध्ये एम० ए० का उनके Introduction के लिये और डा० कालीदास नाग एम० ए० का उनके Foreword के लिये भारी आभार व्यक्त करता हुआ विराम लेता हूं। जुगलकिशोर मुख्तार अधिष्ठाता वीरसेवामन्दिर Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धन्यवाद इस ग्रन्थके निर्माण कार्य और प्रकाशनमें श्रीमान् साह शान्तिप्रसादजी जैन डालमियानगर (बिहार) और उनकी धर्मपत्नी श्रीमती रमाराणीजी जैनका आर्थिक सहयोग रहा है । अतः इस सत्सहयोगके लिये आप दोनोंको हार्दिक धन्यवाद समर्पित है। जुगलकिशोर मुस्तार Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्य-सूची के आधारभूत मूल ग्रन्थ ग्रन्थ-नाम अग पणती (अगप्रज्ञमि ) आइ (य) रियभत्ती (आचार्यभक्ति) आयाण तिलय (आयज्ञान तिलक) राहणासार (आराधनासार) आसवतिभागी ( श्रस्रवत्रिभगी ) कत्तिकेय अणुपेक्खा (कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा) कम्मपयडी (कर्मप्रकृति ) ~ कल्लाणालोयणा ( कल्याणालोचना) कसायपाहुड (कषायप्राभत) गोम्मटसार-कम्मकड (गोम्मट - कर्मकाड) गोम्मटसार - जीवकड (गोम्मट - जीवकाड) चारित्त पाहुड ( चारित्रप्राभूत) चारित्तभत्ती (चारित्र भक्ति) छक्खडागम (षड्खडागम) छेदपिंड - छेदसत्य (छेदशास्त्र) जंबूदीवपरणती ( जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति) जोगसार ( योगसार) जोगिभत्ती (योगिभक्ति) ढाढसीगाहा (ढाढसीगाथा ) चक्क (नयचक्र) गदी (नन्दि) संघ - पट्टावली सार (ज्ञानसार ) रियप्पाट्र्य (निजात्म|ष्टक) शियमसार (नियमसार ) व्विाणभत्ती (निर्वाणभक्ति) चुसार (तत्त्वसार) तिलोय पण्णत्ती (त्रिलोकप्रज्ञप्नि ) तिलोयमार (त्रिलोकसार) थोरसामि थुदि (तीर्थङ्कर-स्तुति) <--0: ग्रन्थकार-नाम शुभचन्द्र (विजयकीर्त्ति - शिष्य) कुन्कुन्दाचार्य भट्टवोसरि देवसे श्रतमुनि स्वामीकार्तिकेय (कुमार) नेमिचन्द्र ब्रह्म श्रजित गुणधराचार्य नेमिचन्द्र सिद्वातचक्रवर्ती 33 कुन्दकुन्दाचार्य " 33 पुष्पदन्त, भूतबलि इन्द्रनन्दियीगीन्द्र X पद्मनन्दी योगीन्दुदेव कुन्दकुन्दाचार्य X देवसेन X पद्मसिंहमुनि य कुन्दकुन्ाचार्य 35 यतिबृषभाचार्य नेमिचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्ती X प्रस्तावना- पृष्ठ (परिचयार्थ ) ११ १६ १०१ ६१ १११ २२ ६४ ११२ १६ ६८ ६८ १४ १६ २० १०५ १०६ ६४ ५८ १६ १०४ ६१ ११५ हट - १३ १६ ६१ २७ ह १७ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुगतनजनवाक्य सूची ग्रन्थ नाम ग्रन्थकारनाम प्रस्तावना-पृष्ट (परिचयार्थ) ५७ ११२ " ११६ १४ शिवाय . . ११० १४ दवसहावपयास णयचक्क (द्रव्यस्वभावप्रकाश नयचक्र) माइल्लधवल दवसंगह (द्रव्यसंग्रह) नेमिचन्द्र दसणपाहुड (दर्शनप्राभृत) कुन्दकुन्दाचार्य 'दसणसार (दर्शनसार) देवसेन धम्मरमायण (धर्मरसायन) पानन्दिमुनि परमप्पयास (परमात्मप्रकाश) योगीन्दुदेव -- परमागमसार अतमुनि पवयणसार (प्रवचनसार) कुन्दकुन्दाचार्य पचगुरुभत्ती (पञ्चगुरुभक्ति) पंचत्यिपाहुड (पंचास्तिकाय) पचसगह (पञ्चमंग्रह) (अज्ञान पुरातनाचार्य) पाहुडदाहा (प्रामतदाहा) मुनिरामसिह बारसअनुपेक्खा (द्वादशानुपेक्षा) कुन्दकुन्दाखार्य योधपाहुड (वोधप्राभृत) भगवदी आराहणा (भगवती आगवना) भावतिभगी (भावविभगी) श्रुतमुनि भावपाहुड (भावप्राभूत) कुन्दकुन्दाचार्य भावसंगह (भावसंग्रह) देवसेन मृलाचार वट्टकेराचार्य माक्खपाहुड (पोक्षप्राभत) कुन्दकुन्दाचार्य रयणसार (रत्नसार) /ग्ट्रिसमुच्चय (रिष्ठसमुञ्चय) दुर्गदेव लद्धिसार (लब्धिसार) नेभिचन्द्र सिद्वान्तचक्रवर्ती लिगपाहुड (लिगप्राभत) कुन्दकुन्दाचार्य वसुणंदि-सावयायार (वसुनन्दिनावकाचार) - वसुनन्दिसैद्धान्तिक समयपाहुड (समयसार) कुन्दकुन्दाचार्य सम्मइसुत्त (सन्मतिसूत्र) सिद्वसेनाचार्य सावयधम्मदोहा (श्रावकधर्मदोहा) सिद्वभत्ती (सिद्धभक्ति) कुन्दकुन्दाचार्य “सिद्धतसार (सिद्धान्तसार) - जिनेन्द्राचार्य सीलपाहुड (शीलप्राभृत) कन्दकुन्दाचार्य सुत्तपाहुड (सूत्रप्राभृत) सुदखंध (श्रुतस्कन्ध) ब्रह्म-हेमचन्द्र सुदभत्ती (श्रुतभक्ति) कुन्दकुन्दाचार्य सुप्पहदोहा(सुप्रभदोहा) सुप्रभाचार्य ६१ www Mum Ww ११६ x -- ११६ ११३ १०३ ११७ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय परिशिष्टके आधारभूत टीकादि ग्रन्थ अन्य-भाषा संस्कृत ग्रन्थकार-नाम पं० आशाधर वीरनन्दी रत्नकीर्ति देवसेन पं. आशाधर प. टोडरमल्ल नेमिचन्द्र (द्वितीय) हिन्दी संस्कृत नेमिचन्द्र ( द्वितीय) अभयचन्द्र ग्रन्थ-नाम अनगारधर्मामृत-टीका आचारसार आराधनासार-टीका आलापपद्धति इष्टोपदेश-टीका क्षपणासार-भाषाटीका गोम्मटसार-कर्मकाण्ड-टीका (जीवतत्वप्रदीपिका) गोम्मटसार-जीवकाण्ड-टीका (जीवतत्वप्रदीपिका) गोमटसार-जीवकाण्ड-टीका (मन्दप्रबोधिका) चारित्रप्राभृत-टीका चारित्रसार जम्बूस्वामिचरित जयधवला ( कषायप्राभृन-टीका ) तत्त्वार्थ-वार्तिक-भाष्य तत्त्वार्थ-वृत्ति (श्रुतसागरी) तत्वार्थ-वृत्ति-टिप्पण तत्त्वार्थ-श्लोकवार्तिक-भाष्य दर्शनप्राभृत-टीका द्रव्यसंग्रह-टीका द्रव्यस्वभावनयचक्र-टीका धवला (षटखण्डागम-टीका) नियमसार-टीका ( तात्पर्यवृत्ति) न्यायकुमुदचन्द्र (लघीयस्त्रय-टीका) परमात्मप्रकाश-टीका पचाध्यायी पचास्तिकाग-तत्त्वप्रदीपिका-वृत्ति पचास्तिकाय-तात्पर्यवत्ति ममेयकमलमार्तण्ड (परीक्षामुख-टीका) संस्कृत संस्कृत-प्राकृत श्रुतसागर चामुण्डराय पं० राजमल्ल वीरसेन, जिनसेन अकलङ्कदेव श्रुतसागर प्रभाचन्द्र विद्यानन्द श्रुतसागर ब्रह्मदेव (अज्ञात) वीरसेनस्वामी पद्मप्रभ (मलधारी) प्रभाचन्द्र ब्रह्मदेव पं० राजमल्ल अमृतचन्द्र जयसेन प्रभाचन्द्र संस्कृत-प्राकृत संस्कृत Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ग्रन्थ नाम प्रवचनसार-तत्त्वप्रदीपिका-वृत्ति प्रवचनसार-तात्पर्यवृत्ति / प्रायचित्त चूलिका बोधप्राभृत- टीका भावप्राभृत टीका मूलाराधना-दर्पण मैथिलीकल्याण (नाटक) मोक्षप्राभृत-टीका लब्धिसार-टीका लाटी संहिता लोकविभाग विक्रान्त-कौरव (नाटक) विजयोदया (भ० श्राराधना-टीका) समाधितन्त्र- टीका सर्वार्थसिद्धि (तत्त्वार्थवृत्ति ) सागारधर्मामृत टीका सिद्धान्तसार- टीका सिद्धिविनिश्चय-टीका सूत्रप्राभृत टीका पुरातन जैनवाक्य-सूची अन्यकार नाम 'अमृतचन्द्र जयसेन श्रीनन्दिगुरु श्रुतसागर श्रुनमागर प० आशाचर हस्तिमल्ल श्रुतमागर नेमिचन्द्र (द्वितीय) पं० राजमल्ल सिहनूर हस्मिल्ल अपराजितमूरि प्रभाचन्द्र पूज्यपाद प० आशावर ज्ञानभूषण अनन्तवीर्य श्रुतसागर थ-भाषा संस्कृत ,, 23 1 ر "" , 33 " 33 मस्कृत " RR: 39 संस्कृत Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ-संकेत-सूची --:0:-- सकेत संकेतित ग्रन्यनाम उपयुक्त ग्रन्यप्रति अणि अणिोगद्दार (अनियोगद्वार ) पटखण्डागम-सम्बन्धी अन टी अनगारर्धामृत-टोका माणिकचन्द्र दि जैन ग्रन्थमाला, अगप अगपएणत्ती(अंगप्रज्ञप्ति) माणिकचन्द दि जैन ग्रन्थमाला आचार सा. आचारसार सिद्धान्तसारादि सग्रह, मा ग्रन्थमाला श्रा प ाराप्रति-पत्र श्रारा जैनसिद्धान्तभवनकी लिखितप्रति श्रा भ आयरियभत्ती(आचार्यभक्ति) दशभक्त्यादिसंग्रह, सोलापुर प्राय ति श्रायणाणतिलय(आयज्ञानतिलक) हस्तलिखित, वीरसेवामन्दिर सरसावा पारा टी आराधनासार-टीका मणिकचन्द दि. जैन ग्रन्थमाला, बम्बई श्रारा सा आराधणासार माणिकचन्द दि जैनग्रन्थमाला, बम्बई आलाप आलापपद्धति सन्मतिसुमनमाला ओराण (गुजरात) प्रास ति आसवतिभंगी (प्रास्रवत्रिभगी) भावसंग्रहादि, माणिकचन्द ग्रन्थमाला इष्टा टी इष्टोपदेश-टीका तत्त्वानुशासनादिसंग्रह, मा० ग्रन्थमाला कत्ति अणु कत्तिकेयअणुपेक्खा जैनग्रन्थरत्नाकरकार्यालय, बम्बई (स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा) कम्मप कम्मपयडी (कर्मप्रकृति) हस्तलिखित, वीरसेवामन्दिर, सरसावा कल्लाणा कल्लाणालोयणा (कल्याणलोचना) सिद्धान्तमारादिसंग्रह. मा० ग्रन्थमाला | कसायपाहुड ( कषायप्राभृत ) हस्तलिखित जैनसिद्वान्तभवन आरा कपाया) गो क गोम्मटसार-कर्मकाड रायचन्द्र जैनशास्त्रमाला, बम्बई गो क जी. गोम्मटसार-कर्मकाड जैनसिध्दान्तप्रकाशिनी सस्था, कलकत्ता जीवतत्वप्रदीपिका टीका गो जी गोम्मटसारजीवकाड गयचन्द्रजैनशास्त्रमाला बम्बई गो जी जी गोम्मटसारजीवकाड जैनसिद्धान्तप्रकाशिनी, कलकत्ता .. जीवतत्त्वप्रदीपिका गोजीम गोम्मटसारजीवकाड-मदप्रबोधिका जैनसिद्वान्तप्रकाशिनी सस्था कलकत्ता कमाय Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - सकेतित ग्रन्यनाम छेदस. जयध. १४ पुरातन-जैनवाक्य-सूची सकेत उपयुक्र ग्रन्यप्रति चरित्त.खं.) चारित्तपा. चारित्नपाहुड ( चारित्रप्राभृत) पदप्राभृतादिसंग्रह. मा० ग्रन्थमाला चारि.पा. चारित्तपाटी चारित्तपाहुड-टीका चारि.भ. चारित्तभत्ती ( चारित्रभक्ति) दशभक्त्यादिसंग्रह, मालापुर चारित्रसा चारित्रसार माणिकचन्द्र दि जैनग्रन्थमाला, बम्बई चूलि. चूलिका जयधवला-चूलिका, हस्तलि बारा-प्रति छेदपिं. छेदपिंड प्रायश्चित्तसंग्रह,माणिकचन्द्रजैन ग्रन्थमाला छेदमत्थ(छेदशास्त्र) जयधवला हस्तलिखित, जैनसिद्धान्तभवन, आरा । जंबू च. जम्बूस्वामिचरित्र माणिकचन्द्र दि जैन ग्रन्थमाला, बम्बई जबू. । जंबूदीवपण्णत्ती(जम्बूद्वीप- हस्तलि०, पं० परमानन्द. वीरसेवामन्दिर जबू प. ) प्रज्ञप्ति) जोगसा. जोगसार ( योगसार) रायचन्द्रजैन शास्त्रमाला, बम्बई जोगिभ. जोगिभत्ती ( योगिभक्ति ) दशभक्त्यादिसंग्रह, सोलापुर ढाढसी. ढाढसीगाहा (गाथा) तत्त्वानुशासनादिसंग्रह, मा. ग्रन्थमाला रणयच. णयचक्क (नयचक्र) माणिकचन्द्र दि जैनग्रन्थमाला, बम्बई रणदी.पट्टा. णदी (नन्दि) सघपट्टावली जैनसिद्धान्तभास्कर, वर्ष किरण ३.४ णाणसा. णाणसार ( ज्ञानसार) तत्त्वानुशासनादिसंग्रह. मा० ग्रन्थमाला णियप्पा, णियप्पाठ्य (निजात्माष्टक) सिद्धान्तसारादिसंग्रह, मा० ग्रन्थमाला णियम.) णियमसा. शियमसार (नियमसार) जैनग्रन्थरलाकरकर्यालय, हीरावाग, बम्बई णियम.ता.. णियमसार-तात्पर्य धृत्ति णिव्वा.भ. णिव्वाणभत्ती(निर्वाणभक्ति) दशभक्त्यादिसंग्रह, सोलापुर तच्चसा. तच्चसार ( तत्त्वसार) तत्त्वानुशासनादिसग्रह, मा० ग्रन्थमाला तत्त्वार्थव टि. तत्त्वार्थवृत्ति-टिप्पण हस्तलिखित, वीरसेवामंदिर, सरसाना तत्त्वार्थवा. तत्त्वार्थवार्तिक जैनसिद्धान्तप्रकाशिनी संस्था, कलकत्ता तत्त्वार्थलो. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक गाँधी नाथारगजैनग्रन्थमाला, बम्बई तत्वा वृ श्रु. तत्त्वार्थवृत्ति-श्रुतसागरी हस्तलिखित वीरसेवामंदिर, सरसावा तित्थयर. तित्थयरथुदी (तीर्थंकरस्तुति ) । दशभक्त्यादिसंग्रह, सोलापुर तिलो.प. तिजोयपण्णत्ती(त्रिलोकप्रनप्ति) हस्तलिखित, मोती कटरा, आगरा तिलो.सा. तिलोयसार (त्रिलोकसार) माणिकचन्द्र दिजैनग्रन्थमाला, बम्बई Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकेत दमणपा. धम्मर प्रन्थ-संकेत सूची सकेतित ग्रन्थनाम उपयुक्तग्रन्थप्रति थोस्सा थोस्सामि ( स्तुति ) दशभक्त्यादिसग्रह, सोलापुर दव्वस टी दव्वसहावणयचक टीका माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई दवस.णय दवसहावणयचक्क माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बई दवसं. दवसंगह (दव्यसग्रह) रायचन्द्र जैनशास्त्रमाला, बम्बई दवस.टी. दवसगह-टीका रायचन्द्र-जैनशास्त्रमाला, बम्बई दसणपाहुड ( दर्शनप्राभृत ) पटप्राभृतादिसंग्रह, मा. ग्रन्थमाला दसएपा.टी दसणपाहुड-टीका दसणसा दसणलार (दर्शनसार) जैनग्रन्थ-रत्नाकर-कार्यालय, बम्बई धम्मरसायण(धर्मरसायन) सिद्धान्तसारादिसंग्रह, मा० ग्रन्थमाला धवला धवला-टीका हस्तलिखित, जैनसिद्धान्तभवन, पारा न्यायकु न्यायकुमुदचन्द्र माणिकचन्द्र दि॰जैनग्रन्थमाला बम्बई पच्छिमख पच्छिमखंध(पश्चिमस्कन्ध) जयधवलन्तर्गत, हस्तलिखित, पाराप्रति परम टी परमप्पयास-टीका रायचन्द्रजैनशास्त्रमाला, बम्बई पप परमप्पयास(परमात्मप्रकाश) रायचन्द्रजैनशास्त्रमाला, बम्बई परम प पवयण तत्त्व पवयणसार-तत्त्वप्रदीपिकावृत्ति रायचन्द्र-जैनशास्त्रमाला, बम्बई पवयण ता. पवयणसार-तात्पर्यवृत्ति पवयणसा पवयणसार (प्रवचनसार) प्रमेयक प्रमेयकमलमार्तण्ड निर्णयसागर प्रेस, बम्बई पचगु. भ पचगुरुभत्ती (भक्ति) दशभक्त्यादिसंग्रह, सोलापुर पचत्थि पत्थिपाहुड (पचास्तिकाय) रायचन्द्र-जैनशास्त्रमाला, बम्बई पचत्थि.त वृ. पचत्थिपाहुड-तत्त्वप्रटोपिकावृत्ति पचत्थि ता पचत्थिपाहुड-तात्पर्यवृत्ति पचम पचसंगह (पंचमग्रह) हस्तलि , प. परमानन्द शास्त्री.वीरसेवामंदिर पचाध्या पंचाध्यायी प. मक्खनलाल-कृत-भाषा टीका-सहित पा दो पाहु दो.. पाहुडदोहा अम्बादास चवरे दि० जैन ग्रंथमाला कारजा प्रा चू प्रायश्चित्तचूलिका प्रायश्चित्तसंग्रह, मा० दि. जैनग्रन्थमाला वा अणु. वारस अगुपेक्खा (द्वादशानुप्रेक्षा) पटनाभृतादिसंग्रह, मा० दि. जैनग्रन्थमाला बोधपा बोधपाहुड (बोधप्रामत) बोधपाटी बोधपाहुड-टीका भ आरा. भगवदी पाराह(ध)णा श्रीदेवेन्द्रकीर्ति-दि जैनग्रन्थमाला, कारजा भावति ___भावतिभंगी (भावविभगी) भावमग्रहादि मा. दि जैनग्रन्थमाला - - - Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची भावपा भावपाहुड (भावप्राभृत) पटप्राभृतादिसंग्रह, मा. दि जैन ग्रन्थमाला भावपाटी भावपाहुड-टीका पटप्राभृतादिसंग्रह, मा. दि जैनग्रन्थमाला भावस -- भावसगह (भावसग्रह) भावसंग्रहादि, मा दि जैन ग्रन्थमाला मु पृ मुद्रित पृष्ठ x x x मला मूलाचार मुनि अनन्तकीर्ति दि जैनग्रन्थमाला बम्बई मूला द मूलाराधना-दर्पण श्रीदेवेन्द्रकीर्ति दि० जैनग्रन्थमाला, कारजा मैथिली. मैथिली-कल्याण-नाटक माणिकचन्द्र दि जैन ग्रन्थमाला, बम्बई मोक्खपा मोक्खपाहुड ( मोक्षप्राभृत ) पटप्राभृतादिसंग्रह, मा दि जैन ग्रन्थमाला मोक्खपा.टी मोक्ख पाहुडीका पटप्राभृतादिसग्रह. मा. दि जैन ग्रन्थमाला रयण । रयणमार (रत्नसार पद्माभृतादिसग्रह, मा दि जैन ग्रन्थमाला रयणमा) रिटुस. रिट्ठसमुच्चय (रिष्ठसमुच्चय ) हस्तलिखित, वीरसंवामदिर सरसावा लद्वि टी लद्वि (लब्धि) सारटीका जैनसिद्धान्तप्रकाशिनीसस्था, कलकत्ता लद्धि मा. लद्धिसार ( लब्धिसार ) रायचन्द्र-जैनशास्त्रमाला, बम्बई लाटी सं लाटो सहिता माणिकचन्द्र दि जैन ग्रन्थमाला बम्बई लिंगपा लिंगपाहुड (लिगप्राभृत) पट प्राभृतादिसंग्रह, मा दि जैन ग्रन्थमाला लो वि. लोकविभाग हस्तलिखित वीरसेवामरि सरमावा वसु सा वसुनंदिसावयायार (श्रावकाचार) जैन सिद्धान्त-प्रचारक मण्डली देवनन्द वि को. विक्रान्तकौरव माणिकचन्द्र दि जैन ग्रन्थमाला वम्बई विजया विजयोदया (भ. पारावना-टीका) दवेन्द्रकीर्ति-दि जैन ग्रन्थमाला कारजा समय. समयपाहुड (समयमार ) रायचन्द्र जैनग्रन्थमाला बम्बई सम्मइ. सम्मइसुत्त ( सन्मतिमूत्र ) गुजरात-पुरातत्त्व-मन्दिर-ग्रन्थावली, समाधि टा. समाधितंत्र-टीका वीरसेवामंदिर-ग्रन्थमाला सरसावा स सि. सर्वार्थसिद्धि सखारामनेमिचन्द जनप्रन्थमाला. सोलापुर मा टी. सागारधर्मामृत-टीका माणिकचन्द्र दि जैनग्रन्थमाला बम्बई मावयदा सावयधम्मदोहा अम्बादास चवरे दि. जैनग्रथमाला कारजा मिद्धभ. सिद्धभत्ती (सिद्वभक्तिो दशभक्त्यादिसग्रह सालापुर सिद्धतटो. सिद्धत्त(सिद्धात)मार-टीका सिद्धान्तसारादिसंग्रह, मा ग्रन्थमाला सिद्धत ) सिद्धंतसार (सिद्धान्तसार) सिद्धान्तसारादि संग्रह , " सिद्वत सा सिद्धिविटा सिद्धिविनिश्चय-टीका हस्तलिखित, वीरसेवाम दिर सरसावा सीलपा सीलपाहुड (शीलप्राभृत) पट प्राभृतादिसंग्रह मा ग्रथमाला सुत्तपा सुत्तपाहुड ( मूत्रप्राभृत) पट प्रामृतादि संग्रह , " सुत्तपा टी सुत्तपाहुड-टीका षट प्राभृतादि पंग्रह, , , सुदख. सुदखध (श्रुतस्कन्ध) तत्त्वानुशासनादिसग्रह, मा ग्रन्थमाला सुदभत्ती ( श्रुतभक्ति) दशभक्त्यादि संग्रह, सोलापुर सुदभ टी. सुदभत्ति(श्रुतभक्ति) टीका सुप्प. दो. सुप्पभाइरिय(सुप्रभाचार्य)दाहा हस्तलिखित, वीरसेवामदिर सरमा सुदभ. Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची प्रस्तावना प्राकथन (FOREWORD) और भूमिका (INTRODUCTION) आदिसे युक्त । Page #18 --------------------------------------------------------------------------  Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FOREWORD . [By Dr. Kalidas Nag, M.A. (Cal.) D. Litt. (Paris), Calcutta University, Former General Secretary, Royal Asiatic Society of Bengal. ] Shri Tugal Kishore Muhlitar 18 not merely a schblar, but an institution Sronficir a profitable legal career, he decided to dedicate his life to the caufe of study and research into the history, literature and philosophy of Jainism. Out of his humble Bryings and personal property, he created the Vir Sewa Mandı. Trust of Rs 51,000/- which is now valued over Rs. 100,000/-. But, much more than any financial aid to the cause, was his life-long' contibution to the unfolding of the oultural heritago of Jainisin, which is as important to the Jains as to the Indians in general A devoted soul, that he is,' he wiote on Swami Samantabhadra, Grantha-Parikshas, Jiba-Pujadhikara-Mimansa, Jainacharyon-ka-Shasanabheda, Vivaha-Samuddeshya, Vivaha-Kshetra-Prakasha, Upasana-Tattva, Siddhi-Sopan etc, 29 well as some spuitual poems in Hindi He is an accomplished scholar in Sienskrit, Prahnt and other languages of Hinduism and Buddhism His knowledge of Tain Prahrt und Apabhrunsh, both in published texts and unpublished manuscripta, tí almost unuvallend In fact he is a " living encvelopredea" of Tam culture Though his intensie 10SeaLch and careful analysis, he has made soveral dark cornert nl Tain history and culture clear to us today As early as 1934, I hul the plossiile of reading a histoucal essay on "Bhagwan Mahavir aur unka Samaya" He was the first to point out the precise date of the first Sernion of Lord Mahavir et Rajaguhan , and According to his calculation that event was solemnly celebrated in 1944 at Rajaguha and at Caloutta where the first All India Jain Congress was convened on the occasiou of the 2500th anniversary of the Sermon. His lesearches were brought to bear on the solution of many complicated problems relating to the works of eminent Jain Achaz yas like Kundakunda, Uma-Swami, Samantabhadra, Siddha-Sena, Yativrishabha, Patrakesari, Akalanka, Vidyananda, Prabhachandra, Rajamalla, Nemichandra, and others From the l'il Sowa Mandı many big monographs have been published, while his own articles, notes eto, would be over 1000 He visited the Arah Jain Siddhant Bhawan and many other important Jain Bhandala-Libialles, giving 118 valuable information through the Jain periodicals, like the Jain Gazette, the Jain Hiteshi and the Anehant with which he 18 intimately connected The crowning glory of his scholarly career will be the publication of a comprehensive lexicon of Jain technical terms named Jain-Lakshanavali in whioh he has thoroughly analysed over 200 Digambar and another 200 Swetambar clas81c8" and ariauged the terms alphabetically, so that it would be m most convenient reference book for all scholars Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The present prakrit Dictionary Puratana Jain-Vakya-Suchi based on 64 standard works of the Digambar Jains in Prakrit and Apabhransh, is now presented to the public, the Hindi Introduction of which is full of lus valueble lesearches in Jain History, Literature and Philosophy. So I recommend the Puratana Tein-Vakya-Suchi and other works mentioned above to the scholars and libraries of India and to the Indological Departinents of the big foreign Universities, interested in Indian religion and philosophy. The gratitude of the nation, specially of the Jains in India, is offered herewith to the illustrious scholar Jugal Kishoreji, whom we wish many more years of crentive activities in the propagation of 'Ahimsa', the only sovereign remedy of our world malady In A lecent note published by him in his Anekant, he bas stiongly supported the plan of establishing the Ahimsa Mandir in the capital of the India May that dream be icalized soon in this cHB6 of human huston and civilisation Post Graduate Dept CALCUTTA UNIVERSITY, 17 Februari 1950 KALID.IS NAG Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION The contribution of Jaina authors, both monks and lay-men, to the heritage of Indian literature and to the wealth of intellectual life in ancient India, are varied and valuable. All along the Jainas have been a peace-lovir community, and naturally they nurtured tastes and tendencies favourable for developing arts and literature, the concrete expressions of which are seen in their magnificent temples and monumental literary compositions According to Jainism. greater prestige is attached to the ascetic institution, and the ascetics form an integral part of the Jaina social organisation which is made up of monks, nuns, lay-men and lay-women Monks and nuns have no worldly ties and responsibilities, they persue their aim of liberation or muktı through spiritual means, they not only practise religion bur also prea to all those who want to follow the path of religion Lay-men and lay-women are expected to carry out their worldly duties successfully without violating the ideaology of religion, and it is a part of their religious duty to maintain the monks and nuns without any special invitation to them. Thus the formation of the social structure is well conceived and properly sustained. The members of the ascetic institution, naturally and necessarily, devoted major portion of their time to the study of Jaina scriptures and composition of fresh treatises for the benefit of suffering humanity. Thus generations of Jaina monks have enriched, according to their training, temperament and taste, various branches of Indian literature. The munificence of the wealthy section of the community and the royal patronage have uniformly encouraged both monks and lay-men in their literary pursuits in different parts of India, at least for the last two thousand years or so. The importance of scriptural knowledge in attaining liberation and the emphasis laid on sastra-dana have enkındled an inborn zeal in the Jaina community for the preservation and composition of literary works, both religious and secular, the latter too, very often serving some religious purpose directly or indirectly The richness and variety of Jaina contributions to Indian literature can be partly seen from works like the Jaina Granthavalı (Bombay 1909) and the Jinaratnakosa Vol. I, (Poona 1944) The latter is an alphabetical register of Jaina works (mainly Sanskrit and Prakrit) and autbors, and, thanks to the indefatiguable labours of Prof HD, Velankar, It is sure to prove a land-mark in the progress of the study of Jaina literature, The study of Jaina literature has a special importance in reconstructing the history of Indian literature Chronology is the back-bone of literary history, and in this respect, Indian literature, generally speaking, lacks in definite datas of authors and their works The Jaina author is almost always an exception to the rule if he is a monk, he specifies his ascetic congregation and mentions his predecessors and teachers, if he is a lay-man, he would give some personal detail and refer to his patron and teacher, and in most cases the date and place of composition are mentioned. I may note here one such case, by way of illustration, so hindly supplied to me by Acharya Jinavijayajı, Bombay. "According to a verse from an old and broken palm-leaf Ms. of the Visesavasyakabhasya in the Jaisalmer Bhandara, Jinabhadra Ksmasramana composed [the word is broken] that work in the temple of Jina at Valabhi when the great Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 PURATANA-JAINAVAKYA-SUCI king Siladitya was ruling on Wednesday, Svati Naksatra, Caitra Paurnima, the current Saka year being 531 Such and other chronological details, which are lately coming to light, will require us to state with reservations the famous remark of Whitney that all dates given in Indian literary history are pins set up to be bowled down again. Further, the zeal of Sastradana has so much permeated the hearts of pious Jainas that they took special interest in getting the Mss, of books prepared and distributed among the worthy A typical case I may note here, and it gives a great lesson to us who never issue, even today, an edition of more than one thousand copies of any Jaina scripture A pious lady, Attimabbe by name, fearing that the Kannada Santipurana of Ponna (c. 933 A. D.) would be lost altogether had a thousand copies of it made and distributed This zeal of preservation and propagation of literature has assumed a concrete form in the establishment of Sruta-bhandaras those at Pattan Jaisalmer, Moodbidri, Karanja, Jaipur etc can be looked upon as a part of our national wealth As distinguished from the prasastis of authors, we get those of pious donors of Mss at the end of many of them; and they are full of historical details which are useful not only for reconstructing the history of Jaina society in particular but also of Indian society in general The early literature, of Jainism is in Prakrit But the Jaina authors never attached a slavish sanctity to any particular language Preaching of religious principles in an instructive and entertaining form was their chief aim, and language, just a means to this noble end According to localities and the spirit of the age the Jaina authors adopted various languages and wrote their works in them The result has been unique, they enriched various branches of literature in Prakrits, Sanskrit, Apabhramsa Old-Rajasthani, Old-Hindi, Old-Gujarati, Tamil, Kannada etc In every language their achievements are worthy of special attention The credit of inaugurating an Augustan age in Apabhramsa, Tamil and Kannada unquestinably goes to Jaina authors, and it is impossible to reconstruct the evolution of Rajasthani, Gujarati and Hindi by ignoring the rich philological material found in Jaina works, the Mss of which bearing different dates, are available in plenty Their achievements are equally great in Sanskrit literature, and their value is being lately assessed by research scholars The Jaina works in different languages often show mutual relation, and their comparative study is likely to give chronological clues and sociohistorical facts When we take up the original and authoritative treatises dealing with Indian literature, as a whole, in different languages, we find that full justice is not done to Jaina works coomensurate with their merits and magnitude There, are some notable exceptions like A History of Indian Literature, Vol II, (Calcutta 1933) by M Winternitz, Karnataka Kavicharite, Vols I-III (Bangalore 1924 etc ), etc The reasons of this neglect are many We should neither blame nor attribute motives to the historian of literative, because his chief aim is to collect systematically the results of upto-date researches carried on in the literature of which he is writing a connected account. The orthodoxy of Jainas did not open the Ms libraries to early European scholars who led the front of research in Indian literature, the Jaina works were perhaps the last to fall in their hands, the Prakrits and Dravidian languages attracted few scholars, naturally the work that was done by them was limited, and the Jaina literature Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 3 presented peculier difficulties owing to the variety of languages and scripts in which it was preserved. The contents of Jaina works had their technicalities which demanded patient study There have been very few scholars who could claim first-hand acquaintance with the entire range of Jaina literature. Thus sufficient researches, with proper perspective, have not been carried in Jaina literature, so that proper place might be assigned to Jaina works in the scheme of Indian literature After extensive researches are carried on, the future historians of Indian literature will have to take their results into account, if they want to make their treatises thorough and authoritative The first requisite of literary research is to bring out critical editions of various works, based on a sufficient number of Mss. plenty of which are available in different scripts and from various localities. Many Jaina texts are printed quite neatly, they supply the needs of a pious reader who is concerned more with contents, and that too in a spirit of devotion and faith, than with any thing else, but for the purpose of scientific studies they are as good as printed Mss, perhaps less authentic than a good Ms Critical editions, if not already accompanied by, must be followed by critical studies of Individual works discussing their textual problems, language and contents and topics arising from them, authorship, date, their indebtedness to earlier works, their influence on subsequent literature, higher values represented by them, etc The aspects of study depend on the nature of individual works When such monographs are written with critical thoroughness and scientific precision the task of the historian becomes easy when he begins to take a survey of literature. Such monographic studies are a stepping stone to higher criticism in literature So far as Jaina literature is concerned, there is an immense scope and fruitful field for critical editions and studies, but it is a deplorable fact that there is a paucity of earnest, trained workers of scholarly outlook, mainly devoted to Jains literature Excepting a few cases, the research that has been carried on, in Jaina literature is sporadic, and the results mostly accidental If accident is to be eliminated, or at least the degree of it to be lowered, the research scholar must have a full control over the known material with which he has to deal In order to exercise this control, various facilities and instruments of research must be at his beck and call An upto-date library of published works and journals is a need the value of which cannot be exaggerated. Among the important instruments may be included Descriptive Catalogues of Mss, Bibliographies of various types, Indices of verses, words and proper names etc. by themselves they may appear quite prosaic, but without their aid no research can progress Every historian of literature must have a clear conception of the relative chronology of the literature which he is handling Wrong chronology leads to perverted results Relative chronology can be ascrteained from various facts references to earlier and by later authors and works, refutations of earlier views of established authorship, the nature of language and contents, quotations from earlier works, etc. It is customary with our authors that they often quote verses of earlier authors either to confirm their own.[views or to refute those of others At times the names of authors and works.too are mentioned If such quotations are genuine and their sources can be traced Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION they are useful aids in settling the relatives ages of different authors It is by tracing these quotations we are often able to put broad but definite limits to the periods of many of our authors A scholar cannot be expected to commit the verses of all the known works to memory and thus be able to spot and trace the quotations at times his memory may come to his resque, but that is an accident. He must be helped by indices of verses If he once collects the quotations and arranges them alphabetically, such indices will give him great help in tracing their sources, they will not only save his time but also increase the speed of his work and guarantee a security to his results. Pt Jugalkıshore Mukhtar is wellknown to students of Indian literature For the last few decades he has devoted all his time and energies to researches in Jaina literature, and the results of his studies have an abiding value His monograph on Samantabhadra is a model essay containing valuable information, the Anekanta edited by him occupies a prominent place among the Hindi journals devoted to research, and the Virasevamandıra founded by him inspires such universal and humanitarian principles that any nation would be proud of it His austere habits, intellectual acumen, earnest outlook on life, uncurbed zeal for weighing the evidence and arriving at the Truth and steady perseverence have made him a great research scholar, an ornament for the intellectual society. It is but natural that, in course of his studies, he would realize the importance and feel the need of various in truments of research like the present - work for which students of Indian literature in general and of Jaina literature in particular will feel much obliged to him. The present volume, Puratana-Jaina-vakya-sucı, Part I. or Digambara Jaina Prakrta-padyanukramanika is as its name indicates, an alphabetical Index of verses from Digambara Jaina works in Praktit. This part includes verses from some 'three scores of works, in Prakrit and Apabhramsa, composed or compiled by authoritative authors who flourished during the last two thousand years The works of Sıvarya, Vattakera, Kundakunda and Jadivasaha etc. form the Pro-Canon of the Jainas, and they occupy an important position in Jaina literature. Most of them can be assigned to the early centuries of Christian era, and the matter contained therein might be even of still earlier age Verses from them are often quoted, and such an Index was an urgent desideratum. A compilation like this has a very little human interest and readable matter, but it has to be remembered that its utility is very great, end it has cost patient and careful labour of months together, it not years The editors and publishers have so much obliged the researchers in Jaina literature that words are perhaps inadequate to express their sense of gratitude In conclusion, I heartıly thank my revered friend Bt Jugalkıshoreji for giving me thus opportunity to associate myself with this useful, publication which, no doubt, would be used as an instrument of research of superlative importance by all those scholars who are working in the fields of Prakrit and Jaina literature. Kolhapur, 25th May 1945 A. N UPADHYE. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना = = १. ग्रन्थकी योजना और उसकी उपयोगिता साहित्यिक और ऐतिहासिक अनुसन्धान अथवा शोध-खोज-विषयक कार्योंके लिये जिन " सूचियों या टेविल्स ( Tables) की पहले जरूरत पड़ती है उनमे ग्रन्थोंकी अकारादिक्रमसे वाक्य-सूचियाँ-पद्यानुक्रमणियाँ (श्लोकाऽनुक्रमणिकाएँ)-अपना प्रधान स्थान रखती हैं। इनके विना ऐसे रिसर्च-स्कॉलरका काम प्रगति ही नहीं कर सकता । इसीसे अक्सर रिसर्च-स्कॉलरोको ये सूचियाँ अपनी अपनी आवश्यकतानुसार स्वयं अपने हाथसे तय्यार करनी होती हैं और ऐसा करने मे शक्ति तथा समयका बहुत कुछ व्यय करना पड़ता है; क्योंकि हस्तलिखित ग्रन्थों मे तो ये सूचियाँ होती ही नहीं और मुद्रित प्रथोंमे भी इनका प्रायः अभाव रहा है-कुछ कुछ ऐसे ग्रन्थोंके साथ ही वे हाल में लग पाई हैं जिनके सम्पादन तथा प्रकाशनके साथ ऐसे रिसर्च स्कॉलरोंका यथेष्ट सम्पर्क रहा है जो इन सूचियोकी उपयोगिताको भले प्रकार महसूस करते हैं । चुनाँचे जैनसाहित्य और इतिहासके क्षेत्रमें जब मैंने कदम रक्खा तो मुझे पद-पदपर इन सूचियोंका अभाव खटकने लगा-किसी ग्रन्थमे उद्धत, सम्मिलित अथवा'उक्तं च' आदि रूपसे प्रयुक्त अनेक पद्योंके मूलस्रोतकी खोज में कभी कभी मेरे घंटे ही नहीं, किन्तु दिन तथा सप्ताह तक समाप्त हो जाते थे और बड़ी परेशानी उठानी पड़ती थी, अतः अपने उपयोगके लिये मैंने जीवनमे पचासों संस्कृत-प्राकृत ग्रन्थोंकी ऐसी वाक्य-सूचियाँ स्वयं तय्यार की तथा कराई हैं। और जव मुझे निर्णयसागरादि-द्वारा प्रकाशित किसी किसी ग्रन्थके साथ ऐसी पद्यानुक्रमणी लगी हुई मिलती थी तो उसे देखकर बड़ी प्रसन्नता होती थी। कितने ही ग्रन्थोंमे मैंने स्वय प्रेरणा करके पद्यसूचियाँ लगवाई हैं । अनगारधर्मामत ग्रन्थ मेरे पास बाइंडिंग होकर आगया था, जब मैंने देखा कि उसमें मूलपथकी तथा टीकामे आए हुए 'उक्तं च' आदि वाक्योंकी कोई भी अनुक्रमणी नहीं लगी है तब इस टिकी ओर सुह द्वर पं० नाथूरामजीका ध्यान आकपित किया गया, उन्होने मेरी बातको मान लिया और प्रथके बाइंडिगको रुकवाकर पद्यानुक्रमणिकाओंको तय्यार कराया तथा छपवाकर उन्हें प्रथके साथ लगाया। इन वाक्यसूचियोके तैयार करने-करानेमे जहाँ परिश्रम और द्रव्य खर्च होता है वहाँ इन्हें छपाकर साथमे लगानेसे प्रथकी लागत भी बढ़ जाती है, इसीसे ये अक्सर उपेक्षाका विषय बन जाती हैं और यही वजह है कि आदिपुराण, उत्तरपुराण, हरिवशपुराण, पद्मपुराण, यशस्तिलकचम्पू और श्लोकवार्तिक जैसे बड़े बड़े प्रथ विना पद्यसूचियोंके ही प्रकाशित हो गए हैं, जो ठीक नहीं हुआ। इन ग्रंथों के सैकड़ों-हजारों पद्य दूसरे ग्रंथोंमे पाए जाते हैं और ऐसे प्रथों में भी पाये जाते हैं जिन्हें पूर्वाचार्यों के नामपर निर्मित किया गया है और जिनका कितना ही पता मुझे प्रथपरीक्षाओं के समय लगा है। यदि ये ग्रन्थ पद्यानुक्रमणियोको साथमें ‘लिये हुए होते तो इनसे अनुसंधानकार्यमें बड़ी सहायता मिलती। अस्तु । १ ये ग्रन्थपरीक्षाएँ चार भागोंमें प्रकाशित होचुकी हैं, जिनमें क्रमशः (१) उमास्वामि-श्रावकाचार, कुन्दकुन्द-श्रावकाचार, जिनसेन-त्रिवर्णाचार, (२) भद्रबाहु-सहिता, (३) सोमसेन-त्रिवर्णाचार, धर्मपरीक्षा (श्वेताम्बरी) अकलक-प्रतिष्ठापाठ, पूज्यपाद-उपासकाचार, और (३) सूर्यप्रकाश नामक ग्रन्योंकी परीक्षाएँ हैं। उमास्वामिभावकाचार-परीक्षाका अलग संस्करण भी परीक्षा-लेखोंके इतिहास-सहित प्रकाशित हो गया है। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची कुछ वर्ष हुए जव मैंने धवल और जयधवल नामक सिद्धान्त-ग्रंथों परसे उनका परिचय प्राप्त करनेके लिये एक हजार पेजके करीव नोट स लिये थे । इन नोटों में 'उक्त च' श्रादि रूपसे आए हुए सैकड़ो पद्य ऐसे संगृहीत हैं जिनके स्थलादिका उक्त सिद्धान्त-ग्रंथों में कोई पता नहीं है और इसलिये 'धवलादिश्रु तपरिचय' नामसे इन ग्रंथोंका परिचय निकालने का विचार करते हुए मेरे हृदयमे यह वात उत्पन्न हुई कि इन 'उक्तं च' आदि रूपसे उधृत वाक्योके विषयमे, जो नोटके समयसे ही मेरी जिज्ञासाका विपय बने हुए है, यह खोज होनी चाहिये कि वे किस किस ग्रंथ अथवा आचार्यके वाक्य है। दोनों ग्रंथों में कुछ वाक्य तिलोयपएणत्ती' के स्पष्ट नामोल्लेखके साथ भी उद्धत हैं और इससे यह खयाल पैदा हुआ कि इस महान् ग्रंथके और भी वाक्य विना नामके ही इन प्रथोमे उद्धृत होने चाहिये, जिनका पता लगाया जावे । पता लगानेके लिये इससे अच्छा दूसरा कोई साधन नहीं था कि 'तिलोयपएणत्ती के वाक्योकी पहले अकारादि क्रमसे अनुक्रमणिका तैयार कराई जाय; क्योंकि वह आठ हजार श्लोक-जितना एक बड़ा ग्रंथ है, उसको हस्तलिखित प्रतियोंपरसे किसी वाक्यविशेषका पता लगाना आसान काम नहीं है । तदनुसार वनारसके स्याद्वादमहाविद्यालयसे तिलोयपएएत्तीको प्रति मॅगाई गई और उसके गाथा-वाक्योको काों पर नोट करनेके लिये पं० ताराचन्दजी न्यायतीर्थको योजना की गई। परन्तु बनारसकी यह प्रति वेहद अशुद्ध थी और इसलिये इसपरसे एक कामचलाऊ पद्यानुक्रमणिकाको ठीक करनेमे मुझे बहुत ही परिश्रम उठाना पड़ा है। दूसरी प्रति देहली धर्मपुराक नये मन्दिरसे बा० पन्नालालजीकी मार्फत और तीसरी प्रति बा० कपूरचन्दजीको मार्फत आगराके मोतीक्टराके मन्दिरसे मॅगाई गई । ये दोनो प्रतियाँ उत्तरोत्तर पहुत कुछ शुद्ध रहीं और इस तरह तिलोयपएणत्तीकी एक अनुक्रमणिका जैसे तैसे ठीक होगई और उससे धवलादिके कितने ही पधोका नया पता भी चला है। इसके बाद और भी कुछ ग्रंथोंकी नई अनुक्रमणिकाएँ वीरसेवामन्दिरमे तैयार कराई गई हैं। और ये सब सूचियाँ अनुसन्धानकार्योमे अपने बहुत काम आती रही हैं। - अपने पासकी इन सब पद्यानुक्रम-सूचियोका पता पाकर कितने ही दूसरे विद्वान भी इनसे यथावश्यकता लाभ उठाते रहे हैं-अपने कुछ पद्योको भेजकर यह मालूम करते रहे हैं कि क्या उनमें से किसी पद्यका इन अनुक्रमसूचियोंसे यह पता चलता है कि वह अमुक ग्रंथका पद्य है अथवा अमुक ग्रंथमें भी पाया जाता है। इन विद्वानोमे प्रोफेसर ए० एन० उपाध्येजी एम० ए० कोल्हापुर, प्रो० हीरालालजी एम० ए० अमरावती, पं० नाथूरामजी प्रेमी वम्बई, और पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचायके नाम खास तौरसे उल्लेखनीय हैं। कुछ विद्वानोंने तो इन वाक्यसूचियोमेंसे कईकी स्वयं कापियां भी की हैं तथा कराई हैं। ___ पुरातनवाक्यसूचियोंकी उपयोगिता और विद्वानोके लिये उनकी जरूरतको अनुभव करते हुए यह विचार उत्पन्न हुआ कि इन्हें प्राकृत और संस्कृतके दो विभागोंमे विभाजित करके यथाक्रम वोरसेवामन्दिरसे ही प्रकाशित कर देना चाहिये, जिससे सभी विद्वान् इनसे यथेष्ट लाभ उठा सकें । तदनुसार पहले प्राकृत-विभागको निकालनेका विचार स्थिर हुआ । इस विभागमें यदि अलग अलग ग्रंथक्रमसे ही प्रस्तुत संग्रह कर दिया जाता तो यह कभीका प्रकाशित होजाता; क्योंकि उस समय जो सूचियाँ तैयार थीं उन्हें हो अथक्रम डालकर प्रेसमें दे दिया जाता । परन्तु साथमें यह भी विचार उत्पन्न हुआ कि जिन ग्रंथोंके वाक्योका संग्रह . करना है उनका ग्रंथवार अनुक्रम न रखकर सबके वाक्योंका अकारादि-क्रमसे एक ही जनरल अनुक्रम तैयार किया जाय, जिससे विद्वानोंकी शक्ति और समयका यथेष्ट संरक्षण हो सके; क्योंकि अक्सर ऐसा देखने में आया है कि किसी भी एक वाक्यके अनुसंधानके लिये पचासों ग्रंथोंकी वाक्यसूचियोको निकालकर टटोलने अथवा उनके पन्ने पलटनेमे बहुत कुछ समय तथा शक्तिका व्यय हो जाता है और कभी कभी तो चित्त अकुला जाता है; जनरल अनुक्रममे Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ऐसा नहीं होता-उसमें क्रमप्राप्त एक ही स्थानपर दृष्टि डालनेसे उस वाक्यक अस्तित्वका शीघ्र पता चल जाता है। चुनॉचे इस विषयमे डा० ए० एन० उपाध्येजीसे परामर्श किया गया तो उनकी भो यही राय हुई कि सत्र ग्रंथों के वाक्योका एक ही जनरल अनुक्रम रक्खा जाय, इससे वर्तमान तथा भविष्यकालीन सभी विद्वानोकी शक्ति एवं समयकी बहुत बड़ी बचत होगी और अनुसंधान-कार्यको प्रगति मिलेगी। अन्तको यही निश्चय हो गया कि सब वाक्योका (अकारादि क्रमसे) एक ही जनरल अनुक्रम रक्खा जाय । इस निश्चयके अनुसार प्रस्तुत कार्य के लिये अपने पासकी पद्यानुक्रमसूचियोंका अब केवल इतना ही उपयोग रह गया कि उनपरसे कार्यों पर अक्षरक्रमानुसार वाक्य लिख लिये जायें। साथ ही प्रत्येक वाक्यके साथ ग्रंथका नाम नोडनेकी बात बढ़ गई। और इस तरह वाक्यसूचीका नये सिरेसे निर्माण कार्य प्रारम्भ हुआ तथा प्रकाशनकार्य एक लम्बे समयके लिये टल गया । सूचीके इस नव-निर्माणकार्यमे वीरसेवामन्दिरके अन्क विद्वानों ने भाग लिया हैजो जो विद्वान नये आते रहे उनकी अक्सर योजना कार्डोंपर वाक्योंके लिखनेमे होती रही। काॉपर अनुक्रम देने अथवा अनुक्रमको जाँचनेका काम प्रायः मुझे ही स्वयं करना होता था, फिर अनुक्रमवार साफ कापी की जाती थी। इस बीचमे कुछ नये प्राप्त पुरातनप्रथो के वाक्य भी सूचीमें यथास्थान शामिल होते रहे है । कार्डीकरण और कार्डो परसे अनुक्रमवार कापीका अधिकाश कार्य पं० ताराचन्दजी दर्शनशास्त्री, पं० शंकरलालजी न्यायतीर्थ तथा पं० परमानन्दजी शास्त्रीने किया है। और इस काममे कितना ही समय निकल गया है। __साफ कापीके पूरा होजानेपर जब ग्रंथको प्रेसमें देनेके लिये उसकी जाँचका समय आया तो यह मालूम हुआ कि ग्रंथमे कितने ही वाक्य सूची करनेसे छूट गये हैं और बहुतसे वाक्य अशुद्धरूप में संगृहीत हुए हैं, जिनमेंसे कितने ही मुद्रित प्रतियोमें अशुद्ध छपे हैं और बहुतसं हस्तलिखित प्रतियोमें अशुद्ध पाये जाते हैं। अतः ग्रन्थोको आदिसे अन्त तक वाक्यसूचीके साथ मिलाकर छूटे हुए वाक्योंको पूर्ति की गई और जो वाक्य अशुद्ध जान पड़े उन्हें ग्रंथके पूर्वापर सम्बन्ध, प्राचीन ग्रन्थोपरसे विषयके अनुसन्धान, विषयकी संगति तथा कोष-व्याकरणादिकी सहायताके आधारपर शुद्ध करनेका भरसक प्रयत्न किया गया, जिससे यह ग्रंथ अधिकसे अधिक प्रामाणिक रूपमें जनताके सामने आए और अपने लक्ष्य तथा उद्देश्यको ठीक तौरपर पूरा करनेमे समर्थ हो सके । इतनेपर भी जहाँ कहीं कुछ सन्देह रहा है वहाँ ब्रेकटमें प्रभाङ्क (?) दे दिया गया है । जाँचके इस कार्यने भी, जिसमें पद्योंके क्रम-परिवर्तनको भी अवसर मिला, काफी समय ले लिया और इसमे भारी परिश्रम उठाना पड़ा है। इस कार्यमें न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी कोठिया और प० परमानन्दजी शास्त्रीका मेरे साथ खास सहयोग रहा है। साथ ही, मूलपरसे संशोधनमें पं0 दीपचन्दजी पांड्या केकडी (अजमेर) ने भी कुछ भाग लिया है। ___ यहाँ प्रसंगानुसार मैं दस पॉच मुद्रित और हस्तलिखित ग्रंथोंकी अशुद्धियोके कुछ ऐसे नमूने दे देना चाहता था जिन्हें इस वाक्यसूचीमे शुद्ध करके रक्खा गया है, जिससे पाठकोको सूचीके जाँचकार्यकी महत्ता, संशोधनकी सूक्ष्मता (बारीकी) और ग्रंथको यथाशक्ति अधिकसे अधिक प्रामाणिकरूप में प्रस्तुत करनेके लिये किये गए परिश्रमकी गुरुताका कुछ आभास मिल जाता; परन्तु इससे एक तो प्रस्तावनाका कलेवर अनावश्यकरूपमे बढ़ जाता; दूसरे, जिन प्रकाशकों के ग्रंथोंकी त्रुटियोको दिखलाया जाता उन्हें वह कुछ बुरा लगता-उनकी कृतियोंकी आलोचना करना अपनी प्रस्तावनाका विषय नहीं है; तीसरे, जो अध्ययनशील अनुभवी विद्वान् हैं वे मुद्रित-अमुद्रित ग्रंथोंकी कितनी ही त्रुटियोंको पहलेसे जान रहे हैं और जिन्हें नहीं जान रहे हैं उन्हें वे इस ग्रंथपरसे तुलना करके सहजमे ही जान लेंगे, यही सब सोचकर यहाँपर उक्त इच्छाका संवरण किया जाता है। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जेमयावय-सूची हॉ एक वातकी सूचना कर देनी यहाँ आवश्यक है और वह यह कि जिन वाक्योंके कुछ अक्षरोंको गोल कट ( ) के भीतर रक्खा गया है वे या तो दूसरी ग्रंथप्रतिमे उपलब्ध होनेवाले पाठान्तरके सूचक हैं अथवा अशुद्ध पाठके स्थानमें अपनी ओरसे कल्पित करके रक्खे गये हैं—पाठान्तरके सूचक प्रायः उन्हें ही समझना चाहिये जिनके पूर्वमे पाठ प्रायः शुद्ध हैं। और जिन अक्षरोंको बड़ी व्रकट [ ] में दिया गया है वे वाक्योंके त्रुटित अंश है ,जिन्हें ग्रंथसगतिके अनुसार अपनी ओरसे पूरा करके रक्खा गया है। ___जॉच और संशोधनका यह गहनकार्य बहुत कुछ सावधानीसे किया जानेपर भी कुछ वाक्य सूचीसे छूट गये और कुछ प्रेसकी असावधानी तथा दृष्टिदोपके कारण संशोधित होनेसे रह गये और इस तरह अशुद्ध छप गये । जो वाक्य अशुद्ध छप गये उनके लिये एक 'शुद्धिपत्र' ग्रंथके अन्तमें लगा दिया गया है और जो वाक्य छूट गये उनकी पूर्ति परिशिष्ट नं. १ द्वारा की गई है। इस परिशिष्टमें अधिकांश वाक्य पंचसंग्रह और जंबूदीवपण्णत्तीके हैं, जो बादको आमेर (जयपुर) की प्राचीन प्रतियोंपरसे उपलब्ध हुए है और जिनके स्थानकी सूचना वाक्यसूचीमें प्रकाशित जिस जिस वाक्यके बाद वे उपलब्ध हुए हैं उनके आगे व्रकटमे क, ख आदि अक्षर जोड़कर की गई है। और इससे दो बातें फलित होती हैं--(१) एक तो यह कि इन ग्रंथोके अध्यायादि क्रमसे जो वाक्य-नम्बर सूचीमे मुद्रित हुए है वे सर्वथा अपरिवर्तनीय नहीं हैं, उनमे छूटे हुए वाक्योको शामिल करके प्रत्येक अध्यायादिके पद्य-नम्बरोका जो एक क्रम तैयार होवे उसके अनुसार उसमें परिवर्तन हो सकता है । (२) दूसरी यह कि अन्य ग्रंयोंकी प्राचीन प्रतियोमे भी कुछ ऐसे वाक्योका उपलब्ध होना संभव है जो वाक्यसूचीमे दर्ज न हो सके हो, और यह तभी हो सकता है जबकि उन उन ग्रथोंकी प्राचीन प्रतियोको खोजकर उन परसे जाँचका तुलनात्मक कार्य किया जाय । सच पूछा जाय तो जब तक प्रतियोंकी पूरी खोज होकर उनपरसे ग्रंथोके अच्छे प्रामाणिक संस्करण प्रकाशित नहीं होते तब तक साधारण प्रकाशनो और हस्तलिखित प्रतियोपरसे इन वाक्यसूचियोंके तैयार करनेमे तथा उनमे वाक्योको नम्बरित (क्रमाकोसे अङ्कित) करने में कुछ न कुछ असुविधा बनी ही रहेगी-उन्हें सर्वथा निरापद नहीं कहा जा सकता । और न प्रक्षिप्त अथवा उद्धृत कई जाने वाले वाक्योंके सम्बन्धमें कोई समुचित निर्णय ही दिया जा सकता है। परन्तु जब तक वह शुभ अवसर प्राप्त न हो तब तक वर्तमानमे यथोपलब्ध साधनोंपरसे तैयार की गई ऐसी सूचियोकी उपयोगिताका मूल्य कुछ कम नहीं हो जाता, बल्कि वास्तवमे देखा जाय तो ये ही वे सूचियाँ होंगी जो अधिकाशमे अपने समय की जरूरतको पूरा करती हुई भविष्यमें अधिक विश्वसनीय सूचियोंके तैयार करनेमे सहायक और प्रेरक बनेंगी। २. ग्रन्थका कुछ विशेष परिचय इस वाक्य-सूची में जगह-जगहपर बहुतसे वाक्य पाठकोको एक ही रूप लिये हुए समान नजर आएँगे और उसपरसे उनके हृदयोमें ऐसी आशङ्काका उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि जब ये वाक्य एक ही ग्रंथके विभिन्न स्थलों अथवा विभिन्न ग्रंथों में समानरूपसे विद्यमान हैं तो इन्हें बार वार लिखनेकी क्या जरूरत थी? एक ही बार लियकर उसके आगे उन ग्रंथों के नामादिकका संकेत कर देना चाहिये था जिनमे वे समान रूपसे पाये जाते हैं; परन्तु बात ऐसी नहीं है, एक जगह स्थित वे सब वाक्य परस्पर में पूर्णतः समान नहीं हैंउनमें वे ही वाक्य प्रायः समान हैं जिनके आगे शब्द तथा अर्थकी दृष्टिसे समानताद्योतक चिन्ह लगाया गया है, शेष सब वाक्यों मेसे कोई एक चरणमें कोई दो चरणों में और कोई तीन चरणोंमें भिन्न है तथा कुछ वाक्य ऐसे भी हैं जिनमे मात्र एक दो शब्दोंके परिवर्तनसे ही सारे वाक्यका अर्थ बदल गया है और इसलिये वे शब्दशः बहुत कुछ समान होनेपर भी समानताकी Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना कोटिसे निकल गये हैं। हॉ, दो चार वाक्य ऐसे भी हैं जो अक्षरशः समान हैं, परन्तु उनके कुछ अक्षरोंको एक साथ अलग अलग रखनेपर उनके अर्थमें अन्तर पड़ जाता है, जैसे समयसारकी 'जो सो दुणेहभावो' नामकी गाथा नं० २४० अक्षरदृष्टिसे उसीकी गाथा नं० २४५ के बिल्कुल समकक्ष है; परन्तु पिछली गाथामें 'दु' को 'णेहभावो' के साथ और 'तस्स' को 'रयबधो' के साथ मिलाकर रखनेपर पहली गाथासे भिन्न अर्थ हो जाता है। ऐसे अक्षरोंकी पूर्णतः समानताके कारण वाक्योंपर समानताके ही चिन्ह डले है । समानताद्योतक *, x, +, +, t इस प्रकारके चिन्ह पृष्ट ४६ से प्रारम्भ किये गये हैं । इसके पहले उनकी कल्पना उत्पन्न जरूर हुई थी, परन्तु परिश्रमके भयसे स्थिर नहीं हो पाई थी; बादको उपयोगियाकी दृष्टिने जोर पकड़ा और उक्त कल्पनाको चरितार्थ करना ही स्थिर हुआ। समानता-द्योतक इन चिन्होंके लगानेमें यद्यपि बहुत कुछ तुलनात्मक परिश्रम उठाना पड़ा है परन्तु इससे ग्रंथकी उपयोगिता भी बढ़ गई है, हर एक पाठक सहज हीमे यह मालूम कर सकता है कि जिन वाक्योंपर ये चिन्ह नहीं लगे हैं वे सब प्रारम्भमे समान दीखनेपर भी अपने पूर्णरूपमे समान नहीं हैं, और जो चिन्होंपरसे समान जाने जाते हैं वे भिन्न ग्रंथोंके वाक्य होनेपर उनमेसे एकके वाक्यको दूसरे ग्रन्थकारने अपनाया है अथवा वह बादको दूसरे ग्रंथमे किसी तरहपर प्रक्षिप्त हुआ है ।और इसका विशेष निर्णय उन्हें प्रथोंके स्थलोंपरसे उनकी विशेष स्थितिको देखने तथा जाँचनेसे हो सकेगा। एक दो जगह प्रेसकी असावधानीसे चिन्ह छूट गये है जैसे 'संकाइदोसरहियं' नामके वाक्योंपर, जो समान है, और एक दो स्थानोंपर वे आगे पीछे भी लग गये हैं, जैसे पृष्ठ ५२ के प्रथम कालममे 'एक्कं च ठिदिविसेसं' नामके जो तीन वाक्य हैं उनमें ऊपरके कसायपाहुड वाले दोनों वाक्योंपर समानताका चिन्ह : लग गया है जब कि वह नीचेके दो वाक्योंपर लगना चाहिये था, जिनमें दूसरा 'लद्धिसार' का वाक्य नं० ४०१ है और वह कसायपाहुडपरसे अपनाया गया है। ऐसी एक दो चिन्होंकी गलती ग्रंथपरसे सहज ही मालूम की जा सकती है। अस्तु, जिन शुरूके ४८ पृष्ठोंपर ऐसे चिन्ह नहीं लग सके हैं उनपर विज्ञ पाठक स्वयं तुलना करके अपने अपने उपयोगके लिये वैसे वैसे चिन्ह लगा सकते हैं। ___इस पुरातन जैनवाक्यसूचीमें ६३ मूलग्रंथोंके पद्यवाक्योंकी अकारादिक्रमसे सूची है, जिनमे परमप्पयास (परमात्मप्रकाश), जोगसार, पाहुडदोहा, सावयधम्मदोहा और सुप्पहदोहा ये पाँच ग्रंथ अपभ्रश भाषाके और शेष सब प्राकृत भाषाके ग्रंथ है । अपभ्रंश भी प्राकृतका ही एक रूप है, इसीसे वाक्यसूचीका दूसरा नाम 'प्राकृतपद्यानुक्रमणी' दिया गया है। इन मूलग्रंथोंकी अनुक्रमसूची संस्कृत नाम तथा ग्रंथकारोंके नाम-सहित साथमे लगा दी गई है। हाँ, षटखण्डागममे भी, जो कि प्रायः गद्यसूत्रोंमे है, कुछ गाथासूत्र पाये जाते हैं। जिन गाथासूत्रोंको अभी तक स्पष्ट किया जा सका है उनकी एक अनुक्रमसूची भी परिशिष्ट नं० २ के रूपमे दे दी गई है। और इस तरह मूलपथ ६४ हो जाते हैं । इनके अलावा ४८ टीकादि ग्रंथोंपरसे भी ऐसे प्राकृत वाक्योंकी सूची की गई है जो उनमे 'उक्तं च' आदि रूपसे विना नाम-घामके उद्धृत हैं और जो सूचीके आधारभूत उक्त मूलग्रंथोंके वाक्य नहीं हैं। इन वाक्योंमे कुछ ऐसे वाक्योंको भी शामिल किया गया है जो यद्यपि उक्त ६३ मूलप्रथोंमेसे किसी न किसी ग्रंथकी वाक्य-सूचीमें पृ० १ से ३०८ तक आ चुके है परन्तु वे उस प्रथसे पहलेकी बनी हुई टीकाओंमे 'उक्त च' आदि रूपसे उद्धृत भी पाये जाते हैं और जिससे यह जाना जाता है कि ये वाक्य संभवतः और भी अधिक प्राचीन हैं और वाक्यसूचीके जिंस ग्रंथमे वे उपलब्ध होते हैं उसमें यदि प्रक्षिप्त नहीं हैं जैसे कि गोम्मटसारमें उपलब्ध होनेवाले धवलादिकके उद्धृत वाक्य-तो वे किसी अज्ञात प्राचीन ग्रंथ अथवा ग्रंथोंपरसे लिये जाकर उस प्रथका अंग बनाये गए हैं। और इसलिये वे ग्रंथ अन्वेपणीय Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० पुरातन - जैनवाक्य-सूची हैं । ये टीकादि-ग्रंथोपलब्घ वाक्य परिशिष्ट नं० ३ में दिये गये हैं । और इन टीकादि-ग्रंथों की भी एक अलग सूची साथमें दे दी गई है । इनके अतिरिक्त धवला और जयधवला टीकाओंके मंगलादि-पद्योंकी एक अनुक्रमसूची भी परिशिष्ट न० ४ के रूपमें दे दी गई है। यह वाक्यसूची सब मिलाकर २५३५२ पद्य वाक्योंकी अनुक्रमणी है – उनके प्रथम चरणादिके रूपमें आद्याक्षरों की सूचिका है - जिनमे से २४६०८ वाक्योंके आधारभूत ग्रंथों और उनके कर्ताओंका पता तो मालूम है, परन्तु शेष ७४४ वाक्य ऐसे हैं जिनके मूलप्रथों तथा उनके कर्ताओं का पता अज्ञात है और ये ही वे वाक्य हैं जो टीकादि-ग्रंथोंमे उद्धृत मिलते हैं और जिनके मूलस्रोतकी खोज होनी चाहिये । इस सूची मे कुछ ऐसे वाक्य दर्ज होनेसे रह गये हैं जो मूलग्रंथों में 'उक्तं च ' रूपसे उद्धृत पाये जाते हैं -- जैसे कार्तिकेयानुप्रेक्षामें गाथा नं० ४०३ के बाद पाया जाने वाला 'जो गवि जादि वियारं' नामका वाक्यऔर इसका हमें खेद है । के इस ग्रंथ में जिन वाक्योंकी सूची दी गई है उनमेंसे प्रत्येक वाक्य के सामने भिन्न टाइपमें उसके प्रथका नाम सक्षिप्त अथवा संकेतितरूपमे दे दिया गया है - जैसे गोम्मटसारजीवकाण्डको गो० जी०, गोम्मटसार- कर्मकाण्डको गो० क०, गोम्मटसार - जीवकाण्डकी जीवतत्त्वप्रबोधिनी टीकाको गो० जी० जी०, मन्दप्रबोधिनी टीकाको गो० जी० म०, भगवती आराधना प्रथको भ० आ०, तिलोयपत्तीको तिलो० प०, और तिलोयसारको तिलो० सा० संकेत के द्वारा सूचित किया गया है। किसी किसी ग्रंथके लिये दो संकेतोंका भी प्रयोग हुआ है जैसे कसायपाहुडके लिये कसाय० तथा कसायपा०, यिमसार के लिये मि० तथा यिमसा० । साथ ही, ग्रंथनामके अनन्तर वाक्यके स्थलका निर्देश अंकों द्वारा किया गया है । जिन अङ्कोंके मध्य में डैश ( - ) है उनमें डैशका पूर्ववर्ती अ ग्रंथके अध्याय, अधिकार, परिच्छेद, पर्वादिकी क्रमसंख्याका सूचक है और उत्तरवर्ती अ उस अध्यायादि में उस वाक्य के क्रमिक नम्वरको सूचित करता है । और जिन मध्यमे डैश नहीं हैं वे उस ग्रंथमे उस वाक्यको क्रमसंख्या के ही सूचक हैं। ऐसे कोंके अनन्तर जहॉ कसायपाहुड जैसे ग्रंथके वाक्योंका उल्लेख करते हुए कटमें भी कुछ अंक दिये हैं वे उस ग्रंथके दूसरे क्रमके सूचक हैं, जो भाष्यगाथाओं को अलग करके मूल १८० गाथाका क्रम है । और जहाँ अङ्कोंके बाद कटमें कवर्गका कोई अक्षर दिया है उसे उस अङ्क नं० के अनन्तर बादको पाया जानेवाला वर्गक्रमाक स्थानीय पद्यवाक्य समझना चाहिये । कोई कोई वाक्य किसी एक ही ग्रंथप्रतिमें पाया गया है— दूसरीमें नहीं, उसका सूचक चिन्ह भी साथ में दे दिया गया है, जैसे तिलोयपण्णत्तीकी आगरा-प्रतिका सूचक चिन्ह A, बनारस प्रतिका सूचक B, सहारनपुर- प्रतिका सूचक S और देहली- प्रतिका सूचक 'दे० ' चिन्ह लगाया गया है। ग्रंथ नामादिविषयक इन सब संकेतोंकी एक विस्तृत संकेतसूची भी साथमे लगादी गई है, जिससे किसी भी वाक्य सम्बन्धी ग्रंथ अथवा विशिष्ट ग्रंथप्रतिको सहन मे ही मालूम किया जा सके। इस सूचीमें ग्रंथनामके सामने उस मुद्रित या हस्तलिखित ग्रंथप्रतिको भी सूचित कर दिया गया है जो आम तौरपर उस ग्रंथकी वाक्यसूची कार्यमे उपयुक्त हुई है । ३. प्राकृतमें वर्णविकार प्राकृत भाषामें वर्णविकार खूब चलता है - एक एक वर्ण (अक्षर) अनेक वर्णों ( अक्षरों ) के लिये काम आता अथवा उनके स्थानपर प्रयुक्त होता है और इसी तरह एक के लिये अनेक वर्ण भी काममें लाये जाते अथवा उसके स्थानपर प्रयुक्त होते हैं । उदाहरण Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ११ के तौरपर 'अ' अक्षर क, ग, च, ज, त, द्, प, और य जैसे अक्षरोंके लिये भी प्रयुक्त होता 'है, जैसे 'लो' मेक, ग, च, प, य के लिये, 'जुअल' मेग के लिये, 'लोअरण' मे च के लिये, 'रअ' में ज के लिये, 'भणि' मे त, द के लिये, 'आमा' मे द के लिये, 'दी' मे प, व के लिये, 'दाअ' मे य के लिये और 'रण' में व के लिय प्रयुक्त हुआ है । इसी तरह 'क' अक्षर के लिये अ, ग, य आदि अक्षरोंका प्रयोग देखनेमे आता है; जैसे 'लो' मे का, लोग' मे गका और 'लोय' मे य का प्रयोग हुआ है, ये तीनों शब्द लोकार्थक हैं और लोगा - गास तथा लोयायास जैसे शब्दोंमे इनका यथेच्छ प्रयोग पाया जाता है । कितने ही शब्द ऐसे हैं जो अर्थ और वजनकी दृष्टिसे समान हैं और उनका भी यथेच्छ प्रयोग पाया जाता है, जैसे इइ = इदि, एए= एदे और इक्कं = एक्क= एग = एय । यह सब वर्णविकार कुछ तो प्राकृत भाषाके नियमोका ऋणी है और कुछ विकल्पसे सम्बन्ध रखता है, जिसमे इच्छानुसार चाहे जिस विकल्प अथवा शब्द-रूपका प्रयोग किया जा सकता हैं । इस वर्णविकार के कारण पद्यवाक्योके क्रममें कितना ही अन्तर पड़ जाना संभव है । लेखकों की कृपासे, जो कि प्रायः भाषा विज्ञ नहीं होते, उस अन्तरको और भी गुंजाइश मिलती है । इसीसे एक ही प्रथकी अनेक प्रतियों में एक ही शब्दका अलग अलग रूपसे भी प्रयोग देखनेमे आता है; जैसे लोगागास और लोयायास का । I अनुक्रर्माणकाके श्रवसरपर इस अंतर से कभी कभी बड़ी अड़चन पैदा हुई है – किस किस पाठान्तरको दिया जावे और कैसे क्रम रक्खा जावे ? आखिर बहुमान्य पाठोको ही अपनाया गया है और कहीं कहीं उदाहरण के रूपमें पाठान्तरोको भी दिखला दिया गया है। 'थप्रतियों की ऐसी स्थितिको देखकर, मै चाहता था कि इस ग्रंथमें वर्ण-विकार- विषयक एक विस्तृत सूची (Table) उदाहरण सहित ऐसी लगाई जावे जिससे यह मालूम हो सके कि अकारादि एक-एक वर्ण दूसरे किस किस वर्णके लिये प्रयोगमे आता है और उसकी सहायतासे अपने किसी वाक्यका पता लगाने वालेको उसके खोजनेमे सुविधा मिल सके और वह वर्ण-विकारके नियमोसे अवगत होकर इस वाक्य सूचीमे थोड़ेसे अन्य प्रकार के पाठ तथा अन्य क्रमको लिये हुए होनेपर भी अपने उस वाक्य की खोज लगा सके और साधारण से रूपान्तर तथा पाठभेदके कारण यह न समझ बैठे कि वह वाक्य इस वाक्य-सूचीमे श्र हुए किसी भी ग्रंथका नहीं है । परन्तु एक तो यह काम बहु-परिश्रम - साध्य था, इसीसे यथेष्ट अवकाश न मिलनेके कारण बराबर टलता रहा, दूसरे प्राकृत भाषाके विशेषज्ञ सुहृदर डा० ए० एन० उपाध्येजी कोल्हापुरकी यह राय हुई कि इस सूचीसे उन विद्वानोंको तो कोई विशेष लाभ पहुँचेगा नहीं जो प्राकृतभाषाके पंडित हैं - वे तो इस प्रकारकी सूची के बिना भी अपना काम निकाल लेंगे और प्रस्तुत ग्रंथ में अपने इष्टवाक्यके अस्तित्व अनस्तित्वको सहजमें ही मालूम कर सकेंगे — और जो प्राकृतभाषा के पंडित नहीं हैं वे ऐसी सूचीसे भी ठीक काम नहीं ले सकेंगे, और इसलिये उनके वास्ते इतना परिश्रम उठानेकी जरूरत नहीं । तदनुसार ही उस सूची के विचारको यहाँ छोड़ा गया है और उसके संबंध में ये थोड़ी-सी सूचनाएँ कर देना ही उचित समझा गया है। इस वर्ण-विकार के कारण कुछ वाक्य समान होनेपर भी वाक्यसूची में भिन्न स्थानोंपर मुद्रित हुए हैं— जैसे भावसंग्रहका 'ठिदिकरणगुणपउत्तो' वाक्य जो मुद्रित प्रतिमें इसी रूपसे पाया जाता है, वर्णक्रमके कारण पृष्ठ १३० पर मुद्रित हुआ है और वसुनन्दिश्रावकाचारका 'ठिदियर रणगुणपउत्तो' वाक्य पृष्ठ १३१ पर अतरसे छपा है - और इसीसे ऐसे वाक्योंपर समानताके चिन्ह नहीं दिये जा सके हैं । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जनवाक्य-सूची ४. ग्रन्थ और ग्रन्थकार श्रीकुन्दकुन्दाचार्य और उनके ग्रन्थ --- अब मैं अपने पाटकोको उन मृलप्रथों और ग्रंथकारोका संक्षेपमे कुछ परिचय करा देना चाहता हूँ जिनके पद्य-वाक्योका इस ग्रंथम अकारादिकम से एकत्र संग्रह किया गया है। सब से अधिक ग्रंथ (२२ या २३) श्रीकुन्दकुन्दाचाय के है. जो पाटुट प्रकि कर्ता प्रसिद्ध है और जिनके विदेड-नेत्रमे श्रीमीमंघर-स्वामी समवसरण में जाकर माक्षात तीर्थकरमुस तथा गणधर देवसे बोध प्राप्त करनेकी कथा भी सुप्रमिद और जिनका समय विक्रमकी प्रायः प्रथम शताब्दी माना जाता है। अतः उनीक ग्रंथांने इन परिचयका प्रारंभरिया जाना है। यहाँ पर मैं इन प्रन्यकार-गहोदय के सम्बन्धमे एतना 'पौर बतला देना चाहता हूँ. कि इनका पहला-संभवतः दीक्षाकालीन नाम पझानन्दी था, परन्तु ये फोएटफुन्दाचार्य अथवा कुन्दकुन्दाचार्य के नाममे ही अधिक प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ है, जिसका कारण 'कोएडकुन्दपुर' के अधिवासी होना बतलाया जाता है। उसी नामने इनकी वशपरम्परा चली है अथवा 'कुन्दकुन्दान्वय' स्थापित हुया है, जो अनेक शारया-प्रशासानोमे विभक्त होकर दूर दूर तक फैला है।(मर्कराके ताम्रपत्रमे, जो शक सवन ३८८ में उत्तीर्ण हुया है. इसी कोण्डकुन्दान्वयकी परम्परामे होनेवाले छह पुगतन 'पापार्योका गुरु-शिप्यके क्रमसे उल्लेख है)। ये मूलसंघ के प्रधान प्राचार्य थे. पूतात्मा थे, सत्मयम एव तपश्चरणके प्रभावसे इन्हे चारण-द्धिकी प्राप्ति हुई थी और उसके बलपर ये पृथ्वीमे नाय. चार 'अंगुल ऊपर अन्तरिक्षमे चला करते थे। इन्होंने भरतक्षेत्रम श्र तकी-जैन आगमकी--प्रतिष्ठा की हैउसकी मान्यता एवं प्रभावको स्वयके प्राचरणादि-दाग (बुद 'प्रामिल बनकर) ऊँचा उठाया तथा सर्वत्र व्याप्त किया है अथवा यो कहिये कि आगमके अनुसार चलनेको खास महत्व दिया है, ऐसा श्रवणबेल्गोलके शिलालेखों प्रादिसे जाना जाता है। ये बहुत ही प्रामाणिक एवं प्रतिष्ठित प्राचार्य हुए हैं। सभवतः एनकी उक्त अत-प्रतिष्ठाके कारण ही शास्त्रसभाकी आदिमे जो मङ्गलाचरण 'मगल भगवान वीरो' इत्यादि किया जाता है उसमें 'मगलं कुन्दकुन्दा-' इस रूपसे उनके नामका बास उल्लेख है। १ देवसेनाचार्यने भी, अपने दर्शनमार (वि० स०६९०) को निम्न गाया में, कुन्दनन्द (पद्मनन्दि) के सीमघर-स्वामीसे दिव्यज्ञान प्राप्त करने की बात लिखी है: ____जह पउमणदि-गादो सीमंघरसामि-दिव्बणाणेण । ण विवोहए तो समणा कहं सुमगं पयाणंति ॥ ४३ ॥ २ तस्यान्वये भूविदिते बभूव य' पद्मनन्दि-प्रथमाभिधानः । श्रीकौण्डकुन्दादिमुनीश्वराख्यस्सत्सयमादुद्गत-चारणाद्धिः ।। -श्रवणवेल्गोल-शिलालेख नं० ४० ३ देखो, कुर्ग-इन्स्क्रिपशन्म ( E C. I.) । ३ वन्यो विभुभुवि न कैरिह कौण्डकुन्दः कुन्दप्रभा-प्रणयि-कीर्ति-विभूषिताशः । यश्चारु-चारण-कराम्बुज.चञ्चरीकश्चक्रे-श्रुतस्य भरते प्रयत: प्रतिष्ठाम् ।।-५० शि० ५४ रजोभिरस्पृष्टतमत्वमन्तर्बाह्येऽपि संव्यजयितुं यतीश. । रज पदं भूमितलं विहाय चचार मन्ये चतुरंगुल सः ॥–श्र० शि० १०५ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १ प्रवचनसार, २ समयसार, ३ पंचास्तिकाय-ये तीनो ग्रन्थ कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रंथोमे प्रधान स्थान रखते हैं, बड़े ही महत्वपूर्ण हैं और अखिल जैनसमाजमे समानआदरकी दृष्टिसे देखे जाते हैं। पहलेका विषय ज्ञान, ज्ञेय और चारित्ररूप तत्व-त्रयके विभागसे तीन अधिकारोंमे विभक्त है, दूसरेका विषय शुद्ध आत्मतत्त्व है और तीसरेका विषय कालद्रव्यसे भिन्न जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश नामके पॉच द्रव्योंका सविशेष-रूपसे वर्णन है। प्रत्येक ग्रंथ अपने-अपने विषयमे बहत ही महत्त्वपूर्ण एवं प्रामाणिक है। हरएक का यथेष्ट परिचय उस-उस प्रथको स्वयं देखनेसे ही सम्बन्ध रखता है। इनपर अमतचन्द्राचार्य और जयसेनाचार्यकी खास संस्कृत टीकाएँ हैं, तथा बालचन्द्रदेवकी कन्नड टीकाएँ भी है, और भी दूसरी कुछ टीकाएँ प्रभाचन्द्रादिकी सस्कृत तथा हिन्दी आदिकी उपलब्ध है। अमतचंद्राचार्यकी टीकानुसार प्रवचनसार मे २७५, समयसारमे ४१५ और पंचास्तिकायमे १७१ गाथाएँ है, जब कि जयसेनाचार्यकी टीकाके पाठानुसार इन ग्रंथोंमे गाथाओंकी संख्या क्रमशः ३११, ४३६ १८१ है । इन बढ़ी हुई गाथाओकी सूचना सूचीमे टीकाकारके नामके संकेत (ज०) द्वारा की गई है। संक्षेपमे, जैनधर्मका मर्म अथवा उसके तत्त्वज्ञानको समझने के लिये ये तीनों ग्रंथ बहुत ही उपयोगी हैं। ४. नियमसार-कुन्दकुन्दका यह अथ भी महत्त्वपूर्ण है और अध्यात्म-विषयको लिये हुए है। इसमे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रको नियम-नियमसे किया जानेवाला कार्य-एवं मोक्षोपाय बतलाया है और मोक्षके उपायभूत सम्यग्दर्शनादिका स्वरूप कथन करते हुए उनके अनुष्ठानका तथा उनके विपरीत मिथ्यादर्शनादिके त्यागका विधान किया है और इसीको (जीवनका) सार निर्दिष्ट किया है । इस प्रथपर एकमात्र संस्कृत टीका पद्मप्रभ-मलधारिदेवकी उपलब्ध है और उसके अनुसार ग्रंथकी गाथा-सख्या १८७ है । टीकामे मूलको द्वादश अ तस्कन्धरूप जो १२ अधिकारोंमें विभक्त किया है वह विभाग मूलकृत नहीं है-मूल परसे उसकी उपलब्धि नहीं होती, मूलको समझने में उससे कोई मदद भी नहीं मिलती और न मूलकारका वैसा कोई अभिप्राय ही जाना जाता है। उसकी सारी जिम्मेदारी टीकाकारपर है । इस टीकाने मूलको उल्टा कठिन कर दिया है । टीकामे बहुधा मूलका आश्रय छोड़कर अपना ही राग अलापा गया है-मूल का स्पष्टीकरण जैसा चाहिये था वैसा नहीं किया । टीकाके बहुतसे वाक्यों और पद्योंका सम्बन्ध परस्परमे नहीं मिलता । टीकाकारका आशय अपनी गद्य-पद्यात्मक काव्यशक्तिको प्रकट करनेका अधिक रहा है-उसके काव्योका मूलके साथ मेल बहुत कम है। अध्यात्म-कथन होनेपर भी जगह जगह पर स्त्रीका अनावश्यक स्मरण किया गया है और अलकाररूपमे उनके लिये उत्कठा व्यक्त की गई है, मानो सुख स्त्रीमे ही है। इस प्रथका टीकासहित हिन्दी अनुवाद ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीने किया है और वह प्रकाशित भी होचुका है। ५. वारस-अणुवेक्खा (द्वादशानुप्रेक्षा)-इसमे १अध्र व (अनित्य), २ अशरण, ३ एकत्व, ४ अन्यत्व, ५ससार, ६ लोक, ७ अशुचित्व, आस्रव, सवर, १० निर्जरा, ११ धर्म, १२ बोधिदुर्लभ नामकी बारह भावनाओंका ६१ गाथाओमे वर्णन है। इस प्रथकी 'सव्वे वि पोग्गला खलु' इत्यादि पांच गाथाएँ (नं० २५ से २६ ) श्रीपूज्यपादाचार्य-द्वारा, जो कि विक्रमकी छठी शताब्दीके विद्वान हैं, सर्वार्थसिद्धिके द्वितीय अध्यायान्तर्गत दशवें सूत्रकी टीकामें 'उक्तं च रूपसे उद्धृत की गई हैं। ३. दसणपाहुड-इसमें सम्यग्दर्शनके माहात्म्यादिका वर्णन ३६ गाथाओमे है और उससे यह जाना जाता है कि सम्यग्दर्शनको ज्ञान और चारित्रपर प्रधानता प्राप्त है। वह धर्मका मूल है और इसलिये जो सम्यग्दर्शनसे-जीवादि तत्त्वोंके यथाथ श्रद्धानसेभ्रष्ट है उसको सिद्धि, अथवा मुक्तिकी प्राप्ति नहीं हो सकती । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन जैनवाक्य-सूची ७. चारित्तपाप्लुड – इस ग्रंथकी गाथासंख्या ४४ और उसका विषय सम्यक चारित्र है । सम्यक् चारित्रको सम्यक्त्वचरण और संयमचरण ऐसे दो भेदोमे विभक्त करके उनका अलग अलग स्वरूप दिया है और संयमचरण के सागार अनगार ऐसे दो भेट करके उनके द्वारा क्रमशः श्रावकधर्म तथा यतिधर्मका अतिसंक्षेपमे प्रायः सूचनात्मक निर्देश किया है 1 १४ 1 - ર ८. सुत्तपाहुड – यह ग्रथ २७ गाथात्मक है । इसमे सूत्रार्थकी मार्गणाका उपदेश - आगमका महत्व ख्यापित करते हुए उसके अनुसार चलनेकी शिक्षा दी गई है । और साथ ही सूत्र (आगम) की कुछ वातोंका स्पष्टताके साथ निर्देश किया गया है, जिनके संबंध में उस समय कुछ विप्रतिपत्ति या गलतफहमी फैली हुई थी अथवा प्रचारमे आरही थी. ६. बोधपाहुड —— इस पाहुडका शरीर ६२ गाथाओं से निर्मित है। इनमे १ आयतन, चैत्यगृह, ३ जनप्रतिमां, ४ दर्शन. ५ जिनवम्ब, ६ जिनमुद्रा, ७ आत्मज्ञान, ८ देव, तीर्थ, १० अर्हन्त, ११ प्रव्रज्या इन ग्यारह बातोका क्रमशः आगमानुसार बोध दिया गया है । इस ग्रंथकी ६१ वीं गाथामे' कुन्दकुन्द ने अपनेको भद्रबाहुका शिष्य प्रकट किया है जो संभवतः भद्रबाहु द्वितीय जान पड़ते है, क्योंकि भद्रबाहु न त केवली के समयमे जिनकथित श्रुतमे ऐसा कोई विकार उपस्थित नहीं हुआ था जिसे उक्त गाथामे 'सहवियारो हो मासा सुत्तेसु ज जिणे कहियं' इन शब्दोद्वारा सूचित किया गया है-वह अविच्छिन्न चला आया था । परन्तु दूसरे भद्रबाहुके समयमे वह स्थिति नहीं रही थी- कितना ही श्रु नज्ञान लुप्त हो चुका था और जो अवशिष्ट था वह अनेक भापा सूत्रो मे परिवर्तित हो गया था । इससे ६१ वीं गाथाके भद्रबाहु भद्रबाहु द्वितीय ही जान पड़ते हैं । ६२ वीं गाधामे उसी नाम से प्रसिद्ध होने वाले प्रथम भद्रवाहुका जो कि बारह अग और चौदह पूर्व के ज्ञाता श्रुतकेवली थे, अन्त्य मगलके रूपमे जयघोष किया गया और उन्हें साफ तौर पर 'गमकगुरु' लिखा है । इस तरह अन्तकी दोनो गाथाओ मे दो अलग अलग भद्रवाहुओका उल्लेख होना अधिक युक्तियुक्त और वुद्धिगम्य जान पड़ता है 1 १०. भावपाहुड ——— १६३ गाथाओ का यह ग्रंथ वडा ही महत्त्वपूर्ण है । इसमे भावकी — चित्तशुद्धिकी - महत्ता की अनेक प्रकार से सर्वोपरि ख्यापित किया गया है । विना भावके बाह्यपरिग्रहका त्याग करके नग्न दिगम्बर साधु तक होने और वनमें जा बैठनेको भी व्यर्थ ठहराया है । परिणामशुद्धि के विना ससार - परिभ्रमण नहीं रुकता और न विना भावके कोई पुरुषार्थ ही सघता है, भावके विना सब कुछ निःसार है इत्यादि अनेक बहुमूल्य शिक्षा एव मर्म की बातोंसे यह ग्रंथ परिपूर्ण है। इसकी कितनी ही गाथाओं का अनुसरण गुणभद्राचार्य ने अपने आत्मानुशासन ग्रंथमे किया है। 1 ११. मोक्खपाहुड – यह मोक्ष प्राभृत भी बड़ा ही महत्वपूर्ण ग्रंथ है और इसकी गाथा- सख्या १०६ है । इसमे आत्माके बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा ऐसे तीन भेद करके उनके स्वरूपको समझाया है और मुक्ति अथवा परमात्मपद कैसे प्राप्त हो सकता है इसका अनेक प्रकार से निर्देश किया है । इस ग्रंथके कितने ही वाक्योंका अनुसरण पूज्यपाद आचार्य ने अपने 'समाधितत्र' ग्रंथ में किया है । इन दंसणपाहुडसे मोक्खपाहुड तकके छह प्राभृत ग्रंथोंपर श्रुतसागर सूरिकी टीका भी उपलब्ध है, जो कि माणिकचन्द-ग्रंथमालाके षट्प्राभृतादिसग्रहमे मूलग्रंथोके साथ प्रकाशित हो चुकी है । १ सद्दवियारो हूश्रो भासा - सुत्तेसु जं जिणे कहियं । सो तह कहियं गायं सीसेण य भद्दवाहुस्स ॥ ६१ ॥ 1 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १५ १२. लिगपाहुड—यह वाविशति(२२'-गाथात्मक ग्रंथ है। इसमें श्रमणलिङ्गको लक्ष्यमें लेकर उन आचरणोंका उल्लेख किया गया है जो इस लिङ्गधारी जैनसाधुके लिये निषिद्ध हैं और साथ ही उन निषिद्ध आचरणोंका फल भी नरकवासादि बतलाया गया है तथा उन निषिद्धाचारमे प्रवृत्ति करनेवाले लिङ्गभावसे शून्य साधुओंको श्रमण नहीं माना है-तिर्यञ्चयोनि बतलाया है। १३. सीलपाहुड-यह ४० गाथाओंका ग्रंथ है । इसमे शीलका-विषयोंसे विरागका महत्व ख्यापित किया है और उसे मोक्ष-सोपान बतलाया है। साथ ही जीवदया, इन्द्रियदमन, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, सतोष, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और तपको शीलका परिवार घोषित किया है। १४. रयणसार-इस प्रथका विषय गृहस्थों तथा मुनियोंके रत्नत्रय-धर्म-सम्बन्धी कुछ विशेष कर्तव्योंका उपदेश अथवा उनकी उचित-अनुचित प्रवृत्तियोका कुछ निर्देश है। परन्तु यह प्रथ अभी बहुत कुछ सदिग्ध स्थितिमे स्थित है-जिस रूपमे अपनेको प्राप्त हुआ है उसपरसे न तो इसकी ठीक पद्य-सख्या ही निर्धारित की जा सकती है और न इसके पूर्णतः मूलरूपका ही कोइ पता चलता है । माणिकचन्द-ग्रंथमालाके षटप्राभृतादि-सग्रहमे इस प्रथकी पद्यसंख्या १६७ दी है। साथ ही फुटनाटसमे सम्पादकने जिन दो प्रतियो (कख) का तुलनात्मक उल्लेख किया है उसपरसे दोनो प्रतियोंमे पद्योकी संख्या बहुत कुछ विभिन्न (हीनाधिक) पाई जाती है और उनका कितना ही क्रमभेद मी उपलब्ध हैसम्पादनमे जो पद्य जिस प्रतिमे पाये गये उन सबको ही विना जॉचके यथेच्छ क्रमके साथ ले लिया गया है। देहलीके पंचायती मन्दिरकी प्रतिपरसे जब मैंने इस मा० प्र० संस्करणकी तुलना की तो मालूम हुआ कि उसमें इस ग्रंथकी १२ गाथाएँ नं०८, ३४, ३७, ४६, ५५, ५६, ६३, ६६, ६७, ११३, १२५, १२६ नहीं हैं और इसलिये उसमें ग्रंथकी पद्यसंख्या १५५ है। साथ ही उसमें इस ग्रंथकी गाथा नं० १७, १८ को आगे-पीछे; ५२ व ५३, ६१ व ६६ को क्रमशः १६३ के बाद, ५४ को १६४ के बाद, ६० को १६५ के पश्चात् १०१ व १०२ को आगेपोछे, ११० व १११ को १६२ के अनन्तर, १२१ को ११६ के पूर्व और १२२.को १५४ के बाद दिया है। पं० कलापा भरमापा निटवेने इस ग्रंथको सन् १६०७ में मराठी अनुवादके साथ मुद्रित कराया था उसमे भी यद्यपि पद्य-संख्या १५५ है, और क्रमभेद भी देहली-प्रति-जैसा है, परन्तु उक्त १२ गाथाओंमेसे ६३वीं गाथाका अभाव नहीं है-वह मौजूद है, किन्तु मा० प्र० संस्करणकी ३५ वीं गाथा नहीं है, जो कि देहलीकी उक्त प्रतिमें उपलब्ध है। इस तरह प्रथप्रतियोंमे पद्य-संख्या और उनके क्रमका बहुत बड़ा भेद पाया जाता है। इसके सिवाय, कुछ अपभ्रंश भाषाके पद्य भी इन प्रतियोंमें उपलब्ध होते हैं, एक दोहा भी गाथाओं के मध्यमे आ घुसा है, विचारोंकी पुनरावृत्तिके साथ कुछ बेतरतीबी भी देखी जाती है, गण-गच्छादिके उल्लेख भी मिलते हैं और ये सब बातें कुन्दकुन्दके ग्रंथोंकी प्रकृतिके साथ संगत मालूम नहीं होतीं-मेल नहीं खातीं । और इसलिये विवर प्रोफेसर ए० एन० उपाध्येने (प्रवचनसारकी अंग्रेजी प्रस्तावनामे) इस ग्रंथपर अपना जो यह विचार व्यक्त किया है वह ठीक ही है कि-'रयणसार ग्रंथ गाथाविभेद, विचारपुनरावृत्ति, अपभ्रंश पद्योकी उपलब्धि, गण-गच्छादि-उल्लेख और बेतरतीबी आदिको लिये हुए जिस स्थितिमे उपलब्ध है उसपरसे वह पूरा प्रथ कुन्दकुन्दका नहीं कहा जा सकता-कुछ अतिरिक्त गाथाओंकी मिलावटने उसके मूलमे गड़बड़ उपस्थित कर दी है । और इसलिये जब तक कुछ दूसरे प्रमाण उपलब्ध न हो जाएँ तब तक यह बात विचाराधीन ही रहेगी कि कुन्दकुन्द इस समग्र रयणसार ग्रंथके कर्ता है। इस ग्रंथपर संस्कृतकी कोई टीका उपलब्ध नहीं है। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची १५. सिद्धभक्ति-यह १२ गाथाओंका एक स्तुतिपरक अथ है, जिसमें सिद्धोंकी, उनके गुणों, भेदों, सुख, स्थान, आकृति और सिद्धि के मार्ग तथा क्रमका उल्लेख करते हुए, अति-भक्तिभावके साथ वन्दना की गई है । इसपर प्रभाचन्द्राचार्यकी एक सस्कृत टीका है, जिसके अन्तमे लिखा है कि-"संस्कृताः सर्वा भक्तयः पादपूज्यस्वामिकृताः प्राकृतास्तु कुन्दकुन्दाचार्यकृताः" अर्थात संस्कृतकी सब भक्तियाँ पूज्यपाद स्वामीकी बनाई हुई हैं और प्राकृतकी सब भक्तियाँ कुन्दकुन्दाचार्यकृत है । दोनो प्रकार की भक्तियोंपर प्रभाचन्द्राचार्यकी टीकाएँ हैं। इस भक्तिपाठके साथमें कहीं कहीं कुछ दूसरी पर उसी विषयकी, गाथाएँ भी मिलती हैं, जिनपर प्रभाचन्द्रकी टीका नहीं है और जो प्रायः प्रक्षिप्त जान पड़ती है। क्योंकि उनमेसे कितनी ही दूसरे ग्रंथोंकी अंगभूत हैं। शोलापुरसे 'दशभक्ति' नामका जो सग्रह प्रकाशित हुआ है उसमे ऐसी ८ गाथाओ का शुरूमें एक सस्कृतपद्य-सहित अलग क्रम दिया है। इस क्रमकी गमणागमणविमुक्के' और 'तवसिद्ध णयसिद्धेजैसी गाथाओको, जो दूसरे ग्रथोंमे नहीं पाई गई, इस वाक्य-सूचीमे उस दूसरे क्रमके साथ ही ले लिया गया है । परन्तु सिद्धाणहमला' और 'जयमगलभूदाणं' इन क्रमशः ५, ७ नंबरकी दो गाथाओंका उल्लेख छूट गया है, जिन्हें यथास्थान बढ़ा लेना चाहिये। १६. श्रु तभक्ति-यह भक्तिपाठ एकादश-गाथात्मक है। इसमें जैन तके आचाराङ्गादि द्वादश अंगोंका भेद-प्रभेद-सहित उल्लेख करके उन्हें नमस्कार किया गया है। साथ ही, १४ पूर्वोमेंसे प्रत्येककी वस्तुसंख्या और प्रत्येक वस्तुके प्राभृतों (पाहुडो) की सख्या भी दी है। १७. चारित्रभक्ति-इस भक्तिपाठकी पद्यसंख्या १० है और वे अनुष्टुभ् छन्दमे है । इसमे श्रीवर्द्धमान-प्रणीत सामायिक, छेदोपस्थापन, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंयम (सूक्ष्मसाम्पराय) और यथाख्यात नामके पांच-चारित्रों, अहिंसादि २८ मूलगुणों तथा दशधर्मों, त्रिगुप्तियों, सकलशीलों, परीषहोंके जय और उत्तरगुणोका उल्लेख करके उनको सिद्धि और सिद्धि-फल मुक्तिसुखकी भावना की है। १८. योगि(अनगार)भक्ति-यह भक्तिपाठ २३ गाथाओंको अङ्गरूपमें लिये हुए है । इसमे उत्तम अनगारों-योगियोंकी अनेक अवस्थाओं, ऋद्धियो, सिद्धियों तथा गुणोके उल्लेखपूर्वक उन्हें बड़ी भक्तिभावके साथ नमस्कार किया है, योगियोके विशेषणरूप गुणोंके कुछ समूह परिसख्यानात्मक पारिभाषिक शब्दोंमे दोकी संख्यामे लेकर चौदह तक दिये हैं; जैसे 'दोदोसविप्पमुक्क' तिदडविरद, तिसल्लपरिसुद्ध, तिरिणयगारवरहिश्र, तियरणसुद्ध, चउदसगंथपरिसुद्ध, चउदसपुव्वपगम्भ और चउदसमलविवज्जिद' । इस भक्तिपाठके द्वारा जैनसाधुओंके आदर्श-जीवन एवं चर्याका अच्छा स्पृहणीय सुन्दर स्वरूप सामने आजाता है, कुछ ऐतिहासिक बातोंका भी पता चलता है, और इससे यह भक्तिपाठ बड़ा ही महत्वपूर्ण जान पड़ता है। । १६. आचार्यभक्ति-इसमें १० गाथाएँ हैं और उनमें उत्तम-प्राचार्योंके गुणोंका उल्लेख करते हुए उन्हें नमस्कार किया गया है। आचार्य परमेष्ठी किन किन खास गुणोंसे विशिष्ट होने चाहियें, यह इस भक्तिपाठपरसे भले प्रकार जाना जाता है। २०. निर्वाणभक्ति-इसकी गाथासंख्या २७ है । इसमें प्रधानतया निर्वाणको प्राप्त हुए तीर्थंकरों तथा दूसरे पूतात्म-पुरुषों के नामोंका, उन स्थानोंके नाम-सहित स्मरण तथा वन्दन किया गया है जहाँसे उन्होंने निर्वाण-पदकी प्राप्ति की है। साथ ही, जिन स्थानोंके साथ ऐसे व्यक्ति-विशेषोंकी कोई दूसरी स्मति खास तौरपर जुड़ी हुई है ऐसे अतिशय क्षेत्रों Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १७ का भी उल्लेख किया गया है और उनकी तथा निर्वाणभूमियोकी भी वन्दना की गई है। इस भक्तिपाठपरसे कितनी ही ऐतिहासिक तथा पौराणिक बातो एवं अनुश्र तियोंकी जानकारी होती है, और इस दृष्टिसे यह पाठ अपना खास महत्त्व रखता है। २१.पंचगुरु(परमेष्ठि)भक्ति-इसकी पद्यसंख्या ७(६) है। इसके प्रारम्भिक पाँच पद्योमे क्रमशः अर्हत् , सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ऐसे पॉच गुरुवों-परमेष्ठियोका स्तोत्र है, छठे पद्यमे स्तोत्रका फल दिया है और ये छहों पद्य सृग्विणी छंदमे हैं । अन्तका ७ वॉ पद्य गाथा है, जिसमे अहंदादि पंच परमेष्ठियोके नाम देकर और उन्हें पंचनमस्कार (णमोकारमंत्र) के अगभूत बतलाकर उनसे भवभवमे सुखकी प्रार्थना की गई है । यह गाथा प्रक्षिप्त जान पड़ती है। इस भक्तिपर प्रभाचन्द्रकी संस्कृत टीका नहीं है। २२. थोस्सामि थुदि—(तीर्थकरभक्ति)-यह 'थोस्सामि पदसे प्रारंभ होनेवाली अष्टगाथात्मक स्तुति है, जिसे 'तित्थयरभत्ति' (तीर्थकरभक्ति) भी कहते हैं । इसमे वृषभादि-वर्द्धमान-पर्यन्त चतुर्विंशति तीर्थंकरोंकी, उनके नामोल्लेख-पूर्वक, वन्दना की गई है और तीर्थंकरोंके लिये जिन, जिनवर, जिनवरेन्द्र. नरप्रवर, केवली, अनन्ताजन, लोकहित, धर्मतीर्थकर, विधूत-रज-मल, लोकोद्योतकर, अर्हन्त, प्रहीन-जर-मरण, लोकोत्तम, सिद्ध, चन्द्र-निर्मलतर, आदित्याधिकप्रभ और सागरमिव गम्भीर जैसे विशेषणोका प्रयोग किया गया है। और अन्तमें उनसे आरोग्यज्ञान-लाभ (निरावरण अथवा मोहविहीन ज्ञानप्राप्ति), समाधि (धर्म्य-शुक्लध्यानरूप चारित्र), बोधि (सम्यग्दर्शन) और सिद्धि (स्वात्मोपलब्धि) को प्रार्थना की गई है। यह भक्तिपाठ प्रथम पद्यको छोड़ कर शेप सात पद्योके रूपमे थोड़ेसे परिवर्तनो अथवा पाठ-भेदों के साथ, श्वेताम्बर समाजमे भी प्रचलित है और इसे लोगस्स सूत्र' कहते हैं। इस सूत्र में लोगस्स' नामके प्रथम पद्यका छांदसिक रूप शेष पद्योंसे भिन्न हैशेप छहों पद्य जब गाथारूपमे पाये जाते हैं तब यह अनुष्टुभ-जैसे छदमे उपलब्ध होता है, और यह भेद ऐसे छोटे ग्रंथमे बहुत ही खटकता है खासकर उस हालतमे जबकि दिगम्बर सम्प्रदायमे यह अपने गाथारूपमे ही पाया जाता है । यहाँ पाठभेदोंकी दृष्टिसे दोनों सम्प्रदायोंके दो पद्योंको तुलनाके रूपमे रक्खा जाता है : लोयस्सुज्जोययरे धम्म-तित्थंकरे जिणे वंदे । अरहते कित्तिस्से चउवीसं चेव केवलिणे ॥ २॥ -दिगम्बरपाठ लोगस्स उज्जोअगरे धम्मतित्थयरे जिणे । अरहते कित्तइस्सं चउवीसं पि केवली ॥१॥ -श्वेताम्बरपाठ कित्तिय वंदिय महिया एदे लोगोत्तमा जिणा सिद्धा । आरोग्ग-णाप-लाह दितु समाहिं च मे वोर्हि ॥ ७ ॥ -दिगम्बरपाठ कित्तिय वंदिय महिया जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा । आरुग्ग-वोहिलाहं समाहिवरमुत्तमं दितु ॥ ६॥ -श्वेताम्बरपाठ* * दोनों पोका श्वेताम्बरपाठ प• सुखलालजी-द्वारा सम्पादित 'पंचप्रतिक्रमण' ग्रन्यसे लिया गया है। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची और उन्हें यथास्थान संनिविष्ट किया है, जिससे इस ग्रंथकी कुल गाथा-संख्या २३३ होगई है) इस सख्यासे मूल सूत्रगाथाओंको अलग व्यक्त करने के लिये प्रस्तुत वाक्य-सूचीमें उनके क्रमाङ्कों (नम्बरो) को व्र कट ( ) मे अलग दे दिया है । ग्रन्थ के ये गाथासूत्र प्राय बहत संक्षित हैं और अधिक अर्थके ससूचनको लिये हुए है । इसीसे इनकी कुल संख्या २३३ होते हुए भी इनपर यतिवृषभाचार्य ने छह हजार श्लोकपरिमाण चूर्णिसूत्र रचे, उच्चारणाचार्य ने बारह हजार श्लोकपरिमाण वृत्तिसूत्र लिखे और श्रीवीरसेन तथा जिनसेन आचार्योने (२०+४० हजारके क्रमसे) ६० हजार श्लोकपरिमाण 'जयघवला' टीकाकी रचना की, जो शकसंवत् ७५६ मे बनकर समाप्त हुई और जिसका अब सानुवाद छपना प्रारम्भ हो गया है तथा एक खण्ड प्रकाशित भी हो चुका है।) २५. षटखएडागम-यह १ जीवस्थान, २ क्षुल्लकबन्ध, ३ वन्धस्वामित्व विचय, ४ वेदना. ५ वर्गणा और ६ महावन्ध नामके छह खण्डोमें विभक्त आगम-ग्रंथ है । (इसके कर्ता श्री पुष्पदन्त और भूतबलि नामके दो आचार्य हैं । पुष्पदन्तने विंशति-प्ररूपणात्मक सूत्रोंकी रचना की है, जो कि प्रथमखण्डके सत्प्ररूपणा नामक प्रथम अनुयोगद्वारके अन्तर्गत है, शेष सारा ग्रंथ भूतवलि आचार्यकी कृति है । इसका मूल आधार 'महाकम्मपडि-पाहूड' नामका वह श्रु त है जो अग्रायणीपूर्व-स्थित पंचम वस्तुका चौथा प्राभृत है और जिसका ज्ञान अष्टांग महानिमित्तके पारगामी धरसेनाचार्यको आचार्य-परम्परासे पूर्णतः प्राप्त हुआ था) और उन्होंने श्रतविच्छेदके भयसे उसे उक्त पुष्पदन्त तथा भूतबलि नामके दो खास मुनियों को पढ़ाया था, जो श्रु तके ग्रहण धारणमें समर्थ थे ।(इस पूरे प्रथको संख्या, इन्द्रनन्दि श्र तावतारके कथनानुसार ३६ हजार श्लोकपरिमाण है, जिसमेसे ६ हजार संख्या पॉच खण्डोंकी और शेष ३० हजार महावन्ध नामक छठे खण्डकी है। प्रथका विषय मुख्यतया जीव और कर्म-विपयक जैनसिद्धान्तका निरूपण है, जो बड़ा ही गहन है और अनेक भेद-प्रभेदों मे विभक्त है ) यह अथ प्रायः गद्यात्मक सूत्रोमे है, परन्तु कहीं कहीं गाथासूत्रोका भी प्रयोग किया गया है। ऐसे जो गाथासूत्र अभी तक टीकापरसे स्पष्ट हो सके है उन्हींको, पद्यानुक्रमणो होनेसे, इस वाक्य-सूचीमे लिया गया है। जो पद्य-वाक्य और स्पष्ट हो उन्हें विद्वानोको परिशिष्ट नं० २ मे बढ़ा लेना चाहिये । (इस प्रथके प्रायः चार खण्डोंपर वीं शताब्दीके विद्वान आचार्य वीरसेनने 'धवला' नामकी टीका लिखी है, जो ७२ हजार श्लोकपरिमाण है और बड़ी ही महत्वपूर्ण है। इस टीकामे दूसरे दो खण्डोंके विषयको भी कुछ समाविष्ट किया गया है, इसस इन्द्रनन्दिके कथनानुसार यह छहो खण्डोंकी और विबुध श्रीधरके कथनानुसार पाँचखण्डोंकी टीका भी कहलाती है। यह टीका कई वर्षसे हिन्दी अनुवादादिके साथ छप रही है और इसके कई खण्ड निकल चुके हैं।) २६. भगवती आराधना-यह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र और सम्यक तपरूप चार आराधनाओपर,जो मुक्ति को प्राप्त करानेवाली हैं, एक बड़ा ही अधिकार पूर्ण प्राचीन ग्रंथ है, जैनसमाजमे सर्वत्र प्रसिद्ध है और प्रायः मुनिधर्मसे सम्बन्ध रखता है। जनधर्भ में समाधिपूर्वक मरणकी सर्वोपरि विशेषता है मुनि हो या श्रावक सबका लक्ष्य उसकी ओर रहता है, नित्यकी प्रार्थनामे उसके लिये भावना की जाती है और उसकी सफलतापर जीवनकी सफलता तथा सुन्दर भविष्यकी आशा निर्भर रहती है। इस ग्रंथपर से समाधिपूर्वक मरणकी पर्याप्त शिक्षा-सामग्री तथा व्यवस्था मिलती है-सारा प्रथ मरण के भेद-प्रभेदों और तत्सम्बन्धी शिक्षाओं तथा व्यवस्थाओंसे भरा हुआ है। इसमे मरणके मुख्य पाँच भेद किये हैं-१ पंडितपंडित, २ पंडित, ३ बालपंडित, ४ बाल और ५ बालबाल । इनमें पहले तीन प्रशस्त और शेष अप्रेशस्त हैं। बाल-बालमरण मिथ्यादृष्टि जीवोंका, Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना बालमरण अविरत-सम्यग्दृष्टियोंका, बालपंडितमरण विरताऽविरत ( देशव्रती ) श्रावकोका, पंडितमरण सकल संयमी साधुओंका और पडितपडितमरण क्षीणकषाय केवलियोंका होता है। साथ ही, पंडितमरणके १ भक्तप्रत्याख्यान, २ इंगिनी और ३ प्रायोपगमन ऐसे तीन भेट करके भक्तप्रत्याख्यानके सविचार-भक्त-प्रत्याख्यान और अविरार-भक्त-प्रत्याख्यान ऐसे दो भेद किये हैं और फिर सविचारभक्तप्रत्याख्यानका 'अर्ह' आदि घालीम अधिकारोमे विस्तारके साथ वर्णन दिया है। तदनन्तर अविचार-भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनी, प्रायोपगमनमरण, बालपडितमरण और पंडितपंडितमरणका संक्षेपत. निरूपण किया है। इस विषय के इतने अधिक विस्तृत और व्यवस्थित विवेचनको लिये हुए दूसरा कोई भी ग्रंथ जनसमाजमे उपलब्ध नहीं है। अपने विषयका असाधारण मूलपथ होनेसे जैनसमाजमे यह खूब ख्यातिको प्राप्त हुआ है। इसकी गाथासंख्या सब मिलाकर २१७० है, जिनमे ५ गाथाएं 'उक्त च' आदि रूपसे दी हुई हैं।) (भगवती आराधनाके कर्ता, शिवार्य अथवा शिवकोटि नामके आचार्य हैं. जिन्होंने प्रथके अन्तमे आयेजिननन्दिगणी, सर्वगुप्तगणी और आर्यमित्र नन्दीका अपने विद्या अथवा शिक्षा-गुरुके रूपमे इस प्रकारसे उल्लेख किया है कि उनके पादमूलमे बैठकर 'सम्-' सूत्र और उसके अर्थकी अथवा सूत्र और अर्थकी भले प्रकार, जानकारी प्राप्त की गई और पूर्वाचार्य अथवा आचार्योंके द्वारा निबद्ध हुई आराधनाओका उपयोग करके यह आराधना स्वशक्तिके अनुसार रची गई है। साथ ही, अपनेको 'पाणि-दल-भोजी' (करपात्रआहारी) लिखकर श्वेताम्बर सम्प्रदायसे भिन्न दिगम्बर सम्प्रदायका सूचित किया है। इसके सिवाय, उन्होंने यह भी निवेदन किया है कि छद्मस्थता (ज्ञानकी अपूर्णता) के कारण मुझसे कहीं कुछ प्रवचन (आगम) के विरुद्ध निबद्ध होगया हो तो उसे सुगीतार्थ (आगमज्ञानमे निपुण) साधु प्रवचनवत्सलताकी दृष्टिसे शुद्ध कर लेवें । और यह भावना भी की है कि भक्तिसे वर्णन की हुई यह भगवती आराधना संघको तथा (मुझ)शिवार्यको उत्तम समाधि-वर प्रदान करे-इसके प्रसादसे मेरा तथा संघके सभी प्राणियोंका समाधिपूर्वक मरण होवे'। ____इस प्रथपर सस्कृत, प्राकृत और हिन्दी आदिकी कितनी ही टीका-टिप्पणियाँ लिखी गई ह अनुवाद भा हुए हैं और वे सब ग्रंथकी' ख्याति, उपयोगिता, प्रचार और महत्ताके द्योतक हैं। प्राकृतकी टीका-टिप्पणियाँ यद्यपि आज उपलब्ध नहीं हैं, परन्तु सस्कृत टीकाओं मे उनके स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध होते हैं और वे अथकी प्राचीनताको सविशेषरूपसे सूचित करते है । जयनन्दी और श्रोघरके दो टिप्पण और एक अज्ञातनाम विद्वानका पद्यानुवाद भी अभी तक उपलब्ध नहीं हुए, जिनका पं० आशाघरकी टोकामे उल्लेख है। और भी कुछ टीका-टिप्पणियाँ अनुपलब्ध हैं । उपलब्ध टीकाओंमे संभवतः विक्रमकी ८ वीं शनाब्दीके विद्वान आचार्य अपराजित सूरिकी विजयोदया' टीका, १३ वीं शताब्दीके विद्वान पं. आशाघरकी मूलाराघनादर्पण' नामकी टीका और ११ वीं शताब्दीके विद्वान् अमितगतिकी पद्यानुवादरूपमें 'सस्कृत आराधना' ये तीनों कृतियाँ एक साथ नई हिन्दी टीका-सहित १ श्रज्जजिणणदिगणि-सव्वगुत्तगणि-अज्जमित्तणदीण । 'अवगमिय पादमूले सम्म सुत्त च अत्यं च ॥ २१६५ पुवायरियणिबद्धा उवजीवित्ता इमा ससत्तीए । श्राराहणा सिवज्जेण पाणिदलभोहणा रइदा ॥ २१६६ ॥ छदुमत्यदाए एत्य दु ज बद्धं होज पवयण-विरुद्धं । मोधतु सुगीदत्या पवयण-बच्छलदाप दु ॥ २१६७ ।। आराहणा भगवदी एव भक्तीए वरिणदा सती । सघस्स सिवज्जस्स य समाहिवरमुत्तम देउ ॥ २१६८ ।। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ पुरातन-जैनवाक्य-सूची मुद्रित हो चुकी है। पं० सदासुखजीकी हिन्दी टीका इनसे भी पहले मुद्रित हुई है । और 'आराधनापब्जिका' तथा शिवजीलालकृत भावार्थदीपिका' टीका दोनों पूना के भाण्डारकर - प्राच्यविद्या संशोधक-मंदिरमे पाई जाती हैं, ऐसा पं० नाथूरामजी प्रेमीने अपने लेखों में सूचित किया है। २७. कार्तियानुप्रेक्षा और स्वामिकुमार यह अनुप्रेक्षा अध्रुवादि रह भावनापर, जिन्हें भव्यजनो के लिये आनन्दकी जननी लिखा है (गा० १), एक बड़ा ही सुन्दर, सरल तथा मार्मिक ग्रंथ है और ४८६ गाथासंख्या हुए है । इसके उपदेश बड़े ही हृदय-ग्राही हैं, उक्तियाँ अन्तस्तलको स्पर्श करती हैं और इसीसे यह जैनसमाज में सर्वत्र प्रचलित है तथा बड़े ही आदर एव प्रेमकी दृष्टि देखा जाता है 1 इसके कर्ता प्रथकी निम्न गाथा न० ४८७ के अनुसार 'स्वामिकुमार' हैं, जिन्होंने निवचनकी भावनाके लिये और चचल मनको रोकनेके लिये परमश्रद्धा के साथ इन भावनाओकी रचना की है 1: जिण - वयण - भावणङ्कं सामिकुमारेण परमसद्धाए । रइया अणुपेक्खाओ चंचलमण - कुंभणङ्कं च ॥ 'कुमार' शब्द पुत्र, बालक, राजकुमार, युवराज, अविवाहित, ब्रह्मचारी आदि अर्थोंके साथ ‘कार्तिकेय' अर्थ मे भी प्रयुक्त होता है, जिसका एक प्राशय कृतिकाका पुत्र है और दूसरा आशय हिन्दुओंका वह षडानन देवता है जो शिवजीके उस वीर्य से उत्पन्न हुआ था जो पहले अग्निदेवताको प्राप्त हुआ, अग्निसे गंगामे पहुॅचा और फिर गगामे स्नान करती हुई छह कृतिकाओं के शरीर मे प्रविष्ट हुआ, जिससे उन्होने एक एक पुत्र प्रसव किया और वे छो पुत्र बादको विचित्र रूपमे मिलकर एक पुत्र कार्तिकेय हो गए, जिसके छह मुख और १२ भुजाएँ तथा १२ नेत्र बनलाये जाते हैं । और जो इसी से शिवपुत्र, अग्निपुत्र, गंगापुत्र तथा कृतिका आदिका पुत्र कहा जाता है । कुमारके इस कार्तिकेय अर्थको लेकर ही यह ग्रंथ स्वामिकार्तिकेय-कृत कहा जाता है तथा कार्तिकेयानुप्रेक्षा जैसे नामोंसे इसकी सर्वत्र प्रसिद्धि है । (परन्तु ग्रंथभर में कहीं भी ग्रंथकारका नाम कार्तिकेय नहीं दिया और न प्रथको कार्तिकेयानुप्रेक्षा अथवा स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा जैसे नामसे उल्लेखित ही किया है, प्रत्युत इसके, प्रतिज्ञा और समाप्ति वाक्योंमें ग्रंथका नाम सामान्यतः 'अणुपेहा' या 'श्रणुपेक्खा ' (अनुप्रेक्षा) और विशेषतः 'बारस अणुवेक्खा' दिया है' । कुन्दकुन्दके इस विषयके ग्रंथका नाम भी ‘बारस अणुपेक्खा' है । तब कार्तिकेयानुप्रेक्षा यह नाम किसने और कब दिया, यह एक अनुसन्धानका विषय है । ग्रंथपर एकमात्र संस्कृत टीका जो उपलब्ध है वह भट्टारक शुभचन्द्रकी है और विक्रम संवत् १६१३ मे बनकर समाप्त हुई है। इस टीकामें अनेक स्थानों पर प्रथका नाम 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' दिया है और ग्रंथकारका नाम 'कार्तिकेय' मुनि प्रकट किया है। तथा कुमारका अर्थ भी 'कार्तिकेय' बतलाया है । इससे संभव है कि शुभचन्द्र भट्टारक १ वोच्छ श्रणुपेहा श्री ( गा० १), बारसश्रणुपेक्खाश्रो भणिया हु जिणागमानुसारेण ( गा० ४८८ ) । २ यथा: -- ( १ ) कार्तिकेयानुप्रेक्षाष्टीका वक्ष्ये शुभभिये । (श्रादिमंगल) (२) कार्तिकेयानुप्रेक्षाया वृत्तिविरचिता वरा । ( प्रशस्ति ८) ( ३ ) स्वामिकार्तिकयो मुनीन्द्रा अनुप्रेक्षा व्याख्यातुकामः मलगालन-मंगलावाप्ति-लक्षण[ मंगल] माचष्टे । ( गा० १) ( ४ ) केन रचित: स्वामिकुमारेण भव्यवर-पुण्डरीक - श्रीस्वामिकार्तिकेयमुनिना श्राजन्मशीलधारिणा श्रनुप्रेक्षाः रचिता: । ( गा० ४८७ ) (५) श्रहं श्रीकार्तिकयसाधुः सस्तुवे (४८६ ) | ( देहली नयामन्दिर प्रति, वि०सवत् १८०६ ) Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना २३ तारा ही यह नामकरण किया गया हो-टीकासे पूर्वके उपलब्ध साहित्यमें ग्रंथकाररूपमे इस नामकी उपलब्धि भी नहीं होती।) 'काहेण जो ण तप्पदि इत्यादि गाथा नं० ३६४ की टीकामें निर्मल क्षमाको उदाहृत करते हुए घोर उपसर्गो को सहन करनेवाले सन्तजनोंके कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये हैं, जिनमे एक उदाहरण कार्तिकेय मुनिका भी निम्नप्रकार है: ___ "स्वामिकार्तिकेयमुनि-कौंचराज-कृतोपसर्ग सोढ्वा साम्यपरिणामेन समाधिमरणेन देवलोकं प्राप्यः (सः)।" इसमें लिखा है कि 'स्वामिकार्तिकेय मुनि क्रौंचराजकृत उपसर्गको समभावसे सह कर समाधिपूर्वक मरणके द्वारा देवलोकको प्राप्त हुए ।' तत्त्वार्थराजवार्तिकादि ग्रंथोंमे 'अनुत्तरोपपाददशांग' का वर्णन करते हुए, वर्द्धमान तीर्थकरके तीर्थमे दारुण उपसर्गों को सहकर विजयादिक अनुत्तर विमानों (देवलोक) मे उत्पन्न होनेवाले दस अनगार साधुओं के नाम दिये हैं उनमे कार्तिक अथवा कार्तिकेयका भी एक नाम है, परन्तु किसके द्वारा वे उपसर्गको प्राप्त हुए ऐसा कुछ उल्लेख साथमें नहीं है। (हॉ, भगवती भागधना-जैसे प्राचीन ग्रंथकी निम्न गाथा नं० १५४६ मे क्रौंचके द्वारा उपसर्गको प्राप्त हुए एक व्यक्तिका उल्लेख जरूर है--साथमें उपसर्गस्थान 'रोहेडक' और शक्ति' हथियारका भी उल्लेख है-परन्तु 'कार्तिकेय नामका स्पष्ट उल्लेख नहीं है । उस व्यक्तिको मात्र 'अग्निदयितः' लिखा है, जिसका अर्थ होता है अग्निप्रिय, अग्निका प्रेमी अथवा अग्निका प्यारा-प्रेमपात्र) : रोहेडयम्मि सत्तीए हो कौंचेण अग्गिदयिदो वि । तं वेदणमधियासिय पडिवण्णा उत्तयं अहूँ ॥ 'मूलाराधनादर्पण' टीकामे पं० आशाघरजीने 'अग्गिदयिदो' (अग्निदयितः) पदका अर्थ, 'अग्निराजनाम्नो राज्ञः पुत्रः कार्तिकेयसंज्ञ-अग्निनामके राजाका पुत्र कार्तिकेयसंज्ञक -दिया है। कार्तिकेय मुनिकी एक कथा भी हरिषेण, श्रीचन्द्र और नेमिदत्त के कथाकोषोंमें पाई जाती है और उसमें कार्तिकेयकी कृतिका मातासे उत्पन्न अग्निराजाका पुत्र बतलाया है। साथ ही, यह भी लिखा है कि कार्तिकेयने राजकालमें-कुमारावस्थामे-ही मुनिदीक्षा ली थी, जिसका अमुक कारण था, और कार्तिकेयकी बहन रोहेटक नगरके उस क्रौंच राजा को व्याही थी जिसकी शक्तिसे आहत होकर अथवा जिसके किये हुए दारुणे उपसर्गको जीतकर कार्तिकेय देवलोक सिधारे हैं। इस कथाके पात्र कार्तिकेय और भगवती आराधना की उक्त गाथाके पात्र 'अग्निदयित' को एक बतलाकर यह कहा जाता है और आमतौरपर माना जाता है कि यह कार्तिकेयानुप्रेक्षा उन्हीं स्वामी कार्तिकेयकी बनाई हुई है जोक्रौंचराजा के उपसर्गको समभावसे सहकर देवलोक पधारे थे, और इसलिये इस ग्रंथका रचनाकाल भगवती आराधना तथा श्रीकुन्दकुन्दके ग्रंथोंसे भी पहलेका है भले ही इस ग्रंथ तथा भ० आराधनाकी उक्त गाथामे कार्तिकेयका स्पष्ट नामोल्लेख न हो और न कथामें इनकी इस ग्रंथरचनाका ही कोई उल्लेख हो। परन्तु डाक्टर ए० एन० उपाध्ये एम० ए० कोल्हापुर इस मतसे सहमत नहीं हैं। यद्यपि वे अभी तक इस ग्रंथके कर्ता और उसके निर्माणकालके सम्बन्धमें अपना कोई निश्चित एकमत स्थिर नहीं कर सके फिर भी उनका इतना कहना स्पष्ट है कि यह ग्रंथ उतना Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ पुरातन - जैनवाक्य-सूची (विक्रमसे दोसौ या तीनसौ वर्ष पहलेका १) प्राचीन नहीं है जितना कि दन्तकथाओंके आधार पर माना जाता है ) जिन्होंने ग्रंथकार कुमार के व्यक्तित्वको अन्धकार में डाल दिया है । और इसके मुख्य दो कारण दिये हैं, जिनका सार इस प्रकार है ( १ ) (कुमार के इस अनुप्रेक्षा प्रथमे बारह भावनाओंकी गणनाका जो क्रम स्वीकृत है वह वह नहीं है जो कि वट्टकेर, शिवार्य और कुन्दकुन्द के प्रथो (मूलाचार, भ० आराधना तथा बारसपेक्खा ) मे पाया जाता है, बल्कि उससे कुछ भिन्न वह क्रम है जो वादको उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रमे उपलब्ध होता है | ) - ( २ ) (कुमारकी यह अनुप्रेक्षा अपभ्रंश भाषा में नहीं लिखी गई, फिर भी इसकी २७६ वी गाथा 'सुिरहि' और 'भावहि' (preferably हिं) ये अपभ्रंशके दो पद आ घुसे है जो कि वर्तमान काल तृतीय पुरुपके बहुवचन के रूप हैं । यह गाथा जोइन्दु (योगीन्दु) के योगसारके ६५ वे दोहे के साथ मिलती जुलती है, एक ही आशयको लिये हुए है और उक्त दोहे पर से परिवर्तित करके रक्खी गई हैं। परिवर्तनादिका यह कार्य किसी बादके प्रतिलेखकद्वारा सभव मालूम नहीं होता, बल्कि कुमारने ही जान या अनजानमे जोइन्दुकं दोहेका अनुसरण किया है ऐसा जान पड़ता है । उक्त दोहा और गाथा इस प्रकार हैं:विरला जाहि तत्तु बहु विरला सुहिं तत्तु । विरला काहिं तत्तु जिय विरला धारहि तत्तु ॥ ६५ ॥ - योगसार विरला खिसुखहि तच विरला जाणंति तचदो तचं । विरला भावहि तच विरलाणं धारणा होदि ॥ ३७६ ॥ कार्तिकेयानुप्रेक्षा (और इसलिये ऐसी स्थिति में डा० साहबका यह मत है कि कार्तिकेयानुप्रेक्षा उक्त कुन्दकुन्दोदिके बादकी ही नहीं बल्कि परमात्मप्रकाश तथा योगसार के कर्ता योगीन्दु आचार्य के भी बादकी बनी हुई है, जिसका समय उन्होने पूज्यपादके समाधितत्रसे बादका और चण्डव्याकरणसे पूर्वका अर्थात् ईसाकी ५ वीं और ७ वीं शताब्दी के मध्यका निर्धारित किया है, क्योकि परमात्मप्रकाशमे समाधितंत्रका बहुत कुछ अनुसरण किया गया है और चण्डव्याकरणमे परमात्मप्रकाशके प्रथम अधिकारका ८५ वॉ दोहा (कालु लहेविणु जोइया ' इत्यादि) उदाहरणके रूपमे उद्धृत है ।) इसमे सन्देह नहीं कि मूलाचार, भगवती आराधना और बारसअणुवेक्खामे बारह भावनाओं का क्रम एक है, इतना ही नहीं बल्कि इन भावनाओ के नाम तथा क्रमकी प्रतिपादक गाथा भी एक ही है और यह एक खास विशेषता है जो गाथा तथा उसमें वर्णित भावनाओंके क्रमकी अधिक प्राचीनताको सूचित करती है । वह गाथा :स प्रकार है ऋद्ध्रुवमसरणमेग त्तमण्ण- संसार - लोगमसुचित्तं । -- आसव-संवर- णिज्जर-धम्मं वोहिं च चिति (ते) ज्जो || उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रमे इन भावनाओं का क्रम एक स्थानपर ही नहीं बल्कि तीन स्थानोंपर विभिन्न है । उसमें अशरणके अनन्तर एकत्व - अन्यत्व भावनाओं को न देकर १ पं० पन्नालालजी वाकलीवालकी प्रस्तावना पृ० १ । Catalogue of SK. and PK. Manuscripts in the C. P. and Berar p. XIV; तथा Winternitz. A History of Indian Literature, Vol. II p 577. परमात्मप्रकाशकी अंग्रेजी प्रस्तावना पृ० ६४-६५; प्रस्तावनाका हिन्दीसार पृ० ११३ - ११५ । ( Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना २५. संसारभावनाको दिया है और संसारभावनाके अनन्तर एकत्व-अन्यत्व भावनाओंको रक्खा है, लोकभावनाको संसारभावनाके बाद न रखकर निर्जराभावनाके बाद रक्खा है और धर्मभावनाको बोधि-दुर्लभसे पहले स्थान न देकर उसके अन्तमें स्थापित किया है, जैसाकि निम्न सूत्रसे प्रकट है "अनित्याऽशरण-संसारैकत्वाऽन्यत्वाऽशुच्याऽऽस्रव-संवर-निर्जरा-लोक-बोधिदुर्लभ-धर्मस्वाख्याततत्त्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षाः ॥६-७॥ और इससे ऐसा जाना जाता है कि भावनाओं का यह क्रम, जिसका पूर्व साहित्यपरसे समर्थन नहीं होता, बादको उमास्वातिके द्वारा प्रतिष्ठित हुआ है । कार्तिकेयानुप्रेक्षामे इसी क्रमको अपनाया गया है । अतः यह प्रथ उमास्वातिसे पूर्वका नहीं बनता और जब उमास्वातिके पूर्वका नहीं बनता तब यह उन स्वामिकार्तिकेयकी कृति भी नहीं हो सकता जो हरिपेणादिकथाकोपोंकी उक्त कथाके मुख्य पात्र हैं, भगवती आराधनाकी गाथा नं० १५४६ मे 'अग्निदयित' (अग्निपुत्र) के नामसे उल्लेखित हैं अथवा अनुत्तरोपपाददशाङ्गमे वर्णित दश अनगारोमे जिनका नाम है। इससे अधिक ग्रंथकार और प्रथके समय-सम्बन्धमें इस क्रम-विभिन्नतापरसे और कुछ फलित नहीं होता। ___ अब रही दूसरे कारणकी बात, जहाँ तक मैंने उसपर विचार किया है और ग्रंथकी पूर्वापर स्थितिको देखा है उसपरसे मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं होता कि ग्रंथमें उक्त गाथा नं० २७६ की स्थिति बहुत ही संदिग्ध है और वह मूलतः ग्रंथका अंग मालूम नहीं होती-बादको किसी तरहपर प्रक्षिप्त हुई जान पड़ती है। क्योंकि उक्त गाथा 'लोकभावना' अधिकार के अन्तर्गत है, जिसमे लोकसस्थान, लोकवी जीवादि छह द्रव्य, जीवके ज्ञानगुण और अ तज्ञानके विकल्परूप नैगमादि सात न य, इन सबका संक्षेपमे बड़ा ही सुन्दर व्यवस्थित वर्णन गाथा नं० ११५ से २६८ तक पाया जाता है । २७८ वी गाथामे नयोंके कथनका उपसहार इस प्रकार किया गया है : एवं विविह-णएहि जो वत्थू ववहरेदि लोयम्मि। , दंसण-णाण-चरितं सो साहदि सग्ग-मोक्खं च ॥ २७८ ॥ इसके अनन्तर विरला णिसुणहिं तच्चं' इत्यादि गाथा न० २७६ है, जो औपदेशिक ढगको लिये हुए है और ग्रंथकी तथा इस अधिकारकी कथन-शैलीके साथ कुछ संगत मालूम नहीं होती-खासकर क्रमप्राप्त गाथा नं० २८० की उपस्थितिमे, जो उसकी स्थितिको और भी संदिग्ध कर देती है, और जो निम्न प्रकार है: तचं कहिज्जमाणं णिच्चलभावेण गिलदे जो हि । ___ तं चि य भावेइ सया सो वि य तच वियाणेई ॥ २८०॥ इसमे बतलाया है कि, 'जो उपर्युक्त तत्त्वको-जीवादि-विषयक तत्त्वज्ञानको अथवा उसके मर्मको-स्थिरभावसे- दृढताके साथ- ग्रहण करता है और सदा उसकी भावना रखता है वह तत्त्वको सविशेष रूपसे जाननेमे समर्थ होता है।' __ इसके अनन्तर दो गाथाएँ और देकर एव लोयसहाय जो झायदि' इत्यादिरूपसे गाथा नं० २८३ दी हुई है, जो लोकभावनाके उपसंहारको लिये हुए उसकी समाप्तिसूचक है और अपने स्थानपर ठीक रूपसे स्थित है। वे दो गाथाएँ इस प्रकार हैं: को ण वसो इत्थिजणे कस्स ण मयणेण खंडियं माणं । को इंदिएहिं ण जिओ को ण कसाएहिं संतत्तो॥ २८१ ।। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-चैनवाक्य-सूची सो ण वसो इत्थिजणे सो ण जिओ इंदिएहि मोहेण । जो ण य गिलदि गंथं अभंतर बाहिरं सव्वं ॥ २८२ ॥ इनमेंसे पहली गाथामे चार प्रश्न किये गए हैं-"१ कौन स्त्रीजनोंके वशमें नहीं होता? २ मदन-कामदेवसे किसका मान खडित नहीं होता ?, कौन इद्रियों के द्वारा जीता नहीं जाता ?, ४ कौन कपायोसे संतप्त नहीं होता ?' दूसरी गाथामें केवल दो प्रश्नोका ही उत्तर दिया गया है जो कि एक खटकनेवाली बात है, और वह उत्तर यह है कि 'स्त्री जनों के वशमें वह नहीं होता, और वह इन्द्रियोंसे जीता नहीं जाता जो मोहसे बाह्य और आभ्यन्तर समस्त परिग्रहको ग्रहण नहीं करता है।' इन दोनो गाथाओकी लोकभावनाके प्रकरणके साथ कोई संगति नहीं बैठती और न ग्रंथमें अन्यत्र ही कथनकी ऐसी शैलीको अपनाया गया है । इससे ये दोनों ही गाथाएँ स्पष्ट रूपसे प्रक्षिप्त जान पड़ती है और अपनी इस प्रक्षिप्तताके कारण उक्त विरला णिसुणहिं तच्च' नामकी गाथा न० २७६की प्रक्षितताकी संभावनाको और दृढ करती हैं। मेरी रायमे इन दोनों गाथाओकी तरह २७६ नम्बरकी गाथा भी प्रक्षिप्त है, जिसे किसीने अपनी प्रथप्रति मे अपने उपयोगके लिये संभवतः गाथा नं० २८० के आसपास हाशियेपर, उसके टिप्पणक रूपमें, नोट कर रक्खा होगा, और जो प्रतिलेखककी असावधानीसे मूलम प्रविष्ट होगई है। प्रवेशका यह कार्य भ० शुभचन्द्रकी टीकासे पहले ही हुआ है, इसीसे इन तोनो गाथाओंपर भी शुभचन्द्रकी टीका उपलब्ध है और उसमे (तदनुसार पं० जयचन्द्रजीकी भाषाटाकामे भी) बड़ी खींचातानीके साथ इनका सबंध जोड़नेकी चेष्टा की गई है; परन्तु सम्बन्ध जुड़ता नहीं है। ऐसी स्थिति में उक्त गाथाकी उपस्थितिपरसे यह कल्पित कर लेना कि उसे स्वामिकुमारने ही योगसारके दोहेको परिवर्तित करके बनाया है समुचित प्रतीत नहीं होताखासकर उस हालतमे जब कि ग्रंथभरमे अपभ्रंश भापाका और कोई प्रयोग भी न पाया जाता हो । बहुत संभव है कि किसी दूसरे विद्वान्ने दोहेको गाथाका रूप देकर उसे अपनी ग्रंथप्रतिमें नोट किया हो। और यह भी सभव है कि यह गाथा साधारणसे पाठभेदके साथ अधिक प्राचीन हो और योगीन्दुने ही इसपरसे थोड़ेसे परिवर्तनके साथ अपना उक्त दोहा बनाया हो, क्योंकि योगीन्दुके परमात्मप्रकाश आदि ग्रंथोमे और भी कितने ही दोहे ऐसे पाये जाते हैं जो भावपाहुड तथा समाधितंत्रादिके पद्यापरसे परिवर्तन करके बनाये गये हैं और जिसे डाक्टर साहबने स्वय स्वीकार किया है, जब कि स्वामिकुमारके इस प्रथकी ऐसी कोई बात अभी तक सामने नहीं आई-कुछ गाथाएँ ऐसी जरूर देखने में आती हैं जो कुन्दकुन्द तथा शिवार्य जैसे आचार्यों के प्रथोंमे भी समानरूपसे पाई जाती हैं और वे और भी प्राचीन स्रोतसे सम्बन्ध रखनेवाली हो सकती हैं, जिसका एक नमूना भावनाओके नामवाली गाथाका ऊपर दिया जा चुका है। अतः इस विवादापन्न गाथाके सम्बन्धमे उक्त कल्पना करके यह नतीजा निकालना कि, यह ग्रंथ जोइन्दुके योगसारसे-ईसाकी प्रायः छठी शताब्दीसे-बादका बना हुआ है, ठीक मालूम नहीं देता । मेरी समझमे यह ग्रथ उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रसे अधिक बादका नहीं है-उसके निकटवती किसी समयका होना चाहिये । और इसके कर्ता वे अग्निपुत्र कातिकेय मुनि नहीं हैं जो आमतौरपर इसके कर्ता समझे जाते है और क्रौंच राजाके द्वारा उपसर्गको प्राप्त हुए थे, बल्कि स्वामिकुमारनामके आचार्य ही हैं जिस नामका उल्लेख उन्होंने स्वयं अन्तमंगलकी निम्न गाथामे श्लेषरूपसे भी किया है: तिहुयण-पहाण-सामि कुमार-काले वि तविय तवयरणं । वसुपुज्जसुयं मल्लि चरम-तियं संथुये णिच्चं ॥ ४८६ ॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ प्रस्तावना इसमें वसुपूज्यसुत-वासुपूज्य, मल्लि और अन्तके तीन नेमि, पार्श्व तथा वर्द्धमान ऐसे पॉच फुमार-श्रमण तीर्थंकरोंकी वन्दना की गई है, जिन्होने कुमारावस्था में ही जिनदीक्षा लेकर तपश्चरण किया है और जो तीन लोकके प्रधान स्वामी है। और इससे ऐसा ध्वनित होता है कि ग्रंथकार भी कुमारश्रमण थे, बालब्रह्मचारी थे और उन्होंने बाल्यावस्थामे ही जिनदीक्षा लेकर तपश्चरण किया है-जैसाकि उनके विपयमे प्रसिद्ध है, और इसीसे उन्होने अपनेको विशेषरूपमे इष्ट पॉच कुमार तीर्थंकरोंकी यहाँ स्तुति की है। स्वामि-शब्दका व्यवहार दक्षिण देशमे अधिक है और वह व्यक्तिविशेषोंके साथ उनकी प्रतिष्ठाका द्योतक होता है। कुमार, कुमारसेन, कुमारनन्दी और कुमारस्वामी जैसे नामोंके प्राचार्य भी दक्षिणमें हुए हैं । दक्षिण देशमे बहुत प्राचीन कालसे क्षेत्रपालकी पूजा का प्रचार रहा है और इस प्रथकी गाथा नं० २५ मे 'क्षेत्रपाल' का स्पष्ट नामोल्लेख करके उसके विपयमे फैली हुई रक्षा-सम्बन्धी मिथ्या धारणाका निषेध भी किया है। इन सब बातों परसे प्रथकार महोदय प्रायः दक्षिण, देशके आचार्य मालूम होते , जैसा कि डाक्टर उपाध्येने भी अनुमान किया है। २८. तिलोयपएणची और यतिवृषभ-तिलोयपएणत्ती (त्रिलोकप्रज्ञप्ति) तीन लोकके स्वरूप, आकार, प्रकार, विस्तार, क्षेत्रफल और युग-परिवर्तनादि-विपयका निरूपक एक महत्वका प्रसिद्ध प्राचीन प्रथ है-प्रसंगोपात्त जेनसिद्धान्त, पुराण और भारतीय इतिहास-विषयको भी कितनी ही बातों एव सामग्रीको यह साथमे लिय हुए है । इसमे १ सामान्यजगत्स्वरूप, २ नारकलोक, ३ भवनवासिलोक, ४ मनुष्यलोक, ५ तिर्यकलोक, ६व्यन्तरलोक, ७ ज्योतिर्लोक, ८ सुरलोक और ६ सिद्ध लोक नामके ६ महाधिकार हैं)। वान्तर अधिकारों की सख्या १८० के लगभग है, क्योंकि द्वितीयादि महाधिकारोके अवान्तर अधिकार क्रमशः १५, २४, १६, १६, १७ १७, २५, ५ ऐसे १३१ हैं और चौथे महाधिकारके जम्बूद्वीप, घातकोखण्डद्वीप और पुष्करद्वीप नामके अवान्तर अधिकारोंमेसे प्रत्येकके फिर सोलह सोलह (१६४३=४८) अन्तर अधिकार है। इस तरह यह ग्रथ अपने विपयके बहुत विस्तारको लिये हुए है । इसका प्रारभ निम्न मंगलगाथासे होता है, जिसमें सिद्धि-कामनाके साथ सिद्धोंका स्मरण किया गया है . अट्टविह-कम्म-वियला णिट्ठिय-कज्जा पणह-संसारा । दिह-सयलह-सारा सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु ॥१॥ अथका अन्तिम भाग इस प्रकार है : पणमह जिणवरवसहं गणहरवमहं तहेव गुण [हर]वसहं । दठ्ठण परिसवसहं (?) जदिवसहं धम्मसुत्तपाढगवसहं ॥४-७८॥ चुरिणसरूवं अत्थं करणसरूवपमाण होदि किं (१) जं तं । अहसहरूपमाणं तिलोयपएणत्तिणामाए ॥६-७६॥ एवं आइरियपरंपरागए तिलोयपण्णत्तीए मिद्धलोयसरूवणिरूवणपएणच रणाम णवमो महाहियारो सम्मत्तो । मग्गप्पभावण पवयण-भत्तिप्पचोदिदेण मया। भणिदं गंथप्पवरं सोहंतु बहुसुदाइरिया ॥६-८०॥ तिलोयपएणची सम्मचा ।। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ पुरातन-जैनवाक्य-सूची इसमें तीन गाथाएँ हैं, जिनमें पहली गाथा ग्रंथके अन्तमंगलको लिये हुए है और उसमे ग्रंथकार यतिवृषभाचार्यने 'जदिवसह' पदके द्वारा, श्लेपरूपसे अपना नाम भी सूचित किया है । इसका दूसरा और तीसरा चरण कुछ अशुद्ध जान पड़ते हैं। दूसरे चरणमे 'गुण' के अनन्तर 'हर' और होना चाहिये-देहलोकी प्रतिमे भी त्रटित अंशके संकेतपूर्वक उसे हाशियेपर दिया है, जिसस वह उन गुणधराचार्यका भी वाचक हो जाता है जिनके 'कसायपाहुड' सिद्धान्त प्रथपर यतिवृपभने चूर्णिसूत्रोकी रचना की है और उस 'हर' शब्दके संयोगसे 'आर्यागीति' छंदके लक्षणानुरूप दूसरे चरणमे भी 20 मात्राएँ हो जाती है जैसी कि वे चतुर्थ चरणमें पाई जाती है। तीसरे चरणका पाठ पं० नाथूरामजी प्रेमीने पहले यही दट्ठण परिसवसह' प्रकट किया था, जो देहलीकी प्रतिमें भी पाया जाता है और उमका सस्कृत रूप 'दृष्ट वा परिपवृपभं' दिया था, जिसका अर्थ होता है-परिपदों में श्रेष्ठ परिपद् (सभा) को देखकर । परन्तु 'परिस' का अर्थ कोपमें परिपद् नहीं मिलता किन्तु 'स्पर्श' उपलब्ध होता है, परिषद्का वाचक परिसा' शब्द स्त्रीलिङ्ग है । शायद यह देखकर अथवा दूसरे किसी कारणके वश, जिसकी कोई सूचना नहीं की गई, हालमे उन्होने 'दट्ठण य रिसिवसहं' पाठ दिया है, जिसका अर्थ होता है-'ऋपियोंमे श्रेष्ठ ऋपिको देखकर'। परन्तु 'जदिवसह' की मौजूदगीमे 'रिसिवसह' पद कोई खास विशेषता रखता हुआ मालूम नहीं होता-ऋपि, मुनि, यति जैसे शब्द प्रायः समान अर्थके वाचक है-और इसलिये वह व्यर्थ पडता है। अस्तु, इस पिछले पाठको लेकर पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीने उसके स्थानपर 'दहण अरिसवसह' पाठ सुनाया है और उसका अर्थ 'पार्पग्रंथोमे श्रेष्ठको देखकर' सूचित किया है। परन्तु 'अरिस' का अर्थ कोपमे 'आप' उपलब्ध नहीं होता किन्तु 'अर्श' (बवासीर) नामका रोगविशेष पाया जाता है, आपके लिये 'पारिस' शब्दका प्रयोग होता है । यदि 'अरिस' का अर्थ आप भी मान लिया जाय अथवा 'प' के स्थानपर कल्पना किये गए 'अ' के लोपपूर्वक इस चरणको 'दह्णारिसवसह' ऐसा रूप देकर (जिस की उपलब्धि कहींसे नहीं होती) संधिके विश्लेपणे-वारा इसमेसे आपका वाचक 'आरिस' शब्द निकाल लिया जावे, फिर भी इस चरणमे 'दळूण' पद सबसे अधिक खटकने वाली चीज मालूम होता है, जिसपर अभी तक किसीकी भी दृष्टि गई मालूम नहीं होती। क्योंकि इस पदकी मौजूदगीमें गाथाके अर्थकी ठीक संगति नहीं बैठती-उसमें प्रयुक्त हुआ 'पणमह' (प्रणाम करो) क्रिया पद कुछ बाधा उत्पन्न करता है और उससे अर्थ सुव्यवस्थित अथवा सुखलित नहीं हो पाता । ग्रंथकारने यदि 'दठूण' (दृष्टवा) पदको अपने विषयमे प्रयुक्त किया है तो दूसरा क्रियापद भी अपने ही विपयका होना चाहिये था अर्थात् वृपभ या ऋषिवृषभ आदिको देखकर मैंने यह कार्य किया या मैं प्रणामादि अमुक कार्य करता हूँ ऐसा कुछ बतलाना चाहिये था, जिसकी गाथापरसे उपलब्धि नहीं होती । और यदि यह पद दूसरोसे सम्बन्ध रखता है-उन्हींकी प्रेरणाके लिये प्रयुक्त हुआ है तो 'ठूण' और 'पणमह' दोनो क्रियापदोंके लिये गाथामे अलग अलग कर्मपदोंकी संगति विठलानी चाहिये, जो नहीं बैठती। गाथाके वसहान्त पदोंमेसे एकका वाच्य तो देखनेकी ही वस्तु हो १ श्लेषरूपसे नाम-सूचनकी पद्धति अनेक प्रयोंमें पाई जाती हैं । देखो, गोम्मटसार, नीतिवाक्यामृत और प्रभाचन्द्रादिके ग्रंथ । २ देखो, जैनहितैषी भाग १३ अंक १२ पृ० ५२८ । ३ देखो, 'पाइअसद्दमहण्णव'कोश । ४ देखो, जैनमाहित्य और इतिहास पृ० ६ । ५ देखो जैनसिद्धान्तभास्कर भाग ११ किरण १, पृ० ८० । ६ देखो, पाइअसहमहण्णव' कोश । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना २६ और दूसरेका चाच्य प्रणामकी वस्तु, यह बात संदर्भपर से कुछ संगत मालूम नहीं होती । और इसलिये 'द' पदका अस्तित्व यहाँ बहुत ही आपत्तिके योग्य जान पड़ता है । मेरी रायमे यह तसरा चरण 'दट्ठण परिसवसहं' के स्थानपर 'दुठुपरीसह विसह' होना चाहिये । इससे गाथाके अर्थकी सब सगति ठीक बैठ जाती है । यह गाथा जयघवला के १० वें अधिकारमे बतौर मगलाचरण के अपनाई गई है, वहाँ इसका तीसरा चरण 'दुसह - परीसहविसहं' दिया है। परिषहके साथ दुसह (दुःसह) और दुठ्ठु (दुष्ट) दोनो शब्द एक ही अर्थ के वाचक हैं- दोनोका आशय परीषदको बहुत बुरी तथा असह्य बतलाने का है । लेखकों की कृपासे 'दुसह'की अपेक्षा 'दुर' के 'टट्ठूण' होजाने की अधिक संभावना है, इसीस यहाँ 'दुटुंठु' पाठे सुझाया गया है वैसे 'दुसह ' पाठ भी ठीक है । यहाँ इतना और भी जान लेना चाहिये कि जयघवला मे' इस गाथाके दूसरे चरण में 'गुणवसह के स्थानपर 'गुणहरवसह' पाठ ही दिया है और इस तरह इस गाथाके दोनों चरणों में जो गलती और शुद्धि सुझाई गई है उसकी पुष्टि भले प्रकार हो जाती है I 1 दूसरी गाथा में इस तिलोय पण्णत्तीका परिमारण आठ हजार श्लोक - जितना बतलाया है । साथ ही, एक महत्वकी बात और सूचित की है और वह यह कि यह आठ हजारका परिमाण चूर्णिस्वरूप अर्थका और करणस्वरूपका जितना परिमाण है उसके बराबर है इससे दो बाते फलित होती हैं- एक तो यह कि गुणधराचार्य के कसायपाहुड ग्रंथपर यतिBषभने जो चूर्णिसूत्र रचे हैं वे इस ग्रंथसे पहले रचे जा चुके हैं, दूसरी यह कि 'करणस्वरूप' नामका भी कोई प्रथ यतिवृषभके द्वारा रचा गया है, जो अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ। वह भी इस ग्रंथसे पहले बन चुका था । बहुत संभव है कि वह प्रथ उन करण- सूत्रोका ही समूह हो जो गणितसूत्र कहलाते हैं और जिनका कितना ही उल्लेख त्रिलोक- प्रज्ञप्ति, गोम्मटसार, त्रिलोकसार और धवला-जैसे ग्रंथोमे पाया जाता है। चूर्णिसूत्रोंकी - जिन्हें वृत्तिसूत्र भी कहते हैंसख्या चूंकि छह हजार श्लोक-परिमाण है अतः 'करणस्वरूप' ग्रंथकी संख्या दोहजार श्लोकपरिमाण समझनी चाहिये, तभी दोनोंकी संख्या मिलकर आठ हजारका परिमाण इस ग्रंथका बैठता है। तीसरी गाथामे यह निवेदन किया गया है कि यह प्रथ प्रवचनभक्तिसे प्रेरित होकर मार्गकी प्रभावनाके लिये रचा गया है, इसमे कहीं कोई भूल हुई हो तो बहुश्रुत श्राचार्य उसका सशोधन करें । (क) ग्रंथकार यतिवृषभ और उनका समय प्रथमें रचना-काल नहीं दिया और न ग्रंथकार ने अपना कोई परिचय ही दिया है। —उक्त दूसरी गाथापरसे इतना ही ध्वनित होता है कि 'वे धर्मसूत्र के पाठकोंमे श्रेष्ठ थे' । और इसलिये ग्रंथकार तथा ग्रंथ के समय सम्बन्धादिमे निश्चितरूपसे कुछ कहना सहज नहीं है | चूर्णसूत्रों को देखने से मालूम होता है कि यतिवृषभ एक अच्छे प्रोढ सूत्रकार थे और प्रस्तुत प्रथ जैनशास्त्रों के विषयमें उनके अच्छे विस्तृत अध्ययनको व्यक्त करता है । उनके सामने 'लोकविनिश्वय' 'संगाइरणी' (संग्रहणी ?) और 'लोकविभाग (प्राकृत)' जैसे कितने ही ऐसे प्राचीन प्रथ भी मौजूद थे जो आज अपनेकों उपलब्ध नहीं हैं और जिनका उन्होंने अपने इस प्रथमे उल्लेख किया है। उनका यह प्रथ प्रायः प्राचीन ग्रंथोंके आधारपर ही लिखा गया है इसीसे उन्होंने प्रथकी पीठिकाके अन्त में पंथ रचनेकी प्रतिज्ञा करते हुए उसके विषयको 'आयरिय अस्णुक्कमायाद' (गा० ८६) बतलाया है और महाधिकारोंक सधिवाक्योंमे प्रयुक्त हुए 'आयरियपरंपरागए' पदके द्वारा भी उसी बातको पुष्ट किया है । और इस तरह यह घोषित किया है कि इस प्रथका मूल विषय उनका स्वरुचि - विरचित नहीं है, किन्तु श्राचार्य परम्परा के आधारको लिये हुए है । रही उपलब्ध करणसूत्रोंकी बात, वे यदि आपके उस 'करणस्वरूप' प्रथके ही अंग हैं, जिसकी अधिक सभावना है, तब - Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० पुरातन जैनवाक्य-सूची तो कहना ही क्या है ? वे सब आपके उस विषय के पाण्डित्य और आपकी बुद्धिकी खूबी तथा उसकी सूक्ष्मताके अच्छे परिचायक हैं । जयघवलाकी आदिमे मंगलाचरण करते हुए श्रीवीरसेनाचार्यने यतिवृषभका जो स्मरण किया है वह इस प्रकार है :– जो अज्जमंखु- सीसो श्रंतेवासी वियागहत्थिस्स । सो वित्तिसुत्त कत्ता जइवसहो से वरं देउ ॥ ८ ॥ इसमें यतिवृषभको, कसायपाहुडपर लिखे गए उन वृत्ति (चूर्ण) सूत्रोंका कर्ता बंतलाते हुए जिन्हें साथमे लेकर ही जयघवला टीका लिखी गई है, आर्यमक्षुका शिष्य और नागइस्तिका अन्तेवासी बतलाया है, और इससे यतिवृपभ के दो गुरुओं के नाम सामने आते हैं, जिनके विषय में जयघवलापर से इतना और जाना जाता है कि श्रीगुणधराचार्य ने कसायपाहुड अपर नाम पेज्जदोसपाहुडका उपसंहार (संक्षेप) करके जो सूत्रगाथाएँ रची थीं वे इन दोनोको आचार्य परम्परासे प्राप्त हुई थीं और ये उनके अर्थ के भले प्रकार जानकार थे, इनसे समीचीन अर्थको सुनकर ही यतिवृपभने, प्रवचन - वात्सल्य से प्रेरित होकर उन सूत्र-गाथाओ पर चूर्णिसूत्रो की रचना की है'। ये दोनो जैनपरम्परा के प्राचीन आचार्यों में है और इन्हें दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायोने माना है - श्वेताम्बर सम्प्रदायमं आर्यको आर्य मंगु नामसे उल्लेखित किया है, मंग और मक्षु एकार्थक हैं । धवला - जयधवलामे इन दोनों आचार्योको 'क्षमाश्रमण' और 'महावाचक' भी लिखा है जो उनकी महत्ता द्योतक है । इन दोनो आचार्योंके सिद्धान्त-विषयक उपदेशोंमे कहीं कहीं कुछ सूक्ष्म मतभेद भी रहा है जो वीरसेनको उनके ग्रंथों अथवा गुरुपरम्परासे ज्ञात था, और इसलिये उन्होंने घवला और जयघवला टीकाओं में उसका उल्लेख किया है । ऐसे जिस उपदेशको उन्होंने सर्वाचार्यसम्मत, अव्युच्छिन्न-सम्प्रदाय-क्रम से चिरकालागत और शिष्यपरंपरामे प्रचलित तथा प्रज्ञापित समझा है उसे 'पवाइज्जंत' 'पवाइज्जमाण' उपदेश बतलाया है और जो ऐसा नहीं उसे 'अपवाइज्जंत' अथवा 'अपवाइजमाण' नाम दिया है । उल्लिखित मतभेदोंमे आर्यनागहस्तिके अधिकाश उपदेश 'पवाइज्जत' और आर्यमक्षुके 'अपवाइज्जं त' बतलाये गए हैं । इस तरह यतिवृपभ दानोका शिष्यत्व प्राप्त करनेके कारण उन सूक्ष्म मत १ ' पुणो तेण गुणहर-भडारएण गाणपवाद - पचमपुत्र दसम वत्थु तदियकसायपाहुड-महण्णव-पारएण गंथवोच्छेदभएण वच्छलपरवसिकयहियएण एवं पेजदोसपाहुडं 'सोलसपदसहस्वपरिमाण होतं असीदिसदमेत्तगाहाहि उपसहारिद । पुणो ताम्रो चेय सुत्तगाथाश्रो श्राइरियपरंपराए श्रागच्छमाणाश्रो श्रज्ज मखु-णागइत्थीणं पत्ताश्र | पुणो तेसि दोह पि पादमूले असीदिसदगाहाण गुणहरमुहकमलविणिग्गयाणमत्थं सम्मं सोऊण जइव सह - भडारएण पवयरणवच्छलेण चुणिसुत्त कयं । ” – जयघवला । २ “कम्मठ्ठिदि त्ति श्रणियोगद्दारे हि भण्णमाणे वे उवएसा होंति । जहरणमुक्कस्सट्ठिदीणं पमाणपरूवणा कम्मट्ठिदिपरूवर्णं त्ति णागइत्थि-खमासमणा भणंति । अज्जमखु-खमासमणा पुणःकम्मट्ठिदिपरूवेणे त्तिभति । एवं दोहि उवएसेहि कम्महिदिपरूवणा कायव्वा ।" " एत्य दुवे उवएसा .....महावाचयाणमज्जमखुखवणाणमुवएसेण लोगपूरिदे श्राउगममाणं गामा- गोद-वेदणीयाणं ठिदिसंतकम्मं ठवेदि । महावाचयाणं गागहत्थि खवणारण मुवएसेा लोगे पूरिदे गामा- गोद-वेदरणीयाण हिदिसतकम्मं श्रतोमुहुत्त पमाण होदि । - षट्खं० १ प्र० पृ० ५७ ३ “सव्त्राइरिय-सम्मदो चिरकालमवोच्छिण्णसपदायक मेणागच्छमाणो जो सिस्त परंपराए पवाइज्जदे सो पवाइज्जतोवएसो त्ति भण्गदे । अथवा प्रज्जमंखुभयवंताणमुवएसो एत्याऽपवाइज्जमाणो णाम । णग्गदत्थिखमणाणमुवएसो पवाइज्जतो त्ति घेतव्वो । - जयध० प्र० पृ० ४३ । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना भेदोंकी बातोसे भी अवगत थे, यह सहज ही मे जाना जाता है । वीरसेनने यतिवृषभको एक बहुत प्रामाणिक आचार्य के रूपमें उल्लेखित किया है और एक प्रसगपर राग-प-मोह के अभावको उनकी वचन-प्रमाणतामे कारण बतलाया है' । इन सब बातोंसे आचार्य यतिवृपभका महत्व स्वतः ख्यापित हो जाता है। । अब देखना यह है कि यतिवृपभ कब हुए है और कब उनकी यह तिलोयपएणत्ती बनी है, जिसके वाक्योंको धवलाादकमें उद्धृत करते हुए अनेक स्थानोंपर श्रीवीरसेनने उसे 'तिलोयपण्णत्तिसुत्त' सूचित किया है । यतिवृषभके गुरुओंमेसे यदि किसीका भी समय सुनिश्चित होता तो इस विपयका कितना ही काम निकल जाता, परन्तु उनका भी समय सुनिश्चित नहीं है ।श्वेिताम्बर पट्टावलियोमेसे 'कल्पसूत्रस्थावरावली' और 'पट्टावलीसारोद्धार' जैसी कितनी ही प्राचीन तथा प्रधान पट्टावलियोमे तो आर्यमंगु और आर्यनागहस्तिका नाम ही नहीं है, किसी किसी पट्टावलोमे एकका नाम है तो दूसरेका नहीं और जिनमे दोनोंका नाम है उनमेसे कोई दोनोके मध्यमे एक प्राचार्यका और कोई एकसे अधिक आचार्योंका नामोल्लेख करती है। कोई कोई पट्टावली समयका निर्देश ही नहीं करती और जो करती है उनमे इन दोनोंके समयोंमे परस्पर अन्तर भी पाया जाता है-जैसे आर्यमगु का समय तपागच्छ-पट्टावलीमे वीरनिर्वाणसे ४६७ वर्पपर और सिरिसमाकाल-ममणसघथय' की अवचूरिमे ४५० पर बतलाया है । और दोनोंका एक समय तो किसी भी श्वे० पट्टावलीसे उपलब्ध नहीं होता बल्कि दोनोंमे १५० या १३० वर्पक करीबका अन्तराल पाया जाता है, जब कि दिगम्बर परम्पराका स्पष्ट उल्लेख दोनोंको यतिवृपभके गुरुरूपमे प्रायः समकालीन बतलाता है। ऐसी स्थितिमे श्वे० पट्टावलियोंको उक्त दोनों आचार्यों के समयादिविषयमे विश्वसनीय नहीं कहा जा सकता। और इसलिये यतिवृपभादिके समयका अव तिलोयपएणत्तीके उल्लेखोपरसे अथवा उसके अन्तःपरीक्षणपरसे ही अनुसंधान करना होगा) तदनुसार ही नोचे उसका यत्न किया जाता है : (१) तिलोयपएणत्तीके अनेक पद्योंमे 'संगाइणी' तथा 'लोकविनिश्चय' अथके साथ 'लोकविभाग' नामके प्रथका भी स्पष्ट उल्लेख्न पाया जाता है। यथा : जलसिहरे विक्वंभो जलणिहिणो जोयणा दससहस्सा । एवं संगाइणिए लोयविभाए विणिद्दिढें ॥ अ० ४॥ लोयविणिच्छय-गंथे लोयविभागम्मि सव्वसिद्धाणं । ओगाहण-परिमाणं भणिदं किंचूणचरिमदेहसमो ॥ १० ॥ (यह 'लोकविभाग' प्रथ उस प्राकृत लोकविभाग ग्रंथसे भिन्न मालूम नहीं होता, जिसे प्राचीन समयमें सर्वनन्दी प्राचार्य ने लिखा (ग्चा) था, जो कांचीके राजा सिंहवर्माके • राज्यके २२ वें वर्ष-उस समय जबकि उत्तरापाढ नक्षत्र में शनिश्चर वृषराशिमें वृहस्पति, उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रमे चन्द्रमा था, शुक्लपक्ष था-शक संवत् ३८० में लिखकर पाणराष्टके पाटलिक ग्राममे पूरा किया गया था और जिसका उल्लेख सिंहसूर के उस संस्कृत 'लोक१ "कुदो णव्व दे ? एदम्हादो चेव जइवसहाइरियमुहकमलविणिग्गयचुण्णिसुत्तादो । चुण्णिसुत्तमएणहा कि ण होदि ? ण, रागदोसमोहाभावेण पमाणत्तमुवगय-जइवसह-वयणस्स असच्चत्तविरोहादो।" -जयघ० प्र० पृ० ४६ २ देखो, पट्टावलीसमुच्चय'। ३ 'सिंहसूरर्षिणा' पदपरसे 'मिहसूर' नामकी उपलब्धि होती है--सिंहसूरिकी नहीं, जिसके 'सूर' पदको 'श्राचार्य' पदका वाचक समझकर प० नाथूरामजी प्रेमीने (जैन साहित्य और इतिहास पृ० ५ पर) Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ पुरातन जैनवाक्य-सूची विभाग' के निम्न पद्योंमे पाया जाता है, जो कि सर्वनन्दीके लोकविभागको सामने रख कर ही भाषा के परिवर्तनद्वारा रचा गया है :-) शीत्यग्रेशकाब्दानां सिद्धमेतच्छतत्रये ॥ ४ ॥ तिलोयपण्णत्तीकी उक्त दोनो गाथाश्रमे जिन विशेष वर्णनोका उल्लेख ' लोकविभाग' आदि ग्रंथोंके आधारपर किया गया है वे सब संस्कृत लोकविभागमे भी पाये जाते हैं । और इससे यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है कि संस्कृतका उपलब्ध लोकविभाग उक्त प्राकृत लोकविभागको सामने रखकर ही लिखा गया है।) इस सम्बन्ध मे एक बात और भी प्रकट कर देन की है और वह यह कि संस्कृत लोकविभाग के अन्तमे उक्त दोनो पद्यो के बाद एक पद्य निम्न प्रकार दिया है : १ वैश्ये स्थिते रवि वृषभे च जीवे, राजोत्तरेपु सितपक्षमुपेत्य चन्द्रे । ग्रामे च पाटलिकनामनि पाणरा, शास्त्रं पुरा लिखितवान्मु निसर्वनन्दी ||३|| संवत्सरे तु द्वाविंशे काञ्चीश - सिंहवर्मणः । - इसमे प्रथकी सख्या १५३६ श्लोक- परिमाण बतलाई है, जबकि उपलब्ध 3 संस्कृतलोकविभागमे वह २०३० के करीब जान पड़ती है । मालूम होता है कि यह १५३६ की श्लोकसख्या उसी पुराने प्राकृत लोकविभागकी है - यहाँ उसके संख्यासूचक पद्यका भी अनुवाद करके रख दिया है। इस संस्कृत ग्रंथमे जो ५०० श्लोक जितना पाठ अधिक है वह प्रायः उन ‘उक्त ं च' पद्योंका परिमाण है जो इस ग्रंथ मे दूसरे ग्रंथोंसे उद्धृत करके रखे गये ६ – १०० स अधिक गाथाएँ तो तिलोयपण्णत्तीकी ही है, २०० के करीब श्लोक भगवज्जिनसेन के श्रादिपुराणसे उठाकर रक्खे गये है और शेष ऊपर के पद्य तिलोयसार (त्रिलोकसार) और जबूदा वपण्णत्ती (जम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति) आदि ग्रंथोसे लिये गये हैं । इस तरह इस प्रथमे भाषा के परिवर्तन और दूसरे ग्रंथों से कुछ पद्योके 'उक्त' च' रूपसे उद्धरणके सिवाय सिहसूरकी प्रायः और कुछ भी कृति मालूम नहीं होती । बहुत संभव है कि 'उक्त ं च' रूपसे जो यह पद्योंका संग्रह पाया जाता है वह स्वयं सिंहसूर मुनिके द्वारा न किया गया हो, बल्कि बादको किसी दूसरे ही विद्वानके द्वारा अपने तथा दूसरो के विशेष उपयोग के लिये किया गया हो; क्योंकि ऋषि सिंहसूर जब एक प्राकृत प्रथका संस्कृत मे - मात्र भाषाके परिवर्तन रूपसे ही - अनुवाद करने बैठें - व्याख्यान नहीं, तब उनके लिये यह संभावना बहुत ही कम जान पड़ती है कि वे दूसरे प्राकृतादि ग्रंथोंपर से तुलनादिके लिये कुछ वाक्योको स्वयं पंचदशशतान्याहुः पट्टिशदधिकानि वै । शास्त्रस्य संग्रहस्त्वेदं छंदसानुष्टुभेन च ॥ ५ ॥ २ नामके अधूरेपन की कल्पना की है और “पूरा नाम शायद सिंहनन्दि हो” ऐसा सुझाया है । छदकी कठिनाईका हेतु कुछ भी समीचीन मालूम नहीं होता, क्योंकि सिहनन्दि और सिंहसेन -जैसे नामका वह सहज ही समावेश किया जा सकता था । "श्राचार्यावलिकागतं विरचितं तत्सिंहसूरर्षिणा, भाषायाः परिवर्तनेन निपुणैः सम्मानितं साधुभिः ।” "दशैवैष सहस्राणि मूलेऽग्रेपि पृथुर्मतः । " - प्रकरण २ ' अन्त्यकायप्रमाणात्तु किञ्चित्सकुचितात्मकाः ॥” – प्रकरण ११ ३ देखो, श्रारा जैन सिद्धान्तभवनकी प्रति और उसपर से उतारी हुई वीरसेवामन्दिरकी प्रति । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना उद्धृत करके उन्हें प्रथका अंग बनाएं । यदि किसी तरह उन्हींके द्वारा यह उद्धरण-कार्य सिद्ध किया जा सके तो कहना होगा कि वे विक्रमकी ११ वीं शताब्दीके अन्तमे अथवा उसके बाद हुए हैं। क्योंकि इसमे आचार्य नेमिचन्द्रके त्रिलोकसारकी गाथाएँ भी 'उक्त' च त्रैलोक्यसारे' जैसे वाक्यके साथ उद्धृत पाई जाती हैं। और इसलिये इस सारी परिस्थिति परसे यह कहने मे कोई सकोच नहीं होता कि तिलोयपण्णत्तीमे जिस लोकविभागका उल्लेख है वह वही सर्वनन्दीका प्राकृत-लोकविभाग है जिसका उल्लेख ही नहीं किन्तु अनुवादितरूप सस्कृत लोकविभागमे पाया जाता है । चूंकि उस लोकविभागका रचनाकाल शक संवत् ३८० (वि० सं० ५१५) है अतः तिलोयपण्णत्तीके रचयिता यतिवृषभ शक सं० ३८० के बाद हुए हैं, इसमें जरा भी सन्देह नहीं है । अब देखना यह है कि कितने वाद हुए हैं। () तिलोयपएणत्तीमे अनेक काल-गणनाओंके आधारपर 'चतुर्मुख' नामक कल्कि, की मत्यु वीरनिर्वाणसे एक हजार वर्ष बाद बतलाई है, उसका राज्यकाल ४२ वर्ष दिया है, रस अत्याचारों तथा मारे जानेकी घटनाओंका उल्लेख किया है और मत्युपर उसके पुत्र अजितंजयका दो वर्ष तक धर्मराज्य होना लिग्गा है । साथै ही, बादको धर्मकी क्रमशः हानि वतलाकर और किसी राजाका उल्लेख नहीं किया है। इस प्रकारकी कुल गाथाएँ निम्न प्रकार हैं. जो कि पालकादिके राज्यकाल ६५८ का उल्लेग्य करनेके बाद दी गई है : "तत्तो कक्की जादो इंदसुदो तस्म चउमुहो णामो । सत्तरि-वरिमा अाऊ विगुणिय-इगवीस-रज्जत्ती ।। ६६ ।। आचारांगधरादो पणहत्तरि-जुत्त दुसय-वासेसुं । पोलीणेसुं बद्धो पट्टो कक्की स परवइणो ॥ १०॥" "अह को वि असुरदेो ओहीदो मुणिगणाण उवसग्गं । . णादृणं तक्कक्की मेरेदि हु धम्मदोहि त्ति ॥१०३ ॥ कक्किसुदो अजिदंजय-णामो रक्खदि णमदि तच्चरणे । त रक्खदि असुरदेओ धम्मे रज्जं करेज्जंति ॥ १०४ ॥ तत्तो दो ये वासा सम्मं धम्मो पयहदि जणाणं । ___ कमसो दिवसे दिवसे कालमहप्पेण हाएदे ॥ १०५॥" (इस घटनाचक्रपरसे यह साफ मालूम होता है कि तिलोयपएणत्तीकी रचना कल्कि राजाकी मत्युसे १०-१२ वर्षसे अधिक बादकी नहीं है। यदि अधिक बादकी होती तो ग्रंथपद्धतिको देखते हुए संभव नहीं था कि उसमे किसी दूसरे प्रधान राज्य अथवा राजाका १ कल्कि निःसन्देह ऐतिहासिक व्यक्ति हुश्रा है, इस बात को इतिहातज्ञोंने भी मान्य किया है । डा. क० या० पाठक उसे मिहिरकुल' नामका राजा बतलाते हैं और जैन काल-गणनाके साथ उसकी सगति विठलाते हैं, जो बहुत अत्याचारी था और जिसका वर्णन चीनी यात्री हुएन्तसामने अपने यात्रावर्णनमें विस्तारके साथ किया है तथा राजतर गिणीमें भी जिसकी दुष्टताका हाल दिया है । परन्तु डा० काशीप्रसाद (के० पी०) जायसवाल इस मिहिरकुलको पराजित करनेवाले मालवाधिपति विष्णुयशाधर्माको ही हिन्द पुराणों श्रादिके अनुसार 'कल्कि' बतलाते हैं, जिसका विजयस्तम्भ मन्दसौरम स्थित है और वह ई० सन् ५३३-३४ मे स्थापित हुया था। (देखो, जैनहितैपी भाग १३ अंक १२ ग का सवाल नीका 'कल्कि-अवतारकी ऐतिहासिकता' और पाठकजीका 'गुप्त राजानोका काल, मा और कल्कि नामक लेख पृ० ५१६ से ५२५ । ) Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ पुरातन-जैनवाक्य-सूची उल्लेख न किया जाता । अस्तु वीर-निर्वाण शकराजा अथवा शक संवत्से ६०५ व ५ महीने पहले हुआ है, जिसका उल्लेख तिलोयपण्णत्तीमें भी पाया जाता है। एक हजार वर्षमेसे इस सख्याको घटानेपर ३६४ वर्षे ७ महीने अवशिष्ट रहते हैं । यही (शक संवत् ३६५) कल्किकी मत्युका समय है । और इसलिये तिलोयपएणत्तीका. रचनाकाल शक सं० ४.५ (वि० सं०५४०) के करीषका जान पड़ता है जब कि लोकविभागको बने हुए २५ वर्षके करीब हो चुके थे, और यह अर्सा लोकविभागकी प्रसिद्धि तथा. यतिवृषभ तक उसकी पहुँचके लिये पर्याप्त है। (ख) यतिवृषभ और कुन्दकुन्दके समय-सम्बन्धमें प्रेमीजीके मतकी आलोचना ये यतिवृषभ कुन्दकुन्दाचार्यसे २०० वर्षसे भी अधिक समय वाद हुए हैं, इस बात को सिद्ध करनेके लिये मैने 'श्रीकुन्दकुन्द और यतिवृपभमे पूर्ववर्ती कौन ?' नामका एक लेख आजसे कोई । वर्ष पहले लिखा था। उसमे, इन्द्रनन्दि-श्र तावतारके कुछ गलत तथा भ्रान्त उल्लेखोंपरसे बनी हुई और श्रीधर-श्र तावतारके उससे भी अधिक गलत एव आपत्ति के योग्य उल्लेखोंपरसे पुष्ट हुई कुछ विद्वानोंकी गलत धारणाको स्पष्ट करते हुए, मैंने सुहवर पं० नाथूरामजी प्रेमीका उन युक्तियोंपर विचार किया था जिनके आधारपर वे कुन्दकुन्दको यतिवृपभके बादका विद्वान बतलाते हैं। उनमेसे एक युक्ति तो इन्द्रनन्दि-श्र तावतारपर ही अपना आधार रखती है; दूसरी प्रवचनसारकी 'एस सुरासुर' नामकी आद्य मंगल-गाथासे सम्बन्धित है, जो तिलोयपएणत्तीके अन्तिम अधिकारमे भी पाई जाती है और जिसे प्रेमी जीने तिलोयपण्णत्तीपरसे ही प्रचचनसारमे लीगई लिखा था; और तीसरी कुन्दकुन्दके नियमसारको निम्न गाथा से सम्बन्ध रखती है, मिममे प्रयुक्त हुए 'लोयविभागेसु' पदमें प्रेमीजी सर्वनन्दी के लोकविभाग' प्रथका उल्लेख समझते हैं और चूंकि उसकी रचना शक सं० ३८० में हुई है अतः कुन्दकुन्दाचार्यको शक सं० ३८० (वि० सं० ५१५) के बादका विद्वान ठहराते हैं: चउदसभेदा भणिदा तेरिच्छा सुरगणा चउन्भेदा । एदेसि वित्थारं लोयविभागेसु णादव्वं ॥१७॥ ___ 'एस सुरासुर' नामकी गाथाको कुन्दकुन्दकी सिद्ध करनेके लिये मैंने जो युक्तियाँ दी थीं उनपरसे प्रेमीजीका विचार अपनी दूसरी युक्ति के सम्बन्धमें तो बदल गया है, ऐसा उनके 'जैनसाहित्य और इतिहास' नामक ग्रन्थके प्रथम लेख 'लोकविभाग और तिलोयपएणत्ति' परसे जाना जाता है। उसमे उन्होंने उक्त गाथाकी स्थितिको प्रवचनसारमें सुदृढ स्वीकार किया है, उसके अभावमे प्रवचनसारकी दूसरी गाथा 'सेसे पुण तित्थयरे' को लटकती हुई माना है और तिलोयपएणत्तीके अन्तिम अधिकारके अन्तमे पाई जाने वाली कुन्थुनाथसे वर्द्धमान तककी स्तुति-विषयक ८ गाथाओं के सम्बन्धमें, जिनमें उक्त गाथा भी शामिल है, लिखा है कि- 'बहुत संभव है कि ये सब गाथाएँ मूलग्रंथकी न हो, पीछेसे किसीने जोड़ दी हों और उनमें प्रवचनसारको उक्त गाथा आ गई हो।" -J१ णिवाणे वीरजिणे छब्बास-सदेसु पंच-वरसेसु । पण-मासेसु गदेसु संजादो सग-णित्रो अहवा ॥-तिलोयपण्णत्ती पण-छस्सय-वस्सं पणमासजुदं गमिय वीरणिव्वुइदो । सगराजो तो कक्की चदुणवतियमहियसगमासं ॥-त्रिलोकसार वीरनिर्वाण और शक सवतकी विशेष जानकारीके लिये, लेग्वककी 'भगवान महावीर और उनका समय' नामकी पुस्तक देखनी चाहिये । ___ २ देखो, अनेकान्त वर्ष २ नवम्बर सन् १९३८ की किरण नं. १ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना दूसरी युक्तिके संबन्धमे मैने यह बतलाया था कि इन्द्रनन्दि-श्र तावतारके जिस उल्लेख' परसे कुन्दकुन्द (पद्मनन्दी) को यतिवृपभके बादका विद्वान समझा जाता है। उसका अभिप्राय विविध सिद्धान्त' के उल्लेखद्वारा यदि कसायपाहुड (कषायप्राभृत) को उसकी टीकाओं सहित कुन्दकुन्द तक पहुँचाना है तो वह जरूर गलत है और किसी गलत सूचना अथवा गलतफहमीका परिणाम है । क्योंकि कुन्दकुन्द यतिवृषभसे बहुत पहले हुए हैं, जिसके कुछ प्रमाण भी दिये थे। साथ ही, यह भी बतलाया था कि यद्यपि इन्द्रनन्दी ने यह लिखा है कि 'गुणधर और धरसेन आचार्यों की गुरु-परम्पराका पूर्वाऽपरक्रम, उनके वंशका कथन करनेवाले शास्त्रों तथा मुनिजनोंका उस समय अभाव होनेसे, उन्हें मालूम नहीं है परन्तु दोनों सिद्धान्त ग्रन्थोंके अवतारका जो कथन दिया है वह भी उन प्रन्थों तथा उनकी टीकाओंको स्वय देखकर लिखा गया मालूम नहीं होता-सुना-सुनाया जान पड़ता है । यही वजह है जो उन्होंने आर्यमंक्षु और नागहस्तिको गुणधराचार्यका साक्षात् शिष्य घोषित कर दिया और लिख दिया है कि 'गुणधराचार्यने कसायपाहुडकी सूत्रगाथाओको रच कर उन्हें स्वयं ही उनकी व्याख्या करके आर्यमनु और नागहस्तिको पढाया था, जबकि उनकी टीका जयधवलामे स्पष्ट लिखा है कि 'गुणधराचार्यकी उक्त सूत्रगाथाएँ आचार्यपरम्परासे चली आती हुई आर्यमंक्षु और नागहस्तिको प्राप्त हुई थींगुणाधराचार्यसे उन्हें उनका सीधा (dir ct आदान-प्रदान नहीं हुआ था। जैसा कि उसके निम्न अंशसे प्रकट है: "पुणो ताओ सुत्तगाहाम्रो आइरिय-परंपराए आगच्छमाणाओ अजमखुणागहत्थीणं पत्ताओ।" _और इसलिये इन्द्रनन्दिश्र तावतारके उक्त कथनकी सत्यतापर कोई भरोसा अथवा विश्वास नहीं किया जा सकता। परन्तु मेरी इन सब बातोपर प्रेमीजीने कोई खास ध्यान दिया मालूम नहीं होता और इसी लिये वे अपने उक्त ग्रंथगत लेखमें आर्यमंक्षु और नागहस्तिको गुणधराचार्यका साक्षात् शिष्य मानकर ही चले हैं और इस मानकर चलनेमें उन्हें यह भी खयाल नहीं हुआ कि जो इन्द्रनन्दि गुणधराचार्यके पूर्वाऽपर अन्वयगुरुओंके विषयमे एक जगह अपनी अनभिज्ञता व्यक्त करते हैं वे ही दूसरी जगह उनकी कुछ शिष्य-परम्पराका उल्लेख करके अपर (बादको होनेवाले) गुरुओंके विषयमे अपनी अभिज्ञता जतला रहे हैं, और इस तरह उनके इन दोनों कथनोमें परस्पर भारी विरोध है | और चूंकि यतिवृषभ आर्यमक्षु और नागहस्तिके शिष्य थे इसलिये प्रेमीजीने उन्हें गुणधराचार्यका समकालीन अथवा २०-२५ वर्ष बादका ही विद्वान सूचित किया है और साथ ही यह प्रतिपादन किया है कि 'कुन्दकुन्द (पद्मनन्दि) को दोनों सिद्धान्तोंका जो १ "गाथा-चूण्र्युच्चारणसूत्ररुपसहत कषायाख्यप्राभूतमेव गुणधर-यतिवृषभोच्चारणाचार्यः ॥१५६॥ एवं द्विविधो द्रव्य-भाव-पुस्तकगतः समागच्छत् । गुरुपरिपाट्या ज्ञातः सिद्धान्तः कोण्डकुन्दपुरे ॥१६०॥ श्रीपद्मनन्दि-मुनिना, सोऽपि द्वादश सहस्रपरिमाणः । ग्रन्थ-परिकर्म-कर्ता षट्खण्डाऽऽद्यत्रिखण्डस्य" ॥१६॥ २ 'गुणधर-धरसेनान्वयगुर्वोः पूर्वाऽपरक्रमोऽस्माभि न ज्ञायते तदन्वय-कथकाऽऽगम-मुनिजनाभावात् ॥१५०॥ ३ एवं गाथासूत्राणि पंचदशमहाधिकाराणि । प्रविरच्य व्याचल्यो स नागहस्त्यार्यमंक्षुभ्याम् ।। १५४ ॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ पुरातन-जैनवाक्य-सूची ज्ञान प्राप्त हुआ उसमे यतिवृषभकी चूणिका अन्तर्भाव भले ही न हो, फिर भी जिस द्वितीय सिद्धान्त कषायप्राभृतको कुन्दकुन्दने प्राप्त किया है उसके कर्ता गुणधर जब यतिवृषभके समकालीन अथवा २०-.५ वर्ष पहले हुए थे तव कुन्दकुन्द भी यतिवृषभके समसामयिक बल्कि कुछ पीछेके ही होंगे, क्योंकि उन्हें दोनो सिद्धान्तोंका ज्ञान 'गुरुपरिपाटीसे प्राप्त हुआ था । अर्थात् एक दो गुरु उनसे पहलेके और मानने होंगे।' और अन्तमे इन्द्रनन्दि श्र तावतारपर अपना आधार व्यक्त करते और उनके विषयमे अपनी श्रद्धाको कुछ ढीली करते हुए यहाँ तक लिख दिया है:-"गरज यह कि इन्द्रनन्दिके श्र तावतारके अनुसार पद्मनन्दि (कुन्दकुन्द) का समय यत्तिवृपभसे बहुत पहले नहीं जा सकता । अब यह बात दूसरी है कि इन्द्रनन्दिने जो इतिहास दिया है, वहा गलत हो और या ये पद्मनन्दि कुन्दकुन्दके बादके दूसरे ही आचार्य हो और जिस तरह कुन्दकुन्द कोण्डकुण्डपुरके थे उसी तरह पद्मनन्दि भी कोण्डकुण्डपुरके हो।" (बादमे जब प्रेमीजीको जयघवलाका वह कथन पूरा मिल गया जिसका एक अश पुणो ताओ' से प्रारंभ करके मैने अपने उक्त लेखमे दिया था और जो अधिकाशमे ऊपर उद्धृत किया गया है तब ग्रंथ छप चुकनेपर उसके परिशिष्टमे आपने उस कथनको देते हुए स्पष्ट सूचित किया है कि "नागहस्ति और आर्यमंक्षु गुणधरके साक्षात् शिष्य नहीं थे।" परन्तु इस सत्यको स्वीकार करनेपर उनको उस दूसरी युक्तिका क्या रहेगा, इस विषयमें कोई सूचना नहीं की, जब कि करनी चाहिये थी । स्पष्ट है कि उनकी इस दूसरी युक्किमे तव कोई सार नहीं रहता और कुन्दकुन्द, विविध सिद्धान्तमें चूर्णिका अन्तर्भाव न होनसे, यतिवृषभसे बहुत पहलेके विद्वान भी हो सकते हैं।) __अब रही प्रेमीजीकी तीसरी युक्तिकी बात, उसके विपयमे मैंने अपने उक्त लेखमे यह बतलाया था कि नियमसारकी उस गाथामें प्रयुक्त हुए 'लोयविभागेसु' पदका अभि• प्राय सर्वनन्दीके उक्त लोकविभागसे नहीं है और न हो सकता है, बल्कि बहुवचनान्त पद होनेसे वह 'लोकविभाग' नामके किसी एक प्रथविशेषका भी वाचक नहीं है। वह तो लोकविभाग-विपयक कथन-वाले अनेक ग्रथों अथवा प्रकरणोंके संकेतको लिये हुए जान पड़ता है और उसमे खुन कुन्दकुन्दके 'लोयपाहुड'-'संठाणपाहड' जैसे ग्रंथ तथा दूसरे 'लोकानुयोग' अथवा लोकाऽलोकके विभागको लिये हुए करणानुयोग-सम्बन्धी ग्रंथ भी शामिल किये जा सकते हैं। और इसलिये 'लोयविभागेसु' इस पदका जो अर्थ कई शताब्दियो पीछेके टीकाकार पद्मप्रभने 'लोकविभागाभिधानपरमागमे ऐसा एकवचनान्त किया है वह ठोक नहीं है। साथ ही यह भी बतलाया था कि उपलब्ध लोकविभागमे, जो कि (उक्तंच वाक्योंको छोड़कर ) सर्वनन्दीके प्राकृत लोकविभागका ही अनुवादित संस्कृतरूप है, तिर्यंचोके उन चौदह भेदोके विस्तार-कथनका कोई पता भी नहीं, जिसका उल्लेख नियमसारकी उक्त गाथामें किया गया है। और इससे मेरा उक्त कथन अथवा स्पष्टीकरण और भी ज्यादा पुष्ट होता है। इसके सिवाय, दो प्रमाण ऐसे उपस्थित किये थे, जिनकी मौजूदगीमे कुन्दकुन्दका समय शक स० ३८० (वि० सं० ५१५) के बादका किसी तरह भी नहीं हो सकता । उनमे एक प्रमाण मर्कराके ताम्रपत्रका था, जो शक सं० ३८८ का उत्कोण है और जिसमे देशीगणान्तर्गत कुन्दकुन्दकअन्वय (वंश) में होनेवाले गुणचन्द्रादि छह आचार्यों का गुरु-शिष्यक्रमसे उल्लेख है । और दूसरा प्रमाण स्वयं कुन्दकुन्दके बोधपाहुडकी १ मेरे इस विवेचनसे, जो 'जैनजगत' वर्ष ८ अंक ६ के एक पूर्ववर्ती लेखमें प्रथमतः प्रकट हुआ था, डा० ए० एन० उपाध्ये एम० ए० ने प्रवचनमारकी प्रस्तावना (पृ० २२, २३) में अपनी पूर्ण सहमति व्यक्त की है। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना 'सद्दवियारो हूओ' नामकी गाथाका था, जिसमें कुन्दकुन्दने अपनेको भद्रबाहुका शिष्य सूचित किया है। प्रथम प्रमाणको उपस्थित करते हुए मैंने बतलाया था कि यदि मोटे रूपसे गुणचन्द्रादि छह आचार्यों का समय १५० वर्प ही कल्पना किया जाय, जो उस समयकी आयुकायादिककी स्थितिको देखते हुए अधिक नहीं कहा जा सकता, तो कुन्दकुन्दके वशमें होने वाले गुणचन्द्रका समय शक सवत् २३८ (वि० स० ३७३) के लगभग ठहरता है। और -किराणचन्द्राचार्य कुन्दकुन्दके साक्षात् शिष्य या प्रशिष्य नहीं थे बल्कि कुन्दकुन्दके अन्वय इए है और अन्वयके प्रतिष्ठित होने के लिये कमसे कम ५० वर्पका समय मान लेना __त नहीं है। ऐसी हालतमे कुन्दकुन्दका पिछला समय उक्त ताम्रपत्रपरसे २०० वर्प पूर्वका तो सहज ही मे हो जाता है । और इसलिये कहना होगा कि कुन्दइन्दाचार्य यतिवृपभसे २०० वर्ष मे भी अधिक पहले हुए हैं। और दूसरे प्रमाणमे गाथाको उपस्थित करते हुए लिखा था कि इस गाथामे बतलाया है कि 'जिनेन्द्रने-भगवान महावीरने-अर्थ रूपसे जो कथन किया है वह भांपासूत्रोंमे शब्द विकारको प्राप्त हुआ है-अनेक प्रकारके शब्दों में गूंथा गया है-, भद्रबाहुके मुझ शिष्यने उन भापासूत्रों परसे उसको उसी रूपमे जाना है और (जानकर) कथन किया है। इससे बोधपाहुडके कर्ता कुन्दकुन्दाचार्य भद्रबाहुके शिष्य मालूम होते हैं । और ये भद्रबाहु अ तकेवलोसे भिन्न द्वितीय भद्रबाहु जान पड़ते हैं, जिन्हें प्राचीन ग्रथकारोने 'आचाराङ्ग' नामक प्रथम अगके पारियोमे तृतीय विद्वान सूचित किया है और जिनका समय जैन कालगणनाओके अनुसार वीरनिर्वाण-सवत् ६१२ अर्थात् वि सं० १४२ (भद्रबाहु वि०के समाप्तिकाल) से पहले भले ही हो, परन्तु पीछेका मालूम नहीं होता । क्योंकि अ तकेवली भद्रबाहुके समयमे जिन-कथित श्र तमें ऐसा कोई विकार उपस्थित नहीं हुआ था, जिसे गाथाम 'सह वियारो हूओ भासासुत्तेसु ज जिणे कहिय' इन शब्दोद्वारा सूचित किया गया है-वह अविच्छिन्न चला आया था। परन्तु दूसरे भद्रबाहुके समयमे वह स्थिति नहीं रही थी-कितना ही श्र तज्ञान लुप्त हो चुका था और जो अवशिष्ट था वह अनेक भाषा-सूत्रोंमे परिवर्तित हो गया था । और इसलिये कुन्दकुन्दका समय विक्रमकी दूसरी शताब्दि तो हो सकता है परन्तु तीसरी या तीसरी शताब्दिके बादका वह किसी तरह भी नहीं बनता।' परन्तु मेरे इस सब विवेचनको प्रेमीजीकी बद्धमूल हुई धारणाने कबूल नहीं किया, और इसलिये वे अपने उक्त ग्रन्थगत लेखमे मर्कराके ताम्रपत्रको कुन्दकुन्दके स्वनिघारित समय (शक स० ३८० के बाद) के माननेमे "सबसे बड़ी बाधा" स्वीकार करते हुए और यह बतलाते हुए भी कि "तब कुन्दकुन्दको यतिवृपभके बाद मानना असंगत हो जाता है।" लिखते हैं "पर इसका समाधान एक तरहसे हो सकता है और वह यह कि कौण्डकुन्दान्वयका अर्थ हमें कुन्दकुन्दकी वशपरम्परा न करके कोण्डकुन्दपुर नामक स्थानसे निकली हुई परम्परा करना चाहिये । जैसे श्रीपुर स्थानकी परम्परा श्रीपुरान्वय, अरुंगलकी अरुंगलान्वय, कित्तरकी कित्तरान्वय, मथुराकी माथुरान्वय आदि ।" १ सद्दवियारो हश्रो भासासुत्तेसु ज जिणे कहिय । सो तह कहिय णाय सीसेण य भद्दबाहुस्स ॥६१|| ६ जैन कालगणनाश्रीका विशेष जाननेके लिये देखो लेखकद्वारा लिखित 'स्वामी समन्तभद्र' (इतिहास) का समय निर्णय' प्रकरण पृ० १८३ से तथा 'भ० महावीर और उनका समय' नामक पुस्तक पृ० ३१ से । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची परन्तु अपने इस संभावित समाधानकी कल्पनाके समर्थनमे आपने एक भी प्रमाण उपस्थित नहीं किया, जिससे यह मालूम होता कि श्रीपुरान्वयकी तरह कुन्दकुन्दपुरान्वयका भी कहीं उल्लेख आया है अथवा यह मालूम होता कि जहाँ पद्मनन्दि अपरनाम कुन्दकुन्दका उल्लेख आया है वहाँ उमके पूर्व कुन्दकुन्दान्वयका भी उल्लेख आया है और उसी कुन्दकुन्दान्वयमे उन पद्मनन्दि-कुन्दकुन्दको बतलाया है, जिससे ताम्रपत्रके 'कुन्दकुन्दान्वय' का अर्थ 'कुन्दकुन्दपुरान्वय' कर लिया जाता । बिना समर्थनके कोरी कल्पनासे काम नहीं चल सकता । वास्तवमे कुन्दकुन्दपुरके नामसे किसी अन्वयके प्रतिष्ठित अथवा प्रचलित होनेका जैनसाहित्यमे कहीं कोई उल्लेख नहीं पाया जाता। प्रत्युत इसके, कुन्दकुन्दाचार्यके अन्वयके प्रतिष्ठित और प्रचलित होने के सैकड़ो उदाहरण शिलालेखों तथा ग्रथप्रशस्तियोंमे उपलब्ध होते हैं और वह देशादिके भेदसे 'इंगलेश्वर'' आदि अनेक शाखाओं (बलियों) मे विभक्त रहा है । और जहाँ कहीं कुन्दकुन्दके पूर्वकी गुरुपरम्पराका कुछ उल्लेख देखनेमे आता है वहाँ उन्हें गौतम गणघरकी सन्ततिमे अथवा अतकेवली भद्रवाहुके शिष्य चन्द्रगुप्त के अन्वय (वश) मे बतलाया है । जिनका कौएडकुन्दपुर के साथ कोई सम्बन्ध भी नहीं है। श्रीकन्दकन्द मूलसघ (नन्दिसघ भी जिसका नामान्तर है) के अग्रणी गणो थे और देशीगणेका उनक अन्वयसे खास सम्बन्ध रहा है, ऐसा श्रवणवेल्गोलके ५५(६६) नम्बरके शिलालेखके निम्नवाक्योसे जाना जाता है: श्रीमतो बर्द्धमानस्य बर्द्धमानस्य शासने । श्रीकोएड कुन्दनामाऽभून्मूलसवाग्रणी गणी ॥३॥ तस्याऽन्वयेऽजनि ख्याते.....'देशिके गणे । गुणी देवेन्द्रसैद्धान्तदेवो देवेन्द्र-बन्दितः ॥४॥ (और इसलिये मर्कराके ताम्रपत्रमे देशागण के साथ जो कुन्दकुन्दान्वयका उल्लेख है वह श्रीकुन्दकुन्दाचार्यके अन्वयका ही उल्लेख है कुन्दकुन्दपुरान्वयका नहीं) और इससे प्रेमीजीकी उक्त कल्पनामे कुछ भी सार मालूम नहीं होता। इसके सिवाय, प्रेमोजीने बोधपाहुड-गाथा-सम्बन्धी मेरे दूसरे प्रमाणका कोई विरोध नहीं किया, जिससे वह स्वीकृत जान पड़ता है अथवा उसका विरोध अशक्य प्रतीत होता है । दोनो ही अवस्थाओंमे कोण्डकुन्दपुरान्वयकी उक्त कल्पनासे क्या नतीजा ? क्या वह कुन्दकुन्दके समय-सम्बन्धी अपनी धारणाको, प्रबलतर बाधाके उपस्थित होने पर भी, जीवित रखने आदिके उद्देश्यसे की गई है ? कुछ समझमें नहीं आता ।।। नियमसारकी उक्त गाथा में प्रयुक्त हुए 'लोयविभागेसु' पदको लेकर मैंने जो उपर्युक्त दो आपत्तियों की थीं उनका भी कोई समुचित समाधान प्रेमीजीने नहीं किया है। उन्होने अपने उक्त मूल लेखमें तो प्रायः इतना ही कह कर छोड़ दिया है कि "बहुवचनका प्रयोग इसलिये भी इष्ट हो सकता है कि लोक-विभागके अनेक विभागों या अध्यायोंमे उक्त भेद देखने चाहियें।' परन्तु ग्रंथकार कुन्दकुन्दाचार्यका यदि ऐसा अभिप्राय होता तो वे 'लोयविभाग-विभागेसु' ऐसा पद रखते, तभी उक्त आशय घटित हो सकता था, परन्तु ऐसा नहीं है, और इसलिये प्रस्तुत पदके विभागेसु' पदका आशय यदि अथके विभागों या अध्यायोंका लिया जाता है तो ग्रंथका नाम 'लोक' रह जाता है-'लोकविभाग' नहीं-और १ सिरिमूलसंध-देसियगण-पुत्थयगच्छ-कोंडकुंदाण । परमरण-इंगलेसर-बलिम्मि जादस्स मुणिपहाणस्स ॥ ~भावत्रिभगी ११८, परमागमसार २२६ । २ देखो, श्रवणबेलगोलके शिलालेख न. ४०, ४२, ४३, ४७, ५०, १०८ । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ प्रस्तावना इससे प्रेमीजीकी सारी युक्ति ही लौट जाती है जो 'लोकविभाग' ग्रंथके उल्लेखको मानकरकी गई है । इसपर प्रेमीजोका उम समय ध्यान गया मालूम नहीं होता । हाँ, वादको किसी समय उन्हें अपने इस समाधानकी नि सारताका ध्यान आया जरूर जान पड़ता है और उसके फलस्वरूप उन्होंने परिशिष्टमें समाधानकी एक नई दृष्टिका आविष्कार किया है और वह इस प्रकार है: "लोयविभागेसु णादव" पाठ पर जो यह आपत्ति की गई है कि वह बहुवचनान्त पद है, इसलिये किसी लोकविभागनामक एक ग्रन्थके लिये प्रयुक्त नहीं हो सकता, तो इसका एक समाधान यह हो सकता है कि पाठको 'लोयविभागे सुणाढव्व' इस प्रकार पढ़ना चाहिये, 'सु' को 'णादव्वं' के साथ मिला देनेसे एकवचनान्त 'लोयविभागे' ही रह जायगा और अगली क्रिया 'सुणादव' (सुज्ञातव्य) हो जायगी। पद्मप्रभने भो शायद इसी लिये उसका अर्थ 'लोकविभागाभिधानपरमागमे' किया है।' इसपर मैं इतना ही निवेदन करना चाहता हूँ कि प्रथम तो मूलका पाठ जब 'लोयविभागेसु णादव्व' इस रूपमे स्पष्ट मिल रहा है और टीकामें उसकी सस्कृत छाया जो लोक विभागेसु ज्ञातव्यः'' दी है उससे वह पुष्ट हो रहा है तथा टीकाकार पद्मप्रभने क्रियापदके साथ 'सु' का 'सम्यक' आदि कोई अर्थ व्यक्त भी नहीं किया-मात्र विशेषणरहित 'दृष्टव्यः' पदके द्वारा उसका अर्थ व्यक्त किया है, तब मूल के पाठकी, अपने किसी प्रयोजनके लिये, अन्यथा कल्पना करना ठीक नहीं है। दूसरे, यह समाधान तभी कुछ कारगर हो सकता है जब पहले मर्कराके ताम्रपत्र और बोधपाहुडकी गाथा-सम्बन्धी उन दोनो प्रमाणोका निरसन कर दिया जाय जिनका ऊपर उल्लेख हुआ है, क्योंकि उनका निरसन अथवा प्रतिवाद न हो सकनेकी हालतमे जब कुन्दकुन्दका समय उन प्रमाणों परसे विक्रमकी दूसरी शताब्दी अथवा उससे पहलेका निश्चित होता है तब 'लोयविभागे' पदको कल्पना करके उसमें शक स० ३८० अर्थात् विक्रमकी छठी शताब्दीमे बने हुए लोकविभाग अथके उल्लेखकी कल्पना करना कुछ भी अर्थ नहीं रखता । इसके सिवाय, मैंने जो यह आपत्ति की थी कि नियमसारकी उक्त गाथाके अनुसार प्रस्तुत लोकविभागमे तियचोंके १४ भेदोका विस्तारके साथ कोई वर्णन उपलब्ध नहीं है, उसका भले प्रकार प्रतिवाद होना चाहिये अर्थात् लोकविभागमे उस कथनके अस्तित्वको स्पष्ट करके बतलाना चाहिये, जिससे 'लोयविभागे' पदका वाच्य प्रस्तुत लोकविभाग ससमा जा सके । परन्तु प्रेमीजीने इस बातका कोई ठीक समाधान न करके उसे टालना चाहा है। इसीसे परिशिष्टमे आपने यह लिखा है कि "लोकविभागमे चतुर्गतजीव-भेदोका या तियंचों और देवोके चौदह और चार भेदोंका विस्तार नहीं है, यह कहना भी विचारणीय है। उसके छठे अध्यायका नाम ही तिर्यक् लोकविभाग है और चतुर्विध देवोंका वर्णन भी है।" परन्तु “यह कहना" शब्दोंके द्वारा जिस वाक्यको मेरा वाक्य बतलाया गया है उसे मैंने कब और कहाँ कहा है ? मेरी आपत्ति तो तिर्यचोके १४ भेदोंके विस्तार-कथन तक ही सीमित है और वह ग्रंथको देख कर ही की गई है, फिर उतने अंशोंमें ही मेरे कथनको न रखकर अतिरिक्त कथनके साथ उसे 'विचारणीय' प्रकट करना तथा ग्रंथमें 'तिर्यकलोकविभाग' नामका भी एक अध्याय है ऐसी बात कहना, यह १ मूलमें एदेसि वित्यार' पदोंके अनन्तर 'लोयविभागेसु णादव्य' पदोंका प्रयोग है । चूँकि प्राकृनमें 'वित्यार' शब्द नपुंसक लिंगमें भी प्रयुक्त होता है इसीसे वित्यारं' पदके साथ णादव्य' क्रियाका प्रयोग हुश्रा है। परन्तु सस्कृतमें विस्तार' शब्द पुल्लिंग माना गया है अतः टीकामें सस्कृत छाया 'एतेषा विस्तार: लोकविभागेसु ज्ञातव्य.' दी गई है, और इसलिये 'ज्ञातव्यः' क्रियापद ठीक है । प्रेमीजीने ऊपर जो 'सुज्ञातव्य' रूप दिया है उसपरसे उसे गलत न समझ लेना चाहिये । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची सब टलानेके सिवाय और कुछ भी अर्थ रखता हुआ मालूम नहीं होता । मैं पूछता हू क्या ग्रंथमें 'तिर्थक लोकविभाग' नामका छठा अध्याय होनेसे ही उसका यह अर्थ हो जाता है कि 'उसमे तिर्यंचोंके १४ भेदोंका विस्तारके साथ वर्णन है ? यदि नहीं तो ऐसे समाधानसे क्या नतीजा ? ओर वह टलाने की बात नहीं तो और क्या है ? जान पड़ता है प्रेमीजी अपने उक्त समाधानकी गहराईको समझते थे-जानते थे कि वह सब एक प्रकारको खानापूरी ही है-और शायद यह भी अनुभव करते थे कि संस्कृत लोकविभागमे तिर्यंचोंके १४ भेदोंका विस्तार नहीं है, और इसलिये उन्होंने परिशिष्टमें ही; एक कदम आगे, समाधानका एक दूसरा रूप अख्तियार किया है जो सब कल्पनात्मक, सन्देहात्मक एव अनिर्णयात्मक है और वह इस प्रकार है: "ऐसा मालूम होता है कि सर्वनन्दिका प्राकृत लोकविभाग वड़ा होगा । सिंहसुरिने उसका संक्षेप किया है। 'व्याख्यास्यामि समासेन' पदसे वे इस बातको स्पष्ट करते हैं। इसके सिवाय, आगे शास्त्रस्य संग्रहस्त्विदं' से भी यही ध्वनित होता है-सग्रहका भो एक अर्थ सक्षेप होता है। जैसे गोम्मटसंगहसुत्त आदि । इसलिये यदि सस्कृत लोकविभागमे तिर्यचोक १४ भेदोंका विस्तार नहीं, तो इससे यह भी तो कहा जा सकता है कि वह मूल प्राकृत ग्रन्थमे रहा होगा, संस्कृतमे संक्षेप करनेके कारण नहीं लिखा गया ।" ___ इस समाधानके द्वारा प्रेमीजीने, संस्कृत लोकविभागमें तिर्यंचोंके १४ भेदोंका विस्तार-कथन न होनेकी हालत मे, अपने बचावको और नियमसारका उक्त गाथामे सर्वनन्दीके लोकविभाग-विषयक उल्लेखकी अपनी धारणाको बनाये रखने तथा दूसरों पर लादे रखनेकी एक सूरत निकाली है । परन्तु प्रेमीजी जब स्वयं अपने लेखमे लिखते हैं कि "उपलब्ध 'लोकविभाग' जो कि सस्कृतमे है बहुत प्राचीन नहीं है । प्राचीनताले उस्का इतना ही सम्बन्ध है कि वह एक बहुत पुराने शक संवत् ३८० के बने हुए ग्रन्थसे अनुवाद किया गया है और इस तरह संस्कृतलोकवि भागको सर्वनन्दीके प्राकृत लोकविभागका अनुवादित रूप स्वीकार करते हैं । अओर यह बात मै अपने लेखमे पहले भी बतला चुका हूँ कि संस्कृत लोकविभागके अन्त मे ग्रन्थको श्लोकसंख्याका सूचक जो पद्य है और जिसमें श्लोकसख्याका परिमाण १५३६ दिया है वह प्राकृत लोकविभागकी संख्याका ही सूचक है और उसीके पद्यका अनुवादित रूप है, अन्यथा उपलब्ध लोकविभागकी श्लोकसंख्या २०३० क करीव पाई जाती है और उसमे जो ५०० श्लोक जितना पाठ अधिक है वह प्रायः उन 'उक्त च' पद्योंका परिमाण है जो दूसरे ग्रंथोंपरसे किसी तरह उद्धृत होकर रक्खे गये हैं । तब किस आधार पर उक्त प्राकृत लोकविभागको 'बड़ा बतलाया जाता है ? और किस आधार पर यह कल्पना की जाती है कि 'व्याख्यास्यामि समासेन' इस वाक्यके द्वारा सिंहसूरि स्वयं अपने प्रथ-निर्माणकी प्रतिज्ञा कर रहे हैं और वह सर्वनन्दीकी ग्रंथनिर्माण-प्रतिज्ञाका अनुवादित रूप नहीं है ? इसी तरह 'शास्त्रस्य संग्रह स्त्विदं' यह वाक्य भी सवेनन्दीके वाक्यका अनुवादित रूप नहीं है ? जब सिंहसूरि स्वतंत्र रूपसे किसी ग्रन्थका निर्माण अथवा स ग्रह नहीं कर रहे हैं और न किसी ग्रंथकी व्याख्या ही कर रहे हैं बल्कि एक प्राचीन ग्रथका भाषाके परिवर्तन द्वारा (भाषायाः परिवर्तनेन) अनुवादमात्र कर रहे हैं तब उनके द्वारा 'व्याख्यास्यामि समासेन' जैसा प्रतिज्ञावाक्य नहीं बन सकता और न श्लोक-संख्याको साथमे देता हुआ 'शास्त्रस्य संग्रह स्त्विदं' वाक्य ही बन सकता है। इससे दोनों वाक्य मूलकार सर्वनन्दीके ही वाक्योंके अनुवादितरूप जान पड़ते हैं । सिंहसूरका इस ग्रंथकी रचनासे कवल इतना ही सम्बन्ध है कि वे भाषाके परिवर्तन द्वारा इसके रचयिता हैं-विषयके संकलनादिद्वारा नहीं जैसा कि उन्होंने अन्तके चार पद्योंमेसे प्रथम पद्यमें सूचित किया है और ऐसा ही उनकी ग्रंथ-प्रकृतिपरसे जाना जाता है । मालूम होता है प्रेमीजीने इन सब बातों पर कोई Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ४१ ध्यान नहीं दिया और वे वैसे ही अपनी किसी धुन अथवा धारणा के पीछे युक्तियों को तोड़मरोड़ कर अपने अनूकूल बनाने के प्रयत्नमें समाधान करने बैठ गये हैं । ऊपरके इस सब विवेचनपर से स्पष्ट है कि प्रेमीजी के इस कथन के पीछे कोई युक्तिबल नहीं है कि कुन्दकुन्द यतिवृपभके बाद अथवा सम-सामयिक हुए हैं। उनका जो खास आधार आर्यमक्षु और नागहस्तिका गुणधराचार्य के साक्षात् शिष्य होना था वह स्थिर नहीं रह सका - प्रायः उसीको मूलाधार मानकर और नियमसारकी उक्त गाथामें सर्वनन्दीके लोकविभागकी आशा लगाकर वे दूसरे प्रमाणों को खींच-तानद्वारा अपने सहायक बनाना चाहते थे, और वह कार्य भी नहीं हो सका । प्रत्युत इसके ऊपर जो प्रमाण दिये गए हैं उन परसे यह भले प्रकार फलित होता है कि कुन्दकुन्दका समय विक्रमकी दूसरी शताब्दि तक तो हो सकता है - उसके बादका नहीं, और इसलिये छठी शताब्दीमे होनेवाले यतिवृपभ उनसे कई शताब्दी वाद हुए हैं । (ग) नई विचारधारा और उसकी जाँच अब 'तिलोयपण्णत्ती' के सम्बन्ध मे एक नई विचारधाराको सामने रखकर उसपर विचार एवं जाँचका कार्य किया जाता है । यह विचार धारा पं० फूलचन्दजी शास्त्रीने अपने 'वर्तमान तिलोय पणत्ति और उसके रचनाकाल आदिका विचार' नामक लेखमें प्रस्तुत की है, जो जैनसिद्धान्तभास्कर भाग ११ की किरण १ मे प्रकाशित हुआ है । शास्त्रीजी के विचारानुसार वर्तमान तिलोयपण्णत्ती विक्रमकी ६ वीं शताब्दी अथवा शक सं० ७३८ वि० सं० ८७३) से पहलेकी बनी हुई नहीं है और उसके कर्ता भी यतिवृषभ नहीं हैं । अपने इस विचार के समर्थन मे आपने जो प्रमाण प्रस्तुत किये हैं उनका सार निम्न प्रकार है । इस सारको देनेमे इस बातका खास खयाल रक्खा गया है कि जहाँ तक भी हो सके शास्त्रीजीका युक्तिवाद अधिकसे अधिक उन्हीं के शब्दोंमे रहे : (१) 'वर्तमान मे लोकको उत्तर और दक्षिणमें जो सर्वत्र सात राजु मानते हैं उसकी स्थापना धवला के कर्ता वीरसेन स्वामीने की है— वीरसेन स्वामी से पहले वैसी मान्यता नहीं थी । वीरसेन स्वामीके समय तक जैन आचार्य उपमालोकसे पाँच द्रव्योंके आधारभूत लोक को भिन्न मानते थे । जैसा कि राजवार्तिकके निम्न दो उल्लेखों से प्रकट है : A " अ: लोकमूले दिग्विदिक्षु विष्कम्भः सप्तरज्जवः, तिर्यग्लोके रज्जुरेका, ब्रह्मलोके पंच, पुनर्लोका रज्जुरेका । मध्यलोकादधो रज्जुमवगाह्य शर्करान्ते श्रष्टास्वपि दिग्विदिक्षु विष्कम्भः रज्जुरेका रज्ज्वाश्च पटू सप्तभागाः ।” - ( ० १ सू० २० टीका) “ततोऽसंख्यान् खण्डानपनीयासंख्येयमेकं भागं बुद्धया विरलीकृत्य एकैकस्मिन घनाडूगुलं दत्वा परस्परेण गुणिता जगच्छ रेणी सापरया जगच्छ ऐया अभ्यस्ता प्रतरलोकः । स एवापरया जगच्छ या सर्वार्गितो घनलोकः ।" - (अ० ३० सू० ३८ टीका) इनमे से प्रथम उल्लेख परसे लोक आठों दिशाओं में समान परिमाणको लिये हुए होनेसे गोल हुआ और उसका परिमाण भी उपमालोकके प्रमाणानुसार ३४३ घनराजु नहीं बैठता, जब कि वीरसेनका लोक चौकौर हैं, वह पूर्व पश्चिम दिशा में ही उक्त क्रमसे घटता हैं दक्षिण-उत्तर दिशामे नहीं इन दोनों दिशाओ मे वह सर्वत्र सात राजु बना रहता है । और इसलिये उसका परिमाण उपमालोक के अनुसार ही ३४३ घनराजु बैठता हैं और वह प्रमाणमें पेश की हुई निम्न दो गाथाओंपरसे, उक्त आकार के साथ भले प्रकार फलित होता है : Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन जैनवाक्य सूची " मुहतलसमासश्रद्ध उस्सेधगुणं गुणं च येधेण । घणगणिदं जाज्जो बेतास संठिए खेत्ते ॥ १ ॥ मूलं मज्मेण गुणं मुहजहिदद्धमुस्सेधकदिगुणिदं । घणगणिदं जाज्जो मुइंगसंठाणखेत्तम्मि ॥ २ ॥" - ववला, क्षेत्रानुयोगद्वार पृ० २० राजवार्तिक के दूसरे उल्लेखपरसे उपमालोकका परिमाण ३४३ वनराज तो फलित होता है; क्योकि जग गीका प्रमाण ७ राजु है और ७ का घन ३४३ होता है । यह उपमालोक है परन्तु इसपर से पाँच द्रव्यों के आधारभूत लोकका आकार आठों दिशाओमे उक्त क्रमसे घटता-बढ़ता हुआ 'गोल' फलित नहीं होता । ४२ "वीरसेनस्वामी के सामने राजवार्तिक आदिमे बतलाये गये आकार के विरुद्व लोकके आकारको सिद्ध करनेके लिये केवल उपर्युक्त दो गाथाएँ ही थीं । इन्हीं के आधार से वे लोकके आकारको भिन्न प्रकार से सिद्ध कर सके तथा यह भी कहने समर्थ हुए कि 'जिन' प्रथोमे लोकका प्रमाण अघोलोकके मूल मे सात राजु, मध्यलोकके पास एक राजु, ब्रह्मस्वर्गके पास पॉच राजु प्रोर लोकाग्र मे एक राजु बतलाया है वह वहाँ पूर्व और पश्चिम दिशा की अपेक्षा से बतलाया है । उत्तर और दक्षिण दिशा की ओर से नहीं । इन दोनों दिशाओ की अपेक्षा तो लोकका प्रमाण सर्वत्र सात राजु है । यद्यपि इसका विधान करणानुयोगके प्रथोमे नहीं है तो भी वहाँ निषेध भी नहीं है अतः लोकको उत्तर और दक्षिणमे सर्वत्र सात राजु मानना चाहिये । वर्तमान तिलोय्पण्णत्तीमे निम्न तीन गाथाएँ भिन्न स्थलोंपर पाई जाती हैं, जो वीरसेन स्वामीके उस मतका अनुसरण करती है जिसे उन्होंने 'मुद्दतलसमास' इत्यादि गाथाओ और युक्तिपर से स्थिर किया है "जगसेढिघणपमाणो लोयायासो स पंचदव्यरिदी | एस तारांतलोयायामस्स बहुमके ॥ ६१ ॥ सयलो एस य लोओ पिणो सेढिविंदमाखेण । तिवियप्पो णादव्वो हेहिममज्झिमउड्ढभेण ॥ १३६ ॥” सेढिपमाणायामं भागेसु दक्खिणुत्तरेसु पुढं । पुव्वावरे वासं भूमिमुहे सत्त एक पंचक्का ॥ १४६ ॥ इन पाँच द्रव्योंसे व्याप्त लोकाकाशको जगश्रेणी के घनप्रमाण बतलाया है । साथ ही, “लोकका प्रमाण दक्षिण-उत्तर दिशा मे सर्वत्र जग गी जितना अर्थात् सात राजु और पूर्व-पश्चिम दिशामें अधोलोकके पास सात राजु, मध्यलोक के पास एक राजु, ब्रह्मलोक के पास पॉच राजु और लोकाग्रमे एक राजु है" ऐसा सूचित किया है । इसके सिवाय, तिलोयपण्णत्तीका पहला महाधिकार सामान्यलोक, अघोलोक व ऊर्ध्वलोकके विविध प्रकार से निकाले गए घनफलों/से भरा पड़ा है जिससे वीरसेन स्वमीकी मान्यताकी ही पुष्टि होती है । तिलोय' 'ण च तइयाए गाहाए सह विरोहो, एत्थ वि दोसु दिवासु चउत्रिहविक्खंभदंसणादो ।' क्षेत्रानुयोगद्वार पृ० २१ । - घवला, 'च सत्तरज्जुवाल्लं करणाणि श्रोगमुक्त विरुद्धं तत्थ विधिप्पडिसेधाभावादो ।' " - धवला, क्षेत्रानुयोगद्वार पृ० २२ । - देखो, तिलोयपण्यत्तिके पहले अधिकारकी गाथाएँ २१५ से २५१ तक | Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना पएणत्तोका यह अंश यदि वीरसेनस्वामीके सामने मौजूद होता तो "वे इसका प्रमाणरूपसे उल्लेख नहीं करते यह कभी संभव नहीं था। चूंकि वीरसेनने तिलोयपण्णत्तीकी उक्तगाथाएँ अथवा दूसरा अंश धवलामें अपने विचारके अवसर पर प्रमाणरूपसे उपस्थित नहीं किया अतः उनके सामने जो तिलोयपएणती थी और जिसके अनेक प्रमाण उन्होंने धवलामे उद्धृत किये हैं वह वर्तमान तिलोयपएणत्ती नहीं थी इससे भिन्न दूसरी ही तिलोयपण्णत्ती होनी चाहिये, यह निश्चित होता है। (२) “तिलोयपण्णत्तीमें पहले अधिकारको ७ वी गाथासे लेकर ८७ वी गाथा तक ८१ गाथाओंमे मगल आदि छह अधिकारोंका वर्णन है । यह पूराका पूरा वर्णन संतपरूवणाको धवलाटीकामे आये हुए वर्णनसे मिलता हुआ है।। ये छह अधिकार तिलोयपएणत्तीमे अन्यत्रसे सग्रह किये गये हैं इस बातका उल्लेख स्वयं तिलोयपण्णत्तीकारने पहले अधिकारकी ८५ वीं गाथा 'मे किया है तथा धवलामें इन छह अधिकारोका वर्णन करते समय जितनी गाथा या श्लोक उद्धृत किये गये हैं वे सब अन्यत्रसे लिये गये हैं तिलोयपएणत्तीसे नहीं, इससे मालूम होता है कि तिलोयपएणत्तिकारके सामने धवला अवश्य रही है। (दोनों ग्रन्थोंके कुल समान उद्धरणोंके अनन्तर) "इसी प्रकार के पचासों उद्धरण दिये जा सकते हैं जिनसे यह जाना जा सकता है कि एक ग्रन्थ लिखते समय दूसरा ग्रथ अवश्य सामने रहा है । यहाँ पाठक एक विशेषता और देखेंगे कि धवलामे जो गाथा या श्लोक अन्यत्रसे उद्धृत हैं तिलोयपएणत्तिमे वे भी मूलमें शामिल कर लिये गए हैं । इससे तो यही ज्ञात होता है कि तिलोयपण्णत्ति लिखते समय लेखकके सामने धवला अवश्य रही है।" (३) " 'ज्ञानं प्रमाणमात्मादेः' इत्यादि श्लोक इन (भट्टाकलंकदेव) की मौलिक कृति है जो लघीयस्त्रयके छठे अध्यायमे आया है । तिलोयपएणत्तिकारने इसे भी नहीं छोड़ा । लघीयस्त्रयमे जहाँ यह श्लोक आया है वहाँसे इसके अलग करदेने पर प्रकरण ही अधूरा रह जाता है। पर तिलोयपएणत्तिमे इसके परिवर्तित रूपकी स्थिति ऐसे स्थल पर है कि यदि वहाँसे उसे अलग भी कर दिया जाय तो भी प्रकरणकी एकरूपता बनी रहती है। वीरसेन स्वामीने धवलामे उक्त श्लोकको उद्घृत किया है । तिलोयपएणत्तिको देखनेसे ऐसा मालूम होता है कि तिलोयपएणत्तिकारने इसे लघीयस्त्रयसे न लेकर धवलासे ही लिया है, क्योंकि धवलामे इसके साथ जो एक दूसरा शोक उद्धृत है उसे भी उसी क्रमसे तिलोयपएणत्तिकारने अपना लिया है। इससे भी यही प्रतात होता है कि तिलोयपएणत्तिकी रचना धवलाके बाद हुई है ।" ___(४) "धवला द्रव्यप्रमाणानुयोगद्वारके पृष्ठ ३६ मे तिलोयपएणत्तिका एक गाथांश उद्घृत किया है जो निम्न प्रकार है 'दुगुणदुगुणो दुवग्गो णिरंतरो तिरियलोगो' त्ति । वर्तमान तिलोयपएणत्तिमे इसकी पर्याप्त खोज की, किन्तु उसमे यह नहीं मिला । हॉ, इस प्रकारकी एक गाथा स्पर्शानुयोगमें वीरसेन स्वामीने अवश्य उघृत की है, जो इस प्रकार है: 'चंदाइच्चगहेहिं चेवं णक्खत्तताररुवेहिं । दुगुण दुगुणेहि णीरंतरेहि दुवग्गो तिरियलोगो॥' १ "मंगलपहुदिछक्कं वक्खाणिय विविहगंयजुत्तीहि ।” Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची किन्तु वहाँ यह नहीं बतलाया कि कहॉकी है। मालूम पड़ता है कि इसीका उक्त गाथांश परिवतित रूप है। यदि यह अनुमान ठीक है तो कहना होगा कि तिलोयपएणत्तिमे पूरी गाथा इस प्रकार रही होगी। जो कुछ भा हो पर इतना सच है कि वर्तमान तिलोयपएणत्ति उससे भिन्न है।" (५) "तिलोयपएणत्तिमे यत्र तत्र गद्य भाग भी पाया जाता है । इसका बहुत कुछ अंश धवलामे आये हुए इस विषयके गद्य भागसे मिलता हुआ है । अतः यह शंका होना स्वाभाविक है कि इस गद्य भागका पूर्ववर्ती लेखक कौन रहा होगा। इस शकाके दूर करनेके लिये हम एक ऐसा गद्याश उपस्थित करते हैं जिससे इसका निर्णय करनेमे बड़ी सहायता मिलती है। वह इस प्रकार है : एसा तप्पाअोगासंखेजरूवाहियजंवृदीवछेदणयसहिददीवसायररूपमेत्तरज्जुच्छेदपमाणपरिक्खाविही ण अएणाइरिओवएसपरंपराणुसारिणी केवलं तु तिलोयपएणत्तिमुत्ताणुनारिजादिसियदेवभागहारपदुप्पाइदसुत्तावलंबिजुत्तिवलेण पयदगच्छमाहणट्ठमम्हेहि परूविदा ।' यह गद्याश धवला स्पर्शानुयोगद्वार पृ० १५७ का है। तिलोयपएणत्तिमे यह उसो प्रकार पाया जाता है । अन्तर केवल इतना है कि वहाँ 'अम्हेहि' के स्थानमे 'एसा परूवणा' पाठ है । पर विचार करनेसे यह पाठ अशुद्ध प्रतीत होता है, क्योकि 'एसा' पद गद्यके प्रारभमे ही आया है अतः पुनः उसी पदके देनेकी आवश्यकता नहीं रहती । परिक्खाविही' यह पद विशेष्य है, अतः 'परूवणा' पद भी निष्फल हो जाता है । "(गद्यांशका भाव देनेके अनन्तर) इस गद्यभागसे यह स्पष्ट हो जाता है कि उक्त गद्यभाग में एक राजुके जितने अर्धछेद बतलाये है वे तिलोयपएणत्तिमे नहीं बतलाये गये हैं किन्तु तिलोयपएणत्तिमे जो ज्योतिपी देवोक भागहारका कथन करनेवाला सूत्र है उसके बलसे सिद्ध किये गए है । अब यदि यह गद्यभाग तिलोयपएणत्तिका होता तो उसीमें 'तिलोलपण्णत्तिसुत्राणुसारि' पद देनेकी और उसीके किसी एक सूत्रके बलपर राजुकी चालू मान्यतासे संख्यात अधिक अर्धछेद सिद्ध करनेकी क्या आवश्यकता थी । इससे स्पष्ट मालूम होता है कि यह गद्यभाग धवलासे तिलोयपएणत्तिमें लिया गया है। नहीं तो वीरसेन स्वामी जोर देकर हमने यह परीक्षा विधि' कही है। यह न कहते। कोई भी मनुष्य अपनी युक्तिको ही अपनी कहता है। उक्त गद्य भागमे आया हुआ 'अम्हेहि' पद साफ बतला रहा है कि यह युक्ति वीरसेनस्वामीको है । इस प्रकार इस गद्यभागसे भो यहो सिद्ध होता है कि वर्तमान तिलोयपएणत्तिको रचना धवलाके अनन्तर हुई है ।") इन पांचों प्रमाणोंको देकर शास्त्रीजीने बतलाया है कि धवलाकी समाप्ति चूंकि शक संवत् ७३८ में हुई थी इसलिये वर्तमान तिलोयपएणत्ति उससे पहलेकी बनी हुई नहीं है और चूंकि त्रिलोकसार इसी तिलोयपएणत्तीके आधार पर बना हुआ है और उसके रचयिता नेमिचन्द्र सि० चक्रवर्ती शक सवत् १०० के लगभग हुए हैं इसलिये यह ग्रन्थ शक स० १०० के बादका बना हुआ नहीं है,फलतः इस तिलोयपण्णत्तिकी रचना शक सं० ७१८ से लेकर ६०० के मध्य में हुई है । अतः इसके कर्ता यतिवृषभ किसी भी हालतमे नहीं हो सकते ।" इसके रचयिता संभवतः वीरसेनके शिष्य जिनसेन हैं-वे ही होने चाहिये, क्योंकि एक तो.वोरसेन स्वामोके साहित्य-कार्यसे वे अच्छी तरह परिचित थे । तथा उनके शेप कार्यको इन्होंने पूरा भी किया है। संभव है उन शेष कार्यो में उस समयकी आवश्यकतानुसार तिलोयपएणत्तिका संकलन भी एक कार्य हो । दूसरे वीरसेनस्वामीने प्राचीन साहित्यके संकलन, संशोधन और सम्पादनको जो दिशा निश्चित् को थो वर्तमान तिलोयपण्णत्तिका WAE Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना संकलन भी उसी के अनुसार हुआ है । तथा सम्पादनकी इस दिशासे परिचित जिनसेन ही थे। इसके सिवाय 'जयधवलाके जिस भागके लेखक आचार्य जिनसेन हैं उसकी एक गाथा (पणमह जिणवरवसह' नामकी) कुछ परिवर्तनके साथ तिलोयपण्णत्तिके अन्तमे पाई जाती है, और इससे तथा उक्त गद्य में 'अम्हे हि' पदके न होने के कारण वीरसेन स्वामी वर्तमान तिलोयपएणत्तिके कर्ता मालूम नहीं होते। उनके सामने जो तिलोयपरणेत्ति थी वह संभवतः यतिवृपभाचार्यकी रही होगी ।' 'वर्तमान तिलोयपण्णत्तिके अन्तमे पाई जाने वाली उक्त गाथा ('पणमह जिणवरवसई) मे जो मौलिक परिवर्तन दिखाई देता है वह कुछ अर्थ अवश्य रखता है और उसपरसे, सुझाये हुए 'अरिस वसह' पाठके अनुसार, यह अनुमानित होता एवं सूचना मिलती है कि वर्तमान तिलोयपएणत्तिके पहले एक दूसरी तिलोयपरणत्ति आग्रंथके रूपमें थी, जिसके कर्ता यतिवृषभ स्थविर थे और उसे देखकर इस तिलोयपएणत्तिकी रचना की गई है।' शास्त्रीजीके उत्त प्रमाणों तथा निष्कर्षों के सम्बन्धमे अव में अपनी विचारणा एव जॉच प्रस्तुत करता हूँ और उसमे शास्त्रीजीके प्रमाणोंको क्रमसे लेता हूँ: (१) प्रथम प्रमाणको प्रस्तुत करते हुए शास्त्रीजीने जो कुछ कहा है उसपरसे इतना ही फलित होता है कि वर्तमान तिलोयपएणत्ति वीरसेन स्वामीसे बादकी बनी हुई है और उस तिलोयपण्णत्तिसे भिन्न है जो वीरसेन स्वामीके सामने मौजूद थी, क्योंकि इसमे लोकके उत्तर-दक्षिण मे सर्वत्र सात राजूकी उस मान्यताको अपनाया गया है और उसीका अनुसरण करते हुए घनफलोंको निकाला गया है जिसके संस्थापक वीरसेन है । और वीरसेन इस मान्यताके सस्थापक इस लिये है कि उनसे पहले इस मान्यताका कोई अस्तित्व नहीं था, उनके समय तक सभी जैनाचार्य ३४३ धनराजु वाले उपमालोक (प्रमाणलोक) से पॉच द्रव्योंके आधारभूत लोकको भिन्न मानते थे । यदि वर्तमान तिलोयपएणत्ति वीरसेनके सामने मौजूद होती अथवा जो तिलोयपएणत्ति वीरसेनके सामने मौजूद थी उसमे उक्त मान्यताका कोई उल्लेख अथवा ससूचन होता तो यह असंभव था कि वीरसेन स्वामी उसका प्रमाणरूपसे उल्लेख न करते। उल्लेख न करनेसे हो दोनोंका अभाव जाना जाता है।')अब देखना यह है कि क्या वीरसेन सचमुच ही उक्त मान्यताके संस्थापक हैं और उन्होने कहीं अपनेको उसका सस्थापक या आविष्कारक प्रकट किया है। जिस धवला टीकाका शास्त्रीजीने उल्लेख किया है उसके उस स्थलको देख जानेसे वैसा कुछ भी प्रतीत नहीं होता। वहाँ वीरसेनने, क्षेत्रानुगम अनुयोगद्वारके 'ओघेण मिच्छादिट्ठी केवडि खेत्ते, सव्वलोगे' इस द्वितीय सूत्रमे स्थित 'लोगे' पदकी व्याख्या करते हुए, बतलाया है कि यहाँ 'लोक' से सात राजु घनरूप (३४३ घनराजुप्रमाण) लोक ग्रहण करना चाहिये, क्योकि यहाँ क्षेत्र प्रमाणाधिकारमे पल्य, सागर, सूच्यगुल, प्रतरागुल, घनागुल, जगणी, लोकप्रतर और लोक ऐसे आठ प्रमाण क्रमसे माने गये हैं। इससे यहॉ प्रमाणलोकका ही ग्रहण है जो कि सात राजुप्रमाण जगश्रेणीके घनरूप होता है । इसपर किसीने शका की कि यदि ऐसा लोक ग्रहण किया जाता है तो फिर पॉच द्रव्योंके आधारभूत आकाशका ग्रहण नहीं बनता, क्योकि उसमे सात राजुके घनरूप क्षेत्रका अभाव है। यदि उसका क्षेत्र भी सातराजुके घनरूप माना जाता है तो 'हेट्ठा मज्झे उवरिं' 'लोगो अकिट्टमो खलु' और 'लोयस्स विक्खभो चउप्पयारो' ये तीन सूत्र-गाथाएँ अप्रमाणताको प्राप्त होती हैं । इस शंकाका परिहार (समाधान)करते हुए वीरसेन स्वामीने पुनः बतलाया है कि यहाँ 'लोगे' पदमें पच द्रव्योंके आधाररूप आकाशका ही ग्रहण है, अन्यका नहीं। क्योंकि लोगपूरणगदो केवली केवडि खेत्ते, सव्वलोगे' (लोकपूरण समुद्घातको प्राप्त केवली कितने क्षेत्रमे रहता है ? सर्वलोकमें रहता है) ऐसा सूत्रवचन पाया जाता है। यदि लोक सात राजुके धनप्रमाण नहीं है तो यह कहना चाहिये कि लोकपूरण समुद्घातको प्राप्त Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुगतन-जैनवाक्य-सूची हुआ केवली लोकके सख्यात भागमे रहता है । और शंकाकार जिनका अनुयायो है उन दूसरे आचार्याक द्वारा प्ररूपित मदंगाकार लोकके प्रमाणकी दृष्टिले लोकपूरण समुद्धातनात केवलीका लोकके संख्यातवे भागमे रहना असिद्ध भी नहीं है क्योंकि गणना करने पर मृदंगाकार लोकका प्रमाण घनलोकके संख्यानवे भाग ही उपलब्ध होता है । इसके अनन्तर गणित वाग घनलोकके सख्यातवे भागको सिद्ध घोपित करके, वीरसेन स्वामीने इतना और बतलाया है कि इस पंच द्रव्योंके आधाररूप आकाशसे अतिरिक्त दूसरा सात राजु पनप्रमाण लोकमंज्ञक कोड क्षेत्र नहीं है, जिससे प्रमाणलोक (उपमालोक) छह द्रव्योके समुदायरूप लोकने भिन्न होवे । और न लोकाकाश तथा अलोकाकाश दोनोमे स्थित सातराजु धनमात्र आकाश प्रदेशोंकी प्रमाणरूपमे स्वोकृत 'धनलोक' संज्ञा है। ऐसी संज्ञा स्वीकार करनेपर लोकमनाके यादृच्छिक्रपने का प्रसंग आता है और तब संपूर्ण आकाश, जगणी, जगप्रतर और घनलोक जसी संज्ञायोंके यादृच्छिकपनेका प्रसंग उपस्थित होगा । (और इससे सारी व्यवस्था हो बिगड जायगी) इसके सिवाय, प्रमाणलोक और पदव्योके समुदायरूप लोकको भिन्न माननेपर प्रतरगत केवलोके क्षेत्रका निरूपण करते हुए यह जो कहा गया है कि 'वह केवली लोकके असंख्यातवे भागमे न्यून सर्वलोकमे रहता है और लोकके असंख्यातवें भागसे न्यून सर्वलोक्का प्रमाण उर्ध्वलोकके कुछ कम तीसरे भागमे अधिक दो ऊर्ध्वलोक प्रमाण है।' वह नहीं बनता। और इसलिये दोनों लोकोकी एकता सिद्ध होती है । अत. प्रमाणलोक (उपमालोक) श्राकाशप्रदेशोकी गणनाकी अपेक्षा छह द्रव्योंके समुदायरूप लोकके समान है, ऐसा स्वीकार करना चाहिये। इसके बाद यह शंका होनेपर कि किस प्रकार पिण्ड (धन) रूप किया गया लोक सात राजुके घनप्रमाण होता है ? वीरसेन स्वामीने उत्तरमे बतलाया है कि 'लोक संपूर्ण काशके मध्यभागमे स्थित है' चौदह राजु आयामवाला है दोनों दिशाप्रोके अर्थात पूर्व और पश्चिम दिशाके मूल, अर्धभाग, त्रिचतुर्भाग और चरम भागमे क्रमसे सात. एक, पाँच और एक राजु विस्तारवाला है, तथा सर्वत्र सात राजु मोटा है, वृद्धि और हानिके द्वारा उसके दोनों प्रान्तभाग स्थित है, चौदह राजु लम्बी एकराजुके वर्गप्रमाण मुखवाली लोकनाली उसके गर्भमे है, ऐसा यह पिण्डरूप किया गया लोक सात राजुके धनप्रमाण अर्थात् wxsxv=३४३ राजु होता है । यदि लोकको ऐसा नहीं माना जाता है तो प्रतर-समुद्घातगत केवलीके क्षेत्रके साधनार्थ जो 'मुहतलसमासअद्धं' और 'मूल मझेण गुणं' नामकी दो गाथाएँ कही गई हैं वे निरर्थक हो जायेगी, क्योंकि उनमे कहा गया घनफल लोकको अन्य प्रकारसे मानने पर संभव नहीं है। साथ ही, यह भी बतलाया है कि 'इस (उपर्युक्त आकार वाले) लोकका शंकाकारके द्वारा प्रस्तुत की गई प्रथम गाथा ( हेटा मज्झे उवरि वेत्तासनमल्लरीमुइंगणिभो') के साथ विरोध नहीं है, क्योकि एक दिशामे लोक वेत्रासन और मदंगके आकार दिखाई देता है, और ऐसा नहीं कि उसमे झल्लरीका आकार न हो; क्योंकि मध्यलोकमे स्वयभूरमण समुद्रसे परिक्षिप्त तथा चारों ओरसे असख्यात योजन विस्तार वाला और एक लाख योजन मोटाईवाला यह मध्यवर्ती देश चन्द्रमण्डलकी तरह झल्लरी के समान दिखाई देता है । और दृष्टान्त सर्वथा दाष्टन्तिके समान होता भी नहीं, अन्यथा दोनोके ही अभावका प्रसग आजायगा । ऐसा भी नहीं कि (द्वितीय सूत्रगाथामे बतलाया हुआ) तालवृक्षके समान आकार इसमे असंभव हो, क्योंकि एक दिशासे देखनेपर १ 'पदरगदो केवली केवडि खेत्ते लोगे असखेज्जदिभागूणे । उड्ढलोगेण दुवे उड्ढलोगा उड्ढलोगस्स तिभागेण देसूणेण सादिरेगा ।' Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ४७ तालवृक्षके समान आकार दिखाई देता है। और तीसरी गाथा ('लोयस्स विक्खंभो चउप्पयारो') के साथ भी विरोध नहीं है, क्योंकि यहॉपर भी पूर्व और पश्चिम इन दोनों दिशाओ में गाथोक्त चारों ही प्रकारके विष्कम्भ दिखाई देते हैं । सात राजुको मोटाई करणानुयोग सूत्रके विरुद्ध नहीं है, क्योकि उक्त सूत्रमे उसको यदि विधि नहीं है तो प्रतिपेध भी नहीं है -विधि और प्रतिपेघ दोनोंका अभाव है । और इसलिये लोकको उपर्युक्त प्रकारका ही ग्रहण करना चाहिये। ___ यह सब धवलाका वह कथन है जो शास्त्रीजीके प्रथम प्रमाणका मूल आधार है और जिसमे राजवार्तिकका कोई उल्लेख भी नहीं है। इसमे कहीं भी न तो यह निर्दिष्ट है और न इसपरसे फलित ही होता है कि वीरसेन स्वामी लोकके उत्तर-दक्षिणमे सर्वत्र सात राजु मोटाई वालो मान्यताके सस्थापक है-उनसे पहले दूसरा कोई भी आचार्य इस मान्यताको माननेवाला नहीं था अथवा नहीं हुआ है। प्रत्युत इसके, यह साफ जाना जाता है कि वीरसेनने कुछ लोगोकी गलतोका समाधानमात्र किया है-स्वय कोई नई स्थापना नहीं की। इसी तरह यह भी फलित नहीं होता कि वीरसेनके सामने 'मुहतलसमासश्रद्धं' और 'मूलं मज्झेण गुण' नामको दा गाथाओके सिवाय दूसरा कोई भी प्रमाण उक्त मान्यताको स्पष्ट करनेके लिये नहीं था । क्योकि प्रकरणको देखते हुए 'अण्णाइरियपरूविदमुदिंगायारलोगस्स' पदमे प्रयुक्त हुए 'अण्णाइरिय' (अन्याचार्य) शब्दसे उन दूसरे आचार्योंका ही ग्रहण किया जा सकता है जिनके मतका शकाकार अनुयायी था अथवा जिनके उपदेशको पाकर शकाकार उक्त शका करनेके लिये प्रस्तुत हुआ था, न कि उन आचार्यों का जिनके अनुयायी स्वयं वीरसेन थे और जिनके अनुसार कथन करने की अपनी प्रवृत्तिका वीरसेनने जगह जगह उल्लेख किया है। इस क्षेत्रानुगम अनुयोगद्वारके मगलाचरण मे भी वे खेत्तसुत्त जहोवएसं पयासेमो' इस वाक्यक द्वारा यथोपदेश (पूर्वाचार्यों के उपदेशानुसार) क्षेत्रसूत्रको प्रकाशित करनेकी प्रतिज्ञा कर रहे हैं। दूसरे, जिन दो गाथाओ को वीरसेनने उपस्थित किया है उनसे जब उक्त मान्यता फलित एवं स्पष्ट होती है तब वीरसेनको उक्त मान्यताका सस्थापक कैसे कहा जा सकता है, ?-वह तो उक्त गाथाओंसे भी पहलेकी स्पष्ट जानी जाती हैं। और इससे तिलोयपरणत्तीको वीरसेनसे बादकी बनी हुई कहने मे जो प्रधान कारण था वह स्थिर नहीं रहता । तीसरे, वीरसेनने 'मुइतलसमासपद्ध' आदि उक्त दोनो गाथाएँ शकाकारको लक्ष्य कर के ही प्रस्तुत को हैं और वे संभवतः उसी ग्रन्थ अथवा शकाकारके द्वारा मान्य ग्रन्थकी जान पड़ती हैं जिसपरसे तीन सूत्रगाथाएँ शंकाकारने उपस्थित की थीं, इसीसे वोरसेनने उन्हें लोकका दूसरा आकार मानने पर निरर्थक बतलाया है। और इस तरह शकाकारके द्वारा मान्य ग्रन्थके वाक्यों परसे ही उसे निरुत्तर कर दिया है । और अन्त मे जब उसने करणानुयोगसूत्र' के विरोध की कुछ बात उठाई है अर्थात् ऐसा संकेत किया है कि उस ग्रन्धमे सात राजुकी मोटाईकी कोई स्पृष्ट विधि नही है तो वीरसेनने साफ उत्तर दे दिया है कि वहां उसकी विधि नहीं तो निपेच भी नहीं है-विधि और निषेध दोनों के अभावसे विरोधके लिये कोई अवकाश नहीं रहता। इस विवक्षित 'करणानुयोगसूत्र'का अर्थ करणानुयोग-विपयके समस्त ग्रंथ तथा प्रकरण समझ लेना युक्तियुक्त नहीं है । वह 'लोकानुयोग'को तरह, जिसका उल्लेख सर्वार्थसिद्धि और लोकविभागमे भी पाया जाता है', एक जुदा ही ग्रंथ होना चाहिये । ऐसी स्थितिमे वीरसेनके सामने लोकके स्वरूप सम्बन्धमें अपने मान्य ग्रंथों के अनेक प्रमाण मोजूद होते हुए भी उन्हें उपस्थित (पेश) करने की जरूरत नहीं थी और न किसीके लिये यह लाजिमी १ "इतरो विशेपो लोकानुयोगत. वेदितव्य." (३-२) -सर्वार्थसिद्धि "विन्दुमात्रमिदं शेषं ग्राह्यं लोकानुयोगतः" (७-६८) -लोकविभाग Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ पुरातन-जैनवाक्य-सूची है कि जितने प्रमाण उसके पास हो वह उन सबको ही उपस्थित करे-वह जिन्हें प्रसंगानुसार उपयुक्त और जरूरी समझता है उन्हीको उपस्थित करता है और एक ही श्राशयके यदि अनेक प्रमाण हों तो उनमेसे चाहे जिसको अथवा अधिक प्राचीनको उपस्थित कर देना काफी होता है। उदाहरणके लिये 'मुहतलसमासअद्धं' नामकी गाथासे मिलती जुलती और उसी आशयकी एक गाथा तिलोयपएणतीमे निम्न प्रकार पाई जाती है: मुहभूमिसमासद्धिय गुणिदं तुंगेन तह य वेधेण । घणगणिदं णादव्यं वेत्तासण-सण्णिए खेत्ते ॥१६५।। इस गाथाको उपस्थित करके यदि वीरसेनने 'मुहतलसमासपद्ध' नामकी उक्त गाथाको उपस्थित किया जो शंकाकारके मान्य सूत्रग्रंथकी थी तो उन्होंने वह प्रसंगानुसार उचित ही किया, और उसपरसे यह नहीं कहा जा सकता कि वीरसेनके सामने तिलोयपएणत्तिकी यह गाथा नहीं थी, होती तो वे उसे जरूर पेश करते । क्योकि शंकाकार मूल सूत्रोके व्याख्यानादि-रूपमें स्वतंत्ररूपसे प्रस्तुत किये गए तिलोयपएणत्ती जैसे ग्रथोंको माननेवाला मालूम नहीं होता-माननेवाला होता तो वैसी शंका ही न करता, वह तो कुछ प्राचीन मूलसूत्रोंका पक्षपाती जान पड़ता है और उन्हींपरसे सब कुछ फलित करना चाहता है । उसे वीरसेनने मूलमूत्रोंको कुछ दृष्टि बतलाई है और उसके द्वारा पेश की हुई सूत्रगाथाओंकी अपने कथनके साथ संगति विठलाई है। और इस लिये अपने द्वारा सविशेषरूपसे मान्य ग्रंथोके प्रमाणोंको उपस्थित करनेका वहां प्रसंग हो नहीं था। उनके आधारपर तो वे अपना सारा विवेचन अथवा व्याख्यान लिख ही रहे हैं। अब मै तिलोयपएणत्तीसे भिन्न दो ऐसे प्राचीन प्रमाणोको भी पेश कर देना चाहता हूँ जिनसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि वीरसेनकी धवला कृतिसे पूर्व अथवा (शक स० ७३८ स पहले) छह द्रव्योंका आधारभूत लोक, जो अधः ऊर्ध्वं तथा मध्यभागमे क्रमशः वेत्रामन, मदग तथा झल्लरीके सदृश आकृतिको लिये हुए है अथवा डेढ मदंग जैसे आकारवाला है उसे चौकोर (चतुरस्रक) माना है। उसके मूल, मध्य, ब्रह्मान्त और लोकान्तमे जो क्रमशः सात, एक, पॉच, तथा एक राजुका विस्तार बतलाया गया है वह पूर्व और पश्चिम दिशाको अपेक्षासे है, दक्षिण तथा उत्तर दिशाकी अपेक्षासे सर्वत्र सात राजुका प्रमाण माना गया है और इसी लोकको सात राजुके घनप्रमाण निर्दिष्ट किया है: (अ) कालः पञ्चास्तिकायाश्च स प्रपञ्चा इहाऽखिलाः । लोस्यंते येन तेनाऽयं लोक इत्यभिलप्यते ॥४-५॥ येत्रासन-मदंगोरु-झन्लरी-सदृशाऽऽकृतिः । अधश्चोर्ध्वं च तिर्यक् च यथायोगमिति त्रिधा ॥४-६॥ मुजर्धिमधोभागे तस्योर्चे मुरजो यथा । आकारस्तस्य लोकस्य किन्त्येप चतुरस्त्रकः ॥४-७॥ ये हरिवंशपुराणके वाक्य हैं, जो शक सं० ७०५ (वि० सं०८४०) मे बनकर समाप्त हुआ है । इसमें उक्त आकृतिवाले छह द्रव्योके आधारभूत लोकको चौकोर '(चतुरस्रक) बतलाया है- गोल नहीं, जिसे लम्बा चौकोर समझना चाहिये । (आ) सत्तेक्कुपंचइक्का मूले मज्झे तहेव वंभंते । लोयंते रज्जूओ पुत्वावरदो य वित्थारो ॥११८॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ पुरातन-जैनवाक्य-सूची दक्षिण-उत्तरदो पुण सत्त वि रज्जू हवेदि सव्वत्थ । उढ्ढो चउदस रज्जू सत्त वि रज्जू घणो लोगो ॥११॥ ये स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाकी गाथाए हैं, जो एक बहुत प्राचीन ग्रंथ है और वीरसेनसे कई शताब्दी पहलेका बना हुआ है । इनमे लोकके पूर्व-पश्चिम और उत्तर-दक्षिणके राजुओका उक्त प्रमाण बहुत ही स्पष्ट शब्दो में दिया हुआ है और लोकको चौदह राजु ऊंचा तथा सात राजुके घनरूप (३४३ राजु) भी बतलाया है। इन प्रमाणोके सिवाय, जवूद्वीपप्रज्ञप्ति मे दो गाथाएँ निम्न प्रकारसे पाई जाती हैं: पच्छिम-पुवदिसाए विक्खंभो होइ तस्स लोगस्स । - सत्तेग-पंच-एया मूलादो होति रज्जूणि ॥ ४-१६॥ दक्षिण-उत्तरदो पुण विक्खंभो होड सत्त रज्जूणि । चदुसु वि दिसासु भागे चउदसरज्जूणि उत्तुंगो ॥ ४-१७ ॥ इनमे लोककी पूर्व-पश्चिम और उत्तर-दक्षिण चौड़ाई-मोटाई तथा ऊचाईका परिमाण स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाकी गाथाओंक अनुरूप ही दिया है । जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति एक प्राचीन ग्रन्थ है और उन पद्मनन्दो आचार्यकी कृति है जो बलनन्दिके शिष्य तथा वीरनन्दीके प्रशिष्य थे और भागमोपदेशक महासत्व श्रीविजय भी जिनके गुरु थे । श्रीविजयगुरुसे: सुपरिशुद्ध आगमको सुनकर तथा जिनवचन-विनिर्गत अमतभूत अर्थपदको घारण करके उन्हींके माहात्म्य अथवा प्रसादसे उन्होन यह ग्रंथ उन श्रीनन्दी मुनिके निमित्त रचा है जो माधनन्दी मुनिके शिष्य अथवा शिष्य (सकलचन्द शिष्य के शिष्य) थे, ऐसा ग्रन्थकी प्रशस्तिपरसे जाना जाता है। बहुत सभव है कि ये श्रीविजय वे ही हों जिनका दूसरा नाम अपराजितसूरि' था । जिन्होने श्रीनन्दी गणीकी प्रेरणाको पाकर भगवतीअाराधनापर 'विजयोदया' नामकी टीका लिखी है और जो बल्देवसूरिके शिष्य तथा चन्द्रनन्दीके। प्रशिष्य थे। और यह भी संभव है कि उनके प्रगुरु चन्द्रनन्दी वे ही हों जिनकी एक शिष्यपरम्पराका उल्लेख श्रीपुरुपके दानपत्र अथवा 'नागमंगल' ताम्रपत्रमे पाया जाता है, जो श्रीपुर के जिनालयके लिये शक सं०६६८ (वि० सं०८३३) मे लिखा गया है और जिसमे चन्द्रनन्दीके एक शिष्य कुमारनन्दी, कुमारनन्दीके शिष्य कीर्तिनन्दी और कीर्तिनन्दीके शिष्य विमलचन्द्रका उल्लेख है। और इससे चन्द्रनन्दीका समय शक संवत् ६३८ से कुछ पहलेका ही जान पड़ता है। यदि यह कल्पना ठीक है। तो श्री विजयका समय शक संवत् ६५८ के लगभग प्रारंभ होता है और तब जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिका समय शक स० ६७० अर्थात् वि० सं० ८.५ के आस-पासका होना चाहिये । ऐसी स्थितिमें जम्बुद्वीपप्रज्ञप्तिकी रचना भी धवलासे पहलेकी--कोई ६८ वर्ष पूर्वकी-ठहरती है। ऐसी हालतमे शास्त्रीजीका यह लिखना कि "वीरसेनस्वामी के सामने राजवार्तिक आदिमे बतलाए गये आकारके विरुद्ध लोकके आकारको सिद्ध करने के लिये केवल उपयुक्त दो गाथाएँ ही थीं। इन्हींके आधारपर वे लोकके आकारको भिन्न प्रकारसे सिद्ध कर सके तथा यह भी कहने में समर्थ हुए इत्यादि " न्यायसगत मालूम नहीं होता । और न इस आधारपर तिलोयपएणत्तिको वीरसेनसे बादकी बनी हुई अथवा उनके मतका अनुसरण करने वाली बतलाना ही न्यायसंगत अथवा युक्ति-युक्त कहा जा सकता है । वारसेनके सामने तो उस विषयके न मालूम कितने ग्रंथ थे जिनके आधारपर उन्होंने अपने १ सकलचन्द-शिष्यके नामोल्लेखवाली गाया अामेरकी वि० सं० १५१८ की प्राचीन प्रतिमें नहीं है बादकी कुछ प्रतियोंमें है, इसीसे श्रीनन्दीके विषयमे माघनन्दीके प्रशिष्य होने की कल्पना की गई है । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ५० सिद्ध है कि धवलाकारके सामने तिलोयपत्ति थी, जिसके विषय में दूसरी तिलोय पण ति होनेकी तो कल्पना की जाती है परन्तु यह नहीं कहा जाता और न कहा जा सकता है कि उसमे मंगलादिक छह अधिकारोंका वह सब वर्णन ही था जो वर्तमान तिलोयपत्ति में पाया जाता है, तब धवलाकार के द्वारा तिलोयपण्णत्तीके अनुसरणको बात ही अ संभव और युक्तियुक्त जान पड़ती है । ऐसी स्थिति में शास्त्रीजीका यह दूसरा प्रमाण वस्तुतः कोई प्रमाण ही नहीं है और न स्वतंत्र युक्ति के रूप मे उसका कोई मूल्य जान पड़ता है । (३) तीसरा प्रमाण अथवा युक्तिवाद प्रस्तुत करते हुए शास्त्रीजीने जो कुछ कहा है उसे पढ़ते समय ऐसा मालूम होता है कि 'तिलोय पण्णत्तम घवलापरसे उन दो संस्कृत श्लोकोंको कुछ परिवर्तनके साथ अपना लिया गया है जिन्हें घवला मे कहीं से उदधृत किया गया था और जिनमे से एक श्लोक कलंक देवके लवीयन्त्रयका 'ज्ञानं प्रमाणमात्मादेः' नाम का है ।' परन्तु दोनो ग्रंथोको जब खोलकर देखते है तो मालूम होता है कि तिलोयपणतिकारने घवलोद्धृत उन दोनों संस्कृत श्लोकोंको अपने ग्रन्थका श्रग नहीं बनाया - वहाँ प्रकरण के साथ कोई संस्कृत श्लोक हैं ही नहीं, दो गाथाएँ है जो मोलिक रूपमे स्थित हैं। और प्रकरण के साथ संगत है । इसी तरह लघीयस्त्रयवाला पद्य धवलामे उसी रूपसे उद्घृत नहीं जिस रूप मे कि वह लघीयस्त्रयमे पाया जाता है-उसका प्रथम चरण 'ज्ञानं प्रमाणमात्मादे.' के स्थान पर 'ज्ञान प्रमाणमित्याहुः' के रूपमे उपलब्ध है । और दूसरे चरण मे 'इष्यते' की जगह 'उच्यते' क्रिया पढ है । ऐसी हालत मे शास्त्रीजी का यह कहना कि "ज्ञान प्रमाणमात्मादेः' इत्यादि श्लोक भट्टाकलंक देवकी मोलिक कृति है, तिलोय पणत्तिकारने इसे भी नहीं छोड़ा " कुछ संगत मालूम नहीं होता । अस्तु, यहाँ दोनो ग्रन्थोके दोनो प्रकृत पद्योंको उद्धृत किया जाता है, जिससे पाठक उनके विपयके विचारको भले प्रकार हृदयङ्गम कर सकेंः--- ‍ जो पमाणायेहिं सिक्वेवेणं क्खिदे अत्थं । तस्साऽजुत्तं जुनं जुत्तमजुत्तं च (व) पडिहादि ॥ ८२ ॥ गाणं होदि पमाणं ओ विणादुस्स हिदयभावत्थो । णिक्खेव वि उवाओ जुत्तीए अत्यपडिगहणं ॥ ८३ ॥ -तिलोय पण्णत्ती प्रमाण -नय-निक्षेपैर्योऽर्थो नाऽभिसमीक्ष्यते । युक्तं चाऽयुक्तवद् भाति तस्याऽयुक्तं च युक्तवत् ॥ १० ॥ ज्ञानं प्रमाणमित्य | हुरुपायो न्याम उच्यते । नयो ज्ञातुरभिप्रायो युक्तितोऽथपरिग्रहः ॥ ११ ॥ - धवला १, १, पृ० १६, १७, तिलोयपण्णत्तोकी पहली गाथामे यह बताया है कि 'जो प्रमाण, नय और निक्षेपके द्वारा अर्थका निरीक्षण नहीं करता है उसको अयुक्त (पदार्थ) युक्त को तरह और युक्त (पदार्थ) अश्रुक्तको तरह प्रतिभासित होता है।' और दूसरी गाथा मे प्रमाण, नय और निक्षेप का उद्देशानुपार क्रमशः लक्षण दिया है और अन्त में बतलाया है कि यह सब युक्तिले अर्थका परिग्रहण है । अतः ये दोनो गाथाएं परस्पर संगत हैं । और इन्हें न्यसे अलग कर देने पर अगली 'इय गायं अवहारिय आइरियपरंपरागयं मणसा' (इस कार Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१ पुरातन-जनवाक्य-सूची व्याख्यानादिकी उसी तरह सृष्टि की है जिस तरह कि अकलंक और विद्यानन्दादिने अपने राजवार्तिक, श्लोकवार्तिकादि ग्रन्थोमे अनेक विपयोंका वर्णन और विवेचन बहुतसे ग्रन्थोके नामल्लेखके बिना भी किया है। (२) द्वितीय प्रमाणको उपस्थित करते हुए शास्त्रीजीने यह बतलाया है कि तिलोयपएणत्तिके प्रथम अधिकारकी ७ वीं गाथासे लेकर८७ वीं गाथा तक ८१ गाथाओंमे मंगलादि बह अधिकारोंका जो वर्णन है वह पूर का पूरा वर्णन संतपरूवणाकी धवला टीकामें आए हुए वर्णनसे मिलता जुलता है । और साथ ही इस सादृश्य परसे यह भी फलित करके बतलाया कि "एक प्रथ लिखते समय दूसरा ग्रन्थ अवश्य सामने रहा है । परन्तु धवलाकार के सामने तिलोयपएणत्ति नहीं रही, धवलामे उन छह अधिकारोका वर्णन करते हुए जो गाथाएँ या श्लोक उद्धृत किये गये हैं वे सब अन्यत्रसे लिये गये हैं तिलोयपएणत्तिसे नहीं, इतना हो नहीं बल्कि धवलामे जो गाथाएं या श्लोक अन्यत्रसे उद्धृत हैं उन्हें भी तिलोयपएणत्तिके मूलमे शामिल कर लिया है' इस दावेको सिद्ध करने के लिये कोई भा प्रमाण उपस्थित नहीं किया गया । जान पडता है पहले भ्रांत प्रमाणपरसे बनी हुई गलत धारणा के अाधारपर ही यह सब कुछ बिना हेतुके हो कह दिया गया है || अन्यथा शास्त्री जी कमसे कम एक प्रमाण तो ऐसा उपस्थित करते जिससे यह जाना जाता कि धवलाका अमुक उद्धरण अमुक ग्रन्थ के नामोल्लेख पूवक अन्यत्रसे उद्धृत किया गया है और उसे तिलोयपएणत्तिका अंग बना लिया गया है । ऐसे किसी प्रमाणके अभावमे प्रस्तुत प्रमाण परसे अभीष्ट की कोई सिद्धि नहीं हो सकती और इसलिये वह निरर्थक ठहरता है। क्योकि वाक्योकी शाब्दिक या आर्थिक समानतापरसे तो यह भी कहा जा सकता है कि धवलाकारके सामने तिलोयपएणत्ति रही है, बल्कि ऐसा कहना, तिलोयपएणत्तिके व्यवस्थित मौलिक कथन और धवलाकारके कथनकी व्याख्या शैलीको देखते हुए अधिक उपयुक्त जान पडता है। रही यह बात कि तिलोयपएणत्तिकी ८५ वीं गाथामे विविध ग्रन्थ-युक्तियों के द्वारा मंगलादिक छह अधिकारोंके व्याख्यानका उल्लेख है' तो उससे यह कहाँ फलित होता हैकि उन विविध ग्रन्थोंमे घवला भी शामिल है अथवा धवलापरसे ही इन अधिकारोंका संग्रह किया गया है ?-खासकर ऐसी हालतमे जबकि धवलाकार स्वयं 'मंगलणिमित्तहेऊ' नामको एक भिन्न गाथाको कहींसे उद्धृत करके यह बतला रहे हैं कि 'इस गाथामे मंगलादिक छह बातोंका व्याख्यान करने के पश्चात् आचार्यके लिये शास्त्रका (मूलग्रन्थका) व्याख्यान करनेकी जो बात कही गई है वह आचार्य परम्परासे चला आया न्याय है, उसे हृदयमे धारण करके और पूर्वाचार्योंके आचार (व्यवहार) का अनुसरण करना रत्नत्रयका हेतु है ऐसा समझकर, पुष्पदन्त आचार्य मगलादिक छह अधिकारोका सकारण प्ररूपण करने के लिये मंगलसूत्र कहते हैं । क्योकि इससे स्पष्ट है कि मगलादिक छह अधिकारोंके कथनको परिपाटी बहुत प्राचीन है-उनके विधानादिका श्रेय धवलाको प्राप्त नहीं है। और इसलिये तिलोयपएणत्तिकारने दि इस विषयमे पुरातन आचार्याको कृतियोंका अनुसरण किया है तो वह न्याय ही है परन्तु उतने मात्रमे उसे धवलाका अनुसरण नहीं कहा जासकता धवलाका अनुमरण कहने के लिये पहले यह सिद्ध करना होगा कि धवला तिलोयपएणत्तिसे पूर्वकी कृति है, और यह मिद्व नहीं है । प्रत्युत इसके, यह स्वयं धवलाके उल्लेखोंसे ही १ "मगलपहुदिछक्क वक्खाणिय विविहगथजुत्तीहि ।" २ 'इदि णायमाइरिय-परपरागय मणेणावह रिय पव्वाइरियायाराणुसरणति-रयण-हेउ त्ति पुप्फदताइरियो मगनादीण छण्ण मकाणाण परूवणठ्ठ सुत्तमाह।" Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची आचार्य परम्परासे चले आये हुए न्यायको हृदयमे धारण करके) नामकी गाथा' असगत तथा खटकनेवाली हो जाती है । इस लिये ये तीनों ही गाथाएं तिलोयपण्णत्तीकी अंगभूत हैं। धवला (संतपरूवणा) में उक्त दोनों श्लोकोंको देते हुए उन्हें 'उक्त च' नहीं लिखा और न किसी खास ग्रन्थके वाक्य ही प्रकट किया है । वे इस प्रश्नके उत्तरमे दिये गए हैं कि "एत्थ किमठं णयपरूवणमिदि" -यहाँ नयका प्ररूपण किस लिये किया गया है ? और इस लिये वे धवलाकार-द्वारा निर्मित अथवा उद्धृत भी हो सकते हैं । उद्धृत होनेकी हालतमें यह प्रश्न पैदा होता है कि वे एक स्थानसे उद्धृत किये गये हैं या दो स्थानोसे ? यदि एक स्थान से उद्धृत किये गए हैं तो वे लघीयस्त्रयसे उद्धृत नहीं किये गये, यह सुनिश्चित है, क्योंकि लघीयस्त्रयमे पहला श्लोक नहीं है । और यदि दो स्थानोसे उद्धृत किये गए हैं तो यह बात कुछ बनती हुई मालूम नहीं होती; क्योंकि दूसरा श्लोक अपने पूवमे ऐसे श्लोकको अपेक्षा रग्वता है जिसमें उद्देशादि किसी भी रूपमे प्रमाण, नय और निक्षेपका उल्लेख हो-लघीयस्त्रयमे भी 'ज्ञानं प्रमाणमात्मादेः' श्लोकके पूर्व मे एक ऐसा श्लोक पाया जाता है जिसमे प्रमाण, नय और निक्षेपका उल्लेख है और उनके आगमानुसार कथनको प्रतिज्ञा की गई है ( 'प्रमाण-नय-निक्षेपानभिधास्ये यथागम')-और उसके लिये पहला श्लोक सगत जान पड़ता है । अन्यथा, उसके विपयमे यह बतलाना होगा कि वह दूसरे कौनसे ग्रन्थका स्वतंत्र वाक्य है । दोनो गाथाओ ओर श्लोकोकी तुलना करनेसे तो ऐसा मालूम होता है कि दोनों श्लोक उक्त गाथाश्रो परसे अनुवादरूपमे निर्मित हुए हैं। दूसरी गाथामे प्रमाण, नय ओर निक्षेपका उसो क्रमसे लक्षण-निर्देश किया गया है जिस क्रमसे उनका उल्लेख प्रथम गाथामे हुआ है । परन्तु अनुवादके छन्द (श्लोक) मे शायद वह बात नहीं बन सको, इसोसे उसमे प्रमाणके बाद निक्षेपका और फिर नयका लक्षण दिया गया है। इससे तिलोयपण्णत्तीकी उक्त गाथाओंकी मौलिकताका पता चलता है और ऐसा जान पड़ता है कि उन्हीं परसे उक्त श्लोक अनुवादरूपमे निर्मित हुए हैं-भले हो यह अनुवाद स्वयं घवलाकारके द्वारा निर्मित हुआ हो या उनसे पहले किसी दूसरेके द्वारा। यदि धवलाकारको प्रथम श्लोक कहींसे स्वतंत्र रूपमे उपलब्ध होता तो वे प्रश्न के उत्तरमे उसीको उद्धृत कर देना काफी समझते-दूसरे लघीयस्त्रय-जैसे ग्रथसे दूसरे श्लोकको उद्धृत करके साथमे जोड़नेकी जरूरत नहीं थी, क्योकि प्रश्नका उत्तर उस एक ही श्लोकसे हो जाता है । दूसरे श्लोकका साथमे होना इस बातको सूचित करता है कि एक साथ पाई जाने वालो दोनो गाथाओं के अनुवादरूपमे ये श्लोक प्रस्तुत किये गए हैं-चाहे वे क्सिीके भी द्वारा प्रस्तुत किये गये हो । यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि धवलाकारने तिलोयपएणतीकी उक्त दोनों गाथाओंको ही उद्धृत क्यो न कर दिया, उन्हें श्लोकोमे अनुवादित करके या उनके अनुवादको रखनेको क्या जरूरत थी ? इसके उत्तरमे मैं सिफ इतना ही कह देना चाहता हूँ कि यह सब धवलाकार वीरसेनको रुचिको बात है, वे अनेक प्राकृत वाक्योंको संस्कृतमे और संस्कृत वाक्योंको प्राकृतमें अनुवादित करके रखते हुए भी देखे जाते है। इसी तरह अन्य ग्रन्थोंके गद्यको पद्यमे और पद्यको गद्यमे परिवर्तित करके अपनी टीकाका अग बनाते हुए भी पाय जाते है । चुनॉचे तिलोयपएणत्तीको भी अनेक गाथाओको उन्होंने संस्कृत गद्यमे अनुवादित करके रक्खा है, जैसे कि मंगलको निरुक्तिपरक गाथाएं, जिन्हें शास्त्रीजीने अपने द्वितीय प्रमाणमे, समानताकी तुलना करते हुए, उद्धृत किया है। और इसलिये यदि ये उनके द्वारा १ इस गाथाका नम्बर ८४ है । शास्त्रीजीने जो इसका न० ८८ सूचित किया है वह किसी गलतीका परिणाम जान पड़ता है। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ही अनुवादित होकर रक्खे गये हैं तो इसमे आपत्तिकी कोई बात नही है। इसे उनकी अपनी शैली और पसन्द आदिकी बात समझना चाहिये। अब देखना यह है कि शास्त्रीजीने 'ज्ञानं प्रमाणमात्मादेः' इत्यादि श्लोकको जो अकलंकदेवकी 'मौलिक कृति' बतलाया है उसके लिये उनके पास क्या आधार है ? कोई भी आधार उन्होंने व्यक्त नहीं किया; तब क्यो अकलंकके ग्रंथमे पाया जाना ही अकलंककी मौलिक कृति होनेका प्रमाण है ? यदि ऐसा है तो राजवार्तिकमें पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धिके जिन वाक्योंको वार्तिका दिके रूपमे विना किसी सूचनाके अपनाया गया है अथवा न्यायविनिश्चयमे समन्तभद्रके 'सूक्ष्मान्तरितदूरार्था.' जैसे वाक्योंको अपनाया गया है उन सबको भी अकलंकदेवकी 'मौलिक कृति' कहना होगा । र्याद नहीं, तो पिर उक्त श्लोकको अकलंकदेवकी मौलिक कृति बतलाना निर्हेतुक ठहरेगा। प्रत्युत इसके, अकलंकदेव चूंकि यतिवृषभके बाद हुए हैं अतः यतिवृषभकी तिलोयपएणत्तीका अनुसरण उनके लिये न्यायप्राप्त है और उसका समावेश उनके द्वारा पूर्वपद्यमे प्रयुक्त 'यथागम' पदसे हो जाता है , क्योंकि तिलोयपण्णत्ती भी एक आगम ग्रन्थ है जैसा कि गाथा नं० ८५, ८६, ८७ मे प्रयुक्त हुए उसके विशेषणोंसे जाना जाता है। धवलाकारने भी जगह जगह उसे 'सूत्र' लिखा है और प्रमाणरूपमें उपस्थित किया है । एक जगह वे किसी व्याख्यानको व्याख्यानाभास बतलाते हुए तिलोयपण्णेत्तिसूत्रके कथनको भो प्रमाणमे पेश करते हैं और फिर लिखते हैं कि सूत्रके विरुद्ध व्याख्यान नहीं होता है जो सूत्रविरुद्ध हो उसे व्याख्यानाभास समझना चाहिये-नहीं तो अतिप्रसग दोप आयेगा'। इस तरह यह तीसरा प्रमाण असिद्ध ठहरता है । तिलोयपएणत्तिकारने चूंकि धवलाके किसी भी पद्यको नहीं अपनाया अतः पद्योंको अपनानेके आधारपर तिलोयपएणत्तीको धवलाके बादकी रचना बतलाना युक्तियुक्त नहीं है। (४) चौथे प्रमाणरूपमे शास्त्रीजीका इतना ही कहना है कि 'दुगणदुगुणो दुवग्गो णिरतरो तिरियलोगो' नामका जो वाक्य धवलाकारने द्रव्यप्रमाणानुयोगद्वार (पृष्ठ ३६) मे तिलोयपएणत्तिके नामसे उद्धत किया है वह वर्तमान तिलोयपण्णत्तीमें पर्याप्त खोज करने पर भी नहीं मिला. इसलिये यह तिलोयपएणत्ती उस तितोयपण्णत्तीसे भिन्न है जो घवलाकारके सामने थी । परन्तु यह मालूम नहीं हो सका कि शास्त्रीजीकी पर्याप्त खोजका क्या रूप रहा है । क्या उन्होंने भारतवर्षके विभिन्न स्थानोंपर पाई जानेवाली तिलोयपएणत्तीकी समस्त प्रतियाँ पूर्ण रूपसे देख डाली हैं ? यदि नहीं देखी हैं, और जहाँ तक मैं जानता हूँ समस्त प्रतियों नहीं देखी हैं, तब वे अपनी खोजको 'पर्याप्त खोज' कैसे कहते हैं ? वह तो बहुत कुछ अपर्याप्त है। क्या दो एक प्रतियोंमें उक्त वाक्यके न मिलनेसे ही यह नतोजा निकाला जा सकता है कि वह वाक्य किसी भी प्रतिमें नहीं है ? नहीं निकाला जा सकता । इसका एक ताजा उदाहरण गोम्मटसार-कर्मकाण्ड (प्रथम अधिकार) के वे प्राकृत गद्यसूत्र हैं जो गोम्मटसारको पचासों प्रतियोंमे नहीं पाये जाते; परन्तु. मूडबिद्रीकी एक प्राचीन ताडपत्रीय कन्नड प्रतिमे उपलब्ध हो रहे हैं और जिनका उल्लेख मैंने अपने गोम्मटसार-विषयक निबन्धमें किया है। इसके सिवाय, तिलोयपण्ण त्ति-जैसे बड़े ग्रन्थमे लेखकों के प्रमादसे दो चार गाथाओंका छूट जाना कोई बड़ी बात नहीं है । पुरातन-जैनवाक्य-सूचीके अवसरपर मेरे सामने तिलोयपएणत्तोकी चार प्रतियाँ रहीं हैं१ "तं वक्खाणाभाममिदि कुदो णव्वदे ? जोइसिय-भागहारसुत्तादो चंदाहच्च बिबपाणपस्वयतिलोयपरणत्तिसुत्तादो च । ण च सुत्तविरुद्ध वक्खाणं होइ, अइपसंगादो।" धवला १, २, ४, पृ० ३६ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची एक बनारसके स्यावादमहाविद्यालयकी, दूसरी देहलीके नया मन्दिरकी, तीसरी आगराके मोतीकटरा मन्दिरकी और चौथी सहारनपुरके ला० प्रद्यम्नकुमारजीके मन्दिरकी । इन प्रतियोंमे, जिनमे बनारसकी प्रति बहुत ही अशुद्ध एवं त्रुटिपूर्ण जान पड़ी, कितनी ही गाथाएं ऐसी देखनेको मिली जो एक प्रतिमें है तो दूसरीमे नहीं है, इसीसे जो गाथा किसी एक प्रतिमे ही बढ़ी हुई मिली उसका सूचीमे उस प्रति के साथ सूचन किया गया है । ऐसी भी गाथाएं देखने में आई जिनमे किसीका पूर्वार्ध एक प्रतिमे है तो उत्तरार्ध नहीं, और उत्तरार्ध है तो पूर्वार्ध नहीं । और ऐसा तो वहधा देग्यनेमे आया कि कितनी ही गाथाओंको विना नम्बर डाले रनिंगरूपमे लिख दिया है, जिसमे वे सामान्यावलोकनके अवसरपर प्रथका गद्यभाग जान पड़ती हैं। किसी किसी स्थलपर गाथाओके छूटनेको साफ सूचना भी की गई है। जैसे कि चौथे महाधिकारकी 'णवणउदिसहस्साणिं' इस गाथा नं० २२१३ के अनन्तर आगरा और सहारनपुरकी प्रतियोमें दस गाथाओंके छूटनेकी सूचना की गई है और वह कथनक्रमको देखते हुए ठीक जान पड़ती है-दसरी प्रतियोपरसे उनकी पूर्ति नहीं हो सकी । क्या आश्चर्य है जो ऐसी छूटी अथवा त्रटित हुई गाथाश्रोमेका ही उक्त वाक्य हो । प्रन्थ-प्रतियोंका ऐसी स्थितिमे दो-चार प्रतियोको देखकर ही अपनी खोजको पर्याप्त खोज बतलाना और उसके आधारपर उक्त नतीजा निकाल बैठना किसी तरह भी न्यायसगत नहीं कहा जा सकता । और इसलिये शास्त्रीजीका यह चतुर्थ प्रमाण भी उनके इष्टको सिद्ध करने के लिये समथ नहीं है । (५) अव रहा शास्त्रीजीका अन्तिम प्रमाण, जो प्रथम प्रमाणकी तरह उनकी गलत धारणाका मुख्य आधार बना हुआ है। इसमे जिस गद्यांशकी ओर संकेत किया गया है और जिसे कुछ अशुद्ध भी बतलाया गया है वह क्या स्वयं तिलोयपरणत्तिकारके द्वारा धवलापरसे 'अम्हेहि' पदके स्थानपर 'एसा परूवणा' पाठमा परिवर्तन करके उधृत किया गया है अथवा किसी तरहपर तिलोयपएणतीमे प्रक्षिप्त हुआ है ? इसपर शास्त्रीजीने गम्भीरताके साथ विचार करना शायद आवश्यक नहीं समझा और इसीसे कोई विचार प्रस्तुत नहीं किया, जब कि इस विपयपर खास तौरपर विचार करनेकी जरूरत थी और तभी कोई निर्णय देना था-वे वैसे ही उस गद्यांशको तिलोयपएणत्तीका मूल अंग मान बैठे हैं, और इसीसे गद्यांशमे उल्लिखित तिलोयपएणत्तीको वर्तमान तिलोयपएणत्तीसे भिन्न दूसरी तिलोयपएणती कहने के लिये प्रस्तुत हो गए हैं। इतना ही नहीं, बल्कि तिलोयपएणत्तीमें जो यत्र तत्र दूसरे गद्यांश पाये जाते हैं उनका अधिकाश भाग भी धवलापरसे उद्धृत है, ऐसा सुझानेका संकेत भी कर रहे है । परन्तु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। जान पड़ता है ऐसा कहते और सुझाते हुए शास्त्रीजीको यह ध्यान नहीं पाया कि जिन आचार्य जिनसेनको वे वर्तमान तिलोयपण्णत्तीका कर्ता बतलाते हैं वे क्या उनकी दृष्टिमे इतने असावधान अथवा अयोग्य थे कि जो 'अम्हे हि' पदके स्थानपर 'एसा परूवणा' पाठका परिवर्तन करके रखते और ऐसा करनेमे उन साधारण मोटी भूलो एवं त्रटियोंको भी न समझ पाते जिन्हें शास्त्रो जी बतला रहे हैं? और ऐसा करके जिनसेनको अपने गुरु वीरसेनकी कृतिका लोप करने की भी क्या जरूरत थी ? वे तो बराबर अपने, गुरुका कीर्तन और उनको कृति के साथ उनका नामोल्लेख करते हुए देखे जाते हैं । चुनाँचे वीरसेन जब जयधवलाको अधूरा छोड गये और उसके उत्तरार्धको जिनसेनने पूरा किया तो वे प्रशस्तिमे स्पष्ट शब्दोंद्वारा यह सूचित करते है कि 'गुरुने पूर्वार्धमे जो भूरि वक्तव्य प्रकट किया था-आगे कथनके योग्य बहुत विषयका संसूचन किया था, उसे ( तथा तत्सम्बन्धी नोटस आदिको ) देखकर यह अल्पवक्तव्यरूप उत्तरार्ध, पूरा किया गया है : Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना गुरुणाऽर्धेऽग्रिमे भृरिवक्तव्ये संप्रकाशिते । तन्निरीक्ष्याऽल्पवक्तव्यः पश्चार्धस्तेन पूरितः ॥३६॥ परन्तु वर्तमान तिलोयपएणत्तीमें तो वीरसेनका कहीं नामोल्लेख भी नहीं है-ग्रंथ के मंगलाचरण तकमे भी उनका स्मरण नहीं किया गया । यदि वोरसेनके सकेत अथवा आदेशादिके अनुसार निनसेनके द्वारा वर्तमान तिलोयपएणत्तीका संकलनादि कार्य हुआ होता तो वे ग्रंथके आदि या अन्त में किसी न किसी रूपसे उसकी सूचना जरूर करते तथा अपने गुरुका नाम भी उसमे ज़रूर प्रकट करते । और यदि कोई दूसरी तिलोयपएणत्ती उनकी तिलोयपएणत्तीका आधार होती तो वे अपनी पद्धति और परिणतिके अनुसार उसका और उसके रचयिताका स्मरण भी ग्रंथकी आदिमे उसी तरह करते जिस तरह कि महापुराणकी आदिमे 'कविपरमेश्वर' और उनके 'वागर्थसंग्रह' पुराणका किया है, जो कि उनके महापुराण का मूलाधार रहा है। परन्तु वर्तमान तिलोयपएणत्तीमे ऐसा कुछ भी नहीं है, और इसलिये उसे उक्त जिनसेनकी कृति बतलाना और उन्हीं के द्वारा उक्त गद्याशका उद्धृत किया जाना प्रतिपादित करना किसी तरह भी युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता। दूसरे भी किसी विद्वान् आचार्य के साथ जिन्हें वर्तमान तिलोयपएणत्तीका कर्ता बतलाया जाय, उक्त भूलभरे गद्यांशके उद्धरणकी बात संगत नहीं बैठती, क्योंकि तिलोयपण्णत्तीकी मौलिक रचना इतनी प्रौढ़ और सुव्यवस्थित है कि उसमें मूलकार-द्वारा ऐसे सदोष उद्धरणकी कल्पना नहीं की जा सकती । और इसलिये उक्त गद्यांश वादको किमीके द्वारा घवला आदि परसे प्रक्षिप्त किया हुआ जान पड़ता है। और भी कुछ गद्यांश ऐसे हो सकते हैं जो धवलापरसे प्रक्षिप्त किये गये हों, परन्तु जिन गद्यांशोंकी तरफ शास्त्रीजीने फुटनोटमें संकेत किया है वे तिलोयपएणत्तोमें धवलापरसे उद्धृत किये गये मालूम नहीं होते; बल्कि धवलामें तिलोयपएणत्तीपरसे उद्धृत जान पड़ते हैं । क्योंकि तिलोयपण्णत्ती में गद्यांशोंके पहले जो एक प्रतिज्ञात्मक गाथा पाई जाती है वह इस प्रकार है: बादवरुद्धक्खेत्ते चिंदफलं तह य अपुढवीए । सुद्धायासखिदीणं लवमेत्तं वत्तइस्सामो ॥ २८२॥ इसमें वातवलयोंसे अवरुद्ध क्षेत्रो, आठ पृथिवियों और शुद्ध आकाशभूमियोंका घनफल बतलानेकी प्रतिज्ञा की गई है और उस घनफलका 'लवमेत्त (लचमात्र) १ विशेषणके द्वारा बहुन सक्षेपमे ही कहने की सूचना की गई है । तदनुसार तीनों घनफलोंका क्रमशः गद्यमे कथन किया गया है और यह कथन मुद्रित प्रतिमे पृष्ठ ४३ से ५० तक पाया जाता है। धवला (पृ० ५१ से ५५) में इस कथनका पहला भाग संपहि (सपदि) से लेकर 'जगपदरं होदि' तक प्रायः ज्याका त्यों उपलब्ध है परन्तु शेष भाग, जो आठ पृथिवियो आदिके घनफलसे सम्बन्ध रखता है, उपलब्ध नहीं है । और इससे वह तिलोयपएणत्तापरसे उद्धृत जान पड़ता है-खासकर उस हालतमे जब कि धवलाकारके सामने तिलोयपण्णत्ती मौजूद थी और उन्होंने अनेक विवादग्रस्त स्थलोंपर उसके वाक्योंको बड़े गौरवके साथ प्रमाणमे उपस्थित किया है तथा उसके कितने ही दूमरे वाक्योंको भी विना नामोल्लेखके १ तिलोयपएत्तिकारको जहाँ विस्तारसे कथन करनेकी इच्छा अथवा अावश्यकता हुई है वहा उन्होंने वैसी सूचना कर दी है, जैसाकि प्रथम अधिकारमें लोकके आकारादिका संक्षेपसे वर्णन करनेके अनन्तर 'वित्थररुहबोहत्थ वोच्छ गाणावियप्पे वि (७४) इस वाक्यके द्वारा विस्ताररुचिवाले प्रतिपाद्योंको लक्ष्य करके उन्होंने, विस्तारसे कथनकी प्रतिज्ञा की है। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ पुरातन जैनवाक्य सूची उधृत किया है और अनुवादित करके भी रक्खा है । ऐसी स्थिति में तिलोयपण्णत्ती में पाये जाने वाले गद्यांशोंके विपयमे यह कल्पना करना कि वे घवलापुर से उद्धृत किये गये हैं, समुचित नहीं है और न शास्त्रीजीके द्वारा प्रस्तुत किये गये गद्यांश से इस विपर्यमे कोई सहायता मिलती है; क्योंकि उस गद्यांशका तिलोय पणत्तिकारके द्वारा उदधृत किया जाना सिद्ध नहीं है— वह बादको किसीके द्वारा प्रक्षित हुआ जान पड़ता है 1 मैं यह बतलाना चाहता हूँ कि यह इतना ही गद्यांश प्रक्षिप्त नहीं है बल्कि इसके पूर्वका " एतो चंदारण सपरिवारारणमारण्यरण विहारणं वत्तइस्लामो " से लेकर "एदम्हादो चेव सुत्तादो” तकका श्रंश और उत्तरवर्ती "तदो ण एत्थ इदमित्थमेवेत्ति" से लेकर “तं चेदं १६५५३६१ ।" तकका अंश, जो 'चंदस्य सदसहस्स' नामकी गाथाके पूर्ववर्ती है, वह सब प्रक्षिप्त है । और इसका प्रबल प्रमाण मूलग्रन्थपर से ही उपलब्ध होता है। मूलग्रन्थ में सातवें महाधिकारका प्रारम्भ करते हुए पहली गाथामें मंगलाचरण और ज्योतितकप्रज्ञप्तिके कथनकी प्रतिज्ञा करनेके अनन्तर उत्तरवर्ती तीन गाथाश्रमें ज्योतिपियो के निवासक्षेत्र आदि १७ महाधिकारों के नाम दिये हैं जो इस ज्योति लोकप्राप्ति नामक महा धिकारके अंग हैं। वे तीनो गाथाऍ इस प्रकार हैं: 1 • जो सिय- वासखिदी भेदो संखा तहेव विष्णासो । परिमाणं चरचारो अचरसरुवाणि आऊ य ॥२॥ आहारो उस्सासो उच्छेहो महिणाणसत्तीओ । जीवाणं उप्पत्ती मरणाई एक्कसमयम्मि ||३ ॥ उगवं धरणभावं दंसणगहणस्स कारणं विविहं । गुणठाणादिपवणामहियारा सत्तरसिमाए ॥ ४ ॥ इन गाथाओके बाद निवासक्षेत्र, भेद संख्या, विन्यास, परिमाण, चरचार अचरस्वरूप और आयु नामके आठ अधिकारोंका क्रमशः वर्णन दिया है—–शेष अधिकार के विषय में लिख दिया है कि उनका वर्णन भावनलोकके वर्णनके समान कहना चाहिये ('भावणलोए व्व वक्तव्व') — और जिस अधिकारका वणन जहाँ समाप्त हुआ है वहाँ उस की सूचना कर दी है। सूचनाके वे वाक्य इस प्रकार हैं : “णिवासखेत्तं सम्मत्तं । भेदो सम्मत्तो । संखा सम्मत्ता । विरणासं सम्मत्तं । परिमाणं सम्मत्तं । एवं चरगिहाणं चारो सम्मत्तो | एवं अचरजोइसगणपरूवणा सम्मता । श्राऊ सम्मत्ता ।" अचर ज्योतिषगणकी प्ररूपणाविषयक वें अधिकारकी समाप्तिके बाद ही 'एतो 'चढाण’ से लेकर ‘त चेदं १६५५३६१' तकका वह सब गद्यांश है, जिसकी ऊपर सूचना की गई है । 'आयु' अधिकार के साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं है । आयुका अधिकार उक्त गद्यांशके अनन्तर ''चदस्य सदसहस्सं इस गाथासे प्रारम्भ होता है और अगली गाथापर समाप्त होजाता है। ऐसी हालत मे उक्त गद्यांश मूल ग्रंथके साथ सम्बद्ध न होकर साफ तौर से प्रक्षिप्त जान पड़ता है। उसका आदिका भाग 'एत्तो चंदाण' से लेकर 'तदो ण एत्थ संपदायविरोधो कायव्वो त्ति' तक तो धवला प्रथम खंडके स्पर्शनानुयोगद्वारमे, थोड़े से शब्दभेदके साथ प्रायः ज्योंका त्यो पाया जाता है और इसलिये यह उसपर से उधृत हो सकता है परन्तु अन्तका भाग - ' एदेण विहाणेण परूविदगच्छं विरलिय रूवं पडि चत्तारि रूवाणि दादूण अण्णोष्णभत्थे" के अनन्तरका - धवलाके अगले गद्यांशके साथ कोई मेल Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना नहीं खाता, और इसलिये वह वहॉमे उद्धृत न होकर अन्यत्रसे लिया गया है। और यह भी हो सकता है कि यह सारा ही गद्याश धवलासे न लिया जाकर किमी दूसरे ही ग्रंथपरसे, जो इस समय अपने सामने नहीं है और जिसमे आदि अन्तके दोनों भागोंका समावेश हो, लिया गया हो और तिलोयपएणत्तीमे किसीके द्वारा अपने उपयोगादिकके लिये हाशियेपर नोट किया गया हो और जो बादको ग्रंथमें कापीके समय किसी तरह प्रक्षिप्त होगया हो। इस गद्याशमे ज्योतिप देवोंके जिस भागहार सूत्रका उल्लेख है वह वर्तमान तिलोयपएणत्ती के इस महाधिकारमे पाया जाना है। उसपरसे फलितार्थ होनेवाले व्याख्यानादिकी चर्चाको किसीने यहापर अपनाया है, ऐसा जान पडता है। (इसके सिवाय, एक बात यहा और भी प्रकट कर देनेकी है और वह यह कि जिस वतेमान तिलोयपएणत्तीको शास्त्रीजी मूलानुसार आठहजार श्लोकपरिमाण बतलाते हैं वह उपलब्ध प्रतियोंपरसे उतने ही श्लोक परिमाण मालूम नहीं होती, बल्कि उसका परिमाण एक हजार श्लोक-जितना बढ़ा हुआ है, और उससे यह साफ जाना जाता है कि मूलमे उतना अश बादको प्रक्षिप्त हुआ है। और इसलिये उक्त गद्यांशको, जो अपनी स्थितिपरसे प्रक्षिप्त होनेका स्पष्ट सन्देह उत्पन्न कर रहा है और जो ऊपरके विवेचनपरसे मूलकारकी कृति मालूम नहीं होतो, प्रक्षिप्त कहना कुछ भी अनुचित नहीं है। ऐसे ही प्रक्षिप्त अशोसे, जिनमें कितने ही पाठान्तर' वाले अंश भी शामिल जान पड़ते हैं, अथके परिमाणमें वृद्धि हो रही है। और यह निविवाद है कि कुछ प्रक्षिप्त अंशोंके कारण किसीथको दूसरा ग्रंथ नहीं कहा जा सकता। अतः शास्त्रीजीने उक्त गद्यांशमें तिलोयपएणत्तोका नामोल्लेख देख कर जो यह कल्पना करली है कि वर्तमान तिलोयपएणत्ती उस तिलोयपएणत्तीसे भिन्न है जो धवलाकार के सामने थी' वह ठीक नहा है। (इस तरह शास्त्रीजीके पाँचो प्रमाणोंमे कोई भी प्रमाण यह सिद्ध करनेके लिये समर्थ नहीं है कि वर्तमान तिलोयपण्णत्ती आचार्य वीरसेनके बादकी बनी हुई है अथवा उस तिलोयपएणत्तीसे भिन्न है जिसका वीरसेन अपनी धवला टोकामे उल्लेख कर रहे हैं। और तब यह कल्पना करना तो अतिसाहसकी बात है कि'वीरसेनके शिष्य जिनसेन इसके रचयिता है, जिनकी स्वतंत्र रचना-पद्धतिके साथ इसका कोई मेल भी नहीं खाता । प्रत्युत इसके, . ऊपरके सपूर्ण विवेचन एव ऊहापोहपरसे स्पष्ट है कि यह तिलोयपएणत्ती यतिवृषभाचार्य की कृति है, धवलासे कई शताब्दी पूर्वकी रचना है और वही चीज है जिसका वीरसेन स्वामी अपनी धवलामे उद्धरण, अनुवाद तथा आशयग्रहणादिके रूप में स्वतत्रतापूर्वक उपयोग करते रहे हैं । शास्त्रीजीने अथकी अन्तिम मगलगाथामें 'दट्ठण' पदको ठीक मानकर उसके आगे जो 'अरिसवसह' पाठकी कल्पना की है और उसके द्वारा यह सुझानेका यत्न किया है कि इस तिलोयपएणत्तीमे पहले यतिवृषभका तिलोयपएणती नामका कोई आर्ष ग्रंथ था जिसे देखकर यह तिलोयपएणत्ती रची गई है और उसीकी सूचना इस गाथामे 'दट्ठण अरिसवसह' वाक्य के द्वारा की गई है, वह भी युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि इस पाठ और उसके प्रकृत अर्थकी सगति गाथाके साथ नहीं बैठती, जिसका स्पष्टीकरण इस निबन्ध के प्रारम्भमे किया जा चुका है। और इसलिये शास्त्रीजीका यह लिखना कि "इस तिलोयपएणत्तिका संकलन शक संवत् ७३८ (वि० सं०८७३) से पहलेका किसी भी हालतमे नहीं है" तथा "इसके कर्ता यतिवृषभ किसी भी हालतमे नहीं हो सकते" उनके अतिसाहसका घोतक है। वह पूर्णतः बाधित है और उसे किसी तरह भी युक्तिसंगत नहीं कहा जासकता। . २६. परमात्मप्रकाश- यह अपभ्रंश भाषामे अध्यात्मविषयका अभी तक उपलब्ध अतिप्राचीन ग्रंथ है, दोहा छन्दमें लिखा गया है, आत्मा तथा मोक्ष-विषयक दो मुख्य प्रश्नोंको लेकर दो अधिकारों में विभक्त है और इसकी पद्यसंख्या ब्रह्मदेवकी सस्कृत टीकाके Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची . अनुसार सब मिलाकर ३४५ है, जिसमे ३३७ दोहे हैं, एक चतुष्पादिका (चौपाई) है और शेष ७ गाथादि छंद हैं, जो अपभ्रंशमे नहीं हैं। इस ग्रंथमे आत्माके तीन भेदों-बहिरास्मा, अन्तरात्मा और परमात्माका वणन बड़े ही अच्छे ढंगसे दिया है और उसके द्वारा आत्मा-परमात्माके भेदको भले प्रकार प्रदर्शित किया है। आत्मा कैसे परमात्मा बन सकता है अथवा कैसे कोई जीव मोह-ग्रंथिको भेदकर अपना पूर्ण विकास सिद्ध कर सकता है और मोक्षसुखका साक्षात् अनुभव कर सकता है, यह सब भी इसमें बडी'युक्तिके साथ वर्णित है। ग्रंथ भट्टप्रभाकर नामक शिष्यके प्रश्नोको लेकर सर्वसाधारणके लिये लिखा गया है और अपने विषयका बडा ही महत्त्वपूर्ण एव उपयोगी ग्रंथ है । इसका विशेष परिचय जाननेके लिये डाक्टर ए०एन० उपाध्येद्वारा सम्पादित परमात्मप्रकाशकी अग्रेजी प्रस्तावनाको देखना चाहिये, जो बड़े परिश्रम और अनुसन्धानके साथ लिखी गई है और जिसका हिन्दीसार भी साथमें लगा हुआ है। ___ इसके कर्ता योगीन्दु (योगिचन्द्र) नामके प्राचार्य हैं, जिन्हें आमतौरपर योगीन्द्र' समझा तथा लिखा जाता है और जो मूल में प्रयुक्त 'जोइन्दु' का गलत संस्कृतरूप है। इनके दूसरे ग्रथ 'योगसार' मे ग्रंथकारका स्पष्ट नाम 'जोगिचंद' दिया है, जिसपरसे 'योगीन्दु' नाम फलित होता है-योगीन्द्र नहीं; क्योकि इन्दु चन्द्रका वाचक है-इन्द्रका नहीं। और इस गलतीको डा० उपाध्येने अपनी उक्त प्रस्तावनामें स्पष्ट किया है । आचार्य योगीन्दुका समय भी उन्होंने ईसाकी ५ वीं और ७ वीं शताब्दीका मध्यवर्ती छठी शताब्दीका निश्चित किया है, जो प्रायः ठीक जान पड़ता है; क्योंकि ग्रंथमें कुन्दकुन्दके भावपाहुडके साथ साथ पूज्यपाद (ई० ५वीं श०) के समाधितंत्रका भी बहुत कुछ अनुसरण किया गया है और परमात्मप्रकाशका कालु लहेविणु जोइया' नामका दोहा चण्डके 'प्राकृतलक्षण' व्याकरण (ई. ७वीं श०) में उदाहरणरूपसे उधृत है । ग्रंथकारने अपना कोई परिचय नहीं दिया और न अन्यत्रसे उसका कोई खास परिचय उपलब्ध होता है, यह बड़े ही खेदका विषय है। इस ग्रंथपर प्रधानत: तीन टीकाएँ उपलब्ध हैं-संस्कृत में ब्रह्मदेवकी, कन्नडमें बालचन्द्र मलधारीकी और हिन्दीमें पं० दौलतरामकी, जो संस्कृत टीकाके आधारपर लिखी गई है। संस्कृत और हिन्दीकी दोनों टीकाएँ एक साथ रायचन्द्र जैनशास्त्रमालाम प्रकाशित हो चुकी हैं। ३०. योगसार—यह भी अपभ्रंश भाषामें अध्यात्मविषयका एक दोहात्मक ग्रंथ है और उन्हीं योगीन्दु अर्थात् योगिचन्द्र आचार्यकी रचना है जो परमात्मप्रकाशके रच'यिता हैं-ग्रंथ के अन्तिम दोहेमें 'जोगिचंदमुणिणा' पदके द्वारा ग्रंथकार के नामका स्पष्ट उल्लेख किया गया है। इसके पद्योंकी संख्या २० है, जिनमें एक चौपाई और दो सोरठा छंद भी हैं; परन्तु ग्रंथको दोहा छंदमें रचनेकी प्रतिज्ञा की गई है, और दोहोंमे ही रचे जानेकी अन्तिम दोहेमें सूचना की गई है, इससे तीनों भिन्न छन्द प्रक्षिप्त जान पड़ते हैं। यह ग्रंथ उन भव्य जीवोंको लक्ष्य करके लिखा गया है जो संसारसे भयभीत हैं और मक्षिक लिये लालायित हैं। ३१. निजात्माष्टक—यह आठ पद्यों (स्रग्धरा छंदों) में एक स्तोत्र ग्रंथ है, जिसमें निजात्माका सिद्ध स्वरूपसे ध्यान किया गया है । प्रत्येक पद्यके अन्तमें लिखा है 'साह मायेमि णिच्चं परमपय-गो णिव्वियप्पो णियप्पो' अर्थात् वह परमपदको प्राप्त निविकल्प निजात्मा मैं हूँ, ऐसा मैं नित्य ध्यान करता हूँ। इसे भी परमात्मप्रकाशके कताको कृति कहा जाता है; परन्तु मूलमें ऐसा कोई उल्लेख नहीं है । अन्त में लिखा है-"इति योगीन्द्र देव-विरचितं निजात्माष्टकं समाप्तम् ।" इतने मात्रसे यह ग्रंथ परमात्मप्रकाशके कताका Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ५६ सिद्ध नहीं होता । डाक्टर ए० एन उपाध्ये एम० ए० का भी इसके विपयमे ऐसा ही मत है। अतः इसका कर्तृत्व-विपय अभी अनुसन्धानके योग्य है। ३२. दर्शनसार-अनेक मतों तथा सघोकी उत्पत्ति आदिको लिये हुए यह अपने विपयका एक ही ग्रंथ है, जो प्राचीन गाथाश्रोपरसे निवद्ध किया गया अथवा उन्हें साथमे लेकर संकलित किया गया है (गा.१,४६) और अनेक ऐतिहासिक घटनाओंकी समयसूचना आदिको साथमें लिये हुए है। इसकी गाथासंख्या ५१ है और यह धारानगरीके पार्श्वनाथ चैत्यालयमे माघसुदी दसमी विक्रम स० ६६०को बनकर समाप्त हुआ है (गा०५०)। इसमे एकान्तादि प्रधान पाँच मिथ्या मतों और द्राविड, यापनीय, काष्ठा, माथुर तथा भिल्ल सघोकी उत्पत्तिका कुछ इतिहास उनके सिद्धान्तोंके उल्लेखपूर्वक दिया है, और इसलिये इतिहासके प्रेमियो तथा ऐतिहासिक विद्वानों के लिये यह कामकी चीज है। इसके र वयिता अथवा संग्रहकर्ता देवसेन गणी हैं जिनके बनाये हुए तत्त्वसार, आराधनासार, नयचक्र और भावसंगह नामके और भी कई ग्रथ प्रसिद्घ है। भावसंग्रहमे देवसेनने अपने गुरुका नाम विमलसेन गणधर (गणी) दिया है, जबकि दूसरे ग्रंथोमे स्पष्टरूपसे गुरुका नाम उल्लेखित नहीं है, परन्तु कुछ ग्रंथोंके मंगलाचरणोंमे अस्पष्टरूपसे अथवा श्लेपरूपमे वह उल्लेखित मिलता है-जैसे दर्शनसारमें विमलणाणं' पदके द्वारा, नयचक्रमे विगयमलं' और 'विमल-णाण-संजुत्तं' पदोंके द्वारा, आराधनासारमें 'विमलयरगुणसमिद्धं' पदके द्वारा और तत्त्वसारमे 'णिम्मलमविसुद्ध लद्धसम्भावे' पदके द्वारा उसकी सूचना मिलती है । विगयमलं' पद साफ तौरसे विमलका वाचक है और 'विमलणाणं' अथवा 'विमलणाण संजुत्त' को जब प्रतिज्ञात प्रथका विशेषण किया जाता है तब उसका अर्थ विमल (गुरु) प्रतिपादित ज्ञानमे युक्त भी हो जाता है। इसी तरह विमलयरगुणसमिद्धं' आदिको भी समझ लेना चाहिये । अनेक ग्रंथों के मंगलाचरणादिमे देव, गुरु तथा शास्त्रके लिये श्लेपरूपमे समान विशेपणोके प्रयोगको अपनाया गया है और कहीं कहीं अपने नामकी भी श्लेपरूपमे सूचना साथमें कर दी गई है २। उसी प्रकारकी स्थिति उक्त प्रयोगोंकी है। इसके सिवाय, भावसंग्रह के मंगलाचरणमे 'सुरमेणणुयं' दर्शनसारके मंगलाचरणमे 'सुरसेणणमंसियं' और आराधनासारकी मंगलगाथामे 'सुरसेणवंदियं' इन पदोंकी सनानता भी अपना कुछ अर्थ रखती है और वह एककर्तृत्वको सूचित करती है। और इसलिये पांचों ग्रंथ एक ही देवमेनकी कृति मालूम होते है, जो कि मूलसघके और संभवतः कुन्दकुन्दान्वय के आचार्य थे, क्योंकि दर्शनसारमें उन्होंने दूसरे जैन संघोंको थोड़ी थोड़ीसे मत-विभिन्नता के कारण 'जैनाभास' बतलाया है । और साथ ही ४३वी गाथामे यह भी लिखा है कि यदि पद्मनन्दिनाथ (कुन्दकुन्दाचार्य) सीमन्धरस्वामीसे प्राप्त दिव्यजानके द्वारा विशेष बोध न देते तो श्रमणजन सन्मार्गको कैसे जानते? ३/ पं० परमानन्द शास्त्रीने 'सुलोचनाचरित और देवसेन' नामक अपने लेख (अनेकान्त वर्ष ७ किरण ११-१२) मे भावस्ग्रहके कर्ता देवसेनको दर्शनसारके कर्तासे भिन्न बत१ सिरिविमलसेणगणहर-मिस्सो णामेण देवसेणो त्ति । अबुहजण-योहणत्थं तेणेयं विग्इयं सुत्त ॥ ७०१ ॥ २ यथाः-श्रीज्ञानभूषणं देवं परमात्मानमव्ययम् । प्रणम्य बालसंबुध्यै वक्ष्ये प्राकृतलक्षणम् ||-प्राकृतलक्षणटीकाया, शानभूषण-शिष्य-शुभचंद्रः अभिभृय निजविपक्ष निखिलमतोद्योतनो गुणाम्भोषिः । सविता जयतु जिनेन्द्रः शुभप्रबन्धः प्रभाचन्द्रः ॥ न्यायकुमुदचद्र-प्रशस्ति ६ नइ पठमणंदिणाहो सीमंधरसामिदिव्वणाणेण । ण विबोइइ तो समणा कहं सुमगं पयाणंति ।। ४३ ॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची लाते हुए यह प्रतिपादन किया है कि अपभ्रंश भाषाका सुलोचनाचरित्र (वि० स० ११३२ या १३७२)' और प्राकृत भापाका भावसंग्रह दानों एक ही देवसेनकी कृति है, क्योंकि भावसंग्रहके कर्ताकी तरह सुलोचनाचरित्रके कर्ताको भी विमलसेन गणी (गणेधर) का शिष्य लिखा है। साथ ही, इन दोनों ग्रथोंके कर्ता देवसेनकी संगति उन देवसनके साथ बिठलाते हुए जिनका उल्लेख माथुरसंघके भट्टारक गुणकीर्तिके शिष्य यशःकीर्तिने वि० संवत् १४६७ के बने हुए अपने पाण्डवपुराणमे किया है, उन्हें माथुरसंघका विद्वान ठहराया है; इनके समयकी कल्पना विक्रमकी १२वीं या १३वीं शताब्दो की है और इस तरह यह सिद्ध एवं घोषित करना चाहा है वि० स० ६६० (१० वीं शताब्दो) मे दर्शनमारको समाप्त करनेवाले देवसेनके साथ सुलोचनाचरितके कर्ता देवसेनकेका हो नहीं किन्तु भावसंग्रहके कर्ता देवसेनका भी कोई सम्बन्ध नहीं बन सकता । परन्तु यह सब ठीक नहीं है और उसके निम्न कारण है : (१) सुलोचनाचरित्रमें देवसेनने अपने गुरु विमलसेनका नामोल्लेख करते हुए गणी या गणधर नहीं लिखा, बल्कि उनके लिये एक खास विशेषण 'मलधारि' तथा 'मलधारिदेव' का प्रयोग किया है । यह विशेषण भावसंग्रहके कर्ता देवसेनके गुरु विमलसेन गणधरके साथ लगा हुआ नहीं है, और इसलिये दोनोंको एक नहीं कहा जा सकता। (२) भावसंग्रह और सुलोचनाचरित्रके कर्ताओंमेंसे किसी भी देवसेनने अपनेको काष्ठासंधी अथवा माथुरसंघो नहीं लिखा, जब कि पाण्डवपुराणके कर्ता यशःकीर्तिने अपनी गुरुपरम्परामे जिन देवसेनका उल्लेख किया है उन्हें साफ तौरपर काष्ठासंघी माथुरगच्छी बतलाया है। साथ ही, देवसेनको विमलसेनका शिष्य भी नही लिग्वा, बल्कि विमलसेनको देवसेनका उत्तराधिकारी बतलाया है। और इसलिये पाण्डवपुराणके देवसेनके साथ उक्त दोनों ग्रंथों मेसे किसीके भी कर्ता देवसेनकी संगति नहीं बैठती। गुरुपरम्परामे कुछ अफ्रमकथन अथवा क्रमभंगकी कल्पना करके संगति बिठलानेकी बात भी नहीं बन सकती है, क्योंकि एक तो गुरुपरम्पराको देते हुए उसमें अनुक्रमपरिपाटीसे कथनकी साफ सूचना की गई है, दूसरे अन्यत्र भी इस गुरुपरम्पराका प्रारंभ देवसेनसे मिलता है और विमलसेनको देवसेनका पट्टशिष्य सूचित किया है, जिसका एक उदाहरण कवि रैधूके सिद्धान्तार्थसारकी वह लेखकप्रशस्ति है जो जयपुरके बाबा दुलीचन्दजीके शास्त्रभंडार की संवत् १५६३ की लिखी १ ग्रन्थकी समाप्तिका ममय भावणशुक्ला १४ बुधवार राक्षससंवत्सर दिया है, जो ज्योतिषकी गणनानुसार इन दोनों संवतोंमें पड़ता है, जो राक्षस नामक संवत्सर था । २ "विमलसेणमलधारिहि सीसें ।" ३। "सिरिमलधारिदेवपभणिजह, णामे विमलमेणु जाणिज्जइ । तासू मीस .... ....... ... "(प्रशस्ति) ३ सिरिकट्ठसंघ माहुरहो गच्छि पुक्खरगणि मुणि[वर] चई वि लच्छि । संजायउ(या) वीरजिणुक्कमेण, परिवाडियजइवर णिहयएण । सिरिदेवसेणु तह विमलसेणु, तह घम्मसेणु पुण भावसेणु । तहो पट्ट उवण्णउ महमकित्ति अणवरय भमिय जइ जासु किसि। ४ प्रशस्तिका श्राद्य अंश इस प्रकार है : "अथ संवत्सरेस्मिन् श्रीनृपविक्रमादित्यगताब्दः संवत् १५६३ वर्षे वैशाखसुदि त्रयोदशी १३ भौमदिने कुरुजांगलदेशे श्रीसुवर्णपथ-शुभदुर्गे पातिसाहवब्वरु मुगुलु काबिली तस्य पुत्र हुमाऊँ तस्य राज्यप्रवर्तमाने श्रीकाटासंघे माथुरान्वये पुष्करगणे मिथ्यातमविनाशनककौमुदीप्रियागमार्थः गृहः भट्टारकश्रीदेवसेनदेवाः तत्प वादिगजगंधहस्तिश्राचार्यश्रीविमलसेनदेवाः तत्प? उभयभाषाप्रवीणतपोनिधिभट्टारकश्रीधर्मसेनदेवाः तत्पट्टे मिथ्यात्वगिरिस्फोटनैकबहुदंडः श्राचार्यश्रीभावसेनदेवाः तत्प भ० श्रीसहस्रकीर्तिदेवाः तपट्टे प्राचार्यश्रीगुणकीर्तिदेवाः तत्प? भ० यश कीर्तिदेवा: तत्र? ........" Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना हुई १६ पत्रात्मक प्रतिमें पाई जाती है और जिसकी नकल उक्त पं० परमानन्दजीके पास से ही देखनेको मिली है। (३) पाण्डवपुराण जब १४६७ मे समाप्त हुआ तब उसके फर्ता यशःकोर्तिकी पाँचवीं गुरुपरम्परामे होनेवाले देवसेनका समय वि० स० १४०० के लगभग ठहरता है । ऐसी स्थितिमे इन देवसेनके साथ एकत्व स्थापित करते हुए भावसंग्रहके कर्ता और सुलोचनाचरित्रके कर्ता देवसेनको विक्रमकी १२वीं या १३वीं शताब्दीका विद्वान कैसे बतलाया जा सकता है ? १३वीं शताब्दी तो उन दो संवतों ११३२ और १३७२ के भी विरुद्ध जाती है जिनमेस किसी एकमे सुलोचनाचरित्रके रचे जानेकी संभावना व्यक्त की गई है। (४) भावसग्रहकी 'सकाइदोसरहिय', 'रायगिहे णिस्संको', 'णिव्विदगिंछो राया', 'ठिदिय( क )रणगुणपउत्तो' । उवगृहणगुणजुत्तो' और ' एरिसगुणअट्ठजुयं', ये छह (२७६ से २८४ नं० की ) गाथाएँ वसुनन्दी आचार्यके श्रावकाचार में (नं० ५१ स ५६ तक ) उद्धृत की गई हैं, ऐसा वसुनन्दिश्रावकाचारकी उस देहली-धर्मपुरा के नये मन्दिरकी शुद्ध प्रतिपरसे जाना जाता है जो संवत् १६६१ की लिखी हुई है, और जिसमे उक्त गाथाओको देते हुए साफतौरसे लिखा है-"अतो गाथाषटकं भावसंग्रहात् ।" इन वसुनन्दी आचार्यका समय विक्रमकी ११वीं-१२वीं शताब्दी है । अतः भावसंग्रहके कर्ता देवसेन उनसे पहले हुए, तव सुलोचनाचरित्रके कर्ता देवसेन और पाण्डवपुराणकी गुरुपरम्परावाले देवसेनके साथ उनकी एकता किसी तरह भी स्थापित नहीं की जा सकती और न उन्हें १२वीं या १३वीं शताब्दीका विद्वान् ही ठहराया जा सकता है। और इसलिये जब तक भिन्न कर्तृ कताका द्योतक कोई दूसरा स्पष्ट प्रमाण सामने न आ जावे तब तक दर्शनसार और भावसग्रहको एक ही देवसेनकृत माननेमे कोई खास बाघा मालूम नहीं होती। ३३. भावसंग्रह-यह वही देवसेनकृत भावसग्रह है, जिसकी ऊपर दर्शनसारके प्रकरणमे चर्चा की गई है। इसमे मिथ्यात्वादि चौदह गुणस्थानोके क्रमसे जीवों के औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक ऐसे पॉच भावोका अनेकरूप से वर्णन है.और उसमे कितनी ही बातोंका समावेश किया गया है। माणिकचन्द्रप्रथमाला के संस्करणानुसार इस प्रथकी पद्यसंख्या ७०१ है परन्तु यह सख्या अभी सुनिश्चित नहीं कही जा सकती, क्योकि अनेक प्रतियोंमे हीनाधिक पद्य पाये जाते हैं। प० नाथूरामजी प्रमीने पूनाके भाण्डारकर ओरियटल रिसर्च इन्स्टिट्य टकी एक प्रति (नं० १४६३ सन् १८८६६२) का उल्लेख करते हुए लिग्वा है कि "इसके प्रारंभिक अशमें अन्य ग्रंथोंके उद्धहणोको भरमार है", जो मूल प्रथकारके द्वारा उद्धृत नहीं हुए हैं, और अनेक स्थानोंपर-खासकर पाँचवें गुणस्थानके वर्णनमे-इसके पद्योकी स्थिति रयणेसार-जैसी संदिग्ध पाई जाती है। अतः प्राचीन प्रतियोंको ग्वोज करके इसके मूलरूपको सुनिश्चित करनेकी खास जरूरत है। ३४. तत्त्वसार यह भी उक्त देवसेनका ७४ गाथात्मक प्रथ है । इसमे स्वगत और परगतके भेदसे तत्त्वका दो प्रकारसे निरूपण किया है और यह अपने विषयका अच्छा पठनीय तथा मननीय ग्रंथ है। ३५. आराधनासार-उक्त देवसेनका यह प्रथ ११५ गाथासख्याको लिये हुए है और हेमकीर्तिके शिष्य रत्नकीनिकी सस्कृत टीकाके साथ माणिकचन्द्र-ग्रंथमालामे मुद्रित हुआ है। इसमें दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपरूप चार आराधनाओके कथनका सार निश्चय और व्यवहार दोनों रूपसे दिया है । प्रथ अपने विषयका बड़ा ही सुन्दर है।। ३६. नयचक्र—यह भी उक्त देवसेनको कृति है और ८७ गाथासंख्याको लिये हुए है। इमे लघुनयचक' भी कहते हैं, जो किसी बड़े नयचक्रको दृष्टिमे लेकर बादको किए Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची गए नामकरणका फल है। मूलके आदि-प्रतिज्ञा-वाक्यमे इसको 'नयलक्षण और समाप्तिवाक्यमे 'नयचक्र' प्रकट किया गया है। अन्यत्र भी 'नयचक्र' नामसे इसका उल्लेख मिलता है। इससे इसका मूलनाम 'नयचक्र' ही है। परन्तु यह वह 'नयचक्र' नहीं जिसका विद्यानन्द आचार्यने अपने श्लोकवार्तिकके नविवरण-प्रकरणमे निम्न शब्दोंद्वारा उल्लेख किया है : संक्षेपेण नयास्तावद् व्याख्याताः सूत्रसूचिताः । तद्विशेषाः प्रपञ्चेन संचिन्त्या नयचक्रतः ॥ __ क्योंकि इस कथनपरसे वह नयचक्र बहुत विस्तृत होना चाहिये । प्रस्तुत नयचक्र बहुत छोटा है, इसस अधिक कथन तो श्लोकवार्तिकक उक्त नयविवरण-प्रकरणमें पाया जाता है, जिसमे विशेष कथनके लिये नयचक्रको देखनेकी प्रेरणा की गई है । बहुत संभव है कि यह बड़ा नयचक्र वह हो जिसको दुःसमीरसे पोत (जहाज ) की तरह नष्ट हो जानेका और उसके स्थानपर देवसेनद्वारा दूसरे नयचक्र रचे जानेका उल्लेख माहल्लदेवने अपने 'दव्वसहावणयचक्क' के अन्तमे२ किया है । इसके सिवाय, एक दूसरा बड़ा नयचक्र संस्कृतमे श्वेताम्बराचाय मल्लवादिका भी प्रसिद्ध है, जिसे 'बादशार-नयचक्र' कहते हैं और जो आज अपने मूलरूपमे उपलब्ध नहीं है। उसकी ओर भी संकेत हो सकता है। अस्तु । देवसेनके इस नयचक्रमे नयोंका सूत्ररूपसे बड़ा सुन्दर वर्णन है, नयोके मूल दो भेद द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक किये गये हैं और शेष सब संख्यात असख्यात भेदोंका इन्हींके भेद-प्रभेद बतलाया गया है। नयोंके कथनका प्रारंभ करते हुए लिखा है कि-जो नयष्टिसे विहीन हैं उन्हें वस्तुस्वरूपकी उपलब्धि नहीं होती और जिन्हें वस्तुस्वरूपकी उप, लब्धि नहीं-जो वस्तुस्वभावको नहीं पहचानते-वे सम्यग्दृष्टि कैसे हो मकते हैं ? नहीं हो। , सकते,' यह बड़े ही मर्मकी बात है और इसपरमे प्रथ के विषयका महत्त्व स्पष्ट जाना जाता है। इसी तरह प्रथके अन्त में 'नयचक्र' के विज्ञानको सकल शास्त्रोंकी शुद्धि करनेवाला और दुर्णयरूप अन्धकार के लिये मार्तण्ड बतलाते हुए यह भी लिखा है कि 'यदि अज्ञान-महादधिको लीलामात्रमे तिरना चाहते हो तो नयचक्रको जानने के लिये अपनी बुद्धिको लगाओ -नयोंका ज्ञान प्राप्त किये विना अज्ञान-महासागरस पार न हो सकोगे। ३७. द्रव्यस्वभावप्रकाश-नयचक्र—यह ग्रंथ द्रव्यों, गुण-पर्यायों और उनके स्वरूपादिको सामान्य-विशेषादिकी दृष्टिसे प्रकाशित करनेवाला है और साथ ही उनको जाननेके साधनोंमे मुख्यभूत नयोंके स्वरूपादिपर प्रकाश डालनेवाला है, इसीसे इसका यह नाम प्रायः सार्थक है। वास्तव में यह एक संग्रह-प्रधान ग्रंथ है। इसमें कुन्दकुन्दादि आचार्यो के ग्रंथोंकी कितनी ही गाथाओं तथा पद्य-वाक्योंका संग्रह किया गया है । और देवसेनक नयचक्रको तो प्रायः पूरा ही समाविष्ट कर लिया गया है । नयचक्रकी स्तुतिक कई पद्य भी इसके अन्तमे दिये हुए हैं और इसीस इसे कुछ लोग बहत् नयचक्र भी कहन अथवा समझने लगे हैं जो ठीक नहीं हैं, क्योंकि इसमें बहत् नयचक्र जैसी कोई बात नहा है। इसकी पद्यसंख्या देवसेनके नयचक्रसे प्रायः पंचगुनी अर्थात ४२२ जितनी होने और अन्तिम गाथाओंमे नयचक्रका ही सविशेषल्पसे उल्लेख पाये जाने के कारण यह बहत् नयचक्र समझ लिया गया जान पड़ता है। प्रथके अन्य भागोंकी अपेक्षा अन्तका भाग कुछ विशेषरूपसे अव्यवस्थित मालूम होता है। 'जइ इच्छड उत्तरिदु' इस गाथा नं० ४१६ के श्वेताम्बराचार्य यशोविजयने 'द्रव्यगुणपर्ययरासा' में और भोजसागरने 'द्रव्यानुयोगतर्कणा' में भी देव सेनके नामोल्लेखपूर्वक उनके नयचक्रका उल्लेख किया है। २ दुसमीरणेग्ण पोय पेरियसंतं जहा ति(चि)र णछ। सिरिदेवसेणमुणिणा तह णयचक्कं पुणो रइयं ॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ६३ बाद, जोकि देवसेनके नयचक्रकी पूर्वोद्धत अन्तिम गाथा ( नं० ८७) है, एक गाथा निम्न प्रकारसे दी हुई है, जिसमें बतलाया गया है कि - ' दोहाथ को सुनकर शुभंकर अथवा शंकर हँसकर बोला कि दोहोंमें अर्थ शोभित नहीं होता, उसे गाथाओं में गूंथकर कहो सुणिऊण दोहरत्थं सिभ्धं इसिऊण सुहंकरो भगइ | एत्थ ण सोहइ अत्थो गाहावंघेण तं भगह ॥ ४१७ ॥ इसके अनन्तर 'दारिय- दुरणय-दयं' इत्यादि तीन गाथाओं में देवसेनके नयचक्रकी प्रशसाके साथ उसे नमस्कार करनेकी प्रेरणा की गई है, इससे यह गाथा, जिसमें ग्रथ रचने की प्रेरणाका उल्लेख है, पूर्वापर गाथाओ के साथ कुछ सम्बन्ध रखती हुई मालूम नहीं होती । इस तरह नयचक्रको प्रशंसात्मक उक्त तीन गाथाओं के बाद निम्न गाथा पाई जाती है जिसका उन तीन गाथाओं तथा अन्तकी (नं० ४२२) 'दुसमीरणेण पोयं' नामकी उस गाथाके साथ कोई सम्बन्ध नहीं बैठता, जिसमें प्राचीन नयचक्रके नष्ट होजानेपर देवसेनके द्वारा दूसरे नयचक्र रचे जानेका उल्लेख है -: दव्यसहावपयासं दोहयबंधे श्रसि जं दिव ं । गाहावंधेण पुणो रइयं माहल्लदेवेण ।। ४२१ ॥ क्योंकि इसमे बतलाया है कि - 'द्रव्यस्वभावप्रकाश' नामका कोई ग्रंथ पहले से दोहा छंदमें मौजूद था उसे माहल्ल अथवा माहिल्लदेवने गाथाछदमे परिवर्तित करके पुनः रचा है। इस गाथाकी उक्त प्रेरणात्मक गाथा नं० ४१७ के साथ तो संगति बैठती है परन्तु आगे पाछेकी गाथाओंने ग्रंथके सन्दर्भमे गड़बड़ी उपस्थित कर रक्खी है । और इससे ऐसा मालूम होता है कि इन दोनों (नं० ४१७, ४२१) के पूर्वापर सन्बन्धकी कुछ गाथाएँ नष्ट हो गई हैं और दूसरी गाथाएँ उनके स्थानपर आ घुसी हैं। अतः इस ग्रंथकी प्राचीन प्रतियों की खोज होकर ग्रन्थसन्दर्भको ठीक एव सुव्यवस्थित किये जानेकी जरूरत है । उक्त गाथा नं० ४०१ परसे प्रथकर्ताका नाम 'माहल्लदेव' उपलब्ध होता है; परन्तु ( पं० नाथूरामजी प्रेमीने अपनी ग्रंथपरिचयात्मक प्रस्तावनायें तथा 'जैनसाहित्य और इतिहास' अन्तर्गत 'देवसेन और नयचक्र' नामक लेख में भी सर्वत्र ग्रंथकर्ताका नाम 'माइल्लघवल' दिया है | मालूम नहीं इस नामकी उपलब्धि उन्हें कहाँसे हुई है ? क्योंकि इस पाठान्तर का उनके द्वारा कहीं कोई उल्लेख नहीं किया गया। हो सकता है कि कारंजाकी प्रतिमे यह पाठ हो, क्योंकि अपने उक्त लेखमे प्रेमीजोने एक जगह यह सूचित किया है कि 'कार जाकी प्रतिमें 'माइल्लघवलेण' पर 'देवसेन शिष्येण' टिप्पण भी है । अस्तु, ग्रंथकार संभवतः उन्हीं देवसेनके शिष्य जान पडते हैं जिनके नयचक्रको इन्होने अपने इस प्रथमें समाविष्ट किया हैं, जिन्हें "सियसद्द मुरणयदुराय' नामकी गाथा न० ४२० में भारी प्रशंसाके साथ नयचक्रकार बतलाया है और 'गुरु' लिखा है और जिसका समर्थन कारंजा प्रतिके उक्त टिप्पणसे भी होता है । इसके सिवाय, प्रमीजीने 'दुममीरणेण पोयं पेरिय' नामकी गाथा न० ४२२ का एक दूसरा पाठ मोरेनाकी प्रतिका निम्न प्रकार से दिया है, जिस का पूर्वार्ध बहुत अशुद्ध है दसमीर पोयमि (नि) बाय पा (या) ता () सिरिदेवसेणजोईणं । सिं पापमाए उवलद्धं समगतच्चेण || और इस परसे यह कल्पना की है कि 'माइल्लघवलका देवसेनसूरिसे कुछ निकट का गुरु-शिष्य सम्बन्ध था, जो उपर्युक्त अन्य कारणोंकी मौजूदगी में ठीक हो सकता है ।) Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची और इसलिये जब तक कोई दूसरा स्पष्ट प्रमाण सामने न आवे तब तक इन्हें देवसेनका शिष्य मानना अनुचित न होगा। ३८. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-यह त्रिलोकप्रज्ञप्ति और त्रिलोकसार जैसे ग्रंथोंकी तरह करणानुयोग-विपयका ग्रंथ है। इसमे मध्यलोकके मध्यवर्ती जम्बूद्वीपका कालादि-विभागके साथ मुख्यतासे वर्णन है और वह वर्णन प्रायःजम्बूवापक भरत, ऐरावन, महाविदेहक्षेत्रो, हिमवान आदि पर्वतों, गगा-सिन्ध्वादि नदियो, पद्म-महापद्मादि द्रढों, लवणादि समुद्रों तथा अन्य बाह्य-प्रदेशों, कालके अवसर्पिणी-उत्सपिणी आदि भेद-प्रभेदो, उनमे होनेवाले परिवर्तनों और ज्योतिष्पटलादिसे सम्बन्ध रखता है। साथ ही, लौकिक-अलौकिक गणित, क्षेत्रादिकी पैमाइश और प्रमाणादिक कथनोको भी साथमे लिय हुए है । संक्षेपम इस पुरातन भूगोल और खगोल-विषयक ग्रंथ समझना चाहिये। इसमें १३ उद्देश अथवा अधिकार है और गाथासख्या प्रायः २४२७ पाई जाती है । यह अथ भी अभी तक प्रकाशित ( मुद्रित ) नहीं हुआ है।) ___ इस ग्रंथके कर्ता श्री पद्मनन्दि प्राचार्य हैं, जो बलनन्दिके शिष्य और वीरनन्दिके प्रशिष्य थे, जिन्होने श्रीविजय गुरुके पाससे सुपरिशुद्ध प्रागमको सुनकर तथा जिनवचनविनिर्गत अमृतभूत अर्थपदको धारण करके उन्हीं के माहात्म्य अथवा प्रसादसे यह प्रथ पोरियात्रदेशके वारानगरमे रहते हुए, उस नगरके स्वामी शक्तिभूपाल अथवा शान्तिभूपालके समयमे, उन श्रीनन्दि गुरुके निमित्त सक्षेपसे रचा है जो सकलचन्द्रके शिष्य और माघनन्दि गुरुक प्रशिष्य थे अथवा सकलचन्द्रके शिष्य न होकर माघनन्दीके शिष्य थे-शिष्य नहीं । ऐसा ग्रंथके अन्तिमभाग अर्थात् उसकी प्रशस्तिपरसे जाना जाता है, जो इस प्रकार है:'णाणा-गरवइ-महिदो विगयभो संगभंगउम्मुक्को । सम्मद्दसणसुद्धो संजम-तव-सील-संपुण्णा ॥ १४३ ॥ जिणवर-वयण-विणिग्गय-परमागमदेसओ महासत्तो । सिरिणिलओ गुणसहिओ सिरिविजयगुरु त्ति विक्खाओ ॥ १४४॥ . सोऊण तस्स पासे जिणवयण विणिग्गयं अमदभूदं । रइदं किचिदुद्देसे अत्थपदं तह व लद्भुण ॥ १४५ ॥ अह तिरिय-उड्ढ लोएसु तेसु जे होति बहु वियप्पा दु । सिरिविजयस्स महप्पा ते सच्चे परिणदा किंचि ॥ १५३ ॥ गय-राय-दोस-मोहो सुद-सायर-पारओ मइ-पगब्भो । तव-संजम-संपएणो विक्खायो माघणंदिगुरू ॥ १५४ ॥ तस्सेव य वर्रामस्सा सिद्धतमहोवहिम्मि धुयकलुमो । णणियमसीलकलिदो गुणउत्तो सयल चंदगुरू ॥ १५५ ॥ /१ थामेर (जयपुर) की वि० सवत् १५१८ की प्रतिमें सकल चन्द्र के नामोल्लेखवाली गाथा (नं० १५५) नहीं है. ऐमा १० परमानन्द शास्त्री वीर सेवामंदिरको मिलान करनेपर मालूम हुश्रा है । यदि वह वस्तुतः ग्रन्थ का अङ्ग नहीं है तो श्रीनन्दीको माघनन्दीका प्रशिष्य न समझकर शिष्य समझना चाहिये। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना तस्सेव य वर-सिस्सो णिम्मल-वरणाण-चरण-संजुत्तो। सम्मइंसण-सुद्धो सिरिणंदिगुरु त्ति विक्खाओ ॥१५६ ॥ तस्स णिमित्तं लिहियं (रइयं) जंबुदीवस्स तह य पण्णत्ती । जो पढइ सुणइ एदं सो गच्छइ उत्तमं ठाणं ॥ १५७॥ पंच-महव्वय-सुद्धो दसण-सुद्धा य णाण-संजुत्तो । संजम-तव-गुण-सहिदो रागादि-विवज्जिदो धीरो ॥ १५८ ॥ पंचाचार-समग्गो छज्जीव-दयावरो विगद-मोहो । हरिस-विसाय-विहूणो णामेण वीरणदि त्ति ॥ १५६ ॥ तस्सेव य वर-सिस्सो सुत्तत्थ-वियक्खयो मइ-पगब्भो । पर-परिवाद-णियत्तो णिस्संगो सब-संगेसु ॥ १६० ॥ सम्मत्त-अभिगद-मणे णाणे तह दंसणे चरित्ते य । परतंति-णियत्तमणो बलणंदिगुरु त्ति विक्खाओ ॥ १६१ ॥ तस्स य गुण-गण-कलिदो तिदंडरहिदो तिमल्ल-परिसुद्धो । तिरिण वि गारव-रहिदो सिस्सो सिद्धंत-गय-पारो ॥ १६२ ॥ तव-णियम-जोग-जुत्तो -उज्जुत्तो णाण-दसण-चरित्ते । प्रारंभकरण-रहिदो णामेण पउमणंदि ति ॥ १६३ ॥ मिरिगुरुविजय-मयासे सोऊणं आगमं सुपरिसुद्धं । मुणिपउमणंदिणा खलु लिहियं एयं ममासेणा ॥ १६४ ।। सम्मइंसण-सुद्धो कद-बद-कम्मो सुसील-संपण्णो । अणवरय-दाणसीलो जिणसासण-वच्छलो धीरो ॥ १६५ ॥ गाणा-गुण-गण-कलिओ णग्वइ-संपूजिओ कला-कुसलो । । वारा-पयरस्स पहू गरुत्तमो मत्ति संति)- भूपालो ॥ १६६ ॥ पोक्खरणि-वावि-पउरे बहु-भवण-विहूसिए परम-रम्मै । गाणा-जण-संकिरणे धण-धरा-समाउले दिव्ये ॥ १६७ ॥ सम्मादिट्ठिजणाघे मुणि गण णिवहेहिं मंडिये रम्म । देसम्मि पारियत्ते जिणभवण-विहूसिए दिव्वे ॥१६८ ॥ जंबुदीवस्स तहा पएणत्ती बहुपयत्थसंजुत्तं(त्ता) । लिहिय(या) संखेवेणं काराए अच्छमाणे ॥ १६६ ॥ छदुमत्थेण विरइयं जं कि पि हवेज्ज पवयण-विरुद्ध । सोधंतु सुगीदत्था तं पवयण-बच्छलचाए । १७० ॥ -उद्देश १३ इस प्रशस्तिमे प्रथकारने अपनेको गुणगणकलित, त्रिदण्डरहित, त्रिशल्यपरिशुद्ध, त्रिगारवरहित, सिद्धान्तपारंगत, तपनियमयोगयुक्त, ज्ञानदर्शनचरित्रोक्त और प्रारम्भ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 ६६ पुरातन जैनवाक्य-सूची I करणरहित बतलाया है; अपने गुरु बलनन्दिको सूत्रार्थविचक्षण, मतिप्रगल्भ, परपरिवादनिवृत्त, सर्वसर्गानःसग, दर्शनज्ञानचरित्रमे सम्यक् अधिगतमन, परतृप्तिनिवृत्तमन, और विख्यात सूचित किया है, अपने दादागुरु वीरनन्दिको पचमहाव्रतशुद्ध, दर्शनशुद्ध, ज्ञानसंयुक्त, संयमतपगुणसहित, रागादिविवजित, घीर, पचाचारसमय, पट्जीवदयातत्पर, विगतमोह और हर्षविपादविद्दीन विशेषणो के साथ उल्लेखित किया है; और अपने शास्त्रगुरु श्रीविजयको नानानरपतिमहित, विगतभय, संगभंग उन्मुक्त, सम्यग्दर्शनशुद्ध, सयमतप- शीलसम्पूर्ण, जिनवरवचन व निर्गत-परमागमदेशक, महासत्व, श्री निलय, गुणसहित और विख्यात विशेपणो से युक्त प्रकट किया है। साथ ही, सत्ति (सति ) भूपालको सम्यग् - दर्शनशुद्ध, कृत - व्रत- कर्म, सुशीलसम्पन्न, अनवरतदानशील, जिनशासनवत्सल, धीर, नानागुणगणकलित, नरपतिसंपूजित, कलाकुशल, वारानगरप्रभु और नरोत्तम वतलाया है । परन्तु इतना सब कुछ बतलाते हुए भी अपने तथा अपने गुरुओ के संघ अथवा गणगच्छादिके विपयमे कुछ नहीं बतलाया, न सत्ति भूपाल अथवा सति भूपालके वंशादिकका कोई परिचय दिया और न ग्रंथका रचनाकाल ही निर्दिष्ट किया है । ऐसी हालत मे ग्रंथकार और ग्रथके निमाणकालादिकका ठीक ठीक पता चलाना आसान नहीं है; क्योंकि पद्मनन्दि नामके दसों विद्वान आचार्य भट्टारकादि हो गए हैं और वीरनन्दि, श्रीनन्दि, सकलचन्द्र, माघनन्दि, और श्री।वजय जैसे नामोंके भी अनेक श्राचार्यादिक हुए हैं । इसीसे सुवर पं० नाथूरामजी प्रेमीने, अपने 'जैन साहित्य और इतिहास' मे, इस ग्रंथके समय निर्णयको कठिन बतलाते हुए उसके विषयमे असमर्थता व्यक्त का है और अन्तको इतना कहकर ही सन्तोष धारण किया है कि - " फिर भी यह प्रथ हमारे अनुमानसे काफी प्राचीन है और उस समयका है जब प्राकृतमे ही ग्रंथरचना करनेकी प्रणाली अधिक थी, और जब संघ, गण आदि भेद अधिक रूढ नहीं हुए थे ।" वादको उन्हें महामहोपाध्याय श्रोमाजी के 'राजपूतानेका इतिहास' द्वि० भागपर से यह मालूम हुआ कि वारॉनगर जो वर्तमानमे कोटा राज्यके अन्तर्गत है वह पहले मेवाड के ही अन्तर्गत था और इसलिये मेवाड़ भी पारियात्र देशमे शामिल था, जिसे हेमचन्द्रकोपमें “उत्तरो विन्ध्यात्पारियात्र " इस वाक्य के अनुसार विन्ध्याचल के उत्तरमें बतलाया है। इस मेवाड़का एक गुहिलवंशी राजा शक्तिकुमार हुआ "है, जिसका एक शिलालेख वैशाख सुदि १ वि० संवत् १०३४ का आहाड मे ( उदयपुर के समीप) मिला है । अतः प्रेमीजीने अपने उक्त प्रथक परिशिष्टमे इस शक्तिकुमार और जम्बू• द्वीपप्रज्ञप्ति के उक्त सत्तिभूपालके एकत्वकी सभावना करते हुए अनिश्चितरूपमे लिखा है"यदि इसी गुहिलवंशीय शक्तिकुमार के समय मे जंबूदीपपण्णत्तीकी रचना हुई हो, तो उसके कर्ता पद्मनन्दिका समय विक्रमकी ग्यारहवीं शताब्दी मानना चाहिये ।" 1") 1 - ऐसी वस्तुस्थितिमे अब मैं अपने पाठकों को इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि भगवतीआराधनाकी 'विजयोदया' टीकाके कर्ता 'श्रीविजय' नामके एक प्रसिद्ध आचाये हुए हैं, जिनका दूसरा नाम 'अपराजित' सूरि है । (पं० आशाधरजीने, अपनी 'मूलारा घनादर्पण' नामकी टीकामे जगह जगह उन्हें 'श्रीविजयाचार्य' के नामसे उल्लेखित किया है और प्राय इसी नामके साथ उनकी उक्त संस्कृत टीकाके वाक्योंको मतभेदादिके प्रदर्शनरूपमे उधृत किया है अथवा किसी गाथाके श्रमान्यतादि विषयमे उनके इस नाम को पेश किया है ' । श्रीविजयने अपनी उक्त टीका श्रीनन्दीगरणीकी प्रेरणाको पाकर लिखी है । इधर यह जम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति भी एक श्रीनन्दि गुरुके निमित्त लिखी गई है और इसके क्र्ता पद्मनन्दिने अपने शास्त्रगुरुके रूपमे श्रीविजयका नाम खासतौर से कई बार उल्लेखित किया है। इससे बहुत संभव है कि दोनों 'श्रीविजय' एक हों और दोनों ग्रंथोंके निमित्त१ श्रनेकान्त वर्ष २ किरण १ पृ० ५७-६० । 1 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना भूत श्रीनन्दि गुरु भी एक ही हों । श्रीविजयने अपने गुरुका नाम बलदेव सूरि और प्रगुरु का चन्द्रनन्दि (महाकर्मप्रकृत्याचार्य) सूचित किया है और पद्मनन्दि अपने गुरुका नाम बलनन्दि और प्रगुरुका वीरनन्दि लिख रहे हैं। हो सकता है कि बलदेव और बलनन्दिका व्यक्तित्व भी एक हो और इस तरह श्रीविजय और पद्मनन्दि दोनो परस्परमे गुरुभाई हों जिनमे श्रीविजय ज्येष्ठ और पद्मनन्दि कनिष्ठ हों, और इस तरह पद्मनन्दिने श्रीविजयका उसी तरह से गुरुरूपमें उल्लेख किया हो जिस तरह कि गोम्मटसारके कर्ता नेमिचन्द्रने इन्द्रनन्दि आदिका किया है, जो उन्हींके गुरु अभयनन्दिके बड़े शिष्योंमें थे। और दोनोंके प्रगुरुनामोंमे जो अन्तर है उसका कारण एकके अनेक गुरुओंका होना अथवा एक गुरुके अनेक नामोंका होना हो सकता है, जिनमेसे कोई भी अपनी इच्छानुसार चाहे जिस गुरु अथवा गुरुनामका उल्लेख कर सकता है, और ऐसा प्रायः होता आया है । यदि यह कल्पना ठीक हो तो फिर यह देखना चाहिये कि इस ग्रंथ और उसके कर्ता पद्मनन्दिका दुसरा समय क्या हो सकता है ? चन्द्रनन्दीका सबसे पुराना उल्लेख उनकी एक शिष्य-परम्पराके उल्लेख-सहित, श्रीपुरुषके दानपत्र अथवा नागमंगल ताम्रपत्रमें पाया जाता है। जो श्रीपुरके जिनालयके लिये शक संवत् ६६८ (वि० स० ८३३) मे लिखा गया है और जिसमे चन्द्रनन्दीके एक शिष्य कुमारनन्दी, कुमारनन्दीके शिष्य कीर्तिनन्दी और कीर्तिनन्दीके शिष्य विमलचन्द्र का उल्लेख है, और इससे चन्द्रनन्दीका समय शक संवत् ६३८ से कुछ पहलेका ही. जान पड़ता है। बहुत संभव है कि उक्त श्रीविजय इन्हीं चन्द्रनन्दीके प्रशिष्य हों। यदि ऐसा है तो श्रीविजयका समय शक संवत् ६५८ के लगभग प्रारंभ होता है और तब जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति और उसके कतो पद्मनन्दिका समय शक संवत् ६७० अर्थात् वि० संवत् ८०५ के आसपासका होना चाहिये । उस समय पारियात्र देशके अन्तर्गत वारानगरका स्वामी कोई शक्ति या शान्ति नामका भूपाल (राजा) हुआ होगा, जिसका इतिहाससे पता चलाना चाहिये । और यह भी संभव है कि-वह कोई बड़ा राजा न होकर बारानगरका जागोरदार (जमींदार) हो 'भूपाल' उसके नामका ही अश हो अथवा उसे टाइटिलके रूपमे प्राप्त हो और राजा या महाराजाके द्वारा सम्मानित होने के कारण ही उसे 'नरवइसंपूजिओ' (नरपतिसंपूजित) विशेषण दिया गया हो। ऐसी हालतमे उसका नाम इतिहासमे मिलना ही कठिन है। कुछ भी हो, यह ग्रंथ अपने साहित्यादिकपरसे काफी प्राचीन मालूम होता है।) ३६. धर्मरसायन यहा १६३ गाथाओंका प्रथ है, सरल तथा सुबोध है और माणिकचन्द्रग्रथमालामे सस्कृत छायाके साथ प्रकट हो चुका है । इसमें धर्मकी महिमा, धर्म-अधर्मके विवेककी प्रेरणा, परीक्षा करके धर्मग्रहण करने की आवश्यकता, अधर्मका फल नरकादिकके दुख, सर्वज्ञप्रणीत धर्मकी उपलल्धि न होनेपर चतुर्गतिरूप ससार-परिभ्रमण, १ "अष्टानवत्युत्तरे षट्छतेषु शकवर्षेष्वतीतेष्वात्मानः प्रवर्द्धमान-विजयवीयं-सवत्सरे पचशत्तमे प्रवर्त्तमाने मान्यपुरमधिवसति विजयस्कन्दावारे श्रीमूलमूलशर्णाभिनन्दितनन्दिसंघान्वय एरेगित्तुर्नाम्नि गणे मूलिकल्गच्छे स्वच्छतरगुणिकिरप्र(ग्य)तति-प्रल्दादित-सकललोकः चन्द्र इवापर. चन्द्रनन्दिनामगुरुरासीत् । तत्य शिष्यस्समस्तविबुधलोकपरिरक्षण-क्षमात्मशक्ति : परमेश्वरलालनीयमहिमाकुमारवद्विति(ने)य: कुमारनन्दिनाममुनिपतिरभवत् । तस्यान्तेवासि-समधिगतसकलतत्त्वार्थ-समर्पित बुधसाधे-सम्पत्सम्पादितकीर्तिः कीतिनन्द्याचार्यो नाम महामुनिस्सर्मजनि । तस्य प्रियशिष्य शिष्यजनकमलाकर-प्रबोधनकः मिथ्याज्ञानसततसनुतस्वसन्मानान्तक-सद्धर्म-व्योमावभासनभास्करः विमलचन्द्राचार्यस्समुदपादि । तस्य महर्षेधर्मोपदेशनया ( ताम्रपत्रका यह अश डा० ए० एन० उपाध्ये कोल्हापुरके सौजन्यसे प्राप्त हुआ है।) Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . पुरातन-जैनवाक्य-सूची सर्वज्ञोंकी परीक्षा, सर्वज्ञ-प्रणीत सागार तथा अनागार (गृहस्थ तथा मुनि) धर्मका संक्षिप्त स्वरूप और उसका फल-जैसे विषयोंका सामान्यतः वर्णन है । धर्मपरीक्षाको आवश्यकताको जिन गाथाओ-द्वारा व्यक्त किया गया है उनमेसे चार गाथाएँ नमूने के तौरपर इस प्रकार हैं खीराइं जहा लोए सरिसाई हवंति वरण-णामेण । रसभेएण य ताई वि णाणागुण-दोस-जुत्ताई ॥६॥ काई वि खीराई जए हवंति दुक्खावहाणि जीवाणं । काई वि तुहि-पुर्टि करंति वरवण्णमारोग्गं ॥ १० ॥ धम्मा य तहा लाए अणयभेया हवंति णायव्वा । णामेण समा सव्ये गुणेण पुण उत्तमा केई ॥ ११ ॥ तम्हा हु सव्व धम्मा परिक्खियव्या गरेण कुसलेण । सो धम्मो गहियो जो दोसेहिं विवज्जित्रो विमलो ॥१४॥ इनमे बतलाया है कि जिस प्रकार लोकमे विविध प्रकारके दूध वर्ण और नामको दृष्टिसे समान होते हैं, परन्तु रसके भेदसे वे नाना प्रकारके गुण-दोषोंसे युक्त रहते हैं। कोई दूध तो उनमेंसे जीवोंको दुखकारी होते हैं और कोई दूध तुष्टि-पुष्टि तथा उत्तम वर्ण और आरोग्य प्रदान करते हैं। उसी प्रकार धर्म भी लोकमे अनेक प्रकारके होते हैं, धर्मनामसे सब समान हैं, परन्तु गुणकी अपेक्षा कोई उत्तम होते हैं, और कोई दुःखमूलकादि दूसरे प्रकारके । अतः कुशल मनुष्यको चाहिये कि सभी धर्मों की परीक्षा करके उस धर्मको ग्रहण करे जो दोपोंसे विवर्जित निर्मल हो।' (इसके अनन्तर लिखा है कि जिस धर्ममे जीवोंका वध, असत्यभाषण, परद्रव्यहरण, परस्त्रीसेवन, सन्तोषरहित बहुआरम्भ-परिग्रह-ग्रहण, पंच उदम्बर फल तथा मधुमांसका भक्षण, दम्भधारण और मदिरापान विधेय है वह धर्म भी यदि धर्म है,तो फिर अधर्म अथवा पाप कैसा होगा ? और ऐसे धर्मसे यदि स्वर्ग मिलता है तो फिर नरक कौनसे कम से जाना होगा ? अर्थात् जीवोंका वधादिक ही अधर्म है-पाप कर्म है और वैसे कर्मों का फल ही नरक है।) इस अथके कर्ता पद्मनन्दिमुनि हैं परन्तु अनेकानेक पद्मनन्दि-मुनियोंमेंसे ये पद्मनन्दि कौनसे हैं, इसकी प्रथपरसे कोई उपलब्धि नहीं होती; क्योंकि ग्रंथकारने अपने तथा अपने गुरु-आदिके विषयमे कुछ भी नहीं लिखा है । इस गुरु-नामादिके उल्लेखाऽभाव और भापासाहित्यकी दृष्टिमे यह अथ उन पद्मनन्दि आचार्यकी तो कृति मालूम नहीं होता जो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिके कर्ता हैं। ४०. गोम्मटसार और नेमिचन्द्र गोम्मटसार' जैनसमाजका एक बहुत ही सुप्रसिद्ध सिद्धान्त ग्रंथ है, जो जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड नामके दो बड़े विभागोंमे विभक्त है और वे विभाग एक प्रकारसे अलग-अलग ग्रथ भी समझे जाते हैं, अलग-अलग मुद्रित भी हुए हैं और इसीसे वाक्यसूचीमे उनके नामको (गो०जी०, गो.क० रूपसे) स्पष्ट सूचना साथम करदी गई है। जीवकाण्डकी अधिकार-सख्या २२ तथा गाथा-सख्या ७३३ है और कर्मकाण्ड की अधिकार-संख्या ६ तथा गाथा-संख्या ६७२ पाई जाती है। इस समूचे ग्रंथका दूसरा नाम 'पञ्चसग्रह' है, जिस टाकाकारोने अपनी टाकाओंमे व्यक्त किया है। यद्यपि यह प्रथ प्रायः संग्रहाथ है, जिसमे शब्द ओर अर्थ दोनों दृष्टियोसे सैद्धान्तिक विषयोका समई किया गया है, परन्तु विषयके संकलनादिकमे यह अपनी खास विशेषता रखता है और Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना इसमे जीव तथा कर्म-विषयक करणानुयोगके प्राचीन प्रथोंका अच्छा सुन्दर सार खींचा गया है। इसीसे यह विद्वानोंको बड़ा ही प्रिय तथा रुचिकर मालूम होता है; चुनाँचे प्रसिद्ध विद्वान पंडित सुखलालजीने अपने द्वारा सम्पादित और अनुवादित चतुर्थ कर्मग्रथकी प्रस्तावनामें, श्वेताम्बरीय कर्मसाहित्यकी गोम्मटसारके साथ तुलना करते हुए और चतुर्थ कर्मग्रंथके सम्पूर्ण विपयको प्रायः जीवकाण्डमे वर्णित बतलाते हुए, गोम्मटसारकी उसके विषय-वर्णन, विषय-विभाग और प्रत्येक विषयके सुस्पष्ट लक्षणोकी दृष्टिसे प्रशंसा की है और साथ ही निःसन्देहरूपसे यह बतलाया है कि-"चौथे कर्मग्रथके पाठियोंके लिये जीवकाण्ड एक खास देखनेकी वस्तु है, क्योंकि इससे अनेक विशेष बातें मालूम हो सकती हैं।" इस प्रथका प्रधानतः मूलाधार आचार्य पुष्पदन्त-भूतबलिका षट् खण्डागम और वीरसेनकी धवला टीका तथा दिगम्बरीय प्राकृत पञ्चसग्रह नामके ग्रथ है । पचसंग्रहमे पाई जानेवाली सैंकड़ो गाथाएँ इसमे ज्यों-की-त्यो तथा कुछ परिवर्तनके साथ उद्धृत हैं और उनमेसे बहुत-सी गाथाएँ ऐसी भी हैं जो धवलामे ज्यों-की-त्यों अथवा कुछ परिवर्तनके साथ 'उक्तञ्च' आदि रूपसे पाई जाती है । साथ ही षटखण्डागमके बहुतसे सूत्रोंका सार खींचा गया है। शायद पट खण्डागमके जीवस्थानादि पॉच खण्डोके विपयका प्रधानतासे सार-सग्रह करनेके कारणे ही इसे 'पञ्चसग्रह' नाम दिया गया हो। (क) ग्रन्थके निर्माणमें निमित्त चामुण्डराय 'गोम्मट' ___ यह ग्रंथ नेमिचन्द्र-द्वारा चामुण्डरायके अनुरोध या प्रश्नपर रचा गया है, जो गङ्गवशी राजा राचमल्लक प्रधानमन्त्री एव सेनापति थे, अजितसेनाचार्य के शिष्य थे और जिन्होंने श्रवणबेल्गोलमे बाहुबलि-स्वामीकी वह सुन्दर विशाल एव अनुपम मूति निर्माण कराई है जो संसारके अद्भुत पदार्थो मे परिगणित है और लोकमे गोम्मटेश्वर-जैसे नामोंसे प्रसिद्ध है। चामुण्डरायका दूसरा नाम 'गोम्मट' था और यह उनका ग्वास घरेलू नाम था, जो मराठी तथा कनडी भाषामे प्रायः उत्तम, सुन्दर, आकर्पक एव प्रसन्न करनेवाला जैसे अर्थो मे व्यवहृत होता है.' और 'राय' (राजा) की उन्हें उपाधि प्राप्त थी । ग्रंथमें इस नामका उपाधि-सहित तथा उपाधि-विहीन दोनों रूपसे स्पष्ट उल्लेख किया गया है और प्रायः इसी प्रिय नामसे उन्हें आशीर्वाद दिया गया है, जैसा कि निम्न दो गाथाओंसे प्रकट है - अज्जज्जसेण-गुणगणसमूह-संधारि-अजियसेणगुरू । भुवणगुरू जस्म गुरू सो राम्रो गोम्मटो जयउ॥७३३।। जेण विणिम्मिय-पडिमा-वयणं सबसिद्धि-देवेहि । सव्व-परमोहि-जोगिहिं दिह सो गोम्मटो जयउ॥क०६६६॥ इनमें पहली गाथा जीवकाण्डकी और दूसरी कर्मकाण्डकी है । पहलीमे लिखा है 'कि 'वह राय गोम्मट जयवन्त हो जिसके गुरु वे अजितसेनगुरु हैं जो कि भुवनगुरु हैं और आचार्य आयसेनके गुण-गण-समूहको सम्यक प्रकार धारण करने वाले–उनके वास्तविक शिष्य हैं ।' और दूसरी गाथामे बतलाया है कि 'वह 'गोम्मट' जयवन्त हो जिसकी निर्माण कगई हुई प्रतिमा (बाहुबली की मूर्ति) का मुख सवार्थसिद्धिके देवो और सर्वावधि तथा परमावधि ज्ञानके धारक योगियों-द्वारा भी (दूरसे ही) देखा गया है।' चामुण्डराय के इस गोम्मट' नामके कारण ही उनकी बनवाई हुई बाहुबलीकी मूर्ति 'गोम्मटेश्वर' तथा 'गोम्मटदेव' जैसे नामोंसे प्रसिद्धिको प्राप्त हुई है, जिनका अर्थ है गोम्मटका ईश्वर, गोम्मटका देव । और इसी नामकी प्रधानताको लेकर ग्रन्थका नाम 'गोम्मटसार' दिया गया है, जिसका अर्थ है 'गोम्मटके लिये खींचा गया पूर्व के (पटखण्डागम तथा १ देखो, अनेकान्त वर्ष ४ किरण ३, ४ में डा० ए० एन० उपाध्येका 'गोम्मट' नामक लेख । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० पुरातन-जैनवाक्य-सूची धवलादि) ग्रन्थोंका सार ।' ग्रन्थको 'गोम्मटसंग्रहसूत्र' नाम भी इसी आशयको लेकर दिया गया है, जिसका उल्लेख कर्मकाण्डकी निम्न गाथामे पाया जाता है: गोम्मट-संगहसुत्त गोम्मटसिहरूवरि गोम्मटजिणो य । गोम्मटराय-विणिम्मिय-दक्खिणकुक्कुडजिणो जयउ ॥६६८॥ इस गाथामे उन तीन कार्यों का उल्लेख है और उन्हींका जयघोष किया गया है जिनके लिये गोम्मट उर्फ चामुण्डरायकी खास ख्याति है और वे है-१ गोम्मटसंग्रहसूत्र, २ गोम्मटजिन और ३ दक्षिणकुक्कुटजिन | गोम्मटसंग्रहसूत्र' गोम्मट के लिये सग्रह किया हुआ 'गोम्मटसार' नामका शास्त्र है, 'गोम्मटजिन' पटका अभिप्राय श्रोनेमिनाथकी उस एक हाथ-प्रमाण इन्द्रनीलमणिकी प्रतिमासे है जिसे गोम्मटरायने वनवाकर गोम्मट-शिखर अथात चन्द्रगिरि पर्वतपर स्थित अपने मन्दिर (वस्ति) मे स्थापित किया था और जिसको बावत यह कहा जाता है कि वह पहले चामुण्डराय-वस्तिमे मोजूद थी परन्तु बादको मालम नहीं कहाँ चली गई, उसके स्थान पर नेमिनाथकी एक दूसरी पॉच फुट ऊची प्रतिमा अन्यत्रसे लाकर विराजमान की गई है और जो अपने लेखपरले एचनके बनवाए हुए मन्दिरकी मालूम होती है। और दक्षिण-कुक्कुट-जिन बाहुबलीकी उक्त सुप्रसिद्ध विशालमूर्तिका ही नामान्तर है. जिस नाम के पीछे कुछ अनुश्र ति अथवा कथानक है और उसका सार इतना ही है कि उत्तर-देश पोदनपुरमे भरतचक्रवर्तीने वाहुबलीकी उन्हीकी शरीराकृति-जैसी मूर्ति बनवाई थी, जो कुक्कुट-सोसे व्याप्त हो जानेक कारण दुर्लभ-दर्शन हो गई थी। उसीके अनुरूप यह मूति दक्षिणमे विन्यगिरिपर स्थापित की गई है और उत्तरकी मूर्तिमे भिन्नता बतलानेके लिये हा इसको 'दक्षिण' विशेषण दिया गया है। अस्तु, इस गाथापरसे यह और भी स्पष्ट हो जाता है कि 'गोम्मट' चामुण्डरायका खास नाम था और वह संभवतः उनका प्राथमिक अथवा घरू वोलचालका नाम था । कुछ असें पहले आमतौरपर यह समझा जाता था कि गोम्मट' वाहुबलीका हा नानान्तर है और उनकी उक्त असाधारण मूर्तिका निर्माण कराने के कारण हा चामुण्डराय 'गोम्मट' तथा 'गोम्मटराय' नामसे प्रसिद्धिको प्रात हुए है । चुनॉचे प० गोविन्द पै जेस कुछ विद्वानोंने इसी वातको प्रकारान्तरसे पृष्ट करनेका यत्न भी किया है, परन्तु डाक्टर ए० एन० उपाध्येने अपने 'गोम्मट' नामक लेखमे ' उनकी सब युक्तियोंका निराकरण करते हुए, इस बातको बिल्कुल स्पष्ट कर दिया है कि गोम्मट' बाहुबलीका नाम न होकर चामुण्डरायका हो दूसरा नाम था और उनके इस नामके कारण ही बाहुवलीकी मूर्ति गोम्मटेश्वर जैस नामोंसे प्रसिद्धिको प्राप्त हुई है । इस मूर्ति के निर्माणसे पहले बाहुबली के लिये 'गाम्मट' नामकी कहींसे भी उपलब्धि नहीं होती। बादको कारकल आदिमे बनी हुई मूर्तियोको जो 'गोम्मटेश्वर' जैसा नाम दिया गया है उसका कारण इतना ही जान पड़ता है कि वे श्रवणबेल्गोलकी इस • मूर्तिकी नकल-मात्र हैं और इसलिये श्रवणबेलगोलकी मूर्तिके लिये जो नाम प्रसिद्ध हो गया था वही उनको भी दिया जाने लगा। अस्तु) चामुण्डरायने अपना सठ शलाकापुरुषोका पुराण-ग्रंथ, जिसे 'चामुण्डरायपुराण' भी कहते हैं शक संवत् ६०० (वि० सं० १०३५) मे बनाकर समाप्त किया है, और इसलिये उनके लिये निर्मित गोम्मट्सारका सुनिश्चित समय विक्रमकी ११वीं शताब्दी है। (ख) ग्रन्थकार और उनके गुरु ____गोम्मटसार ग्रन्थकं कर्ता प्राचार्य नेमिचन्द्र · सिद्धान्त-चक्रवर्ती' कहलाते थे । चक्रवर्ती जिस प्रकार चक्रसे छह खण्ड पृथ्वीकी निर्विघ्न साधना १ देखो, अनेकान्त वर्षे ४ कि० ३, ४ पृ० २२६, २६३ । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना करके उसे स्वाधीन बनाकर-चक्रवर्तिपदको प्राप्त होता है उसी प्रकार मति-चक्रसे षट् खण्डागमकी साधना करके आप सिद्धान्त-चक्रवर्ती के पदको प्राप्त हुए थे, और इसका उल्लेख उन्होने स्वयं कर्मकाण्डकी गाथा ३६७मे किया हैं। आप अभयनन्दी आचार्यके शिष्य थे, जिसका उल्लेख आपने इस ग्रंथमे ही नहीं किन्तु अपने दूसरे ग्रंथों-त्रिलोकसार और लब्धिसारमे भी किया है। साथ ही, वीरनन्दी तथा इंद्रनन्दीको भी आपने अपना गुरु लिखा है । ये वीरनन्दी वे ही जान पड़ते हैं जो 'चन्द्रप्रभ-चरित्र' के कर्ता है; क्योकि उन्होंने अपनेको अभयनन्दीका ही शिष्य लिखा है । परन्तु ये इन्द्रनन्दी कौनसे हैं ? इसके विषयमें निश्चयपूर्वक अभी कुछ नहीं कहा जा सकता, क्योकि इन्द्रनन्दी नामके अनेक आचार्य हुए हैं-जैसे १ छेदपिंड नामक प्रायश्चित्त-शास्त्रके कर्ता, २ अ तावतारके कर्ता, ३ ज्वालामालिनीकल्पके कर्ता, ४ नीतिसार अथवा समयभूषणके कर्ता, ५ सहिताके को। (इनमेसे पिछले दो तो हो नहीं सकते; क्योकि नीतिसारके कर्ताने उन आचार्यों की सूचीमे जिनके रचे हुए शास्त्र प्रमाण हैं नेमिचंद्रका भी नाम दिया है, इसलिये वे नेमिचद्रके बाद हुए हैं और इद्रनन्दि संहितामे वसुनन्दीका भी नामोल्लेख है जिनका समय विक्रमकी प्रायः १२वीं शताब्दी है और इसलिये वे भी नेमिचद्रके बाद हुए हैं । शेषमेसे प्रथम दो ग्रथोके कर्ताओने न तो अपने गुरुका नाम दिया है और न ग्रंथका रचनाकाल ही, इससे उनके विपयमें कुछ नहीं कहा जा सकता। हाँ, ज्वालामालिनीकल्पके कर्ता इंद्रनन्दिने ग्रंथ का रचनाकाल शक संवत ८६१ (वि० स० ६६६) दिया है और यह समय नेमिचंद्रके गुरु इन्द्रनन्दीके साथ बिल्कुल सङ्गत वैठता है, परन्तु इस कल्पके कर्ता इंद्रनन्दीने अपनेको उन वापनन्दीका शिष्य बतलाया है जो वासवनन्दीके शिष्य और इन्द्रनन्दी (प्रथम) के प्रशिष्य थे। बहुत संभव है ये इन्द्रनन्दी बापनन्दीके दीक्षित हों और अभयनन्दीसे उन्होंने सिद्धान्तशास्त्रकी शिक्षा प्राप्त की हो, जो उस समय सिद्धान्त-विषयके प्रसिद्ध विद्वान थे, क्योंकि प्रशस्ति में वापनन्दीकी पुराण-विषयमे अधिक ख्याति लिखी है-सिद्धात विपयमे नहीं १ जह चक्कण य चक्की छक्खड साहिय अविग्मेण । तह मह - चक्केण मया छक्खड साहिय सम्मं ॥३६७।। २ जस्स य पायपसाएणणतससारजाहमुत्तिएणो । वीरिदण दिवच्छों णमामि त अभयण दिगुरु ||४३६।। णमिऊण अभयणदि सुदसागरचारगिंदण दगुरु । वरवीरणदिणाह पयडीण पच्चय वोच्छ । कर्म० ७८५।। इदि णेमिचन्द-मुणिणा अप्पसुदेणभयण दिवच्छेण । रहो तिलोयसारो खमतु त बहुसुदाइरिया || त्रि० १०१८॥ वीरिंदण दिवच्छेणग्यसुदेणभयणाद सिस्सेण । दसण-चरित्त-लद्धी सुसूयिया णेमिचदेण ॥लब्धि० ४४८॥ ३ मुनिजननुतपाद. प्राप्त मिथ्याप्रवादः, सकलगुणसमृद्धस्तस्य शिष्यः प्रसिद्धः। - श्रभवदभयनन्दी जैनधर्माभिनन्दी स्वमहिमजितसिन्धुभव्यलोकेकबन्धुः ॥३॥ भव्याम्भोजविबोधनोद्यतमते स्वत्समान त्विषः शिष्यस्तस्य गुणाकरस्य सुधिय: श्रीवीरनन्दीत्यभूत् । स्वाधीनाखिलवाङ्मयस्य भुवनप्रख्यातकीर्तेः सता ससत्सु व्यजयन्त यस्य जयिनो वाच कुतर्काट् कुशा ॥ ४ ॥ -चन्द्रप्रभचरित-प्रशस्ति । ४ श्रासीदिन्द्रादिदेवस्तुतपदकमलश्रीन्द्रनन्दि नीन्द्रो नित्योत्सर्पच्चरित्रो जिनमत जलधिोनपापोपलेप । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ पुरातन-जैनवाक्य-सूची और शिष्य इन्द्रनन्दी (द्वितीय) को 'दसिद्धान्तवाधौं विमलितहृदयः' प्रकट किया है। जिससे सिद्धांत विपयमे उनके कोई खास गुरु होने भी चाहियें। इसके सिवाय, ज्वालिनीकल्पके कर्ता इन्द्रनन्दीने जिन दो आचार्यों के पाससे इस मन्त्रशास्त्रका अध्ययन किया है उनमे एक नाम गुणनन्दी' का भी है, जो सम्भवतः वे ही जान पड़ते हैं जो चन्द्रप्रभचरित के अनुसार अभयनन्दीके गुरु थे, और इस तरह इन्द्रनन्दीक दीक्षा-गुरु बप्पनन्दी, मन्त्रशास्त्रगुरु गुणनन्दी और सिद्घान्तशास्त्र-गुरु अभयनन्दी हो जाते है । यदि यह सब कल्पना ठीक है तो इससे नेमिचंद्रके गुरु इन्द्रनन्दीका ठीक पता चल जाता है, जिन्हें गोम्मटसार (क० ७८५) मे श्र तसागरका पारगामी लिखा है। नेमिचन्द्र ने अपने एक गुरु कनकनन्दि भी लिखे है और बतलाया है कि उन्होंने इन्द्रनन्दिके पाससे सकल सिद्धान्तको सुनकर सत्वस्थान' की रचना की है । यह सत्वस्थान प्रथ विस्तरसत्वत्रिभंगी' के नामसे श्राराके जैन-सिद्धान्त-भवनमें मौजूद है, जिसका मैने कई वर्ष हुए अपने निरीक्षणके समय नोट ले लिया था। पं० नाथूरामजी प्रेमीने इन कनकनन्दीको भी अभयनन्दीका शिष्य बतलाया है, परन्तु यह ठीक मालूम नहीं होता, क्योंकि कनकनन्दीके उक्त प्रथपरसे इसकी कोई उपलब्धि नहीं होती-उसमे साफतौरपर इन्द्रनन्दी को ही गुरुरूपसे उल्लेखित किया है। इस सत्वस्थान ग्रन्थको नेमिचद्रने अपने गोम्मटसारक तीसरे सत्वस्थान अधिकारमे प्राय ज्यो-का-त्यों अपनाया है-आराकी उक्त प्रतिके अनुसार प्रज्ञानावामलोद्यत्पगुणगणभृतोत्कीर्ण विस्तीर्णमिद्धान्ताम्भोराशिस्त्रिलाक्त्राम्बुजवनविचरत्सद्यशोगजसः ॥ १ ॥ यवृत्तं दुरितारिसेन्यहनने चण्डासिधागयितम् चित्त यस्य शरत्सरत्मलिलवत्स्वच्छ सदा शीतलम् । कीर्ति शारदकौमुदी शशिभूनो ज्योत्स्नेव यस्याऽमला स श्रीवासवनन्दिसन्मुनिपति' शिष्यस्तदीयो भवेत् ॥ २ ॥ शिष्यस्तस्य महात्मा चतुग्नुयोगेषु चतुरमतिविभवः । श्रीवप्पणंदिगुरुरिति बुधनिषेवितपदान्जः ॥ ३ ॥ लोके यस्य प्रसादादजनि मुनिजनस्तत्पुराणार्थवेदी यस्याशास्तभमूर्धन्यति विमल यश:श्रीवितानो निबद्धः । कालास्ता येन पौगणिककविवृषभा द्योतितास्तत्पुराणव्याख्यानाद् बापण दिप्रथितगुणगणस्तस्य किं वय॑तेऽत्र ||४|| शिष्यस्तस्येन्द्रनदिविमलगुणगणोद्दामघामाभिराम: प्रजातीक्ष्णास्त्र-धारा-विदलित-बहलाऽज्ञानवल्लीवितानः । जैने सिद्धान्तवाधौ विमलितहृदयस्तेन सद्ग्रंथतोऽयम् हैलाचार्योंदितार्थो व्यरचि निरुपमो ज्वालिनीमत्रवादः ॥ ५ ॥ श्रष्टशतस्यै(स)कषष्ठिप्रमाणशकवत्सरेप्वतीतेषु । श्रीमान्यखेटकटके पर्वण्यक्षयतृतीयायाम् ॥ १ कन्दर्पण ज्ञात तेनाऽपि स्वसुत निर्विशेषाय । • गुणनदिश्रीमुनये व्याख्यात मोपदेशं तत् ॥ २ ॥ पार्वे तयोद्वयोरपि तच्छास्त्रं अन्यतोऽर्थतश्चापि । मुनिनेन्द्रनन्दिनाम्ना सम्यगादितं विशेषेण ॥ २५ ॥ २ वरइदणंदिगुरुणो पासे सोऊण सयल-सिद्धंत । सिरिकणयणंदिगुरुणा सत्तठाणं समुद्दिट्ठ ॥क०३६६॥ ३ देखो, जैनसाहित्य और इतिहास पृ० २६६ । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना प्रायः गाथाएँ छोड़ी गई हैं, शेष सब गाथाओंको, जिनमें मंगलाचरण और अन्तकी गाथाएँ /भी शामिल हैं, ग्रंथका अंग बनाया गया है और कहीं-कहीं उनमें कुछ क्रमभेद भी किया गया है। यहाँ मैं इस विषयका कुछ विशेष परिचय अपने पाठकोंको दे देना चाहता हूँ, जिससे उन्हें इस ग्रंथकी संग्रह-प्रकृतिका कुछ विशेष बोध हो सके : रायचद्र-जैनशास्त्रमाला संवत् १९६६ के संस्करणमें इस अधिकारकी गाथासंख्या ३५८ से ३६७ तक ४० दी है, जबकि आराकी उक्त ग्रंथ-प्रतिमें वह ४८ या ४६ पाई जाती है। आठ गाथाएं जो उसमें अधिक हैं अथवा गोम्मटसारमे जिन्हें छोड़ा गया है वे निम्न प्रकार हैं। गोम्मटसारकी जिस गाथाके बाद वे उक्त ग्रंथ-प्रतिमें उपलब्ध हैं उसका नम्बर शुरूमे कोष्टकके भीतर दे दिया गया है :(३६०) घाई तियउज्जोवं थावर वियलं च ताव एइंदी। णिरय-तिरिक्ख दु सुहुमं साहरणे होइ तेसट्ठी ॥ ४ ॥ (३६४) णिरयादिसु भुज्जेगं बंधुदगं बारिवारि दोरणेत्थ पुणरुत्तसमविहीणा आउगभंगा हु पज्जेव ॥३॥ णिरयतिरयाणु णेरइ पणहाउ(१) तिरियमणुयाऊ य तेरिच्छिय-देवाऊ माणुस-देवाउ एगेगे ॥ १० ॥ (३७५) वध(बद्ध)देवाउगुवसमसद्दिठी वंधिऊण आहा। सो चेव सासणे जादो तरिसं पुण बंध एक्को दु ॥ २२ ॥ तस्से वा बंधाउगठाणे भगा दु भुज्जमाणम्मि । मणुवाउम्मि एक्को देवेसुववणगे (?) विदियो ॥२३॥ । (३७६) मणुवणिरयाउगे णरसुराये (?) णिरागबंधम्मि । तिरयाऊण तिगिदरे मिच्छव्वणम्मि (?) भुज्जमणुसाऊ ॥२८॥ (३८०) पुन्छ त्तपणपणाउगभगा बंधस्स भुज्जमणुसाऊ । अण्णतियाऊसहिया तिगतिगचउणिरयतिरियाऊण ॥ ३० ॥ (३६०) विदियं तेरसबारमठाणं पुणरुत्तमिदि विहाय पुणो । दुसु सादेदरपयडी परियणदो दुगदुगा भंगा ॥४१॥ उक्त ग्रन्थप्रतिकी गाथाएं न० १५, १६, १७ गोम्मटसारमें क्रमशः नं० ३६८, ३६६, ३७० पर पाई जाती है; परन्तु गाथा न० १४ को ३७१ नम्बरपर दिया है, और इस तरह गोम्मटसारमे क्रमभेद किया गया है। इसी तरह २५, २६, नं० की गाथाओंको भी क्रमभेद करके नं० ३७८, ३७७ पर दिया है। J१ अन्तकी दो गाथाएँ वे ही हैं जिनमेंसे एकमें इन्द्रनन्दीसे सकल-सिद्धान्तको सुनकर कनकनन्दीके द्वारा सत्वस्थानके रचे जानेका उल्लेख है और दूसरी 'जह चक्केण य चक्की' नामकी वह गाथा है जिसमें चक्री की तरह षट्खण्ड साधनेकी बात है और जिससे कनकनन्दीका भी 'सिद्धातचक्रवर्ती' होना पाया जाता है-श्राराकी उक्त प्रतिमें अन्यको 'श्रीकनकनन्दि-सैद्धान्तचक्रवर्तिकृत' लिखा भी है । ये दो! गाथाए कर्मकाण्डकी गाथा न० ३६६ तथा ३६७ के रूपमें पीछे उद्धृत की जा चुकी हैं। सख्याङ्क ४६ दिये हैं परन्तु गाथाए ४८ हैं इससे या तो एक गांथा यहाँ छूट गई है और या सख्याक गलत पड़े हैं । हो सकता है कि गिरयाऊ-तिरियाऊ' नामको वह गाथा ही यहाँ छूट गई हो जो श्रागे उल्लेखित एक दूसरी प्रतिमें पाई जाती है। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची आराके उक्त भवनमे एक दूसरी प्रति भी है, जिसमे तीन गाथाएं और अधिक हैं और चे इस प्रकार हैं: तिन्थसमे णिधिमिच्छे बद्धाउसि माणुमीगदी एग । मणुवणिरयाऊ भंगु पज्जत्ते भुज्जमाणणिरयाऊ ॥१५॥ णिरयदुगं तिरियदुगं विगतिगचउरक्खजादि थीणतियं । . उज्जोवं श्रादाविगि साहारण सुहुम थावरयं ॥३६॥ मझड कसाय संढं थीवेदं हस्सपमुहलकमाया । पुरिसो कोहो मायो अणियट्टी भागहीणपयडीओ ॥४०॥ (हालमे उक्त सत्वस्थानकी एक प्रति संवत् १८०७ को लिखी हुई मुझे पं० परमानन्दजीके पाससे देखनेको मिली जो दूसरे त्रिभंगी आदि प्रथोंके साथ सवाई जयपुर में लिखी गई एक पत्राकार प्रति है और जिसके अन्तमे ग्रन्थका नाम 'विशेषसत्तात्रिभंगी' दिया है। इस प्रथप्रतिमे गाथा-संख्या कुल ४१ है, अतः इस प्रतिके अनुसार गोम्मटसारके उक्त अधिकारमे केवल एक गाथा ही छूटी हुई है और वह ‘णारकछक्कल्वेल्ले' नामका गाथा (क० ३७०) के अनन्तर इस प्रकार है. सिरियाऊ तिरयाऊ गिरिय-गराऊ तिरय-मणुवायु । तेरंचिय-देवाऊ माणस-देवाउ एगेगं ॥ १५ ॥ शेष गाथाओका क्रम प्राराकी प्रतिके अनुरूप ही है, और इससे गोम्मटसारमे किये गये क्रमभेदकी बातको और भी पुष्टि मिलती है। यहाँ पर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि सत्वस्थान अथवा सत्व (सत्ता)त्रिभंगीकी उक्त प्रतियोंमें जो गाथाओंकी न्यूनाधिकता पाई जाती है उनके तीन कारण हो सकते हैं-(१) एक तो यह कि, मूलमे आचार्य कनकनन्दीने प्रथको ४० या ४१ गाथा-जितना ही निर्मित किया हो, जिसकी कापियाँ अन्यत्र पहुंच गई हों और वादको उन्होंने उसमे कुछ गाथाएं और बढ़ाकर उसे विस्तरसत्वत्रिभंगी' का रूप उसी प्रकार दिया हो जिस प्रकार द्रव्यसंग्रहके कर्ता नेमिचन्द्रने, टीकाकार ब्रह्मदेवके कथनानुसार, अपनी पूर्व-रचित २६ गाथाओंमे ३२ गाथाओकी वृद्धि करके उसे वर्तमान-द्रव्यसग्रहका रूप दिया है। और यह कोई अनोखी अथवा असभव बात नहीं है, आज भी ग्रन्थकार अपने प्रथोंके सशोधित और परिवर्धित संस्करण निकालते हुए देखे जाते हैं । (२) दूसरा यह कि बादको अन्य विद्वानोने अपनी-अपनी प्रतियोंमे कुछ गाथाओंको किसी तरह बढ़ाया अथवा प्रक्षिप्त किया हो। परन्तु इस वाक्यसूची के दूसरे किसी भी मूल प्रथमें उक्त बारह गाथा ओमेसे कोई गाथा उपलब्ध नहीं होती, यह बात खास तौरसे नोट करने योग्य है।/। और (३) तीसरा कारण यह कि प्रतिलेखकोंके द्वारा लिखते समय कुछ गाथाए छूट गई हा, जैसा कि बहुघा देखनेमे आता है। (ग) प्रकृतिसमुत्कीर्तन और कर्मप्रकृति इस ग्रंथके कर्मकाण्डका पहला अधिकार पयडिसमुक्त्तिण' (प्रकृतिसमुत्कीतन) नामका है, जिसमे मुद्रित प्रतिके अनुसार ८६ गाथाएं पाई जाती हैं । इस अधिकारको जव १ देखो, ब्रह्मदेव-कृत टीकाकी पीठिका । २ सूचीके समय पृथकपमें इस सत्वत्रिभो ग्रंथकी कोई प्रति अपने सामने नहीं थी और इसीसे इसके वाक्योंको सूचीमें शामिल नहीं किया जा सका। उन्हें अब यथास्थान बढाया जा सकता है। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना पढ़ते हैं तो अनेक स्थानों पर ऐसा महसूस होता है कि वहाँ मूलग्रंथका कुछ अंश त्रुटित है-छूट गया अथवा लिखनेसे रह गया है-, इसीसे पूर्वाऽपर कथनोकी सगति जैसी चाहिये वैसी ठीक नहीं बैठतो और उससे यह जाना जाता है कि यह अधिकार अपने वर्तमान रूप में पूर्ण अथवा सुव्यवस्थित नहीं है । अनेक शास्त्र-भंडारोंमे कर्मप्रकृति (कम्मपयडी), प्रकृतिसमुत्कीर्तन, कर्मकाण्ड अथवा कर्मकाण्डका प्रथम अंश जैसे नामों के साथ एक दुसरा अधिकार (प्रकरण) भी पाया जाता है, जिसकी सैकड़ोप्रतियाँ उपलब्ध हैं औरजो उस अधिकारके अधिक प्रचारका द्योतन करती हैं। साथ ही उसपर टीका-टिप्पण भी उपलब्ध है/ और उनपरसे उसकी गाथा-संख्या १६० जानी जाती है तथा ग्रंथ-कर्ताका नाम 'नेमिचन्द्र निद्धान्तचक्रवर्ती भी उपलब्ध होता है । उसमे ७५ गाथाएँ ऐसी हैं जो इस अधिकारमे नहीं पाई जातीं। उन बढ़ी हुई गाथाओंमेसे कुछ परसे उन अंशोंकी पूर्ति हो जाती है जो टित समझे जाते हैं और शेषपरसे विशेष कथनोकी उपलब्धि होती है। और इसलिये पं० परमानन्दजी शास्त्रीने 'गोम्मटसार कर्मकाण्डकी त्रुटि-पूर्ति' नामका एक लेख लिखा, जो अनेकान्त वर्ष ३ किरण ८-६ में प्रकाशित हुआ है और उसके द्वारा त्रुटियोंको तथा कर्मप्रकृतिकी गाथाओंपरसे उनकी पूर्तिको दिखलाते हुए यह प्रेरणा की कि कमप्रकृति की उन बढ़ी हुई गाथाओंको कर्मकाएडमें शामिल करके उसकी त्रुटिपूर्ति कर लेनी चाहिये। यह लेख जहाँ पण्डित कैलाशचन्द्रजी आदि अनेक विद्वानोंको पसन्द आया वहाँ प्रो० हीरालालजी एम० ए० आदि कुछ विद्वानोंको पसन्द नहीं आया, और इसलिये प्रोफेसर साहबने इसके विरोधमे पं० फूलचन्दजी शास्त्री तथा पं० हीरालालजी शास्त्रीके सहयोगसे एक लेख लिखा, जो 'गो० कर्मकाण्डकी त्रुटिपर विचार' नामसे अनेकान्तके उसी वर्षकी किरण ११ मे प्रकट हुआ है और जिसमें यह बतलाया गया है कि 'उन्हें कर्मकाण्ड अधूरा मालूम नहीं होता, न उससे उतनी गाथाओंके छूट जाने व दूर पड जानेकी संभावना जॅचता है और न गोम्भटसारके कता-द्वारा ही कर्मप्रकृतिके रचित होनेके कोई पर्याप्त प्रमाण दृष्टिगोचर होये हैं, ऐसी अवस्थामे उन गाथाओको कमकाण्डमे शामिल कर देनेका प्रस्ताव बड़ा साहसिक प्रतीत होता है।' इसके उत्तरमे पं० परमानन्दजीने दूसरा लेख लिखा, जो अनेकान्तकी अगली १२ वी किरणमे 'गो० कर्मकाण्डकी त्रुटि-पूर्तिके विचार पर प्रकाश' नामसे प्रकाशित हुआ है और जिसमे अधिकारके अधूरेपनको कुछ और स्पष्ट किया गया, गाथाओंके छूटनेकी संभावनाके विरोधका परिहाहर करते हुए प्रकारान्तरसे उनके छूटनेकी .. सभावनाको व्यक्त किया गया और टीका-टिप्पणके कुछ अंशोंको उद्धृत करके यह स्पष्ट करनेका यत्न किया गया कि उनमे ग्रन्थकाकर्ता 'नेमिचन्द्रसिद्धान्ती' 'नेमिचन्द्रसिद्धान्तदेव' ५ (क) संस्कृत टीका भट्टारक ज्ञानभूषणने, जो कि मूलसंघी भ० लक्ष्मीचन्द्र के पट्टशिष्य वीरचन्द्रके वशमें _ हुए हैं, सुमतिकीर्तिके सहयोग से बनाई है और टीकामें मूल ग्रथका नाम 'कर्मकाण्ड' दिया है: तदन्वये दयाम्भोधिनिभूषो गुणाकर । टीका हि कर्मकाण्डस्य चक्रे सुमतिकीर्तियुक् ।। प्रशस्ति (ख) दूसरी भाषा टीका पं० हेमराजकी बनाई हुई है, जिसकी एक प्रति सं० १८२६ की लिखी हुई तिगोडा जि० सागरके नैन मन्दिर में मौजूद है। (अनेकान्त वर्ष ३, किरण १२ पृष्ठ ७६४) (ग) सटिप्पण-प्रति शाहगढ जि० सागरके सिंधीजीके मन्दिरमें सवत् १५२७ की लिखी हुई है, जिसकी अन्तिम पष्पिका इस प्रकार है:"इति श्रीनेमिचन्द्र-सिद्धान्त-चक्रवर्ति-विरचित-कर्मकाण्डस्य प्रथोशः समाप्तः । शुभ भवतु लेखकपाठकयोः श्रय सवत् १५२७ वर्षे माधवदि १४ रविवारे।" (अनेकान्त वर्ष ३, कि० १२ पृ० ७६२-६४) Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरान-जैनवाक्य-सूची ही नहीं, किन्तु 'नेमिचन्द्र-सिद्धान्तचक्रवर्ती' भी लिखा है और ग्रन्थको टीकामे 'कर्मकाण्ड' तथा टिप्पणमे 'कर्मकाण्डका प्रथम अंश' सूचित किया है। साथही, शाहगढ़ जि. सागरके सिंघईजीके मन्दिरकी एक ऐसी जीर्ण-शीर्ण प्रतिका भी उल्लेख किया है जिसमें कर्मकाण्डके शुरूके दो अधिकार तो पूरे हैं और तीसरे अधिकारकी ४० मेसे २५ गाथाएं हैं, शेष ग्रन्थ संभवतः अपनी अतिजीणेताके कारण टूट-टाट कर नष्ट हुआ जान पड़ता है । इसके प्रथम अधिकारमे वे ही १६० गाथाएं पाई जाती हैं जो कर्मप्रकृतिमे उपलब्ध हैं और इस परसे यह घोषित किया गया कि कर्मप्रकृतिको जिन गाथाओंको कर्मकाण्डमे शामिल करनेका प्रस्ताव रखा गया है वे पहलेसे कमकाण्डकी कुछ प्रतियोंमे शामिल हैं अथवा शामिल करली गई । इस लेखके प्रत्युत्तरमे प्रो० हीरालालजीन एक दूसरा लेख और लिखा, जो 'गोम्मटसार-कर्मकाण्डकी त्रुटिपूति-सम्बन्धी प्रकाशपर पुनः विचार' नामसे जेनसन्देश भाग ४ के अङ्क ३२ आदिमे प्रकाशित हुआ है और जिसमे अपनी उन्हीं बातोंको पुष्ट करने का यत्न किया गया है और गोम्मटसार तथा कर्मप्रकृतिके एककर्तृत्वपर अपना सन्देह कायम रक्खा गया है; परन्तु कल्पना अथवा संभावनाके सिवाय सन्देहका कोई खास कारण व्यक्त नहीं किया गया। टिपूर्ति-सम्बन्धी यह चर्चा जब चल रही थी तब उससे प्रभावित होकर पूर लोकनाथजी शास्त्रीने मूडबिद्रीके सिद्धान्त-मन्दिरके शास्त्र-भण्डार में, जहां धवलादिक सिद्धान्तग्रंथोंकी मूलप्रतियाँ मौजूद हैं, गोम्मटसारकी खोज की थी और उस खोज के नतीजेसे मुझे ३० दिसम्बर सन १९५० को सूचित करनेकी कृपा की थी, जिसके लिये मैं उनका बहुत आभारी हूँ। उनकी उस सूचनापरसे मालूम होता है कि उक्त शास्त्रभंडारमें गोम्मटसारके जीवकाण्ड और कर्मकाण्डकी मूलप्रति त्रिलोकसार और लघिसार-क्षपणासार सहित ताडपत्रोपर मौजूद है । पत्र-सख्या जीवकाण्डकी ३८, कर्मकाण्डकी ५३, त्रिलोकसार की ५१ और लब्धिसार-क्षपणासारकी ४१ है । ये सब ग्रंथ पूर्ण हैं और इनकी पद्य-सख्या क्रमशः ७३०, ८७२, १०१८, ८२० है ताडपत्रोंकी लम्बाई दो फुट दो इञ्च और चौडाई दो इन्च है। लिपि 'प्राचीन कन्नड' है, और उसके विषयमे शास्त्रीजीने लिखा था "ये चारों ही ग्रंथोंमे लिपि बहुत सुन्दर एवं धवलादि, सिद्धान्तोंकी लिपिके समान है। अतएव बहुत प्राचीन हैं । ये भी सिद्धान्त लिपि-कालीन ही होना चाहिये। साथ ही, यह भी लिखा था कि "कर्मकाण्डमे इस समय विवादस्थ कई गाथाएं (इस प्रतिमे) सूत्र रूपमे हैं" और वे सूत्र कर्मकाण्डके 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' अधिकारकी जिसजिस गाथाके बाद मूलरूपमे पाये जाते हैं उसकी सूचना माथमे देते हुए उनकी एक नकल भी उतार कर उन्होने भेजी थी। इस सूचनादिको लेकर मैंने उस समय नटिपूर्ति-विषयक नई खोज' नामका एक लेख लिखना प्रारम्भ भी किया था परन्तु समयाभावादि कुछ कारणोके वश वह पूरा नहीं हो सका और फिर दोनो विद्वानोकी ओरसे चर्चा समाप्त होगई, इससे उसका लिखना रह ही गया । अस्तु; आज मैं उन सूत्रोमेसे आदिके पॉच स्थलोंके सूत्रोंको, स्थल-विषयक सूचनादिके साथ नमुनेके तौरपर यहॉपर दे देना चाहता हूँ, जिससे पाठकोंको उक्त अधिकारकी त्रुटिपूर्तिके विषयमे विशेष विचार करनेका अवसर मिल सके कर्मकाण्डकी २२वीं गाथामे ज्ञानावरणादि आठ मृल कर्मप्रकृतियोंकी उत्तरकमप्रकृति-संख्याका ही क्रमशः निर्देश है-उत्तरप्रकृतियों के नामादिक नहीं दिये और न आगे ही संख्यानुसार अथवा संख्याको सूचनाके साथ उनके नाम दिये हैं । २३ वी गाथामे क्रम- रायचन्द्र-जैनशास्त्रमालामे प्रकाशित जीवकाण्डमे ७३३, कर्मकाण्डमें १७२ और लब्धिसार-क्षपणासारम ६४६ गाथा सख्या पाई जाती है । मुद्रित प्रतियोंमें कौन-कौन गाथाएं बढी हुई तथा घटी हुई हैं उनका लेखा यदि उक्त शास्त्रीजी प्रकट करें तो बहुत अच्छा हो। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ७७ प्राप्त ज्ञानावरणकी ५ प्रकृतियोंका कोई नामोल्लेख न करके और न उस विषयकी कोई सूचना करके दर्शनावरणकी प्रकृतियोंमेसे स्त्यानगृद्धि आदि पाँच प्रकृतियों के कार्यका निर्देश करना प्रारम्भ किया गया है, जो २५ वीं गाथा तक चलता रहा है । इन दोनो गाथाओंके मध्यमे निम्न गद्यसूत्र पाये जाते हैं, जिनमें ज्ञानावरणीय तथा दर्शनावरणीयकर्मो. की उत्तर प्रकृतियोंका संख्याके निर्देशसहित स्पष्ट उल्लेख है और जिनसे दोनों गाथाओंका सम्बन्ध ठीक जुड़ जाता है। इनमेंसे ! त्येक सूत्र ‘चेइ' अथवा 'चेदि पर समाप्त होता है:___ "णाणावरणीयं दंसणावरणीयं वेदणीयं [ मोहीयं ] आउगं णामं गोदं अंतरायं चेइ । तत्थ णाणावरणीयं पचविहं आभिणिवोहिय-सुद-प्रोहि-मणपजव-णाणावरणीयं केवलणाणावरणीयं चेड । दमणावरणीयं णवविहं थीणगिद्धि णिहाणिद्दा पयलापयला णिहा य पयला य चक्खु-अचक्खु-ओहिदसणावरणीयं केवलदसणावरणीयं चेइ ।" । इन सूत्रोंकी उपस्थितिमे ही अगली तीन गाथाओमे जो स्त्यानगृद्धि आदिका क्रमशः "निर्देश है वह सगत वैठता है, अन्यथा तत्त्वार्थसूत्रमे तथा षटखण्डागमकी पयडिसमुक्कित्तणचूलियामे जब उनका भिन्नक्रम पाया जाता है तब उनके इस क्रमका कोई व्यवस्थापक नहीं रहता । अतः २३, २४, २५ नम्बरकी गाथाओंके पूर्व इन सूत्रोकी स्थिति आवश्यक जान पड़ती है। २५वीं गाथामे दर्शनावरणीय कर्मकी । प्रकृतियोंमे 'प्रचला' प्रकृतिके उदयजन्य कार्यका निर्देश है। इसके बाद क्रमप्राप्त वेदनीय तथा मोहनीयको उत्तर-प्रकृतियोंका कोई नामोल्लेख तक न करके एकदम २६ वीं गाथामे यह प्रतिपादन किया गया है कि मिथ्यात्वद्रव्य (जो कि मोहनीय कर्मका दर्शनमोहरूप एक प्रधान भेद है ) तीन भेदोंमे कैसे वॅटकर तीन प्रकृतिरूप हो जाता है। परन्तु जब पहलेसे मोहनीयके दो भेदो और दर्शनमोहनीय के तीन उपभेदोंका कोई निर्देश नहीं तव वे तीन उपभेद कैसे हो जाते हैं यह बतलाना कुछ खटकता हुआ जरूर जान पड़ता है, और इसीसे दोनों गाथाओंके मध्यमें किसी अंश के त्रुटित होनेकी कल्पना की जाती है। मूडबिद्रीकी उक्त प्राचीन प्रतिमे, दोनों के मध्यमे निम्न गद्य-सूत्र उपलब्ध होते हैं, जिनसे उक्त त्रुटित अशकी पूर्ति हो जाती है: "वेदनीयं दुविहं सादावेदणीयमसादावेदणीयं चेइ । मोहणीय दुविहं दंसणमोहणीयं चारित्तमोहणीयं चेइ । दसणमोहणीयं बंधादो एयविहं मिच्छत्तं, उदयं संतं पडुच्च तिविहं मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं मम्मत्तं चेइ ।" । . उक्त दर्शनमोहनीयके भेदोंकी प्रतिपादक २६वीं गाथाके बाद चारित्रमोहनीयकी मूलोत्तर-प्रकृतियों, आयुकर्मकी प्रकृतियों और नामकर्मकी प्रकृतियोका कोई नाम निर्देश न करके २७वीं गाथामे एकदम किसी कर्मके १५ संयोगी भेदोंको गिनाया गया है, जो नामकर्मकी शरीर-बन्धनप्रकृतियोसे सम्बन्ध रखते हैं, परन्तु वह कर्म कौनसा है और उसकी किन किन प्रकृतियोके ये सयोगी भेद होते हैं, यह सब उसपरसे ठीक तौर पर जाना नहीं जाता। और इसलिये वह अपने कथनकी सङ्गति के लिये पूर्व में किसी ऐसे कथनके अस्तित्वकी कल्पनाको जन्म देती है जो किसी तरह छुट गया अथवा त्रुटित हो गया है । वह कथन मूडबिद्रीकी उक्त प्रतिमे निम्न गद्यसूत्रों में पाया जाता है, जिससे उत्तर-कथनकी संगति ठीक बैठ जाती है, क्योंकि इनमे चारित्र-मोहनीयकी २८, आयुकी ४ और नामकर्मकी मूल ४२ प्रकृतियोका नामोल्लेख करनेके अनन्तर नामकर्मके जाति आदि भेदोंकी उत्तर Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची प्रकृतियोंका उल्लेख करते हुए शरीर-बन्धन नामकर्मकी पॉच प्रकृतियों तक ही कथन किया गया है :___ "चारित्तमोहणीयं दुविहं कसाययेदणीयं णोकसाययेदणीयं चेइ । कसायवेदणीयं सोल सविहं खवणं पडुच्च अणंताणुबांधि-कोह-माण-माया-लोह अपञ्चक्खाणपञ्चक्खाणावरण-कोह-माण-माया-लोहं कोह-सांजलणं माण-संजलणं माया-जिल लोह-सांजलणं चेइ । पक्कमदळां पडुच्च अणंताणुवांधि-लोह-कोह-माया-माणं संजलणलोह-माया-कोह-माणं पच्चक्खाण-लोह-कोह-माया-मारणं अपच्चक्वाण-लोह-कोहमाया-माण चेइ । णोकसायवेदीयं णवविहं पुििसत्थिणउसययेद रदि-अरदि-हस्ससोग-भय-दुगुछा चेदि । आउगं चउविहं णिरयायुगं तिरिवख-माणुस्स-देवाउगं चेदि । णामं बादालीसं पिडापिडपयडिभेयेण गयि-जयि-सरीर-बधण-सघाद-संठाण-अंगोवगसंघडण-वरण-गंध- रस-फास-आणुपुच्ची-अगुरुगलहुगुवघाद-परघाद-उस्सास - आदावउज्जोद-विहायगाय-तस-थावर-बादर-सुहुम-पज्जत्तापज्जत्त-पत्तेय-साहारण सरीर-थिथिरसुभासुभ-सुभग - दुब्भग-सुस्सर-दुस्सर-श्रादेज्जाणादेज्ज-जसाजसकित्तिणिमिण-तित्थयरणामं चेदि । तत्थ गयिणाम चउविहं णिरयतिरिक्खगयिणाम मणुस-देवर्गायणाम चेदि । जायिणाम पचविह एडादय-बीइदिय तीइदिय चउइदिय-जायिणाम पचिदियजायिणामं चेदि । सरीरणाम पचविह ओलिय वेगुम्विय आहार तेज.कम्मइयसरीरणाम चेइ । सरीरवधणणाम पंचविहं ओलिय वेगुध्विय.अाहार-तेज.कम्मइय.सरीरवधणणामं चेइ ।" २७वीं गाथाके बाद जो २८वीं गाथा है उसमे शरीरमे होने वाले आठ अङ्गों के नाम देकर शेषको उपाङ्ग बतलाया है, परन्तु उस परसे यह मालूम नहीं होता कि ये अंग कौनसे शरीर अथवा शरीरोंमे होते है। पूर्वकी गाथा नं० २७ मे शरारबन्धनसम्बन्धी १५ संयोगी भेदोकी सूचना करते हुए तैजस और कार्माण नामके शरीरोका तो स्पष्ट उल्लेख है शेष तीनका 'तिए' पदके द्वारा सकेतमात्र है, परन्तु उनका नामोल्लेख पहलेकी भी किसी गाथामे नहीं है, तब उन अंगो-उपाङ्गोको तैजस और कार्माणके अङ्ग-उपाङ्ग समझा जाय अथवा पॉचोमेसे प्रत्येक शरीरके अङ्ग-उपाङ्ग ? तैजस और कार्माण शरीरके अंगोपांग माननेपर सिद्धान्तका विरोध आता है; क्योकि सिद्धान्तमे इन दोनों शरीरों के अंगोपाग नहीं माने गये हैं और इसलिये प्रत्येक शरीरके अंगोपांग भी उन्हें नहीं कहा जा सकता है । शेष तीन शरीरोंमेसे कौनसे शरीरके अङ्गोपाङ्ग यहाँ विवक्षित हैं यह सदिग्य है । अतः गाथा नं० २८ का कथन अपने विपयमे अस्पष्ट तथा अधूरा है और उसकी स्पष्टता तथा पूर्ति के लिये अपने पूर्वमे किसी दूसरे कथनकी अपेक्षा रखता है । वह कथन मूडबिद्रीकी उक्त प्रतिमे दोनो गाथाओके मध्यमे उपलब्ध होनेवाले निम्न गद्यसूत्रोंमेसे अन्तके सूत्रम पाया जाता है, जो उक्त २५वीं गाथाके ठीक पूर्ववर्ती है और जिसमे औदारिक, वैक्रियिक, आहारक इन तीन शरीरोंकी दृष्टिसे अजोपाग नामकर्मके तीन भेद किये है, और इस तरह इन तीन शरीरोंमे ही अगोपांग होते हैं ऐसा निर्दिष्ट किया है : "सरीरसंघादणाम पचविहोरालिय वेगुब्धिय.आहार तेज-कम्मइय-सरीरसंघादणाम चेदि । सरीरसंठाणणामकम्मं छविहं समचउरसंठाणणामं णगोद-परिमंडल-पादिय Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ७६ कुज्ज-बामण-हुड-सरीसंठाणणामं चेदि । सरीर अंगोवंगणाम तिविहंओरालिय-वेगुचिय. आहारसरीर-अगोवंगणामं चेदि ।" ____यहाँ पर इतना और जान लेना चाहिये कि २७वीं गाथाके पूर्ववती गद्यसूत्रोंमें नामकर्मकी प्रकृतियोंका जो क्रम स्थापित किया गया है उसकी दृष्टिसे ही शरीरबन्धनादिके बाद २८वीं गाथामे अंगोपालका कथन किया गया है, अन्यथा तत्त्वार्थसूत्रकी दृष्टिसे वह कथन शरीरबन्धनादिकी प्रकृतियोके पूर्वमे ही होना चाहिये था; क्योंकि तत्त्वार्थसूत्रमें "शरीराङ्गोपांगनिर्माण-बन्धन-संघात संस्थान-संहनन" इस क्रमसे कथन है। और इससे नामकर्म-विषयक उक्त सूत्रोंकी स्थिति और भी सुदृढ होती है। (२८वीं गाथाके अनन्तर चार गाथाओं ( नं० २९, ३०, ३१, ३२ ) में संहननोंका, जिनकी संख्या छह सूचित की है , वर्णन है अर्थात् प्रथम तीन गाथाओंमे यह बतलाया है कि किस किस संहननवाला जीव स्वर्गादि तथा नरकोमे कहाँ तक जाता अथवा मरकर उत्पन्न होता है और चौथी (नं० ३२) मे यह प्रतिपादन किया है कि 'कर्मभूमिकी स्त्रियों के अन्तके तीन संहननोका ही उदय रहता है, आदिके तीन संहनन तो उनके होते ही नहीं, ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है। परन्तु ठीक क्रम-आदिको लिये हुए छहों संहननोंके नामोंका उल्लेख नहीं किया-मात्र चार संहननोंके नाम ही इन गाथा ऑपरसे उपलब्ध होते हैं, जिससे 'आदिमतिगसंहडणं', 'अतिमतियसहडणस्स', 'तिदुगेगे सहडणे,' और 'पणचदुरेगसंहडणो' जैसे पदोका ठीक अर्थ घटित हो सकता। और न यही बतलाया है कि ये छहों संहनन कौनसे कर्मकी प्रकृतियाँ हैं-पूर्वकी किसी गाथापरसे भी छहोके नाम नामकर्म के नामसहित उपलब्ध नहीं होते । और इसलिये इन चारों गाथाओंका कथन अपने पूर्वमे ऐसे कथनकी माँग करता है जो ठीक क्रमादिके साथ छह संहननोके नामोल्लेखको लिये हुए हो । ऐसा कथन मूडबिद्रीकी उक्त प्रतिमे २८वीं गाथाके अनन्तर दिये हुए निम्न सूत्रपरसे उपलब्ध होता है: "सहरण णमं छबिह वज्जरिसहणारायसहडणणामं वज्जणाराय-णाराय-श्रद्धणाराय-खीलिय-असपत्त-सेवट्टि सरीरसहडणणामं चेड ।" यहाँ संहननोंके प्रथम भेदको अलग विभक्तिसे रखना अपनी खास विशेषता रखता है और वह ३०वीं गाथामे प्रयुक्त हुए 'इग' 'एग' शब्दों के अर्थको ठीक व्यवस्थित करनेमे समर्थ है। इसी तरह, मृडबिद्रीकी उक्त प्रतिमें, नामकर्मकी अन्य प्रकृतियोके भेदाऽभेदको लिये हुए तथा गोत्रकर्म और अन्तरायकर्मकी प्रकृतियोंको प्रदर्शित करनेवाले और भी गद्यसूत्र यथास्थान पाये जाते है, जिन्हें स्थल-विशेषकी सूचनादिके विना ही मैं यहाँ, पाठकोंकी जानकारीके लिये उद्धृत कर देना चाहता हूँ ___ "वएणणाम प वह किएण-णील-रुहिर-पीद-सुविकल-वएणणाम चेदि । गंधणाम दुविह सुगध-दुगघ-णामं चेदि । रसणाम पंचविहं तिह-कह-कसायंबिल-महुर-रसणाम चेइ। , फासणाम अट्टविह कक्कड-मउगगुरुल हुग-रुक्ख-सणिद्ध-सीदुसुण-फासणाम चेदि । आणुपुवीणामं चविहं णिरय-तिरक्खगाय-पाओग्गाणुपुवीणाम मणुस-देवगाय-पाओग्गाणुपुवीणाम चेइ । अगुरुलघुग-उवघाद-परघाद-उस्सास-आदव-उज्जोद-णाम चेदि । विहायगदिणामकम्म दुविह पसत्थविहायगदिणाम अप्पसत्थविहायगदिणाम चेदि । तस-बादरपज्जत्त-पत्तेय-सरीर-सुभ-सुभग - सुस्सर-आदेज-जसकित्ति-णिमिण - तित्थयरणाम चेदि । थावर-सुहुम-अपज्जत्त-साहारण-सरीर • अथिर - असुह-दुभग • दुस्सर - अणादेज - अज Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० पुरातन-जैनवाक्य-सूची सकित्तिणाम चेदि । *. 'गोदकम्मं दुविहं उच्च-णीचगोदं चेइ । अंतरायं पंचविहं दाण-लाभभोगोपभोग-वीरिय-अंतरायं चई।" मूडबिद्रीकी उक्त प्रतिमे पाये जाने वाले ये सब सूत्र पट्खण्डागमके सूत्रोंपरसे थोड़ा बहुत संक्षेप करके बनाये गये मालूम होते है, अन्यत्र कहीं देखनेमे नहीं आते और अन्थके पूर्वाऽपर सम्बन्धको दृष्टिमें रखते हुए उसके आवश्यक अंग जान पड़ते हैं, इसलिये इन्हें प्रस्तुत ग्रन्थके कता आचार्य नेमिचन्द्रकी ही कृति अथवा योजना समझना चाहिये। पद्य-प्रधान ग्रन्थोमे गद्यसूत्रो अथवा कुछ गद्य भागका होना कोई अस्वाभाविक अथवा दोषकी बात भी नही है , दूसरे अनेक पद्य-प्रधान ग्रन्थोंमे भी पद्योंके साथ कहीं-कहीं कुछ गद्यभाग उपलब्ध होता है जैसे कि तिलोयपण्णत्ती और प्राकृतपञ्चसंग्रहमें । ऐसा मालूम होता है कि ये गद्यसूत्र टीका-टिप्पणका अंश समझे जाकर लेखकोंकी कृपासे प्रतियोंमे छूट गये हैं और इसलिये इनका प्रचार नहीं हो पाया । परन्तु टीकाकारोकी ऑखोंसे ये सर्वथा ओमल नहीं रहे है-उन्होंने अपनी टीकाओमे इन्हे ज्यो-के-त्यों न रखकर अनुवादितरूपमे रक्खा है, और यही उनकी सबसे बड़ी भूल हुई है, जिससे मूलसूत्रोंका प्रचार रुक गया और उनके अभावमे ग्रंथका यह अधिकार टिपूर्ण जंचने लगा। चुनॉचे कलकत्तासे जनसिद्धान्त-प्रकाशिनी संस्था-द्वारा दो टीकाओंके साथ प्रकाशित इस ग्रंथकी संस्कृत टीकामें (और तदनुसार भाषा टीकामे भी) ये सब सूत्र प्राय 3 ज्यो-के-त्यों अनुवादके रूप में पाये जाते हैं, जिसका एक नमूना २५वीं गाथाके साथ पाये जाने वाले सूत्रोंका इस प्रकार है - ' इस* चिन्हसे पूर्ववर्ती सूत्रोंको गाथा नं० ३२ के बाद के और उत्तरवर्ती सूत्रोको गाया नं० ३३ के बाद के समझना चाहिये। २ तुलनाके लिये दोनोंके कुछ सूत्र उदाहरण के तौरपर नीचे दिये जाते हैं:(क) "वेदणीयस्स कम्मस्स दुवे पयडीयो।” “सादावेदणीयं चेव असादावेदणीय चेव ।" –पटख० १, ६ चू०८ "वेदणीयं दुविहं सादावेदणीयमसादावेदीयं चेह" -गो० क० मूडबिद्री-प्रति (ख) जं त सरीरबंधणणामकम्म तं पंचविहं अोरालिय-सरीरबंधणणामं, वेउन्विय-सरीरबंधणणाम श्राहार-सरीरवधणणाम तेजासरीरबधणणामं कम्मइयसरीरबंधणणामं चेदि । -षट् स्व० १.६ चू०८ "सरीरवंधणणामं पंचविहं पोरालिय-वेगुम्विय-श्राहार-तेज-कम्मइय-सरीरवधणणाम चेह।" -गो०, क० मूडबिद्री-प्रति ३ 'प्राय:' शब्द के प्रयोगका यहाँ श्राशय इतना ही है कि दों एक जगह थोडासा भेद भी पाया जाता है, वह या तो अनुवादादिकी गलती अथवा अनुवाद-पद्धतिसे सम्बन्ध रखता है और या उसे सम्पादनको गलती समझना चाहिये । सम्पादनकी गलतीका एक स्पष्ट उदाहरण २२वीं गाथा-टीकाके साथ पाय जानेवाले निम्न सूत्रमें उपलब्ध होता है"दर्शनावरणीयं नवविध स्त्यानगद्वि-निद्रा निद्रानिद्रा-प्रचला-प्रचलाप्रचला-चक्षुरचक्षरवधिदर्शनावरणाय केवनदर्शनावरणीय चेति ।" इसमें स्त्यानगृद्धि के बाद दो हाईफनों (.) के मध्य में जो 'निद्रा' को रक्खा है उसे उस प्रकार वहाँ न रखकर 'प्रचलाप्रचला' के मध्यमें रखना चाहिये था और इस "प्रचलाप्रचला" के पूर्वमें जो हाई फन है उसे निकाल देना चाहिये था, तभी मूलसूत्रके साथ और ग्रन्थकी अगलो तीन गाथाश्रकि साथ इसकी सगति ठीक बैठ सकती थी। पं० टोडरमल्लनीकी भाषा टीकामें मूलसूत्रके अनुरूप ही अनुवाद किया गया है। अनुवाद-पद्धतिका एक नमूना ऊपर उदधृत मोहनीय-कर्म-विषयक सूत्रमें पाया जाता है, जिसमें 'एकविध' और 'विविध' पदोंको थोड़ा-सा स्थानान्तरित करके रखा गया है । और दूसरा TTT Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना "वेदनीयं द्विविधं सातावेदनीयमसातावेदनीचं चेति । मोहनीयं द्विविधं दर्शनमोहनीयं चारित्रमोहनीयं चेति । तत्र दर्शनमोहनीयं बंध-विवक्षया मिथ्यात्वमेकविधं उदयं सत्वं प्रतीत्य मिथ्यात्वं सम्यग्मिथ्यात्वं सम्यक्त्वप्रकृतिश्चेति त्रिविधं ।" और इससे इन सूत्रों के मूलग्रंथका अंग होनेकी बात और भी सुदृढ हो जाती है। वस्तुत इन सूत्रोंकी मौजूदगीमे ही अगली गाथाओं के भी कितने ही शब्दों, पद-वाक्यों अथवा सांकेतिक प्रयोगोंका अर्थ ठीक घटित किया जा सकता है-इनके अथवा इन जैसे दूसरे पद-वाक्योंके अभावमे नहीं । इस विपयके विशेष प्रदर्शन एवं स्पष्टीकरणको मैं लेखके बढ़ जानेके भयसे ही नहीं, किन्तु वर्तमानमे अनावश्यक समझकर भी, यहाँ छोडे देता हूँ-विज्ञ पाठक उसका अनुभव स्वतः कर सकते है; क्योंकि मैं समझता हूँ इस विपयमे ऊपर जो कुछ लिखा गया और विवेचन किया गया है वह सब इस वातके लिये पर्याप्त है कि ये सब सूत्र मूलपथके अंगभूत हैं और इसलिये इन्हें प्रथमे यथास्थान गाथाओवाले टाइपमे ही पुनः स्थापित करके अथके प्रकृत अधिकारकी त्रुटिको दूर करना चाहिये। अब रही उन ७५ गाथाओकी बात, जो 'कर्मप्रकृति' प्रकरणमे तो पाई जाती हैं किन्तु गोम्मटसारके इस 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' अधिकारमे नहीं पाई जाती, और जिनके विपयमे पं० परमानन्दजी शास्त्रीका यह कहना है कि वे सब कर्मकाण्डकी अंगभूत आवश्यक और संगत गाथाएँ हैं, जो किसी समय लेखकोंकी कृपासे कर्मकाण्डसे छूट गई अथवा उससे जुदी पड़ गई हैं, 'कर्मप्रकृति' जैसे प्रथ-नामोंके साथ प्रचारको प्राप्त हुई हैं, और इस लिये उन्हें फिरसे कर्मकाण्डमे यथास्थान शामिल करके उसकी उस ऋटिको पूरा करना चाहिये जिसके कारण वह अधूरा और लॅडूरा जान पडता है। जहाँ तक मैंने उन विवादस्थ गाथाओंपर, उनके कर्मकाण्डका आवश्यक तथा सगत अंग होने, कमकाण्डसे किसी समय छूटकर कर्म-प्रकृतिके रूपमे अलग पड़ जाने और कर्मकाण्डमे उनके पुनः प्रवेश कराने आदिके प्रश्नोंको लेकर, विचार किया है मुझे प्रथम तो यह मालूम नहीं हो सका कि 'कर्मप्रकृति' प्रकरण और 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' अधिकार दोनोको एक कैसे समझ लिया गया है, जिसके आधारपर एकमे जो गाथाएं अधिक हैं उन्हें दूसरेमे भी शामिल करानेका प्रस्ताव रखा गया है, जब कि कर्मप्रकृतिमे प्रकृतिसमुत्कीर्तन अधिकारसे ७५ गाथाएं अधिक ही नहीं बल्कि उसकी ३५ गाथाएं (न० ५२ से ८६ तक) कम भी हैं, जिन्हें कर्मप्रकृतिमे शामिल करनेके लिये नहीं कहा गया, और इसी तरह २३ गाथाएं नमूना २२वीं गाथाकी टीकामें उपलब्ध होता है, जिसका प्रारम्भ 'ज्ञानावरणादीना यथासंख्यमुत्तरभेदाः पन नव' इत्यादि रूपसे किया गया है, और इसलिये मूलक के नाम-विषयक प्रथम सूत्रके ('तत्य' शब्द सहित) अनुवादको छोड दिया है; जब कि प० टोडरगल्लजीकी टीकामें उसका अनुवाद किया गया है और उसमें ज्ञानावरणीय श्रादि कर्मोके नाम देकर उन्हें "श्राठ मूलप्रकृति" प्रकट किया है, जो कि सगत है और इस बातको सूचित करता है कि उक्त प्रथम सूत्रमें या तो उक्त श्राशयका कोई पद त्रुटित है अथवा 'मोहणीय' पदकी तरह उद्धृत होनेसे रह गया है । इसके सिवाय, 'शरीरबन्धन' नामकर्मके पाच भेदोंका जो सूत्र २७वीं गाथाके पूर्व पाया जाता है उसे टीकामें २७वीं गाथाके अनन्तर पाये जाने वाले सूत्रोंमें प्रथम रक्खा है और इससे 'शरीग्बन्धन' नामकर्मके जो १५ मेद होते थे वे 'शरीर' नामकर्मके १५ भेद हो जाते हैं, जो कि एक सैद्धान्तिक गलती है और टीकाकारद्वारा उक्त सूत्रको नियत स्थानपर न रखनेके कारण २७ वी गाथाके अर्थ में घटित हुई है, क्योंकि पटखण्डागममें भी 'पोरालिय-श्रोगलिय-सरीरबधो' इत्यादि रूपसे १५ भेद शरीरबन्धके ही दिये हैं और उन्हें देकर श्रीवीरसेनस्वामीने धवला-टीकामें साफ लिखा है"एसो परणासविहो बधो सो सरीरबधो त्ति घेत्तवो।" Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ पुरातन- जैनवाक्य-सूची कर्मकाण्डके द्वितीय अधिकारकी (नं० १२७ से १४५, १६३, १८०, १८१, १८४) तथा ११ गाथाएं छठे अधिकारकी (नं० ८०० से ८१० तक) भी उसमें और अधिक पाई जाती है, जिन्हें पण्डित परमानन्दजीने अधिकार-भेद से गाथा-संख्या के कुछ गलत उल्लेखके साथ स्वयं स्वीकार किया है, परन्तु प्रकृतिसमुत्कीर्तन अधिकार मे उन्हें शामिल करनेका सुभाव नहीं रखा गया । दोनों के एक होनेकी दृष्टिसे यदि एककी कमीको दुसरे से पूरा किया जाय और इस तरह 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' अधिकारकी उक्त ३५ गाथाओंको कर्मप्रकृतिमे शामिल करानेके साथ-साथ कर्मप्रकृतिकी उक्त ३४ (२३ + ११) गाथाओं को भी प्रकृतिसमुत्की तन में शामिल करानेके लिये कहा जाय अर्थात् यह प्रस्ताव किया जाय कि 'ये ३४ गाथाएं चूकि कर्मप्रकृतिमे पाई जाती हैं, जो कि वास्तवमे कर्मकाण्डका प्रथम अधिकार है 'प्रथम अश' आदिरूपसे उल्लेखित भी मिलता है, इसलिये इन्हें भो वर्तमान कर्मकाण्डके 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' अधिकारमे त्रुटित समझा जाकर शामिल किया जाय' तो यह प्रस्ताव बिल्कुल ही असगत होगा; क्योकि ये गाथाएं कर्मकाण्डके 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' अधिकारके साथ किसी तरह भी सगत नहीं है और साथ ही उसमे अनावश्यक भी हैं । वास्तव में ये गाथाएं प्रकृतिसमुत्कीर्तन से नहीं किन्तु स्थिति बन्धादिकसे सम्बन्ध रखती हैं, जिनके लिये ग्रन्थकारने ग्रन्थमे द्वितीयादि अलग अधिकारोकी सृष्टि की है । और इसलिये एक योग्य ग्रन्थकारके लिये यह संभव नहीं कि जिन गाथाओ को वह अधिकृत अधिकार में रक्खे उन्हें व्यर्थ ही अनधिकृत अधिकार मे भी डाल देवे । इसके सिवाय, कर्मप्रकृतिमे. जिसे गोम्मट - सारके कर्मकाण्डका प्रथम अधिकार समझा और बतलाया जाता है, उक्त गाथाओंका देना प्रारम्भ करनेसे पहले ही 'प्रकृतिसमुत्कार्तन' के कथनको समाप्त कर दिया है - लिख दिया है " इति पर्याडसमुक्कित्तणं समत्तं ||" और उसके अनन्तर तथा 'तीसं कोडाकोडी' इत्यादि गाथाको देनेसे पूर्व टीकाकार ज्ञानभूपरणने साफ लिखा है: " इति प्रकृतीनां समुत्कीर्तनं समाप्त ॥ श्रथ प्रकृतिस्वरूपं व्याख्याय स्थितिबन्धमनुपक्रमन्नादी मूलप्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितिबन्धमाह ।" इससे 'कर्मप्रकृति' की स्थिति बहुत स्पष्ट हो जाती है और वह गोन्मटसारके कर्मकाण्डका प्रथम अधिकार न होकर एक स्वतन्त्र ग्रन्थ ही ठहरता है, जिसमे 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' को ही नहीं किन्तु प्रदेशबन्ध, स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध के कथनों को भी अपनी रुचि के अनुसार सकलित किया गया है और जिसका सँकलन गोम्मटसारके निर्माण से किसी समय बादको हुआ जान पड़ता है । उसे छोटा कर्मकाण्ड समझना चाहिये । इसीसे उक्त टीकाकारने उसे ‘कर्मकाण्ड' ही नाम दिया है— कर्मकाण्डका 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' अधिकार नाम नहीं, और अपनी टीकाको 'कर्मकाण्डस्य टीका' लिखा है; जैसा कि ऊपर एक फुटनोटमे उधृत किये हुए उसके प्रशस्तिवाक्यसे प्रकट है। पं० हेमराजने भी, अपनी भाषा टीकामे, ग्रन्थका नाम 'कर्मकाण्ड' और टीकाको 'कर्मकाण्ड-टीका' प्रकट किया है । और इस लिये शाहगढकी जिस सटिप्पण प्रतिमे इसे 'कर्मकाण्डका प्रथम अंश' लिखा है वह किसी गलतीका परिणाम जान पड़ता है । संभव है कर्मकाण्डके आदि भाग 'प्रकृतिसम्त्कीर्तन' से इसका प्रारम्भ देखकर और कर्मकाण्डसे इसको बहुत छोटा पाकर प्रतिलेखक ने इसे पुष्पिकामे ‘कर्मकाण्डका प्रथम अश' सूचित किया हो । और शाहगढ़की जिस प्रतिमे ढाई अधिकारके करीब कर्मकाण्ड उपलब्ध है उसमें कमप्रकृतिको १६० गाथाओं को जो प्रथम अधिकारके रूपमे शामिल किया गया है वह संभवतः किसी ऐसे व्यक्तिका कार्य है जिसने कर्मकाण्डके ‘प्रकृतिसमुत्कीर्तन' अधिकारको त्रुटित एव अधूरा समझकर, १० परमानन्दजीकी तरह, ‘कर्मप्रकति' प्रन्थसे उसकी पूर्ति करनी चाही है और इसलिये कर्म Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना काण्डके प्रथम अधिकारके स्थानपर उसे ही अपनी प्रतिमें लिख लिया अथवा लिखा लिया है और अन्य बातोंके सिवाय, जिन्हें आगे प्रदर्शित किया जायगा, इस बात पर कोई ध्यान नहीं दिया कि स्थितिवधादिसे संबन्ध रखनेवाली उक्त २३ गाथाएं, जो एक कदम आगे दूसरे ही अधिकारमें यथास्थान पाई जाती हैं उनकी इस अधिकारमे व्यर्थ ही पुनरावृत्ति हो रही है। अथवा यह भी हो सकता है कि वह कर्मकाण्ड कोई दूसरा ही वादको संकलित किया हुआ कर्मकाण्ड हो और कर्मप्रकृति उसीका प्रथम अधिकार हो। अस्तु, वह प्रति अपने सामने नहीं है और उतनो मात्र अधूरी भी बतलाई जाती है, अतः उसके विपयमे उक्त संगत कल्पनाके सिवाय और अधिक कुछ भी नहीं कहा जा सकता। ऐसी हालतमे प० परमानन्दजीका उक्त प्रतियों परसे यह फलित करना कि "कर्मकाण्डके प्रथम अधिकारमें उक्त ७५ गाथाएं पहलेसे ही सकलित और प्रचलित हैं"' कुछ विशेष महत्व नहीं रखता। । अव उन टित कही जाने वाली ७५ गाथाओंपर उनके प्रकृतिममुत्कीर्तन अधिकारका आवश्यक तथा संगत अंग होने न होने आदिकी दृष्टिसे, विचार किया आता है: (१) गो० कर्मकाण्डकी १५वीं गाथाके अनन्तर जो सियात्विणस्थिउभयं' नामकी गाथा टित वतलाई जाती है वह ग्रन्थ-संदर्भकी दृष्टिसे उसका सगत तथा आवश्यक अंग मालूम नहीं होती, क्योकि १५वीं गाथामे जीवके दर्शन, ज्ञान और सम्यक्त्वगुणोंका निर्देश किया गया है, बीचमे स्यात् अस्ति-नास्ति आदि सप्तनयोंका स्वरूपनिर्देशके विना ही नामोल्लेखमात्र करके यह कहना कि 'द्रव्य आदेशवशसे इन सप्तभगरूप होता है' कोई संगत अर्थ नहीं रखता । जान पडता है १५वीं गाथामे सप्तभंगगे-द्वारा श्रद्धानकी जो बात कही गई है उसे लेकर किसीने 'सत्तभगीहि पदके टिप्पणरूपमें इस गाथाको अपनी प्रतिमे पंचास्तिकाय ग्रंथसे, जहाँ वह न० १५ पर पाई जाती है, उद्धत किया होगा, जो बादको सग्रह करते समय कर्मप्रकतिके मूलमे प्रविष्ट हो गई । शाहगढ़वाले टिप्पणमे इसे 'प्रक्षिप्त' सूचित भी किया है। (२) २०वीं गाथाके अनन्तर 'जीवपएसेक्कक्के', 'अस्थिपणाईभूओ', 'भावेण तेण पुनरवि', 'एकसमयणिबद्धं' सो बंधो चउभेश्रो' इन पांच गाथाओको जोटित बतलाया है वे भी गोम्मटसारके इस प्रकृतिसमुत्कीर्तन अधिकारका कोई आवश्यक अगमालूम नहीं होती और न सगत ही जान पड़ती हैं, क्योंकि २०वीं गाथामे आठ कर्मो का जो पाठ-क्रम है उसे सिद्ध सूचित करके २१वीं गाथामे दृष्टान्तोंद्वारा उनके स्वरूपका निर्देश किया है, जो संगत है। इन पाँच गाथाओंमें जीवश्वेशों और कर्मप्रदेशोंके बन्धादिका उल्लेख है और अन्तकी गाथामे बन्ध के प्रकृति, स्थिति आदि चार भेदोंका उल्लेख करके यह सूचित किया है कि प्रदेशबन्धका कथन ऊपर हो चुका; चुनॉचे आगे प्रदेशबन्धका कथन किया भी नहीं । और इसलिये १ अनेकान्त वर्ष ३ किरण १२ पृ० ७६३ । २ अनेकान्त वर्ष ३ कि० ८-६ पृ० ५४० । मेरे पास कर्म-प्रकृतिको एक वृत्तिसहित प्रति और है, जिसमें यहाँ पाँचके स्थानपर छह गाथाएँ हैं । छठी गाथा ' सो बधो चउमेश्रो' से पूर्व इस प्रकार है : " श्राउगभागों थोवो णामागोदे समो ततो अहियो । घादितिये वि य तत्तो मोहे तत्तो तदो तदी(दि)ये ॥" ३ " पयडिष्ठिदिअणुभाग पएसवधो पुरा कहियो,” कर्मप्रकृतिकी अनेक प्रतियों में यही पाठ पाया जाता है जो ठीक जान पहता है, क्योंकि ' जीवपएसेक्केक्के' इत्यादि पूर्वकी तीन गाथाश्रोमें प्रदेशबन्धका ६ कथन है । ज्ञानभूषणने टीकामें इसका अर्थ देते हुए लिखा है -" ते चत्वारो भेदा: के ? प्रकृतिस्थित्यनुभागा प्रदेशबन्धश्च श्रय भेद: पुरा कथितः ।" श्रतः अनेकान्तकी उक्त किरण ८-६ में जो Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची 1 पूर्वापर कथनके साथ इनकी संगति ठीक नहीं बैठती । कर्मप्रकृति ग्रंथ में चूंकि चारों वर्षों का कथन है, इसलिये उसमे खींचतान करके किसी तरह इनका सम्बन्ध विठलाया जा सकता है परन्तु गोम्मटसार के इस प्रथम अधिकार मे तो इनकी स्थिति समुचित प्रतीत नहीं होती, जबकि उसके दूसरे ही अधिकार मे बन्ध-विपयका स्पष्ट उल्लेख है । ये गाथाएँ कर्मप्रकृतिमे देवसेनके भावसंग्रहमंथसे उठाकर रक्खी गई मालूम होती है, जिसमे ये न० ३२५ से ३२६ तक पाई जाती है । (३) २१वीं और २२वीं गाथाओ के मध्य मे 'गाणावरण कम्मं', दंसणआवरणं पुण', 'महुलित्त-खग्गसरिसं', 'मोहेइ मोहणीयं, 'आउं चउपयारं', 'चित्तं पढ व विचित्त', 'गोद कु लालसरिसं', जह भडयारिपुरिसो' इन आठ गाथाओ की स्थिति भी संगत मालूम नहीं होती। इनकी उपस्थितिमे २१वीं और रखीं दोनो गाथाएँ व्यर्थ पड़ती है; क्योंकि २१वीं गाथामें जब दृष्टान्तों द्वारा आठो कर्मों के स्वरूपका और २२वीं गाथामे उन कर्मो की उत्तर प्रकृतिसंख्याका निर्देश है तब इन आठो गाथाओं मे दोनों वातोका एक साथ निर्देश है । इन गाथाओंमे जब प्रत्येक कर्मकी अलग अलग उत्तर प्रकृतियोंकी संख्याका निर्देश किया जाचुका तब फिर रवीं गाथामें यह कहना कि 'कर्मों की क्रमशः ५, ६, २,२८,४, ६३ या १०३,२, ५ उत्तरप्रकृतियाँ होती हैं' क्या अर्थ रखता है ? व्यर्थताके सिवाय उससे और कुछ भी फलित नहीं होता । एक सावधान ग्रंथकार के द्वारा ऐसी व्यर्थ रचनाकी कल्पना नहीं की जा सकती । ये गाथाएँ यदि २२वीं गाथाके बाद रक्खी जातीं तो उसकी भाष्य-गाथाएँ हो सकती थीं, और फिर २१वीं गाथाको देने की जरूरत नहीं थी; क्योंकि उसका विषय भी इनमें आगया है । ये गाथाएँ भी उक्त भावसग्रहकी है और वहीं मे उठाकर कर्मप्रकृति में रक्खी गई मालूम होती हैं । भावसंग्रहमे ये ३३१ से ३३८ नम्बरकी गाथाएँ हैं' । ८४ (४) गो० कर्मकाण्डकी २२वीं गाथाके अनन्तर कर्मप्रकृति मे 'हिमुहणियमियोहरण', अत्थादो अत्थतर', 'अवहीर्याद त्ति श्रोही', 'चितियमचितयं वा', 'संपुरणं तु समग्गं', 'मादसुदओही मरणपज्जवे', 'जं सामरणं गेहणं', 'चक्रवूण जं पयासइ, परमाणुआ दियाड', 'बहुविबहुप्पयारा', 'चक्खु चक्त्रोही', 'अह थी गद्धिणिद्दा' ये १२ गाथाएँ पाई जाती हैं, जिन्हें कर्मकाण्डके प्रथम श्रधकार में त्रुटित बतलाया जाता है। इनमे से मतिज्ञानादि पाँच ज्ञानों और चक्षु-दर्शनादि चार दर्शनों के लक्षणोकी जो ९ गाथाएँ हैं वे उक्त अधिकारकी कथनशैली और विषयप्रतिपादन की दृष्टिसे उसका कोई आवश्यक अंग मालूम नहीं होतीं—खासकर उस हालतमें जब कि वे ग्रन्थके पूर्वार्ध जीवकाण्ड में पहलेसे प्राचुकी है और उसमें क्रमश. नं० ३०५, ३१४, ३६६, ४३७, ४५६, ४८१, ४८३ ४८४, ४८५ पर दर्ज हैं। शेष तीन गाथाएँ ('मदिसुद-श्रोही मणपज्ज व ', ' चक्खुष्प्रचक्खओही ' ' श्रह थी गद्धिणिहा') जिनमें ज्ञानावरणकी ५ और दर्शनावरणकी ६ उत्तर प्रकृतियोके नाम है, प्रकरण साध संगत हैं अथवा यों कहिये कि रखी गाथा के बाद उनकी स्थिति ठीक कही जा सकती है, क्योंकि मूलसूत्रोंकी तरह उनसे भी अगली तीन गाथाओ ( नं० २३, २४, २५) की संगत ठीक बैठ जाती है । (५) कर्मकाण्डमे २५वीं गाथाके बाद 'दुविहं खु वेयणीयं ' और ' बंधादेगं मिच्छं ' नामकी जिन दो गाथाओंको कर्मप्रकृति के अनुसार त्रुटित बतलाया जाता है वे भी प्रकरणक साथ संगत हैं अथवा उनकी स्थितिको ५वीं गाथावे बाद ठीक वहा जा सकता है, क्योंकि मृलसूत्रोकी तरह उनमें भी क्रमप्राप्त वेदनीयकर्मकी दो उत्तर - प्रकृतियों और मोहनीय कर्मके “पर्याडट्टिदिश्रणुभागष्पएसवंधो हु चउविहो कहियो" पाठ दिया है वह ठीक मालूम नहीं होता — उसके पूर्वार्ध मे 'चउभेयो' पदके होते हुए उत्तरार्ध में 'चउविहो' पदके द्वारा उसकी प्नगवृत्ति खटक्ती भी है। १ देखो, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला में प्रकाशित 'भावसग्रहादि ' ग्रन्थ । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 प्रस्तावना ㄨˋ 1 दो भेद करके प्रथम भेद दर्शनमोह के तीन भेदोंका उल्लेख है, और इसलिये उनसे भी अगली २६वीं गाथाकी सद्धति ठीक बैठ जाती है । (६) कर्मकाण्डकी २६वीं गाथाके अनन्तर कर्मप्रकृतिमे 'दुविहं चरित्तमोहं' 'अणं अपच्चक्खाणं’‘सिलपुढविभेदधूली' 'सिकिट्टवेत्ते' 'वेणुवमूलोरव्भय', 'किमिरायचक्कतणुमल' 'सम्मत्तं देस-सयल' 'इस्सर दिअर दिसोय' 'छादयदि सयं दोसे' 'पुरुगुणभोगे सेदे' ' वित्थी व पुमं' 'णारयतिरियणरामर' 'खेरइयतिरियमाणुस' 'ओरा लियवेगुव्विय' ये १४ गाथाए पाई जाती हैं जिन्हें कर्मकाण्डके इस प्रथम अधिकारमें त्रुटित बतलाया जाता है | इनमेमे = गाथाएं जो अनंतानुबन्धि आदि सोलह कपायों और स्त्रीवेदादि तीन वेदोंके स्वरूपसे सम्बन्ध रखती हैं वे भी इस अधिकार की कथन-शैली आदिकी दृष्टिसे उसका कोई आवश्यक अस मालूम नहीं होतीं - खासकर उस हालत में जब कि वे जीवकाण्डमे पहले आ चुकी हैं और उसमे क्रमश न० २८३, २८४, २८५, २८६, २८२, २७३, २७२; २७४ पर दर्ज हैं । शेष ६ गाथाएं (पहली दो, मध्यकी 'इस्सर दिअर दिसोयं' नामकी एक और अन्तकी तीन ), जो चारित्रमोहनीय कर्मकी २५, आयु कर्मकी ४ और नाकर्मकी ४२ पिण्डाsपिण्ड प्रकृतियों मेसे गतिकी ४, जातिकी ५ और शरीरकी ५ उत्तर प्रकृतियोंके नामोल्लेखको लिये हुए हैं, प्रकरणके साथ सङ्गत कही जा सकती हैं, क्योंकि इस हद तक वे भी मूलसूत्रों के अनुरूप हैं । परन्तु मूलसूत्रों के अनुसार २७वीं गाथाके साथ सङ्गत होनेके लिये शरीरबन्धनकी उत्तर - प्रकृतियोंसे सम्बन्ध रखनेवाली 'पंच य सरीर बघण' नामकी वह गाथा उनके अनन्तर और होनी चाहिये जो २७वीं गाथा के अनन्तर पाई जाने वाली ४ गाथाओमे प्रथम है, अन्यथा २७वीं गाथामे जिन १५ संयोगी भेदोंका उल्लेख है के शरीरबन्घनके न होकर शरीरके हो जाते हैं, जो कि एक सैद्धान्तिक भूल है और जिसका ऊपर स्पष्टीकरण किया जा चुका है । एक सूत्र अथवा गाथाके आगे-पीछे हो जाने से, इस विपयमे, कर्मकाण्ड और कर्मप्रकृतिके प्राय सभी टीकाकारोंने गलती खाई है, जो उक्त २७वीं गाथाकी टीकामे यह लिख दिया है कि 'ये १५ संयोगी भेद शरीरके हैं', जब वे वास्तव में 'शरीरबन्धन' नामकर्मके भेद हैं । (७) कर्मकाण्डकी २७वीं गाथाके पश्चात् कर्मप्रकृति में 'पच य सरीरबंधरण' 'पंच सघादणाम' ‘समचउर गग्गोह' 'ओरालियवेगुव्विय' ये चार गाथाएं पाई जाती हैं, जिन्हें कर्मकाण्डमे त्रुटित बतलाया जाता है । इनमे से पहली गाथा तो २७वीं गाथाके ठीक पूर्वमे सगत बैठती है, जैसा कि ऊपर बतलाया जा चुका है । शेष तीन गाथाएं यहाँ सगत कही जा सकती हैं, क्योकि इनमे मूल सूत्रों के अनुरूप सघातकी ५, संस्थानकी ६ और अङ्गोपाङ्ग नामकर्मका ३ उत्तरप्रकृतियोंका क्रमशः नामोल्लेख है । पिछली (चौथी ) गाथाकी अनुप - स्थिति मे तो अगली कर्मकाण्डवाली २८वीं गाथाका अर्थ भी ठीक वटित नहीं हो सकता, जिसमे आठ श्रह्नोंके नाम देकर शेषको उपाङ्ग बतलाया है और यह नहीं बतलाया कि वे अङ्गोपाङ्ग कौनसे शरीर से सम्बन्ध रखते हैं । I 1 (८) कर्मकाण्डकी २८वीं गाथाके अनन्तर कर्मप्रकृति में 'दुविहं विहायणाम' 'तह श्रद्ध णाराय' ‘जस्स कम्मरस उदद्ये वज्जमय' 'जस्सुदये वज्जमय' 'जस्सुदये वज्जमया' 'वज्जविसेसरणरहिदा' 'जस्स कम्मस्स उदये श्रवज्जहड्डा' 'जस्स कम्मस्स उदये अणोरण' ये ८ गाथाएं उपलब्ध हैं, जिन्हें कर्मकाण्डमे त्रुटित बतलाया जाता है । इनमे से पहली दो गाथाएँ तो आवश्यक और सङ्गत हैं, क्योकि वे मूलसूत्रो के अनुरूप हैं और उनकी उपस्थिति से कर्मकाण्डकी अगली तीन गाथाओं (२६, ३०, ३१) का अर्थ ठीक बैठ जाता है। शेष ६ गाथाएं, जो छह संहननोंके स्वरूपकी निर्देशक है इस अधिकारका कोई आवश्यक तथा अनिवार्य अग नहीं कही जा सकतीं, क्योंकि सब प्रकृतियोंके स्वरूप अथवा लक्षण निर्देशकी Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ पुरातन-जैनवाक्य-सूची पद्धतिको इस अधिकार में अपनाया नहीं गया है। इन्हें भाष्य अथवा व्याख्यान गाथाएं कहा जा सकता है । इनकी अनुपस्थितिसे मूल ग्रन्थके सिलसिले अथवा उसकी सम्बद्ध रचनामे कोई अन्तर नहीं पड़ता। (E) कर्मकाण्डकी ३१वीं गाथाके बाद कर्मप्रकृतिमे 'घम्मा वसा मेघा' 'मिच्छापुठवदुगादिसु' 'विमलचउक्के छ?' 'सविदेहेसु तहा' नामकी ४ गाथाए उपलब्ध हैं, जिन्हें भी कर्मकाण्डमे त्रुटित बतलाया जाता है। इनमेसे पहली गाथा जो नरकभूमियोंके नामों की है, प्रकृत अधिकारका कोई आवश्यक अग मालूम नहीं होती । जान पड़ता है ३१वीं गाथामे 'मेघा' पृथ्वीका जोनामोल्लेख है और शेप नरकभूमियोंकी विना नामके ही सूचना पाई जाती है, उसे लेकर किसीने यह गाथा उक्त गाथाकी टिप्पणीरूपमे त्रिलोकसार अथवा जवूद्वीपप्रज्ञप्ति परसे अपनी प्रतिमे उद्धृत की होगी, जहाँ यह क्रम.श नं० १५५ पर तथा ११वें अ० के नं० ११२ पर पाई जाती है, और वहाँसे सग्रह करते हुए यह कर्मप्रकृतिके मूलमें प्रविष्ट हो गई है । शाहगढ़के उक्त टिप्पणमे इसे भी 'सिय अस्थि णत्थि' गाथाकी तरह प्रक्षिप्त बतलाया है और सिद्धान्त-गाथा प्रकट किया है। शेष तीन गाथाएं जो सहननसम्बन्धी विशेप कथनको लिये हुए हैं, यद्यपि प्रकरण के साथ संगत हो सकती हैं परन्तु वे उसका कोई ऐसा आवश्यक अंग नहीं कही जा सकनों जिसके प्रभावमें उसे त्रुटित अथवा असम्बद्ध कहा जा सके। मूल-सूत्रोंमे इन चारों ही गायोमेसे किसीके भी विपयसे मिलता जुलता कोई सूत्र नहीं है, और इसलिये इनकी अनुपस्थितिसे कर्मकाण्डमें कोई असंगति पैदा नहीं होती। (१०) कर्मकाण्डकी ३२वीं गाथाके अनन्तर कर्मप्रकृतिमें 'पंच य वएणस्सेदं' 'तित्तं कडुवकसायं' 'फास अट्टवियप्पं' 'एदा चोदसपिंडप्पयडीओ' अगुरुलघुगउवघाद' नामकी ५ गाथाएं उपलब्ध हैं और ३३वीं गाथाके अनन्तर तस थावर च बादर' 'सुहअसुहसुहगदुन्भग' 'तसबादरपज्जत' 'थावरसुहमपज्जत्तं' 'इदि णामप्पयडीओ तह दाणलाहभोगे' ये ६ गाथाएँ उपलब्ध हैं, जिन सबको भी कर्मकाण्डमे त्रुटित बतलाया जाता है । इनमेसे ६ गाथाओं में नामकर्मकी शेप वर्णादि-विषयक उत्तरप्रकृतियोंकी और पिछली दो गाथाओंमे गोत्रकर्मकी २ तथा अन्तरायकर्मकी ५ उत्तरप्रकृतियोंका नामोल्लेख है । यद्यपि मूल-सूत्रोंके साथ इनका कथनक्रम कुछ भिन्न है परन्तु प्रतिपाद्य विपय प्राय. एक ही है, और इसलिये इन्हें संगत तथा आवश्यक कहा जा सकता है । ग्रन्थमे इन उत्तरप्रकृतियोंकी पहलेस प्रतिष्ठाके विना ३३वीं तथा अगली-अगली गाथाओंमे इनसे सम्बन्ध रखने वाले विशेष कथनोकी सगति ठीक नहीं बैठती । अतः प्रतिपाद्य विषयकी ठीक व्यवस्थाके लिये इन सब उत्तरप्रकृतियोंका मूलत: अथवा उद्देश्यरूपमे उल्लेख बहुत जरूरी है-चाहे वह सूत्रोंमें हो या गाथाओमे। (११) कर्मकाण्डकी ३४वीं गाथा के बाद कर्मप्रकृतिमे 'वरुणरसगंधफासा' नामकी जो एक गाथा पाई जाती है उसमे प्रायः उन बन्धरहित प्रकृतियोका ही स्पष्टीकरण है जिनका सूचना पूर्वकी गाथा (३४) मे की गई है और उत्तरकी गाथा (३५ से भी जिनकी संख्या-विषयक सूचना मिलती है और इसलिय वह कर्मकाण्डका कोई आवश्यक अग नहीं है-उसे व्याख्यान-गाथा कह सकते हैं । मूल-सूत्रोमे भी उसके विषयका कोई सूत्र नही है। यह पञ्चसंग्रहके द्वितीय अधिकारकी गाथा है और सभवतः वहींस संग्रह की गई है। (१२) कर्मकाण्डकी 'मणवयणकायवक्को' नामकी ८०८वीं गाथाक अनन्तर कर्मप्रकृतिमे 'दंसणविसुद्धिविणय' 'सत्तोदो चागतवा' 'पवयणपरमाभत्ती' । देहिं पसत्थाह' १ अनेकान्त वर्ष ३, कि० १२, पृष्ठ ७६३ । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना 'तित्थयरसत्तकम्म' ये पाँच गाथऍ पाई जाती हैं, जिन्हें भी कर्मकाण्ड में त्रुटित बतलाया जाता है। इनमेसे प्रथम चार गाथाओंमे दर्शनविशुद्धि आदि षोडश भावनाओंको तीर्थकर नामकर्म के बन्धकी कारण बतलाया है और पॉचवीं में यह सूचित किया है कि तीर्थङ्कर नामकर्मकी प्रकृतिका जिसके बन्ध होता है वह तीन भवमें सिद्धि (मुक्ति) को प्राप्त होता है और जो क्षायिक-सम्यक्त्वसे युक्त होता है वह अधिक-से-अधिक चौथे भवमे जरूर मुक्त हो जाता है । यह सब विशेष कथन है और विशेप कथनके करने-न-करनेका हरएक ग्रन्थकारको अधिकार है । ग्रन्थकार महोदयने यहाँ छठे अधिकार में सामान्य-रूपसे शुभ और अशुभ नामकर्मके बन्धके कारणोंको बतला दिया है-नामकर्मकी प्रत्येक प्रकृति अथवा कुछ खास प्रकृतियोंके बन्ध-कारणोंको बतलाना उन्हें उसी तरह इष्ट नहीं था जिस तरह कि ज्ञानावरण, दर्शनावरणे और अन्तराय जैसे कर्मों की अलग-अलग प्रकतियोंके वंधकारणोंको बतलाना उन्हें इष्ट नही था; क्योकि वेदनीय, आयु और गोत्र नामके जिन कर्मो की अलग-अलग प्रकतियोके बन्ध-कारणाँको बतलाना उन्हें इष्ट था उनको उन्होने बतलाया है। ऐसी हालतमे उक्त विशेष-कथन-वाली गाथाओंको त्रुटित नहीं कहा जा सकता और न उनकी अनुपस्थितिसे ग्रन्थको अधूरा या लॅडूरा ही घोषित किया जा सकता है। उनके अभावमे ग्रन्थकी कथन-संगतिमे कोई अन्तर नहीं पड़ता और न किसी प्रकारकी बाधा ही उपस्थित होती है। इस प्रकार त्रुटित कही जानेवाली ये ७५ गाथाएँ हैं, जिनमेंसे ऊपरके विवेचनानुसार मूलसूत्रोंसे सम्बन्ध रखने वाली मात्र ८ गाथाएं ही ऐसी हैं जिनका विषय प्रस्तुत कर्मकाण्डके प्रथम अधिकारमे त्राटत है और उस त्रुटित विषयकी दृष्टिसे जिन्हें त्रटित कहा जा सकता है, शेष ४७ गाथाओंमेसे कुछ असगत हैं, कुछ अनावश्यक हैं और कुछ लक्षण-निर्देशादिरूप विशेष कथनको लिये हुए हैं, जिसके कारण वे त्रुटित नहीं कही जा सकतीं। अब प्रश्न यह पैदा होता है कि क्या उक्त २८ गाथाओंको, जिनका विपय त्रुटित है, उक्त अधिकारमे यथास्थान प्रविष्ट एव स्थापित करके उसकी त्रुटि-पूर्ति और गाथासख्यामे वृद्धि की जाय ? इसके उत्तरमे मैं इतना ही कहना चाहता हूँ कि, जब गोम्मटसारकी प्राचीनतम ताडपत्रीय प्रतिमे मूल-सूत्र उपलब्ध हैं और उनकी उपस्थितिमे उन स्थानोंपर टित अशकी कोई कल्पना उत्पन्न नहीं हाती-सब कुछ संगत हो जाता है-तब उन्हें ही ग्रन्थकी दूसरो प्रतियोंमें भी स्थापित करना चाहिये । उन सूत्रों के स्थानपर इन गाथाओंको तभी स्थापित किया जा सकता है जब यह निश्चित और निर्णीत हो कि स्वयं ग्रन्थकार नेमिचन्द्राचार्यने ही उन सूत्रोके स्थानपर बादको इन गाथाओंकी रचना एव स्थापना की है, परन्तु इस विषयके निर्णयका अभी तक कोई समुचित साधन नहीं है। ' (कर्मप्रकृतिको उन्हीं सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य नेमिचन्द्रकी कृति कहा जाता है, परन्तु उसके उन्हींकी कृति होनेमे अभी सन्देह है । जहाँ तक मैंने इस विषयपर विचार किया है मुझे वह उन्हीं आचार्य नेमिचन्द्रकी कृति मालूम नहीं होती, क्योंकि उन्होंने यदि गोम्मटसार-कर्मकाण्डके बाद उसके प्रथम अधिकारको विस्तार देनेकी दृष्टिसे उसकी रचना की होती तो वह कृति और भी अधिक सुव्यवस्थित होती उसमे असंगत तथा अनावश्यक गाथाओंको-खासकर ऐसी गाथाओंको जिनसे पूर्वापरकी गाथाएं व्यर्थ पड़ती हैं अथवा अगले अधिकारोंमें जिनकी उपस्थितिसे व्यर्थकी पुनरावृत्ति होती है-स्थान न दिया जाता, जो कि सिद्धान्त-चक्रवर्ती-जैसे योग्य प्रथकार की कृतिमे बहुत खटकती हैं, और न उन ३५ (न०५२ से ८६ तककी) सङ्गत गाथाओको निकाला ही जाता जो उक्त अधिकारमे पहलेसे मौजूद थीं और अब तक चली आती हैं और जिन्हें कर्मप्रकृतिमे नहीं रक्खा गया । साथ ही, अपनी १२१वीं अथवा कर्मकाण्डकी 'गदिनादीउस्सासं नामक ५१वीं गाथाके अनन्तर ही 'प्रकृतिसमु Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची त्कीर्तन' अधिकारकी समाप्तिको घोषित न किया जाता । और यदि कर्म काण्डसे पहले उन्हीं आचार्य महोदयने कर्मप्रकृतिकी रचना की होती तो उन्हें अपनी उन पूर्व-निर्मित २८ गाथाओके स्थानपर सूत्रोको नवनिमाण करके रखनेकी जरूरत न होती - खासकर उस हालत मे जब कि उनका कर्मकाण्ड भी पद्यात्मक था । और इस लिये मेरी राय मे यह 'कर्मप्रकृति' या तो नेमिचन्द्र नामके किसी दूसरे आचार्य, भट्टारक अथवा विद्वानकी कृति है जिनके साथ नाम-साम्यादिके कारण 'सिद्धान्त चक्रवर्ती' का पद बादको कहीं-कहीं जुड़ गया है- - सब प्रतियों मे वह नहीं पाया जाता। और या किसी दूसरे विद्वान्ने उसका संकलन कर उसे नेमिचन्द्र आचार्यके नामाङ्कित किया है, और ऐसा करनेमे उसकी दो दृष्टि हो सकती है— एक तो ग्रंथ-प्रचार की और दूसरी नेमिचन्द्रके श्रेय तथा उपकार स्मरणको स्थिर रखनेको । क्योकि इस प्रथका अधिकाश शरीर आद्यन्तभागों सहित, उन्हींके गोम्मटसारपरसे बना है - इसमे गोम्मटसारषी १०२ गाथाएं तो ज्यो-की-त्यों उद्धृत हैं और २८ गाथाएं उसीके गद्यसूत्रोपरसे निर्मित हुई जान पड़ती हैं। शेप ३० गाथाओं मेसे १६ दूसरे कई ग्रथोकी ऊपर सूचित की जा चुकी है और १४ ऐसी हैं जिनके ठीक स्थानका अभी तक पता नहीं चला—वे धवलादि ग्रंथों के पट्संहननोंके लक्षण - जैसे वाक्योंपर से खुदकी निर्मित भी हो सकती हैं リ दद हॉ, ऐसी सन्दिग्ध अवस्थामे यह हो सकता है कि प्राकृत मूल-सूत्रोंके नीचे उनके अनुरूप इन सूत्रानुसारिणी २८ गाथाओं को भी यथास्थान ब्रैकट [ ] के भीतर रख दिया जावे, जिससे पद्य-प्रेमियोंको पद्य क्रमसे ही उनके विपयके अध्ययन तथा कण्ठस्थादि करने मे सहायता मिल सके । और तब यह गाथाओं के संस्कृत छायात्मक रूपकी तरह गद्य-सूत्रोका पद्यात्मक रूप कहलाएगा, जिसके साथ रहने मे कोई वाघा प्रतीत नहीं होती - मूल ज्यो- का त्यो अक्षुण बना रहता है । आशा है विद्वज्जन इसपर विचार कर समुचित मार्गको अङ्गीकार करेंगे । (घ) ग्रंथकी टीकाऍ —— - 1 इस गोम्मटसार ग्रंथपर मुख्यतः चार टीलाऍ उपलब्ध हैं- एक, अभयचन्द्राचार्य की संस्कृत टीका 'मन्दप्रवोधिका', जो जीवकाण्डकी गाथा न० ३८३ तक ही पाई जाती है, प्रथ के शेष भागपर वह बनी या कि नहीं इसका कोई ठीक निश्चय नहीं । दूसरी, केशववर्णीकी संस्कृत - मिश्रित कनडी टीका 'जीवतत्त्वप्रदीपिका', जो ग्रंथके दोनों का डोप अच्छे विस्तारको लिये हुए है और जिसमे मन्दप्रबोधिकाका पूरा अनुसरण किया गया है। तीसरी, नेमिचंद्राचार्यकी संस्कृत टीका 'जीवतत्त्वप्रदीपिका', जो पिछली दोनों टीकाओका गाढ अनुसरण करती हुई ग्रंथके दोनो काण्डोपर यथेष्ट विस्तार के साथ लिखी गई. चौथी, प० टोडरमल्लजीकी हिन्दी टीका 'सम्यग्ज्ञानचद्रिका', जो संस्कृत टीका के विपयको खूब स्पष्ट करके बतलानेवाली है और जिसके आधारपर हिन्दी, अंग्रेजी तथा मराठी के J१ भट्टारक ज्ञानभूषणने अपनी टीका में कर्मकाण्ड पर नाम कर्मप्रकृतिको 'सिद्धान्तज्ञानचक्रवर्ती-श्रीनेमिचन्द्रविरचित' लिखा हैं । इसमें 'सिद्धान्त' और 'चक्रवर्ति के मध्य में 'ज्ञान' शब्दका प्रयोग अपनी कुछ खास विशेषता रखता हुंश्रा मालूम होता है और उसके संयोग से इस विशेषण- गदकी वह स्पिरिट नहीं रहती जो मतिचक्रसे षट्खण्डरूप श्रागम-सिद्धान्त की साधना कर सिद्धान्तचक्रवर्ती बनने की बताई गई है (क० ३६७), बल्कि सिद्धान्तज्ञान के प्रचारकी स्पिरिट सामने श्राती है, और इसलिये इसका संग्रहकर्ता प्रचारकी स्पिरिटको लिये हुए कोई दूसरा ही होना चाहिये, ऐसा इस प्रयोगपरसे खयाल उत्पन्न होता है । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना अनुवादों का निर्माण हुआ है। इनमेंसे दूसरी केशववी की टीकाको छोड़कर, जो अभी ' तक अप्रकाशित है, शेष तीनों टीकाएं कलकत्तासे 'गॉधी हरिभाई देवकरण-जेनग्रंथमाला' में एक साथ प्रकाशित हो चुकी हैं। कनडी और संध्कृत दोनों टीकाओंका एक ही नाम (जीवतत्त्वप्रदीपिका) होने, मूल ग्रंथकर्ता और संस्कृत टीकाकारका भी एक ही नाम (नेमिचन्द्र) होने, कर्मकाण्डकी गाथा नं० ६७२ के एक अस्पष्ट उल्लेखपरसे चामुण्डरायको कनडी टीकाका कर्ता समझा जाने और संस्कृत टीकाके 'श्रित्वा कर्णाटकी वृत्ति' पद्यके द्वितीय चरणमें वर्णिश्रीकेशवैः कृतां' की जगह कुछ प्रतियोंमे 'वर्णिश्रीकेशवैः कृति.' पाठ उपलब्ध होने आदि कारणोसे पिछले अनेक विद्वानोंको, जिनमे प० टोडरमल्लजी भी शामिल हैं. संस्कृत टीकाके कर्तृत्व-विषयमे भ्रम रहा है और उसके फलस्वरूप उन्होंने उसका कर्ता केशववणी' लिख दिया है । चुनॉचे कलकत्तासे गोम्मटसारका जो संस्करण दो टीकाओं सहित प्रकाशित हुआ है उसमे भी संस्कृत टीकाको "केशववर्णीकृत" लिख दिया है । इस फैले हुए भ्रमको डा० ए० एन० उपाध्ये एम० ए० ने तीनों टीकाओं और गद्य-पद्यात्मक प्रशस्तियोकी तुलना आदिके द्वारा, अपने एक लेखमे बिल्कुल स्पष्ट कर दिया है और यह साफ घोषित कर दिया है कि 'सस्कृत टीका नेमिचन्द्राचार्यकृत है और उसमे जिस कनडी टीकाका गाढ अनुसरण है वह अभयसूरिके शिष्य केशववर्णीकी कृति है और उसकी रचना धर्मभूषण भट्टारकके आदेशानुसार शक सं० १२८१ (ई० सन् १३५६) मे हुई है। जबकि संस्कृत टीका मल्लिभूपालके समयमे लिखी गई है, जो कि सालुव मल्लिराय थे और जिनका समय शिलालेखों आदि परसे ईसाकी १६वीं शताब्दीका प्रथमचरण पाया जाता है, और इसलिये इस टीकाको १६वीं शताब्दीके प्रथम चरणकी ठहराया जा सकता है। साथ ही यह भी बतलाया है कि दोनों प्रशस्तियोंपरसे इस संस्कृत टीकाके कर्ता वे आचार्य नेमिचन्द्र उपलब्ध होते हैं जो मूलसंघ, शारदागच्छ, बलात्कारगण, कुन्दकुन्दअन्वय और नन्दि आम्नायके आचार्य थे, ज्ञानभूषण भट्टारकके शिष्य थे, जिन्हें प्रभाचद्र भट्टारकने, जोकि सफलवादी तार्किक थे, सूरि बनाया अथवा आचार्यपद प्रदान किया था, कर्नाटकके जैन राजा मल्लिभूपालके प्रयत्नोंके फलस्वरूप जिन्होने मुनिचद्रसे, जोकि 'विविद्यापरमेश्वर के पदसे विभूषित थे, सिद्धान्तका अध्ययन किया था, जो लालावर्णी के आग्रहसे गौरदेशसे आकर चित्रकूटमे जिनदासशाह-वारा .मापित पावनाथके मन्दिरमे ठहरे थे और जिन्होंने धर्मचन्द अभयचन्द्र तथा अन्य सज्जनों के हितके लिये खण्डेलवालवंशके साह सांग और साह सहेसकी प्राथनापर यह सस्कृत टीका, कर्णाटकवृत्तिका अनुसरण करते हुए, त्रैविद्यविद्या-विशालकीर्किकी सहायतासे लिखी थी। और इस टीकाकी प्रथम प्रति अभयचंद्रने जोकि निर्मन्थाचार्य और त्रैविद्यचक्रवर्ती कहलाते थे, संशोधन करके तैयार की थी । दोनों प्रशस्तियोंकी ५ हिन्दी अनुवाद जीवकाण्डर पं० खूबचन्दका, कर्मकाण्डपर ५० मनोहरलालका, ऋग्रेजी अनुवाद जीवकाण्डपर मिस्टर जे एल. जैनीका, कर्मकाण्डपर व्र. शीतलप्रसाद तथा बाबू अजितप्रसादका, और मराठी अनुवाद गाधी नेमचन्द बालचन्दका है। २ यह पाठ ऐलक पन्नालाल दि० जैन सरस्वती भवन बम्बईकी जीवतत्वप्रदीपिका सहित गोम्मटसारकी एक हस्तलिखित प्रतिपरसे उपलब्ध होता है (रिपोर्ट १ वीर स० २४४६, पृ० १०४-१०६)। ३ प० टोडरमल्लजीने लिखा है "केशववर्णी भव्य विचार कर्णाटक-टीका-अनुसार । सस्कृत टीका कीनी पहु जो अशुद्ध सो शुद्ध करेहु ॥" ४ अनेकान्त वर्ष ४ कि० १ पृ० ११३-१२० । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० पुरातन-जैनवाक्य-सूची मौलिक बातों में कोई खास भेद नहीं है, उल्लेखनीय भेद केवल इतना ही है कि पद्यप्रशस्ति में ग्रन्थकारने अपना नाम नेमिचन्द्र नहीं दिया, जब कि गद्य-पद्यात्मक प्रशस्तिमें वह स्पष्टरूपसे पाया जाता है, और उसका कारण इतना ही है कि पद्यप्रशस्ति उत्तमपुरुषमे लिखी गई है । प्रन्थकी संधियों - " इत्याचार्य-नेमिचन्द्र- विरचितायां गोम्मटसारापरनाम - पंचसंग्रहवृत्तौ जीवतत्त्वप्रदीपिकायां” इत्यादिमें जीवतत्त्वप्रदीपिका टीका के कर्तृत्वरूपमें नेमिचन्द्रका नाम स्पष्ट उल्लिखित है और उससे गोम्मटसारके कर्ताका आशय किसी तरह भी नहीं लिया जा सकता। इसी तरह संस्कृत टीकामे जिस कर्नाटकवृत्तिका अनुसरण है उसे स्पष्टरूपमें केशववर्णीकी घोषित किया गया है, चामुण्डरायकी वृत्तिका उसमें कोई उल्लेख नहीं है और न उसका अनुसरण सिद्ध करनेके लिये कोई प्रमाण ही उपलब्ध है । चामुण्डरायवृत्तिका कहीं कोई अस्तित्व मालूम नहीं होता और इसलिये यह सिद्ध करनेकी कोई संभावना नहीं कि संस्कृत- जीवतन्त्प्रदीपिका चामुण्रायकी टीकाका अनुसरण करती है । गो० कर्मकाण्डको ६७२वीं गाथा में चामुण्डराय (गोम्मटाय) के द्वारा जिस 'देशी' के लिखे जानेका उल्लेख है उसे 'कर्नाटकवृति' समझा जाता है— अर्थात् वह वस्तुतः गोम्मटसारपर कर्णाटकवृत्ति लिखी गई है इसका कोई निश्चय नहीं है । ' 1 सचमुचमें चामुण्रायकी कर्णाटकवृत्ति अभी तक एक पहेली ही बनी हुई है, कर्मकाण्डकी उक्त गाथा' में प्रयुक्त हुए 'देसी' पद परसे की जानेवाली कल्पनाके सिवाय उसका अन्यत्र कहीं कोई पता नहीं चलता । और उक्त गाथाकी शब्द रचना बहुत कुछ स्पष्ट है उसमें प्रयुक्त 'जा' पदका संबंध किसी दूसरे पदके साथ व्यक्त नहीं होता, उत्तरार्ध मे 'राओ' पद भी खटकता हुआ है, उसकी जगह कोई क्रियापद होना चाहिये । और जिस 'वीरमत्तंडी' पदका उसमें उल्लेख है वह चामुण्डरायकी 'वीरमार्तण्ड' नामकी उपाधिकी दृष्टिसे उनका एक उपनाम है, न कि टीकाका नाम; जैसा कि प्रो० शरच्चन्द्र घोशालने समझ लिया है, और जो नाम गोम्मटसारकी टीकाके लिये उपयुक्त भी मालूम नहीं होता । मेरी रायमे 'जा' के स्थानपर 'जं' पाठ होना चाहिये, जो कि प्राकृतमे एक अव्यय पद है और उससे 'जे' (येन) का अर्थ (जिसके द्वारा) लिया जा सकता है और उसका सम्बन्ध 'सो' (वह) पदके साथ ठीक बैठ जाता है । इसी तरह 'राओ' के स्थान पर 'जयउ' क्रियापद होना चाहिये, जिसकी वहाँ आशीर्वादात्मक अर्थकी दृष्टि से आव श्यकता है - अनुवादकों आदिने 'जयवंत प्रवर्ती' अर्थ दिया भी है, जो कि 'जयउ' पदका संगत अर्थ है । दूसरा कोई क्रियापद गाथामें है भी नहीं, जिससे वाक्यके अर्थ की ठीक संगति घटित की जा सके। इसके सिवाय, 'गोम्मटरायेण' पदमे राय' शब्दकी मौजूदगी से 'राओ' पदकी ऐसी कोई खास जरूरत भी नहीं रहती, उससे गाथाके तृतीय चरणमें एक मात्राकी वृद्धि होकर छदोभंग भी हो रहा है । 'जय' पदके प्रयोग से यह दोष भी दूर हो जाता है । और यदि 'ओ' पदको स्पष्टताकी दृष्टिसे रखना ही हो तो, 'जय' पदको स्थिर रखते हुए, उसे 'कालं' पदके स्थानपर रखना चाहिये' क्योंकि तब 'काल' पदके विना ही 'चिर' पदसे उसका काम चल जाता है, इस तरह उक्त गाथाका शुद्धरूप निम्नप्रकार ठहरता है :1 1 1 १ " गोम्मटसुत्तल्लिहणे गोम्मटरायेण जा कया देसी । सो राम्रो चिरं कालं णामेण य वीरमत्तंडी ॥ ६७२ ||" २ प्रो० शरच्चन्द्र घोशाल एम ए. कलकत्ताने, 'द्रव्यसंग्रह' के अँग्रेजी संस्करण की अपनी प्रस्तावना में, गोम्मटसारकी उक्त गाथापरसे कनडी टीकाका नाम 'वीरमार्तण्डी' प्रकट किया है और जिसपर मैंने जनवरी सन् १६१८ में, अपनी समालोचना (जैनहितैषी भाग १३ अङ्क १२) के द्वारा श्रापत्ति की थी । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना गोम्मटसुत्तल्लिहणे गोम्मटरायेण जं कया देसी । - सो जयउ चिरं कालं (रात्रो) णामेण य वीरमत्तंडी॥ गाथाके इस संशोधित रूपपरसे उसका अर्थ निम्न प्रकार होता है : 'गोम्मट-सूत्रके लिखे जानेके अवसरपर-गोम्मटसार शास्त्रकी पहली प्रति तैयार किये जानेके समय-जिस गोम्मटरायके द्वारा देशीकी रचना की गई है-देशकी भाषा कनडीमें उसकी छायाका निर्माण किया गया है-वह 'वीरमार्तण्डी' नामसे प्रसिद्धिको प्राप्त राजा चिरकाल तक जयवन्त हो।' यहाँ 'देसी' का अर्थ 'देशकी कनडी भाषामे छायानुदादरूपसे प्रस्तुत की गई कति' का ही संगत वैठता है न कि किसी वृत्ति अथवा टीकाका; क्योंकि ग्रंथकी तैयारीके बाद उसकी पहली साफ कापीके अवसरपर, जिसका ग्रंथकार स्वयं अपने ग्रंथके अन्तमें उल्लेख कर सके, छायानुवाद-जैसी कृतिकी ही कल्पना की जा सकती है, समय-साध्य तथा अधिक परिश्रमकी अपेक्षा रखनेवाली टीका-जैसी वस्तुकी नहीं। यही वजह है कि घृत्तिरूपमे उस देशीका अन्यत्र कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता-वह संस्कृत-छायाकी तरह कन्नड-छायारूपमे ही उस वक्तकी कर्नाटक-देशीय कुछ प्रतियोंमे रही जान पड़ती है। अब मैं दूसरी दो टीकाओंके सम्बन्धमें इतना और बतला देना चाहता हूँ कि अभयचन्द्रकी 'मन्दप्रबोधिका' टीकाका उल्लेख चूंकि केशववर्णीकी कन्नड-टीकामें पाया जाता है इससे वह ई० सन १३५६ से पहलेकी बनी हुई है इतना तो सुनिश्चित है; परन्तु कितने पहलेकी ? इसके जाननेका इस समय एक ही साधन उपलब्ध है और वह है मंदप्रबोधिकामें एक 'बालचन्द्र पण्डितदेव' का उल्लेख डा० उपाध्येने, अपने उक्त लेखमे इनकी तुलना उन 'बालेन्दु' पंडितसे की है जिनका उल्लेख श्रवणबेल्गोलके ई० सन् १३१३ के शिलालेख नं०६५ में हुआ है और जिनकी प्रशंसा अभयचन्द्रकी प्रशंसाके साथ वेलूर के शिलालेखों नं० १३१-१३३ में की गई है और जिनपरसे बालचंद्रके स्वर्गवासका समय ई० सन् १२७४ तथा अभयचन्द्रके स्वर्गवासका समय ई० सन् १२७६ उपलब्ध होता है। और इस तरह 'मन्दप्रबोधिका' का समय ई० सन्की १३वीं शताब्दीका तीसरा चरण स्थिर किया जा सकता है। शेष रही पंडित टोडरमल्लजीकी 'सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका' टीका, उसका समय सुनिश्चित है ही-वह माघ सुदी पञ्चमी सं० १८१८ को लब्धिसार-क्षपणासारकी टीकाकी समाप्तिसे कुछ पहले ही बनकर पूर्ण हुई है। इसी हिन्दी टीकाको, जो खूब परिश्रमके साथ लिखी गई है, गोम्मटसार ग्रंथके प्रचारका सबसे अधिक श्रेय प्राप्त है। इन चारों टीकाओके अतिरिक्त और भी अनेक टीका-टिप्पणादिक इस ग्रंथराज पर पिछली शताब्दियोंमें रचे गये होंगे, परन्तु वे इस समय अपनेको उपलब्ध नहीं हैं और इसलिये उनके विषयमे यहाँ कुछ भी नहीं कहा जा सकता। ४१. लब्धिसार—यह लब्धिसार ग्रंथ भी उन्हीं श्रीनेमिचन्द्राचार्यकी कति है जो कि गोम्मटसारके कर्ता हैं और इसे एक प्रकारसे गोम्मटसारका परिशिष्ट समझा जाता है । गोम्मटसारके दोनों काण्डोंमे क्रमशः जीव और कर्मका वर्णन है, तब इसमे बतलाया गया है कि कर्मों को काटकर जीव कैसे मुक्तिको प्राप्त कर सकता अथवा अपने शुद्धरूपमें स्थित होसकता है। इसका प्रधान आधार कसायपाहुड और उसकी धवला टोका है। इसमें १ जीवकाण्ड, कलकत्ता सस्करणं, पृ० १५० । २ एपिनेफिया कर्णाटिका जिल्द न० २ । ३ एपिग्रेफिया कर्णाटिका जिल्द न० ५ । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची (१ दर्शनलब्धि,चारित्रलब्धि और ३ क्षायिकचारित्रनामके तीन अधिकार है। प्रथम अधिकारमें पॉच लब्धियोंके स्वरूपादिका वर्णन है, जिनके नाम हैं-१ क्षयोपशम २ विशुद्धि , ३ देशना, ४ प्रायोग्य और ५ करण । इनमेसे प्रथम चार लधियां सामान्य हैं, जो भव्य और अभव्य दोनों ही प्रकारक जीवोंके होती है। पॉचवी करणलघि सम्यग्दर्शन और सम्यकचरित्रकी योग्यता रखने वाले भव्यजीवोंके ही होती है और उसके तीन भेद हैं-१ अघःकरण, २ अपूर्वकरण ३ अनिवृत्तिकरण | दूसरे अधिकारमें चरित्र-लब्धिका स्वरूप और चरित्रके भेदों-उपभेदों आदिका संक्षेपमें वर्णन है । साथ ही. उपशमश्रेणी चढ़नेका विधान है । तीसरे अधिकारमें चारित्रमोहकी क्षपणाका संक्षिप्त विधान है, जिसका अन्तिम परिणाम मुक्ति है । इस प्रकार यह प्रन्थ संक्षेपमें आत्मविकासकी कुजी अथवा उस की साधन-सूचीको लिये हुए है। रायचन्द्र-जैनशास्त्रमालामे मुद्रित प्रतिक अनुसार इसकी गाथासंख्या ६४६ है । इसपर भी दूसरे नेमिचंद्राचार्यको सस्कृत टीका और पं० टोडरमल्ल जीकी हिन्दी टीका उपलब्ध है । पण्डित टोडरमल्लजीने इसके दो अधिकारोंका व्याख्यान तो संस्कृत टीका के अनुसार किया है और तीमरे 'क्षपणा' अधिकारका व्याख्यान उस संस्कृत गद्यात्मक क्षपणासारके अनुसार किया है जो श्रीमाधवचन्द्र विद्यदेवकी कृति है । और इसीसे उन्होंने अपनी सम्यग्ज्ञानन्द्रिका टीकाको लब्धिसारक्षपणासार-सहित गोम्मटसारकी टीका व्यक्त किया है। ४२. त्रिलोकसार-यह त्रिलोकसार प्रन्थ भी उक्त नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीकी कृति है (इसमे ऊर्व मध्य, अघ ऐसे तीनो लोकोके आकार-प्रकारादिका विस्तारके साथ वर्णन है। इसका आधार तिनोयपएणत्ती' (त्रिलोकप्रज्ञप्ति) और 'लोकविभाग' जैसे प्राचीन प्रन्थ जान पड़ते है। इसकी गाथासख्या १०१८ है, जिसमे कुछ गाथाएँ माधवचन्द्र विद्यके द्वारा भी रची गई हैं, जो कि प्रन्धकारके प्रधान शिप्योंमे थे और जिन्होंने इस ग्रन्थपर संस्कृत टीका भी लिखी है । वे गाथाएं नेमिचन्द्राचार्यको सम्मत थी अथवा उनके अभिप्रायानुसार लिखी गई हैं, ऐसा टीकाकी प्रशस्तिमे व्यक्त किया गया है । गोम्मटसार प्रन्थमे भी कुछ गाथाएं आपकी बनाई हुई शामिल है, जिनकी सूचना टीकाओं के प्रस्तावना-वाक्योंसे होती है । गोम्मटसारकी तरह इस ग्रन्थका निर्माण भी प्रधानत. चामुण्डरायको लक्ष्य करके उनके प्रतिवोधनार्थ हुआ है और इस बातको माधवचन्द्रजग्ने अपनी टीकाके प्रारम्भमे व्यक्त किया है। प्रस्तु, यह ग्रन्थ उक्त संस्कृत टीका-सहित माणिकचन्द्र-ग्रन्थमालामे प्रकाशित हो चुका है । इसपर भा १० टोडरमल्ल जीकी विस्तृत हिन्दी टीका है, जिसमे गणितके विपयको विशेष रूपसे खोला गया है। ४३. द्रव्यसंग्रह-यह संक्षेपमे जीव और अजीव द्रव्योके कथनको लिये हुए एक बड़ा ही सुन्दर सरल एवं रोचक प्रन्थ है । इसमें पटद्रव्यों, पंचास्तिकायो. सप्ततत्त्वो और नवपदार्थोंका सूत्ररूपसे वर्णन है । साथ ही, निश्चय और व्यवहार मोक्षमार्गका भी सूत्रतः निरूपण है। और इस लिये यह एक पद्यात्मक सूत्र ग्रन्थ है, जिसकी पद्य संख्या कुल ५८ है। अन्धके अन्तिम पद्यमे ग्रन्थकारने अपना नाम 'नेमिचन्द्रमुनि' दिया है-अपना तथा अपने गुरु आदिका और कोई परिचय नहीं दिया। इन नेमिचन्द्रमुनिको आम तौर पर गोम्मटसारके कर्ता नेमिचन्द्र मिद्धान्नचक्रवर्ती समझा जाता है; परन्तु वस्तुस्थिति ऐसी मालूम नहीं होती और उसके निम्नकरण हैं: प्रथम तो इन ग्रन्थकार महोदयका सिद्धान्तचक्रवर्ती के रूपमे काई प्राचीन उल्लेख नहीं मिलता । संस्कृत टीकाकार ब्रह्मदेवने भी इन्हें सिंद्धान्तचक्रवर्ती नहीं लिखा, किन्तु 'सिद्धान्तिदेव' प्रकट किया है । सिद्धान्ती होना और बात है और सिद्धान्तचक्रवर्ती होना दूसरी बात है। सिद्धान्तचक्रवर्तीका पद सिद्धान्ती, सैद्धान्तिक अथवा मिद्धान्तिदेवके Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 प्रस्तावना पदसे बड़ा है ।) (दूसरे, गोम्मटसारके कर्ता नेमिचन्द्राचार्य की यह खास पद्धति रही है कि वे अपने प्रन्थों मे अपने गुरु अथवा गुरुवोंका नामोल्लेख जरूर करते आए हैं, चुनांचे लब्धिसार और त्रिलोकसारके अन्तमे भी उन्होंने अपने नामके साथ गुरु नामका उल्लेख किया है; परन्तु इस ग्रन्थमे वैसा कुछ नहीं हैं" । अतः इसे भी उन्हीं की कृति कहनेमे संकोच होता है | ) (तीसरे, टीकाकार ब्रह्मदेवने, इस ग्रन्थके रचे जानेका सम्बन्ध व्यक्त करते हुए अपनी टीकाके प्रस्तावना - वाक्यमे लिखा है कि- 'यह द्रव्यसंग्रह नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव के द्वारा, भाण्डागारादि अनेक नियोगों के अधिकारी 'सोम' नामके राजश्र ेष्ठिके निमित्त, ‘आश्रम' नाम नगरके मुनिसुव्रत - चैत्यालय में रचा गया है, और वह नगर उस समय धाराघी महाराज भोजदेव कलिकालचक्रवर्ती सम्बन्धी श्रीपाल मण्डलेश्वर के अधिकारमे था । साथ ही, यह भी सूचित किया है कि 'पहले २६ गाथा - प्रमाण लघुद्रव्यसंग्रहकी रचना की, गई थी, बादको विशेषतत्त्वपरिज्ञानार्थ उसे बढ़ाकर यह ब्रहद्रव्य संग्रह बनाया गया है ।' यह सब कथन ऐसे ढंगसे और ऐसी तफसीलके साथ लिखा गया है कि इसे पढ़ते समय यह खयाल आये बिना नहीं रहता कि या तो ब्रह्म देव उस समय मौजूद थे जब कि द्रव्यसंग्रह बनकर तय्यार हुआ, अथवा उन्हें दूसरे किसी खास विश्वस्त मार्ग से इन सब बातोका ज्ञान प्राप्त हुआ है, और इस लिये इसे सहसा असत्य या अप्रमाण नहीं कहा जा सकता । और जब तक इस कथनको असत्य सिद्ध न कर दिया जाय तब तक यह नहीं कहा जा सकता कि यह प्रन्थ उन्हीं नेमिचन्द्रके द्वारा रचा गया है जो कि चामुण्डरायके समकालीन थे; क्योकि उनका समय ईसाकी १०वीं शताब्दी है, जब कि भोजकालीन नेमिचन्द्रका समय ईसाकी ११वीं शताब्दी बैठता है । ६३ चौथे, द्रव्यसंग्रहके कर्ताने भावासवके भेदोंमे 'प्रमाद' को भी गिनाया है और अविरतके पाँच तथा कपायके चार भेद ग्रहण किये हैं । परन्तु गोम्मटसारके कर्त्ताने ‘प्रमाद' को भावास्रवके भेदोंमें नहीं माना और अविरत के ( दूसरे ही प्रकारके) बारह तथा कषायके २५ भेद स्वीकार किये हैं; जैसा कि दोनों ग्रंथोंके निम्नवाक्योंसे प्रकट है:मिच्छत्ताऽविरदि - पमादजोग - कोहादोऽथ विणणेया । पण पण पदसतिय चदु कमसो भेदा दु पुवस्स ||३०|| – द्रव्यसंग्रह मिच्छत्तं विरमणं कसाय - जोगा य आसवा होंति । पण बारस पणवीसं पण्यरसा होति तन्भेया ॥ ७८६ | गो० कर्मकाण्ड १ "वीरिददिवच्छेणप्पसुदेणभयणं दिसिस्सेय । दंसणचरित्तलद्धी सुसूयिया गेमिचंदेरा" || ६४८ ॥ - लब्धसार "इदि मिचदमुणिया श्रप्पसुदेणभयण दिवच्छेण । रहयो तिलोयसारो खमतु त बहुसुदाइरिया " ॥ १०१८ ॥ - त्रिलोकठार "दव्य संगहमिणं मुणिगादा दोससचयचुदा सुदपूण्णा । मोघपतु तत्तधरेण गेमिचंद मुणिया भणियं जं ॥ ५८ ॥ - द्रव्यसग्रह २ "अथ मालवदेशे धारानामनगराधिपतिराजाभोजदेवाभिधान-कलिकालचक्रवर्ति सम्बन्धिनः श्रीपाल - मण्डलेश्वरस्य सम्बन्धिन्याऽऽश्रमनामनगरे श्रीमुनिसुव्रततीर्थंकर चैत्यालये शुद्धात्मद्रव्यसंवित्तिसम्पन्नसुखामृतरसņस्त्रादविपरीतन।रकादिदुःखभयभीतस्य परमात्मभावनोत्पन्नसुखसुधारसपिपासितस्य भेदाभेदरत्नत्रय भाषा प्रियस्य भव्यत्ररपुण्डरीकस्य भाण्डागाराद्यनेक-नियोगाधिका रिसोमाभिघानराजश्र ेष्ठिनोनिमित्तं श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्ति देवः पूर्वे षडविंशतिगाथाभिलघुद्रव्य संग्रहं कृत्वा पश्चाद्विशेषत्त्वपरिज्ञानार्थं विरचितस्य वृद्रव्यसग्रहस्याधिकारशुद्धिपूर्वकत्वेन वृत्ति. प्रारभ्यते ।” f Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची एक ही विषयपर, दोनों प्रथोंके इन विभिन्न कथनोंसे ग्रंथकर्ताओंकी विभिन्नताका बहुत कुछ बोध होता है । और इस लिये उक्त सब बातोंको ध्यानमें रखते हुए यह कहने में कोई बाधा मालूम नहीं होती कि द्रव्यसंग्रहके कर्ता नेमिचन्द्र गोम्मटसारके कर्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीसे भिन्न हैं । इसी बातको मैंने आजसे कोई २६ वर्ष पहले द्रव्यसंग्रहकी अपनी उस विस्तृत समालोचनामे व्यक्त किया था, जो आरासे मा० देवेन्द्रकुमार द्वारा प्रकाशित 'द्रव्यसंग्रह के अंग्रेजी संस्करणपर की गई थी और जैन हितैषी भाग १३ के १२वें अंकमे प्रकट हुई थी। उसके विरोधमे किसीका भी कोई लेख अभी तक मेरे देखने में नहीं आया। प्रत्युत इसके, प० नाथूरामजी प्रेमीने, त्रिलोकसारकी अपनी (ग्रंथकर्तृ परिचयात्मक) प्रस्तावनामें, उसे स्वीकार किया है। अस्तु; नेमिचन्द्र नामके अनेक विद्वान् आचार्य जैनसमाजमे होगए हैं, जिनमेसे एक ईसाकी प्रायः ११वीं शताब्दी में भी हुए हैं जो वसुनन्दि-सद्धान्तिकके गुरु थे, जिन्हें वसुनन्दि-श्रावकाचारमे 'जिनागमरूप समुद्रकी वेला-तरंगोंसे धूयमान और संपूर्णजगतमे विख्यात' लिखा है। आश्चर्य तथा असंभव नहीं जो ये ही नेमिचन्द्र द्रव्यसंग्रहके कर्ता हों, परन्तु यह बात अभी निश्चितरूपले नहीं कही जा सकती-उसके लिये और भी कुछ सावन-सामग्रीकी ज़रूरत है। ग्रंथपर ब्रह्मदेवकी उक्त टीका आध्यात्मिक दृष्टि से निश्चय और व्यवहारका पृथककरण करते हुए कुछ विस्तारके साथ लिखी गई है। इस टीकाकी एक हस्तलिखित प्रति जेसलमेरके भण्डारमे संवत् १५८५ अर्थात् ई. सन् १४०८ की लिखी हुई उपलब्ध है और इससे यह टीका ई० सन् १४२८ से पहलेकी बनी हुई है। चूंकि टीकामें घाराधीश भोजका उल्लेख है, जिसका समय ई० सन् १०१८ से १०६० है अत. यह टीका ईसाकी १५वीं शताब्दी , से पहलेकी नहीं है। इसका समय अनुमानतः १२वीं-१३वीं शताब्दी जान पड़ता है। ४४. कर्मप्रकृति- यह वही १६० गाथाओंका एक संग्रह ग्रंथ है जो प्रायः गोम्मटसारके कर्ता नेमिचन्द्राचार्य (सिद्धान्तचक्रवती) की कृति समझा जाता है; परन्तु वस्तुतः उनके द्वारा संकलित मालूम नहीं होता-उन्हींके नामके अथवा उन्हींके नामसे किसी दूसरे विद्वानके द्वारा संकलित या संगृहीत जान पड़ता है और जिसका विशेष ऊहापोहके साथ पूर्ण परिचय गोम्मटसार-विषयक प्रकरणमे 'प्रकृति समुत्कीर्तन और कर्मप्रकृति' उपशीर्षकके नीचे दिया जा चुका है । वहींपर इस ग्रंथपर उपलब्ध होनेवाली टीकाओ तथा टिप्पणादिका भी उल्लेख किया गया है, जिनपरसे ग्रंथका दूसरा नाम 'कर्मकाण्ड' उपलब्ध होता है और गोम्मटसार-कर्मकाण्डकी दृष्टिले जिसे 'लघुकर्मकाण्ड' कहना चाहिये । यहॉपर मैं सिर्फ इतना ही बतलाना चाहता हूँ कि इस ग्रंथका अधिकांश शरीर, आदि-अन्तभागों-सहित गोम्मटसारकी गाथाओंसे निर्मित हुआ है-गोम्मटसारकी १०२ गाथाएं इसमे ज्यो-की-त्यों उधृत हैं और २८ गाथाएं उसीके गद्य सूत्रोंपरसे निर्मित जान पड़ती हैं। शेष ३० गाथाओं में १६ गाथाएं तो देवसेनादिके भावसंग्रहादि ग्रंथोंसे ली गई मालूम होती हैं और १४ ऐसी हैं जिनके ठीक स्थानका अभी तक पता नहीं चला-वे धवलादि ग्रंथोके पटसंहननोंके लक्षण-जैसे वाक्योंपरसे सग्रहकारद्वारा खुदकी निर्मित भी हो सकती है । इन सब गाथाओंका विशेष परिचय गोम्मटसार-प्रकरणके उक्त उपशीर्षकके नीचे (पृष्ठ ७४ से ८८ तक) दिया है, वहींसे उसे जानना चाहिये ।) : - ४५. पंचसंग्रह-यह गोम्मटसार-जैसे विषयों का एक अच्छा अप्रकाशित संग्रह ग्रंथ है। गोम्मटसारका भी दूसरा नाम "पंचसंग्रह' है; परन्तु उसमे सारे ग्रंथको जिस प्रकार दो काण्डों (जीव, कर्म) में विभक्त किया है और फिर प्रत्येक काण्डके अलग अलग अधिकार दिये हैं उस प्रकारका विभाजन इस ग्रंथमे नहीं है। इसमें समूचे ग्रंथको पाच अधिकारों Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ६५ में विभक्त किया है और वे अधिकार हैं १ जीवस्वरूप, २ प्रकृति समुत्कीर्तन, ३ कर्मस्तव, ४ शतक और ५ सप्ततिका । ग्रंथकी गाथासंख्या १५०० के लगभग है-किसी किसी प्रति 1 कुछ गाथाएं कम - बढ़ती भी पाई जाती हैं, इससे अभी निश्चित गाथासंख्याका निर्देश नहीं किया जा सकता | गाथाओ के अतिरिक्त कहीं कहीं कुछ गद्य-भाग भी पाया जाता है। ग्रंथकी जो दो चार प्रतियाँ देखने मे आई उनमेसे किसीपर से भी ग्रंथकर्ताका नाम उपलब्ध नहीं होता और न रचनाकाल ही पाया जाता है। और इससे यह समस्या अभी तक खड़ी ही चली जाती है कि इस ग्रंथ के कर्ता कौन आचार्य है और कब यह ग्रंथ बना है ? ग्रंथपर सुमतिकीर्तिकी संस्कृत टीका और किसीका संस्कृत टिप्पण भी उपलब्ध है, परन्तु उनपर से भी इस विषय मे कोई सहायता नहीं मिलती । प० परमानन्दजी शास्त्रीने इस ग्रंथका प्रथम परिचय अनेकान्तके तृतीय वर्षकी तीसरी किरण में 'अतिप्राचीन प्राकृत पंचसंग्रह' नामसे प्रकाशित कराया है । यह परिचय जिस प्रतिके आधारपर लिखा गया है वह बम्बईके ऐलकपन्नालाल - सरस्वती-भवनकी ६२ पत्रात्मक प्रति है', जो माघ वदी ३ गुरुवार संवत् १५२७ की टंबकनगरकी लिखी हुई है । इस परिचयमे चौथे-पाँचवें अधिकारकी निम्न दो गाथाओको उद्घृत करके बतलाया है कि "ग्रंथकी अधिकांश रचना दृष्टिवादनामक १२वें अंगसे सार लेकर और उसकी कुछ गाथाओ को भी उद्धृत करके की गई है ।" और इस तरह ग्रंथकी अतिप्राचीनताको घोषित किया है : -: * सुग्रह इह जीव- गुणसन्निहीसु ठाणेसु सारजुत्ताओ । वोच्छं कदिवइयाश्रो गाहाओ दिट्टिवादाओ ॥ ४-३ ॥ सिद्धपदेहिं महत्थं बंधोदय- सत्त- पयडि-ठाणाणि । वोच्छ पुण संखेषेण णिस्सदं दिट्टिवादा ॥ ५-२॥ साथ ही, कुछ गाथाओं की तुलना करते हुए यह भी बतलाया है कि वीरसेनाचार्य की घवला टीकामे जो सैकड़ों गाथाएँ 'उक्त' च' आदि रूपसे उधृत पाई जाती हैं । वे तो प्रायः इसी (ग्रन्थ) परसे उधृत जान पड़ती हैं। उनमें से जिन १०० गाथाओं को प्रो० हीरालालजीने, धवलाके सत्प्ररूपणा-विषयक प्रथम अंशकी प्रस्तावना में, धवलापरसे गोम्मटसार मे संग्रह किया जाना लिखा है वे गाथाऍ गोम्मटसार में तो कुछ पाठभेदके साथ भी उपलब्ध होती हैं परन्तु पंचसंग्रह में प्रायः ज्योंकी त्यों पाई जाती हैं ।' और इस परसे फिर यह फलित किया है कि 'आचार्य वीरसेनके सामने 'पंचसग्रह' जरूर था, इसी से उन्होंने उसकी उक्त गाथाओं को अपने ग्रन्थ (धवला ) मे उद्धृत किया है । आचार्य वीरसेनने अपनी 'धवला टीका शक संवत् ७३८ (वि० सं० ८७३) मे पूर्ण की है। अतः यह निश्चित है कि पचसग्रह इससे पहलेका बना हुआ है ।" परन्तु यह फलितार्थ अपने औचित्य के लिये कुछ अधिक प्रमाणकी आवश्यकता रखता है- कमसे कम जब तक धवलामे एक जगह भी किसी गाथाके उद्धरणके साथ पंचसंग्रहका स्पष्ट नामोल्लेख न बतला दिया जाय तब तक मात्र गाथाओंकी समानतापरसे यह नहीं कहा जा सकता कि घवलामे वे गाथाएँ इसी पचसंग्रह ग्रन्थपर से उधृत की गई हैं, जो खुद भी एक सग्रह ग्रन्थ है । हो सकता है कि घवला परसे ही वे गाथाएँ पंचसंग्रहमें उसी प्रकार सग्रह की गई हो जिस प्रकार कि गोम्मटसार मे बहुत-सी गाथाएँ सग्रहीत पाई जाती हैं। साथ ही, यह भी हो सकता है कि पचसंग्रहपरसे ही घवलामें उनको उद्धृत किया गया हो । इसके सिवाय, यह १ ग्रन्थकी दूसरी प्रतिया जयपुर श्रामेर, नागौर आदि के शास्तभण्डारों में पाई जाती है । 1 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ पुरातन जैनवाक्य-सूची भी संभव है कि धवलामें वे किसी दूसरे ही प्राचीन ग्रन्थपर से उद्धृत की गई हों और उसी परसे पंचसंग्रहकारने भी उन्हें स्वतंत्रतापूर्वक अपनाया हो। और इस तरह विशेष प्रमाणके अभावमे पंचसंग्रह घवलासे पूर्ववर्ती तथा पञ्चाद्वर्ती दोनों ही हो सकता है । इसी तरह पंचसंग्रहमें "पुढं सुइ सद्दं पुट्ट पुरा पस्सदे रूवं, फासं रसं च गंध बद्धं पुट्ठ ं वियागादि" इस गाथाको देखकर और तत्त्वार्थ सूत्र ९, १६की 'सर्वार्थसिद्धि' वृत्ति में उसे उद्धृत पाकर यह जो नतीजा निकाला गया है कि "विक्रमकी छठी शताब्दीक पूर्वार्ध के विद्वान आचार्य देवनन्दी ( पूज्यपाद) ने अपनी सर्वार्थसिद्धि में आगमसे चक्षुइन्द्रियको अप्राप्यकारी सिद्ध करते हुए पंचसंग्रहकी यह गाथा उद्घृत की है, जिससे स्पष्ट है कि पंचसंग्रह पूज्यपादसे पहलेका बना हुआ है" वह भी अपने औचित्य के लिये विशेष प्रमाणकी आवश्यकता रखता है, क्योंकि सर्वार्थसिद्धि में उक्त गाथाको उद्घृत करते हुए 'पंचसंग्रह' का कोई नामोल्लेख नहीं किया गया है, बल्कि स्पष्ट रूपमे "आगमतस्तावत्" इस वाक्य के साथ उसे उद्धृत किया है और इससे बहुत संभव है कि मौलिक कृतिरूप में रचे गये किसी स्वतंत्र आगम ग्रन्थकी ही उक्त गाथा दो और वहीं परसे उसे सर्वार्थ सिद्धिमें उद्धृत किया गया हो, न कि किसी संग्रहग्रन्थपरसे । साथ ही, यह भी संभव है कि सर्वार्थसिद्धिपरसे ही उक्त गाथाको पंचसंग्रह में अपनाया गया हो अथवा उस आगम ग्रन्थ परसे सीधा अपनाया गया हो जिसपरसे वह सर्वार्थसिद्धिमें उद्धृत हुई है। और इसलिये सर्वार्थसिद्धि में उक्त गाथाके उद्घृत होने मात्रसे यह लाजिमी नतीजा नहीं निकाला जा सकता कि ‘पंचसंग्रह' सर्वार्थसिद्धिसे पहलेका बना हुआ है । वह नतीजा तभी निकाला जा सकता है जब पहले यह साबित ( सिद्ध ) हो जाय कि उक्त गाथा पंचसंग्रहकारकी ही मौलिक कृति है - दूसरी गाथाओं की तरह अन्यत्र से ग्रंथमे संगृहीत नहीं है । P 4 1 ग्रंथके प्रथम अधिकार में दर्शनमोहकी उपशमना और क्षपणा-विषयक तीन गाथाएँ ऐसी संगृहीत हैं जो श्रीगुणधराचार्य के कषायपाहुड । कषायप्राभृत ) में नं० ६१, १०६, १०६ पर पाई जाती हैं, उन्हें तुलनाके साथ देनेके अनन्तर परिचयलेख मे लिखा है कि कषायप्राभृतका रचनाकाल यद्यपि निर्णीत नहीं है तो भी इतना तो निश्चित है कि इसकी रचना कुन्दकुन्दाचार्य से पहले हुई है । साथ ही, यह भी निश्चित है कि गुणधराचार्य पूर्ववित थे और उनके इस ग्रंथ की रचना सीधी ज्ञानप्रवादपूर्वके उक्त अशपरसे स्वतंत्र हुई है— किसी दूसरे आधारको लेकर नहीं हुई । अत. यह कहना होगा कि उक्त तीनों गाथाएं प्रभृती ही हैं और उसीपर से पंचसंग्रह में उठाकर रक्खी गई हैं।" इससे पचसंप्रहकी पूर्वसीमाका निर्धारण होता है अर्थात् वह कषायप्राभृतसे, जिसका समय विक्रमकी १ली शताब्दीसे बादका मालूम नहीं होता, पूर्वकी रचना नहीं है, बादकी ही है; परन्तु कितने बाकी, यह अभी ठीक नहीं कहा जा सकता । हाँ, इतना जरूर कहा जा सकता है कि पंचसंग्रहकी रचना विक्रम संवत् १०७३ से बादकी नहीं है— पहलेकी ही है; क्योंकि इन संवत् तिचार्य ने अपना संस्कृतका पंचसंग्रह बनाकर समाप्त किया है, जो प्रायः इसी प्राकृत पंचसंग्रह के आधार पर - इसे सामने रखकर अधिकांशत: अनुवादरूप में प्रस्तुत किया गया है । और इसलिये इस संवत्को पंचसग्रहके निर्माण-कालकी उत्तरवर्ती सीमा कहना चाहिये, अर्थात् इस संवत् के बाद उसका निर्माणसभव नहीं - वह इससे पहले ही हो चुका है। पंचसग्रहके निर्माणके बाद उसके प्रचार, प्रसिद्धि, अमितगति तक पहुँचने और उसे संस्कृतरूप देनेकी प्रेरणा मिलने आदिके लिये भी कुछ समय चाहिये ही, वह समय यदि कमसे कम ५०-६० वर्षका भी मान लिया जाय, जो अधिक नहीं है, तो यह १ त्रिसप्तत्यधिकेऽब्दाना सहले कविद्विषः । मसूनिकापुरे जातमिदं शास्त्र मनोरमम् ॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ६७ कहना भी कुछ अनुचित नहीं होगा कि प्रस्तुत ग्रंथ गोम्मटसारसे, जो विक्रम संवत् १०३५ क बाद बना है, पहलेकी रचना है। और इसलिये यह ग्रंथ विक्रमकी ११वी शताव्दीसे पूर्व की ही कृति है । कितने पूर्वकी ? यह विशेष अनुसंधानसे सम्बन्ध रखता है और इससे निश्चितरूपमे उसकी बाबत अभी कुछ नहीं कहा जा सकता, फिर भी इतना तो कह ही सकते हैं कि वह विक्रमकी १ ली और १०वीं शताब्दीके मध्यवर्ती कोई काल होना चाहिये। (अब मै यहाँ पर इतना और बतला देना चाहता हूँ कि इस ग्रन्थके जो अन्तिम तीन अधिकार कर्मस्तव, शतक और सप्ततिका नामके हैं उन्हीं नामोके तीन ग्रन्थ श्वेताम्बर सम्प्रदायमे अलग भी पाये जाते हैं, जिनकी गाथासंख्या क्रमशः ५५, १०० तथा १०८, ७५ पाई जाती है। उनमेसे शतकको बन्ध-विपयक कथनकी प्रधानताके कारण 'वन्धशतक' भी कहते हैं और उसका कर्ता कर्मप्रकृतिके रचयिता शिवशर्मसूरिको बतलाया जाता है । 'कर्सस्तव' को द्वितीय प्राचीन कर्मग्रंथ कहा जाता है और उसका अधिक स्पष्ट नाम 'बन्धोदयसत्वयुक्तस्तव' है, उसके कर्ताका कोई पता नहीं। सप्ततिकाको छठा कर्मग्रंथ कहते हैं और उसे चन्द्रर्षि आचार्यकी कृति बतलाया जाता है। खेताम्बरों के इन ग्रंथोंकी पंचसग्रहके साथ तुलना करते हुए, पं० परमानन्दजी शास्त्रीने श्वेताम्बर कर्मसाहित्य और दिगम्बर पचसंग्रह' नामका एक लेख लिखा है, जो तृतीय वर्षके अनेकान्तकी छठी किरणमें प्रकाशित हुआ है । उसमे कुछ प्रमाणों तथा ऊहापोहके साथ यह प्रकट किया गया है कि 'वन्धशतक' शिवशर्मकी, जिनका समय विक्रमकी ५वीं शताब्दी अनुमान किया जाता है, कृति मालूम नहीं होता और न सप्ततिका चन्दर्षिकी कृति जान पड़ती है। साथ हो तीनों ग्रन्थोंमे पाई जानेवाली कुछ असगतता, विशृखलता तथा ऋटियोंका दिग्दर्शन कराते हुए गाथानम्बरोंके निर्देश सहित यह भी बतलाया है कि पंचसंग्रहके शतक प्रकरणकी ३०० गाथाओमेसे ९४ गाथाएँ बन्धशतकमे, कर्मस्तवकी ७८ गाथाओंमेसे ५३ और दो गाथाएँ प्रकृतिसमुत्कीर्तन प्रकरणकी इस तरह ५५ गाथाए कर्मस्तव ग्रन्थमे और सप्ततिका प्रकरणकी कईसौ गाथाओंमेसे ५१ गाथाए सप्ततिका ग्रन्थमे प्रायःन्योकी-त्यों अथवा थोड़ेसे पाठभेद, मान्यताभेद या शब्दपरिवर्तनके साथ पाई जाती हैं, जिनके कुछ नमूने भी दिये गये हैं और उन सबका पचसंग्रहपरसे उठाकर अलग अलग ग्रन्थोंके रूपमे सकलित किया जाना घोपित किया है। शास्त्रीजीका यह सब निर्णय कहाँ तक ठीक है इस सम्बन्ध मे मैं अभी कुछ कहने के लिये तय्यार नहीं हूँ, क्योंकि दिगम्बर पंचसंग्रह और श्वेताम्बर कर्मग्रंथोंके यथेष्ट रूपमे स्वतंत्र अध्ययन एवं गवेषणापूर्ण विचारका मुझे अभी तक कोई अवसर नहीं मिल सका है । अवसर मिलनेपर उस दिशामे प्रयत्न किया जायगा और तब जैसा कुछ विचार स्थिर होगा उसे प्रकट किया जायगा । हॉ, एक बात यहाँ पर और भी प्रकट कर देने की है और वह यह कि पंचसंग्रहके शतक अधिकारमे जो ३०० गाथाएं हैं उनकी बावत यह मालूम हुआ है कि उनमे मूलगाथाएं १०० है, बाकी दोसौ २०० भाष्य-गाथाए हैं। इसी तरह सप्ततिकामे मूलगाथाएं ७० और शेष सब भाष्यगाथाएं हैं। और इससे स्पष्ट है कि पंचसंग्रहका सकलन उस वक्त हुआ है जबकि स्वतंत्र प्रकरणोंके रूपमे शतक और सप्ततिकाकी मूल गाथाए ही नहीं बल्कि उनपर भाष्यगाथाएं भी बन चुकी थीं, इसीसे पंचसग्रह्कार दोनोका संग्रह करनमें समर्थ हो सका है। दोनो मूलप्रकरणोपर प्राकृतकी चूर्णि भी उपलब्ध है, दोनोंका ही सम्बन्ध दृष्टिवादकी गाथाओं आदिसे बतलाया गया है। और इससे दोनो प्रकरण अधिक प्राचीन हैं। यह भी मालूम होता है कि भाष्यगाथाओका प्रचार प्रायः दिगम्बर सम्प्रदायमै रहा है-श्वेताम्बर सम्प्रदायकी टीकाओक साथ वे नहीं पाई जाती-और उनमेंस ‘सन्धह्रदीणमुक्कस्स' तथा 'सुहपगदी(यडी)ण विसोही नामकी दो गाथाएं अकलंकदेवके राजवातिक (६-३) में 'उक्त च' रूपसे उद्धत भी मिलती है, जिससे भाष्यगाथाओंका प्राय. Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ἐπ पुरातन जैनवाक्य सूची ७ वी शताब्दी से पहले ही निर्मित होना जान पड़ता है और इससे भाष्य भी अधिक प्राचीन ठहरता है । अब देखना यह है कि दोनों मूल प्रकरण दिगम्बर हैं या श्वेताम्बर अथवा ऐसे सामान्य स्रोतसे सम्बन्ध रखते हैं जहाँसे दोनों ही सम्प्रदायोंने उन्हें अपनी अपनी रुचि एवं सैद्धान्तिक स्थिति के अनुसार अपनाया है और उनका कर्ता कौन है तथा रचनाकाल क्या है ? साथ ही दोनों प्रकरणों की भाष्यगाथाएँ तथा चूर्णियाँ कब बनी हैं और किस किसके द्वारा निर्मित हुईं हैं ? ये सब बातें गहरी छान-बीन और गंभीर विचारणा से सम्ब न्ध रखती हैं, जिनके होने पर सारा रहस्य सामने आ सकेगा । संक्षेपमें यह ग्रन्थ अपने साहित्य की दृष्टिसे बहुत प्राचीन और विपयवर्णनादिकी दृष्टिसे अत्यन्त महत्वपूर्ण है - भले ही इसका वर्तमान 'पंचसंग्रह' के रूप में संकलन विक्रमकी ११वीं शताब्दीसे पहले कभी क्यों न हुआ हो और किसीके भी द्वारा क्यो न हुआ हो । ४६. ज्ञानसार -- यह ग्रंथ ध्यान-विषयक ज्ञानके सारको लिये हुए है, इसमें ध्यान - विषयका सारज्ञान कराया गया है । अथवा ज्ञानप्राप्तिका सार श्रमुकरूपसे ध्यान - प्रवृत्तिको बतलाया है । और इसीसे इसका ऐसा नाम रक्खा गया मालूम होता है। अन्यथा इसे ‘ध्यानसार' कहना अधिक उपयुक्त जान पड़ता है। ध्यानविषयका इसमे कितना ही उपयोगो वर्णन है । इसकी गाथासंख्या ६३ है और उसे ७४ श्लोकपरिमाण बतलाया गया है । इसके कर्ता श्रीपद्मसिंह मुनि हैं, जिन्होने अपने मनके प्रतिबोधनार्थ और परमात्मस्वरूपकी भावनाके निमित्त श्रावण शुक्ला नवमी वि० संवत् १०८६ को 'अम्बक' नगर मे इस ग्रन्थ की रचना की है। गून्थकारने अपना तथा अपने गुरु आदिकका कोई परिचय नहीं दिया, और इसलिये उनके विषय मे कुछ नहीं कहा जा सकता, यह सब विशेष अनुसन्धानसे सम्बन्ध रखता है । गन्धकी ३६वीं गाथामे बतलाया है कि जिस प्रकार पाषाण में सुवर्ण और काष्ठ अग्नि दोनों विना प्रयोग के दिखाई नहीं पड़ते उसी प्रकार ध्यानके बिना आत्माका दर्शन नहीं होता और इससे ध्यानका माहात्म्य, लक्ष्य एवं फल स्पष्ट जान पड़ता है, जिसे ध्यानमे लेकर ही यह ग्रन्थ लिखा गया है। यह ग्रन्थ मूलरूप से माणिकचन्द्रग्रंथमालामें प्रकट हो चुका है। ४७. रिष्टसमुच्चय- यह ग्रंथ मृत्युविज्ञान से सम्बन्ध रखता है । इसमे अनेक पिण्डस्थ, पदस्थ तथा रूपस्थादि चिन्हों-लक्षणों, घटनाओं एव निमित्तोंके द्वारा मृत्युको पहलेसे जान लेनेकी कलाका निर्देश है । इसके कर्ता श्रीदुर्गदेव हैं जो उन सयमदेव मुनीश्वर के शिष्य थे जिनकी बुद्धि षट्दर्शनोंके अभ्याससे तर्कमय हो गई थी, जो पञ्चाङ्ग तथा शब्दशास्त्रमे कुशल थे. समस्त राजनीतिमे निपुण थे, वादिगजों के लिये सिंह थे और सिद्धान्तसमुद्रपारको पहुॅचे हुए थे । उन्हीं की आज्ञासे यह ग्रन्थ 'मरणकण्डिका" आदि अनेक प्राचीन ग्रन्थो का उपयोग करके तीन दिनमे रचा गया है और (विक्रम) सवत् १०८६ की श्रावण शुक्ला एकादशीको मूल नक्षत्र के समय श्रीनिवास राजाके राज्यकालमें कुम्भनगरके शान्तिनाथ मन्दिरमे बनकर समाप्त हुआ है। दुर्गदेवने अपनेको 'देसजई' (देशयति) बतलाया है, और इससे वे श्रष्टमूलगुण सहित श्रावकीय १२ व्रतों से भूपित' अथवा क्षुल्लक साधुके पदपर प्रतिष्ठित जान पड़ते हैं । साथ ही, अपने गुरुओं मे संयमसेन और माधवचन्द्रका भी नामोल्लेख किया है, परन्तु उनके विपयमे अधिक कुछ नहीं लिखा । डा० अमृतलाल सवचन्द गोपाणीने अपनी प्रस्तावनामे उन्हें सयप्रदेवके क्रमश. गुरु तथा दार्दा गुरु बतलाया है, परन्तु यह बात मूलपरस स्पष्ट नहीं होता । १ "मूल गुण उत्ता बाग्द्दवयभूमिश्रो हु देसजई ” भावसग्रहे देवसेन: · २ जयउ जए जियमाणो संजमदेवो मुणीसरो इत्य । तहविहु सजमसेगो माहवचंदो गुरू तह य ॥ २५४ ॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ६६ प्रन्थकी गाथासंख्या २६१ है और जिस मरणकंडिकाके उपयोगका इसमे स्पष्ट उल्लेख है उसकी अधिकांश गाथाएं इसमें ज्यों-की-त्यों देखी जाती हैं, शेषके विपयमें कुछ नहीं कहा जा सकता; क्योकि मरणकण्डिका अधूरी ही उपलब्ध है और इसीसे उसके रचयिताका नाम भी मालूम नहीं होता-वहु मरणविषयपर अच्छा प्राचीन एवं विस्तृत प्रन्थ जान पड़ता है। मरणकंडिकाके अतिरिक्त और भी रिष्टविषयक कुछ ग्रन्थोके वाक्योंका शब्दशः अथवा अर्थश. सग्रह इसमे होना चाहिये; क्योंकि ग्रन्थकारने 'रइयं बहुसत्थत्थं उवजीवित्ता' । इस वाक्यके द्वारा स्वय उसकी सूचना की है और तभी यह संग्रहप्रन्थ तीन दिनमें तय्यार हो सका है, जो अपने विषयका एक अच्छा उपयोगी संकलन है । यह ग्रन्थ हालमें उक्त डा. गोपाणीके द्वारा सम्पादित होकर सिघी-जैनग्रन्थमालामे बम्बईसे अंग्रेजी अनुवादादिके साथ प्रकाशित हुआ है। मेरा विचार कई वर्ष पहलेसे इस ग्रन्थको, और भी कुछ प्रकरणो। सहित 'मत्युविज्ञान के रूपमें हिन्दी अनुवादादिके साथ वीरसेवामन्दिरसे प्रकट करनेका था. चुनॉचे वीरसेवामन्दिर ग्रन्थमालाके प्रथम ग्रन्थ 'समाधितंत्र' में, अन्धमालामें प्रकाशित होनेवाले ग्रन्थोकी सूची देते हुए, इसके भी नामका उल्लेख किया गया था; परन्तु अभी तक इस कामको हाथमे लेनेका यथेष्ट रूपसे अवसर ही नहीं मिल सका । अस्तु । ___ यहाँ पर मैं इतना और बतला देना चाहता हूँ कि इस ग्रन्थकारके रचे हुए दो ग्रन्थ और भी हैं-एक 'अर्घकाण्ड' और दूसरा मंत्रमहोदधि' । अर्घकाण्ड उपलब्ध है। उसकी गाथासंख्या १४६ है और वह वस्तुओंकी मंदी-तेजी जाननेके विज्ञानको लिये हुए । एक अच्छा महत्वका ग्रन्थ है। वाक्य-सूचोके समय यह अपनेको उपलब्ध नहीं हुआ था, इसीसे वाक्यसूचीमे शामिल नहीं हो सका । मत्रमहोदधिका उल्लेख वृहटिप्पणिका' में "मंत्रमहोदधिः प्रा. दिगंबर श्रीदुर्गदेव कृतः म० गा० ३६" इस रूपसे मिलता है और इसपरसे उसकी गाथासंख्या ३६ जानी जाती है । यह ग्रन्थ अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ। इसकी खोज होनेकी जरूरत है। ४८. वसुनन्दि-श्रावकाचार-यह वसुनन्दि आचार्यकी कृति-रूप श्रावकाचारविपयका एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है, जिसमे दर्शनादि ११ प्रतिमाओंके क्रमसे आचारादि-विषयका निरूपण किया है। मुद्रित प्रतिके अनुसार इसकी गाथासंख्या ५४८ है और श्लोककी दृष्टिसे इसका परिमाण अन्तकी गाथामे ६५० दिया है। ग्रन्थकी दूसरी गाथामे 'सावयधम्म परवेमो' इस प्रतिज्ञाके द्वारा ग्रन्थनाम श्रावकधर्म (श्रावकाचार) सूचित किया है और अन्तकी ५४६ वी गाथामे 'रइयं भवियाणमुवासयज्झयणं' इस वाक्यके द्वारा उसे 'उपासकाध्ययन' नाम दिया है। आशय दोनोंका एक ही है-चाहे 'उपासकाध्ययन' कहो और चाहे 'श्रावकाचार। इस ग्रन्थके अन्तमे वसुनन्दीने अपनी गुरुपरम्पराका जो उल्लेख किया है उससे मालूम होता है कि श्रीकुन्दकुन्दाचार्यकी वश-परम्परामे श्रीनन्दी नामके एक बहुत ही यशस्वी, गुणी एव सिद्धातशास्त्रके पारगामो आचार्य हुए हैं। उनके शिष्य नयनन्दी भी वैसे ही प्रख्यातकीर्ति, गुणशाली और सिद्धान्तके पारगामी थे । नयनन्दीके शिप्य नेमिचन्द्र थे. जो जिनागमसमुद्रकी वेलातरंगोंसे धूयमान और सकल जगतमे विख्यात थे। उन्हीं नेमिचन्द्र के शिष्य वसुनन्दीने, अपने गुरुके प्रसादसे, आचार्यपरम्परासे चले आए हुए श्रावकाचारको इस ग्रन्थमे निवद्ध किया है । यह ग्रन्थ अभी तक बहुत कुछ अशुद्ध रूपमे प्रकाशित हुआ है, इसकी एक अच्छी शुद्ध प्रति देहलीके शास्त्रभण्डारमे मौजूद है। उसपरसे तथा और भी शुद्ध प्रतियोका उपयोग करके इसका एक अच्छा शुद्ध सस्करण प्रकाशित होना चाहिये। १ जैनसाहित्यसशोधक प्रथमखण्ड अक ४, पृ० १५७ । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० पुरातन-जैनवाक्य-सूची इस ग्रन्थमें वसुनन्दीने ग्रन्थरचनाका कोई समय नहीं दिया, परन्तु उनकी इस कृतिका उल्लेख १३वीं शताब्दीके विद्वान् पं० आशाधरने अपनी. सागारधर्मामतकी टीकामें किया है, इससे वे १३वीं शताब्दीसे पहले हुए हैं। और चूंकि उन्होंने मूलाचारकी अपनी 'आचारवृत्ति' में ११वीं शताब्दीके विद्वान् आचार्य अमिततके उपासकाचारसे 'त्यागो देहममत्वस्य तनूत्मृतिरूदाहृता' इत्यादि पाँच श्लोक 'उपासकाचारे उक्तमास्ते' रूपसे उद्धृत किये हैं, इसलिये वे अमितगतिके बाद हुए है। और इसलिये उनका तथा उनकी इस कृतिका समय विक्रम की १२वों शताब्दीका पूर्वार्ध जान पड़ता है और यह भी हो सकता है कि वह ११वीं शताब्दीका चतुर्थ चरण हो, क्योंकि, पं० नाथूरामजीके उल्लेखानुसार२ अमितगतिने अपनी भगवतीआराधना के अन्तमे आराधनाक़ी स्तति करते हुए उसे 'श्रीवसुनन्दियोगिमहिता' लिखा है । यदि ये वसुनन्दी योगी कोई दूसरे न होकर प्रस्तुत श्रावकाचारके कर्ता ही है तो वे अमितगतिके समकालीन भी हो सकते हैं और १२वीं शताब्दीके प्रथम चरणमें भी उनका अस्तित्व बन सकता है । यहॉ पर मै इतना और भी वतला देना चाहता हूँ कि एक 'तत्त्वविचार' नामका ग्रन्थ भी वसुनन्दिसूरिकी कृतिरूपमें उपलब्ध है, जिसके वाक्य इस वाक्य-सची में शामिल नहीं हो सके हैं । उसकी एक प्रति बम्बईके ऐलकपन्नालालसरस्वतीभवनमें मौजूद है जिसकी पत्रसंख्या २७ है। सी० पी० और वरारके केटेलॉगमे भी उसकी एक प्रतिका उल्लेख है। ग्रन्थकी गाथासंख्या ६५ है और उसका प्रारंभ 'णमिय जिणपासपय' और 'सुयसायरो अपारो' इन दो गाथाओसे होता है तथा अन्तकी दो गाथाएँ समाप्तिवाक्यसहित इस प्रकार है " एसो तच्चवियारो सारो सज्जन-जणाण सिवसुहदो । वसुनंदिसूरि-रइयो भव्याणं पोहण खु ॥ १४ ॥ जो पढइ सुणइ अक्खइ अण्णं पाढेइ देइ उवएसं । सो हणइ णिय य कम्मं कमेण सिद्धालयं जाई ॥ १५ ॥ इति वसुनन्दि-सिद्धांति-विचित-तच्वविचारः समाप्तः।" इस ग्रन्थमे १ णवकारफल, २ धर्म, ३ एकोनविंशद्भावना, ४ सम्यक्त्व, ५ पूजाफल, ६ विनयफल, ७ वैश्यावृत्य, ८ एकादशप्रतिमा, ६ जीवदया, १० श्रावकविधि, ११.अणुव्रत, और १२ दान नामके बारह प्रकरण है। इनमेंसे प्रतिमा, विनय, और वैयावृत्य प्रकरणोंका जो मिलान किया गया तो मालूम हुआ कि इन प्रकरणोमे बहुतसी गाथाएँ वसुनन्दिश्नावकाचारसे ली गई है, बहुतसी गाथाएं उस श्रावकाचारकी छोड़ दी गई हैं और कुछ गाथाएं इधर उधरसे भी दी गई हैं। व्रतप्रतिमामें 'गुणव्रत' और 'शिक्षाव्रत' के कथनकी जो गाथाएं दी हैं वे इस प्रकार है: यस्तु-पचुंबरसाहियाइ सत्त वि वसणाई जो विवज्जेइ । सम्मत्तविसुद्धमई सो दंसणसावनो भणियो।" इति वमुनन्दिसैद्धान्तिमतेन दर्शनप्रतिमाया प्रतिपन्नस्तस्येदं । तन्मतेनैव व्रतप्रतिमा विभ्रतो ब्रह्माणुव्रतं स्यात् तद्यथा-पव्वेसु इत्यिसेवा अणगकीडा सया विवज्जेइ । थूलपड बभयारी जिणेहि मणिदो पवयणम्मि ॥" (४-५२ पृ० ११६) २ नसाहित्य और इतिहास पृ० ४६३ । V३ यह ग्रन्थ बम्बई में अगस्त सन् १६२८ में देखा था और तभी इसके कुछ नोट लिये थे, जिनके आधार पर ये परिचय-पंक्तियाँ लिखी जा रही हैं। इस विषयपर 'तत्त्वविचार और वसुनन्दी' नामका एक नोट भी अनेकान्तके प्रथम वर्षकी किरण ५ में पृ० २७४ पर प्रकाशित किया गया था। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना दिसिविदिसिपच्चक्खाणं अणत्थदंडाण होइ परिहारो।। भोप्रोवभोयसंखा एए हु गुणव्वया तिरिण ॥ ५६ ॥ देवे थुवइ तियाले पव्वे पव्वे य पोसहोवासं । अतिहीण संविभाओ मरणंते कुणइ सल्लिहणं ॥ ६० ॥ इनमेसे पहलीमे दिग्विदिक प्रत्याख्यान, अनर्थदण्डपरिहार और भोगोपभोगसंख्याको तीन गुणव्रत बतलाया है, और दूसरीमे त्रिकालदेवस्तुति, पर्व-पर्वमे प्रोषधोपवास, अतिथिसविभाग और मरणान्तमे सल्लेखना, इन चारको शिक्षाबत सूचित किया है । परन्तु वसुनन्दिश्रावकाचारका कथन इससे भिन्न है-उसमे दिग्विरति, देशविरति और अनर्थदण्डविरति, इन तीन व्रतोके आशयको लिए हुए तो तीन गुणवत बतलाये हैं, और भोगविरति, परिभोनिवृत्ति, अतिथिसंविभाग और सल्लेखना, इन चारको शिक्षाव्रत निर्दिष्ट किया है। ऐसे स्पष्ट भिन्न विचारों एवं कथनोकी. हालतमें दोनों ग्रथों के कतों एक ही वसुनन्दी नहीं कहे जा सकते । और इसलिए तत्त्वविचारको किसी दूसरे ही वसुनन्दीका सग्रहपथ समझना चाहिये। क्योंकि प्रतिमाप्रकरणकी उक्त दोनों गाथाएँ भी उसमे संगृहीन है और वे देवसेनके भावसंग्रहसे ली गई हैं जहाँ वे न०३५४, ३५५ पर पाई जाती हैं। और यह भी हो सकता है कि उसे वसुनन्दीसे भिन्न किसी दूसरे ही व्यक्तिने रचा हो, जो वसुनन्दीके नामसे अपने विचारोंको चलाना चाहता हो । ऐसे विचारों का एक नमूना यह है कि इसमे णमोकारमंत्रके एक लाख जापसे निःसन्देह तीर्थकर गोत्रका बन्ध होना' बतलाया है। कुछ भी हो, यह प्रथ वसुनन्दिश्रावकाचारके अनेक प्रकरणोकी काट-छॉट करके, कुछ इधर उधरसे अपने प्रयोजनानुकूल लेकर और कुछ अपनी तरफसे मिलाकर बनाया गया जान पड़ता है और उक्त श्रावकाचारके कर्ताकी कृति नहीं है। शैली भी इसकी महत्वकी मालूम नहीं होती। ४६. आयज्ञानतिलक-यह प्रश्नविद्यासे सम्बन्ध रखनेवाला एक महत्वका प्रश्नशास्त्र है, जिसमे ध्वजादि ८ प्राचीन आयपदार्थों को लेकर स्थिरचक्र और चलचक्रादिकी रचना एव विधिव्यवस्था-द्वारा अनेकविध प्रश्नों के शुभाऽशुभ फलको जानने और बतलानेकी कलाका निर्देश है। इसमें २५ प्रकरणे हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं - १ आयस्वरूप, २ पातविभाग, ३ अायावस्था, ४ ग्रहयोग, ५ पृच्छाकार्यज्ञान, ६ शुभाऽशुभ, ७ लाभाऽलाभ, ८ रोगनिर्देश, कन्यापरीक्षण, १० भूलक्षण, ११ गर्भपारज्ञान, १२ विवाह, १३ गमनाऽऽगमन, १४ परिचितज्ञान, १५ जय-पराजय, १६ वर्षालक्षण, १७ अर्घकाण्ड, १८ नष्टपरिज्ञान, १६ तपोनिर्वाहपरिज्ञान, २० जीवितमान, २१ नामाक्षरोदेश, २२ प्रश्नाक्षर-संख्या, २३ सकीर्ण, २४ काल, २५ चक्रपूजा । . थकी गाथासंख्या ४१५ है और उसे दिगम्बराचार्य प० दामनन्दीके शिष्य भट्टवोसरिने गुरु दामनन्दीके पाससे आयोंके बहुत गुह्य (रहस्य) को जानकर आयविषयक संपूर्ण शास्त्रों के साररूपमे रचा है । इसपर प्रथकारकी स्वयंकी बनाई हुई एक सस्कृत टीका भी है, जिसमे ग्रंथकारने ग्रंथ अथवा टीकाके रचनेका कोई समय नहीं दिया । इस सटीक अथकी एक जीर्ण-शीर्ण प्रति घोघा वन्दरके शास्त्रभंडारकी मुझे कुछ समयके लिये मुनि १ जो गुणह लक्खमेग पूयविही जिणणमोक्कार । तित्ययरनामगोत्त सो बधइ एत्यि सदेहो ॥ १५ ॥ ४२ ज दामनन्दिगुरुणोऽमणयं श्रायाण जाणि[य] गुज्झ । त श्रायणाणतिलए वोसरिणा भन्नए पयह ॥२॥ ३ श(स )वीयशास्त्रसारेण यत्कृत जनमहन । तदायशानतिलकं स्वय विवियते मया ॥ २ ॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ पुरातन-जैनवाक्य-सूची पुण्यविजयजीके सौजन्यसे प्राप्त हुई थी, जिसके लिये मैं उनका आभारी हूँ । उसीपरसे एक प्रति आरा जेनसिद्धान्तभवनको करा दी गई थी। दूसरी कोई प्राचीन प्रति अभी तक उपलब्ध नहीं हुई, और उपलब्ध प्रति कितने ही स्थानोंपर अशुद्ध पाई जाती है। इस सटीक ग्रंथके सन्धिवाक्योंका एक नमूना इस प्रकार है : ___ "इति दिगम्बराचार्य-पंडित श्रीदामनन्दि-शिष्य-भट्टवोसारि-विरचिते सायश्रीटीकायज्ञानतिलके अायस्वरूप-प्रकरणं प्रथमं ॥१॥" अन्तिम संधिवाक्यके पूर्व अथवा टीकाके अन्तमे ग्रंथकारका एक प्रशस्तिपद्य इसमें निम्न प्रकारसे उपलब्ध होता है : "महादेवान्मांत्री प्रमितविषयं रागविमुखो विदित्वा श्रीकोत्कविसमयशा सुप्रणयिनीं । कलां दद्धाच्छाब्दी विरचयदिदं शास्त्रमनुजः स्फुरद्वर्णायश्रीशुभगमधुना वोसरिसुधीः ॥ १२ ॥" यह पद्य कुछ अशुद्ध है और इससे यद्यपि इसका पूरा आशय व्यक्त नहीं होता, फिर भी इतना तो स्पष्ट है कि इसमे ग्रंथकारने ग्रंथसमाप्ति की सूचनाके साथ, अपना कुछ परिचय दिया है-अपनेको मंत्री (मंत्रवादी) और सुधीः (पंडित) व्यक्त करनेके साथ साथ रागविमुख (विरक्त) अनुज और किसी उत्कट कविके समान यशस्वी भी बतलाया है। रागविमुख होनेकी बात तो समझमें आजाती है, क्योंकि ग्रंथकार एक दिगम्बर आचार्य के शिष्य थे, इससे उनका रागसे विमुख-विरक्तचित्त होना स्वाभाविक है । परन्तु आप अनुज (लघुभ्राता) किसके ? और किस कविके समान यशस्वी थे ? ये दोनों बातें विचारणीय रह जाती हैं। कविके उल्लेखवाले पदमे एक अक्षरकी कमी है और वह 'को' अक्षरके पूर्व या उत्तरमे दीर्घस्वरवाला अक्षर होना चाहिये, जिसके विना छंदोभंग हो रहा है; क्योंकि यह पद्य शिखरिणी छंदमे है, जिसके प्रत्येक चरणमें १७ अक्षर, चरणान्तमे लघु-गुरु और गण क्रमशः य, म, न, स, भ-संज्ञक होते हैं । वह अक्षर 'को' हो सकता है और उसके छूट जानेकी अधिक सम्भावना है । यदि वही अभिमत हो तो पूरा पद 'श्रीकोकोत्कविसमयशाः' होकर उससे 'कोक' कविका आशय हो सकता है जो कि कोकशास्त्रका कर्ता एक प्रसिद्ध कवि हुया है । तीसरे चरणमे भी 'दद्धाच्छाब्दी' पद अशुद्ध जान पड़ता है-उससे कोई ठीक अर्थ घटित नहीं होता । उसके स्थान पर यदि 'लब्ध्वा शाब्दी' पाठ होवे तो फिर यह अर्थ घटित हो सकता है कि 'महादेव नामके विद्वानसे प्रमित (अल्प) विषयको जानकर और सुप्रणयिनीके रूपमे शान्दिकी कलाको प्राप्त करके उनके छोटे भाई चोसरिसुधीने यह शास्त्र रचा है, जो कि स्फुरायमान वर्णों वाली आयश्रीके सौभाग्यको प्राप्त है अथवा उस आयश्रीसे सुशोभित है, और इससे इस स्वोपक्ष टीकाका नाम 'प्रायश्री' जान पडता है। इस तरह इस पद्यमे महादेव नामके जिस व्यक्तिका विद्यागुरुके रूपमे उल्लेख है वह ग्रन्थकारका बड़ा भाई भी हो सकता है। - अनुजका एक अर्थ 'पुनर्जन्म' अथवा 'द्वितीय-जन्मकोप्राप्त' का भी है और वह पुनर्जन्म अथवा द्वितीयजन्म संस्कारजन्य होता है जैसे द्विजोंका यज्ञोपवीत-संस्कारजन्य द्वितीयजन्म'। बहुत सभव है कि भट्टवोसरि पहले अजैन रहे हों और बादको जैन १ अनुज-4 Born again inrested with the sacred thread-V. S. Apte Sanskrit, English Dictionary Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १०३ संस्कारोंसे संस्कृत होकर जैनधर्म में दीक्षित हुए हों और दिगम्बराचार्य दामनन्दीके शिष्य बने हों, जिनकी गुरुता और अपनी शिष्यताका उन्होंने अन्धमें खास तौरपर उल्लेख किया है। और इसीसे उन्होंने अपनेको 'अनुज' लिखा हो। यदि ऐसा होतो फिर 'महादेव' को उनका बड़ा भाई न कहकर कोई दूसरा ही विद्वान कहना होगा। भट्टवोसरिने जिन दिगम्बराचार्य दामनन्दीका अपनेको शिष्य घोषित किया है वे संभवतः वे ही जान पड़ते हैं जिनका श्रवणवेल्गोलके शिलालेख नं०५५ (६६) में उल्लेख है, जिन्होने महावादी विष्णुभट्टको वादमे पराजित किया था-पीस डाला था, और इसीसे जिनको 'विष्णुभट्ट-घरट्ट' लिखा है । ये दामनन्दी, शिलालेखके अनुसार, उन प्रभाचन्द्राचार्यकै सघर्मा (साथी अथवा गुरुभाई) थे जिनके चरण घाराऽधिपति भोजराजके द्वारा पूजित थे और जिन्हें महाप्रभावक उन गोपनन्दी आचार्यका सधमा लिखा है जिन्होंने कुवादि-देत्य धूर्जटिको वादमे पराजित किया था । धूर्जटि और महादेव दोनों पर्याय नाम हैं, आश्चर्य नहीं जिन महादेवका उक्त प्रशस्तिपद्यमे उल्लेख है वे ये ही धूर्जटि हो और इनकी तथा विष्णुभट्टकी घोर पराजयको देखकर ही भट्टवोसरि जैनधर्ममे दीक्षित हुए हों, और इसीसे उन्होंने महादेवस प्राप्त ज्ञानको 'प्रमितविपय' विशेपण दिया हो और दामनन्दीसे प्राप्त ज्ञानको 'अमनाक' विशेषणस विभूषित किया हो । अस्तु, गुरुदामनन्दीके विषयमे मेरी उक्त कल्पना यदि ठीक है तो वे भोजराजके प्रायः समकालीन ठहरे और इसलिये उनके शिष्यका यह ग्रन्थ विक्रमको १२वीं शताब्दीका बना हुआ हाना चाहिये। ५० श्रुतस्कन्ध-यह ६४ गाथात्मक ग्रंथ वादशाङ्ग तके अवतार एवं पदसंख्या दिसहित वर्णनको लिये हुए है । इसके कर्ता ब्रह्म हेमचंद्र हैं, जो देशयति थे और जिन्होंने रामनन्दी सिद्घान्ति के प्रसादसे तिलंगदेशान्तर्गत कुण्डनगरके उद्यानमें स्थित सुप्रसिद्ध चन्द्रप्रभजिनके मन्दिरमे इसकी रचना की है। ग्रंथमें रचनाकाल नहीं दिया और जिन रामनन्दीके प्रसादसे यह ग्रंथ रचा गया है उन्हें सिद्धान्ती-सिद्धान्तशास्त्र अथवा आगम के जानकार--सूचित करने के सिवाय उनका और कोई परिचय भी नहीं दिया गया । ऐसी स्थितिमे ग्रंथपरसे यह मालूम करना कठिन है कि वह कबका बना हुआ है। हाँ, रामनन्दी का उल्लेख अग्गलदेवके चंद्रप्रभपुराणमे आया है, जहाँ उन्हें नमस्कार किया गया है, और यह चंद्रप्रभपुराण शक संवत् ११११, वि० सं० १२४६ मे बना है, इसलिये रामनन्दी वि०सं० १२४६ (ई० सन् ११८८) से पहले हुए हैं, और तदनुसार यह ग्रंथ भी वि० सं० १२४६ से पहलेका बना हुआ जान पड़ता है। परन्तु कितने पहलेका ? यह रामनन्दीके समयपर निर्भर है। ___एक रामनन्दीका उल्लेख कुन्दकुन्दान्वयी माणिक्यनन्दी त्रैविधके शिष्य नयनन्दी ने अपने सुदर्शनचरितको प्रशस्तिमे किया है, जो अपभ्रंशभाषाका ग्रथ है, और उन्हें अपने गुरु माणिक्यनन्दीका गुरु तथा वृषभनन्दी सिद्धान्तीका शिष्य सूचित किया है। V१ "रइश्रो तिलंगदेसे आरामे कुडणयरि सुपसिद्धे ।। चदप्पहजिणमदरि रइया गाहा इभे विमला || ८६ ॥" "सिद्धतिरामणदीमहापसारण रयउ सुयखंघो । लइश्रो संसारफलो देसजईहेमयदेण" ।। ६२ ॥ २ जिणंदस्स वीरस्स तित्थे महंते, महा कु दकु दंनए एत संते । सुणरकाहिहाण तहा पोमणदी खमाजुत्त सिद्ध तउ विसहणंदी ॥१॥ जिणिंदागमाहासणे एयचित्तो तवायारणट्टीए लद्धीयजुत्तो । णरिंदामरिंदेहि सो णदवंतो हुो तस्स सीसो गणी रामणदी ॥ २ ॥ - - Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ पुरातन जैनवाक्य-सूची यह सुदर्शनचरित्र विक्रमसंवत् ११०० में धारानगरी में बनकर समाप्त हुआ है, जब कि भोजराजाका वहाँ राज्य था । और इससे रामनन्दी विक्रम सं० ११०० से कुछ पूर्व के अर्थात् विक्रमकी ११वीं शताब्दी के उत्तरार्ध के विद्वान जान पड़ते हैं। बहुत संभव है कि ये ही रामनन्दी वे रामनन्दी हों जिनके प्रसादसे ब्रह्म हेमचंद ने इस श्रुतस्कन्ध ग्रंथकी रचना की है। यदि ऐसा है तो यह कहना होगा कि ब्रह्महेमचंद विक्रमकी ११वीं शताब्दी के उत्तरार्ध के विद्वान थे और उसी समयकी उनकी यह रचना है । इसका ५१. ढाढसीगाथा - यह एक औपदेशिक अध्यात्मविषयका ग्रंथ है, जिसकी गाथासंख्या ३६ बतलाई गई है; परन्तु माणिकचंद्र प्रथमालाकी प्रकाशित प्रतिमें वह ३८ पाई जाती है। मूलमें ग्रंथ और ग्रंथकर्ताका कोई नाम नहीं । अन्त में ' इति ढाढसी गाथा समाप्ता' लिखा है । 'ढाढसीगाथा' यह नामकरण किस दृष्टिको लेकर किया गया है। कुछ पता नहीं । इसके कर्ता कोई काष्ट संघी आचार्य हैं ऐसा पं० नाथूराम जी प्रेमीने व्यक्त किया है और वह ग्रंथ मे आए हुए 'कट्ठो वि मूलसंघो' (काष्ठासंघ भी मूलसंघ है) जैसे शब्दों परसे अनुमानित जान पड़ता है, परन्तु 'पिच्छे गहु सम्मत्तं करगहिए चमर - मोरडंबरए' जैसे वाक्योंपर से उसके कर्ता निःपिच्छसंघ अर्थात् माथुरसंघ के आचार्य भी हो सकते हैं । और यह भी हो सकता है कि वे संघवादकी कट्टरता से रहित कोई तटस्थ विद्वान् हों । अस्तु । प्रथमें मनको रोकने, कषायोंको जीतने और आत्मध्यान करनेकी प्रेरणा की गई है और लिखा है कि 'संघ कोई भी पार नहीं उतारता, चाहे वह काष्ठासंघ हो, मूलसंघ हो अथवा निःपिच्छसंघ हो; बल्कि आत्मा ही आत्माको पार उतारता है, इसलिये आत्माका ध्यान करना चाहिये । उसके लिये अर्हन्तों और सिद्धोंके ध्यानको उपयोगी बतलाया और उनकी प्रतिष्ठित मूर्तियोंको, चाहे वे मरिण रत्न - धातु- पाषाण और काष्ठादि में से किसीसे भी बनी हों, सालम्ब ध्यानके लिये निमित्तकारण बतलाया है । और अन्त में ग्रन्थका फल बन्ध मोक्षको जानना तथा ज्ञानमय होना निर्दिष्ट किया है । इसी उद्देश्यको लेकर वह रचा गया है । ग्रन्थकी आदि में कोई मंगलाचरण नहीं है । ग्रन्थ में बननेका कोई समय न होनेसे यह नहीं कहा जा सकता कि वह कब रचा गया है । इसकी एक गाथा षट्प्राभृत की टीका में "निष्पिच्छिका मयूरपिच्छादिकं न मन्यन्ते । उक्त' च ढाढसीगाथासु” इन वाक्योंके साथ निम्नरूप में पाई जाती है : पिच्छे हु सम्मत्तं करगहिए मोरचमरडंवरए । अप्पा तारइ अप्पा तम्हा अप्पा विकायचो ॥ १ ॥ इसका पूर्वार्ध ढाढसीगाथा नं० २८ का पूर्वार्ध है, जिसका उत्तरार्ध है - ' समभावे जिणदिट्ठ रायाईदोसचते" और इसका उत्तरार्ध ढाढसीगाथा नं० २० का उत्तरार्ध हैं, जिसका पूर्वार्ध है-“सघो को विग तारइ कट्टो मूलो तहेव शिपिच्छो ।" इसी से पूर्वार्धं और उत्तरार्ध यहाँ संगत मालूम नहीं होते । परन्तु टीकाके उक्त उल्लेख से यह स्पष्ट है कि ढाढसीगाथा पटप्राभूतकी टीकासे पहलेकी रचना है । षटुप्राभतटीकाके कर्ता श्रुतसागरसूरि विक्रमकी १६ वीं शताब्दी के विद्वान हैं और इसलिये यह मंथ १६वीं शताब्दीसे पहले का बना हुआ है, इतना तो सुनिश्चित है, परन्तु कितने पहलेका ? यह अभी निश्चितरूपसे नहीं कहा जा सकता । महापश्रो तस्स माणिक्करणदी भुयगप्पा हमो णामछदी | पदमसीसु तो जायउ जगविक्वायड मुणिरायण दिणदिउ ॥ trafireमकालदो ववगएसु एयारह संवच्छुरससु ॥ ६ ॥ तहिं केवलचरिउ मच्छरेण यदि विरइउ वत्थरेगा । १ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १०५ ५२. छेद पिएड और इन्द्रनन्दी - यह प्रायश्चित विषयका एक महत्वपूर्ण प्रन्थ है, प्रायश्चित्त, छेद, मलहरण, पापनाशन, शुद्धि, पुण्य, पवित्र, पावन ये सब प्रायश्चित्तके ही नामान्तर है ( गा० ३) । प्रायश्चित्तके द्वारा चित्तादिकी शुद्धि करके आत्मविकासको सिद्ध किया जाता है । जिन्हें अपने आत्मविकासको सिद्ध करना अथवा मुक्तिको प्राप्त करना इष्ट है उन्हें अपने दोषों-अपराधोंपर कडी दृष्टि रखनेकी जरूरत है और उनकी मात्रा - नुसार दण्ड लेनेके लिये स्वयं सावधान एवं तत्पर रहनेकी बड़ी जरूरत है । किस दोष अथवा अपराधका किसके लिये क्या प्रायश्चित्त विहित है, यही सब इस ग्रन्थका विषय है, जी अनेक परिभाषाओं तथा व्याख्याओं के साथ वर्णित है । यह मुनि, आर्यिका श्रावकश्राविकारूप चतुःसंघ और ब्राह्मण-क्षत्रिय वैश्य शूद्ररूप चतुर्वर्णके सभी स्त्री-पुरुषों को लक्ष्य करके लिखा गया है— सभी से बन पड़नेवाले दोषो अपराधोंके प्रकारोंका और उनके आगमादिविहित तपश्चरणादिरूप संशोधनोंका इसमें निर्देश और संकेत है । यह अनेक आचार्यों के उपदेशको अधिगत करके जीत और कल्पव्यवहारादि प्राचीन शास्त्रों के आधारपर लिखा गया है (३५६) । इतने पर भी परमार्थशुद्धि और व्यवहारशुद्धिके भेदों मे यदि कहीं कोई विरुद्ध अर्थ अज्ञानभावसे निबद्ध हो गया हो तो उसके संशोधन के लिये प्रन्थकारने छेदशास्त्रके मर्मज्ञ विद्वानोंसे प्रार्थना की है ( गा०३५६) । वास्तव मे आत्मशुद्धि का मर्म और उस शुद्धिकी प्राप्तिका मार्ग ऐसे ही रहस्य- शास्त्रोंसे जाना जाता है । इसीसे ऐसे शास्त्रों के जानकार एवं भावनाकारको लौकिक तथा लोकोत्तर व्यवहारमे कुशल बतलाया है ( गा० ३६१ ) | ) इस ग्रंथकी गाथासंख्या प्रथमे दी हुई संख्या के अनुसार ३३३ है, जिसे ४२० श्लोक-परिमाण बतलाया है । परन्तु मुद्रित प्रतिमें वह ३६२ पाई जाती हैं । इसपर पं० नाथूरामजी प्रेमीने अपने ग्रंथपरिचय में यह कल्पना की है कि "मूल में ' तेतीसुत्तर' की जगह 'बासट्टित्तर' या इसीसे मिलता जुलता कोई और पाठ होना चाहिये; क्योंकि ३२ अक्षरोंके श्लोकके हिसाब से अब भी इसकी लोकसंख्या ४२० के ही लगभग है और ३३३ गाथाओं के ४२० श्लोक हो भी नहीं सकते हैं ।" यद्यपि 'बासट्टयुत्तर' के स्थानपर ' तेतीसुत्तर' पाठके लिखे जानेकी संभावना कम है और यह भी सर्वथा नहीं कहा जा सकता कि ३३३ गाथाओं के ४२० श्लोक हो ही नहीं सकते; क्योंकि गाथामें अक्षरोंकीं संख्याका नियम नहीं है— वह वर्णिक छंद न होकर मात्रिक छंद है और उसमे भी कई प्रकार हैं जिनमें मात्राओंकी भी कमी- बेशी होती है—ऐसी कितनी ही गाथाएँ देखी जाती हैं जिनके पूर्वार्ध में यदि २२-२३ अक्षर हैं तो उत्तरार्ध में १८-२० अक्षर तक पाये जाते हैं, और इस तरह एक गाथाका परिमाण प्रायः सवा १३ लोक जितना हो जाता है, जिससे उक्त गाथासंख्या और श्लोकसंख्याकी पारस्परिक संगति ठीक बैठ जाती है; फिर भी प्रन्थकी सब गाथाएं सवा श्लोक - जितनी नहीं है और उनका औसत भी सवा श्लोक जितना न होनेसे गाथासंख्या और श्लोकसंख्या की पारस्परिक संगति में कुछ अन्तर रह ही जाता है। इस सम्बन्धमें मेरा एक विचार और है और वह यह कि गाथाओ के साथ जो श्लोक संख्याको दिया जाता है उसका लक्ष्य प्रायः लेखकोंके लिये ग्रन्थका परिमाण निर्दिष्ट करना होता है; क्योंकि लिखाई उन्हें प्रायः श्लोक संख्या के हिसाब से ही दी जाती है । और इस दृष्टिसे अंकादिकको शामिल करके कुछ परिमाण अधिक ही रक्म्बा जाता है । ऐसी हालत में ३३३ गाथाओंके लिये ४२० की श्लोक संख्याका निर्देश सर्वथा असंगत या असंभव नहीं कहा जा सकता । यदि दोनों संख्याओको ठीक १ चउरख्या वीसुतराई गंथस्स परिमाणं । तेतीसुत्तर तिसयं पमाण गाहाणिवद्धस्स || ३६० ॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ पुरातन जनवाक्य-सूची माना जाता है तो फिर यह कहना होगा कि ग्रन्थमें २६ गाथाएं बढ़ी हुई हैं, जो किसी तरह ग्रन्थमें प्रक्षिप्त हुई हैं और जिन्हें प्राचीन प्रतियों आदिपरसे खोजने की जरूरत है । यहाँ पर मैं एक गाथा नमूने के तौर पर प्रस्तुत करता हूँ, जो स्पष्टतया प्रक्षिप्त जान पडती है और जिसकी मौजूदगी में यह नहीं कहा जा सकता कि वह पूरी ३६२ गाथाओं का ग्रंथ है - उसमे कोई गाथा प्रक्षिप्त नहीं है: ·--- कंपाकहाय विरामवयगहण सह तिसुद्धीए । पादद्धतयं सव णास पावं ण संदेहो || ३५७ ॥ इसके पूर्व की 'एदं पायच्छित्तं' गाथामे ग्रन्थसमाप्तिकी सूचनाका प्रारंभ करते हुए केवल इतना ही कहा गया है कि 'बहुत आचार्यों के उपदेशको जानकर और जीत आदि शास्त्रोंको सम्यक् अवधारण करके यह प्रायश्चित्त ग्रंथ', और फिर उक्त गाथाको देकर उत्तरवर्ती 'चाउव्वणपराधविशुद्धि णिमित्तं' नामकी गाथामे उस समाप्तिकी बातको पूरा करते हुए लिखा है कि 'चातुवर्णों के अपराधोंकी विशुद्धि के निमित्त मैने कहा है, इसका नाम 'छेदपिण्ड' है, साधुजन आदर करो'। इससे स्पष्ट है कि पूर्वोत्तरवर्ती दोनों गाथाओका परस्पर घनिष्ट सम्बन्ध है और वे 'युग्म' कहलाये जाने योग्य गाथाएँ हैं, उनके मध्य मे उक्त गाथा नं० ३५७ असंगत है । वह गाथा दूसरे 'छेदशास्त्र' की है, जिसका परिचय आगे दिया जायगा और उसमे नं० ६१ पर सस्कृतवृत्तिके साथ दर्ज है, तथा छेद पिण्डके उक्त स्थलपर किसी तरह प्रक्षिप्त हुई है। इसी तरह खोज करनेपर और भी प्रक्षिप्त गाथाएँ मालूम हो सकती हैं । कुछ गाथाएं इसमे ऐसी भी हैं जो एकसे अधिक स्थानोपर ज्योंकीत्यो पाई जाती हैं, जिनका एक नमूना इस प्रकार है: जेवणादो गियगणमज्झयहेदुणायादा | तेसि पि तारिसाणं आलोयणमेव संसुद्धी || यह गाथा १७० और १=१ नम्बर पर पाई जाती है और इसमे इतना ही बतलाया गया है कि 'जो साधु दूसरे गणसे अपने गणको अध्ययन के लिये आये हुए हैं उनके लिये भी आलोचन नामका प्रायश्चित्त है ।' अतः यह एक ही स्थानपर होनी चाहिये- दूसरे स्थलपर इसकी व्यर्थं पुनरावृत्ति जान पड़ती है । एक दूसरी 'ख' प्रतिमे यह १७० वे स्थलपर है भी नहीं । एक दूसरा नमूना 'तस्सिरसागं सुद्धी (सोही)' नामकी गाथा नं० २५६ का है, जो पहले नं० २४७ पर आ चुकी है, यहाँ व्यर्थ पड़ती है और 'ख. ग' नामको दो प्रतियोंमे पिछले स्थलपर है भी नहीं । और भी कई गाथाएं ऐसी हैं जिनकी बाबत फुटनोटों में यह सूचना की गई है कि वे दूसरी प्रतियोंमे नहीं पाई जातीं। जांचनेपर उनमें से भी अनेक गाथा प्रक्षिप्त तथा व्यर्थ बढ़ी हुई हो सकती हैं। इस प्रकार प्रक्षिप्त और व्यर्थ बढ़ी हुई गाथाओं के कारण भी ग्रन्थकी वास्तविक गाथासख्या ३६२ नहीं हो सकती, और इस लिये 'वेतीसुत्तर' की जगह 'वासट्ठित्तर' पाठ की जो कल्पना की गई है वह समुचित प्रतीत नहीं होती । अस्तु । इस ग्रंथ कर्ता इन्द्रनन्दी नामके आचार्य हैं, जिन्होंने अन्तकी दो गाथाओं मे क्रमशः 'गणी' तथा 'योगीन्द्र' विशेषणोंके साथ अपना नामोल्लेख करनेके सिवाय और कोई अपना परिचय नहीं दिया । (इन्द्रनन्दी नामके अनेक आचार्य जैन समाजमे हो गए हैं, और इसलिये यह कहना सहज नहीं कि उनमे से यह इन्द्रनन्दी गरणी अथवा योगीन्द्र कौनसे हैं ? एक इन्द्रनन्दी गोम्मटसार के कर्ता नेमिचन्द्रके गुरुवोंमें - ज्येष्ठ गुरुभाईके रूप में - हुए हैं और प्राय. वे ही ज्वालामालिनी कल्पके कर्ता जान पड़ते हैं, जिसकी रचना शक संवत् Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १०७ ८६१ वि० सं० ६६६ मे हुई है, जैसा कि 'गोम्मटसार और 'नेमिचंद्र' नामक परिचयलेखमे स्पष्ट किया जा चुका है। दूसरे इन्द्रनन्दी इनसे भी पहले हुए है, जिनका उल्लेख ज्वालामालिनी कल्पके कर्ता इन्द्रनन्दीने अपने गुरु बप्पनन्दीके दादागुरुके रूपमें किया है-अर्थात् वासवनन्दी जिनके शिष्य और बप्पनन्दी प्रशिष्य थे। और इसलिये जिनका समय प्रायः विक्रमकी ९वीं शताब्दीका अन्तिम चरण और १०वीं शताब्दीका प्रथम चरण जान पड़ता है । इन्हें ही यहाँ प्रथम इन्द्रनन्दी समझना चाहिये । तीसरे इन्द्रनन्दी 'श्र तावतार' के कर्ता रूपमे प्रसिद्ध हैं और जिनके विपयमे प नाथूरामजी प्रेमीका यह अनुमान है कि वे गोम्मटसार और मल्लिषेणप्रशस्तिके' इन्द्रनन्दीसे अभिन्न होंगे क्योकि श्र तावतारमे वीरसेन और जिनसेन आचार्य तक ही सिद्धान्त रचनाका उल्लेख है। यदि वे नेमिचन्द्र आचार्यके पीछे हुए होते, तो बहुत संभव है कि गोम्मटसारका भी उल्लेख करते।' चौथे इन्द्रनन्दी नीतिसार अथवा समयभूपणके कर्ता हैं, जो नेमिचन्द्र आचार्य के बाद हुए हैं; क्योंकि उन्होंने नीतिसारके ७०वें श्लोकमें सोमदेवादिके साथ नेमिचन्द्रका भी नामोल्लेख उन आचार्यों में किया है जिनके रचे हुए शास्त्र प्रमाण बतलाए गए हैं। पॉचवें और छठे इन्द्रनन्दो 'संहिता' शास्त्रोंके कर्ता हैं । छठे इन्द्रनन्दीकी संहितापरसे पाँचवें इन्द्रनन्दीका सहिताकारके रूपमें पता चलता है, क्योकि उसके दायभागप्रकरणके अन्तमें पाई जाने वाली गाथाओंमेंसे जिन तीन गाथाओंको प्रेमीजीने अपने 'ग्रन्थपरिचय' मे उद्घृत किया है , उनमे इन्द्रनन्दीकी पूजाविधिके साथ उनकी सहिताका भी उल्लेख है और उसे भी प्रमाण बतलाया है वे गाथाएं इस प्रकार हैं: पुलं पुज्जविहाणे जिणसेणाइचीरसेणगुरुजुत्तइ । पुज्जस्स या य गुणभद्दसूरीहि जह तहुद्दिट्टा ॥ ६३ ॥ वसुणदि-इंदणदि य तह य मुणिएमसंधिगणिनाहं (हिं) । रचिया पुज्जविही या पुव्वक्कमदो विणिद्दिहा ॥ ६४ ॥ गोयम-समंतभद्द य अयलंकसुमाहणंदिमुणिणाहिं । वसुणंदि-इंदणंदिहिं रचिया सा संहिता पमाणा हु ॥६५॥ पहली गाथामें वसुनन्दीके साथ चूंकि एकसंधिमुनिका भी उल्लेख है, जो एकसंधिजिनसंहिताके कर्ता हैं और जिनका समय विक्रमकी १३वीं शताब्दी है. इसलिये इन छठे इन्द्र-नन्दीको एकसंधि भट्टारकमुनिके बादका विद्वान् समझना चाहिये । अब देखना यह है कि इन छहोंमें कौनसे इन्द्रनन्दीकी यह 'छेदपिण्ड' कृति हो सकती है अथवा होनी चाहिये। पं० नाथूरामजी प्रेमीके विचारानुसार प्रथम तीन इन्द्रनन्दी तो इस छेदपिण्डके कर्ता हो नहीं सकते, क्योंकि उन्होने गोम्मटसार तथा मल्लिषेणप्रशस्तिमे उल्लिखित इन्द्रनन्दी और श्र तावतारके कर्ता इन्द्रनन्दीको एक मानकर उनके कर्तृत्व-विपयका निषेध किया है, और इसलिये ज्वालामालिनीकल्पके कर्ता और उनकी गुरुपरम्परामे उल्लिखित प्रथम इन्द्रनन्दीका निपेच स्वतः होजाता है, जिनके विषयका कोई विचार भी प्रस्तुत नहीं किया गया। चौथे इन्द्रनन्दीकी छठे इन्द्रनन्दीके साथ एक होनेकी संभावना व्यक्त की गई है और संहिताके कर्ता छठे इन्द्रनन्दीको ही ग्रंथका कर्ता माना है, जिससे पॉचवे इन्द्रनन्दीका • १ दुरितग्रहनिग्रहाद्भयं यदि भो भूरिनरेन्द्रवन्दितम् । ननु तेन हि भव्यदेहिनो भनत श्रीमुनिमिन्द्रनन्दिनम् ॥ २७ ॥ -श्र०शि० ५४, शक सं० १०५० का उत्कीर्ण Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ पुरातन-जैनवाक्य-सूची भी निषेध होजाता है। इस तरह प्रेमीजीकी दृष्टिमें यह छेदपिण्ड उपलब्ध इन्द्रनन्दिसंहिताके कर्ताको ही कृति है, और उसका प्रधान कारण इतना ही है कि यह ग्रंथ उनके कथनानुसार उक्त संहितामें भी पाया जाता है और उसके चतुर्थ अध्यायके रूपमें स्थित है इसीसे प्रेमीजीने छेदपिण्ड-कर्ताके समय-सम्बन्धमें विक्रमकी १४वीं शताब्दी तककी कल्पना करते हुए इतना तो निःसन्देहरूपमें कह ही डाला है कि "छेदपिएडके कर्ता विक्रमकी १३वीं शताब्दीक पहले के तो कदापि नहीं हैं।" परन्तु संहितामे किसी स्वतंत्र ग्रंथ या प्रकरणका उपलब्ध होना इस बातकी कोई दलील नहीं है कि वह उस संहिताकारकी ही कृति है; क्योंकि अनेक संग्रह-ग्रंथों में दूसरों के प्रथ अथवा प्रकरणके प्रकरण उद्धृत पाये जाते हैं। परन्तु इससे वे उन संग्रहकारोंकी कृति नहीं हो जाते । उदाहरणके तौरपर गोम्मटसारके तृतीय अधिकाररूपमें कनकनन्दी सि० च० का 'सत्वस्थान' नामका प्रकरणग्रंथ मंगलाचरण और अन्तकी प्रशस्त्यादिविपयक गाथाओं सहित अपनाया गया है, इससे वह गोम्मटसारके कर्ता नेमिचन्द्रकी कृति नहीं हो गया-उनके द्वारा मान्य भले ही कहा जा सकता है। प्रभाचन्द्र के क्रियाकलापमें अनेक भक्तिपाठोका और स्वामी समन्तभद्रके स्वयम्भूस्तोत्र तकका संग्रह है, परन्तु इतने मात्रसे वे सब ग्रंथ प्रभाचन्द्रकी कृति नहीं हो गए। मेरी रायमे यह छेदपिण्ड, जो अपनी रचनाशैली आदिपरसे एक व्यवस्थित स्वतंत्र ग्रंथ मालूम होता है, यदि उक्त इन्द्रनन्दिसहितामे भी पाया जाता है तो उसमें उसी तरह अपनाया गया है जिस तरह कि १७वीं शताब्दीकी बनी हुई भद्रवाहुसंहितामें भद्रबाहुनिमित्तशास्त्र' नामके एक प्राचीन ग्रंथको अपनाया गया है । और जिस तरह उसके उक्त प्रकार अपनाए जानेसे वह १७वीं शताब्दीका ग्रंथ नहीं हो जाता उसी तरह छेदपिण्डके इन्द्रनन्दि-संहितामे समाविष्ट होजाने मात्रसे वह विक्रमकी १३वीं शताब्दी अथवा उससे बादकी कृति नहीं हो जाता। वास्तवमे छेदपिण्ड संहिताशास्त्रकी अपेक्षा न रखता हुआ अपने विषयका एक बिल्कुल स्वतंत्र ग्रंथ है, यह बात उसके साहित्यको आद्योपान्त गौरसे पढ़नेपर भले प्रकार स्पष्ट हो जाती है। उसके अन्तमे गाथासंख्या तथा श्लोकसंख्याका दिया जाना और उसे ग्रंथपरिमाण (गंथस्स परिमाणं) प्रकट करना भी इसी बानको पुष्ट करता है। यदि वह मूलत: और वस्तुत संहिताका ही एक अंग होता तो ग्रंथपरिमाण उसी तक सीमित न रहकर सारी संहिताका ग्रंथपरिमाण होता और वह संहिताके ही अन्तमें रहता न कि उसके किसी अंगविशेषके अन्तमें। इसके सिवाय, छेदपिण्डकी साहित्यिक प्रौढता, गम्भीरता और विषय-व्यवस्था भी उसे संहिताकारके खुदके स्वतंत्र साहित्यसे, जो बहुत कुछ साधारण है और जिसका एक नमूना दाराभागप्रकरणके अन्त में पाई जानेवाली उक्त अप्रासंगिक गाथाओंसे जाना जाता है, पृथक सूचित करती है । उसमे जीतशास्त्र और कल्पव्यवहार जैसे प्राचीन ग्रंथों का ही उल्लेख होनेसे, जो आज दिगम्बर जैन समाज में उपलब्ध भी नहीं हैं, उसकी प्राचीनताका ही बोध होता है। और इसलिये, इन सब बातोंको ध्यानमें रखते हुए, मेरी इस ग्रंथसम्बन्धमे यही राय होती है कि यह ग्रंथ उक्त इन्द्रनन्दिसंहिताके कर्ताकी कृति नहीं है और न साहित्यादिकी दृष्टिसे नीतिसारके कर्ताकी ही कृति इसे कहा जा सकता है, बल्कि यह अधिकांशमे उन इन्द्रनन्दीकी कृति जान पड़ता है और होना चाहिये जो गोम्मटसारके को नेमिचन्द्र और सत्वस्थानके कर्ता कनकनन्दीके गुरु - देहलीके पंचायतीमन्दिरमें इन्द्रनन्दिसंहिता' की जो प्रति है उसमें तीन अध्याय ही पाये जाते हैं, और उनपरसे यह संहिता बहुत कुछ साधारण तथा भट्टारकीय लीलाको लिये हुए आधुनिक कृति । जान पड़ती है। २ देखो, अन्यपरीक्षा द्वितीयभाग पृ० ३६ । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १०६ थे तथा ज्वालामालिनी-फल्पके रचयिता थे अथवा जो उनसे भी.पूर्व वासवनन्दीके गुरु हुए हैं और जिनका उल्लेख ज्वालामालिनी-कल्पकी प्रशस्तिमे पाया जाता है । और इसलिये यह अन्ध विक्रमकी 8वीं १०वीं शताब्दीके मध्यका बना हुआ होना चाहिये । मल्लिपेण-प्रशस्तिमे जिन इन्द्रनन्दीका उल्लेख है वे भी प्राय. इस प्रायश्चित्त ग्रंथके कर्ता ही जान पड़ते हैं। इसीसे उस प्रशस्ति-पद्यमें कहा गया है कि 'भो भव्यो ! यदि तुम्हें दुरितग्रह-निग्रहसे-पापरूपी ग्रहके द्वारा पकड़े जानेसे-कुछ भय होता है तो अनेक नरेन्द्रवन्दित इन्द्रनन्दी मुनिको भजो ।' चूंकि ये इन्द्रनन्दी अपनी प्रायश्चित्त-विधिके द्वारा पापरूप ग्रहका निग्रहकरनेमे समर्थ थे, और इसलिये उनके सम्यक उपासक-उनकी प्रायश्चित्तविधिका ठीक उपयोग करने वाले-पापकी पकड़मे नहीं आते, इसीसे वैसा कहा' गया जान पड़ता है। ५३. छेदशास्त्र—यह ग्रन्थ भी प्रायश्चित्त-विषयका है। इसका दूसरा नाम 'छेदनवति' है, जिसका उल्लेख अन्तकी एक गाथामे है और उसका कारण ग्रन्थका १० गाथाओंमें निर्दिष्ट होना (उदिगाहाहि णिट्टि') है । परन्तु मुद्रित ग्रन्थ-प्रतिमे ६४ गाथाएँ उपलब्ध है, और इसलिए ३ या ४ गाथाएं इसमे बढ़ी हुई अथवा प्रक्षिप्त समझनी चाहिये । यह ग्रन्थ प्रधानतः साधुओंको लक्ष्य करके लिखा गया है, इसी से प्रथम मगलगाथामें 'वुच्छामि छेदसत्थं साहूण सोहणट्ठाणं' ऐसा प्रतिज्ञा-वाक्य दिया है। परन्तु अन्तमे कुछ थोड़ा-सा कथन' श्रावकोके लिये भी दे दिया गया है । ग्रन्थकी अधिकांश गाभाओंके साथ छोटी-सी वृत्ति भी लगी हुई है , जिसे टिप्पणी कहना चाहिये। इस प्रन्थका कर्ता कौन है, यह अज्ञात है-न मूलमें उसका उल्लेख है, न वृत्तिमे और न आद्यन्तमे ही उसकी कोई सूचना की गई है । और इसलिये उसके तथा अन्धके रचनाकाल-विपयमें कुछ भी नहीं कहा जा सकता । हाँ, इस ग्रन्थको जब छेदपिण्डके साथ पढ़ते हैं तो ऐसा मालूम होता है कि एक ग्रंथकारके सामने दूसरा ग्रन्थ रहा है, इसीसे कितनी ही गाथाओंमे एक दूसरेका अनुकरण अनेक अंशोंमे पाया जाता है और एक दो गाथाएँ ऐसी भी देखनेमे आती हैं जो प्रायः समान हैं। समान गाथाओमें एक गाथा'तो 'अणुकपाकहणेण' नामकी वही है जिसे ऊपर छेदपिण्ड-परिचयमे प्रक्षिप्त सिद्ध किया गया है और दूसरी 'प्रायविलम्हि पादूण' नामकी है जो इस ग्रन्थमे नं०५ पर और छेदपिण्डमें नं० ११ पर पाई जातो है और जिसके विपयमे छेदपिण्डके फुटनोटमें। लिखा है कि वह 'ख' प्रतिमें उपलब्ध नहीं है । हो सकता है कि वह भी छेदपिण्डमें प्रक्षिप्त हो । अव तीन नमूने ऐसे दिये जाते हैं जिनमें कुछ अनुकरण, अतिरिक्त कथन और स्पष्टीकरणका भाव पाया जाता है: १ पायच्छित्तं सोही मलहरणं पावणासणं छेदो । पज्जाया..... ॥२॥ २ एक्कम्मि वि उवसग्गे, रणव णवकारा हवंति वारसहि ।। सयमहोत्तरमेदे हवंति उववास जस्स फलं ॥६॥ '३ जावदिया परिणामा तावदिया होंति तत्थ अवराहा । पायच्छित्तं सक्कइ दादं कादं च को समए ॥१०॥ -छेदशास्त्र १ पायच्छित्तं छेदो मलहरणं पाबणासणं सोही । पुण्ण पबित्तं पावणमिदि पायच्छित्तनामाई ॥३॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन जैनवाक्य-सूची २ व पंचमकारा काउस्सग्गम्मि होति एगम्मि । एदेहिं बारसेहिं उववासो जायदे एक्को ॥ १० ॥ ३ जावदिया अविसुद्धा परिणामा तेत्तिया श्रदीचारा । को ताण पायच्छित्तं दाऊं काउं च सक्केज्जो ॥ ३५४ ॥ - छेद पिण्ड - दोनों ग्रन्थोंके इन वाक्योंकी तुलनापरसे ऐसा मालूम होता है कि छेदशास्त्रसे छेदपिण्ड कुछ उत्तरवर्ती कृति है; क्योंकि उसमें छेदशास्त्र के अनुसरणके साथ पहली गाथामें प्रायश्चित्तके नामोंमें कुछ वृद्धि की गई है, दूसरी गाथामें 'गवकारा' पदको 'पंचणमोक्कारा' पदके द्वारा स्पष्ट किया गया है और तीसरी गाथा में 'परिणामा' पदके पूर्व 'अविसुद्धा' विशेषण लगाकर उसके आशयको व्यक्त किया गया और 'अवराहा' पदके स्थानपर 'अदीचारा' जैसे सौम्य पदका प्रयोग करके उसके भावको सूचित किया गया है । ५४. भावत्रिभंगी ( भाव संग्रह ) – इस ग्रंथका नाम 'भावसंग्रह' भी है, जो कि अनेक प्राचीन तडपत्रीय आदि प्रतियोंमे पाया जाता है । मूलमें 'मूलुत्तरभावसरूवं पवक्खामि' (गा. २), 'इदि गुणमग्गठाणे भावा कहिया (गा. ११६), इन प्रतिज्ञा तथा समाप्तिसूचक वाक्यों से भी यह भावोंका एक संग्रह ही जान पड़ता है - भावोंको अधिकांश में तीन भंग कर के कहनेसे 'भावत्रिभगी' भी इसका नाम रूढ हो गया है। इसमें जीवोंके १ श्रपशमिक, २ क्षायिक, ३ क्षायोपशिक, ४ औदयिक और ५ पारिणामिक ऐसे पाँच मुलभावों और इनके क्रमशः २, ६, १८, २१, ३ ऐसे ५३ उत्तरभावों का वर्णन किया गया है । और अधिकांश वर्णन १४ गुणस्थानों तथा १४ मार्गणाओं को दृष्टिको लिये हुए हैं । ग्रंथ अप विषयका अच्छा महत्वपूर्ण है और उसकी प्रशस्ति-सहित कुल गाथा संख्या १२३ (११६४७) है। माणिकचन्द्रग्रन्थमालामे मूलके साथ प्रशस्ति मुद्रित नहीं हुई है । उसे मैंने आरा जैनसिद्धांतभवनकी एक ताडपत्रीय प्रति परसे मालूम करके उसकी सूचना ग्रंथमालाके मंत्री सुदूर पं० नाथूरामजी प्रेमीको की थी और इसलिये उन्होंने 'प्रन्थपरिचय' नामकी अपनी प्रस्तावना उसे दे दिया है । वहु प्रशस्ति, जिससे प्रन्थकार श्रुतमुनिका और उनके गुरुवोंका अच्छा परिचय मिलता है, इस प्रकार हैं: ११० "अणुवद-गुरु- बालेंद्र महव्वदे श्रमचंद सिद्धति । सत्थेऽभयसूरि-पहाचंदा खलु सुयमुणिस्स गुरू ॥ ११७ ॥ सिरिमूलसंघदेसिय[गण] पुत्थयगच्छ कोंडकुंद मुहिं (कुंदाणं ?) परमरण इंगलेस लिम्मि जाद [स] मुण पहद (हाण) स्स ॥ ११८ ॥ सिद्धताऽयचंदस् य सिस्सो बालचंदमुखिपवरो । सोभविकुवलयाणं आणंद करो सया जयऊ ॥ ११६ ॥ सद्दागम-परमागम-तक्कागम-निरवसेसवेदी हु विजिद सयलरणवादी जयउ चिरं अभयसूरिसिद्धंति ॥ १२० ॥ य-वि-माणं जाणित्ता विजिद सयल-परसमयी । चर-णिवइ-णिवह-वांदय- पय-पम्मो चारुकित्तिमुखी ॥ १२१ ॥ णादणिखिलत्थसत्यो सयलरिंदेहिं पूजिओ विमलो । जि-मग्ग-गय-सूरो जयउ चिरं चारुकित्तिमुखी ॥ १२२ ॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १११ वर-सारेत्तय-णिउणो सुद्धप्परमो विरहिय-परभाओ। भवियाणं पडिवाहणपरो पहाचंदणाममुणी ॥ १२३ ॥ इति भावसंग्रहः समाप्तः ।" इसमें बतलाया है कि श्रुतमुनिके अणुव्रतगुरु बालेन्दु-बालचन्द्र मुनि थे-बालचन्द्रमुनिसे उन्होंने श्रावकीय अहिंसादि पाँच अणुव्रत लिये थे, महाव्रतगुरु अर्थात् उन्हें मुनिधर्ममें दीक्षित करनेवाले आचार्य अभयचन्द्र सिद्धान्ती थे और शास्त्रगुरु अभयसूरि तथा प्रभाचन्द्र नामके मुनि थे। ये सभी गुरु-शिष्य (संभवतःप्रभाचन्द्रको छोड़कर') मूलसंघ, देशीयगण, पुस्तकगच्छके कुन्दकुन्दान्वयकी इंगलेश्वर शाखामें हुए हैं। इनमे बालचन्द्रमुनि भी अभयचन्द्र-सिद्धान्तीके शिष्य थे और इससे वे अ तमुनिके ज्येष्ठ गुरुभाई भी हुए। शास्त्रगुरुवोमें अभयसूरि भी सिद्धान्ती थे, शब्दागम-परमागम-तकांगमके पूर्णजानकार थे और उन्होंने सभी परवादियोंको जीता था; और प्रभाचन्द्रमुनि उत्तम सारत्रयमे अर्थात् प्रवचनसार, समयसार और पंचास्तिकायसार नामके ग्रंथोंमे निपुण थे, परभावसे रहित हुए शुद्धात्मस्वरूपमे लीन थे और भव्यजनोंको प्रतिवोध देने में सदा तत्पर थे। प्रशस्तिमे इन सभी गुरुवोंका जयघोप किया गया है, साथ ही गाथाओंमे चारुकीर्तिमुनिका भी जयघोष किया गया है, जोकि श्रवणवेल्गोलको गद्दीके भट्टारकोंका एक स्थायी रूढनाम जान पड़ता है, और उन्हें नयों-निक्षेपों तथा प्रमाणोंके जानकार. सारे धर्मों के विजेता, नृपगणसे वदितचरण, समस्त शास्त्रों के ज्ञाता और जिनमार्गपर चलनेमें शूर प्रकट किया है। प्रथमे रचनाकाल दिया हुआ नहीं और इससे ग्रंथकारका समय उसपरसे मालूम नहीं होता। परन्तु 'परमागमसार' नामके अपने दूसरे ग्रंथमे ग्रंथकारने रचनाकाल दिया है और वह है शक सवत् १२६३ (वि०सं० १३६८) वृष संवत्सर, मंगसिर सुदी सप्तमी, गुरुवारका दिन) जैसा कि उसकी निम्न गाथासे प्रकट है : सगगाले हु सहस्से विसय-तिसही १२६३ गदे दु विसवरिसे । मग्गसिरसुद्धसत्तमि गुरुवारे गंथसंपुरणो॥ २२४ ॥ इसके बाद उक्त प्रन्थमें भी वही प्रशस्ति दी हई है जो इस भावसंग्रहके अन्तमें पाई जाती है-मात्र चारुकोर्ति सम्बन्धी दूसरी गाथा (१२२) उसमें नहीं है। और इसपरसे श्र तमुनिका समय बिलकुल सुनिश्चित होजाता है-वे विक्रमकी १४वीं शताब्दीके विद्वान् थे। ५५. श्रास्त्रवत्रिभंगी-यह ग्रन्थ भी भावत्रिभंगी (भावसंग्रह) के कर्ता अतमुनिकी ही रचना है। इसमे मिथ्यात्व, अविरत, कषाय और योग इन मूल आस्रवोंके क्रमशः ५. १२ २५, १५, ऐसे ५७ भेदोंका गुणस्थान और मार्गणाओंकी दृष्टिसे वर्णन है। ग्रंथ अपने विषयका अच्छा सूत्रग्रंथ है और उसमे गोम्मटसारादि दूसरे ग्रंथोंकी भी अनेक गाथाओंको अपनाकर ग्रंथका अंग बनाया गया है; जैसे 'मिच्छतं अविरमण' नामकी दूसरी गाथा गोम्मटसार-कर्मकाण्डकी ७८६ नं० की गाथा है और 'मिच्छोदएण मिच्छत्तं' नामकी तीसरी गाथा गोम्मटसार-जीवकाण्डकी १५नंबरकी गाथा है। इस ग्रंथकी कुल गाथासंख्या ६२ है । अन्तकी गाथामे 'बालेन्दु' (बालचन्द) का जयघोष किया गया है- जो कि श्रतमुनिके अणुव्रत गुरु थे और उन्हें विनेयजनोंसे पूजामाहात्म्यको प्राप्त तथा कामदेवके १ अपनी शाखाके गुरुवोंका उल्लेख करते हुए अभयसूरिके बाद प्रभाचन्द्रका जयघोष न करके चारुकीर्तिके भी बाद जो प्रभाचन्द्रका परिचय पद्य दिया गया है उसपरसे उनके उसी शाखाके मुनि होनेका सन्देह होता है। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ पुरातन जैनवाक्य-सूची प्रभावको निराकृत करनेवाले लिखा है । और इसलिये यह ग्रंथ भी विक्रमको १४वीं शताब्दी है की रचना 1 Say ५६. परमागमसार - यह ग्रंथ भी भावत्रिभंगी ( भावसंग्रह) के कर्ता श्रु तमुनिकी कृति है, और इसकी गाथासंख्या २३० है । वाक्यसूचीके समय यह ग्रंथ सामने नहीं था और इसलिये इसकी गाथाओंको सूचीमे शामिल नहीं किया जा सका। इस ग्रंथ अधिकार हैं-१ पंचास्तिकाय, २ पट्टद्रव्य, ३ सप्ततत्त्व, ४ नवपदार्थ, ५ वन्ध, ६ वन्धुकारण, ७ मोक्ष और मोक्षकारण' । और उनमे संक्षेपसे अपने अपने विपयका क्रमशः अच्छा वर्णन है । यह ग्रंथ मँगसिर सुदि सप्तमी शक संवत् १२६३ को गुरुवार के दिन बन कर समाप्त हुआ है; जैसा कि उस गाथासे प्रकट है जो भावत्रिभंगी (भावसग्रह) के प्रकरण मैं उधृत की गई है । और जिसके अनन्तर चारुकीर्ति - विषयक दूसरी गाथाको छोड़कर, शेप सब प्रशस्ति वही दी हुई है जोकि भावसंग्रहकी ताड़पत्रीय प्रतिमे पाई जाती है और जिसे भावत्रिभंगी (भावसंग्रह) के प्रकरण मे ऊपर उधृत किया जा चुका है । अस्तु, यह ग्रंथ ऐलक-पन्नालाल सरस्वती-भवन बम्बई में मौजूद है । उसे देखकर अगस्त सन् १६२८ मे जो नोट लिये गये थे उन्ही के आधारपर यह परिचय लिखा गया है । ५७. कल्याणालोचना - यह ५४ पद्यों में वर्णित ग्रंथ आत्मकल्याणकी आलोचनाको लिये हुए है । इसमे आत्मसम्वोधन रूपसे अपनी भूलो- गलतियो अपराधों की चिन्ता- विचारणा करते हुए अपनेसे जो दुष्कृत बने हैं, जिन-जिन जीवादिकोंकी जिस निस प्रकार से विराधना हुई है उन सबके लिये खेद व्यक्त किया है और 'मिच्छा मे दुक्कडं. हुज्ज' जैसे शब्दों द्वारा उन दुष्कृतोंके मिथ्या होनेकी भावना की है । अपने स्वभावसिद्ध निर्वि कल्पज्ञान-दर्शनादिरूप एक आत्माको अथवा एक परमात्माको ही अपना शरण्य माना है. और 'अणोरण मज्झ सरणं सरणं सो एक्क परमप्पा' जैसे शब्दों उसकी बार बार घोषणा की है । स'थ ही, जिनदेव - जिनशासन में मति और संन्यास के साथ मरणको अपनी सम्पत् माना है। और अन्त में 'एवं आराहतो आलोयण-वंदणा-पडिक्कमणं' जैसे शब्दोंद्वारा अपने इस सब कृत्यको आलोचन, वन्दना तथा प्रतिक्रमणरूप धार्मिक क्रियाक आराधन बतलाया है । ग्रंथ साधारण है और सरल है । प्रन्धकारने ग्रंथकी अन्तिम गाथा में, 'णिद्दिट्ठ अजिय-बंभेण' इस वाक्यके द्वारा, अपना नाम 'जितब्रह्म' सूचित किया है- और कोई विशेष परिचय अपना नहीं दिया । इससे ग्रंथकार के विषयमें अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता । हाँ, ब्रह्मजितका बनाया हुआ एक 'हनुमच्चरित' जरूर उपलब्ध है, जिसे उन्होंने देवेन्द्रकी र्तिके शिष्य भ० विद्यानन्दिके आदेश से भृगुकच्छ नगर में रचा है । और उससे मालूम होता है कि ब्रह्मजितं भ० देवेन्द्रकीर्तिके शिष्य थे, उनके पिताका नाम वीरसिंह', माता का नाम 'वीधा' या 'पृथ्वी' ( दो प्रतियोंमें दो प्रकारसे ) और वंशका नाम 'गोलशृङ्गार' (गोलसिंघाड ) था । और इससे वे विक्रमकी १६ वीं शताब्दी के विद्वान हैं; क्योकि भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति और विद्यानदिका यही समय पाया जाता है | बहुत संभव है कि दोनों ग्रंथों के कर्ता ब्रह्मजित एक ही हो, यदि ऐसा है तो इस ग्रंथको विक्रमकी १६वीं शताब्दीकी कृति समझना चाहिये । ५८. श्रङ्गप्रज्ञप्ति—यह ग्रंथ द्वादशाङ्गश्रुतकी प्रज्ञापनाको लि जिनेन्द्रकी द्वादशाङ्ग वाणी के ११ अह्नों और १४ पूर्वी के स्वरूप, विषय, भेद और पदसंख्यादिका वर्णन है। आदि तीर्थंकर श्रीवृषभदेवकी वाणी से कथनके प्रसंगको उठाया गया. V पंचत्थिकाय दव्वं छक्कं तच्चाणि सत्त य पदत्था । यव बन्धो तक्कारण मोक्खो तक्कारणं चेदि ॥ ६ ॥ यो वि जिवयण - णिरुविदो सवित्थर दो । वोच्छामि सम | सेण य सुरण्य जरणा दत्त चित्ता हु ॥ १० ॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ११३ है और फिर यह सूचना की गई है कि जिस प्रकार वृपभदेवने अपने वृपभसेन गणधरको उसके प्रश्नपर यह सब द्वादशाहश्र त प्रतिपादित किया है उसी प्रकार दूसरे तीर्थंकरोंने भी अपने अपने गणधरोके प्रति प्रतिपादित किया है। तदनुसार ही श्रीवर्द्धमान तीर्थकरके मुखकमलसे निकले हुए द्वादशाग तज्ञानकी श्रीगौतम गणधरने अविरुद्ध रचना की और वह द्वादशागश्रत वादको पूर्णतः अथवा खण्डशः जिन जिनको आचार्य-परम्परासे प्राप्त हुआ है उन आचायों का नामोल्लेख किया है। और इस तरह श्र तज्ञानकी परम्पराको बतलाया है। इसकी कुल गाथा-संख्या २४८ है और वह तीन अधिकारोंमे विभक्त है । प्रथम अंगनिरूपणाधिकार में ७७, दूसरे चतुर्दशपूर्वाधिकारमे ११७ और तीसरे चूलिकाप्रकीर्णकाधिकारमे ५४ गाथाएँ हैं। इस प्रथके कर्ता भट्टारक शुभचन्द्र हैं, जिन्होंने प्रथमे अपनी गुरुपरम्परा इस प्रकार दी है :-सकलकीर्तिके पट्टशिष्य भुवनकीर्ति, भुवनकीर्तिके पट्टशिष्य ज्ञानभूपण, ज्ञानभूपणके शिष्य विजयकीर्ति और विजयकीर्तिके शिष्य शुभचन्द्र (ग्रंथकार)। शुभचन्द्र नामके यद्यपि अनेक विद्वान आचार्य होगए हैं, जिनका समय भिन्न है और उनकी अनेक कृतियाँ भी अलग अलग पाई जाती है, परन्तु ये विजयकीर्तिके शिष्य और ज्ञानभूपण भ० के प्रशिष्य शुभचन्द्र विक्रमकी १६वीं शताब्दीके उत्तरार्ध. और १७वीं शताब्दीके पूर्वार्धके विद्वान हैं, क्योंकि इन्होंने संवत् १५७३ मे समयसारकलशाकी टीका ‘परमाध्यात्मतरंगिणी लिखी है, सं० १६०८ मे पाण्डवपुराणकी तथा संवत् १६११ में करकंडुचरितकी और सं० १६१३ मे कार्तिकेयानुप्रेक्षाकी टीकाको बनाकर समाप्त किया है। पाण्डवपुराणमें चूँकि उन 'ग्रंथोंकी एक सूची दी हुई है जो उसकी रचनासे पहले बन चुके थे और उनमे अंगप्रज्ञप्तिका भी नाम है। अतः यह ग्रथ वि० संवत् १६०८ से पहलेकी रचना है । कितने पहले की ? यह नहीं कहा जा सकता-अधिकसे अधिक ३०-४० वर्ष पहलेकी हो सकती है। ५६. सिद्धान्तसार—यह ७६ गाथाओंका ग्रंथ सिद्धान्त-विपयक कुछ कथनोंके सारको लिए हुए है और वे कथन हैं-१(१) चौदह मार्गणाओंमे १५ जीवसमास, १४ गुणस्थान, १५ योग, १२ उपयोग और ५७ प्रत्यय अर्थातु आस्रव, (२) चौदह जीवसमासों मे १५ योग १२ उपयोग तथा ५७ आस्रव, और (३) चौदह गुणस्थानोंमे १५ योग १२ उपयोग तथा ५७ श्रास्त्र । इन सब कथनोंकी सूचना तृतीय गाथामे की गई है, जो इस प्रकार है | जीव-गुणे तह जोए सपञ्चए मग्गणासु उवओगे। जीव-गुणेसु विजोगे उवजागे पच्चए वुच्छं ॥३॥ इसके बाद क्रमश गर्गणाओं, जीवसमासो और गुणस्थानोंमे योगों तथा उपयोगोंकी सख्यादिका कथन करके अन्तमे प्रत्ययों (आसवों ) की सख्यादिका कथन किया गया है। यह प्रथ अपने विपयका एक महत्वका सूत्रग्रंथ है। इसमें अतिसक्षेपसे-सूत्रपद्धतिसेप्रायः सूचनारूपमे कथन किया गया है। और ग्रंथमे रही हुई त्रुटियोंको सुधारने तथा कमी की पूति करनेका अधिकार भी ग्रंथकारने उन्हीं साधुओंको दिया है जो वेरसूत्रगेह हैंउत्तम सूत्रोंके मन्दिर हैं साथ ही जिननाथके भक्त हैं, विरागचित्त हैं और (सम्यग्दर्शनादिरूप) शिवमार्गसे युक्त हैं३ । और इसमे यह जाना जाता है कि ग्रंथकारमे ग्रंथके रचनेकी कितनी सावधानता थी। अस्तु । V१ देखो, वीरसेवामन्दिरका 'जैन-ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह' पृ० ४२, ४७, ५४, १३६ । ४२ "कृता येनाङ्गप्रशप्तिः सर्वाङ्गार्थप्ररूपिका"-२५-१८० ॥ ३ सिद्धतसारं वरसुत्तगेहा सोहतु साहू मय-मोह-चत्ता । पूरतु होणं जिणणाहभत्ता विरायचित्ता सिवमगजुत्ता ॥ ७६ ॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ पुरातन-जैनवाक्य-सूची इस ग्रंथके कर्ता, ७८वीं गाथामें आए हुए 'जिणइंदेण पउत्त' वाक्यके अनुसार, 'जिनेन्द्र' नामके कोई साधु अथवा आचार्य मालूम होते हैं, जो आगम-भक्तिसे युक्त थे और जिन्होंने अपने आपको प्रवचन (आगम), प्रमाण (तर्क), लक्षण (व्याकरण), छन्द और अलंकारसे रहित-हृदय बतलाया है, और इस तरह इन अगाध और अपार शास्त्रोमें अपनी गतिको अधिक महत्व न देकर अपनी विनम्रताको ही सूचित किया है। ग्रंथकारने अपने गुरु आदिका और कोई परिचय नहीं दिया और इसी लिये इनके विषय में ठीक तौरपर अभी कुछ कहना सहज नहीं है। पंडित नाथूरामजी प्रेमीने, 'प्रथकर्ताओंका परिचय' नामकी प्रस्तावनामें, इस ग्रंथ का कर्ता जिनचन्द्राचार्यको बतलाया है और फिर जिनचन्द्राचार्य के विपयमें यह कल्पना की है कि वे या तो तत्त्वार्थसूत्रकी सुखबोधिका-टीकाके कर्ता भास्करनन्दीके गुरु निनचन्द्र होगे और या धर्मसंग्रहश्रावकाचारके कर्ता पं० मेधावीके गुरु जिनचन्द्र होंगे, दोनोंकी संभावना है, दोनों सिद्धान्तशास्त्रके पारंगत अथवा सैद्धान्तिक विद्वान थे। और दोनों में भी अधिक संभावना पं० मेधावीके गुरु जिनचन्द्रकी बतलाई है क्योंकि इस ग्रंथपर भ० ज्ञानभूषणकी एक संस्कृत टीका है, जो कि पं० मेधावीके गुरु जिनचन्द्रके कुछ ही पीछे प्रायः समकालीन हुए हैं, इसीसे उन्हें इस ग्रंथपर टीका लिखनेका उत्साह हुआ होगा। और इसलिये प्रेमीजीने इस ग्रन्थकी रचनाका समय भी वि० सं० १५१६ के लगभगका अनुमान किया है, जिस सम्वत्में पं० मेधावीने त्रैलोक्यप्रज्ञप्ति' की एक दानप्रशस्ति लिखी है, जिससे उस समय उनके गुरु जिनचन्द्रका अस्तित्व जाना जाता है। ____यहांपर इतना और भी जान लेना चाहिये कि ग्रन्थकी आदिमें 'श्रीजिनेन्द्राचार्यप्रणीतः' विशेपणके द्वारा ग्रन्थका कर्ता जिनेन्द्राचार्यको ही सूचित किया है, परन्तु उक्त प्रस्तावनामें प्रेमीजीने लिखा है कि "प्रारम्भमे जिनेन्द्राचार्य' नाम सशोधककी भूलसे मुद्रित होगया है।" और संशोधक एव सम्पादक पं० पन्नालालसोनीने ग्रंथके अन्तमे एक फुटनोट द्वारा अपनी भूलको स्वीकार भी किया है। साथ ही, यह भी व्यक्त किया है कि किसी दूसरी मूलपुस्तकको देखकर उनसे यह भूल हुई है। और इसपरसे यह फलित होता है कि मूल पुस्तकमे ग्रंथकतांका नाम 'जिनेन्द्राचार्य उपलब्ध है, टीकामें चूंकि 'जिनइदेण' का अर्थ 'जिनचन्द्रनाम्ना' किया गया है इसीसे सम्पादकजीने मूलपुस्तकमे 'जिनेन्द्राचार्य' नाम होते हुए भी, अपनी भूल स्वीकार कर ली है और साथ ही उस पुस्तक (प्रति) लेखककी भी भूल मान ली है । परन्तु मेरी रायमें जिसे टीकापरसे 'भूल"मान लिया गया है वह वास्तवमें भूल नहीं है, बल्कि टीकाकारकी ही भूल है। क्योंकि 'इदेण' पदका अर्थ 'चन्द्रण' घटित नहीं होता किन्तु 'इन्द्रण' होता है और पूर्व में 'जिन' शब्दके लगनेसे 'जिनेन्द्रण' होजाता है। देण' पदका अर्थ 'चंद्रोण' तभी हो सकता है जब 'इंद' का अर्थ 'चन्द्र' हो; परन्तु 'इंद' का अर्थ चन्द्र न होकर इन्द्र होता है, चन्द्र अर्थ 'इदु' शब्दका होता है-'इन्द्र' का नहीं। शायद 'इंदु' शब्दकी कल्पना करके ही 'ईदेण' पदका अर्थ चद्रण किया गया हो, परन्तु इंदका तृतीयाके एकवचनमे रूप 'इदेण' नहीं होता किन्तु 'इंदुणा' होता है. और यहां स्पष्टरूपसे 'इंदेण' पदका प्रयोग है जिससे उसे 'ईदु'शब्दका तृतीयान्तरूप नहीं कहा जासकता। और इसलिये उससे चन्द्र अर्थ नहीं निकाला जासकता। चुनाँचे इस ग्रथकी कनडी टीकाटिप्पणी में भी 'जिनेन्द्रदेवाचार्य' नाम दिया है। यदि प्रथकारको यहा चन्द्र अर्थ विवक्षित होता तो वे सहजमे ही 'जिनडदेण' की जगह जिनचंदेण' पद रख सकते थे और यदि 'जिनेन्ट' जैसे नामके लिये इन्दु शब्द ही विवक्षित होता तो वे उक्त पदको जिणइंदुणा' का रूप दे सकते थे, जिसके लिये छन्दकी दृष्टि से भी कोई वाघा नहीं थी। परन्तु ऐसा कुछ भी "प्रारंभे हि जिनेन्द्राचार्य इति विस्मृत्य लिखितोऽस्माभिरन्यन्मूलपुस्तकं विलोक्य ।-सं०।" Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्तावना ११५ नहीं है, और इसलिये 'जिनईदेण' पदकी मौजूदगीमें उसपरसे ग्रंथकर्ताका नाम 'जिनचन्द्र' फलित नहीं किया जा सकता। ऐसी हालतमें जिनचन्द्र के सम्बन्धमे जो कल्पनाएँ की गई हैं, उनपर विचार करनेकी कोई जरूरत नहीं रहती। मेरे खयालमे जिणइंदका अर्थ जिनचन्द्र करनेमे संस्कृतटीकाकारादिकी उसी प्रकारकी भूल जान पडती है जिस प्रकारकी भूल परमात्मप्रकाशके टीकाकारादिकने 'जोइन्दु' का अर्थ 'योगीन्द्र' करनेमे की है और जिसका स्पष्टीकरण डा० उपाध्येने अपनी परमात्मप्रकाशकी प्रस्तावनामे किया है। वहाँ इन्दु' का अर्थ 'इन्द्र' किया गया है तो यहाँ 'इंद' का अर्थ 'इंदु'(चद्र) कर दिया गया है ।। अतः इस ग्रन्थके कर्ता 'जिनेन्द्र' का ठीक पता लगाना चाहिये कि वे किसके शिष्य अथवा गुरु थे, कब हुए हैं और उनके इस ग्रन्थके वाक्योंको कौन कौन ग्रन्थोंमें उद्धृत किया गया है। ६०. नन्दिसंघ-पट्टावली-इस पट्टावली मे १६ गाथाएँ हैं, जिनमेसे १७ तो पट्टावली-विपयकी हैं और शेप दो विक्रम राजाकी उत्पत्ति आदिसे सम्बन्ध रखती हैं, जिनके अनुसार विक्रमकाल वीरनिर्वाणसे ४७० वर्षके बाद प्रारम्भ होता है । इनमेसे किसी भी गाथामें संघ, गण, गच्छादिका कोई उल्लेख नहीं है । पट्टावलीकी आदिमे तीन पद्य संस्कृत भाषाके दिये हैं, जिनमे तीसरा पद्य बहुत कुछ स्खलित है, और उनके द्वारा इस प्राचीन पट्टावलीको मूलसघकी नन्दि-आम्नाय, बलात्कारगण और सरस्वतीगच्छके कुन्दकुन्दान्वयी गणाधिपों आचार्यो )के साथ सम्बद्ध किया गया है । वे तीनों पद्य, जिनके क्रमाङ्क भी गाथाओंसे अलग हैं, इस प्रकार हैं: श्रीत्रैलोक्याधिपं नत्वा स्मृत्वा सद्गुरु-भारतीम् । वक्ष्ये पट्टावली रम्यां मूलसंघ-गणाधिपाम् ॥ १ ॥ श्रीमूलसघ-प्रवरे नन्द्याम्नाये मनोहरे । ' बलात्कार-गणोत्तंसे गच्छे सारस्वतीयके ॥२॥ कुन्दकुन्दान्वये श्रेष्ठं उत्पन्न श्रीगणाधिपम् । तमेवाऽत्र प्रवक्ष्यामि श्रयतां सज्जना जनाः ॥३॥ (इन पद्योंके अनन्तर पट्टापलीकी मूलगाथाओं का प्रारम्भ है और उनमे अन्तिम जिन(श्रीवीर भगवान)के निर्वाणके बाद क्रमशः होनेवाले तीन केलियों, पॉच श्रुतकेलियों, ग्यारह दशपूर्वधारियों पांच एकादशांगधारियो, चार दशांगादिके पाठियो और पांच एकागके धारियोंका, उनके अलग-अलग अस्तित्वकालके वर्षों-सहित नामोल्लेख किया है। साथ ही, प्रत्येक वर्ग के साधुओंका इकट्ठा काल भी दिया है, जैसे गौतमादि तीनों केवलियों का काल ६२ वर्ष, विष्णु-नन्दिमित्रादि पांचों श्र तकेवलियोंका उसके बादः १०० वर्ष अर्थात् वीरनिर्वाणसे ५६२ वर्ष पर्यन्त. तदनन्तर विशाखाचार्यादि ग्यारह दशपूर्वधारियोंका १८३ वर्ष, नक्षत्रादि पाँच एकादशांगधारियोंका १२३ वर्ष, सुभद्रादि चार दशगादिकधारियों का ६७ वर्ष और अहवाल आदि पाच एकागधारियोंका काल ११८ वर्प। इस तरह वीरनिर्वाणसे ६८३ वर्ष तकके अर्सेमे होनेवाले केवलियों, श्र तकेलियों और अगपूर्वके पाठियों की यह पट्टावली है । उस वक्त तक दिगम्बर सम्प्रदायमें कोई खास संघ-भेद नहीं हुआ था, और इलिये बादको होनेवाले नन्दि-सेनादि सभी सघो और गण-गच्छोंके द्वारा यह पूर्वकी पट्टावती अपनाई जा सकती है। तदनुसार ही यह नन्दिसंघके द्वारा अपनाई गई है और इसीसे इसको नन्दिसघ (बलात्कारगण सरस्वतीगच्छ)की पट्टावली कहा जाता है । यह पावली प्रत्येक आचार्य के अलग-अलग समयके निर्देशादिकी दृष्टिसे अपना खास महत्व \१ देखो, जैन सिद्धान्तभास्कर, भाग १ किरण ४ पृ० ७१ । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ पुरातन-जैनवाक्य-सूची रखती है। इस पट्टावलीमें वर्णित ६८३ वर्षकी यह संख्या किसी भी अंग-पूर्वादिके पूर्णतः पाठियोंके लिये दिगम्बरसमाज में रूढ है, इसमे कहीं कोई विरोध नहीं पाया जाता। आंशिक रूपसे अंग-पूर्वादिके पाठी इन ६८३ वर्षो मे भी हुए हैं और इनके बाद भी हुए हैं। ६१. सावयधम्मदोहा-यह २२४ दोहोमे वर्णित श्रावकाचार-विषयका अच्छा ग्रंथ है, जिसे देहली आकिकी कुछ प्रतियोंमे 'श्रावकाचारदोहक' भी लिखा है और कुछ प्रतियों में 'उपासकाचार' जैसे नामोसे भी उल्लेखित किया है । मूल के प्रतिज्ञावाक्यमें 'अक्वमिसावयधम्मु' वाक्यक द्वारा इसका नाम श्रावकधर्म' सूचित किया। दोहाबद्ध होनेसे अनेक प्रतियोंमें दोहाबद्ध दोहक तथा दोहकसूत्र-जैसे विशेपणोंको भी साथमे लगाया गया है। इसके कर्ताका मूलपरसे कोई पता नहीं चलता। अनेक प्रतियोंके अन्तमे कविषयक विभिन्न सूचनाएँ पाई जाती हैं-किसीमे जोगेन्दु तथा योगीन्द्रको, किसीमे लक्ष्मीचन्द्रको और किसीमें देवसेनको कर्ता बतलाया है।भाण्डारकर ओरियंटल रिसर्च इन्स्टिट्य ट पूनाकी एक सटीक । प्रतिमें यहाँ तक लिखा है कि "मूलं योगीन्द्रदेवस्य लक्ष्मीचन्द्रस्य पंजिका" अर्थात् मूलग्रंथ योगीन्द्रदेवका और उसपर पजिका लक्ष्मीचन्द्रकी है। इन सब बातोंकी चर्चा और उनका ऊहापोह प्रो० हीरालालजी एम० ए० ने अपनी भूमिका में किया है और देवसेनके भावसंग्रहकी गाथाओं नं० ३५० से ५६६ तकके साथ तुलना करके यह मालूम किया है कि दोनोंमे बहुत कुछ सादृश्य है और उसपरसे उन्हीं देवसेनको ग्रंथका कर्ता ठहराया है जिन्होंने विक्रम संवत् ६६० में अपने दूसरे ग्रंथ दर्शनसारको बनाकर समाप्त किया है। और इस तरह इस प्रथको १०वीं शताब्दीकी रचना सूचित किया है। परन्तु मेरी रायमे यह विपय अभी और भी विचारणीय है । शायद इसीसे प्रो० साहबने भी टाइटिल आदिपर प्रथनामके साथ उसके कर्ताका नाम निश्चित रूपमे प्रकट करना उचित नहीं समझा। अस्तु । यह ग्रंथ अपभ्रंश भापाका है। इसमे श्रावकीय प्रतिमाओं तथा व्रतादिकोंका वर्णन करते हुए एक स्थानपर लिखा है : एहुं धम्मु जो आयरइ वंभण सुदु वि कोइ । सो सावउ किं सावयहँ अण्णु कि सिरि मणि होइ ।। ७६ ॥ इसमे श्रावकका लक्षण बतलाते हुए कहा है कि-'इस धर्मका जो आचरण करता है, चाहे वह ब्राह्मण या शूद्र कोई भी हो, वही श्रावक है श्रावकके निरपर और क्या कोई मणि होता है ? अर्थात् श्रावकधर्मके पालनके सिवाय श्रावकको पहचानका और कोई चिन्ह नहीं है और श्रावकधर्मके पालनका सबको अधिकार है-उसमे कोई भी जाति-भेद बाधक ६२. पाहडदाहा-यह २२० पद्योंका ग्रंथ है, जिसमें अधिकांश दोहे ही हैंकुछ गाथा आदि दूसरे छंद भी पाये जाते हैं, और दो तीन पद्य संस्कृतके भो हैं । इसका विपय योगीन्दुके परमात्मप्रकाश तथा योगसारकी तरह प्रायः अध्यात्मविषयसे सम्बन्ध रखता है। दोनोंकी शैली-सरणि तथा उक्तियोंको भी इसमे अपनाया गया है. इतना ही नहीं बल्कि ५० के करीब दोहे इसमे ऐसे भी हैं जो परमात्मप्रकाशके साथ प्रायः एकता रखते हैं और कुछ ऐसे भी हैं जो योगसारके साथ समानभावको प्राप्त हैं। शायद इस समानताक कारण ही एक प्रतिमे। इसे 'योगीन्द्रदेवविरचित' लिख दिया है। परन्तु यह ग्रंथ रामसिंहमुनिकृत है. जैसा कि २०६वे पद्य मे प्रयुक्त 'रामसीहु मुणि इम भणइ' जैसे वाक्य से प्रकट है . १ यह प्रति डा० ए० एन० उराध्ये एम० ए० के पास एक गुटके में है ।-देखो, 'अनेकान्त' वर्ष १, कि० --६-१०, पृ० ५४५ । २ अणुपेहा बारह वि जिया भविवि एक्कविणेण । रामसीहु मुणि इम भणइ सिवपुर पावहि जेण ॥ २०६ ॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ११७ * 1 और देहली नयामन्दिरकी प्रतिके अन्तमें, जो पौष शुक्ला ६ शुक्रवार संवत् १७६४ की लिखी हुई है, साफ लिखा है - " इति श्रीमुनिरामसिंह विरचितपाहुडदोहासमाप्तम् ।" यह ग्रंथ भी, 'सावयधम्मदोहा' की तरह, प्रो० हीरालालजी एम० ए० के द्वारा सम्पादित होकर अम्बालाल चवरे दि० जैन ग्रंथमाला में प्रकाशित हो चुका है। ग्रंथमे ग्रंथकर्ताने अपना तथा अपने गुरु आदिका कोई खास परिचय नहीं दिया और न ग्रंथका रचनाकाल ही दिया है, इससे इनके विपयमे अभी विशेष कुछ नहीं कहा जा सकता । (प्रो० हीरालालजीने 'भूमिका' में बतलाया है कि 'इस ग्रंथके ४३ और २१५ नम्बर के दोहे वे ही हैं जो 'सावयधम्म दोहा' में क्रमशः न० १२९ व ३० पर पाये जाते हैं । उनकी स्थिति 'सावयघम्मदोहा' में जैसी स्वाभाविक, उपयुक्त और प्रसंगोपयोगी है वैसी इस पाहुडदोहामे नहीं है, इसलिये वे वहीं परसे पाहुडदोहामे उद्घृत किये गये हैं । और चूँकि सावयवम्मदोहा दर्शनसारके कर्ता देवसेन (वि० सं० ६६०) की कृति है इसलिये यह पाहुडदोहा वि० सं० ६६० ( ई० सन् ९३३) के बादकी कृति ठहरती है ।' साथ ही, यह भी बतलाया है कि 'हेमचन्द्राचार्य ने अपने व्याकरणमे अपभ्रश सम्बन्धी सूत्रों के उदाहरणरूप पाँच दोहे ऐसे दिये हैं जो इस ग्रन्थपरसे परिवर्तित करके रखे गये होते हैं । चूँकि हेमचन्द्रका व्याकरण गुजरातके चालुक्यवंशी राजा सिद्धराज के राज्य - कालमें—ई० सन् १०६३ और ११४३ के मध्यवर्ती समयमे - बना है । इससे प्रस्तुत सन १९०० से पूर्वका बना हुआ सिद्ध होता है ।' परन्तु हेमचन्द्रके व्याकरणमें उक्त दोहें जिस स्थितिमे पाये जाते हैं उसपर से निश्चितरूपमे यह नहीं कहा जा सकता कि वे इसी प्रन्थपरसे लिये गये हैं परिवर्तन करके रखनेको बात उनके विपयके अनुमानको और भी कमजोर बना देती है - उदाहरण के तौरपर उद्धृत किये जानेवाले पद्योंमे स्वेच्छा से परिवर्तनकी बात कुछ जीको भी नहीं लगती। इसी तरह 'सावयधम्मदोहा' का देवसेनकृत होना भी अभी निर्णीत नहीं हैं। ऐसी हालत मे इस ग्रंथका समय ई० सन् ६३३ के बादका और सन १९०० से पूर्वका जो निश्चित किया गया है वह अभी सन्दिग्ध जान पड़ता है और विशेष विचारकी अपेक्षा रखता है । अत ग्रंथ के समय सम्बन्धादिके विषय में अधिक खोज होने की जरूरत है । ग्रंथकार महोदयने इस ग्रंथमे जो उपदेश दिया है उसके कुछ अंशोंका सार प्रो० हीरालालजी के शब्दों में इस प्रकार है : ("उनका (ग्रंथकार का ) उपदेश है कि सुख के लिये बाहर के पदार्थों पर अवलम्बित होनेकी आवश्यकता नहीं है, इससे तो केवल दुःख और संताप ही बढ़ेगा | सच्चा सुख इन्द्रियोंपर विजय और आत्मध्यानमे ही मिलता है । यह सुख इंद्रियसुखाभासों के समान क्षणभंगुर नहीं है, किन्तु चिरस्थायी और कल्याणकारी है, आत्माकी शुद्धि के लिये न तीर्थजलकी आवश्यकता है, न नानाप्रकारका वेष धारण करनेकी । आवश्यकता है केवल, राग और द्व ेषकी प्रवृत्तियोंको रोककर, आत्मानुभवकी । मूंड मुडानेसे, केश लौंच करनेसे या नग्न होने से ही कोई सच्चा योगी और मुनि नहीं कहा जा सकता । योगी तो तभी होगा जब समस्त अंतरग परिग्रह छूट जावे और मन आत्मध्यानमे विलीन होजावे । देवदर्शन के लिये पापारण के बड़े बड़े मन्दिर बनवाने तथा तीर्थों तीर्थों भटकने की अपेक्षा अपने ही ! शरीरके भीतर निवास करनेवाले देवका दर्शन करना अधिक सुखप्रद और कल्याणकारी | आत्मज्ञान से हीन क्रियाकाड कणरहित तुष और पयाल कूटने के समान निष्फल हैं ऐसे व्यक्तिको न इन्द्रियसुख ही मिलता और न मोक्षका मार्ग ही । " what --- ६३. सुप्रभदाहा - यह प्रायः दोहों में नीति, धर्म और अध्यात्म - विपयकी शिक्षाको लिये हुए अपश भाषाका एक प्रथ है, जिसकी पद्य - सख्या ७७ है और जो अभी तक Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ पुरातन-जैनवाक्य-सूची अप्रकाशित जान पड़ता है। इसमें प्रायः आत्मा, मन और धार्मिकों तथा योगियों को सम्बोधन करके ही उपदेश दिया गया है और दान, परोपकार, आत्मध्यान, संसार-विरक्ति एवं अहद्भक्तिकी प्रेरणा की गई है। . इसके रचयिता सुप्रभाचार्य हैं, जिन्होंने प्रायः प्रत्येक पद्यमें 'सुप्पह भणइ' जैसे वाक्यके द्वारा अपने नामका निर्देश किया है और एक स्थानपर ( दोहा ५६ में) 'सुप्पहु भणइ मुणीसरहु' वाक्यके द्वारा अपनेको 'मुनीश्वर' भी सूचित किया है; परन्तु अपना तथा अपने गुरु आदिका अन्य कोई विशेष परिचय नहीं दिया। और इसलिये इनके विषयमे अधिक कुछ भी नहीं कहा जा सकता। हाँ, ग्रंथपरसे इतना स्पष्ट है कि ये निम्रन्थ जैन मुनि थे-निर्ग्रन्थ-तपश्चरण और निरंजन भावको प्राप्त करनेकी इन्होने प्रेरणा की है। ___ इस ग्रंथकी एक प्रति नयामन्दिर धर्मपुरा देहलीके शास्त्रभण्डारमे मौजूद है, जो श्रावणशुक्ला ४ सोमवार विक्रम संवत् १८३५ की लिखी हुई है, जैसाकि उसके अन्तकी निम्न पुष्पिकासे प्रकट है: ____इति श्रीसुप्रभाचार्यविरचितदोहा समाप्ता । संवत् १८३५ वर्षे शाके १७०० मीति श्रावणशुक्ल ४ वार शोमवार लीषते लोकमनपठनार्थ। लिष्यौ आणंदरामजीकादेहरामे संपूर्ण कियो । शुभं भवतु ।" इस ग्रन्थकी आदिमें कोई मंगलाचरण अथवा प्रतिज्ञा-वाक्य नहीं है-ग्रन्थ हक्कहि घरे वधावणउ' से प्रारम्भ होता है- और अन्त में समाप्तिसूचक पद्य भी नहीं है। यहाँ ग्रन्थके कुछ पद्य नमूनेके तौरपर नीचे दिये जाते हैं, जिससे पाठकोंको उसके भाषासाहित्य और उक्तियों आदिका कुछ आभास प्राप्त हो सकेः इक्कहिं घरे वधावणउ, अण्हहिं घरि धाहहिं रोविज्जइ । परमत्थई सुप्पहु भणइ, किम वइरायभानु ण उ किज्जइ ॥१॥ अह धरु करि दाणेण सहुं, अह तउ करि णिग्गंथु । विह चुक्कऊ सुप्पडु भणइ, रे जिय इत्थ ण उत्थ ॥५॥ जिम झाइज्जइ वल्लहु, तिम जइ जिय अरस्तु । सुप्पहु भणइ ते माणुसहं, सग्गु परिगणि हंतु ॥६॥ धणु दीणहं गुणसज्जणहं, मणु धम्महं जो देइ । तह पुरिसहं सुप्पहु भणइ, विहि दासत्तु करेइ ॥ ३८॥ जसु मणु जीवइ विषयवसु, सो पर मुवो भणेहु । जसु पुणु सुप्पहु मण मरय, सो यह जियउ भणेहु ॥ ६०॥ जसु लग्गउ सुप्पहु भणइ, पियघर-घरणि-पिसाउ । सो किं कहिउ समायरइ, मित्त णिरंजण-भाउ ॥६१॥ जिम चिंतिज्जइ घर घरणि, तिम जइ परउवयारु । तो णिच्छउ सुप्पहु भणइ, खणि तुइ संसारु ॥६४ ॥ सो घरवइ सुप्पहु भणइ, जसु कर दाणि वहति । जो पुणु संचे घणु जि घणु, सो णरु संडु भणंति ॥ ७६ ॥ ग्रन्थकी उक्त देहली-प्रतिक साथ कर्तृ नाम-विहीन एक छोटीसी सस्कृत टीका भी लगी हुई है जो बहुत कुछ साधारण तथा अपर्याप्त है और कहीं कहीं अर्थके विपर्यासको भी लिये हुए है। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ११६ ६४. सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन 'सन्मतिसूत्र' जैनवाड्मयमें एक महत्वका गौरवपूर्ण ग्रंथरत्न है, जो दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोंमें समानरूपसे माना जाता है। श्वेताम्बरोंमें यह सम्मतितक', 'सम्मतितर्कप्रकरण' तथा 'सम्मतिप्रकरण' जैसे नामोंसे अधिक प्रसिद्ध है, जिनमें 'सन्मति' की जगह 'सम्मति' पद अशुद्ध है और वह प्राकृत 'सम्मई' पदका गलत संस्कृत रूपान्तर है.। पं० सुखलालजी और पं० बेचरदासजीने, ग्रन्थका गुजराती अनुवाद प्रस्तुत करते हुए, प्रस्तावनामें इस गलतीपर यथेष्ट प्रकाश डाला है और यह बतलाया है कि 'सन्मति' भगवान महावीरका नामान्तर है, जो दिगम्बरपरम्परामे प्राचीनकालसे प्रसिद्ध तथा 'धनखयनाममाला' मे भी उल्लेखित है, ग्रन्थ नामके साथ उसकी योजना होनेसे वह महावीरके सिद्धान्तोंके साथ जहाँ ग्रन्थके सम्बन्धको दर्शाता है वहाँ श्लषरूपसे अष्ट मति अर्थका सूचन करता हुआ ग्रन्थकर्ताके योग्य स्थानको भी व्यक्त करता है और इसलिये औचित्यकी दृष्टिसे 'सम्मति' के स्थानपर 'सन्मति' नाम ही ठीक वैठता है। तदनुसार ही उन्होंने ग्रन्थका नाम 'सन्मति-प्रकरण' प्रकट किया है दिगम्बर-परम्पराके धवलादिक प्राचीन ग्रन्थोंमे यह सन्मतिसूत्र (सम्मइसुत्त) नामसे ही उल्लेखित मिलता है। और यह नाम सन्मति-प्रकरण नामसे भी अधिक औचित्य रखता है, क्योकि इसकी प्रायः प्रत्येक गाथा एक सूत्र है अथवा अनेक सूत्रवाक्योंको साथमे लिये हुए है पं० सुखलालजी आदिने भी प्रस्तावना (पृ० १३) मे इस बातको स्वीकार किया है कि 'सम्पूर्ण सन्मति ग्रंथ सूत्र कहा जाता है और इसकी प्रत्येक गाथाको भी सूत्र कहा गया है। भावनगरकी श्वेताम्बर सभासे वि० सं० १९६५ में प्रकाशित मूलप्रतिमें भी "श्रीसंमतिसूत्र समाप्त मिति भद्रम्" वाक्यके द्वारा इसे सूत्र नामके साथ ही प्रकट किया है -तर्क अथवा प्रकरण नामके साथ नहीं।) इसकी गणना जैनशासनके दर्शन-प्रभावक ग्रंथोंमें है। श्वेताम्बरोंके जीतकल्पचूर्णि' ग्रंथकी श्रीचन्द्रसूरि-विरचित विषमपदव्याख्या' नामकी टीकामें श्रीअकलङ्कदेवके 'सिद्धिविनिश्चय' ग्रंथके साथ इस 'सन्मति' ग्रंथका भी दर्शनप्रभावक ग्रंथोंमें नामोल्लेख किया गया है और लिखा है कि ऐसे दर्शनप्रभावक शास्त्रोंका अध्ययन करते हुए साधुको अकल्पित प्रतिसेवनाका दोष भी लगे तो उसका कुछ भी प्रायश्चित्त नहीं है, वह साधु शुद्ध है। यथा "दंसण त्ति-दसण-पभावगाणि सत्थाणि सिद्धिविणिच्छय-सम्मत्यादि गिण्हतोऽसंथरमाणो जं अकप्पियं पडिसेवइ जयणाए तत्थ सो सुद्धोऽप्रायश्चित्त इत्यर्थः२/।" इससे प्रथमोल्लेखित सिद्धिविनिश्चयकी तरह यह ग्रंथ भी कितने असाधारण महत्वका है इसे विज्ञपाठक स्वयं समझ सकते हैं। ऐसे ग्रंथ जैनदर्शनकी प्रतिष्ठाको स्व-पर हृदयोंमे अकित करने वाले होते हैं। तदनुसार यह ग्रंथ भी अपनी कीर्तिको अक्षुण्ण बनाये हुए है। इस ग्रंथके तीन विभाग हैं जिन्हें 'काण्ड' संज्ञा दी गई है । प्रथम काण्डको कुछ हस्तलिखित तथा मुद्रित प्रतियोंमे 'नयकाण्ड' बतलाया है-लिखा है "नयकडं सम्मत्त"और यह ठीक ही है, क्योंकि साग काण्ड नयके ही विषयको लिये हुए है और उसमें द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक दो नयोंको मूलाधार बनाकर और यह बनलाकर कि 'तीर्थकर १ "अणेण सम्मइसुत्तेण सह कथमिदं वक्खाणं ण विरुज्झदे हदि ण, तत्य पजायस्स लक्खण खइणो भावव्भुवगमादो।" (धवला १) "ण च सम्मइसुत्तेण सह विरोहो उजुसुद-णय-विसय-भावणिक्खेवमस्सिदूण तप्यउत्तीदो।" (जयधवला१) V२ श्वेताम्बरों के निशीथ ग्रन्थकी चूर्णिमें भी ऐसा ही उल्लेख है:'दसणगाही-दसणणाणप्पभावगाणि सत्याणि सिद्धिविणिच्छय-संमतिमादि गेण्हतो असंथरमाणे जं अकप्पिय पडिसेवति जयणाते तत्य सो सुद्धो अप्रायश्चित्ती भवतीत्यर्थः।" (उद्देशक १) Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० पुरातन-जैनवाक्य-सूची वचनोंके सामान्य और विशेपरूप प्रस्तारके मूलप्रतिपादक ये ही दो नय है-शेष सब नय इन्हींके विकल्प है, उन्हीं के भेद-प्रभेदों तथा विपयका अच्छा सुन्दर विवेचन और संसूचन किया गया है। दूसरे काण्डको उन प्रतियोंमें 'जीवकाण्ड' बतलाया है-लिखा है “जीवकंडयं सम्मत्तं"। पं० सुखलालजी और पं० वेचरदासजीकी रायमे यह नामकरण ठीक नहीं है, इसके स्थानपर, 'ज्ञानकाण्ड' या 'उपयोगकाण्ड' नाम होना चाहिये; क्योंकि इस काण्डमें; उनके कथनानुसार, जीवतत्त्वकी चर्चा ही नहीं है-पूर्ण तथा मुख्य चर्चा ज्ञानकी है । यह ठीक है कि इस काण्डमे ज्ञानकी चर्चा एक प्रकारसे मुख्य है परन्तु वह दर्शनकी चर्चाको भी साथमे लिये हुए है-उतीसे चचांका प्रारंभ है-और ज्ञान-दर्शन दोनो जीवद्रव्यकी पर्याय है, जीवद्रव्यसे भिन्न उनकी कहीं कोई सत्ता नहीं, और इसलिये उनकी चर्चाको जीवद्रव्य "की ही चर्चा कहा जा सकता है। फिर भी ऐसा नहीं है कि इसमें प्रकटरूपसे जीवतत्त्वकी कोई चर्चा ही न हो-दूसरी गाथामे 'दव्वटिश्रो वि होऊण दंसणे पज्जवडिओ होई' इत्यादिरूपसे जीवद्रव्यका कथन किया गया है, जिसे पं० सुखलालजी आदिने भी अपने अनुवादमे 'श्रात्मा दर्शन वखते” इत्यादिरूपसे स्वीकार किया है। अनेक गाथाओं में कथन-सम्बन्धको लिये हुए सर्वज्ञ, केवली, अर्हन्त तथा जिन जैसे अर्थपदोंका भी प्रयोग है जो जीवके ही विशेष है । और अन्तकी 'जीवो अणाइणिहणो' से प्रारंभ होकर 'अण्णे वि य जीवपज्जाया' पर समाप्त होनेवाली सात गाथाओं मे तो जीवका स्पष्ट ही नामोल्लेखपूर्वक कथन है-वही चर्चाका विषय बना हुआ है। ऐसी स्थितिमे यह कहना समुचित प्रतीत नहीं होता कि 'इस काण्डमे जीवतत्त्वकी चर्चा ही नहीं है और न 'जीवकाण्ड' इस नामकरणको सर्वथा अनुचित अथवा अयथार्थ ही कहा जा सकता है। कितने ही ग्रंथोंमे ऐसी परिपाटी देखनेमे आती है कि पर्व तथा अधिकारादिके अन्तमे जो विपय चर्चित होता है उसीपरसे उस पर्वादिकका नामकरण किया जाता है। इस दृष्टिसे भी काण्डके अन्तमे चर्चित जीवद्रव्यकी चोंके कारण उसे 'जीवकाण्ड' कहना अनुचित नहीं कहा जा सकता। अब रही तीसरे काण्डकी बात, उसे कोई नाम दिया हुआ नहीं मिलता। जिस किसाने दो काण्डोंका नामकरण किया है उसने तीसरे काण्डका भी नामकरण जरूर किया होगा, सभव है खोज करते हुए किसी प्राचीन प्रतिपरसे वह उपलब्ध हो जाए । डाक्टर पी० एल० वैद्य एम० ए० ने, न्यायावतारको प्रस्तावना (Introduction) मे, इस काण्डका नाम असंदिग्धरूपसे 'अनेकान्तवादकाण्ड' प्रकट किया है। मालूम नहीं यह नाम उन्हें किस प्रति परसे उपलब्ध हुआ है। काण्डके अन्तमे चर्चित विपयादिककी दृष्टिसे यह नाम भी ठीक हो सकता है। यह काण्ड अनेकान्तदृष्टिको लेकर अधिकाँशमे सामान्य-विशेषरूपसे अर्थकी प्ररूपणा और विवेचनाको लिये हुए है, और इसलिये इसका नाम 'सामान्य-विशेषकाण्ड' अथवा 'द्रव्य-पर्याय-काण्ड' जैसा भी कोई हो सकता है। पं० सुखनालजी और पं० बेचरदासजीने इसे 'ज्ञेय-काण्ड' सूचित किया है,जो पूर्वकाण्डको 'ज्ञानकाण्ड' नाम देने और दोनों काण्डोंके नामोंमे श्रीकुन्दकुन्दाचार्य-प्रणीत प्रवचनसारके ज्ञान ज्ञयाधिकारनामोंके साथ समानता लानेकी दृष्टिसे सम्बद्ध जान पड़ता है। इस ग्रंथकी गाथा-संख्या ५४, ५३, ७० के क्रमसे कुल १६७ है। परन्तु पं० सुखलालजी और प० वेचरदासजो उसे अव १६६ मानते हैं। क्योंकि तीसरे काण्डमे अन्तिम गाथाके पूर्व जो निम्न गाथा लिखित तथा मुद्रित मूलप्रतियों में पाई जाती है उसे वे इसलिये बादको प्रक्षिप्त हुई समझते हैं कि उसपर अभयदेवसूरिकी टीका नहीं है:,तित्ययर-वयण-सगह-विसेस-पत्यारमूलवागरणी । दवष्टियो य पजवणो य सेसा वियप्पाति ॥ ३॥ - जैसे जिनसेनकृत हरिवंशपुराण के तृतीय सर्गका नाम 'श्रेणिकप्रश्नवर्णन', जब कि प्रश्न के पूर्व में वीरके विहारादिका और तत्त्वोपदेशका कितना ही विशेष वर्णन है । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना जेण विया लोगस्स वि ववहारो सव्वहा ग णिव्वडह । तस्स भुवणेक्कगुरुणो णमो अगंतवास्स ॥ ६६॥ १२१ इसमें बतलाया है कि 'जिसके विना लोकका व्यवहार भी सर्वथा बन नहीं सकता उस लोकके अद्वितीय (असाधारण) गुरु अनेकान्तवादको नमस्कार हो ।' इस तरह जो अनेकान्तवाद इस सारे ग्रंथकी आधार - र - शिला है और जिसपर उसके कथनोंकी ही पूरी प्राण-प्रतिष्ठा ही अवलम्बित नहीं है बल्कि उस जिनवचन, जैनागम अथवा जैनशासनकी भी प्राण-प्रतिष्ठा अवलम्बित है जिसकी अगली (अन्तिम) गाथामें मंगल कामना की गई है और ग्रंथकी पहली (आदिम) गाथामें जिसे 'सिद्धशासन' घोषित किया गया है, उसीकी गौरव-गरिमाको इस गाथामे अच्छे युक्तिपुरस्सर ढंगसे प्रदर्शित किया गया है। और इस लिये यह गाथा अपनी कथनशैली और कुशल - साहित्य - योजनापर से ग्रंथका अंग होने के योग्य जान पड़ती है तथा मंथकी अन्त्य मंगल - कारिका मालूम होती है । इसपर एकमात्र अमुक टीकाके न होने से ही यह नहीं कहा जा सकता कि वह मूलकार के द्वारा योजित न हुई होगी, क्योंकि दूसरे ग्रंथोंकी कुछ टीकाए ऐसी भी पाई जाती हैं जिनमे से एक टीकामे कुछ पद्य मूलरूप में टीका सहित हैं तो दूसरी मे वे नहीं पाये जाते / और इसका कारण प्रायः टीकाकार को ऐसी मूल प्रतिका ही उपलब्ध होना कहा जा सकता है जिसमे वे पद्य न पाये जाते हों । दिगम्बराचार्य सुमति (सन्मति ) देवकी टीका भी इस ग्रंथपर बनी है, जिसका उल्लेख वादिराज ने अपने पार्श्वनाथचरित ( शक सं० ६४७ ) के निम्न पद्यमे किया है :नमः सन्मतये तस्मै भव-कूप- निपातिनाम् | सुखधाम- प्रवेशिनी ॥ सन्मतिर्धिवृता येन यह टीका अभी तक उपलब्ध नहीं हुई— खोजका कोई खास प्रयत्न भी नहीं हो सका। इसके सामने आनेपर उक्त गाथा तथा और भी अनेक बातोंपर प्रकाश पढ़ सकता है, क्योंकि यह टीका सुमतिदेवकी कृति होनेसे ११वीं शताब्दी के श्वेताम्बरीय आचार्य अभयदेवकी टीकासे कोई तीन शताब्दी पहले की बनी हुई होनी चाहिये । श्वेताम्बराचार्य मल्लवादी की भी एक टीका इस ग्रंथपर पहले बनी है, जो आज उपलब्ध नहीं है और जिसका उल्लेख हरिभद्र तथा उपाध्याय यशोविजयके ग्रंथो में मिलता है इस ग्रथमे, विचारको दृष्टि प्रदान करनेके लिये, प्रारम्भसे ही द्रव्यार्थिक (द्रव्यास्तिक) और पर्यायार्थिक (पर्यायास्तिक) दो मूल नयोंको लेकर नयका जो विषय उठाया गया वह प्रकारान्तरसे दूसरे तथा तीसरे काण्ड मे भी चलता रहा है और उसके द्वारा नयवादपर अच्छा प्रकाश डाला गया है। यहाँ नयका थोड़ा-सा कथन नमूने के तौर पर प्रस्तुत किया जाता है, जिससे पाठकोंको इस विषय की कुछ झॉकी मिल सके : प्रथम काण्डमे दोनों नयोंके सामान्य- विशेषविपयको मिश्रित दिखलाकर उस मिश्रितपनाकी चर्चाका उपसंहार करते हुए लिखा है - दव्यति तम्हा णत्थि नियम सुद्धजाई । ण य पज्जवडिओ णाम कोई भयणाय उ विमेो ॥ ६ ॥ १ जैसे समयसारादि ग्रन्थोंकी श्रमृतचन्द्रसूरिकृत तथा जयसेनाचार्यकृत टीकाएँ, जिनमें कतिपय गाथान्यूनाधिकता पाई जाती है । २ “उक्तं च वादिमुख्येन श्रीमल्लवादिना सम्मतौ ” ( श्रनेकान्तजयपताका ) "इद्दार्थे कोटिशा भङ्गा पिदिष्टा मल्लवादिना । मूलसम्मति टीकायामिद दिमात्रदर्शनम् ॥" - ( ट स ह सी - टिप्पण) स० प्र० पृ०४० Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ पुरातन-जैनवाक्य-सूची 'अतः कोई द्रव्यार्थिक नय ऐसा नहीं जो नियमसे शुद्धजातीय हो-अपने प्रतिपक्षी पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षा न रखता हआ उसके विपय-स्पर्शसे मुक्त हो। इसी तरह पर्यायार्थिक नय भी कोई ऐसा नहीं जो शुद्धजातोय हो-अपने विपक्षी द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा न रखता हुआ उसके विपय-स्पर्शसे रहित हो। विवक्षाको लेकर ही दोनोंका भेद है-विवक्षा मुख्य-गौणके भावको लिये हुए होती है द्रव्याथिकमें द्रव्य-सामान्य मुख्य और पर्याय-विशेप गौण होता है और पर्यायार्थिकमे विशेष मुख्य तथा सामान्यगौण होता है।' इसके बाद बतलाया है कि-'पर्यायार्थिकनयकी दृष्टिमे द्रव्यार्थिकनयका वक्तव्य (सामान्य) नियमसे अवस्तु है। इसी तरह द्रव्याथिकनयकी दृष्टिमे पयायाधिकनयका वक्तव्य (विशेप) अवस्तु है। पर्यायार्थिकनयकी दृष्टिमे सर्व पदार्थ नियममे उत्पन्न होते है और नाशको प्राप्त होते हैं। द्रव्यार्थिकनयकी दृष्टिमे न कोई पदार्थ उत्पन्न होता है और न नाशको प्राप्त होता है। द्रव्य पर्याय (उत्पाद-व्यय) के विना और पर्याय द्रव्य (धाव्य) के विना नहीं होते; क्योकि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ये तीनो द्रव्य-सत्का अद्वितीय लक्षण है। ये तीनों एक दूसरेके साथ मिलकर ही रहते हैं, अलग-अलगरूपमे ये द्रव्य (सत) के कोई लक्षण नहीं होते और इसलिये दोनो मूलनय अलग-अलगरूपमे-एक दूसरेकी अपेक्षा न रखते हुए-मिथ्यादृष्टि है । तीसरा कोई मृलनय नहीं है और ऐसा भी नहीं कि इन दोनों नयोमें यथार्थपना न समाता हो-वस्तुके यथार्थ स्वरूपको पूर्णतः प्रतिपादन करनेमे ये असमर्थ हों-; क्योंकि दोनों एकान्त (मिथ्या दृष्टियॉ) अपेक्षाविशेषको लेकर ग्रहण किये जाते ही अनेकान्त (सम्यग्दृष्टि) बन जाते हैं । अर्थात् दोनों नयोंमेंसे जब कोई भी नय एक दूसरेकी अपेक्षा न रखता हुआ अपने ही विपयको सतरूप प्रतिपादन करनेका आग्रह करता है तब वह अपने द्वारा ग्राह्य वस्तुके एक अंशमे पूर्णताका माननेवाला होनेसे मिथ्या है और जब वह अपने प्रतिपक्षी नयकी अपेक्षा रखता हुआ प्रवर्तता है-उसके विपयका निरसन न करता हुआ तटस्थरूपसे अपने विषय (वक्तव्य) का प्रतिपादन करता है तब वह अपने द्वारा ग्राह्य वस्तुके एक अंशको अशरूपमे ही (पूर्णरूपमे नहीं) माननेके कारण सम्यक व्यपदेशको प्राप्त होता है । इस सब श्राशयकी पाँच गाथाएँ निम्न प्रकार हैं दव्वट्ठिय-वत्तव्यं अवत्थु णियमेण पज्जवणयस्स | तह पज्जवत्थ अवत्थुमेव दबट्टियणयस्स ॥१०॥ उप्पज्जंति वियंति य भावा पज्जवणयस्प । दव्वट्ठियस्स सव्वं सया अणुप्पएणमविणटुं ॥ ११ ॥ दव्वं पज्जव-विउयं दव्य-विउत्ता य पज्जवा णस्थि । उप्पाय-ट्ठिइ-भंगा हंदि दवियलक्खणं एयं ॥ १२ ॥ एए पुण संगहओ पाडिकमलक्खणं दुवेण्हं पि । तम्हा मिच्छादिट्ठी पत्तेयं दो वि मूल-णया ॥ १३ ॥ /१ "पज्जयविजुदं दव्वं दबविजुत्ता य पजवा 'ण त्थि । दोरह अणण्णभूदं भाव समणा परूविति ॥ १-१२ ॥" । -पञ्चास्तिकाये, श्रीकुन्दकुन्द । सद्व्य लक्षणम् ॥ २६ ॥ उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् ॥ ३०॥ -तत्त्वार्थसूत्र अ० ५। V२ तीसरे काण्डमें गुणार्थिक (गुणास्तिक) नयकी कल्पनाको उठाकर स्वयं उसका निरसन किया गया है (गा० ६ से १५)। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १२३ ण य तइयो अत्थि णो ण य सम्मत्तं ण तेसु पडिपुगणं । जेण दुवे एगंता विभज्जमाणा अणेगंतो ॥ १४ ॥ इन गाथाओंके अनन्तर उत्तर नयोंकी चर्चा करते हुए और उन्हें भी मूलनयों के समान दुर्नय तथा सुनय प्रतिपादन करते हुए और यह बतलाते हुए कि किसी भी नयका एकमात्र पक्ष लेनेपर संसार, सुख, दुःख, बन्ध और मोक्षकी कोई व्यवस्था नहीं बन सकती, सभी नयोके मिथ्या तथा सम्यक रूपको स्पष्ट करते हुए लिखा है तम्हा सव्ये वि णया मिच्छादिट्ठी सपक्खपडिबद्धा । अण्णोएणणिस्सिा उण हवंति सम्मत्तसब्भावा ॥ २१ ॥ 'अतः सभी नय-चाहे वे मूल, उत्तर या उत्तरोत्तर कोई भी नय क्यों न हों-जो एकमात्र अपने ही पक्षके साथ प्रतिबद्ध हैं वे मिथ्यादृष्टि हैं-वस्तुको यथार्थरूपसे देखनेप्रतिपादन करनेमे असमर्थ हैं। परन्तु जो नय परस्परमे अपेक्षाको लिये हुए प्रवर्तते हैं वे सब ! सम्याग्दृष्टि हैं-वस्तुको यथार्थरूपसे देखने-प्रतिपादन करने में समर्थ हैं।' तीसरे काण्डमें, नयवादको चर्चाको एक दूसरे ही ढगसे उठाते हुए, नयवादके परिशुद्ध और अपरिशुद्ध ऐसे दो भेद सूचित किये हैं, जिनमे परिशुद्ध नयवादको आगममात्र अर्थका-केवल श्र तप्रमाणके विषयका—साधक बतलाया है और यह ठीक ही है; क्योंकि परिशुद्धनयवाद सापेक्षनयवाद होनेसे अपने पक्षका-अंशोंका-प्रतिपादन करता हुआ परपक्षका-दूसरे अंशोंका-निराकरण नहीं करता और इसलिये दूसरे नयवादके साथ विरोध न रखने के कारण अन्तको श्र तप्रमाणके समय विपयका ही साधक बनता है। और अपरिशुद्ध नयवादको 'दुनिक्षिप्त' विशेषणके द्वारा उल्लेखित करते हुए स्वपक्ष तथा परपक्ष दोनोंका विघातक लिखा है और यह भी टीक ही है, क्योंकि वह निरपेक्षनयवाद होनेसे एकमात्र अपने ही पक्षका प्रतिपादन करता हुआ अपनेसे भिन्न पक्षका सर्वथा निराकरण करता है-विरोधवृत्ति होनेसे उसके द्वारा श्रुतप्रमाणका कोई भी विषय नहीं सघता और इस तरह वह अपना भी निराकरण कर बैठता है। दूसरे शब्दोंमे यो कहना चाहिये कि वस्तुका पूर्णरूप अनेक सापेक्ष अंशो-धर्मोसे निर्मित है जों परस्पर अविनाभावसम्बन्धको लिये हुए है, एकके अभावमें दूसरेका अस्तित्व नहीं बनता, और इसलिये जो नयवाद परपक्षका सर्वथा निषेध करता है वह अपना भी निषेधक होता है-परके अभावमें अपने स्वरूपको किसी तरह भी सिद्ध करने में समर्थ नहीं हो सकता। नयवादके इन भेदों और उनके स्वरूपनिर्देशके अनन्तर बतलाया है कि जितने । वचनमार्ग हैं उतने ही नयवाद हैं और जितने (अपरिशुद्ध अथवा परस्परनिरपेक्ष एवं विरोधी) नयवाद हैं उतने ही परसमय-जैनेतरदर्शन हैं । उन दर्शनोमे कपिलका सांख्यदर्शन द्रव्यार्थिकनयका वक्तव्य है। शुद्धोदनके पुत्र बुद्धका दर्शन परिशुद्ध पर्यायनय का विकल्प है। उलूक अर्थात् कणादने अपना शास्त्र (वैशेपिक दर्शन) यद्यपि दोनों नयोंके - द्वारा प्ररूपित किया है फिर भी वह मिथ्यात्व है-अप्रमाण है, क्योंकि ये दोनो नयदृष्टियाँ उक्त दर्शनमे अपने अपने विपयकी प्रधानताके लिये परस्परमे एक दूसरेकी कोई अपेक्षा। नही रखतीं । इस विषयमे सम्बन्ध रखनेवाली गाथाएं निम्न प्रकार हैं परिसुद्धो णयवाओ आगममेत्तत्थ साधको होइ । सो चेव दुरिणगिएणो दोरिण वि पक्खे विधम्मेइ ॥ ४६॥ जावइया वयणवहा तावइया चेव होंति णयवाया । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ पुरातन-जैनवाक्य-सूची जावइया णयवाया तावइया चेव परसमया ॥४७॥ जं काविलं दरिसणं एयं दबहियस्स वत्तव्यं । सुद्धोत्रण-तणअस्स उ परिसुद्धो पज्जवविअप्पो ॥४८॥ दोहि विणएहि णीयं सत्थमुलूएण तह वि मिच्छत्तं । जं सविसअप्पहाणतणेण अएणोएणणिरवेक्खा ॥४६॥ __ इनके अनन्तर निम्न दो गाथाओं मे यह प्रतिपादन किया है कि 'सांख्योंके सवाद पक्षमें बौद्ध और वैशेपिक जन जो दोप देते हैं तथा बौद्धों और वैशेपिकोंके असवाद पक्षमे सांख्य जन जो दोप देते है वे सब सत्य है-सर्वथा एकान्तवादमे वैस दोष आते ही हैं। ये दोनों सवाद और असवाद दृष्टियॉ यदि एक दूसरेकी अपेक्षा रखते हुए संयोजित होजायसमन्वयपूर्वक अनेकान्तदृष्टिमे परिणत हो जायँ-तो सर्वोत्तम सम्यग्दर्शन बनता है ; क्योंकि ये सत्-असत्ररूप दोनो दृष्टियॉ अलग अलग संसारके दुःखसे छुटकारा दिलानेमें समर्थ नहीं है-दोनोके सापेक्ष संयोगसे ही एक-दूसरेकी कमी दूर होकर संसारके दुःखोंसे शान्ति मिल सकती है : जे संतवाय-दोसे सकोलूया भणंति संखाणं । संखा य असवाए तेसि सव्ये वि ते सच्चा ॥ ५० ॥ ते उ भयणोवणीया सम्मइंसणमणुत्तरं होति । जं भव-दुक्ख-विमोक्खं दो वि ण पूरेंति पाडिकं ॥५१॥ इस सब कथनपरसे मिथ्यादर्शनो और सम्यग्दर्शनका तत्त्व सहज ही समझमें आजाता है और यह मालूम हो जाता है कि कैसे सभी मिथ्यादर्शन मिलकर सम्यग्दर्शनके रूप में परिणत हो जाते हैं। मिथ्यादर्शन अथवा जैनेतरदर्शन जब तक अपने अपने वक्तव्यक प्रतिपादनमे एकान्तताको अपनाकर परविरोधका लक्ष्य रखते हैं तब तक वे सम्यग्दर्शनमे परिणत नहीं होते, और जब विरोधका लक्ष्य छोड़कर पारस्परिक अपेक्षाको लिये हुए समन्वयकी दृष्टिको अपनाते हैं तभी सम्यग्दर्शनमे परिणत हो जाते हैं और जैनदर्शन कहलानेके योग्य होते हैं । जनदर्शन अपने स्यावादन्याय-द्वारा समन्वयकी दृष्टिको लिये हुए है-समन्वय ही उसका नियामक तत्त्व है, न कि विरोध-और इसलिये सभी मिथ्यादर्शन अपने अपने विरोधको भुलाकर उसमें समा जाते है। इसोसे ग्रन्थकी अन्तिम गाथामे जिनवचनरूप जिनशासन अथवा जैनदर्शनकी मंगलकामना करते हुए उसे 'मिथ्यादर्शनोंका समूहमय' बतलाया है । वह गाथा इस प्रकार है: भई मिच्छादसण-समूहमइयस्स अमयसारस्स । जिणवयणस्स भगवत्रो संविग्गसुहाहिगम्मस्स ।। ७०॥ . इसमें जैनदर्शन (शासन) के तीन खास विशेषणोंका उल्लेख किया गया है-पहला विशेषण मिथ्यादर्शनसमूहमय, दूसरा अमतसार और तीसरा सविग्नसुखाधिगम्य है । मिथ्यादर्शनोंका समूह होते हुए भी वह मिथ्यात्वरूप नहीं है, यही उसकी सर्वोपरि विशेषता है और यह विशेषता उसके सापेक्ष नयवादमे संनिहित है-सापेक्ष नय मिथ्या नहीं होत, निरपेक्ष नय ही मिथ्या होते हैं जब सारी विरोधी दृष्टियाँ एकत्र स्थान पाती हैं तब फिर उनमे विरोध नहीं रहता और वे सहज ही कार्यसाधक बन जाती हैं। इसीपरसे दूसरा विशे१ मिथ्यासमूहो मिथ्या चेन्न मिथ्यैकान्तताऽस्ति नः । निरपेक्षा नया मिथ्याः सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत् ।। १०८॥-देवागमे, स्वामिसमन्तभद्रः । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १२५ पण ठीक घटित होता है, जिसमे उसे अमतका अर्थात् भवदु खके अभावरूप अविनाशी मोक्ष का प्रदान करनेवाला बतलाया है; क्योंकि वह सुख अथवा भवदुःखविनाश मिथ्योदर्शनोंसे प्राप्त नहीं होता, इसे हम ५१वीं गाथासे जान चुके हैं। तीसरे विशेषणके द्वारा यह सुझाया गया है कि जो लोग ससारके दुःखों-क्लेशोंसे उद्विग्न होकर सवेगको प्राप्त हुए हैं-सच्चे मुमुक्षु बने हैं-उनके लिये जनदर्शन अथवा जिनशासन सुखसे समझमे आने योग्य है कोई कठिन नहीं है। इससे पहले ६४वीं गाथामे 'अत्थगई उण णयवायगहणलीणा दुरभिगम्मा' वाक्यके द्वारा सूत्रोकी जिस अर्थगतिको नयवादके गहन-वनमे लीन और दुरभिगम्य बतलाया था उसीको ऐसे अधिकारियोके लिये यहाँ सुगम घोषित किया गया है, यह सेब अनेकान्तदृष्टिकी महिमा है। अपने ऐसे गुणों के कारण ही जिनवचन भगवत्पदको प्राप्त ग्रंथको अन्तिम गाथामे जिस प्रकार जिनशासनका स्मरण किया गया है उसी प्रकार वह आदिम गाथामें भी किया गया है । आदिम गाथामे किन विशेपणोंके साथ स्मरण किया गया है यह भी पाठकोके जानने योग्य है और इसलिये उस गाथाको भी यहाँ उद्धृत किया जाता है सिद्ध सिद्धत्थाणं ठाणमणोवमसुहं उवगयाणं । कुसमय-विसासणं सासणं जिणाणं भव-जिणाणं ॥१॥ इसमे भवको जीतनेवाले जिनों-अर्हन्तोंके शासन-आगमके चार विशेषण दिये गये हैं-१ सिद्ध, २ सिद्धार्थों का स्थान, ३ शरणागतोंके लिये अनुपम सुखस्वरूप, ४ कुसमयोंएकान्तवादरूप मिथ्यामतोंका निवारक (प्रथम विशेषणके द्वारा यह प्रकट किया गया है है कि जैनशासन अपने ही गुणोंसे आप प्रतिष्ठित है। उसके द्वारा प्रतिपादित सब पदार्थ प्रमाणसिद्ध हैं-कल्पित नहीं हैं-यह दूसरे विशेषणका अभिप्राय है और वह प्रथम विशेषण सिद्धत्वका प्रधान कारण भी है। तीसरा विशेषण बहुत कुछ स्पष्ट है और उसके द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि जो लोग वास्तवमे जैनशासनका आश्रय लेते हैं उन्हें अनुपम मोक्ष-सुख तककी प्राप्ति होती है। चौथा विशेपण यह बतलाता है कि जैनशासन उन सब कुशासनों-मिथ्यादर्शनोंके गर्वको चूर-चूर करनेकी शक्ति से सम्पन्न है जो सर्वथा एकान्तवादका आश्रय लेकर शासनारूढ बने हुए हैं और मिथ्यातत्त्वोंके प्ररूपण-वारा जगतमें दुःखोंका जाल फैलाये हुए हैं। इस तरह आदि-अन्तकी दोनो गाथाओंमे जिनशासन अथवा जिनवचन (जैनागम) के लिये जिन विशेपणोंका प्रयोग किया गया है उनसे इस शासन (दर्शन) का असाधारण महत्त्व और माहात्म्य ख्यापित होता है। और यह केवल कहनेकी ही बात नहीं है बल्कि सारे प्रथमे इसे प्रदर्शित करके बतलाया गया है। स्वामी समन्तभद्रके शब्दोंमे 'अज्ञान-अन्धकारकी व्याप्ति (प्रसार) को जैसे भी बने दूर करके जिनशासनके माहात्म्यको जो प्रकाशित करना है उसीका नाम प्रभावना है । यह ग्रंथ अपने विपय-वर्णन और विवेचनादिके द्वारा इस प्रभावनाका बहुत कुछ साधक है और इसीलिये इसकी भी गणना प्रभावक-ग्रंथोंमे की गई है। यह प्रथ जैनदर्शनका अध्ययन करनेवालो और जनदर्शनसे जैनेतर दर्शनोके भेद को ठीक अनुभव करनेकी इच्छा रखनेवालों के लिये बड़े कामकी चीज़ है और उनके द्वारा खास मनोयोगके साथ पढे जाने तथा मनन किये जानेके योग्य है । इसमे अनेकान्तके अगस्वरूप जिस नयवादकी प्रमुख चर्चा है और जिसे एक प्रकारसे 'दुरभिगम्य गहन-वन' बत 'V" "ज्ञान-तिमिर-व्याप्तिमपाकृत्य यथायथम् । जिन-शासन-माहात्म्य-प्रकाशः स्यात्प्रभावना ॥ १८॥"-रत्नकरण्डश्रा० । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ पुरातन-जैनवाक्य-सूची लाया गया है-अमतचन्द्रसूरिने भी जिसे 'गहन' और 'दुरासद' लिखा है-उसपर जैन वाङमयमे कितने ही प्रकरण अथवा 'नयचक्र' जैसे स्वतंत्र ग्रंथ भी निर्मित है, उनका साथ मे अध्ययन अथवा पूर्व-परिचय भी इस ग्रंथके समुचित अध्ययनमे सहायक है। वास्तवमें यह ग्रंथ सभी तत्त्वजिज्ञासुओं एवं आत्महितैषियों के लिये उपयोगी है । अभी तक इसका हिन्दी अनुवाद नहीं हुआ है । वीरसेवामन्दिरका विचार उसे प्रस्तुत करनेका है। (क) ग्रंथकार सिद्धसेन और उनकी दूसरी कृतियाँ इस सन्मति' ग्रंथके कर्ता आचार्य सिद्धसेन है, इसमे किसीको भी कोई विवाद नहीं है। अनेक ग्रंथो में ग्रंथनामके साथ सिद्धसेनका नाम उल्लेखित है और इस ग्रन्थके वाक्य भी सिद्धसेन नामके साथ उद्धृत मिलते हैं; जैसे जयधवलामे आचार्य वीरसेनने 'णामट्ठवणा दविय' नामकी छठी गाथाको ‘उक्त च सिद्धसणेण" इस वाक्यके साथ उद्धृत किया है और पंच वस्तुमे आचार्य हरिभद्रने "आयरियसिद्धसेणेण सम्मईए पइट्ठिअजसेण" वाक्य के द्वारा 'सन्मति' को सिद्धसेनकी कृतिरूपमें निर्दिष्ट किया है, साथ ही कालो सहाव णियई' नामकी एक गाथा भी उसकी उद्धृत की है। परन्तु ये सिद्धसेन कौनसे हैं-किस विशेष परिचयको लिये हुए हैं ? कौनसे सम्प्रदाय अथवा आम्नायसे सम्बन्ध रखते हैं ?, इनके गुरु कौन थे ?, इनकी दूसरी कृतियाँ कौन-सी हैं ? और इनका समय क्या है ? ये सब बातें ऐसी हैं जो विवादका विषय जरूर हैं। क्योंकि जैनसमाजमे सिद्धसेन नामके अनेक आचार्य और प्रखर तार्किक विद्वान भी होगये हैं और इस ग्रंथ में ग्रंथकारने अपना कोई परिचय दिया नहीं, न रचनाकाल ही दिया है-ग्रंथकी आदिम गाथामें प्रयुक्त हुए 'सिद्ध' पदके द्वारा श्लेषरूपमे अपने नामका सूचनमात्र किया है, इतना ही समझा जा सकता है। कोई प्रशस्ति भी किसी दूसरे विद्वानके द्वारा निर्मित होकर अथके अन्तमे लगी हुई नहीं है । दूसरे जिन प्रथों-खासकर द्वात्रिंशिकाओं तथा न्यायावतार-को इन्हीं आचार्यकी कृति समझा जाता और प्रतिपादन किया जाता है उनमे भी कोई परिचय-पद्य तथा प्रशस्ति नहीं है औन न कोई ऐसा स्पष्ट प्रमाण अथवा युक्तिवाद ही सामने लाया गया है जिनसे उन सब ग्रंथोंको एक ही सिद्धसेनकृत माना जा सके। और इसलिये अधिकॉशमें कल्पनाओं तथा कुछ भ्रान्त धारणाओंके आधारपर ही विद्वान् लोग उक्त बातोंके निर्णय तथा प्रतिपादनमें प्रवृत्त होते रहे हैं. इसीसे कोई भी ठीक निणय अभी तक नहीं हो पाया-वे विवादापन्न ही चली जाती है और सिद्धसेनके विपयमे जो भी परिचय-लेख लिखे गये हैं वे सब प्रायः खिचड़ी बने हए हैं और कितनी ही गलतफहमियोंको जन्म दे रहे तथा प्रचारमें ला रहे हैं। अतः इस विषयमे गहरे अनुसन्धानके साथ गम्भीर विचारकी जरूरत है और उसीका यहॉपर प्रयत्न किया जाता है। दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोंमें सिद्धसेनके नामपर जो प्रथ चढ़े हुए हैं उनमेसे कितने ही ग्रंथ तो ऐसे हैं जो निश्चितरूपमें दूसरे उत्तरवत्ती सिद्धम्मेनोंकी कृतियाँ हैं जैसे १ जीतकल्पचूर्णि, २ तत्त्वार्थाधिगमसूत्रकी टीका, ३ प्रवचनसारोद्धारकी वृत्ति, एकविंशतिस्थानप्रकरण (प्रा०) और ५ सिद्धिश्रेयसमुदय (शकस्तव) नामका मंत्रगर्मित गद्यस्तोत्र । कुछ ग्रंथ ऐसे हैं जिनका सिद्धसेन नामके साथ उल्लेख तो मिलता है परन्तु आज वे उपलब्ध नहीं हैं, जैसे १बहत षड्दर्शनसमुच्चय(जनप्रथावली पृ०६४),२ विषोग्रग्रहशमन१ देखो, पुरुषार्थसिद्धयुपाय--"इति विविधभङ्ग-गहने सुदुस्तरे मार्गमूढदृष्टीनाम्" । (५८) "अत्यन्तनिशितधारं दुरासदं, जिनवरस्य नयचक्रम्" । (५६) हो सकता है कि यह ग्रन्थ हरिभद्रसूरिका 'षड्दर्शनसमुच्चय' ही हो और किसी गलतीसे सूरत के उन सेठ भगवानदास कल्याणदासकी प्राइवेट रिपोर्ट में, जो पिटर्सन साहबकी नौकरीमें थे, दर्ज होगया हो, Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १२७ विधि, जिसका उल्लेख उग्रादित्याचार्य (विक्रम हवीं शताब्दी) के 'कल्याणकारक' वैद्यक ग्रंथ (२०-८५) मे पाया जाता है। और ३ नीतिसारपुराण, जिसका उल्लेख केशवसेनसूरि(वि० सं० १६८८) कृत कर्णामतपुराणके निम्न पद्योमे पाया जाता है और जिनमें उसकी श्लोकसंख्या भी १५६३०० दी हुई है सिद्धोक्त-नीतिसारादिपुराणोद्भूत-सन्मतिं । विधास्यामि प्रसन्नाथ ग्रन्थं सन्दर्भगर्भितम् ॥ १६ ॥ खखाग्निरसवाणेन्दु(१५६३००)श्लोकसंख्या प्रसूत्रिता । नीतिसारपुराणस्य सिद्धसेनादिसूरिभिः ॥ २० ॥ उपलब्ध न होने के कारण ये तीनों प्रन्थ विचारमे कोई सहायक नहीं हो सकते । इन आठ ग्रन्थोंके अलावा चार ग्रन्थ और है–१ द्वात्रिंशद्वात्रिशिका, २ प्रस्तुत सन्मतिसूत्र, ३ न्यायावतार और ४ कल्याणमन्दिर । 'कल्याणमन्दिर' नामका स्तोत्र ऐसा है जिसे श्वेताम्बर सम्प्रदायमे सिद्घसेनदिवाकरकी कृति सममा और माना जाता है; जवकि दिगम्बर परम्परामे वह स्तोत्रके अन्तिम पद्यमे सूचित किये हुए 'कुमुदचन्द्र' नामके अनुसार कुमुचन्द्राचार्यकी कृति माना जाता है। इस विपयमे श्वेताम्बर-सम्प्रदायका यह कहना है कि 'सिद्घसेनका नाम दीक्षाके समय 'कुमुदचन्द्र' रक्खा गया था, आचार्यपदके समय उनका पुराना नाम ही उन्हें दे दिया गया या, ऐसा प्रभाचन्द्रसूरिके प्रभावकचरित (सं० १३३४) से जाना जाता है और इसलिये कल्याणमन्दिरमे प्रयुक्त हुआ 'कुमुदचन्द्र' नाम सिद्धसेनका ही नामान्तर है. दिगम्बर समाज इसे पोछेकी कल्पना और एक दिगम्बर कृतिको हथियानेकी योजनामात्र समझता है क्योकि प्रभावकचरितसे पहले सिद्धसेन-विपयक जो दो प्रवन्ध लिखे गये हैं उनमे कुमुदचन्द्र नामका कोई उल्लेख नहीं है--पं० सुखलालजी और पं वेचरदासजीने अपनी प्रस्तावनामे भी इस वातको व्यक्त किया है। बोदके बने हुए मेरुतु. गाचार्यके प्रवन्धचिन्तामणि (सं० १३६१) मे और जिनप्रभसूरिके विविधतीर्थकल्प (सं० १३८६) में भी उसे अपनाया नहीं गया है। राजशेखरके प्रबन्धकोश अपरनाम चतुर्विंशतिप्रबन्ध (स० १४०५) मे कुमुदचद्र नामको अपनाया जरूर गया है परन्तु प्रभावकचरितके विरुद्ध कल्याणमन्दिरस्तोत्रको 'पार्श्वनाथद्वात्रिंशिका', के रूपमे व्यक्त किया है और साथ ही यह भी लिखा है कि वीरकी द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिका स्तुतिसे जब कोई चमत्कार देखनेमे नहीं आया तब यह पार्श्वनाथद्वात्रिंशिका रची गई है, जिसके ११वें से नहीं किन्तु प्रथम पद्यसे ही चमत्कारका प्रारम्भ हो गया ऐसी स्थितिमे पार्श्वनाथद्वात्रिंशिकाके रूपमे जो कल्याणमन्दिरस्तोत्र रचा गया वह ३२ पद्योंका कोई दूसरा ही होना चाहिये, न कि वर्तमान कल्याणमन्दिरस्तोत्र, जिसकी रचना ४४ पद्योंमे हुई है और इससे दोनो कुमुदचंद्र भी भिन्न होने चाहिये । इसके सिवाय, वर्तमान कल्याणमन्दिरस्तोत्रमे 'प्राग्भारसभृतनमासि रजांसि रोपात्' इत्यादि तीन पद्य ऐसे हैं जो पार्श्वनाथको दैत्यकृत उपसर्गसे युक्त प्रकट करते हैं, जो दिगम्बर मान्यताके अनुकूल और श्वेताम्बर मान्यताके प्रतिकूल हैं; क्योंकि श्वेताम्बरीय जिसपरसे जैनग्रन्थावलीमें लिया गया है ? क्योंकि इसके साथमें जिस टीकाका उल्लेख है उसे 'गुणरत्न' की लिखा है और हरिभद्रके षड्दर्शनसमुच्चायपर भी गुणरत्नकी टीका है। १ "शालाक्य पूज्यपाद-प्रकटितमधिक शल्यतत्र च पात्रस्वामि-प्रोक्त विषोग्रहशमनविधिः सिद्धसेनैः प्रसिद्धः।" २ "इत्यादिश्रीवीरद्वात्रिशद्वात्रिशिका कृता । परं तस्मात्तादृशं चमत्कारमनालोक्य पश्चात् श्रीपार्श्व नाथद्वात्रिंशिकामभिकत्तु कल्याणमन्दिग्स्तवं चक्र प्रथमश्लोके एव प्रासादस्थिात् शिखिशिखामादिव लिङ्गाद् धूमवर्तिरुदतिष्ठत् ।”–पाटनकी हेमचन्द्राचार्य-ग्रन्थावलीमें प्रकाशित प्रबन्धकोश । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ प्रस्तावना आचारात नियुक्ति में दुर्धमानको छोडकर शेष २३ तीर्थंकरोंके तपःकर्मको निरुपसर्ग वर्णित किया है। इससे भी प्रस्तुत कल्याणमन्दिर दिगम्बर कृति होनी चाहिये । I ( प्रमुख श्वेताम्बर विद्वान् पं० सुखलालजी और पं० वेचरदासजीने ग्रंथकी गुजराती प्रस्तावनामै २ विविधतीर्थकल्पको छोडकर शेप पाँच प्रबन्धोका सिद्धसेन - विपयक सार बहुपरिश्रम के साथ दिया है और उसमें कितनी ही परस्पर विरोधी तथा मौलिक मतभेदकी बातोंका भी उल्लेख किया है और साथ ही यह निष्कर्ष निकाला है कि 'सिद्धसेन दिवाकर का नाम मूलमें कुमुदचंद्र नहीं था, होता तो दिवाकर - विशेषणकी तरह यह श्र तिप्रिय नाम भी किसी-न-किसी प्राचीन ग्रंथ में सिद्धसेनकी निश्चित कृति प्रथवा उसके उधृत वाक्योंके साथ जरूर उल्लेखित मिलता - प्रभावकचरितसे पहलेके किसी भी ग्रंथ मे इसका उल्लेख नहीं है । और यह कि कल्याणमन्दिरको सिद्धसेनकी कृति सिद्ध करनेके लिये कोई निश्चित प्रमाण नहीं है, वह सन्देहास्पद है ।' ऐसी हालत मे कल्याणमन्दिरकी बातको यहाँ छोड़ ही दिया जाता है । प्रकृत- विपय के निर्णयमे वह कोई विशेष साधक-बाधक भी नहीं है। अब रही द्वात्रिंशद्वात्रिशिका, सन्मतिसूत्र और न्यायवितारकी बात । न्यायावतार एक ३२ श्लोकोंका प्रमाण-नय- विपयक लघुग्रंथ है, जिसके आदि - अन्त मे कोई मंगलाचरण तथा प्रशस्ति नहीं है, जो आमतौरपर श्वेताम्बराचार्य सिद्धसेनदिवाकर की कृति माना जाता है और जिसपर वे० सिद्धर्षि (सं० ६६२ ) की विवृति और उस विवृतिपर देवभद्रकी टिप्पणी उपलब्ध है और ये दोनो टीकाएं डा० पी० एल० वैद्यके द्वारा सम्पादित होकर सन १६२८ मे प्रकाशित हो चुकी हैं | सन्मतिसूत्रका परिचय ऊपर दिया ही जा चुका है । उसपर अभयदेवसूरिकी २५ हजार श्लोक - परिमाण जो संस्कृतटीका है वह उक्त दोनों विद्वानोंके द्वारा सम्पादित होकर संवत् १९८७ में प्रकाशित हो चुकी है। द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका ३२-३२ पद्योंकी ३२ कृतियाँ बतलाई जाती हैं, जिनमे से २१ उपलब्ध हैं । उपलब्ध द्वात्रिंशिकाएं भावनगरकी जैनधर्मप्रसारक सभाकी तरफसे विक्रम संवत् १९६५ में प्रकाशित होचुकी हैं। ये जिस क्रम से प्रकाशित हुई हैं उसी क्रमसे निर्मित हुई हो ऐसा उन्हें देखनेसे मालूम नहीं होता - वे बाद को किसी लेखक अथवा पाठक द्वारा उस क्रमसे संग्रह की अथवा कराई गई जान पड़ती हैं । इस बातको पं० सुखलालजी आदि ने भी प्रस्तावना मे व्यक्त किया है। साथ ही यह भी बतलाया है कि 'ये सभी द्वात्रिंशिकाएं सिद्धसेनने जैनदीक्षा स्वीकार करनेके पीछे ही रची हों ऐसा नहीं कहा जा सकता, इनमे से कितनी ही द्वात्रिंशिकाएं (बत्ती सियाँ) उनके पूर्वाश्रम में भी रची हुई होसकती हैं।' और यह ठीक है, परन्तु ये सभी द्वात्रिंशिकाएं एक ही सिद्धसेनकी रची हुई हों ऐसा भी नहीं कहा जा सकता; चुनाँचे २१ वीं द्वात्रिंशिका के विषय मे प० सुखलालजी दिने प्रस्तावना मे यह स्पष्ट स्वीकार भी किया है कि 'उसकी भाषा रचना और वर्णित वस्तुकी दूसरी बत्तीसियोंके साथ तुलना करनेपर ऐसा मालूम होता है कि वहु बत्तीसी किसी जुदे ही सिद्धसेनको कृति है और चाहे जिस कार से दिवाकर (सिद्धसेन) की मानी जानेवाली कृतियों में दाखिल होकर दिवाकर के नामपर चढ़ गई है।' इस महावीरद्वात्रिशिका लिखा है। महावीर नामका इसमे उल्लेख भी है, जबकि और किसी १ " सव्वेसि तवो कम्मं निरुवसग्ग तु वशिष्यं जिणाणं । नवरं तु वडमारास्स सोवसग्गं मुणेयव्वं ॥ २७६ ॥” ^5 यह प्रस्तावना ग्रन्थके गुजराती अनुवाद - भावार्थ के साथ सन् १६३२ में प्रकाशित हुई है और अन्यका यह गुजराती संस्करण बादको अग्रेजीमें अनुवादित होकर 'सन्मतितर्क' के नामसे सन् १६३६ में प्रकाशित हुआ है । ३ यह द्वात्रिशिका अलग ही है ऐसा ताडपत्रीय प्रतिसे भी जाना जाता है, जिसमें २० ही द्वात्रिंशिकाएं श्रंकित हैं और उनके अन्त में " ग्रन्थार ८३० मगलमस्तु" लिखा है, जो ग्रन्थकी समाप्ति के साथ उसकी श्लोकसख्याका भी द्योतक है । जैन ग्रन्थावली ( पृ० २८१) गत ताडपत्रीय प्रतिमें भी २० द्वात्रिशिकाएं हैं। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १२६ द्वात्रिशिकामे 'महावोर' उल्लेख नहीं है - प्रायः 'वीर' या 'वर्द्धमान' नामका ही उल्लेख पाया जाता है । इसकी पद्यसंख्या ३३ है और ३३वें पद्य में स्तुतिका माहात्म्य दिया हुआ है; ये दोनों बातें दूसरी सभी द्वात्रिंशिकाओं से विलक्षण हैं और उनसे इसके भिन्नकर्तृ विकी द्योतक हैं । इसपर टीका भी उपलब्ध है जब कि और किसी द्वात्रिंशिकापर कोई टीका उपलब्ध नहीं है चंद्रप्रभसूरिने प्रभावकचरितमें न्यायावतारकी, जिसपर टीका उपलब्ध है, गणना भी ३२ द्वात्रिंशिकाओं में की है ऐसा कहा जाता है परन्तु प्रभावकचरितमें वैसा कोई उल्लेख नहीं मिलता और न उसका समर्थन पूर्ववर्ती तथा उत्तरवर्ती अन्य किसी प्रबन्धसे ही होता है । टीकाकारोंने भी उसके द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका का अंग होनेकी कोई बात सूचित नहीं की, और इसलिये न्यायावतार एक स्वतंत्र ही ग्रथ होना चाहिये तथा उसी रूप मे प्रसिद्धिको प्राप्त है। २१ वीं द्वात्रिंशिका के अन्त में 'सिद्धसेन' नाम भी लगा हुआ है, जबकि ५ वीं द्वात्रिशिकाको छोडकर और किसी द्वात्रिंशिका में वह नहीं पाया जाता । हो सकता है कि ये नामवाली दोनों द्वात्रिंशिकाएं अपने स्वरूपपरसे एक नहीं किन्तु दो अलग अलग सिद्धसेनोंसे सम्बन्ध रखती हों और शेष विना नामवाली द्वात्रिंशिकाएं इनसे भिन्न दूसरे ही सिद्धसेन अथवा सिद्धसेनोंकी कृतिस्वरूप हों । पं० सुखलालजी और पं० बेचरदासजीने पहली पाँच द्वात्रिंशिकाओं को, जो वीर भगवानकी स्तुतिपरक हैं, एक ग्रूप ( समुदाय) में रक्खा है और उस ग्रूप ( द्वात्रिंशिका पंचक) का स्वामी समन्तभद्रके, स्वयम्भूस्त्रोत्र के साथ साम्य घोषित करके तुलना करते हुए लिखा है कि स्वयम्भूस्तोत्रका प्रारम्भ जिस प्रकार स्वयम्भू शब्द से होता है और अन्तिम पद्य (१४३) मे ग्रन्थकारने श्लेषरूपसे अपना नाम समन्तभद्र सूचित किया है उसी प्रकार इस द्वात्रिशिकापंचकका प्रारम्भ भी स्वयम्भू शब्द से होता हैं और उसके अन्तिम पद्य (५, ३२) में भी ग्रंथकारने श्लेषरूपमे अपना नाम सिद्धसेन दिया है ।" ( इससे शेष १५ द्वात्रिंशिकाएं भिन्न प्रूप अथवा पोंसे सम्बन्ध रखती हैं और उनमे प्रथम प्रूपकी पद्धतिको न अपनाये जाने अथवा अन्ते प्रथकारका नामोल्लेख तक न होनेके कारण वे दूसरे सिद्धसेन या सिद्धसेनोंकी कृतियाँ भी हो सकती हैं । उनमे से ११ वीं किसी राजाकी स्तुतिको लिये हुए हैं, छठी तथा आठवीं समीक्षात्मक हैं और शेष बारह दार्शनिक तथा वस्तुचर्चा वाली हैं। इन सब द्वात्रिंशिकाओंके सम्बन्धमें यहाँ दो बातें और भी नोट किये जाने के योग्य - एक यह कि द्वात्रिंशिका (बत्तीसी) होने के कारण जब प्रत्येककी पद्यसख्या ३२ होनी चाहिये थी तब वह घट-बढ़रूप में पाई जाती है । १०वीं मे दो पद्य तथा २१वीं में एक पद्य बढ़ती है, और वह पद्योंकी, ११वींमे चारकी तथा १५वींमे एक पद्यकी घटती है। यह घट-बढ़ भावनगरकी उक्त मुद्रित प्रतिमे ही नहीं पाई जाती बल्कि पूना के भाण्डारकर इन्स्टिऔर कलकत्ताको एशियाटिक सोसाइटीकी हस्तलिखित प्रतियोंमे भी पाई जाती है । रचना - समय की तो यह घट-बढ़ प्रतीतिका विषय नहीं - पं० सुखलालजी आदि ने भी लिखा है कि 'बढ़-घटकी यह घालमेल रचना के बाद ही किसी कारण से होनी चाहिये ।' इसका एक कारण लेखकोंकी असावघानी हो सकता है; जैसे १६वीं द्वात्रिशिकामे एक पद्यकी कमी थी वह पूना और कलकत्ताकी प्रतियोंसे पूरी हो गई । दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि किसीने अपने प्रयोजनके वश यह घालमेल की हो । कुछ भी हो, इससे उन द्वात्रिंशिकाओं के पूर्णरूपको समझने में बाधा पड़ रही है, जैसे ११वीं द्वात्रिंशिका से यह मालूम ही नहीं होता कि वह कौनसे राजाकी स्तुति है, और इससे उसके रचयिता तथा रचना - कालको जानने में भारी बाघा उपस्थित है । यह नहीं हो सकता कि किसी विशिष्ट राजाकी स्तुति की जाय और उसमें उसका नाम तक भी न हो- दूसरी स्तुत्यात्मक द्वात्रिंशिका ओमे स्तुत्यका Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० प्रस्तावना नाम बराबर दिया हुआ है, फिर यहो उससे शून्य रही हो यह कैसे कहा जा सकता है ? नहीं कहा जा सकता । अतः जरूरत इस बात की है कि द्वात्रिंशिका विषयक प्राचीन प्रतियों की पूरी खोज की जाय। इससे अनुपलब्ध द्वात्रिंशिकाएं भी यदि कोई होंगी तो उपलब्ध हो हो सकेंगी और उपलब्ध द्वात्रिंशिकाओं से वे अशुद्धियाँ भी दूर हो सकेंगी जिनके कारण उनका पठन-पाठन कठिन हारहा है और जिसका प० सुखलालजी आदिको भी भारी शिकायत है । दूसरी बात यह कि द्वात्रिंशिकाओ को स्तुतियाँ कहा गया है और इनके अवतारका प्रसङ्ग भी स्तुति-विषयका ही है; क्योंकि श्वेताम्बरीय प्रबन्धों के अनुसार विक्रमादित्य राजा at ओर से शिवलिंगको नमस्कार करनेका अनुरोध होनेपर जब सिद्धसेनाचार्य ने कहा कि यह देवता मेरा नमस्कार सहन करने में समर्थ नहीं है— मेरा नमस्कार सहन करनेवाले दूसरे ही देवता हैं- -तब राजाने कौतुकवश, परिणामको कोई पर्वाह न करते हुए नमस्कार के लिये विशेष आग्रह किया । इसपर सिद्धसेन शिवलिंग के सामने आसन जमाकर बैठ गये और इन्होंने अपने इष्टदेवकी स्तुति उच्चस्वर आदिके साथ प्रारम्भ करदी; जैसा कि निम्न वाक्यों से प्रकट है :-- "श्रुत्येति पुनरासीनः शिवलिंगस्य स प्रभुः । उदाज स्तुतिश्लोकान् तारस्वरकरस्तदा ।। १३८ ॥ - प्रभावकचरित ततः पद्मासनेन भूत्वा द्वात्रिशद्वात्रिंशिकाभिर्देव' स्तुतिमुपचक्रमे ।" - विविधतीर्थकल्प, प्रबन्धकोश 1 परन्तु उपलब्ध २१ द्वात्रिंशिकाओं मे स्तुतिपरक द्वात्रिंशिकाएं केवल सात ही हैं, जिनमे भी एक राजाकी स्तुति होने से देवताविषयक स्तुतियों की कोटिसे निकल जाती है। और इस तरह छह द्वात्रिंशिकाएं ही ऐसी रह जाती हैं जिनका श्रीवीरवद्ध मानकी स्तुतिसे सम्बन्ध है और जो उस अवसरपर उच्चरित कही जा सकती हैं—शेष १४ द्वात्रिंशिकाएं न तो स्तुति-विषयक हैं, न उक्त प्रसग के योग्य हैं और इसलिये उनकी गणना उन द्वात्रिंशिकाओं नहीं की जा सकती जिनकी रचना अथवा उच्चारणा सिद्धसेनने शिवलिङ्ग के सामने बैठ कर की थी । यहाँ इतना और भी जान लेना चाहिये कि प्रभावकचरितके अनुसार स्तुतिका प्रारम्भ "प्रकाशितं त्वयैकेन यथा सम्यर जगत्त्रयं ।” इत्यादि श्लोकोंसे हुआ है जिनमे से ' तथा हि" शब्द के साथ चार श्लोकोंको उद्धृत करके उनके आगे इत्यादि" लिखा गया /१ “सिद्धसेणेण पारद्धा बत्तीसि गाहिं जिणथुई" x x - (गद्यप्रबन्ध - कथावली) "तसागयस्स तेणं पारद्धा जिगथुई समत्ताहिं । बतीमाहि बत्तीसियाहि उद्दामसद्द || - ( पद्यप्रबन्ध स. प्र. पृ. ५६ ) न्यायावतारसूत्रं च श्रीवीरस्तुतिमप्यथ । द्वात्रिंशच्छ लोकमानाश्च त्रिंशदन्याः स्तुतीरपि ॥ १४३ ॥ - प्रभावक चरित '२ ये मत्प्रणामसोढारस्ते देवा श्रपरे ननु । कि भावि प्रणम त्वं द्राक् प्राह राजेति कौतुकी || १३५ || देवान्निजप्रणम्याश्च दर्शय त्वं वदन्निति । भूपतिर्जल्पितस्तेनोत्पाते दोषो न मे नृप ॥ १३६ ॥ ३ चारों श्लोक इस प्रकार हैं :-- प्रकाशितं त्वयैकेन यथा सम्यग्जगत्त्रयम् । समस्तैरपि नो नाथ ! वरतीर्थाधिपैस्तथा ॥ १३६ ॥ विद्योतयति वा लोकं यथैकोऽपि निशाकरः । समुद्गतः समग्रोऽपि तथा कि तारकागणः ॥ १४० ॥ त्वद्वाक्यतोऽपि केषाञ्चिदबोध इति मेऽद्भुतम् । भानोर्मरीचयः कस्य नाम नालोकहेतवः ॥ १४१ ॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १३१ है। और फिर न्यायावतारसूत्र च' इत्यादि श्लोकद्वारा ३२ कृतियोंकी और सूचना की गई है, जिनमेसे एक न्यायावतारसूत्र दूसरी श्रीवीरस्तुति ओर ३० बत्तीस बत्तीस श्लोकोंवाली दूसरी स्तुतियाँ हैं । प्रबन्धचिन्तामणिके अनुसार स्तुतिका प्रारम्भ "प्रशान्तं दर्शनं यस्य सर्वभूताऽभयप्रदम् । मांगल्यं च प्रशस्तं च शिवस्तेन विभाव्यते ॥" __ इस श्लोकसे होता है. जिसके अनन्तर "इति द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका कृता" लिखकर यह सूचित किया गया है कि वह द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका स्तुतिका प्रथम श्लोक है । इस श्लोक तथा उक्त चारों श्लोकों मेसे किसीसे भो प्रस्तुत द्वात्रिंशिकाओंका प्रारंभ नहीं होता है, न ये श्लोक किसी द्वात्रिंशिकामे पाये जाते हैं और न इनके साहित्यका उपलब्ध प्रथम २० द्वात्रिंशिकाओंके साहित्यके साथ कोई मेल ही खाता है । ऐसी हालतमे इन दोनों प्रबन्धों तथा लिखित पद्यप्रबन्धमे उल्लेखित द्वात्रिंशिका स्तुतियाँ उपलब्ध द्वात्रिंशिकाओसे भिन्न कोई दूसरी ही होनी चाहिये। प्रभावकचरितके उल्लेखपरसे इसका और भी समर्थन होता है; क्योंकि उसमे 'श्रीवीरस्तुति' के बाद जिन ३० द्वात्रिंशिकाओंको "अन्याः स्तुती:" लिखा है वे श्रीवीरमे भिन्न दूसरे हो तीर्थङ्करादिको स्तुतियाँ जान पड़ती हैं और इसलिये उपलब्ध द्वात्रिंशिकाओंके प्रथम अप द्वात्रिंशिकापञ्चकमे उनका समावेश नहीं किया जा सकता, जिस मेकी प्रत्येक द्वात्रिंशिका श्रीवीरभगवानसे ही सम्बन्ध रखती है। उक्त तीनों प्रबन्धों के बाद बने हुए विविध तीर्थकल्प और प्रबन्धकोश (चतुर्विंशतिप्रबन्ध) मे स्तुतिका प्रारम्भ 'स्वयंभुव भूतसहस्रनेत्रं' इत्यादि पद्यसे होता है, जो उपलब्ध द्वात्रिंशिकाओंके प्रथम प्रूपका प्रथम पद्य है, इसे देकर "इत्यादि श्रीवोरद्वात्रिंशद्वात्रिंशिका कृता" ऐसा लिखा है । यह पद्य प्रबन्धवर्णित द्वात्रिंशिकाओंका सम्बन्ध उपलब्ध द्वात्रिशकाओंके साथ जोड़ने के लिये बादको अपनाया गया मालूम होता है; क्योकि एक तो पूर्वरचित प्रबन्धोंसे इसका कोई समर्थन नहीं होता, और उक्त तीनों प्रबन्धोंसे इसका स्पष्ट विरोध पाया जाता है । दूसरे, इन दोनों ग्रंथोंमे द्वात्रिंशद्वात्रिशिकाको एकमात्र श्रीवीरसे सम्बन्धित किया गया है और उसका विपय भी "देवं स्तोतुमुपचक्रमे" शब्दोंके द्वारा 'स्तुति' ही बतलाया गया है; परन्तु उस स्तुतिको पढ़नेसे शिवलिंगका विस्फोट होकर उसमेसे वीरभगवानकी प्रतिमाका प्रादुर्भूत होना किसी प्रथमें भी प्रकट नहीं किया गया-विविध तीर्थकल्पका कर्ता आदिनाथकी और प्रबन्धकोश का कर्ता पाश्वनाथकी प्रतिमाका प्रकट होना बतलाया है। और यह एक असंगत-सी बात जान पड़ती है कि स्तुति तो किसी तीर्थकरकी की जाय और उसे करते हुए प्रतिमा किसी दूसरे ही तीर्थकरकी प्रकट होवे। इस तरह भी उपलब्ध द्वात्रिशिकाओंमे उक्त १४ द्वात्रिंशिकाए, जो स्तुतिविषय तथा वीरकी स्तुतिसे सम्बन्ध नहीं रखती, प्रबन्धवर्णित द्वात्रिंशिकाओंमे परिगणित नहीं की जा सकतीं। और इसलिये पं० सुखलालजी तथा पं० बेचरदासजीका प्रस्तावनामे यह लिखना कि शुरुआतमे दिवाकर (सिद्धसेन) के जीवन वृत्तान्तमे स्तुत्यात्मक बत्तीसियो (द्वात्रिशिकाओं) को ही स्थान देनेकी जरूरत मालूम हुई और इनके साथमे सस्कृत भाषा तथा पद्यसंख्यामें समानता रखनेवाली परन्तु स्तुत्यात्मक नहीं ऐसी दूसरी घनी बत्तीसियाँ इनके - जीवनवृत्तान्तमें स्तुत्यात्नक कृतिरूपमे ही दाखिल होगई और पीछे किसीने इस हकीकतको देखा तथा खोजा ही नहीं कि कही जानेवाली बत्तीस अथवा उपलब्ध इक्कीस बत्ती सियोंमे नो वाद्भुतमुलूकस्य प्रकृत्या क्लिष्टचेतसः । स्वच्छा अपि तमस्त्वेन भासन्ते भास्वतः करा. ॥ १४२ ।। लिखित पद्यप्रबन्धमें भी ये ही चारों श्लोक 'तस्सागयस्स तेण पारद्धा जिणथुई' इत्यादि पद्यके अनन्तर 'यथा' शब्दके साथ दिये हैं।-(स. प्र. पृ. ५४ टि० ५८) Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ पुरातन-जैनवाक्य-सूची कितनी और कौन स्तुतिरूप हैं और कौन कौन स्तुतिरूप नहीं हैं। और इस तरह सभी प्रबंधरचयिता आचार्यों को ऐसी मोटी भूलके शिकार बतलाना कुछ भी जीको लगने वाली बात मालूम नहीं होती। उसे उपलब्ध द्वात्रिंशिकाओंकी संगति बिठलानेका प्रयत्नमात्र ही कहा जा सकता है, जो निराधार होनेसे समुचित प्रतीत नहीं होता। द्वात्रिंशिकाओं की इस सारी छान-बोनारसे निम्न बातें फलित होती हैं..१ द्वात्रिंशिकाएं जिस क्रममे छपी हैं उसी क्रमसे - निर्मित नहीं हुई हैं। २ उपलब्ध २१ द्वात्रिंशिकाएं एक ही सिद्धसेनके द्वारा निर्मित हुई मालूम नहीं होती। ३ न्यायावतारकी गणना प्रबन्धोल्लिखित द्वात्रिंशिकाओंमे नहीं की जा सकती। ४ द्वात्रिंशिकाओंकी संख्यामें जो घट-बढ़ पाई जाती है वह रचनाके बाद हुई. है और उसमे कुछ ऐसी घट-बढ़ भी शामिल है जो कि किसीके द्वारा जान-बूझकर अपने किसी प्रयोजनके लिये की गई हो। ऐसी द्वात्रिंशिकाओंका पूर्ण रूप अभी अनिश्चित है। (५ उपलब्ध द्वात्रिंशिकाओका प्रबन्धोमे वर्णित द्वात्रिशिकाओंके साथ, जो सब स्तुत्य त्मक हैं और प्रायः एक ही स्तुतिग्रंथ 'द्वात्रिंशद्वात्रिशिका' की अंग जान पड़ती हैं, सम्बन्ध ठीक नहीं बैठता। दोनों एक दूसरेसे भिन्न तथा भिन्नकर्तृक प्रतीत होती हैं। ऐमी हालतमे किसी द्वात्रिंशिकाका कोई वाक्य यदि कहीं उद्धृत मिलना है तो उसे उसी द्वात्रिशिका तथा उसके कतां तक ही सीमित समझना चाहिये, शेष द्वात्रिंशिकाओंमेसे किसी दूसरी द्वात्रिंशिकाके विषयके साथ उसे जोड़कर उसपरसे कोई दूसरी बात उस वक्त तक फलित नहीं की जानी चाहिये जब तक कि यह साबित न कर दिथा जाय कि वह दूसरी द्वात्रिंशिका भी उसी द्वात्रिशिकाकारकी कृति है। अस्तु । अब देखना यह है कि इन द्वात्रिशिकाओं और न्यायावतारमेंसे कौन-मी रचना सन्मतिसूत्रके कर्ता सिद्धसेन आचार्यको कृति है अथवा हो सकती है ? (इस विषयमे पं० सुखलालजी और पं० बेचरदासजीने अपनी प्रस्तावनामे यह प्रतिपादन किया है कि २१वीं द्वात्रिंशिकाको छोड़कर शेष २० द्वात्रिंशिकाएं, न्यायावतार और सन्मति ये सब एक ही सिद्धसेनकी कृतियाँ हैं और ये सिद्धसेन वे हैं, जो उक्त श्वेताम्बरीय प्रबन्धोंके अनुसार वृद्धवादीके शिष्य थे और 'दिवाकर' नामके साथ प्रसिद्धिको प्राप्त हैं। दूसरे श्वेताम्बर विद्वानोंका विना किसी जाँच-पडताल के अनुसरण करनेवाले कितने ही जैनेतर विद्वानों की भी ऐसी ही मान्यता है और यह मान्यता ही उस सारी भूल-भ्रान्तिका मूल है जिसके कारण सिद्धसेन-विषयक जो भी परिचय-लेख अब तक लिखे गये वे सब प्रायः खिचड़ी बने हुए हैं, कितनी ही गलतफहमियोंको फैला रहे हैं और उनके द्वारा सिद्धसेनके समयादिकका ठीक निर्णय नहीं हो पाता । इसी मान्यताको लेकर विद्वद्वर पं० सुग्वलाल जीको स्थिति सिद्ध सेनके समय-सम्बन्धमे बराबर डॉवाडोल चली जाती है। आप प्रस्तुत सिद्धसेनका समय कभी विक्रमकी छठी शताब्दीसे पूर्व ५वीं शताब्दी बतलाते हैं. कभी छठी शताब्दीका भी उत्तरवर्ती समय कह डालते हैं, कभी सन्दिग्धरूपमें छठी या सातवीं शताब्दी/निर्दिष्ट करते हैं और कभी ५वीं तथा ६ठी शताब्दीका मध्यवर्ती काल/प्रतिपादन करते हैं। और बड़ी मजेकी बात यह है कि जिन प्रबन्धोंके आधारपर सिद्धमेन दिवाकर का परिचय दिया जाता है उनमें न्यायावतार' का नाम तो किसी तरह एक प्रबन्धमें पाया भी जाता है परन्तु सिद्धसेनकी कृतिरूपमे सन्मतिसूत्रका कोई उल्लेख कहीं भी उप१ सन्मतिप्रकरण-प्रस्तावना पृ० ३६, ४३, ६४, ६४ । २ ज्ञानविन्दु-परिचय पृ०६।। ३ सन्मतिप्रकरणके अंग्रेजी संस्करणका फोरवर्ड (Forword) और भारतीयविद्यामें प्रकाशित 'श्रीसिद्ध सेन दिवाकरना समयनो प्रश्न' नामक लेख-भा० वि० तृतीय भाग पृ० १५२ । ४ 'प्रतिभामूर्ति सिद्धसेन दिवाकर' नामक लेख-भारतीयविद्या तृतीय भाग पृ. ११ ॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ प्रस्तावना लब्ध नहीं होता। इतनेपर भी प्रबन्ध-वर्णित सिद्धसेनकी कृतियोंमे उसे भी शामिल किया जाता है । यह कितने आश्चर्यकी बात है इसे विज्ञ पाठक स्वय समझ सकते हैं। ग्रन्थकी प्रस्तावनामे प० सुखलालजी आदिने, यह प्रतिपादन करते हुए कि 'उक्त प्रवन्धोमें वे द्वात्रिशिकाएँ भी जिनमे किसीकी स्तुति नहीं है और जो अन्य दर्शनी तथा स्वदर्शनके मन्तव्योंके निरूपण तथा समालोचनको लिये हुए हैं स्तुतिरूपमें परिगणित हैं और उन्हें दिवाकर(सिद्धसेन)के जीवनमे उनकी कृतिरूपसे स्थान मिला है, इसे एक 'पहेली' ही बतलाया है जो स्वदर्शनका निरूपण करनेवाले और द्वात्रिशिकाप्रोसे न उतरनेवाले (नीचा दर्जा न रखनेवाले) 'सन्मतिप्रकरण'को दिवाकरके जीवनवृत्तान्त और उनकी कृतियोमे स्थान क्यो नहीं मिला । परन्तु इस पहेलीका कोई समुचित हल प्रस्तुत नहीं किया गया, प्रायः इतना कहकर ही सन्तोष धारण किया गया है कि 'सन्मतिप्रकरण यदि बत्तीस श्लोकपरिमाण होता तो वह प्राकृतभापामे होते हुए भी दिवाकरके जीवनवृत्तान्तमे स्थान पाई हुई सस्कृत वत्तीसियोके साथमें परिगणित हुए विना शायद ही रहता।' पहेलीका यह हल कुछ भी महत्व नहीं रखता । प्रवन्धोंसे इसका कोई समर्थन नहीं होता और न इस बातका काई पता ही चलता है कि उपलब्ध जा द्वानिशिकाएँ स्तुत्यात्मक नहीं हैं वे सब दिवाकर सिद्धसेनके जीवनवृत्तान्तमे दाखिल हो गई हैं और उन्हें भी उन्हीं सिद्धसेनकी कृतिरूपसे उनमें स्थान मिला है, जिससे उक्त प्रतिपादनका हो समर्थन होता-प्रवन्धवर्णित जीवनवृत्तान्तमे उनका कहीं कोई उल्लेख ही नहीं हैं । एकमात्र प्रभावकचरितमे 'न्यायावतार'का जो असम्बद्ध, असमर्थित और असमञ्जस उल्लेख मिलता है उसपरसे उसकी गणना उस द्वात्रिंशद्वात्रिंशिकाके अङ्गरूपमें नहीं की जा सकती जो सब जिन-स्तुतिपरक थी, वह एक जुदा ही स्वतन्त्र ग्रन्थ है जैसा कि ऊपर व्यक्त किया जा चुका है । और सन्मतिप्रकरणका बत्तीस श्लोकपरिमाण न होना भी सिद्धसेनके जीवनवृत्तान्तसे सम्बद्ध कृतियोमें उसके परिगणित होनेके लिये कोई वाधक नहीं कहा जा सकता-खासकर उस हालतमें जब कि चवालीस पद्यसख्यावाले कल्याणमन्दिरस्तात्रको उनकी कृतियोंमें परिगणित किया गया है और प्रभावकचरितमे इस पद्यसख्याका स्पष्ट उल्लेख भी साथमें मौजूद है। वास्तवमें प्रबन्धोंपरसे यह ग्रन्थ उन सिद्धसेनदिवाकरकी कृति मालूम ही नहीं होता, जो वृद्धवादीके शिष्य थे और जिन्हें आगमग्रन्थोंको सस्कृतमे अनुवादित करनेका अभिप्रायमात्र व्यक्त करनेपर पारश्चिकप्रायश्चित्तक रूपमे बारह वर्ष तक श्वताम्बर सघसे बाहर रहनेका कठोर दण्ड दिया जाना बतलाया जाता है । प्रस्तुत ग्रन्थको उन्हीं सिद्धसेनकी कृति वतलाना, यह सव वादको कल्पना और योजना ही जान पड़ती है। प. सुखलालजीने प्रस्तावनामे तथा अन्यत्र भी द्वात्रिंशिकाओ, न्यायावतार और सन्मतिसूत्रका एककत व प्रतिपादन करनेके लिये कोई खास हेतु प्रस्तुत नहीं किया, जिससे इन सब कृतियोंको एक ही प्राचार्यकृत माना जा सके, प्रस्तावनामे केवल इतना ही लिख दिया है कि 'इन सबके पीछे रहा हुश्रा प्रतिभाका समान तत्त्व ऐसा मानने के लिये ललचाता है कि ये सब कृतियाँ किसी एक ही प्रतिभाके फल हैं।' यह सब कोई समर्थ युक्तिवाद न होकर एक प्रकारसे अपनी मान्यताका प्रकाशनमात्र हैं, क्योंकि इन सभी ग्रन्थोपरसे प्रतिभाका ऐसा कोई असाधारण समान तत्त्व उपलब्ध नहीं होता जिसका अन्यत्र कही भी दर्शन न होता हो । स्वामी समन्तभद्रके मात्र स्वयम्भूस्तोत्र और आप्तमीमासा ग्रन्थोके साथ इन ग्रन्थोकी तुलना करते हुए स्वयं प्रस्तावनालेखकोने दोनोंमें 'पुष्कल साम्य'का होना स्वीकार किया १ ततश्चतुश्चत्वारिंशद्वृत्ता स्तुतिमसौ जगौ । कल्याणमन्दिरेत्यादिविख्याता जिनशासने ॥१४४॥ -वृद्धवादिप्रबन्ध पृ० १०१ । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ पुरातन-जैनवाक्य-सूची है और दोनों आचार्योंकी ग्रन्थनिर्माणादि-विषयक प्रतिभाका कितना ही चित्रण किया है। और भी अकलङ्क-विद्यानन्दादि कितने ही प्राचार्य ऐसे हैं जिनकी प्रतिभा इन ग्रन्थोके पीछे रहनेवाली प्रतिभासे कम नहीं है, तब प्रतिभाकी समानता ऐसी कोई बात नहीं रह जाती जिसकी अन्यत्र उपलब्धि न हो सके और इसलिये एकमात्र उसके आधारपर इन सब ग्रन्थोंको, जिनके प्रतिपादनमें परस्पर कितनी हो विभिन्नताएँ पाई जाती हैं, एक हो श्राचार्यकृत नहीं कहा जा सकता । जान पड़ता है समानप्रतिभाके उक्त लालचमे पड़कर ही विना किसी गहरी जाँच-पड़तालके इन सब ग्रन्थोंको एक ही आचार्यकृत मान लिया गया है, अथवा किसी साम्प्रदायिक मान्यताको प्रश्रय दिया गया है जबकि वस्तुस्थिति वैसी मालूम नहीं होती। गम्भीर गवेषणा और इन ग्रन्थोंकी अन्तःपरीक्षादिपरसे मुझे इस बातका पता चला है कि सन्मतिसूत्रके कर्ता सिद्धसेन अनेक द्वात्रिंशिकाओंके कर्ता सिद्धसेनसे भिन्न हैं। यदि २१वीं द्वात्रिंशिकाको छोड़कर शेष २० द्वात्रिंशिकाएँ एक ही सिद्धसेनकी कृतियाँ हों तो वे उनमेंसे किसी भी द्वात्रिंशिकाके कर्ता नहीं हैं, अन्यथा कुछ द्वात्रिंशिकाओके कर्ता हो सकते हैं । न्यायावतारके का सिद्धसेनकी भी ऐसी ही स्थिति है वे सन्मतिसूत्रके कर्ता सिद्धसेनसे जहाँ भिन्न हैं वहाँ कुछ द्वात्रिंशिकाओके कर्ता सिद्धसेनसे भी भिन्न हैं और उक्त २० द्वात्रिंशिकाएँ यदि एकसे अधिक सिद्धसेनोंकी कृतियाँ हों तो वे उनमेस कुछके कर्ता हो सकते हैं, अन्यथा किसीके भी कर्ता नही बन सकते। इस तरह सन्मतिमूत्रके कर्ता, न्यायावतारके कर्ता और कतिपय द्वात्रिंशिकाओंके कर्ता तीन सिद्धसेन अलग अलग है. शेष द्वात्रिशिकाओंके कर्ता इन्हींमेसे कोई ... एक या दो अथवा तीनो हो सकते हैं और यह भी हो सकता है कि किसी द्वात्रिंशिकाके कर्ता.... इन तीनोसे भिन्न कोई अन्य ही हो। इन तीनो सिद्धसेनोका अस्तित्वकाल एक दूसरेसे भिन्न. अथवा कुछ अन्तरालको लिये हुए है और उनमें प्रथम सिद्धसेन कतिपय द्वात्रिंशिकाओंके कर्ता, द्वितीय सिद्धसेन सन्मतिसूत्रके कर्ता और तृतीय सिद्धसेन न्यायावतारके कर्ता है। नीचे अपने | अनुसन्धान-विषयक इन्हीं सब बातोंको सक्षेपमें स्पष्ट करके बतलाया जाता है: (१) सन्मतिसूत्रके द्वितीय काण्डमें केवलीके ज्ञान-दर्शन-उपयोगोकी क्रमवादिता और युगपद्वादितामे दोष दिखाते हुए अभेदवादिता अथवा एकोपयोगवादिताका स्थापन किया है। साथ ही ज्ञानावरण और दर्शनावरणका युगपत् क्षय मानते हुए भी यह बतलाया है कि दो उपयोग एक साथ कहीं नहीं होने और केवलीमे वे क्रमशः भी नहीं होते । इन ज्ञान और दर्शन उपयोगोका भेद मनःपर्ययज्ञान पर्यन्त अथवा छद्मस्थावस्था तक ही चलता है, केवलज्ञान होजानेपर दोनोंमे कोई भेद नही रहता-तब ज्ञान कहो अथवा दर्शन एक ही बात है, दोनोमे कोई विषय-भेद चरितार्थ नहीं होता। इसके लिये अथवा आगमग्रन्थोसे अपने इस कथनकी सगति विठलानेके लिये दर्शनकी 'अर्थविशेषरहित निराकार सामान्यग्रहणरूप' जो परिभाषा है उसे भी बदल कर रक्खा है अर्थात् यह प्रतिपादन किया है कि अस्पृष्ट तथा अविषयरूप पदार्थमे अनुमानज्ञानको छोड़कर जो ज्ञान होता है वह दर्शन है। इस विषयसे सम्बन्ध रखनेवाली कुछ गाथाएँ नमूनेके तौरपर इस प्रकार हैं: मणपजवणाणतो माणस्स दरिसणस्स य विसेसो । केवलणाणं पुण दंसणं ति गाणं ति य समाण ॥३॥ केई भणंति 'जइया जाणइ तइया ण पासइ जियो ति । सुत्तमवलंबमाणा तित्थयरासायणाभीरू ॥४॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना केवलरणारणावर णक्खयजायं केवलं जहा खाणं । तह दंसणं पि जुज्जह णियावरणक्खयस्संते ॥ ५ ॥ सुम्मि चैव 'साई पञ्जवसिय' ति केवलं बुच ं । सुत्तासारण भीरूहि तं च दट्ठव्वयं होइ ॥ ७॥ संतम्मि केवले दसम्मि णाणस्स संभवो णत्थि । केवलणारणम्मिय दसणस्स तम्हा सहिराइ ॥ ८ ॥ दंसणणारणावरणक्खए समाग्मि कस्स पुव्वारं । होज समं उप्पा हंदि दुवे णत्थि उवओोगा ॥ ९ ॥ यं पासतो हि च श्ररहा वियाणंती । किं जाइ किं पासइ कह सव्व णू त्ति वा होइ ||१३|| पुट्ठे अविसr य प्रत्थम्मिदंसण होइ । गयाई विससु ॥ २५ ॥ मोत्तण लिंगओ जं ज े भावे जा तम्हा तं गाणं दसण च पासइ य केवली पियमा । विसेस सिद्ध ||३०|| इसीसे सन्मतिसूत्रके कर्ता सिद्धसेन अभेदवाद के पुरस्कर्ता माने जाते हैं। टीकाकार श्रभयदेवसूरि और ज्ञानविन्दुके कर्ता उपाध्याय यशोविजयने भी ऐसा ही प्रतिपादन किया है । ज्ञान विन्दुमें तो एतद्विषयक सन्मति -गाथाओ की व्याख्या करते हुए उनके इस वादको “श्रीसिद्धसेनोपज्ञनव्यमत” (सिद्धसेनकी अपनी ही सूझ-बूझ अथवा उपजरूप नया मत) तक लिखा है । ज्ञानबिन्दुकी परिचयात्मक प्रस्तावना के श्रादिमें पं० सुखलालजीने भी ऐसी ही घोषणा की है । (२) पहली, दूसरी और पॉचवीं द्वात्रिंशिकाऍ युगपद्वादकी मान्यताको लिये हुए हैं, जैसा कि उनके निम्न वाक्योंसे प्रकट है: ---- क - "जगन्न कावस्थं युगपदखिलाऽनन्तविषयं यदेतत्प्रत्यक्षं तव न च भवान् कस्यचिदपि । अनेनैवाऽचिन्त्य-प्रकृति-रस- सिद्ध ेस्तु विदुषां समीक्ष्यैतद्द्वारं तव गुण-कथोत्का वयमपि ॥१-३२।। " १३५ ख - " नाऽर्थान् विवित्ससि न वेत्स्यसि नाऽप्यवेत्सीर्न ज्ञातवानसि न तेऽच्युत । वेद्यमस्ति । त्रैकाल्य- नित्य-विषग युगपच्च विश्व पश्यस्यचिन्त्य - चरिताय नमोऽस्तु तुभ्यम् ॥२-३० ॥" ग - " श्रनन्तमेक युगपत् त्रिकालं शब्दादिभिर्निप्रतिघातवृत्ति ॥५- २१॥" दुरापमाप्त यदचिन्त्य-भूति-ज्ञानं त्वया जन्म- जराऽन्तकर्तृ तेनाऽसि लोकानभिभूय सर्वान्सर्वज्ञ ! लोकोत्तमतामुपेतः ।।५-२२|| " Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ पुरातन-जैनवाक्य-सूची इन पद्योमें ज्ञान और दर्शनके जो भी त्रिकालवर्ती अनन्त विषय हैं उन सबको युगपत् जानने-देखनेकी बात कही गई है अर्थात् त्रिकालगत विश्वके सभी साकार-निराकार, व्यक्त-अव्यक्त, सूक्ष्म-स्थूल, दृष्ट-अदृष्ट, ज्ञात-अज्ञात, व्यवहित-अव्यवहित आदि पदार्थ अपनी-अपनी अनेक-अनन्त अवस्थाओं अथवा पर्यायों-सहित वीरभगवान्के युगपत् प्रत्यक्ष हैं, ऐसा प्रतिपादन किया गया है। यहाँ प्रयुक्त हुआ 'युगपत्' शब्द अपनी खास विशेषता रखता है और वह ज्ञान-दर्शनके योगपद्यका उसी प्रकार द्योतक है जिसप्रकार स्वामी समन्तभद्रप्रणीत आप्तमीमांसा (देवागम)के "तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत्सर्वभासनम्" (का० १०१) इस. वाक्यमें प्रयुक्त हुआ 'युगपत् शब्द, जिसे ध्यानमे लेकर और पादटिप्पणीमे पूरी कारिकाको उद्धृत करते हुए प० सुखलालजीने ज्ञानबिन्दुके परिचयमें लिखा है-"दिगम्बराचार्य समन्तभद्रने भी अपनी 'आप्तमीमांसा मे एकमात्र योगपद्यपक्षका उल्लेख किया है। साथ ही, यह भी बतलाया है कि 'भट्ट अकलङ्क ने इस कारिकागत अपनी 'अष्टशती व्याख्यामें योगपद्य पक्षका स्थापन करते हुए क्रमिक पक्षका, सक्षेपमे पर स्पष्टरूपमे, खण्डन किया है, जिसे पादटिप्पणीमें निम्न प्रकारसे उद्धृत किया है: ___"तज्ज्ञान-दर्शनयोः क्रमवृत्तौ हि सर्वज्ञत्वं कादाचित्कं स्यात् । कुतस्तत्सिद्धिरिति चेत् सामान्य-विशेष-विषययोगितावरणयोरयुगपत्प्रतिभासायोगात् प्रतिबन्धकान्तराऽभावात् ।" ऐसी हालतमें इन तीन द्वात्रिशिकाओंके कर्ता वे सिद्धसेन प्रतात नहीं होते जो सन्मतिसूत्रके कर्ता और अभेदवादकं प्रस्थापक अथवा पुरस्कर्ता है, बल्कि वे सिद्धसेन जान । पड़ते है जो केवलीके ज्ञान और दर्शनका युगपत् होना मानते थे। ऐसे एक युगपद्वादी सिद्धसेनका उल्लेख विक्रमकी ८वीं-हवी शताब्दीक विद्वान् आचार्य हरिभद्रने अपनी 'नन्दीवृत्ति में किया है । नन्दीवृत्तिमे 'केई भणति जुगव जाणइ पासइ य केवली नियमा' इत्यादि दो गाथाओंको उद्धृत करके, जो कि जिनभद्रक्षमाश्रमणक 'विशेषणवती' ग्रन्थकी है, उनकी व्याख्या करते हुए लिखा है ___ "केचन सिद्धसेनाचार्यादयः भणति, कि ? 'युगपद्' एकस्मिन्न व काले जानाति पश्यति च, कः ? केवली, न त्वन्यः, नियमात् नियमेन ।" नन्दीसूत्रके ऊपर मलयगिरिसूरिने जो टीका लिखी है उसमे उन्होने भी युगपद्वादका पुरस्कर्ता सिद्धसेनाचार्यको बतलाया है। परन्तु उपाध्याय यशोविजयने, जिन्होने सिद्धसेनको अभेदवादका पुरस्कर्ता बतलाया है, ज्ञानविन्दुमे यह प्रकट किया है कि 'नन्दीबृत्तिमें सिद्धसेनाचार्यका जो युगपत् उपयोगवादित्व कहा गया है. वह अभ्युपगमवादके अभिप्रायसे है, न कि स्वतन्त्रसिद्धान्तके अभिप्रायसे, क्योंकि क्रमोपयोग और अक्रम (युगपत् ) उपयोगके पर्यनुयोगाऽनन्तर ही उन्होंने सन्मतिमे अपने पक्षका उद्दावन किया है, जो कि ठीक नहीं है । मालूम होता है उपाध्यायजीको दृष्टिमें सन्मतिके कर्ता सिद्धसेन ही एकमात्र सिद्धसेनाचार्य के रूपमें रहे हैं और इसीसे उन्होंने सिद्धसेन-विषयक दो विभिन्न वादोंके कथनोसे उत्पन्न हुई असङ्गतिको दूर करनेका यह प्रयत्न किया है, जो ठीक नही है। चुनॉचे प० सुखलालजीने उपाध्यायजीके इस कथनको कोई महत्व न देते हुए और हरिभद्र जैसे बहुश्र त आचार्यके इस प्राचीनतम उल्लेखकी महत्ताका अनुभव करते हुए ज्ञानबिन्दुके परिचय (पृ० ६०)में अन्तको यह लिखा है कि "समान नामवाले अनेक आचार्य होते आए हैं। इसलिये असम्भव नहीं कि १ “यत्तु युगपदुपयोगवादित्व सिद्धसेनाचार्याणां नन्दिवृत्तायुक्त तदभ्युपगमवादाभिप्रायेण, न तु स्वतन्त्रसिद्धान्ताभिप्रायेण, क्रमाऽक्रमोपयोगद्वयपर्यनुयोगानन्तरमेव स्वपक्षस्य मम्मती उद्भावितत्वादिति दृष्टव्यम् ।” --ज्ञानविन्दु पृ० ३३ । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १३७ सिद्धसेनदिवाकरसे भिन्न कोई दूसरे भी सिद्धसेन हुए हों जो कि युगपद्वादुके समर्थक हुए हो या माने जाते हो।" वे दूसरे सिद्धसेन अन्य कोई नहीं, उक्त तीनों द्वात्रिशिकाओंमेसे किसीके भी कर्ता होने चाहिये । अतः इन तीनों द्वात्रिंशिकाओंको सन्मतिसूत्रके कर्ता आचार्य सिद्धसेनकी जो कृति माना जाता है-वह ठीक और सगत प्रतीत नहीं होता। इनके कर्ता दूसरे ही सिद्धसेन है जो केवलीके विषयमें युगपद्-उपयोगवादी थे और जिनकी युगपद-उपयोगवादिताका समर्थन हरिभद्राचार्यके उक्त प्राचीन उल्लेखसे भी होता है। (३) १९वीं निश्चयद्वात्रिंशिकामें "सर्वोपयोग द्वैविध्यमनेनोक्तमनक्षरम्" इस वाक्यके द्वारा यह सूचित किया गया है कि 'सब जीवोंके उपयोगका द्वैविध्य अविनश्वर है।' अर्थात् कोई भी जीव संसारी हो अथवा मुक्त, छद्मस्थज्ञानी हो या केवली सभीके ज्ञान और दर्शन दोनो प्रकारके उपयोगोंका सत्व होता है-यह दूसरी बात है कि एकमें वे क्रमसे प्रवृत्त (चरितार्थ) होते हैं और दूसरेमे आवरणाभावके कारण युगपत् । इससे उस एकोपयोगवादका विरोध आता है जिसका प्रतिपादन सन्मतिसूत्रमें केवलीको लक्ष्यमे लेकर किया गया है और जिसे अभेदवाद भी कहा जाता है । ऐसी स्थितिमे यह १६वीं द्वात्रिंशिका भी सन्मतिसूत्रके कर्ता सिद्धसेनकी कृति मालूम नहीं होती। (४) उक्त निश्चयद्वात्रिंशिका १६मे अ तज्ञानको मतिज्ञानसे अलग नहीं माना हैलिखा है कि 'मतिज्ञानसे अधिक अथवा भिन्न श्रुतज्ञान कुछ नहीं है श्रुतज्ञानको अलग मानना व्यर्थ तथा अतिप्रसङ्ग दोषको लिये हुए है। और इस तरह मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञानका अभेद प्रतिपादन किया है। इसी तरह अवधिज्ञानसे भिन्न मनःपर्ययज्ञानकी मान्यताका भी निषेध किया है-लिखा है कि 'या तो द्वीन्द्रियादिक जीवोंके भी, जो कि प्रार्थना और प्रतिघातके कारण चेष्टा करते हुए देखे जाते है, मनःपर्योवज्ञानका मानना युक्त होगा अन्यथा मनःपययज्ञान कोई जुदी वस्तु नहीं है । इन दानो मन्तव्योंके प्रतिपादक वाक्य इस प्रकार हैं:"वैयर्थ्यातिप्रसगाभ्या न मत्यधिकं श्रतम् । सर्वेभ्यः केवल चक्ष स्तमः-क्रम विवेककृत् ॥१३॥" "प्रार्थना-प्रतिघाताभ्या चेप्टन्ते द्वीन्द्रियादयः । मनःपर्यायविज्ञानं युक्त तेषु न वाऽन्यथा ॥१॥" यह सब कथन सन्मतिसूत्रके विरुद्ध है, क्योकि उसमें श्रुतज्ञान और मनःपर्ययज्ञान दोनोको अलग ज्ञानोंके रूपमें स्पष्टरूपसे स्वीकार किया गया है जैसा कि उसके द्वितीय, काण्डगत निम्न वाक्योंसे प्रकट है: "मणपजवणाणतो णाणस्स य दरिसणस्स य विसेसो ॥३॥" "जेण मणोविसयगयाण दमणं णत्थि दध्वजायाण । तो मणपज्जवणाण णियमा गाण तु णिद्दिट्ठ॥१९॥" "मणपजवणाण दमणं ति तेणेह होइ ण य जुत्त । भएणइ गाणं णोइदियम्मि ण घडादयो जम्हा ॥२६॥" "मइ-सुय-णाणणिमित्तो छडमत्थे होइ अत्थउवलभो । एगयरम्मि वि तेसि ण दंसणं दमणं कत्तो ? ॥२७॥ जं पञ्चक्खग्गहणं णं इंति सुयणाण-सम्मियो अत्था । तम्हा दंमणसद्दो ण होइ सयले वि सुयणाणे ॥२८॥" ५ तृतीयकाण्डमें भी अागमश्र तज्ञानको प्रमाणरूपमें स्वीकार किया है। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ पुरातन-जैनवाक्य-सूची __ ऐसी हालतमे यह और भी स्पष्ट हो जाता है कि निश्चयद्वात्रिंशिका ११९) उन्हीं सिद्धसेनाचार्यकी कृति नहीं है जो कि सन्मतिसूत्रके कर्ता हैं- दोनोके कर्ता सिद्धसेननामकी समानताको धारण करते हुए भी एक दूसरेसे एकदम भिन्न है । साथ ही, यह कहनेमें भी कोई सङ्कोच नहीं होता कि न्यायावतारके कर्ता सिद्धसेन भी निश्चयद्वात्रिशिकाके कर्तासे भिन्न हैं, क्योंकि उन्होने श्रुतज्ञानके भेदको स्पष्टरूपसे माना है और उसे अपने ग्रन्थमे शब्दप्रमाण अथवा आगम( श्रुत-शास्त्र )प्रमाणके रूपमें रक्खा है, जैसा कि न्यायावतारके निम्न वाक्योंसे प्रकट है:"दृष्टेष्टाऽव्याहताद्वाक्यात्परमार्थाऽभिधायिनः । तत्त्व-ग्राहितयोत्पन्न मानं शाब्दं प्रकीर्तितम् ॥८॥ 'प्राप्तोपज्ञमनुल्लंघ्यमहप्टेष्ट-विरोधकम् । तत्त्वोपदेशकृत्सार्व शास्त्रं कापथ-घट्टनम् ॥" "नयानामेकनिष्ठाना प्रवृत्तः श्रुतवम॑नि । सम्पूर्णार्थविनिश्वायि स्याद्वादश्रु तमुच्यते ॥३०॥" (इस सम्बन्धमे पं० सुखलालजोने, ज्ञानबिन्दुकी परिचयात्मक प्रस्तावनामें, यह बतलाते हुए कि 'निश्चयद्वात्रिशिकाके कर्ता सिद्धसेनने मति और श्रुतमें ही नही किन्तु अवधि और मनःपर्यायमें भी आगमसिद्ध भेद-रेखाके विरुद्ध तर्क करके उसे अमान्य किया है) एक फुटनोट-द्वारा जो कुछ कहा है वह इस प्रकार है: "यद्यपि दिवाकरश्री(सिद्धसेन)ने अपनी बत्तीसी (निश्चय० १९)मे मति और श्रुतके अभेदको स्थापित किया है फिर भी उन्होने चिरप्रचलित मति-श्रुतके भेदकी सर्वथा अवगणना नहीं की है। उन्होंने न्यायावतारमे आगमप्रमाणको स्वतन्त्ररूपसे निर्दिष्ट किया है । जान पडता है इस जगह दिवाकरश्रीने प्राचीन परम्पराका अनुसरण किया और उक्त बत्तीसीमे अपना स्वतन्त्र मत व्यक्त किया। इस तरह दिवाकरश्रीके ग्रन्थोमे आगमप्रमाणको स्वतन्त्र अतिरिक्त मानने और न माननेवाली दोनों दर्शनान्तरोय धाराएँ देखी जाती हैं जिनका स्वीकार ज्ञानबिन्दुमे उपाध्यायजीने भी किया है।" (पृ. २४) इस फुटनोटमे जो बात निश्चयद्वात्रिंशिका और न्यायावतारके मति-श्रुत-विषयक विरोधके समन्वयमें कही गई है वही उनकी तरफसे निश्चयद्वात्रिंशिका और सन्मतिके अवधिमनःपर्यय-विषयक विरोधके समन्वयमें भी कही जा सकती है और समझनी चाहिये । परन्तु यह सब कथन एकमात्र तीनों अन्थोंकी एक्कत त्व-मान्यतापर अवलम्बित है, जिसका साम्प्रदायिक मान्यताको छोड़कर दूसरा कोई भी प्रबल आधार नहीं है और इसलिये जब तक द्वात्रिंशिका, न्यायावतार और सन्मतिसूत्र तीनोंको एक ही सिद्धसेनकृत सिद्ध न कर दिया जाय तब तक इस कथनका कुछ भी मूल्य नहीं है। तीनो अन्याका एक-कतृत्व अभी तक सिद्ध नहीं है। प्रत्युत इसके द्वात्रिशिका और अन्य ग्रन्थोके परस्पर विरोधी कथनोंके कारण उनका विभिन्नक के होना पाया जाता है। जान पड़ता है प० सुखलालजीके हृदयमें यहाँ विभिन्न सिद्धसेनोंकी कल्पना ही उत्पन्न नहीं हुई और इसी लिये वे उक्त समन्वयकी कल्पना करनेमे प्रवृत्त हुए हैं, जो ठीक नहीं है, क्योकि सन्मतिके कर्ता सिद्धसेन-जैसे स्वतन्त्र विचारक यदि निश्चयद्वात्रिशिकाके कर्ता होते तो उनके लिये 'कोई वजह नहीं थी कि वे एक ग्रन्थम प्रदर्शित अपने स्वतन्त्र विचारोको दवाकर दूसरे ग्रन्थमे अपने विरुद्ध परम्पराके विचारोका अनुसरण करते, खासकर उस हालतमें जब कि वे सन्मतिमे उपयोग-सम्बन्धी युगपद्वादादिका प्राचीन परम्पराका खण्डन करके अपने अभेदवाद-विषयक नये स्वतन्त्र विचारोंको प्रकट करते हुए देखे जाते हैं-वहींपर वे श्रु तज्ञान और मनःपर्ययज्ञान-विषयक अपने उन स्वतन्त्र • १ यह पद्य मूलमें स्वामी समन्तभद्रकृत रत्नकरण्डकका है, वहींसे उद्धृत किया गया है । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १३६ विचारोको भी प्रकट कर सकते थे, जिनके लिये ज्ञानोपयोगका प्रकरण होनेके कारण वह स्थल (सन्मतिका द्वितीय काण्ड) उपयुक्त भी था, परन्तु वैसा न करके उन्होंने वहाँ उक्त द्वात्रिशिकाके विरुद्ध अपने विचारोको रक्खा है और इसलिये उसपरसे यही फलित होता है (क वे उक्त द्वात्रिंशिकाके कर्ता नहीं है उसके कर्ता कोई दूसरे ही सिद्धसेन होने चाहिये । उपाध्याय यशोविजयजीने द्वात्रिंशिकाका न्यायावतार और सन्मतिके साथ जो उक्त विरोध बैठता है उसके सम्बन्धमें कुछ नहीं कहा। ___ यहाँ इतना और भी जान लेना चाहिये कि श्रुतकी अमान्यतारूप इस द्वात्रिंशिकाके कथनका विरोध न्यायावतार और सन्मतिके माथ ही नहीं है बल्कि प्रथम द्वात्रिंशिकाके साथ भी है, जिसके सुनिश्चितं नः' इत्यादि ३०वें पद्यमें 'जगत्प्रमाणं जिनवाक्यविपुषः' जैसे शब्दोंद्वारा अहत्प्रवचनरूप श्रुतको प्रमाण माना गया है। (५) निश्चयद्वात्रिंशिकाकी दो बातें और भी यहाँ प्रकट कर देनेकी हैं. जो सन्मतिके साथ स्पष्ट विरोध रखती हैं और वे निम्न प्रकार हैं:"ज्ञान दर्शन-चारित्राण्युपायाः शिवहेतवः । अन्योऽन्य-प्रतिपक्षत्वाच्छुद्धावगम-शक्तयः ॥१॥" ___ इस पद्यमे ज्ञान, दर्शन तथा चारित्रको मोक्ष-हेतुओके रूपमे तीन उपाय(मार्ग) बतलाया है-तीनोंको मिलाकर मोक्षका एक उपाय निर्दिष्ट नहीं किया, जैसा कि तत्त्वार्थसूत्रके प्रथमसूत्रमें मोक्षमार्गः' इस एकवचनात्मक पदके प्रयोग-द्वारा किया गया है। अतः ये तीनों यहाँ समस्तरूपमें नहीं किन्तु व्यस्त (अलग अलग) रूपमें मोक्षके मार्ग निर्दिष्ट हुए हैं और उन्हें एक दूसरेके प्रतिपक्षी लिखा है। साथ ही तीनों सम्यक विशेषणसे शून्य हैं और दर्शनको ज्ञानके पूर्व न रखकर उसके अनन्तर रक्खा गया है जो कि समूची द्वात्रिशिकापरसे श्रद्धान अर्थका वाचक भी प्रतीत नहीं होता । यह सब कथन सन्मतिसूत्रके निम्न वाक्योंके विरुद्ध जाता है जिनमें सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रकी प्रतिपत्तिसे सम्पन्न भव्यजीवको ससारके दुःखोंका अन्तकर्तारूपमें उल्लेग्वित किया है और कथनको हेतुवाद सम्मत बतलाया है (३-४४) तथा दर्शन शब्दका अर्थ जिनप्रणीत पदार्थोंका श्रद्धान ग्रहण किया है। साथ ही सम्यग्दर्शनके उत्तरवर्ती सम्यग्ज्ञानको सम्यग्दर्शनसे युक्त बतलाते हुए वह इस तरह सम्यग्दर्शनरूप भी है, ऐसा प्रतिपादन किया है (२-३२, ३३):- , 'एव जिणपण्णत्त सद्दहमाणस्स भावो भावे । पुरिसस्सोभिणिवोहे दसणसद्दो हवइ जुत्तो ॥२-३२॥ सम्मएणाणे णियमेण दसणं दसणे उ भयणिज्ज । सम्मएणाण च इमं ति अत्थो होइ उववरण ॥२-३३॥ भविश्रो सम्मबसण-णाण-चरित्त-पडिवत्ति-संपएणो । णियमा दुक्खंतकडो ति लक्खणं हेउवायस्स ॥३-४४॥ निश्चयद्वात्रिंशिकाका यह कथन दूसरी कुछ द्वात्रिशिकाओके भी विरुद्ध पड़ता है, जिसके दो नमूने इस प्रकार है: "क्रिया च सज्ञान-वियोग-निष्फला क्रिया विहीना च विबोधसपदम् । निरस्यता क्लेश समूह शान्तये त्वया शिवायालिखितेव पद्धतिः ॥१-२६॥" “यथाऽगद-परिज्ञानं नालमाऽऽमय-शान्तये । श्रचारित्र तथा ज्ञान न बुद्धथध्य(व्य)वसायतः ॥१७-२७॥" Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० पुरातन-जैनवाक्य-सूची इनमेंसे पहली द्वात्रिंशिकाके उद्धरणमे यह सूचित किया है कि 'वीरजिनेन्द्रने सम्यग्ज्ञानसे रहित क्रिया (चारित्र)को और क्रियासे विहीन सम्यग्ज्ञानकी सम्पदाको क्लेशसमूहकी शान्ति अथवा शिवप्राप्तिके लिये निष्फल एवं असमर्थ बतलाया है और इसलिये ऐसी क्रिया तथा ज्ञानसम्पदाका निषेध करते हुए ही उन्होने मोक्षपद्धतिका निर्माण किया है। और १७वीं द्वात्रिशिकाके उद्धरणमे बतलाया है कि जिस प्रकार रोगनाशक औषधका परिज्ञानमात्र रोगकी शान्तिके लिये समर्थ नहीं होता उसी प्रकार चारित्रहित ज्ञानको समझना चाहिए-वह भी अकेला भवरोगको शान्त करने में समर्थ नहीं है। ऐसी हालतमे ज्ञान दर्शन और चारित्रको अलग-अलग मोक्षकी प्राप्तिका उपाय बतलाना इन द्वात्रिशिकाओंके भी विरुद्ध ठहरता है। "प्रयोग-विस्रसाकर्म तदभावस्थितिस्तथा । लोकानुभाववृत्तान्तः किं धर्माऽधर्मयोः फलम् ॥१९-२४॥ आकाशमवगाहाय तदनन्या दिगन्यथा । तावप्येवमनुच्छेदात्ताभ्या वाऽन्यमुदाहृतम् ॥१६-५॥ प्रकाशवदनिष्टं स्यात्साध्ये नार्थस्तु न श्रमः । जीव पुद्गलयोरेव परिशुद्धः परिग्रहः ॥१६-२६॥" इन पद्योमे द्रव्योको चर्चा करते हुए धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्योंकी मान्यताको निरर्थक ठहराया है तथा जीव और पुद्गलका ही परिशुद्ध परिग्रह करना चाहिए अर्थात् इन्हीं दो द्रव्योको मानना चाहिए, ऐसी प्रेरणा की है। यह सब कथन भी सन्मतिसूत्रके विरुद्ध है, क्योंकि उसके तृतीय काण्डमे द्रव्यगत उत्पाद तथा व्यय (नाश)के प्रकारोंको वतलाते हुए उत्पादके जो प्रयोगजनित (प्रयत्नजन्य) तथा वैस्रसिक (स्वाभाविक) ऐसे दो भेद किये हैं उनमे वैस्रसिक उत्पादके भी समुदायकृत तथा ऐकत्विक ऐसे दो भेद निर्दिष्ट किये है और फिर यह बतलाया है कि ऐकत्विक उत्पाद आकाशादिक तीन द्रव्यो (आकाश, धर्म. अधर्म)में परनिमित्त से होता है और इसलिये अनियमित होता है। नाशकी भी ऐसी ही विधि बतलाई है। इससे सन्मतिकार सिद्धसेनकी इन तीन अमूर्तिक द्रव्योंके. जो कि एक एक है, अस्तित्व-विषयमें मान्यता स्पष्ट है । यथा: "उप्पात्रो दुवियप्पो पोगजणिो य विस्ससा चेव । तत्थ उ पोगणिो समुदयवायो अपरिसुद्धो ॥३२॥ साभाविओ वि समुदयको व्व एगत्तित्रो व्व होज्जाहि । आगासाईआणं तिएह परप्रच्चोऽणियमा ॥३३॥ विगमस्स वि एस विही समुदयजणियम्मि सो उ दुवियप्पो । समुदयविभागमेत्त अत्यंतरभावगमणं च ॥३४॥" इस तरह यह निश्चयद्वात्रिंशिका कतिपय द्वात्रिशिकाओ, न्यायावतार और सन्मतिके विरुद्ध प्रतिपादनोको लिये हुए है। सन्मतिके विरुद्ध तो वह सबसे अधिक जान पड़ती है और इसलिये किसी तरह भी सन्मतिकार सिद्धसेनकी कृति नहीं कही जा सकती। यही एक द्वात्रिंशिका ऐसी है जिसके अन्तमें उसके कर्ता सिद्धसेनाचार्यको अनेक प्रतियोम श्वेतपट (श्वेताम्बर) विशेषणके साथ 'द्वेष्य' विशेषणसे भी उल्लेखित किया गया है जिसका अर्थ द्वेषयोग्य, विरोधी अथवा शत्रुका होता है और यह विशेषण सम्भवतः प्रसिद्ध जैन सैद्धान्तिक मान्यताओंके विरोधके कारण ही उन्हें अपनी ही सम्प्रदायके किसी असहिष्णु विद्वान्-द्वारा दिया गया जान पड़ता है। जिस पुष्पिकावाक्पके साथ इस विशेषण पदका प्रयोग किया गया है वह भाण्डारकर इन्स्टिट्यूट पूना और एशियाटिक सोसाइटी बगाल (कलकत्ता)की प्रतियोमे निम्न प्रकारसे पाया जाता है Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१ प्रस्तावना "द्व ेष्य-श्वेतपटसिद्धसेनाचार्यस्य कृतिः निश्वयद्वात्रिंशिकैकोन विशतिः।” दूसरी किसी द्वात्रिशिका अन्तमें ऐसा कोई पुष्पिकावाक्य नहीं है । पूर्वकी १८ और उत्तरवर्ती १ ऐसे १९ द्वात्रिंशिकाओंके अन्तमें तो कर्ताका नाम तक भी नहीं दिया हैद्वात्रिंशिकाकी संख्यासूचक एक पंक्ति 'इति' शब्दसे युक्त अथवा वियुक्त और कहीं कही द्वात्रिंशिका नामके साथ भी दी हुई है । (६) द्वात्रिंशिकाओंकी उपर्युक्त स्थितिमें यह कहना किसी तरह भी ठीक प्रतीत नहीं होता कि उपलब्ध सभी द्वात्रिंशिकाऍ अथवा २१वींको छोड़कर बीस द्वात्रिंशिकाऍ सन्मति - कार सिद्धसेनकी ही कृतियाँ हैं, क्योंकि पहली, दूसरी, पाँचवीं और उन्नीसवीं ऐसी चार द्वात्रिंशिकाओंकी बाबत हम ऊपर देख चुके हैं कि वे सन्मतिके विरुद्ध जानेके कारण सन्मति - कारकी कृतियाँ नहीं बनतीं । / शेष द्वात्रिंशिकाऍ यदि इन्हीं चार द्वात्रिंशिकाओके कर्ता सिद्धसेनोंमेंसे किसी एक या एकसे अधिक सिद्धसेनोंकी रचनाएँ हैं तो भिन्न व्यक्तित्वके कारण उनमेसे कोई भी सन्मतिकार सिद्धसेनकी कृति नहीं हो सकती । और यदि ऐसा नही है तो उनमेंसे अनेक द्वात्रिंशिकाऍ सन्मतिकार सिद्धसेनकी भी कृति हो सकती हैं, परन्तु हैं और अमुक अमुक हैं यह निश्चितरूपमे उस वक्त तक नहीं कहा जा सकता जब तक इस विषयका कोई स्पष्ट प्रमाण सामने न आ जाए 1) (७) अब रही न्यायावतारकी बात, यह ग्रन्थ सन्मतिसूत्रसे कोई एक शताब्दीसे भी अधिक बादका बना हुआ है, क्योकि इसपर समन्तभद्रस्वामीक उत्तरकालीन पात्रस्वामी (पात्रकेसरी) जैसे जैनाचार्योंका ही नहीं किन्तु धर्मकीर्ति और धर्मोत्तर जैसे बौद्धाचार्यो का भी स्पष्ट प्रभाव है । डा० हर्मन जैकोबीके मतानुसार धर्मकीर्तिने दिग्नागके प्रत्यक्षलक्षण में-'कल्पनापोढ' विशेषणके साथ 'अभ्रान्त' विशेषणकी वृद्धिकर उसे अपने अनुरूप सुधारा था अथवा प्रशस्तरूप दिया था और इसलिये "प्रत्यक्ष कल्पनापोढमभ्रान्तम्” यह प्रत्यक्षका धमकीर्ति-प्रतिपादित प्रसिद्ध लक्षण है जो उनके न्यायबिन्दु ग्रन्थमे पाया जाता है और जिसमें 'अभ्रान्त' पद अपनी खाम विशेषता रखता है । न्यायावतार के चौथे पद्यमें प्रत्यक्षका लक्षण, अकलङ्कदेवकी तरह 'प्रत्यक्ष विशद ज्ञानं' न देकर, जो "अपरोक्षतयार्थस्य ग्राहक ज्ञानमीश प्रत्यक्षम् ” दिया है और अगले पद्यमें, अनुमानका लक्षण देते हुए, 'तद्भ्रान्त प्रमाणत्वात्समक्षवत् ” वाक्यके द्वारा उसे (प्रत्यक्षको) 'अभ्रान्त' विशेषणसे विशेषित भी सूचित किया हैं उससे यह साफ ध्वनित होता है कि सिद्धसेन के सामने — उनके लक्ष्य में — धर्मकीर्तिका उक्त लक्षण भी स्थित था और उन्होने अपने लक्षण 'ग्राहक' पदके प्रयोग द्वारा जहाँ प्रत्यक्षको व्यवमायात्मक ज्ञान बतलाकर धर्मकीर्तिके 'कल्पनापोढ' विशेषणका निरसन अथवा वेधन किया है वहाँ उनके अभ्रान्त' विशेषणको प्रकारान्तरसे स्वीकार भी किया है । न्यायावतारके टीकाकार सिद्धर्षि भी 'ग्राहक' पदके द्वारा बौद्धो (धर्मकीर्ति) के उक्त लक्षणका निरसन होना बतलाते हैं । यथा “ग्राहकमिति च निर्णायकं दृष्टव्यं, निर्णयाभावेऽर्थग्रहणायोगात् । तेन यत् ताथागतैः प्रत्यपादि 'प्रत्यक्ष कल्पनापोढमभ्रान्तम्' [ न्या बि ४] इति, तदपास्तं भवति । तस्य युक्तिरिक्तत्वात् ।” इसी तरह 'त्रिरूपाल्लिङ्गाद्यदनुमेये ज्ञानं तदनुमानं' यह धर्मकीर्तिके अनुमानका लक्षण है । इसमें 'त्रिरूपात्' पदके द्वारा लिङ्गको त्रिरूपात्मक बतलाकर अनुमान के साधारण देखो, 'समराइच्चकहा' की जैकोबीकृत प्रस्तावना तथा न्यायावतारकी डा. पी एल. वैद्यकृत प्रस्तावना | " प्रत्यक्ष कल्पनापोढ नामजात्याद्यसंयुतम् । ” (प्रमाण समुच्चय ) । “प्रत्यक्ष कल्पनापोढ यज्ज्ञान नामजात्यादिकल्पनारहितम् ।” (न्यायप्रवेश) । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ पुरातन जैनवाक्य-सूची लक्षणको एक विशेषरूप दिया गया है । यहाँ इस अनुमानज्ञानको अभ्रान्त या भ्रान्त ऐसा कोई विशेषण नहीं दिया गया, परन्तु न्यायविन्दुकी टीकामें धर्मोत्तरने प्रत्यक्ष - लक्षणकी व्याख्या करते और उसमे प्रयुक्त हुए 'अभ्रान्त' विशेषरणकी उपयोगिता बतलाते हुए “भ्रान्तं ह्यनुमानम्” इस वाक्यके द्वारा अनुमानको भ्रान्त प्रतिपादित किया है । जान पडता है इस सबको भी लक्ष्यमे रखते हुए ही सिद्धसेनने अनुमानके “साध्याविनाभुनो (वो) लिङ्गात्साध्य निश्चायकमनुमानं " इस लक्षणका विधान किया है और इसमे लिङ्गका 'साध्याविनाभावी' ऐसा एकरूप देकर धर्मकीर्तिके 'त्रिरूप' का - पक्षधर्मत्व, सपक्षेमत्व तथा विपक्षासत्वरूपका निरसन किया है। साथ ही, 'तदभ्रान्तं समक्षवत्' इस वाक्य की योजनाद्वारा अनुमानको प्रत्यक्षकी तरह अभ्रान्त बतलाकर बौद्धोकी उसे भ्रान्त प्रतिपादन करनेवाली उक्त मान्यताका खण्डन भी किया है । इसी तरह "न प्रत्यक्षमपि भ्रान्तं प्रमाणत्वविनिश्वयात्” इत्यादि छठे पद्यमे उन दूसरे बौद्धोंकी मान्यताका खण्डन किया है जो प्रत्यक्षको भ्रान्त नहीं मानते। यहाॅ लिङ्गके इस एकरूपका और फलतः अनुमानके उक्त लक्षणका आभारी पात्र स्वामीका वह हेतुलक्षण है जिसे न्यायावतारकी व कारिकामे “अन्यथानुपपन्नत्वं हेतोर्लक्षणमीरितम्” इस वाक्यके द्वारा उद्धृत भी किया गया है और जिसके आधारपर पात्रस्वामी बौद्धोके त्रिलक्षणहेतुका कदर्थन किया था तथा त्रिलक्षणकदर्थन '' नामका एक स्वतन्त्र अन्य ही रच डाला था, जो आज अनुपलब्ध है परन्तु उसके प्राचीन उल्लेख मिल रहे हैं । विक्रमकी वी - हवी शताब्दो के बौद्ध विद्वान् शान्तरक्षितने तत्त्वसग्रहमे त्रिलक्षणकदर्थन सम्बन्धी कुछ श्लोकोको उद्धृत किया है और उनके शिष्य कमलशीलने टोकामे उन्हें "अन्यथेत्यादिना पात्रस्वामिमतमाशङ्कते " इत्यादि वाक्योंके साथ दिया है । उनमेसे तीन श्लोक नमूनेके तौरपर इस प्रकार है— अन्यथानुपपन्नत्वे ननु दृष्टा सुहेतुता । नाऽसति त्र्यंशकस्याऽपि तस्मात् क्लीवा खिलक्षणाः ।। १३६४ ।। अन्यथानुपपन्नत्व यस्य तस्यैव हेतुता । दृष्टान्तो द्वावपिस्ता वा मावा तो हि न कारणम् ||१३६८ || अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ' । नान्यथानुपपन्नत्व यत्र तत्र त्रियेण किम् ? ।। १३६६ ।। 'इनमेसे तीसरे पद्यको विक्रमकी ७वीं-टवी शताब्दीके' विद्वान् अकलङ्कदेवने अपने 'न्यायविनिश्चय' ( कारिका ३२३ ) मे अपनाया है और सिद्धिविनिश्चय ( प्र० ६ ) में इसे स्वामीका अमलालीढ पद प्रकट किया है तथा वादिराजने न्यायविनिश्चय-विवरणमे इस पद्यको पात्रकेसरीसे सम्बद्ध अन्यथानुपपत्तिवार्तिक' बतलाया है । ' धर्मकीर्तिका समय ई० सन् ६२५ से ६५० अर्थात् विक्रमकी ७वीं शताब्दीका प्रायः चतुर्थ चरण, धर्मोत्तरका समय ई० सन् ७२५ से ७५० अर्थात् विक्रमकी ८वीं शताब्दीका प्रायः चतुर्थ चरण और पात्रस्वामीका समय विक्रमकी वीं शताब्दीका प्रायः तृतीय चरण पाया । जाता है, क्योकि वे अकलङ्कदेवसे कुछ पहले हुए है । तब सन्मतिकार सिद्धसेनका समय वि० सवत् ६६६से पूर्वका सुनिश्चित है जैसा कि अगले प्रकरण मे स्पष्ट करके बतलाया महिमा स पात्रकेसरिगुरोः पर भवति यस्य भक्तयासीत् । पद्मावती सहाया त्रिलक्षणकदर्थन कर्त्तुम् ॥ - मल्लिषेण प्रशस्ति ( श्र० शि० ५४ ) २ विक्रमसवत् ७०० में अकलङ्कदेवका बौद्धोंके साथ महान् वाद हुआ है, जैसा कि श्रकलङ्कचश्तिके निम्न पद्यसे प्रकट है - विक्रमार्क-शकाब्दीय शतसप्त प्रमाजुषि । कालेऽकलङ्क -यतिनो बौद्ध र्वादो महानभूत ॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १४३ जायगा । ऐसी हालतमे जो सिद्धसेन सन्मति के कर्ता हैं वे ही न्यायावतारके कर्ता नही हो सकते - समयकी दृष्टिसे दोनों ग्रन्थोंके कर्ता एक-दूसरे से भिन्न होने चाहिये । इस विषयमे पं० सुखलालजी आदिका यह कहना है' कि 'प्रो० टुची (Tousi) ने दिग्नागसे पूर्ववर्ती बौद्धन्यायके ऊपर जो एक निबन्ध रॉयल एशियाटिक सोसाइटीके जुलाई सन् १६२६के जर्नलमे प्रकाशित कराया है उसमे बौद्ध संस्कृत-ग्रन्थोके चीनी तथा तिब्बती अनुवादके आधारपर यह प्रकट किया है कि 'योगाचार्य भूमिशास्त्र और प्रकरणार्थ - वाचा नामके ग्रन्थोमे प्रत्यक्षकी जो व्याख्या दी है उसके अनुसार प्रत्यक्षको अपरोक्ष, कल्पनापोढ, निर्विकल्प और भूल - विनाका अभ्रान्त अथवा अव्यभिचारी होना चाहिये । साथ ही अभ्रान्त तथा श्रव्यभिचारी शब्दोंपर नोट देते हुए बतलाया है कि ये दानों पर्यायशब्द हैं, और चीनी तथा तिब्बती भाषाके जो शब्द श्रनुवादोंमें प्रयुक्त हैं उनका अनुवाद अभ्रान्त तथा अव्यभिचारी दोनों प्रकारसे हो सकता है । और फिर स्वयं 'अभ्रान्त' शब्दको ही स्वीकार करते हुए यह अनुमान लगाया है कि धर्मकीर्तिने प्रत्यक्षकी व्याख्यामे ‘अभ्रान्त' शब्दकी जो वृद्धि की है वह उनके द्वारा की गई कोई नई वृद्धि नही है बल्कि सौत्रान्तिकोंकी पुरानी व्याख्याको स्वीकार करके उन्होने दिग्नागकी व्याख्यामे इस प्रकारसे सुधार किया है । योगाचार्य - भूमिशास्त्र असके गुरु मैत्रेयकी कृति है, अ (मैत्रेय ?)का समय ईसाकी चौथी शताब्दीका मध्यकाल है, इससे प्रत्यक्षके लक्षण में 'अभ्रान्त' शब्दका प्रयोग तथा अभ्रान्तपनाका विचार विक्रमकी पांचवीं शताब्दी के पहले भले प्रकार ज्ञात था अर्थात् यह (अभ्रान्त) शब्द सुप्रसिद्ध था । श्रतः सिद्धसेनदिवाकरके न्यायावतारमें प्रयुक्त हुए मात्र 'अभ्रान्त' पदपरसे उसे धमकीर्तिके बादका बतलाना जरूरी नहीं । उसके कर्ता सिद्धसेनको असङ्गके बाद और धर्मकीतिके पहले माननेमे कोई प्रकारका अन्तराय (विघ्न-बाधा ) नही है ।' इस कथनमें प्रो० टुचीके कथनको लेकर जो कुछ फलित किया गया है वह ठीक नही है, क्योंकि प्रथम तो प्रोफेसर महाशय अपने कथनमें स्वय भ्रान्त हैं - वे निश्चयपूर्वक यह नही कह रहे हैं कि उक्त दोनों मूल संस्कृत ग्रन्थोंमें प्रत्यक्षकी जो व्याख्या दी अथवा उसके लक्षणका जो निर्देश किया है उसमें 'अभ्रान्त' पदका प्रयोग पाया ही जाता है बल्कि साफ तौरपर यह सूचित कर रहे हैं कि मूलग्रन्थ उनके सामने नहीं, चीनी तथा तिब्बती अनुवाद ही सामने है और उनमें जिन शब्दोका प्रयोग हुआ है उनका अर्थ अभ्रान्त तथा श्रव्यभिचारि दोनों रूपसे हो सकता है । तीसरा भी कोई अर्थ अथवा संस्कृत शब्द उनका वाच्य हो सकता हो तो उसका निषेध भी नहीं किया । दूसरे, उक्त स्थितिमें उन्होने अपने प्रयोजन के लिये जो 'अभ्रान्त पद स्वीकार किया है वह उनकी रुचिकी बात है न कि मूलमे अभ्रान्त - पदके प्रयोगकी कोई गारटी है और इसलिये उसपर से निश्चितरूपमे यह फलित कर लेना कि 'विक्रमकी पाँचवी शताब्दीके पहले प्रत्यक्ष के लक्षणमे अभ्रान्त' पदका प्रयोग भले प्रकार ज्ञात तथा सुप्रसिद्ध था' फलितार्थ तथा कथनका अतिरेक है और किसी तरह भी समुचित नहीं कहा जा सकता । तीसरे, उन मूल संस्कृत प्रन्थोंमें यदि 'अव्यभिचारि' पदका ही प्रयोग हो तब भी उसके स्थानपर धर्मकीर्तिने 'अभ्रान्त' पदकी जो नई योजना की है वह उसीकी योजना कहलाएगी और न्यायावतार में उसका अनुसरण होनेसे उसके कर्ता सिद्धसेन धर्मकीतिके बादके ही विद्वान् ठहरेंगे। चौथे, (पात्रकेसरीस्वामीके हेतु लक्षणका जो उद्धरण न्यायावतार में पाया जाता है और जिसका परिहार नहीं किया जा सकता उससे सिद्धसेनका धर्मकीर्ति के १ देखो, सन्मति के गुजराती सस्करणकी प्रस्तावना पृ० ४१, ४२, और अग्रेजी सस्करणकी प्रस्तावना पृ० १२-१४ । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ पुरातन-जैनवाक्य-सूची बाद होना और भी पुष्ट होता है। ऐसी हालतमे न्यायावतारके कर्ता सिद्धसेनको असगके बादका और धर्मकीर्तिके पूर्वका बतलाना निरापद् नहीं है-उसमे अनेक विघ्न-बाधाएँ उपस्थित होती हैं। फलतः न्यायावतार धर्मकीर्ति और पात्रस्वामीके बादकी रचना होनेसे उन सिद्धसेनाचार्यकी कृति नहीं हो सकता जो सन्मतिसूत्रके कर्ता हैं। जिन अन्य विद्वानोंने उसे अधिक प्राचीनरूपमे उल्लेखित किया है वह मात्र द्वात्रिंशिकाओ, सन्मति और न्यायावतारको एक ही सिद्धसेनकी कृतियाँ मानकर चलनेका फल है। इस तरह यहाँ तकके इस सब विवेचनपरसे स्पष्ट है कि सिद्धसेनके नामपर जो भी ग्रन्थ चढ़े हुए हैं उनमेसे सन्मतिसूत्रको छोड़कर दूसरा कोई भी अन्य सुनिश्चितरूपमे सन्मतिकारकी कृति नहीं कहा जा सकता-अकेला सन्मतिसूत्र ही असपत्नभावसे अभीतक उनकी कृतिरूपमें स्थित है। कलको अविरोधिनी द्वात्रिंशिकाओमेसे यदि किसी द्वात्रिंशिकाका उनकी कृतिरूपमे सुनिश्चय हो गया तो वह भी सन्मतिके साथ शामिल हो सकेगी। (ख) सिद्धसेनका समयादिक अब देखना यह है कि प्रस्तुत ग्रन्थ 'सन्मति'के कर्ता सिद्धसेनाचार्य कब हुए हैं और किस समय अथवा समयके लगभग उन्होने इस ग्रन्थकी रचना की है। ग्रन्थमे निर्माणकालका कोई उल्लेख और किसी प्रशस्तिका आयोजन न होनेके कारण दूसरे साधनोपरसे ही इस विषयको जाना जा सकता है और वे दूसरे साधन हैं ग्रन्थका अन्तःपरीक्षण-उसके सन्दर्भ-साहित्यकी जांच-द्वारा वाह्य प्रभाव एव उल्लेखादिका विश्लेपण-, उसके वाक्यो तथा उसमे चचित खास विपयोका अन्यत्र उल्लेख, आलोचन-प्रत्यालोचन, स्वीकार-अस्वीकार अथवा खण्डनमण्डनादिक और साथ ही सिद्धसेनके व्यक्तित्व-विपयक महत्वके प्राचीन उद्दार । इन्ही सब साधनो तथा दूसरे विद्वानोंके इस दिशामे किये गये प्रयत्नोको लेकर मैंने इस विषयमे जो कुछ अनुसंधान एवं निर्णय किया है उसे ही यहॉपर प्रकट किया जाता है: (१) सन्मतिके कर्ता सिद्धसेन केवलीके ज्ञान दर्शनोपयोग-विषयमें अभेदवादके पुरस्कर्ता हैं यह बात पहले (पिछले प्रकरणमे) वतलाई जा चुकी है। उनके इस अभेदवादका खण्डन इधर दिगम्बर सम्प्रदायमे सर्वप्रथम अकलंकदेवके राजवार्त्तिकभाष्यमें और उधर श्वेताम्बर सम्प्रदायमे सर्वप्रथम जिनभद्रक्षमाश्रमणके विशेपावश्यकभाष्य तथा विशेषणवती नामके ग्रन्थोमें मिलता है। साथ ही तृतीय काण्डकी पत्थि पुढवीविसिट्टो' और 'दोहि वि णएहिं णीय' नामकी दो गाथाएँ (५२,४६) विशेषावश्यकभाष्यमें क्रमशः गा० न० २१०४ २१६५ पर उद्धृत पाई जाती हैं। इसके सिवाय, विशेषावश्यकभाष्यकी स्वोपज्ञटीकामें 'णामाइतिय दवतियस्स' इत्यादि गाथा ७५की व्याख्या करते हुए ग्रन्थकारने स्वय "द्रव्यास्तिकनयावलम्बिनी संग्रह-व्यवहारौ ऋजुसूत्रादयस्तु पर्यायनयमतानुसारिणः आचार्यसिद्धसेनाऽभिप्रायात्" इस वाक्यके द्वारा सिद्धसेनाचार्यका नामोल्लेखपूर्वक उनके सन्मतिसूत्र-गत मतका उल्लेख किया है, ऐसा मुनि पुण्यविजयजीके मगसिर सुदि १०मी सं० २००५के एक पत्रसे मालूम हुआ है । दाना १ राजव मि० अ०६ सू० १० वा० १४-१६ । २ विशेषा० भा० गा० ३०८६ से (कोट्याचार्यकी वृत्तिमें गा० ३७२६से) तथा विशेषणवती गा० १८४ से २८०, सन्मति-प्रस्तावना पृ० ७५ । ३ उद्धरण-विषयक विशेष ऊहापोहके लिये देखो, सन्मति-प्रस्तावना पृ० ६८, ६६ । ४ इस टीकाके अस्तित्वका पता हालमें मुनि पुण्यविजयजीको चला है । देखो, श्री आत्मानन्दप्रकाश पुस्तक ४५ अक ८ पृ० १४२ पर उनका तद्विषयक लेख । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ } प्रस्तावना १४५ ग्रन्थकार विक्रमकी ७वीं शताब्दी के प्रायः उत्तरार्ध के विद्वान् हैं। अकलकदेवका विक्रम स० ७०० मे बौद्धोके साथ महान बाद हुआ है जिसका उल्लेख पिछले एक फुटनोटमे अकलंकचरितके आधारपर किया जा चुका है, और जिनभद्रक्षमाश्रमणने अपना विशेपावश्यकभाष् सं० ५३१ अर्थात् वि० सं० ६६६ मे बनाकर समाप्त किया है । ग्रन्थका यह रचनाकाल उन्होंने स्वय ही ग्रन्थके अन्त मे दिया है, जिसका पता श्री जिनविजयजीको जैसलमेर भण्डारकी एक अतिप्राचीन प्रतिको देखते हुए चला है। ऐसी हालत में सन्मतिकार सिद्धसेनका समय विक्रम सं० ६६६से पूर्वका सुनिश्चित है परन्तु वह पूर्वका समय कौन-सा है? – कहाँ तक उसकी कमसे कम सीमा है ? यही आगे विचारणीय है । (२) सन्मतिसूत्रमे उपयोग-द्वयके क्रमवादका जोरोंके साथ खण्डन किया गया है, यह बात भी पहले बतलाई जा चुकी तथा मूल ग्रन्थके कुछ वाक्योको उद्धृत करके दर्शाई जाचुकी है। उस क्रमवादका पुरस्कती कौन है और उसका समय क्या है ? यह बात यहाँ खास तौर से जान लेनेकी है । हरिभद्रसूरिने नन्दिवृत्तिमे तथा अभयदेवसूरिने सन्मतिकी टीकामें यद्यपि जिनभद्रक्षमाश्रमणको क्रमवादके पुरस्कर्तारूप मे उल्लेखित किया है परन्तु वह ठीक नहीं है, क्योकि वे तो सन्मतिकारके उत्तरवर्ती हैं. जबकि होना चाहिये कोई पूर्ववर्ती । यह दूसरी बात है कि उन्होंने क्रमवादका जोरोके साथ समर्थन और व्यवस्थित रूपसे स्थापन किया है, संभवतः इसीसे उनको उस वादका पुरस्कर्ता समझ लिया गया जान पडता है । अन्यथा, क्षमाश्रमणजी स्वयं अपने निम्न वाक्यो द्वारा यह सूचित कर रहे हैं कि उनसे पहले युगपद्वाद, क्रमवाद_तथा अभेदवादके पुरस्कर्ता हो चुके हैं: "केई भरणति जुगवं जाणइ पासह य केवली यिमा । tu एगतरिय इच्छति सुश्रवसेणं ॥ १८४ ॥ अणेण चैव वीसु दंसणमिच्छति जिरणवरिंदस्स । ‍ जचि य केवलरणा त चिय से दरिसर विंति ॥ १८५ ॥ - विशेषणवती पं० सुखलालजी दिने भो कथन - विरोधको महसूस करते हुए प्रस्तावना में यह स्वीकार किया है कि जिनभद्र और सिद्धसेनसे पहले क्रमवादके पुरस्कर्तारूपमे कोई विद्वान् होने ही चाहियें जिनके पक्षका सन्मति में खण्डन किया गया है, परन्तु उनका कोई नाम उपस्थित नहीं किया । जहाँ तक मुझे मालूम है वे विद्वान् नियुक्तिकार भद्रबाहु होने चाहियें, जिन्होंने आवश्यक नियुक्तिके निम्न वाक्य-द्वारा क्रमवादकी प्रतिष्ठा की है गामि दसमि इत्तो एगयरयमि उवजुत्ता । सच्चस केवलिस्सा (स्स वि) जुगव दो णत्थि उवोगा ।। ९७८ ।। ये निर्युक्तिकार भद्रबाहु श्रुतकेवली न होकर द्वितीय भद्रबाहु हैं जो श्रष्टाद्ननिमित्त तथा मन्त्र-विद्याके पारगामी होने के कारण 'नैमित्तिक" कहे जाते हैं, जिनकी कृतियो में पावयणी१ धम्मको२ वाई३ ऐमित्ति४ तवस्सी५ य । विना६ सिद्धो७ य कई व पभावगा भणिया ॥ १ ॥ अन रक्ख ९ नदिसेणो २ सिरिगुत्तविणेय३ भद्दबाहू४ य । खवग५ऽज्जखवुड६ समिया ७ दिवायरोद वा इहाऽऽहरणा || २ || - 'छेद सूत्रकार ने नियुक्तिकार' लेखमे उद्धृत । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ पुरातन-जैनवाक्य-सूची भद्रबाहुसंहिता और उपसग्गहरस्तोत्रके भी नाम लिये जाते है और जो ज्योतिर्विद् वराह. मिहरके सगे भाई माने जाते हैं । इन्होने दशाश्रुतस्कन्ध-नियुक्तिमें स्वयं अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहुको 'प्राचीन विशेषणके साथ नमस्कार किया है। उत्तराध्ययननियुक्तिमे मरणविभक्तिके सभी द्वारोका क्रमशः वर्णन करनेके अनन्तर लिखा है कि ‘पदार्थोंको सम्पूर्ण तथा विशदरीतिसे जिन (केवलज्ञानी) और चतुर्दशपूर्वी (श्रुतकेवली ही) कहते हैं कह सकते हैं'. और आवश्यक श्रादि ग्रन्थोंपर लिखी गई अनेक नियुक्तियोंमें आर्यवज्र, आर्यरक्षित, पादलिप्ताचार्य, कालिकाचार्य और शिवभूति आदि कितने ही ऐसे आचार्योंके नामों. प्रसङ्गों, मन्तव्यों अथवा तत्सम्बन्धी अन्य घटनाओका उल्लेख किया गया है जो भद्रबाहु श्रुतकेवलीके बहुत कुछ बाद हुए हैं-किसी-किसी घटनाका समय तक भी साथमे दिया है, जैसे निह्नवोंको क्रमशः उत्पत्तिका समय वीरनिर्वाणसे ६०६ वर्ष बाद तकका बतलाया है। ये सब बातें औरइसी प्रकारको दूसरी बातें भी नियुक्तिकार भद्रबाहुको श्रु तकेवली बतलानेके विरुद्ध पड़ती हैं-भद्रबाहुश्रु तकेवलीद्वारा उनका उस प्रकारसे उल्लेख तथा निरूपण किसी तरह भी नहीं बनता । इस विषयका सप्रमाण विशद एवं विस्तृत विवेचन मुनि पुण्यविजयजीने आजसे कोई सात वर्ष पहले अपने 'छेदसूत्रकार और नियुक्तिकार' नामके उस गुजराती लेखमें किया है जो 'महावीर जैनविद्यालय रजत-महोत्सव-ग्रन्थ मे मुद्रित है। साथ ही यह भी बतलाया है कि 'तित्थोगालिप्रकीर्णक, आवश्यकचूर्णि, आवश्यक-हारिभद्रीया टीका, परिशिष्टपर्व आदि प्राचीन मान्य ग्रन्थोंमें जहाँ चतुर्दशपूर्वधर भद्रबाहु (श्रु तकेवली)का चरित्र वर्णन किया गया है वहाँ द्वादशवर्षीय दुष्काल · · छेदसूत्रोंकी रचना आदिका वर्णन तो है परन्तु वराहमिहरका भाई होना, नियुक्तिग्रन्थो, उपसर्गहरस्तात्र, भद्रबाहुसहितादि ग्रन्थोंकी रचनासे तथा नैमित्तिक होनेसे सम्बन्ध रखनेवाला कोई उल्लेख नहीं है। इससे छेदसूत्रकार भद्रबाहु और नियुक्ति आदिके प्रणेता भद्रबाहु एक दूसरेसे भिन्न व्यक्तियाँ हैं। ___ इन नियुक्तिकार भद्रबाहुका समय विक्रमको छठी शताब्दीका प्रायः मध्यकाल है, क्योकि इनके समकालीन सहोदर भ्राता वराहमिहरका यही समय सुनिश्चित है-उन्होंने अपनी 'पञ्चसिद्धान्तिका'के अन्तमे, जो कि उनके उपलब्ध ग्रन्थों में अन्तकी कृति मानी जाती है, अपना समय स्वयं निर्दिष्ट किया है और वह है शक संवत् ४२७ अर्थात् विक्रम सवत् ५६२ । यथा"सप्ताश्विवेदसंख्यं शककालमपास्य चैत्रशुक्लादौ । अर्धास्तमिते भानौ यवनपुरे सौम्यदिवसाद्य ॥" (जब नियुक्तिकार भद्रबाहुका उक्त समय सुनिश्चित हो जाता है तब यह कहने में कोई आपत्ति नहीं रहती कि सन्मतिकार सिद्धसेनके समयकी पूर्व सीमा विक्रमकी छठी शताब्दीका तृतीय चरण है और उन्होंने क्रमवादके पुरस्कर्ता उक्त भद्रबाहु अथवा उनके अनुसर्ता किसी शिष्यादिके क्रमवाद-विषयक कथनको लेकर ही सन्मतिमें उसका खण्डन किया है।) १ वदामि भद्दबाहु पाईण चरिमसगलसुयणाणि । सुत्तस्स कारगमिसिं दसासु कप्पे य ववहारे ॥१॥ २ सव्वे एए दारा मरणविभत्तीइ वरिणया कमसो । सगलणि उणे पयत्थे जिणचउदसपुन्वि भासते ॥२३३॥ ३ इससे भी कई वर्ष पहले आपके गुरु मुनि श्रीचतुरविजयजीने श्रीविजयानन्दसूरीश्वरजन्मशताब्दिस्मारकग्रन्थमें मुद्रित अपने 'श्रीभद्रबाहुस्वामी' नामक लेखमें इस विषयको प्रदर्शित किया था श्रार यह सिद्ध किया था कि नियुक्तिकार भद्रबाहु श्रुतकेवली भद्रबाहुसे भिन्न द्वितीय भद्रबाहु है श्रार वराहमिहरके सहोदर होनेसे उनके समकालीन हैं । उनके इस लेखका अनुवाद अनेकान्त वर्ष २ किरण १२में प्रकाशित हो चुका है। . Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्वावना १४७ इस तरह सिद्धतेनके सनयकी पूर्व सीमा विक्रमकी छठी शताब्दीका तृतीय चरण और उचरसीना विकलकी सातवीं शताब्दीका तृतीय चरण (वि० सं० ५६२ ते ६६६) निश्चित होती है। इन प्रायः सौ वर्षके भीतर ही किसी समय सिद्धसेनका प्रन्धकाररूपमे अवतार हुआ और यह अन्य बना जान पड़ता है । (३) सिद्धसेन के समय - सम्बन्धमे पं० सुखलालजी संघवीकी जो स्थिति रही है उसको ऊपर बतलाया जा चुका है। उन्होने अपने पिछले लेखमे, जो 'सिद्धसेनदिवाकरना समयनो प्रश्न' नानते भारतीयविद्या के तृतीय भाग (श्रीवहादुरसिहजी सिघी स्मृतिमन्य) मे प्रकाशित हुआ है. अपनी उस गुजराती प्रस्तावना - कालीन मान्यताको जो सन्मतिके अग्रेजी संस्करणके अवसरपर फोरवर्ड (foreword ) ' लिखे जानेके पूत्र कुछ नये बौद्ध मन्धोके सामने आनेके कारण बदल गई थी और जिसकी फोरवर्डमे सूचना की गई है फिरसे निश्चितरूप दिया हैं अर्थात् विक्रमको पाँचवी शताब्दीको ही सिद्धसेनका समय निर्धारित किया है और उसीको अधिक सङ्गत बतलाया है । अपनी इस मान्यताकके समर्थनमे उन्होने जिन दो- प्रमाणोंका उल्लेख किया है उनका सार इस प्रकार है, जिसे प्रायः उन्हीके शब्दो के अनुवादरूपमें सङ्कलित किया गया है: (प्रथम) जिनभद्र क्षमाश्रमणने अपने महान् प्रन्थ विशेषावश्यक भाष्यमे, जो विक्रम सवत् ६६६में वनकर समाप्त हुआ है, और लघुग्रन्थ विशेषणवतीमे सिद्धसेनदिवाकरके उपयोगाऽभेदवादकी तथैव दिवाकरेकी कृति सन्मतितर्कके टीकाकार मल्लवादीके उपयोग- योगपद्यवादकी विस्तृत समालोचना की है । इससे तथा मल्लवादीके द्वादशारनयचक्र के उपलब्ध प्रतीकोमें दिवाकरका सूचन मिलने और जिनभद्रगणिका सूचन न मिलनेसे मल्लवादी जिनभद्र से पूर्ववर्ती और सिद्धसेन मल्लवादीसे भी पूर्ववर्ती सिद्ध होते है । मल्लवादी को यदि विक्रमी छठी शताब्दी के पूर्वाधमें मान लिया जाय तो सिद्धसेन दिवाकरका समय जो पॉचवी शताब्दी निर्धारित किया गया है वह अधिक सङ्गत लगता है । (द्वितीय) पूज्यपाद देवनन्दीने अपने जैनेन्द्रव्याकरणके 'वेत्तेः सिद्धसेनस्य' इस सूत्रमें सिद्धसेनके मतविशेषका उल्लेख किया है और वह यह है कि सिद्धसेन के मतानुसार ‘विदु' धातुके र' का आगम होता है, चाहे वह धातु सकर्मक ही क्यों न हो । देवनन्दीका यह उल्लेख बिल्कुल सच्चा है, क्योंकि दिवाकरकी जो कुछ थोड़ीसी संस्कृत कृतियाँ बची है उनमे से उनकी नवमी द्वात्रिंशिकाके २२वें पद्यमे 'विद्रतेः' ऐसा 'र' आगम वाला प्रयोग मिलता है । अन्य वैयाकरण जब ‘सम्’' उपसर्ग पूर्वक और अकर्मक 'विद्' धातुके 'र्' आगम स्वीकार करते हैं तब सिद्धसेनने अनुपसर्ग और सकर्मक 'विद्' धातुका 'र्' आगमवाला प्रयोग किया है । इसके सिवाय, देवनन्दी पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि नामक तत्त्वार्थ- टीका सप्तम अध्यायगत १३वें सूत्रकी टीकामे सिद्धसेन दिवाकरके एक पद्यका अश उक्तं च' शब्दके साथ उद्धृत पाया जाता है और वह है "वियोजयति चासुभिर्न च वधेन संयुज्यते ।" यह पद्यांश उनकी तीसरी द्वात्रिशिका के १६वें पद्यका प्रथम चरण है । पूज्यपाद देवनन्दीका समय वर्तमान मान्यतानुसार विक्रमकी छठी शताब्दीका पूर्वार्ध है अर्थात् पाँचवीं शताब्दी के अमुक भागसे छठी शताब्दी के अमुक भाग तक लम्बा है। इससे सिद्धसेनदिवाकरकी पाँचवी शताब्दी में, होने की बात जो अधिक सङ्गत कही गई है उसका खुलासा हो जाता है । दिवाकरको देवनन्दी से फोरवर्ड के लेखकरूपमें यद्यपि नाम 'दलसुख मालवरिया' का दिया हुआ है परन्तु उसमे दी हुई उक्त सूचनाको पण्डितः सुखलालजीने उक्त लेखमें अपनी ही सूचना और अपना ही विचार परिवर्तन स्वीकार किया है । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ पुरातन-जैनवाक्य-सूची पूर्ववर्ती या देवनन्दीके वृद्ध समकालीनरूपमे मानिये तो भी उनका जीवनसमय पाँचवीं शताब्दीसे अर्वाचीन नहीं ठहरता। ___ इनमेंसे प्रथम प्रमाण तो वास्तवमे कोई प्रमाण ही नहीं है, क्योंकि वह 'मल्लवादीको यदि विक्रमकी छठी शताब्दीके पूर्वाधमे मान लिया जाय तो' इस भ्रान्त कल्पनापर अपना श्राधार रखता है। परन्तु क्यो मान लिया जाय अथवा क्यों मान लेना चाहिये, इसका कोई स्पष्टीकरण साथमें नहीं है। मल्लवादीका जिनभद्रसे पूर्ववर्ती होना प्रथम तो सिद्ध नहीं है, सिद्ध होता भी तो उन्हें जिनभद्रके समकालीन वृद्ध मानकर अथवा २५ या ५० वर्ष पहले मानकर भी उस पूर्ववतित्वको चरितार्थ किया जा सकता है, उसके लिये १०० वर्षसे भी अधिक समय पूर्वकी बात मान लेनेकी कोई जरूरत नहीं रहती। परन्तु वह सिद्ध ही नहीं है, क्योंकि उनके जिस उपयोग-योगपद्यवादकी विस्तृत समालोचना जिनभद्रके दो ग्रन्थोमें बतलाई जाती है उनमे कहीं भी मल्लवादी अथवा उनके किसी ग्रन्थका नामोल्लेख नहीं है, होता ता पण्डितजी उस उल्लेखवाले अशको उद्धृत करके ही सन्तोष धारण करते, उन्हें यह तक करनेकी जरूरत ही न रहती और न रहनी चाहिये थी कि 'मल्लवादीके द्वादशारनयचक्रके उपलब्ध प्रतीकोंमें दिवाकरका सूचन मिलने और जिनभद्रका सूचन न मिलनेसे मल्लवादी जिनभद्रसे पूर्ववर्ती हैं। यह तर्क भी उनका अभीष्ट-सिद्धिमे कोई सहायक नहीं होता, क्योकि एक तो किसी विद्वानके लिये यह लाजिमी नहीं कि वह अपने ग्रन्थमें पूर्ववर्ती अमुक अमुक विद्वानोका उल्लेख करे ही करे। दूसरे, मूल द्वादशारनयचक्रके जब कुछ प्रतीक ही उपलब्ध है वह पूरा ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है तब उसके अनुपलब्ध अशोमे भी जिनभद्रका अथवा उनके किसी ग्रन्थादिकका उल्लेख नहीं इसकी क्या गारण्टो ? गारण्टीके न होने और उल्लेखोपलब्धिकी सम्भावना बनी रहनेसे मल्लवादीको जिनभद्रके पूर्ववर्ती बतलाना तकदृष्टिसे कुछ भी अथ नहीं रखता। तीसरे, ज्ञानबिन्दुकी परिचयात्मक प्रस्तावनामें पण्डित सुखलालजी स्वय यह स्वीकार करते हैं कि "अभी हमने उस सारे सटीक नयचक्रका अवलोकन करके देखा तो उसमें कही भी केवलज्ञान और केवलदर्शन (उपयोगद्वय)के सम्बन्धमे प्रचलित उपर्युक्त वादो (क्रम. युगपत् , और अभेद) पर थोडी भी चर्चा नहीं मिली । यद्यपि सन्मतितककी मल्लवादि-कृत-टीका उपलब्ध नहीं है पर जब मल्लवादि अभेदसमर्थक दिवाकरके ग्रन्थपर टीका लिखें तब यह कैसे माना जा सकता है कि उन्होने दिवाकरके ग्रन्थकी व्याख्या करते समय उसीमें उनके विरुद्ध अपना युगपत् पक्ष किसी तरह स्थापित किया हो । इस तरह जब हम सोचते है तब यह नहीं कह सकते हैं कि अभयदेवके युगपद्वादके पुरस्कर्तारूपसे मल्लवादीके उल्लेखका आधार नयचक्र या उनकी सन्मतिटोकामेसे रहा होगा।" साथ ही, अभयदेवने मन्मतिटीकामें विशेपणवतीकी "कई भणति जुगव जाणइ पासइ य केवली णियमा" इत्यादि गाथाओको उद्धृत करके उनका अथ देते हुए 'केई' पदके वाच्यरूपमें मल्लवादीका जो नामोल्लेख किया है और उन्हें युगपद्वादका पुरस्कर्ता बतलाया है उनके उस उल्लेखकी अभ्रान्ततापर सन्देह व्यक्त करते हुए, पण्डित सुखलालजी लिखते हैं-"अगर अभयदेवका उक्त उल्लेखांश अभ्रान्त एव साधार है ता अधिकसे अधिक हम यही कल्पना कर सकते है कि मल्लवादीका कोई अन्य युगपत् पक्षः समर्थक छोटा बड़ा ग्रन्थ अभयदेवके सामने रहा होगा अथवा ऐसे मन्तव्यवाला काई उल्लेख उन्हें मिला होगा।" और यह बात ऊपर बतलाई ही जा चुकी है कि अभयदेवसे कई शताब्दी पृवके प्राचीन आचार्य हरिभद्रसूरिने उक्त केई' पदके वाच्यरूपमें सिद्धसेनाचायका नाम उल्लेखित किया है, प० सुखलालजोने उनके उस उल्लेखको महत्व दिया है तथा सन्मातकारसे भिन्न दूसरे सिद्धसेनकी सम्भावना व्यक्त की है, और वे दूसरे सिद्धसेन उन द्वात्रिशिकाओके कर्ता हो सकते हैं जिनमे युगपद्वादका समर्थन पाया जाता है, इसे भा भा ऊपर Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १४९ दर्शाया जा चुका है। इस तरह जब मल्लवादीका जिनभद्रसे पूर्ववर्ती होना सुनिश्चित ही नहीं है तब उक्त प्रमाण और भी निःसार एव वेकार हो जाता है। साथ ही, अभयदेवका मल्लवादीको युगपद्वादका पुरस्कर्ता बतलाना भी भ्रान्त ठहरता है। यहॉपर एक बात और भी जान लेनेकी है और वह यह कि हालमे मुनि श्रीजम्बूविजयजीने मल्लवादीके सटीक नयचक्रका पारायण करके उसका विशेप परिचय 'श्री श्रात्मानन्दप्रकाश' (वर्ष ४५ अङ्क ७)में प्रकट किया है, उसपरसे यह स्पष्ट मालूम होता है कि मल्लवादीने अपने नयचक्रमें पद-पदपर 'वाक्यपदीय' ग्रन्थका उपयोग ही नहीं किया बल्कि उसके कर्ता भत हरिका नामोल्लेख और भत हरिके मतका खण्डन भी किया है। इन भत हरिका समय इतिहासमे चीनी यात्री इत्सिगके यात्राविवरणादिके अनुसार ई. सन ६०८से ६५० (वि० स० ६५७से ७८७) तक माना जाता है, क्योकि इत्सिगने जव सन ६९१मे अपना यात्रावृत्तान्त लिखा तव भतृहरिका देहावसान हुए ४० वर्ष वीत चुके थे। और वह उस समयका प्रसिद्ध वैयाकरण था। ऐसी हालतमें भी मल्लवादी जिनभद्रसे पूर्ववर्ती नहीं कहे जा सकते । उक्त समयादिककी दृष्टिसे वे विक्रमकी प्रायः आठवी-नवमी शताब्दीके विद्वान हो सकते हैं और तब उनका व्यक्तित्व न्यायविन्दुकी धर्मोत्तर-टीकापर टिप्पण लिखनेवाले मन्लवादीके साथ एक भी हो सकता है । इस टिप्पणमे मल्लवादीने अनेक स्थानोपर न्यायविन्दुकी विनीतदेव-कृत-टीकाका उल्लेख किया है और इस विनीतदेवका समय गहुलसाकृत्यायनने, वादन्यायकी प्रस्तावनामें, धर्मकीर्तिके उत्तराधिकारियोकी एक तिब्बती सूचापरसे ई० सन् ७७५से ८८० (वि० सं०८५७) तक निश्चित किया है। इस सारी वस्तुस्थितिको ध्यानमे रखते हुए ऐसा जान पडता है कि विक्रमकी १४वीं शताब्दीके विद्वान् प्रभाचन्द्रने अपने प्रभावकचरितके विजयसिंहसूरि-प्रवन्धमे बौद्धो और - उनके व्यन्तरोंको वादमे जीतनेका जो समय मल्लवादीका वीरवत्सरसे ८८४ वर्ष बादका अर्थात् विक्रम सवत् ४१४ दिया है और जिसके कारण ही उन्हे श्वेताम्बर समाजमे इतना प्राचीन माना जाता है तथा मुनि जिनविजयने भी जिसका एकवार पक्ष लिया है। उसके उल्लेखमें जरूर कुछ भूल हुई है। पं० सुखलालजीने भी उस भूलको महसूस किया है, तभी उसमें प्रायः १०० वर्पकी वृद्धि करके उसे विक्रमकी छठी शताब्दीका पूर्वार्ध (वि० सं० ५५०) तक मान लेनेकी बात अपने इस प्रथम प्रमाणमे कही है। डा० पी० एल० वैद्य एम० ए०ने न्यायावतारकी प्रस्तावनामे, इस भूल अथवा गलतीका कारण 'श्रीवीरविक्रमात् के स्थानपर श्रीवीरवत्सरात्' पाठान्तरका हो जाना सुझाया है। इस प्रकारके पाठान्तरका हो जाना कोई अस्वाभाविक अथवा असंभाव्य नहीं है किन्तु सहजसाध्य जान पड़ता है। इस सुझावके अनुसार यदि शुद्ध पाठ 'वीरविक्रमात्' हो तो मल्लवादीका समय वि० स० ८८४ तक पहुँच जाता है और यह समय मल्लवादीके जीवनका प्रायः अन्तिम समय हो सकता है और तब मल्लवादीको हरिभद्रके प्रायः समकालीन कहना होगा, क्योंकि हरिभद्रने 'उक्तं च . वादिमुख्येन मल्लवादिना' जैसे शब्दोंके द्वारा अनेकान्तजयपताकाकी टीकामे मल्लवादीका स्पष्ट उल्लेख किया है। हरिभद्रका समय भी विक्रमकी हवी शताब्दीके तृतीय १ बौद्धाचार्य धर्मोत्तरका समय प० राहुलसाकृत्यायनने वादन्यायकी प्रस्तावनामें ई० स० ७२५से ७५०, (वि० स० ७८२से ८०७) तक व्यक्त किया है। २ श्रीवीरवत्सर। दथ शताष्टके चतुरशीति-सयुक्त । जिग्ये स मल्लवादी बौद्धास्तद्व्यन्तराश्चाऽपि ॥८॥ ३ देखो, जैनसाहित्यसशोधक भाग २ । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० पुरातन-जैनवाक्य-सूची चतुर्थ चरण तक पहुंचता है, क्योंकि वि० स० ८५७के लगभग धनी हुई भट्टजयन्तकी न्यायमञ्जरीका 'गम्भीरगर्जितारम्भ' नामका एक पद्य हरिभद्रके पड्दर्शनसमुशयमें उद्धृत मिलता है, ऐसा न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमारजीने न्यायकुमुदचन्द्रके द्वितीय भागकी प्रस्तावनामें उद्घोपित किया है। इसके सिवाय, हरिभद्रने स्वयं शाखवार्तासमुच्चयके चतुर्थस्तवनमें 'एतेनैव प्रतिक्षिप्तं यदुक्त सूक्ष्मबुद्धिना' इत्यादि वाक्यके द्वारा बौद्धाचार्य शान्तरक्षितके मतका उल्लेख किया है और स्वोपज्ञटीकामे 'सूक्ष्मबुद्धिना'का 'शान्तरक्षितन' अर्थ देकर उसे स्पष्ट किया है। शान्तरक्षित धर्मोत्तर तथा विनीतदेवके भी प्रायः उत्तरवर्ती हैं और उनका समय राहुलसांकृत्यायनने वादन्यायके परिशिष्टोमे ई० सन् ८४० (वि० स०८९७) तक बतलाया है। हरिभद्रको उनके समकालीन समझना चाहिये । इससे हरिभद्रका कथन उक्त समयमें बाधक नहीं रहता और सब कथनोकी सद्गति ठीक बैठ जाती है। , . नयचक्रके उक्त विशेष परिचयसे यह भी मालूम होता है कि उस ग्रन्थमें सिद्धसेन नामके साथ जो भी उल्लेख मिलते है उनमें सिद्धसेनको 'प्राचार्य' और 'सूरि' जैसे पदोके साथ तो उल्लेखित किया है परन्तु 'दिवाकर' पदके साथ कहीं भी उल्लेखित नहीं किया है, तभी मुनि श्रीजम्बूविजयजीकी यह लिखनेमे प्रवृत्ति हुई है कि "श्रा सिद्धसेनसूरि सिद्धसेनदिवाकरज सभवतः होवा जोइये" अर्थात् यह सिद्धसेनसूरि सम्भवतः सिद्धसेनदिवाकर ही होने चाहिये-भले ही दिवाकर नामके साथ वे उल्लेखित नहीं मिलते) उनका यह लिखना जनकी धारणा और भावनाका ही प्रतीक कहा जा सकता है; क्योकि होना चाहिये का कोई कारण साथमे व्यक्त नहीं किया गया । प० सुखलालजीने अपने उक्त प्रमाणमें इन सिद्धसेनको 'दिवाकर' नामसे ही उल्लेखित किया है, जो कि वस्तुस्थितिका बड़ा ही गलत निरूपण है और अनेक भूल-भ्रान्तियोंको जन्म देने वाला है-किसी विषयको विचारके लिये प्रस्तुत करनेवाले निष्पक्ष विद्वानाके द्वारा अपनी प्रयोजनादि-सिद्धिके लिय वस्तुस्थितिका एसा गलत चित्रण नही होना चाहिये। हॉ. उक्त परिचयसे यह भी मालूम होता है कि सिद्धसेन नामके साथ जो उल्लेख मिल रहे हैं उनमेंसे कोई भी उल्लेख सिद्धसेनदिवाकरके नामपर चढे हुए उपलब्ध प्रन्थोमेसे किसीमें भी नहीं मिलता है। नमूनेके तौरपर जो दो उल्लेख परिचयमें उद्धृत किये गये हैं उनका विषय प्रायः शब्दशास्त्र (व्याकरण) तथा शब्दनयादिसे सम्बन्ध रखता हुआ जान पड़ता है। इससे भी सिद्धसेनके उन उल्लेखोंको दिवाकरके उल्लेख वतलाना व्यर्थ ठहरता है। ___रही द्वितीय प्रमाणकी बात उससे केवल इतना ही सिद्ध होता है कि तीसरी और नवमी द्वात्रिंशिकाके कर्ता जो सिद्धसेन हैं वे पूज्यपाद देवनन्दीसे पहले हुए है-उनका समय विक्रमकी पॉचवी शताब्दी भी हो सकता है । इससे अधिक यह सिद्ध नहीं होता कि सन्मतिसूत्रके कर्ता सिद्धसेन भी पूज्यपाद देवनन्दीसे पहले अथवा विक्रमकी ५वीं शताब्दीमे हुए है। १. हवीं शताब्दीके द्वितीय चरण तकका समय तो मुनि जिनविजयजीने भी अपने हरिभद्र के समयनिर्णयवाले लेखमें बतलाया है। क्योंकि विक्रमसवत् ८३५ (शक स० ७००)में बनी हुई कुवलयमालामें उद्योतनसूरिने हरिभद्रको न्यायविद्यामें अपना गुरु लिखा है । हरिभद्रके समय, सयतजीवन और उनके साहित्यिक कार्योंकी विशालताको देखते हुए उनको श्रायुका अनुमान सौ वर्षके लगभग लगाया जा सकता है और वे मल्लवादीके समकालीन होनेके साथ-साथ कुवलयमालाकी रचनाके कितने ही वर्ष बाद तक जीवित रह सकते हैं । '२ "तथा च प्राचार्यसिद्धसेन पाह “यत्र हों वाच व्यभिचरति न (ना) भिधान तत् ॥ [वि० २७७] "अस्ति-भवति-विद्यति-वर्ततयः सन्निपातषष्ठाः सत्तार्था इत्यविशेषणाक्तत्वात् सिद्धसेनसूरिणा।"[वि. १६६ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १५१ इसको सिद्ध करनेके लिये पहले यह सिद्ध करना होगा कि सन्मतिसूत्र और तीसरी तथा नवमी द्वात्रिशिकाएँ तीनो एक ही सिद्धसेनकी कृतियाँ है । और यह सिद्ध नहीं है। पूज्यपादसे पहले उपयोगद्वयके क्रमवाद तथा अभेदवादके कोई पुरस्कर्ता नहीं हुए हैं, होते तो पूज्यपाद अपनी सर्वार्थसिद्धिर्म सनातनसे चले आये युगपद्वादका प्रतिपादनमात्र करके ही न रह जाते। बल्कि उसके विरोधी वाद अथवा वादोका खण्डन जरूर करते परन्तु ऐसा नहीं है, और इससे यह मालूम होता है कि पूज्यपादके समयमें केवली के उपयोग-विषयक क्रमवाद तथा अभेटवाद प्रचलित नहीं हुए थे-वे उनके बाद ही सविशेषरूपसे घोपित तथा प्रचारको प्राप्त हुए हैं, और इसीसे पूज्यपादके बाद अकलङ्कादिकके साहित्यमें उनका उल्लेख तथा खण्डन पाया जाता है। क्रमवादका प्रस्थापन नियुक्तिकार भद्रबाहुके द्वारा और अभेदवादका प्रस्थापन सन्मतिकार सिद्धसेनके द्वारा हुआ है। उन वादोंके इस विकासक्रमका समर्थन जिनभद्रकी विशेषणवतीगत उन दो गाथाओं (केई भणति जुगवं' इत्यादि नम्बर १८४, १८५)से भी होता है जिनमें युगपत् , क्रम और अभेद इन तीनो वादोके पुरस्कर्ताओका इसी क्रमसे उल्लेख किया गया है और जिन्हें ऊपर (न० २मे) उद्धृत किया जा चुका है। (प. सुखलालजीने नियुक्तिकार भद्रबाहुको प्रथम भद्रबाहु और उनका समय : विक्रमकी दूसरी शताब्दी मान लिया है. इसीसे इन वादोके क्रम-विकासको समझने में उन्हे भ्रान्ति हुई है । और वे यह प्रतिपादन करनेमे प्रवृत्त हुए है कि पहले क्रमवाद था, युगपत्वाद वादको सबसे पहले वाचक उमास्वाति द्वारा जैन वाडमयमें प्रविष्ट हुआ और फिर उसके बाद अभेदवादका प्रवेश मुख्यतः सिद्धसेनाचायके द्वारा हुआ है। परन्तु यह ठीक नहीं है, क्योकि प्रथम ता युगपत्वादका प्रतिवाद भद्रवाहकी आवश्यकनियुक्तिके "सव्वस्स केवलिस्स वि जुगव दो रणत्थि उवोगा" इस वाक्यमें पाया जाता है जो भद्रबाहुको दूसरी शताब्दीका विद्वान् माननेके कारण उमास्वातिके पूर्वका ठहरता है और इसलिये उनके विरुद्ध जाता है। दूसरे, श्रीकुन्दकुन्दाचायके नियमसार-जैसे ग्रन्थों और आचाय भूतलिके पटखण्डागममें भी युगपत्वादका स्पष्ट विधान पाया जाता है । ये दोनों प्राचार्य उमास्वातिके पूर्ववर्ती हैं और इनके युगपद्वाद-विधायक वाक्य नमुनेके तौरपर इस प्रकार हैं: "जुगव वट्टइ णाण केवलणाणिस्स दसण च तहा । दिणयर-पयास-तावं जह वट्टइ तह मुणेयव्य ॥" (णियम०१५९)। "सय भयव उप्पण-णाण-दरिसी सदेवाऽसुर-माणुसस्स लोगस्स आगदि गदि चयणोववादं बंधं मोक्ख इद्धि ठिदि जुदि अणुभाग तक कलं मणोमाणसियं भुत्तं कदं पडिसेविदं आदिकम्मं अरहकम्म सबलोए सव्वजीवे सव्वभावे सव्व समं जाणदि पस्सदि विहरदित्ति ।"--(पट्खण्डा० ४ पयडि अ० सू० ७८)। १ “स उपयोगो द्विविधः । ज्ञानोपयोगो दर्शनोपयोगश्चेति । साकार ज्ञानमनाकार दर्शनमिति । __ तच्छद्मस्थेषु क्रमेण वर्तते । निरावरणेषु युगपत् ।" .2 ज्ञानबिन्दु परिचय पृ० ५, पादटिप्पण। । V३ "मतिजानादिचतुष पर्यायेणोपयोगो भवति, न युगपत् । सभिन्नजानदर्शनस्य तु भगवतः केलिनो युगपत्सर्वभावग्राहके निरपेक्षे केवलशाने केवलदर्शने चानुसमयमुपयोगो भवति । -तत्त्वार्थभाष्य १-३१ । ४ उमास्वातिवाचकको ५० सुखलालजीने विक्रमकी तीसरीसे पाँचवीं शताब्दीके मध्यका विद्वान् / बतलाया है । (ज्ञा० वि० परि० पृ० ५४)। V५ इस पूर्ववर्तित्वका उल्लेख श्रवणबेल्गोलादिके शिलालेखों तथा अनेक ग्रन्थप्रशस्तियोंमें पाया जाता है। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन जैनवाक्य सूची ऐसी हालतमे युगपत्वाद की सर्वप्रथम उत्पत्ति उमास्वाति से बतलाना किसी तरह भी युक्तियुक्त नहीं कहा जा सकता, जैनवाडमय में इसकी अविकल धारा अतिप्राचीन कालसे चली आई है। यह दूसरी बात है कि क्रम तथा अभेदकी धाराएँ भी उसमे कुछ वादको शामिल होगई हैं, परन्तु विकास क्रम युगपत्वादसे ही प्रारम्भ होता है जिसकी सूचना विशेषणवतीकी उक्त गाथाओ ('केई भरगति जुगवं ' इत्यादि) से भी मिलती है । दिगम्बराचार्य श्रीकुन्दकुन्द, समन्तभद्र और पूज्यपाद के ग्रन्थोमे क्रमवाद तथा अभेदवादका कोई ऊहापोह अथवा खण्डन न होना पं० सुखलालजीको कुछ अखरा है, परन्तु इसमे अखरने की कोई बात नही है । जब इन आचार्योंके सामने ये दोनों वाद आए ही नहीं तब वे इन वादोका ऊहापोह अथवा खण्डनादिक कैसे कर सकते थे ? अकलङ्कके सामने जब ये वाद आए तब उन्होने उनका खण्डन किया ही है; चुनाचे पं० सुखलालजी स्वयं ज्ञानविन्दुके परिचयमे यह स्वीकार करते हैं कि "ऐसा खण्डन हम सबसे पहले अकलङ्ककी कृतियोंमें पाते हैं।" और इसलिये उनसे पूर्वकी - कुन्दकुन्द समन्तभद्र तथा पूज्यपादकी – कृतियोंमे उन वाढोंकी कोई चर्चाका न होना इस बात को और भी साफ तौरपर सूचित करता है कि इन दोनों वादोकी प्रादुर्भूति उनके समय बाद हुई है। सिद्धसेनके सामने ये दोनो वाद थे— दोनोंकी चर्चा सन्मतिमे की गई है— अतः ये सिद्धसेन पूज्यपाद के पूर्ववर्ती नहीं हो सकते । पूज्यपादने जिन सिद्धसेनका अपने व्याकरणमे नामोल्लेख किया है वे कोई दूसरे ही सिद्धसेन होने चाहिये । यहाँपर एक खास बात नोट किये जानेके योग्य है और वह यह कि प० सुखलालजी सिद्धसेनका पूज्यपादसे पूर्ववर्ती सिद्ध करनेके लिये पूज्यपादीय जैनेन्द्र व्याकरणका उक्त सूत्र तो उपस्थित करते हैं परन्तु उसी व्याकरण के दूसरे समकक्ष सूत्र "चतुष्टयं समन्तभद्रस्य " को देखते हुए भी अनदेखा कर जाते हैं - उसके प्रति गजनिमीलन- जैसा व्यवहार करते हैं - और ज्ञानविन्दुकी परिचयात्मक प्रस्तावना ( पृ० ५५ ) मे विना किसी हेतुके ही यहाँ तक लिखनेका साहस करते हैं कि "पूज्यपादके उत्तरवर्ती दिगम्बराचार्य समन्तभद्र" ने अमुके उल्लेख किया। साथ ही, इस बातको भी भुला जाते हैं कि सन्मतिकी प्रस्तावना वे स्वय पूज्यपादको समन्तभद्रका उत्तरवर्ती बतला आए है और यह लिख आए हैं कि 'स्तुतिकाररूपसे प्रसिद्ध इन दोनों जैनाचार्यों का उल्लेख पूज्यपादने अपने व्याकरणके उक्त सूत्रोमे किया है, उनका कोई भी प्रकारका प्रभाव पूज्यपादकी कृतियोंपर होना चाहिये ।' मालूम नही फिर उनके इस साहसिक कृत्यका क्या रहस्य है । और किस अभिनिवेशके वशवर्ती होकर उन्होने अब यों ही चलती कलमसे समन्तभद्रको पूज्यपादके उत्तरवर्ती कह डाला है | इसे अथवा इसके श्रीचित्यको वे ही स्वय समझ सकत हैं। दूसरे विद्वान् तो इसमे कोई औचित्य एवं न्याय नही देखते कि एक ही व्याकरण ग्रन्थमे उल्लेखित दो विद्वानोंमेंसे एकको उस प्रन्थकारके पूर्ववर्ती और दूसरेको उत्तरवर्ती बतलायां जाय और वह भी विना किसी युक्ति के | इसमे सन्देह नहीं कि पण्डित सुखलालजीकी बहुत पहलेसे यह धारणा बनी हुई है कि सिद्धसेन समन्तभद्रके पूर्ववर्ती हैं और वे जैसे तेसे उसे प्रकट करने के लिये कोई भी अवसर चूकत नहीं है। हो सकता है कि उसीकी धुनमे उनसे यह कार्य बन गया हो, जो उस प्रकटीकरणका ही एक प्रकार है, अन्यथा वैसा कहने के लिये कोई भी युक्तियुक्त कारण नहीं है । पूज्यपाद समन्तभद्रके पूर्ववर्ती नहीं किन्तु उत्तरवर्ती हैं, यह बात जैनेन्द्रव्याकरण के उक्त “चतुष्टय समन्तभद्रस्य " सूत्रसे ही नहीं किन्तु श्रवणबेलगोलके शिलालेखों आदि भी भले प्रकार जानी जाती है: । पूज्यपादकी 'सर्वार्थसिद्धि पर समन्तभद्रका स्पष्ट प्रभाव है, इसे १५२ - १ देखो, श्रवणवेल्गोल- शिलालेख न० ४० (६४), १०८ (२५८), 'स्वामी समन्तभद्र' (इतिहास) पृ० १४११४३; तथा 'जैननगत' वर्ष ६ १५-१६मे प्रकाशित 'समन्तभद्रका समय और डा० के० बी० Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १५३ 'सर्वार्थसिद्धिपर समन्तभद्रका प्रभाव' नामक लेखमें स्पष्ट करके बतलाया जा चुका है। समन्तभद्रके 'रत्नकरण्ड'का 'प्राप्तोपज्ञमनुलध्यम्' नामका शास्त्रलक्षणवाला पूरा पद्य न्यायावतारमें उद्धृत है, जिसकी रत्नकरण्डमें स्वाभाविकी और न्यायावतारमे उद्धरण-जैसी स्थितिको खूब खोलकर अनेक युक्तियोके साथ अन्यत्र दशाया जा चुका है। उसके प्रक्षिप्त होनेकी कल्पना-जैसी बात भी अब नहीं रही, क्योकि एक तो न्यायावतारका समय अधिक दूरका न रहकर टोकाकार सिद्धपिक निकट पहुँच गया है दूसरे उसमे अन्य कुछ वाक्य भी समर्थनादिके रूपमें उद्धत पाये जाते हैं। जैसे साध्याविनाभुवो हेतोः" जैसे वाक्यमें हेतुका लक्षण आजानेपर भी "अन्यथानुपपन्नत्व हेतोलक्षणमीरितम्" इस वाक्यमें उन पात्रस्वामीके हेतुलक्षणको उद्धृत किया गया है जो समन्तभद्रके देवागमसे प्रभावित होकर जैनधर्ममें दीक्षित हुए थे। इसी तरह "दृष्टेष्टाव्याहताद्वाक्यात्" इत्यादि आठवें पद्यमें शाब्द (आगम) प्रमाणका लक्षण आजानेपर भी अगले पद्यमे समन्तभद्रका "आप्तोपज्ञमनुल्लंध्यमदृष्टेष्टविरोधकम्" इत्यादि शास्त्रका लक्षण समर्थनादिके रूपमे उद्धृत हुआ समझना चाहिये । इसके सिवाय, न्यायावतारपर समन्तभद्रके देवागम (आप्तमीमांसा)का भी स्पष्ट प्रभाव है, जैसा कि दोनों ग्रन्या में प्रमाणके अनन्तर पाये जानेवाले निम्न वाक्योंकी तुलनापरसे जाना जाता है: "उपेक्षा फलमाऽऽद्यस्य शेषस्याऽऽदान-हान-धीः ।। पूर्वा(व) वाऽज्ञान नाशो वा सर्वस्याऽस्य स्वगोचरे ॥१०॥" (देवागम) "प्रमाणस्य फल साक्षादज्ञान विनिवर्तनम् । केवलस्य सुखोपेक्षे शेषस्याऽऽदान-हान धीः ॥२८॥” (न्यायावतार) ऐसी स्थितिमें व्याकरणादिके कर्ता पूज्यपाद और न्यायावतारके कर्ता सिद्धसेन दोनों ही स्वामी समन्तभद्रके उत्तरवर्ती है, इसमें सदेहके लिये कोई स्थान नहीं है । सन्मतिसूत्रके का सिद्धसेन चूंकि नियुक्तिकार एव नमित्तिक भद्रबाहुके बाद हुए है- उन्होंने भद्रबाहु के द्वारा पुरस्कृत उपयोग-क्रमवादका खण्डन किया है और इन भद्रबाहुका समय विक्रमकी छठी शताब्दीका प्रायः तृतीय चरण पाया जाता है, यही समय सन्मतिकार सिद्धसेनके समयकी पूर्वसीमा है, जैसा कि ऊपर सिद्ध किया जा चुका है.। पूज्यपाद इस समयसे पहले गङ्गवशी राजा अविनीत (ई. सन् ४३०-४८०) तथा उसके उत्तराधिकारी दुविनीतके समयमें हुए हैं और उनके एक शिष्य वज्रनन्दीने विक्रम संवत् ५२६में द्राविडसघकी स्थापना की है जिसका उल्लेख देवसेनसूरिके दर्शनसार (वि० सं० १९८) ग्रन्थमें मिलता है। अतः सन्मतिकार सिद्धसेन पूज्यपादके उत्तरवर्ती हैं. पूज्यपादके उत्तरवर्ती होनेसे समन्तभद्रके भी उत्तरवर्ती हैं, ऐसा सिद्ध होता है । और इसलिये समन्तभद्रके स्वयम्भूस्तोत्र तथा आप्तमीमासा (देवांगम) नामक दो पाठक' शीर्षक लेख पृ० १८-२३, अथवा 'दि एनल्स ऑफ दि भाण्डारकर रिसर्च इन्स्टिटय ट पूना वोल्यूम १५ पार्ट १-२में प्रकाशित Samantabhadra's date and Dr K B A Pathak पृ० ८१-८८। - देखो, अनेकान्त वर्ष ५, किरण १०-११ पृ० ३४६-३५२ । -/२ देखो, 'स्वामी समन्तभद्र' (इतिहास) पृ० १२६-१३१ तथा अनेकान्त वर्ष ६ कि० १से ४में प्रकाशित रत्नकरण्डके कर्तृत्वविषयमें मेरा विचार और निर्णय' नामक लेख पृ० १०२-१०४ । -३ यहाँ 'उपेक्षा के साथ सुखकी वृद्धि की गई है, जिसका अज्ञाननिवृत्ति तथा उपेक्षा(रागादिककी निवृत्तिरूप अनासक्ति)के साथ अविनाभावी सम्बन्ध है। V४ "सिरिपुजपादसीसो दाविडसघस्स कारगो दुह्रो । णामेण वजणदी पाहुडवेदी ९ पचसए छब्बीसे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । दक्खिणमहुराजादो दाविडसघो Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ पुरातन-जैनवाक्य-सूची ग्रन्थोकी सिद्धसेनीय सन्मतिसूत्रके साथ तुलना करके प० सुखलालजीने दोनो आचार्योंके इन ग्रन्थोमे जिस 'वस्तुगत पुष्कल साम्य'की सूचना सन्मतिको प्रस्तावना (पृ० ६६)मे की है उसके लिये सन्मतिसूत्रको अधिकांशमे सामन्तभद्रीय ग्रन्थोके प्रभावादिका आभारी समझना चाहिये। अनेकान्त-शासनके जिस स्वरूप-प्रदर्शन एवं गौरव-ख्यापनकी ओर समन्तभद्रका प्रधान लक्ष्य रहा है उसीको सिद्धसेनने भी अपने ढगसे अपनाया है। साथ ही सामान्य-विशेष-मातृक नयोके सर्वथा-असर्वथा, सापेक्ष-निरपेक्ष और सम्यक-मिथ्यादि-स्वरूपविपयक समन्तभद्रके मौलिक निर्देशोंको भी आत्मसात् किया है। सन्मतिका कोई कोई कथन समन्तभद्रके कथनसे कुछ मतभेद अथवा उसमे कुछ वृद्धि या विशेष प्रायोजनको भी साथमे लिये हुए जान पडता है, जिसका एक नमूना इस प्रकार है: दव्वं खित्त कालं भावं पज्जाय-देम-संजोगे । भेदं च पडुच्च समा भावाण पण्णवणपज्जा ॥३-६०॥ इस गाथामे बतलाया है कि 'पदार्थोंकी प्ररूपणा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पर्याय, देश. सयोग और भेदको प्राश्रित करके ठीक होती है, जब कि समन्तभद्रने "सदेव सर्वं को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात्" जैसे वाक्योके द्वारा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इस चतुष्टयको ही पदाथप्ररूपणका मुख्य साधन बतलाया है। इससे यह साफ जाना जाता है कि समन्तभद्रके उक्त चतुष्टयमे सिद्धसेनने बादको एक दूसरे चतुष्टयकी और वृद्धि की है, जिसका पहलेसे पूक्के चतुष्टयमं ही अन्तर्भाव था। ____ रही द्वात्रिशिकाओके कर्ता सिद्धसेनकी बात, पहली द्वात्रिशिकामे एक उल्लेख-वाक्य निम्न प्रकारसे पाया जाता है, जो इस विषयमें अपना खास महत्व रखता है: य एष षड्जीव-निकाय-विस्तरः परैरनालीढपथस्त्वयोदितः । अनेन सयज्ञ-परीक्षण-क्षमास्त्वयि प्रसादोदयसोत्सवाः स्थिताः ॥१३॥ इसमे बतलाया है कि 'हे वीरजिन | यह जा पट प्रकारके जीवोंके निकायों (समूहों) का विस्तार है और जिसका मार्ग दूसरोके अनुभवमे नहीं आया वह आपके द्वारा उदित हुआ -बतलाया गया अथवा प्रकाशमें लाया गया है। इसीसे जो सर्वज्ञकी परीक्षा करनेमे समर्थ है वे (आपको सर्वज्ञ जानकर) प्रसन्नताके उदयरूप उत्सवके.साथ आपमे स्थित हुए हैं-वडे प्रसन्नचित्तसे आपके आश्रयमे प्राप्त हुए और आपके भक्त बने है। वे समर्थ-सर्वज्ञ-परीक्षक कौन है जिनका यहाँ उल्लेख है और जो प्राप्तप्रभु वीरजिनेन्द्रकी सर्वज्ञरूपमें परीक्षा करनेके अनन्तर । उनके सुदृढ भक्त बने है ? वे हैं स्वामी समन्तभद्र, जिन्होने प्राप्तमीमांसा द्वाग सबसे पहले सर्वज्ञकी परीक्षा की है, जो परीक्षाके अनन्तर वीरकी स्तुतिरूपमे 'युत्तयनुशासन' स्तोत्रके रचनेमें प्रवृत्त हुए है। और जो स्वयम्भू स्तोत्रके निम्न पद्योमें सर्वज्ञका उल्लेख करते हुए उसमें अपनी स्थिति एवं भक्तिको त्वयि सुप्रसन्नमनसः स्थिता वयम्" इस वाक्पके द्वारा स्वयं व्यक्त /१ अकलङ्कदेवने भी 'अष्टशती' भाष्यमें प्राप्तमीमांसाको “सर्वज्ञविशेषपरीक्षा" लिखा है और वादि राजसूरिने पार्श्वनाथचरितमें यह प्रतिपादित किया है कि 'उसी देवागम(आसमीमासा)के द्वारा स्वामी (समन्तभद्र)ने अाज भो सर्वज्ञको प्रदर्शित कर रक्खा है':____ "स्वामिनश्चरित तस्य कस्य न विस्मयावहम् । देवागमेन सर्वजो येनाऽद्यापि प्रदर्श्यते ॥' २ युक्तयनुशासनकी प्रथमकारिकामें प्रयुक्त हुए 'अद्य' पदका अर्थ श्रीविद्यानन्दने टीकामें "अस्मिन् काले परीक्षाऽवसानसमये" दिया है और उसके द्वारा प्राप्तमीमासाके बाद युक्तयनुशासनकी रचनाका सूचित किया है। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १५५ करते हैं, जो कि " त्वयि प्रसादादयसोत्सवाः स्थिताः" इस वाक्यका स्पष्ट मूलाधार जान पडता है: बहिरन्तरप्युभयथा च, करणमविधाति नाऽर्थकृत् । नाथ ! युगपदखिलं च सदा, त्वमिदं तलाऽऽमलकवद्विवेदिथ ॥१२॥ अत एव ते बुध-नुतस्य, चरित-गुणमन तोदयम् । न्याय-विहितमवधार्य जिने, त्वयि सुप्रसन्नमनसः स्थिता वयम् ॥१३०॥ इन्हीं स्वामी समन्तभद्रको मुख्यतः लक्ष्य करके उक्त द्वात्रिंशिकाके अगले दो पद्य: कहे गये जान-पडते हैं, जिनमेसे एकमें उनके द्वारा अर्हन्तमे प्रतिपादित उन दो दो बातोंका उल्लेग्व है जो सर्वज्ञ-विनिश्चयकी सूचक हैं और दूसरेमे उनके प्रथित यशकी मात्राका बड़े गौरवके साथ कीर्तन किया गया है। अतः इस द्वात्रिशिकाके कर्ता सिद्धसेन भी समन्तभद्रके उत्तरवर्ती हैं।(समन्तभद्रके स्वयम्भूस्तोत्रका शैलीगत, शब्दगत और अथगत कितना ही साम्य भी इसमे पाया जाता है, जिसे अनुसरण कह सकते है. और जिसके कारण इस द्वात्रिंशिकाको पढ़ते हुए कितनी ही वार इसके पदविन्यासादिपरसे ऐमा भान होता है मानो हम स्वयम्भूस्तोत्र पढ़ रहे हैं) उदाहरणके तौरपर स्वयम्भूस्तोत्रका प्रारम्भ जैसे उपजातिछन्दमें 'स्वयम्भुवा भूत' शब्दोसे होता है वैसे ही इस द्वात्रिशिकाका प्रारम्भ भी उपजातिछन्दमें 'स्वयम्भुव भूत' शब्दोंसे होता है। स्वयम्भूतोत्रमें जिस प्रकार समन्त, सहत, गत, उदित, समीक्ष्य, प्रवादिन, अनन्त, अनेकान्त-जैसे कुछ विशेष शब्दोंका, मुने, नाथ, जिन, वीर-जैसे सम्बोधन-पदोका और १ जितक्षुल्लकवादिशासनः, २ स्वपक्षसौस्थित्यमदावलिप्ताः, ३ नैतत्समालीढपदं त्वदन्यैः, ४ शेरते प्रजाः, ५ अशेषमाहात्म्यमनोरयन्नपि, ६ नाऽसमीक्ष्य भवतः प्रवृत्तयः, ७ अचिन्त्यमीहितम्, आहन्त्यमचिन्त्यमद्भुतं, ८ सहस्राक्षः, ६ त्वद्विषः, १० शशिरुचिशुचिशुक्ललोहित वपुः, ११ स्थिता वय-जैसे विशिष्ट पद-वाक्योका प्रयोग पाया जाता है उसी प्रकार पहली द्वात्रिंशिकामें भी उक्त शब्दों तथा सम्बोधन पदोंके साथ १ अपश्चिततुल्लकतर्कशासनैः, २ स्वपक्ष एव प्रतिबद्धमत्सराः, ३ परैरनालीढपथस्त्वयोदितः, ४ जगत् शेरते, ५ त्वदीयमाहात्म्यविशेषसभली भारती, ६ समीक्ष्यकारिणः, ७. अचिन्त्यमाहात्म्यं, ८ भूतसहस्रनेत्र, ह त्वत्प्रतिघातनोन्मुखैः, १० वपुः स्वभावस्थमरक्तशोणितं, ११ स्थिता वयजैसे विशिष्ट पद-वाक्योका प्रयोग देखा जाता है, जो यथाक्रम स्वयम्भूस्तोत्रगत उक्त पदोंके प्रायः समकक्ष हैं । स्वयम्भूस्तोत्रमें जिस तरह जिनस्तवनके साथ जिनशासन-जिनप्रवचन तथा अनेकान्तका प्रशसन एव महत्व ख्यापन किया गया है और वीरजिनेन्द्र के शासनमाहात्म्यको 'तव जिनशासनविभवः जयति कलावपि गुणानुशासनविभवः' जैसे शब्दोंद्वारा कलिकालमें भी जयवन्त बतलाया गया है उसी तरह इस द्वात्रिंशिकामें भी जिनस्तुतिके साथ जिनशासनादिका सक्षेपमें कीर्तन किया गया है और वीरभगवानको 'सच्छासनवर्द्धमान' लिखा है। इस प्रथम द्वात्रिंशिकाके कर्ता सिद्धसेन ही यदि अगली चार द्वात्रिंशिकाओंके भी कर्ना हैं जैसा कि प० सुखलालजीका अनुमान है, तो ये पांचों ही द्वात्रिंशिकाएँ, जो वीरस्तुतिसे सम्बन्ध रखती हैं और जिन्हे मुख्यतया लक्ष्य करके ही आचार्य हेमचन्द्रने 'क्क सिद्धसेनV१ “वपुः स्वभावस्थमरक्तशोणित पराऽनुकम्पा सफल च भाषितम् । न यस्य सर्वज्ञ विनिश्चयस्त्वयि द्वय करोत्येतदसौ न मानुषः ॥१४॥ अलब्धनिष्ठाः प्रसमिद्धचेतसस्तव प्रशिष्याः प्रथयन्ति यद्यशः । न तावदप्येकसमूहसहताः प्रकाशयेयुः परवादिपार्थिवाः ॥१५॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ पुरातन-जैनवाक्य-सूची स्तुतयो महार्थाः' जैसे वाक्यका उच्चारण किया जान पडता है, स्वामी समन्तभद्रके उत्तरकालीन रचनाएँ हैं। इन सभीपर समन्तभद्रके ग्रन्थोकी छाया पडी हुई जान पडती है। इस तरह स्वामी समन्तभद्र न्यायावतारके कर्ता, सन्मतिके कर्ता और उक्त द्वात्रिशिका अथवा द्वात्रिशिकाओके कर्ता तीनो ही मिद्धसेनोसे पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं। उनका समय विक्रमी दूसरी-तीसरी शताब्दी है, जैसा कि दिगम्बर पट्टावली मे शकसवत ६० (वि० सं० १९५)के उल्लेखानुसार दिगम्बर समाजमैं आमतौरपर माना जाता है। श्वेताम्बर पट्टावलियोंम उन्हें 'सामन्तभद्र' नामसे उल्लेखित किया है और उनके समयका पट्टाचार्यरूपमें प्रारम्भ वीरनिर्वाणसंवत् ६४३ अर्थात् वि० सं० १७३से बतलाया है । साथ ही यह भी उल्लेखित किया है कि उनके पट्टशिष्यने वीर नि० स० ६६५ (वि० स० २२५)२/ में एक प्रतिष्ठा कराई है, जिससे उनके समयकी उत्तरावधि विक्रमकी तीसरी शताब्दीके प्रथम चरण तक पहुँच जाती है। इससे समय-सम्बन्धी दोनो सम्प्रदायोंका कथन मिल जाता है और प्रायः एक ही ठहरता है। ऐसी वस्तुस्थितिमें प० सुखलालजीका अपने एक दूसरे लेख 'प्रतिभामूर्ति सिद्धसेन दिवाकर मे, जो कि 'भारतीयविद्या के उसी अङ्क (तृतीय भाग)मे प्रकाशित हुआ है. इन तीनों ग्रन्थोंके कर्ता तीन सिद्धसेनोका एक ही सिद्धसेन बतलाते हुए यह कहना कि 'यही सिद्धसेन दिवाकर "आदि जैनताकिक "-" जेन परम्परामे तकविद्याका और तर्कप्रधान सस्कृत वाडमयका आदि प्रणेता", "आदि जैनकवि", "आदि जैनस्तुतिकार", "आद्य जैनवादी" और 'आद्य जैनदार्शनिक" है क्या अर्थ रखता है और कैसे सगत हो सकता है ? इसे विज्ञ पाठक स्वय समझ सकते हैं। सिद्धसेनके व्यक्तित्व और इन सब विषयोंमे उनकी विद्यायोग्यता एवं प्रतिभाके प्रति वहुमान रखते हुए भी स्वामी समन्तभद्रकी पूर्वस्थिति और उनके अद्वितीय-अपूर्व साहित्यको पहलेसे मौजूदगोमें मुझे इन सब उद्गारोका कुछ भी मूल्य मालूम नहीं होता और न प० सुखलालजीके इन कथनोमे कोई सार ही जान पडता है कि-(क) 'सिद्धसेनका सन्मति प्रकरण जेनदृष्टि और जेन मन्तव्योको तर्कशैलीसे स्पष्ट करने तथा स्थापित करनेवाला जैनवाडमयमें सर्वप्रथम ग्रन्थ है' तथा (ख) स्वामी समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र और युक्तयनुशासन नामक ये दो दार्शनिक स्तुतियाँ मिद्धसेनको कृतियोका अनुकरण है। तर्कादि-विषयोंमें समन्भद्रकी योग्यता और प्रतिभा किसीसे भी कम नहीं किन्तु सर्वोपरि रही है, इसीसे अकलङ्कदेव और विद्यानन्दादि-जेसे महान तार्किको-दार्शनिको एव वादविशारदा आदिने उनके यशका खुला गान किया है, भगवजिनसेनने आदिपुराणमे उनके यशको कवियों, गमको, वादियों तथा वादियोके मस्तकपर चूडामणिकी तरह सुशोभित बतलाया है (इसी यशका पहली द्वात्रिंशिकाके तव शिष्याः प्रथयन्ति यद्यशः' जैसे शब्दोमे उल्लेख है) आर साथ ही उन्हे कविब्रह्मा-कवियोको उत्पन्न करनेवाला विधाता-लिखा है तथा उनके वचनरूपी वज्रपातसे कुमतरूपी पर्वत खण्ड-खण्ड हो गये, ऐसा उल्लेख भी किया है और इसलिये १ देखो, हस्तलिखित सस्कृत ग्रन्थों के अनुसन्धान-विषयक डा० भाण्डारकरकी सन् १८८३ ८४की रिपोर्ट पृ० ३२०, मिस्टर लेविस राइसकी 'इन्स्क्रिपशन्स ऐट श्रवणवेल्गोल'की प्रस्तावना और कर्णाटक शब्दानुशासनकी भूमिका । २ कुछ पट्टावलियोंमें यह समय वी० नि० स० ५६५ अथवा विक्रमसवत् १२५ दिया है जो किसी गलतीका परिणाम है और मुनि कल्याणविजयने अपने द्वारा सम्पादित 'तपागच्छपट्टावली में उसके सुधारकी सूचना की है। ३ देखो, मुनिश्री कल्याण विजयजी द्वारा सम्पादित 'तपागच्छपट्टावली पृ० ७६-८१ ४ विशेषके लिये देखो, 'सत्साधुस्मरण-मगलपाठ' पृ० २५से ५१ । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना उपलब्ध जैनवाड्मयमें समयादिककी दृष्टिसे आद्य तार्किकादि होनेका यदि किसीको मान अथवा श्रेय प्राप्त है तो वह स्वामी समन्तभद्रको ही प्राप्त है। उनके देवागम (आप्तमीमांसा), युक्तयनुशासन, स्वयम्भूस्तोत्र और स्तुतिविद्या (जिनशतक) जैसे ग्रन्थ आज भी जैनसमाजमे अपनी जोडका कोई ग्रन्थ नहीं रखते । इन्हीं ग्रन्थोंको मुनि कल्याणविजयजीने भी उन निम्रन्थचूडामणि श्रीसमन्तभद्रको कृतियाँ बतलाया है, जिनका समय-भी--श्वेताम्बर मान्यतानुसार विक्रमकी दूसरी-तीसरी शताब्दी है। तब सिद्धसेनको विक्रमकी ५वीं शताब्दीका मान लेनेपर भी समन्तभन्द्रकी किसी कृतिको सिद्धसेनकी कृतिका अनुकरण कैसे कहा जा सकता है ? नहीं कहा जा सकता। इस सब विवेचनपरसे स्पष्ट है कि पं० सुखलालजीने सन्मतिकार सिद्धसेनको विक्रमकी पांचवी शताब्दीका विद्वान् सिद्ध करनेके लिये जो प्रमाण उपस्थित किये हैं वे उस विषयको सिद्ध करनेके लिये बिल्कुल असमर्थ हैं। उनके दूसरे प्रमाणसे जिन सिद्धसेनका पूज्यपादसे पूर्ववर्तित्व एवं विक्रमकी पॉचवीं शताब्दीमे होना पाया जाता है वे कुछ द्वात्रिंशिकाओके कर्ता हैं न कि सन्मतिसूत्रके, जिसका रचनाकाल नियुक्तिकार भद्रबाहुके समयसे पूर्वका सिद्ध नहीं होता और इन भद्रबाहुका समय प्रसिद्ध श्वेताम्बर विद्वान् मुनि श्रीचतुरविजयजी और मुनिश्री पुण्यविजयजीने भी अनेक प्रमाणोंके आधारपर विक्रमकी छठी शताब्दीके प्रायः तृतीय चरण तकका निश्चित किया है। पं० सुखलालजीका उसे विक्रमकी दूसरी शताब्दी बतलाना किसी तरह भी युक्तियुक्त नहीं कहा जा सकता। अतः सन्मतिकार सिद्धसेनका जो समय विक्रमकी छठी शताब्दीके तृतीय चरण और सातवीं शताब्दीके तृतीय चरणका मध्यवर्ती काल निर्धारित किया गया है वही समुचित प्रतीत होता है, जब तक कि कोई प्रबल प्रमाण उसके विरोधमें सामने न लाया जावे। जिन दूसरे विद्वानोने इस समयसे पूर्वकी अथवा उत्तरसमयकी कल्पना की है वह सब उक्त तीन सिद्धसेनोको एक मानकर उनमेंसे किसी एकके ग्रन्थको मुख्य करके की गई है अर्थात् पूर्वका समय कतिपय द्वात्रिशिकाओके उल्लेखोको लक्ष्य करके और उत्तरका समय न्यायावतारको लक्ष्य फरके कल्पित किया गया है। इस तरह तीन सिद्धसेनोंकी एकत्वमान्यता ही सन्मतिसूत्रकारके ठीक समयनिर्णयमें प्रबल बाधक रही है, इसीके कारण एक सिद्धसेनके विषय अथवा तत्सम्बन्धी घटनाओंको दूसरे सिद्धसेनोके साथ जोड दिया गया है, और यही वजह है कि प्रत्येक सिद्धसेनका परिचय थोडा-बहुत खिचडी बना हुआ है । , (ग) सिद्धसेनका सम्प्रदाय और गुणकीर्तन . अब विचारणीय यह है कि सन्मतिसूत्रके कर्ता सिद्धसेन किस सम्प्रदायके प्राचार्य थे अर्थात् दिगम्बर सम्प्रदायसे सम्बन्ध रखते है या श्वेताम्बर सम्प्रदायसे और किस रूपमें उनका गुण-कीर्तन किया गया है। प्राचार्य उमास्वाति(मी) और स्वामी समन्तभद्रकी तरह सिद्धसेनाचार्यकी भी मान्यता दोनों सम्प्रदायोमे पाई जाती है। यह मान्यता केवल विद्वत्ताके नाते आदर-सत्कारके रूपमें नहीं और न उनके किसी मन्तव्य अथवा उनके द्वारा प्रतिपादित किसी वस्तुतत्व या सिद्धान्त-विशेषका ग्रहण करनेके कारण ही है बल्कि उन्हें अपने अपने सम्प्रदायके गुरुरूपमे माना गया है; गुर्वावलियों तथा पट्टावलियोमे उनका उल्लेख किया गया है और उसी गुरुदृष्टि से उनके स्मरण, अपनी गुणज्ञताको साथमें व्यक्त करते हुए, लिखे गये हैं अथवा उन्हें अपनी श्रद्धाञ्जलियाँ अर्पित की गई है), दिगम्बर सम्प्रदायमें सिद्धसेनको सेनगण (संघ)का आचार्य माना जाता है और सेनगणको पट्टावली में उनका उल्लेख है ( हरिवश तपागच्छपट्टावली भाग पहला पृ० ८०। २ जैनसिद्धान्तभास्कर किरण १ पृ० ३८ । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ पुरातन-जैनवाक्य-सूची पुराणको शकसम्वत् ७०५में बनाकर समाप्त करनेवाले श्रीजिनसेनाचार्यने पुराणके अन्तमे दी हुई अपनी गुर्वावलीमे सिद्धसेनके नामका भी उल्लेख किया है और हरिवंशके प्रारम्भमें समन्तभद्रके स्मरणानन्तर सिद्धसेनका जो गौरवपूर्ण स्मरण किया है, वह इस प्रकार है:जगत्प्रसिद्धयोधस्य वृपभस्येव निस्तुपाः । बोधयन्ति सता बुद्धि सिद्धसेनस्य सूक्तयः ॥३०॥ (इसमे बतलाया है कि 'सिद्धसेनाचार्यकी निर्मल सूक्तियाँ (सुन्दर उक्तियाँ) जगत्प्रसिद्ध-बोध (केवलज्ञान)के धारक (भगवान्) वृपभदेवकी निर्दोप सूक्तियोकी तरह सत्पुरुषोकी बुद्धिको बोधित करती हैं-विकसित करती हैं।') ___ यहॉ मूक्तियोमे सन्मतिके साथ कुछ द्वात्रिशिकाओकी उक्तियाँ भी शामिल समझी जा सकती हैं। उक्त जिनसेन-द्वारा प्रशसित भगवजिनसेनने आदिपुराणमे सिद्धसेनको अपनी हार्दिक श्रद्धाञ्जलि अर्पित करते हुए उनका सो महत्वका कीर्तन एवं जयघांप किया है वह यहाँ खासतौरसे ध्यान देने योग्य है: "कवयः सिद्धसेनाद्या वयं तु कवयो मताः । मणयः पद्मरागाद्या ननु काचोऽपि मेचकः । प्रवादि-करियथाना केशरी नयकेशरः । सिद्धसेन-कविजर्जीयाद्विकल्प-नखराकुरः ॥" इन पद्योमेसे प्रथम पद्यमे भगवजिनसेन. जो स्वय एक बहुत बडे कवि हुए है लिखते हैं कि 'कवि तो (वास्तवमें) सिद्धसेनादिक हैं. हम तो कवि मान लिये गये है। (जैसे) मणि तो वास्तवमें पद्मरागादिक हैं किन्तु काच भी (कभी कभी किन्हीके द्वारा) मेचकमणि समझ लिया जाता है।' और दूसरे पद्यमे यह घोषणा करते है कि 'जो प्रवादिरूप हाधियोंके समूहके लिये विकल्परूप-नुकीले नखोंसे युक्त और नयरूप केशरोको धारण किये हुए केशरीसिह हैं वे मिद्धसेन कवि जयवन्त हों-अपने प्रवचन-द्वारा मिथ्यावादियोंके मतोका निरसन करते हुए सदा ही लोकहृदयोमे अपना सिक्का जमाए रक्खें-अपने वचन-प्रभावको अङ्कित किये रहें। यहाँ सिद्धसेनका कविरूपमे स्मरण किया गया है और उसीमे उनके वादित्वगुणको भी समाविष्ट किया गया है। प्राचीन समयमे कवि साधारण कविता-शायरी करनेवालोको नही कहते थे बल्कि उस प्रतिभाशाली विद्वानको कहते थे जो नय-नये सन्दर्भ, नई-नई मौलिक रचनाएँ तय्यार करनेमे समर्थ हो अथवा प्रतिभा ही जिसका उज्जीवन हो, जो नाना वर्णनाओमें निपुण हो. कृती हो, नाना अभ्यासोंमें कुशाग्रबुद्धि हो और व्युत्पत्तिमान (लौकिक व्यव. हारोमे कुशल) हा२। दूसरे पद्यमे सिद्धसेनको केशरी-सिंहकी उपमा देते हुए उसके साथ | जो 'नय-केशरः' और विकल्प-नखराकरः' जैसे विशेषण लगाये गये हैं उनके द्वारा खास तौरपर सन्मतिसूत्र लक्षित किया गया है, जिसमे नयोंका ही मुख्यतः विवेचन है और अनेक विकल्पोद्वारा प्रवादियोके मन्तव्यो-मान्यसिद्धान्तोका विदारण (निरंसन) किया गया है। इसी सन्मतिसूत्रका जिनसेनने जयधवला में और उनके गुरु वीरसेनने धवलामे उल्लेख किया है और उसके साथ घटित किये जानेवाले विरोधका परिहार करत हुए उसे अपना एक मान्य ग्रन्थ प्रकट किया है, जैसा कि इन सिद्धान्त अन्थोके उन वाक्योसे प्रकट है जो इस लेखक प्रारम्भिक फुटनोटमें उद्धृत किये जा चुके हैं। १ ससिद्धसेनोऽभय-भीमसेनको गुरू परौ तौ जिन-शान्ति-सेनको ॥६६-२६।। V२ "कविनूतनसन्दर्भः ।। "प्रतिभोजीवनो नाना-वर्णना निपुणः कविः । नानाऽभ्यास-कुशाग्रीयमतिव्युत्पत्तिमान् कविः ॥” -अलङ्कारचिन्तामणि । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १५६ नियमसारकी टीकामें पद्मप्रभ मलधारिदेवने सिद्धान्तोद्भश्रीधव सिद्धसेनं । वन्दे वाक्पके द्वारा सिद्धसेनकी वन्दना करते हुए उन्हें 'सिद्धान्तकी जानकारी एवं प्रतिपादनकौशलरूप उच्चश्रीके स्वामी' सूचित किया है। प्रतापकीर्तिने आचार्यपूजाके प्रारम्भमें दी हुई गुर्वावलीमें "सिद्धान्तपायोनिधिलब्धपारः श्रीसिद्धसेनोऽपि गणस्य सारः" इस वाक्यके द्वारा सिद्धसेनको 'सिद्धान्तसागरके पारगामी' और 'गणके सारभूत' बतलाया है । मुनिकन कामरने 'करकडुचरिउ'मे, सिद्धसेनको समन्तभद्र तथा अकलङ्कदेवके समकक्ष 'श्रुतजलके समुद्र' रूपमे उल्लेखित किया है। ये सब श्रद्धाजलि-मय दिगम्बर उल्लेख भी सन्मतिकार-सिद्धसेनसे सम्बन्ध रखते हैं, जो खास तौरपर सैद्धान्तिक थे और जिनके इस सैद्धान्तिकत्वका अच्छा आभास ग्रन्थके अन्तिम काण्डकी उन गाथाओं (६१ श्रादि)से भी मिलता है जो श्रुतधर-शब्दसन्तुष्टो, भक्तसिद्धान्तज्ञों और शिष्यगणपरिवृत-बहुश्रुतमन्योंकी आलोचनाको लिए हुए है। श्वेताम्बर सम्प्रदायम आचार्य सिद्धसेन प्रायः 'दिवाकर' विशेषण अथवा उपपद (उपनाम)के साथ प्रसिद्धिको प्राप्त है। उनके लिये इस विशंपण-पदके प्रयागका उल्लेख श्वेताम्बर साहित्यमे सबसे पहले हरिभद्रसूरिके 'पञ्चवस्तु', ग्रन्थमे देखनेको मिलता है, जिसमे उन्हे दुःषमाकालरूप रानिके लिये दिवाकर (सूर्य) के समान होनेसे 'दिवाकर की आख्याको प्राप्त हुए लिखा है। इसके बादसे ही यह विशेषण उधर प्रचारमे आया जान पड़ता है, क्योंकि श्वेताम्बर चूर्णियों तथा मल्लवादीके नयचक्र-जैसे प्राचीन ग्रन्थोमें जहाँ सिद्धसेनका नामाल्लेख है वहाँ उनके साथम 'दिवाकर' विशेपणका प्रयोग नहीं पाया जाता है। हरिभद्रके वाद विक्रमकी ११वी शताब्दीके विद्वान् अभयदेवसूरिने सन्मतिटीकाके प्रारम्भमें उसे उसी दुःपमाकालरात्रिके अन्धकारका दूर करनवालके अर्थमें अपनाया है। श्वेताम्बर सम्प्रदायकी पट्टावलियोमें विक्रमकी छठी शताब्दी आदिकी जो प्राचीन पट्टावलिया है-जस कल्पसूत्रस्थावरावली(थरावली), नन्दीसूत्रपट्टावली, दुःषमाकाल-श्रमणसघस्तव-उनमे तो सिद्धसनका कहीं काइ नामाल्लख हा नहीं है । दुःषमाकालश्रमणसघकी अवचूरिमें, जो विक्रमकी हवी शताब्दीसे बादकी रचना है, सिद्धसेनका नाम जरूर है (कन्तु उन्हें दिवाकर न लिखकर 'प्रभावक' लिखा है और साथ ही धर्माचार्यका शिष्य सूचित किया है-वृद्धवादीका नहीं: "अत्रान्तरे धर्माचार्य-शिष्य-श्रीसिद्धसेन-प्रभावकः ॥" (दुसरा विक्रमी १५वी शताब्दी आदिकी बनी हुई पट्टावलियोंमे भी कितनी ही पट्टावलियाँ ऐसी हैं जिनमें सिद्धसेनका नाम नहीं है जैसे कि गुरुपर्वक्रमवर्णन, तपागच्छपट्टावलीसूत्र, महावीरपट्टपरम्परा, युगप्रधानसम्बन्ध (लोकप्रकाश) और मूरिपरम्परा । हाँ, तपागच्छपट्टावलासूत्रको वृत्तिमें, जो विक्रमकी १७वी शताब्दी (सं० १६४८)की रचना है, सिद्धसेनका दिवाकर' विशेषणके साथ उल्लेख जरूर पाया जाता है । यह उल्लेख मूल पट्टावलीकी V१ तो सिद्धसेण सुसमतभद्द अकलकदेव समजलसमुद्द। क०२ --२ आयरियसिद्धसेणेण सम्मइए पइष्ठिअजसेण । दूसमाणसा-दिवागर कप्पन्तणयो तदक्खेण ॥१०४८ ४३ देखो, सन्मतिसूत्रकी गुजराती प्रस्तावना पृ० ३६, ३७ पर निशीथचूर्णि (उद्देश ४) और दशाचूर्णिके -उल्लेख तथा पिछले समय सम्बन्धी प्रकरणमें उद्धृत नयचक्रके उल्लेख । ५४ “इति मन्वान आचार्यो दुषमाऽरसमाश्यामासमयोद्भ तसमस्तजनाहार्दसन्तमसविध्वसकत्वेनावाप्तयथार्था भिधानः सिद्धसेनदिवाकरः तदुपायभूतसम्मत्याख्यप्रकरणकरणे प्रवर्तमान. ' ' स्तवाभिधायिका गाथामाह । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० पुरातन-जैनवाक्य-सूची ५वी गाथाकी व्याख्या करते हुए पट्टाचार्य इन्द्रदिन्नसूरिके अनन्तर और दिन्नसूरिके पूर्वकी व्याख्यामें स्थित है। इन्द्रदिन्नसूरिको सुस्थित और सुप्रतिबुद्धके पट्टपर दसवाँ पट्टाचार्य वतलानेके बाद "अत्रान्तरे" शब्दोंके साथ कालकसूरि आयरवपुट्टाचार्य और आर्यमंगुका नामोल्लेख समयनिर्देशके साथ किया गया है और फिर लिखा है: "वृद्धवादी पादलिप्तश्चात्र । तथा सिद्धसेनदिवाकरो येनोज्जयिन्यां महाकाल-प्रासाद रुद्रलिङ्गस्फोटनं विधाय कल्याणमन्दिरस्तवेन श्रीपार्श्वनाथविम्बं प्रकटीकृत, श्रीविक्रमादित्यश्च प्रतिवोधितस्तद्राज्यं तु श्रीवीरसप्ततिवर्षशतचतुष्टये ४७० संजातं ।" (इसमे वृद्धवादी और पादलिप्तके बाद सिद्धसेनदिवाकरका नामोल्लेख करते हुए उन्हे उज्जयिनीमे महाकालमन्दिरके रुद्रलिङ्गका कल्याणमन्दिरस्तात्रके द्वारा स्फोटन करके श्रीपार्श्वनाथकेबिम्बको प्रकट करनेवाला और विक्रमादित्यराजाको प्रतिबोधित करनेवाला लिखा है। साथ ही विक्रमादित्यका राज्य वीरनिर्वाणसे ४७० वर्ष बाद हुआ निर्दिष्ट किया है, और इस तरह सिद्धसेन दिवाकरका विक्रमकी प्रथम शताब्दीका विद्वान् बतलाया है, जो कि उल्लेखित विक्रमादित्यको गलतरूपमे समझनेका परिणाम है । विक्रमादित्य नामके अनेक राजा हुए हैं। यह विक्रमादित्य वह विक्रमादित्य नहीं है जो प्रचलित सवत्का प्रवर्तक है, इस बातको प० सुखलालजी आदिने भी स्वीकार किया है। अस्तु, तपागच्छ-पदावलीकी यह वृत्ति जिन आधारोपर निर्मित हुई है उनमें प्रधान पद तपागच्छकी मुनि सुन्दरसूरिकृत गुर्वावलीको दिया गया है, जिसका रचनाकाल विक्रम सवत् १४६६ है। परन्तु इस पट्टावलामें भी सिद्धसेनका नामोल्लेख नहीं है। उक्त वृत्तिसे कोई १०० वर्ष बादके (वि० स० १७३९ के बादक) बने हुए पट्टावलीसारोद्धार' ग्रन्थमे सिद्धसेनदिवाकरका उल्लेख प्रायः उन्हीं शब्दोमे दिया है जो उक्त वृत्तिमे 'तथा' से 'सजात' तक पाये जाते हैं। और यह उल्लख इन्द्रदिन्नसूरिके बाद 'अत्रान्तरे" शब्दोके साथ मात्र कालकसूरिके उल्लेखानन्तर किया गया है-आर्यखपुट, आर्यमगु, वृद्धवादी और पादलिप्त नामके प्राचार्योंका कालकसूरिके अनन्तर और सिद्धसेनके पूर्वमे कोई उल्लेख ही नहीं किया है। वि० सं० १७८६ से भी बादकी बनी हुई 'श्रीगुरुपट्टावली' मे भी सिद्धसेनदिवाकरका नाम उज्जयिनीकी लिगस्फोटन-सम्बन्धी घटनाके साथ उल्लेखित है । । इस तरह श्वे. पट्टावलियो-गुर्वावलियोमे सिद्धसेनका दिवाकररूपमें उल्लेख विक्रमकी २५वीं शताब्दीके उत्तरार्धसे पाया जाता है, कतिपय प्रबन्धोमे उनके इस विशेषणका प्रयोग सौ-दो सौ वर्ष और पहलेसे हुआ जान पडता। रही स्मरणोकी वात, उनकी भी प्रायः एसी ही हालत है-कुछ स्मरण दिवाकर-विशेषणको साथमे लिये हुए हैं और कुछ नहीं है । श्वेताम्बर साहित्यसे सिद्धसेनके श्रद्धाञ्जलिरूप जो भी स्मरण अभी तक प्रकाशमें आय है व प्रायः इस प्रकार है: १ देखो, मुनि दर्शनविजय-द्वारा सम्पादित 'पट्टावलीसमुच्चय' प्रथम भाग । २ "तथा श्रीसिद्धसेनदिवाकरोपि जातो येनोजयिन्या महाकालप्रासादे रुद्रालगस्फोटन कृत्वा कल्याणमन्दिर स्तवनेन श्रीपार्श्वनाथविम्ब प्रकृटीकृत्य श्रीविक्रमादित्यराजापि प्रतिबोधितः श्रीवीरनिवाणात् सप्ततिवर्षाधिक शतचतुष्टये ४७०ऽतिक्रमे श्रीविक्रमादित्यराज्य सजातं ॥१०॥-पट्टावलीसमुच्चय पृ० १५० ३ "तथा श्रीसिद्धसेनदिवाकरेणोजयिनीनगर्यो महाकाल प्रासादे लिंगस्फोटनं विधाय स्तुत्या ११ काव्य श्रीपार्श्वनाथबिम्बं प्रकृटीकृतं, कल्याणमन्दिरस्तोत्रं कृतं ।"-पट्टा० स० पृ० १६६ । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना (क) उदितोऽर्हन्मत व्योम्नि सिद्धसेनदिवाकरः । चित्रं गोभिः क्षितौ जह े कविराज बुध-प्रभा ॥ १६१ यह विक्रमकी १३वीं शताब्दी (वि० सं० १२५२ ) के ग्रन्थ श्रममचरित्रका पद्य है । इसमें रत्नसूरि अलङ्कार - भाषाको अपनाते हुए कहते है कि 'हमतरूपी आकाशमें सिद्धसेनदिवाकरका उदय हुआ है, आश्चर्य है कि उसकी वचनरूप - किरणोंसे पृथ्वीपर कविराजकी— वृहस्पतिरूप 'शेष' कविकी — और बुधकी -- बुधग्रहरूप विद्वद्वर्गकी - प्रभा लज्जित होगई— फीकी पड़ गई है।') (ख) तमः स्तोमं स हन्तु श्रीसिद्धसेनदिवाकरः । यस्योदये स्थितं मूकैरुलकैरिव वादिभिः ॥ (यह विक्रमकी १४वीं शताब्दी (सं० १३२४) के प्रन्थ समरादित्यका वाक्य है, जिसमें प्रद्युम्नसूरिने लिखा है कि 'वे श्रीसिद्धसेन दिवाकर (अज्ञान) अन्धकारके समूहको नाश करें जिनके उदय होनेपर वादीजन उल्लुओं की तरह मूक होरहे थे- उन्हें कुछ बोल नही आता था ।' ) (ग) श्रीसिद्धसेन - हरिभद्रमुखाः प्रसिद्धास्ते सूरयो मयि भवन्तु कृतप्रसादाः । येषा विमृश्य सततं विविधान्निबन्धान् शास्त्रं चिकीर्षति तनुप्रतिभोऽपि मादृक् ॥ यह ‘स्याद्वादरत्नाकर' का पद्य है । इसमे १२वीं - १३वीं शताब्दी के विद्वान् वादिदेव - सूरि लिखते हैं कि 'श्रीसिद्धसेन और हरिभद्र जैसे प्रसिद्ध श्राचार्य मेरे ऊपर प्रसन्न होवे, जिनके विविध निबन्धोंपर बार-बार विचार करके मेरे जैसा अल्प प्रतिभाका धारक भी प्रस्तुत शास्त्रके रचनेमे प्रवृत्त होता है।' ) (घ) व सिद्धसेन - स्तुतयो महार्था अशिक्षितालापकला क्व चैषा । तथाऽपि यूथाधिपतेः पथस्थः स्खलद्गतिस्तस्य शिशुर्न शोच्यः ॥ यह विक्रमको १२वीं - १३वीं शताब्दी के विद्वान् आचार्य हेमचन्द्रकी एक द्वात्रिंशिका स्तुतिका पद्य है । इसमें हेमचन्द्रसूरि सिरुसेनके प्रति अपनी श्रद्धाञ्जलि अर्पण करते हुए लिखते हैं कि 'कहाँ तो सिद्धसेनकी महान् श्रर्थवाली गम्भीर स्तुतियाँ और कहाँ अशिक्षित मनुष्योंके आलाप-जैसी मेरी यह रचना ? फिर भी यूथके अधिपति गजराजके पथपर चलता हुआ उसका बच्चा (जिस प्रकार ) स्खलितगति होता हुआ भी शोचनीय नहीं होता - उसी प्रकार मैं भी अपने यूथाधिपति आचार्य के पथका अनुसरण करता हुआ स्खलितगति होने पर शोचनीय नहीं हूँ।') यहाँ 'स्तुतयः' 'यूथाधिपतेः' और 'तस्य शिशुः ' ये पद खास तौर से ध्यान देने योग्य हैं । 'स्तुतयः' पदके द्वारा सिद्धसेनीय प्रन्थों केरूपमें उन द्वात्रिंशिकाओं की सूचना की गई जो स्तुत्यात्मक हैं और शेष पदोंके द्वारा सिद्धसेनको अपने सम्प्रदायका प्रमुख आचार्य और अपनेको उनका परम्परा शिष्य घोषित किया गया है । इस तरह श्वेताम्बर सम्प्रदाय के आचार्यरूपमें यहाँ वे सिद्धसेन विवक्षित हैं जो कतिपय स्तुतिरूप द्वात्रिंशिकाओंके कती हैं, कि वे सिद्धसेन जो कि स्तुत्येतर द्वात्रिंशिकाओंके अथवा खासकर सन्मतिसूत्रके रचयिता हैं । श्वेताम्बरीय प्रबन्धोमें भी, जिनका कितना ही परिचय ऊपर आचुका है, उन्हीं सिद्धसेनका उल्लेख मिलता है जो प्रायः द्वात्रिंशिकाओ अथवा द्वात्रिंशद्वात्रिशिका - स्तुतियों के कर्तारूप में विवक्षित हैं । सन्मतिसूत्रका उन प्रबन्धोंमें कहीं कोई उल्लेख ही नहीं है। ऐसी स्थितिमें सन्मतिकार सिद्धसेन के लिये जिस ' 'दिवाकर' विशेषणका हरिभद्रसूरिने स्पष्टरूप से उल्लेख किया है वह बादको नाम साम्यादिके कारण द्वात्रिंशिकाओंके कर्ता सिद्धसेन एव न्यायावतारके Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ पुरातन - जैनवाक्य-सूची कर्ता सिद्धसेन के साथ भी जुड़ गया मालूम होता है और संभवतः इस विशेषणके जुड जानेके कारण ही तीनों सिद्धसेन एक ही समझ लिये गये जान पड़ते हैं । अन्यथा, पं० सुखलालजी श्रादिके शब्दों (प्र० पृ० १०३ ) में 'जिन द्वात्रिशिकाओंका स्थान सिद्धसेनके ग्रन्थोमें चढ़ता हुआ है' उन्हींके द्वारा सिद्धसेनको प्रतिष्ठितयश बतलाना चाहिये था, परन्तु हरिभद्रमूरिने वैसा न करके सन्मतिके द्वारा सिद्धसेनका प्रतिष्ठितयश होना प्रतिपादित किया है और इससे यह साफ ध्वनि निकलती है कि सन्मतिके द्वारा प्रतिष्ठितयश होने वाले सिद्धसेन उन सिद्धसेनसे प्रायः भिन्न हैं जो द्वात्रिंशिकाओको रचकर यशस्वी हुए हैं। हरिभद्रसूरिके कथनानुसार जब सन्मतिके कर्ता सिद्धसेन दिवाकर' की श्राख्याको प्राप्त थे तब वे प्राचीन साहित्य में सिद्धसेन नामके विना 'दिवाकर' नामसे भी उल्लेखित होने चाहियें, उसी प्रकार जिस प्रकार कि समन्तभद्र 'स्वामी' नामसे उल्लेखित मिलते हैं: खोज करनेपर श्वेताम्बरसाहित्यमे इसका एक उदाहरण 'अजरक्खनंदिसेणो' नामकी उस गाथा में मिलता है जिसे मुनि पुण्यविजयजीने अपने 'छेदसूत्रकार और नियुक्तिकार' नामक लेखमें 'पावयणी धम्मकही' नामकी गाथा के साथ उद्धृत किया है और जिसमे आठ प्रभावक आचार्योंकी नामावली देते हुए दिवायरो' पदके द्वारा सिद्धसेनदिवाकरका नाम भी सूचित किया गया है । ये दोनो गाथाऍ पिछले समयादिसम्बन्धी प्रकरणके एक फुटनोटमें उक्त लेखकी चर्चा करते हुए उद्धृत की जा चुकी हैं। दिगम्बर साहित्यमे 'दिवाकर' का यतिरूपसे एक उल्लेख रविषेणाचायके पद्मचरितकी प्रशस्तिके निम्न वाक्यमे पाया जाता है, जिसमे उन्हें इन्द्र-गुरुका शिष्य, अर्हमुनिका गुरु और रविषेणके गुरु लक्ष्मणसेनका दादागुरू प्रकट किया है: आसीदिन्द्रगुरोर्दिवाकर-यतिः शिष्योऽस्य चार्हन्मुनिः । तस्माल्लक्ष्मणसेन-सन्मुनिरदः शिप्यो रविस्तु स्मृतम् ॥१२३-१६७॥ इस पद्यमे उल्लेखित दिवाकरयतिका सिद्धसेनदिवाकर होना दो कारणोसे अधिक सम्भव जान पड़ता है - एक तो समयकी दृष्टिसे और दूसरे गुरु नामकी दृष्टिसे । पद्मचरित वीरनिर्वाणसे १२०३ वर्षे ६ महीने बीतनेपर अर्थात् विक्रमसंवत् ७३४ मे बनकर समाप्त हुआ। है, इससे रविषेणके पड़दादा (गुरुके दादा) गुरुका समय लगभग एक शताब्दी पूर्वका अर्थात् विक्रमकी ७वी शताब्दीके द्वितीय चरण (६२६- ६५० ) के भीतर आता है जो सन्मतिकार सिद्धसेनके लिये ऊपर निश्चित किया गया है। दिवाकरके गुरुका नाम यहाँ इन्द्र दिया है, जो इन्द्रसेन या इन्द्रदत्त आदि किसी नामका सक्षिप्तरूप अथवा एक देश मालूम होता है। श्वेताम्बर पट्टावलियो में जहाँ सिद्धसेन दिवाकरका नामोल्लेख किया है वहाँ इन्द्रदिन्न नामक पट्टाचार्य के बाद 'अत्रान्तरे' जैसे शब्दों के साथ उस नामकी वृद्धि की गई है। हो सकता है कि सिद्धसेनदिवाकरके गुरुका नाम इन्द्र- जैसा होने और सिद्धसेनका सम्बन्ध आद्य विक्रमादित्य अथवा सवत्प्रवर्त्तक विक्रमादित्य के साथ समझ लेनेकी भूलके कारण ही सिद्धसेनदिवाकरका इन्द्रदिन्न श्राचार्यकी पट्टबाह्य-शिष्यपरम्परामे स्थान दिया गया हो । यदि यह कल्पना ठीक है और उक्त पद्यमें 'दिवाकरयतिः पद सिद्धसेनाचार्यका वाचक है तो कहना होगा कि सिद्धसेन - दिवाकर र विषेणाचार्य के पड़दादागुरु होनेसे दिगम्बर सम्प्रदायके आचार्य थे । अन्यथा यह कहुना अनुचित न होगा कि सिद्धसेन अपने जीवनमें दिवाकर की ख्याको प्राप्त नहीं थे, उन्हें यह नाम अथवा विशेषरण वादको हरिभद्रसूरि अथवा उनके निकटवर्ती किसी पूर्वाचार्यने /१ देखो, माणिकचन्द्र - ग्रन्थमाला में प्रकाशित रत्नकरण्ड श्रावकाचारकी प्रस्तावना पृ० ८ । ~२ द्विशताभ्यधिके समासहस्र समतीतेऽद्ध' चतुष्कवर्षयुक्ते । जिनभास्कर-वद्धमान-सिद्ध े चरितं पद्ममुनेरिदं निबद्धम् ॥१२३-१८१ ॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १६३ अलङ्कारकी भाषामें दिया है और इसीसे सिद्धसेनके लिये उसका स्वतन्त्र उल्लेख प्राचीन'साहित्यमें प्रायः देखनेको नहीं मिलता (श्वेताम्बरसाहित्यका जो एक उदाहरण ऊपर दिया गया है वह रत्नशेखरसूरिकृत गुरुगुणषट् त्रिशत्पब्रिशिकाकी स्वोपज्ञवृत्तिका एकवाक्य होनेके कारण ५०० वर्षसे अधिक पुराना मालूम नहीं होता और इसलिये वह सिद्धसेनकी दिवाकर'रूपमें बहुत बादकी प्रसिद्धिसे सम्बन्ध रखता है। आजकल तो सिद्धसेनके लिये 'दिवाकर' नामके प्रयोगकी बाढ़-सी श्रारही है परन्तु अतिप्राचीन कालमें वैसा कुछ भी मालूम नहीं होता। यहॉपर एक बात और भी प्रकट कर देनेकी है और वह यह कि उक्त श्वेताम्बर प्रबन्धों तथा पट्टावलियोंमें सिद्धसेनके साथ उज्जयिनीके महाकालमन्दिरमें लिङ्गस्फोटनादि-सम्बन्धिनी जिस घटनाका उल्लेख मिलता है उसका वह उल्लेख दिगम्बर सम्प्रदायमे भी पाया जाता है, जैसा कि सेनगणकी पट्टावलीके निम्न वाक्यसे प्रकट है:" "(स्वस्ति ) श्रीमदुज्जयिनीमहाकाल-सस्थापन-महाकाललिङ्गमहीधर-वाग्वजदण्डविष्ट्याविष्कृत-श्रीपार्श्वतीर्थेश्वर-प्रतिद्वन्द-श्रीसिद्धसेनभद्दारकाणाम् ॥१४॥"" ऐसी स्थितिम द्वात्रिंशिकाओंके कर्ता सिद्धसेनके विषयमें भी सहज अथवा निश्चितरूपसे यह नहीं कहा जा सकता कि वे एकान्ततः श्वेताम्बर सम्प्रदायके थे, सन्मतिसूत्रके कर्ता सिद्धसेनकी तो बात ही जुदी है। परन्तु सन्मतिकी प्रस्तावनामें प. सुखलालजी और पण्डित वेचरदासजीने उन्हें एकान्ततः श्वेताम्बर सम्प्रदायका प्राचाय प्रतिपादित किया है-लिखा है कि 'वे श्वेताम्बर थे, दिगम्बर नहीं (पृ. १०४)। परन्तु इस बातको सिद्ध करनेवाला कोई समर्थ कारण नहीं बतलाया, कारणरूपमे केवल इतना ही निर्देश किया है कि 'महावीरके गृहस्थाश्रम तथा चमरेन्द्रके शरणागमनकी बात सिद्धसेनने वर्णन की है जो दिगम्बरपरम्परामे मान्य नहीं किन्तु श्वेताम्बर आगमोके द्वारा निर्विवादरूपसे मान्य है और इसके लिये फुट. नोटमें ५वीं द्वात्रिशिकाके छठे और दूसरी द्वात्रिशिकाके तीसरे पद्यको देखनेकी प्रेरणा की है, जो निम्न प्रकार हैं: "अनेकजन्मान्तरभग्नमानः स्मरो यशोदाप्रिय यत्पुरस्ते । * चचार निहींकशरस्तमर्थ त्वमेव विद्यासु नयज्ञ कोऽन्यः ॥५-६॥" "कृत्वा नव सुरवधूभयरोमहर्ष दैत्याधिपः शतमुख-भ्रकुटीवितानः । त्वत्पादशान्तिगृहसश्रयलब्धचेता लज्जातनुद्य ति हरेः कुलिश चकार ॥२-३॥") (इनमेसे प्रथम पद्यमे लिखा है कि 'हे यशादाप्रिय । दूसरे अनेक जन्मोंमें भग्नमान हुश्रा कामदेव निर्लज्जतारूपी बाणको लिये हुए जो आपके सामने कुछ चला है उसके अर्थको आप ही नयके ज्ञाता जानते हैं, दूसरा और कौन जान सकता है ? अर्थात् यशोदाके साथ आपके वैवाहिक सम्बन्ध अथवा रहस्यको समझनेके लिये हम असमथ है।' दूसरे पद्यमें देवाऽसुर-सग्रामके रूपमें एक घटनाका उल्लेख है, जिसमें दैत्याधिप असुरेन्द्रने सुरवधुओंको भयभातकर उनके रोंगटे खड़े कर दिये। इससे इन्द्रका भ्रकुटी तन गई और उसने उसपर वन छोड़ा, असुरेन्द्रने भागकर वीरभगवानके चरणोंका आश्रय लिया जो कि शान्तिके धाम हैं और उनके प्रभावसे वह इन्द्रके वञको लज्जासे क्षीणद्युति करनेमें समर्थ हुआ। अलकृत भाषामें लिखी गई इन दोनों पौराणिक घटनाओका श्वेताम्बर सिद्धान्तोंके साथ काई खास सम्बन्ध नहीं है और इसलिये इनके इस रूपमें उन्लेख मात्रपरसे यह नहीं कहा जा सकता कि इन पद्योंके लेखक सिद्धसेन वास्तवमें यशोदाके साथ भ० महावीरका विवाह होना और असुरेन्द्र (चमरेन्द्र) का सेना सजाकर तथा अपना भयकर रूप बनाकर युद्धके लिये स्वर्गमें जाना आदि मानते थे, और इसलिये श्वेताम्बर सम्प्रदायके प्राचार्य थे, Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ पुरातन-जैनवाक्य-सूची क्योंकि प्रथम तो श्वेताम्बरोंके आवश्यकनियुक्ति आदि कुछ प्राचीन भागों में भी दिगम्बर आगमोकी तरह भगवान महावीरको कुमारश्रमणके रूपमे अविवाहित प्रतिपादित किया है। और असुरकुमार-जातिविशिष्ट-भवनवासी देवोके अधिपति चमरेन्द्रका युद्धकी भावनाको लिये हुए सैन्य सजाकर स्वर्गमें जाना सैद्धान्तिक मान्यताओंके विरुद्ध जान पड़ता है। दूसरे, यह कथन परवक्तव्यके रूपमे भी हो सकता है और आगमसूत्रोमें कितना ही कथन परवक्तव्यके रूपमें पाया जाता है इसकी स्पष्ट सूचना सिद्धसेनाचार्यने सन्मतिसूत्रमें की है और लिखा है कि ज्ञाता पुरुषको (युक्ति-प्रमाण-द्वारा) अर्थकी सङ्गतिके अनुसार ही उनको व्याख्या करनी चाहिए। यदि किसी तरहपर यह मान लिया जाय कि उक्त दोनो पद्योंमें जिन घटनाओंका उल्लेख है वे परवक्तव्य या अलङ्कारादिके रूपमें न होकर शुद्ध श्वेताम्बरीय मान्यताएँ हैं तो इससे केवल इतना ही फलित हो सकता है कि इन दोनों द्वात्रिंशिकाओं (२, ५)के कर्ता जो सिद्धसेन हैं वे श्वेताम्बर थे ) इससे अधिक यह फलित नही हो सकता कि दूसरी द्वात्रिशिकाओ तथा सन्मतिसूत्रके का सिद्धसेन भी श्वेताम्बर थे, जबतक कि प्रबल युक्तियोंके बलपर इन सब ग्रन्थोका कर्त्ता एक ही सिद्धसेनको सिद्ध न कर दिया जाय, परन्तु वह सिद्ध नहीं है जैसा कि पिछले एक प्रकरणमें व्यक्त किया जा चुका है। और फिर इस फलित होने में भी एक वाधा और आती है और वह यह कि इन द्वात्रिंशिकाओंमें कोई कोई बात ऐसी भी पाई जाती है जो इनके शुद्ध श्वेताम्बर कृतियाँ हानेपर नहीं बनती, जिसका. एक उदाहरण तो इन दोनोंमे उपयोगद्वयके युगपत्वादका प्रतिपादन है, जिसे पहले प्रदर्शित किया जा चुका है और जो दिगम्बर परम्पराका सर्वोपरि मान्य सिद्धान्त है तथा श्वेताम्बर आगमोंकी क्रमवाद-मान्यताके विरुद्ध जाता है। दूसरा उदाहरण पॉचवी द्वात्रिंशिकाका निम्न वाक्य है: "नाथ त्वया देशितसत्पथस्थाः स्त्रीचेतसोऽप्याशु जयन्ति मोहम् । नैवाऽन्यथा शीघ्रगतिर्यथा गा प्राची यियासुर्विपरीतयायी ॥२५॥ (इसके पूर्वार्धमें बतलाया है कि 'हे नाथ -वीरजिन | आपके बतलाये हुए सन्मार्गपर स्थित वे पुरुष भी शीघ्र मोहको जीत लेते हैं---मोहनीयकर्मके सम्बन्धका अपने प्रात्मासे पूर्णतः विच्छेद कर देते हैं जो 'स्त्रीचेतसः' होते है-त्रियो-जैसा चित्त (भाव) रखते हैं अर्थात् भावस्त्री होते हैं। और इससे यह साफ ध्वनित है कि स्त्रियाँ मोहको पूर्णतः जोतनेमें समर्थ नहीं होती, तभी स्त्रीचित्तके लिये मोहको जीतनेकी बात गौरवको प्राप्त होती है। श्वेताम्बर सम्प्रदायमें जव स्त्रियाँ भी पुरुषोकी तरह मोहपर पूर्ण विजय प्राप्त करके उसी भवसे मुक्तिको प्राप्त कर सकती हैं तब एक श्वेताम्बर विद्वानके इस कथनमें कोई महत्व मालूम नहीं होता कि 'स्त्रियो-जैसा चित्त रखनेवाले पुरुप भी शीघ्र मोहको जीत लेते हैं, वह निरर्थक जान पड़ता है। इस कथनका महत्व दिगम्बर विद्वानोंके मुखसे उच्चरित होनेमें ही है जो स्त्रीका मुक्तिका अधिकारिणी नहीं मानते फिर भी स्त्रीचित्तवाले भावस्त्री पुरुषों के लिये मुक्तिका विधान करते है । अतः इस वाक्यके प्रणेता सिद्धसेन दिगम्बर होने चाहिये, न कि श्वेताम्बर, और यह समझना चाहिये कि उन्होने इसी द्वात्रिंशिकाके छठे पद्यमें 'यशोदाप्रिय' पदके साथ जिस घटनाका उलेख किया है वह अलङ्कारकी प्रधानताको लिये हुए परवक्तव्यके रूपमें उसी प्रकारका कथन है १ देखो, अावश्यकनियुक्तिगाथा २२१, २२२, २२६ तथा अनेकान्त वर्ष ४ कि० ११-१२ पृ० १७६ ___पर प्रकाशित 'श्वेताम्बरोंमें भी भगवान् महावीरके अविवाहित होनेकी मान्यता' नामक लेख। - २ परवत्तन्वयपक्खा अविसिहा तेसु तेसु मुत्ते सु । अत्यगई उ तेसि वियजण जाणो कुणइ ॥२.१८॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ प्रस्तावना - जिस प्रकार कि ईश्वरको कर्ता-हर्ता न माननेवाला एक जैनकवि ईश्वरको उलहना अथवा उसकी रचनामें दोष देता हुआ लिखता है "हे विधि ! भूल भई तुमतें, समुझे न कहाँ कस्तूरि बनाई । दीन कुरङ्गनके तनमें, तृन दन्त धरै करुना नहिं आई !! क्यों न रची तिन जीभनि जे रस काव्य करै परको दुखदाई ! साधु-अनुग्रह दुर्जन-दण्ड, दुहूँ सधते विसरी चतुराई !!" इस तरह सन्मतिके कर्ता सिद्धसेनको श्वेताम्बर सिद्ध करनेके लिये जो द्वात्रिशिकाओंके उक्त दो पद्य उपस्थित किये गये है उनसे सन्मतिकार सिद्धसेनका श्वेताम्बर सिद्ध होना तो दूर रहा, उन द्वात्रिंशिकाओके कर्ता सिद्धसेनका भी श्वेताम्बर होना प्रमाणित नहीं होता जिनके उक्त दोनो पद्य अङ्गरूप हैं । श्वेताम्बरत्वकी सिद्धिके लिये दूसरा और कोई प्रमाण उपस्थित नहीं किया गया और इससे यह भी साफ़ मालूम होता है कि स्वय सन्मतिसूत्रमें ऐसी कोई बात नहीं है जिससे उसे दिगम्बरकृति न कहकर श्वेताम्बरकृति कहा जा सके, अन्यथा उसे जरूर उपस्थित किया जाता। सन्मतिमें ज्ञान-दर्शनोपयोगके अभेदवादकी जो खास बात है वह दिगम्बर मान्यताके अधिक निकट है, दिगम्बरोंके युगपद्वादपरसे ही फलित होती है-न कि श्वेताम्बरोंके क्रमवादपरसे, जिसके खण्डनमें युगपद्वादकी दलीलोंको सन्मतिमें अपनाया गया है। और श्रद्धात्मक दर्शन तथा सम्यग्ज्ञानके अभेदवादकी जो बात सन्मति द्वितीयकाण्डकी गाथा ३२-३३में कही गई है उसके बीज श्रीकुन्दकुन्दाचार्यके समयसार ग्रन्थमें पाये जाते हैं। इन बीजोकी बातको प० सुखलालजी आदिने भी सन्मतिकी प्रस्तावना (पृ० ६२)में स्वीकार किया है—लिखा है कि "सन्मतिना (का० २ गाथा ३२) श्रद्धा-दर्शन अने ज्ञानना ऐक्यवादनु बीज कुदकुदना समयसार गा० १-१३ मा स्पष्ट छे।" इसके सिवाय, समयसारकी 'जो पस्सदि अप्पाण' नामकी १४वीं गाथामें शुद्धनयका स्वरूप बतलाते हुए जब यह कहा गया है कि वह नय आत्माको अविशेषरूपसे देखता है तब उसमें ज्ञान-दर्शनोपयोगकी भेद-कल्पना भी नहीं बनती और इस दृष्टिसे उपयोग-द्वयकी अभेदवादताके बीज भी समयसारमे सन्निहित है ऐसा कहना चाहिये। हॉ, एक बात यहॉ और भी प्रकट कर देनेकी है और वह यह कि प० सुखलालजीने 'सिद्धसेनदिवाकरना समयनो प्रश्न' नामक लेखमे देवनन्दी पूज्यपादको "दिगम्बर परम्पराका पक्षपाती सुविद्वान्" बतलाते हुए सन्मतिके कर्ता सिद्धसेनदिवाकरको "श्वेताम्बरपरम्पराका समर्थक आचार्य' लिखा है, परन्तु यह नहीं बतलाया कि वे किस रूपमे श्वेताम्बरपरम्पराके समर्थक हैं।) दिगम्बर और श्वेताम्बरमें भेदकी रेखा खींचनेवाली मुख्यतः तीन बातें प्रसिद्ध हैं-१ स्त्रीमुक्ति, २ केवलिभुक्ति (कवलाहार) और ३ सवनमुक्ति, जिन्हें श्वेताम्बर सम्प्रदाय मान्य करता और दिगम्बर सम्प्रदाय अमान्य ठहराता है। इन तीनोंमेंसे एकका भी प्रतिपादन सिद्धसेनने अपने किसी ग्रन्थमे नहीं किया है और न इनके अलावा अलकृत अथवा शृङ्गारित जिनप्रतिमाओंके पूजनादिका ही कोई विधान किया है, जिसके मण्डनादिककी भी सन्मतिके टीकाकार अभयदेवसूरिको जरूरत पड़ी है और उन्होंने मूलमे वैसा कोई खास प्रमग न होते १ यहाँ जिस गाथाकी सूचना की गई है वह 'दसणणाणचरित्ताणि' नामकी १६वीं गाथा है । इसके अतिरिक्त ववहारेणुवदिस्सइ णाणिस्स चरित्त दसण णाण' (७), 'सम्मद सणणाण एसो लहदि त्ति णवरि ववदेस' (१४४), और ''णाण सम्मादिट्ट दु सजमं सुत्तमंगपुव्वगयं' (४०४) नामकी गाथाओंमें भी अमेदवादके बीज संनिहित हैं।' २ भारतीयविद्या, तृतीय भाग पृ० १५४ । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची हुए भी उसे यो सी टीकामें लाकर घुसेडा है । ऐसी स्थितिमें सिद्धसेनदिवाकरको दिगम्वरपरम्परासे भिन्न एकमात्र श्वेताम्बरपरम्पराका समर्थक आचार्य कैसे कहा जा सकता है। नहीं कहा जा सकता । सिद्धसेनने तो श्वेताम्बरपरम्पराकी किसी विशिष्ट वातका कोई समर्थन न करके उल्टा उसके उपयोग-द्वय विपयक क्रमवादकी मान्यताका सन्मतिमें जोरोंके साथ खण्डन किया है और इसके लिये उन्हें अनेक साम्प्रदायिक कट्टरताके शिकार श्वेताम्बर आचार्योंका कोपभाजन एवं तिरस्कारका पात्र नक बनना पड़ा है । मुनि जिनविजयजीने 'सिद्धसेनदिवाकर और स्वामी समन्तभद्र' नामक लेखमें उनके इस विचारभेदका उल्लेख "सिद्धसेनजीके इस विचारभेदके कारण उस समयके सिद्धान्त-ग्रन्थ-पाठी और आगमप्रवण आचार्यगण उनको 'तम्मन्य' जैसे तिरस्कार-व्यञ्जक विशेषणोसे अलकृत कर उनके प्रति अपना सामान्य अनादर-भाव प्रकट किया करते थे।" __ "इस (विशेपावश्यक) भाष्यमे क्षमाश्रमण (जिनभद्र)जीने दिवाकरजीके उक्त विचारभेदका खूब ही खण्डन किया है और उनको 'आगम-विरुद्ध-भापी' बतलाकर उनके सिद्धान्तको अमान्य बतलाया है।' ___ "सिद्धसेनगणीने 'एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्व्यः' (१-३१) इस सूत्रकी व्याख्यामे दिवाकरजीके विचारभेदके ऊपर अपने ठीक वाग्वाण चलाये है । गणीजीके कुछ वाक्य देखिये- 'यद्यपि केचित्पण्डितंमन्याः सूत्रान्यथाकारमर्थमाचक्षते तर्कबलानुविद्धवुद्धयो वारंवारेणोपयोगो नास्ति, तत्त न प्रमाणयामः, यत आम्नाये भूयांसि सूत्राणि वारवारेणोपयोगं प्रतिपादयन्ति ।" दिगम्बर साहित्यमे ऐसा एक भी उल्लेख नहीं जिसमें सन्मतिसूत्रके कर्ता सिद्धसेनके प्रति अनादर अथवा तिरस्कारका भाव व्यक्त किया गया हो-सर्वत्र उन्हें बडे ही गौरवके साथ स्मरण किया गया है, जैसा कि ऊपर उद्धत हरिवंशपुराणादिके कुछ वाक्योंसे प्रकट है। अकलवदेवने उनके अभेदवादके प्रति अपना मतभेद व्यक्त करते हुए किसी भी कटु शब्दका प्रयोग नहीं किया, बल्कि बड़े ही आदरके साथ लिखा है कि "यथा हि असद्भूतमनुपदिष्ट च जानाति तथा पश्यति किमत्र भवतो हीयते" अर्थात् केवली (सर्वज्ञ) जिस प्रकार असद्भूत और अनुपदिष्टको जानता है उसी प्रकार उनको देखता भी है इसके माननेमें आपकी क्या हानि होती है ?-वास्तविक बात तो प्रायः ज्योकी यो एक ही रहती है। अकलकदेवक प्रधान टीकाकार आचार्य श्रीअनन्तवीर्यजीने सिद्धिविनिश्चयकी टीकामे 'असिद्धः सिद्धसेनस्य विरुद्धो देवनन्दिनः । द्वेधा समन्तभद्रस्य हेतुरेकान्तसाधने ।' इस कारिकाकी व्याख्या करते हुए सिद्धसेनको महान् आदर-सूचक 'भगवान्' शब्दके साथ उलेखित किया है और जब उनक किसी स्वयूथ्यने-स्वसम्प्रदायके विद्वान्ने यह आपत्ति की कि 'सिद्धसेनने एकान्तके साधनम प्रयुक्त हेतुको कहीं भी असिद्ध नहीं बतलाया है अतः एकान्तके साधनमे प्रयुक्त हेतु सिद्धसनकी दृष्टिमे प्रसिद्ध है' यह वचन सूक्त न होकर अयुक्त है, तब उन्होंने यह कहते हुए कि क्या उसने कभी यह वाक्य नहीं सुना है' सन्मतिसूत्रकी 'जे सतवायदोसे' इत्यादि कारिका (३-५०) को उद्धृत किया है और उसके द्वारा एकान्तसाधनमे प्रयुक्त हेतुको सिद्धसेनकी दृष्टिम 'श्रसिद्ध प्रतिपादन करना सन्निहित बतलाकर उसका समाधान किया है। यथाः१ देखो, सन्मति-तृतीयकाण्डगत गाथा ६५की टीका (पृ० ७५४), जिसमें "भगवत्प्रतिमाया भूषणाया रोपण कर्मक्षयकारण" इत्यादि रूपसे मण्डन किया गया है। ५२ जनसाहित्यसशोधक, भाग १ अङ्क १ पृ० १०, ११ । करते हुए लिखा है Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १६७ “असिद्ध इत्यादि, स्वलक्षणैकान्तस्य साधने सिद्धावङ्गीक्रियमानाया सर्वो हेतुः सिद्धसेनस्य भगवतोऽसिद्धः। कथमिति चेदुच्यते । ततः सूक्तमेकान्तसाधने हेतुरसिद्धः सिद्धसेनस्येति । कश्चित्स्वयूथ्योऽत्राह—सिद्धसेनेन क्वचित्तस्याऽसिद्धस्याऽवचनादयुक्तमेतदिति । तेन कदाचिदेतत् श्र त—‘जे सतवायदोसे सक्कोल्ल्या भांति सखाणं । सखा य सव्वाए तेसिं सव्वे वि ते सच्चा' ॥” इन्हीं सब बातोको लक्ष्यमे रखकर प्रसिद्ध श्वेताम्बर विद्वान् स्वर्गीय श्रीमोहनलाल दलीचन्द देशाई बीए. ए, एल-एल. वी. एडवोकेट हाईकोर्ट बम्बईने, अपने 'जैन - साहित्यनो सक्षिप्त इतिहास' नामक गुजराती ग्रन्थ (पृ. ११६ ) मे लिखा है कि “सिद्धसेनसूरि प्रत्येनो आदर दिगम्बरो विद्वानोमा रहेलो देखाय छे” अर्थात् (सन्मतिकार) सिद्धसेनाचार्य प्रि दिगम्बर विद्वानोंमे रहा दिखाई पड़ता है - श्वेताम्बरोमें नही । साथ ही हरिवंशपुराण, राजवार्तिक, सिद्धिविनिश्चय-टीका, रत्नमाला, पार्श्वनाथचरित और एकान्तखण्डन-जैसे ग्रन्थों तथा उनके रचयिता जिनसेन, अकलङ्क, अनन्तवीर्य, शिवकोटि, वादिराज और लक्ष्मीभद्र(धर) जैसे दिगम्बर विद्वानोंका नामोल्लेख करते हुए यह भी बतलाया है कि 'इन दिगम्बर विद्वानोने सिद्धसेनसूरि-सम्बन्धी और उनके सन्मतितर्क-सम्बन्धी उल्लेख भक्तिभाव से किये हैं. और उन उल्लेखोसे यह जाना जाता है कि दिगम्बर ग्रन्थकारोंमे घना समय तक सिद्धसेन के (रक्त) ग्रन्थका प्रचार था और वह प्रचार इतना अधिक था कि उसपर उन्होंने टीका भी रची है । ब इस सारी परिस्थितिपरसे यह साफ समझा जाता और अनुभवमें आता है कि सन्मतिसूत्रके कर्ता सिद्धसेन एक महान दिगम्बराचार्य थे, और इसलिये उन्हे श्वेताम्बर - परम्पराका अथवा श्वेताम्बरत्वका समर्थक आचार्य बतलाना कोरी कल्पनाके सिवाय और कुछ भी नहीं है । वे अपने प्रवचन - प्रभाव आदिके कारण श्वेताम्बरसम्प्रदायमे भी उसी प्रकार से अपनाये गये हैं जिस प्रकार कि स्वामी समन्तभद्र, जिन्हें श्वेताम्बर पट्टावलियोमें पट्टाचार्य तकका पद प्रदान किया गया है और जिन्हें प० सुखलाल, प० बेचरदास और मुनि जिनविजय आदि बड़े-बड़े श्वेताम्बर विद्वान् भी अब श्वेताम्बर न मानकर दिगम्बर मानने लगे हैं । 1 " कतिपय द्वात्रिंशिकाओके कर्ता सिद्धसेन इन सन्मतिकार सिद्धसेन से भिन्न तथा पूर्ववर्ती दूसरे ही सिद्धसेन हैं, जैसा कि पहले व्यक्त किया जा चुका है, और सम्भवतः वे ही उज्जयिनीके महाकालमन्दिरखाली घटनाके नायक जान पड़ते हैं। हो सकता है कि वे शुरूसे श्वेताम्बर सम्प्रदाय में ही दीक्षित हुए हो, परन्तु श्वेताम्बर आगमोंको सस्कृतमें कर देने का विचारमात्र प्रकट करनेपर जब उन्हें बारह वर्ष के लिये सघबाह्य करने जैसा कठोर दण्ड दिया गया हो तब वे सविशेषरूपसे दिगम्बर साधुओं के सम्पर्क में आए हों, उनके प्रभावसे प्रभावित तथा उनके सस्कारों एवं विचारोंको ग्रहण करनेमें प्रवृत्त हुए हो - खासकर समन्तभद्रस्वामी के जीवनवृत्तान्तों और उनके साहित्यका उनपर सबसे अधिक प्रभाव पडा हो और इसी लिये वे उन्हीं जैसे स्तुत्यादिक कार्योंके करने में दत्तचित्त हुए हों। उन्हींके सम्पर्क एव सस्कारोंमे रहते हुए हो सिद्धसेनसे उज्जयिनीकी वह महाकालमन्दिरवाली घटना बन पडी हो, जिससे उनका प्रभाव चारों ओर फैल गया हो और उन्हें भारी राजाश्रय प्राप्त हुआ हो । यह सब देखकर ही श्वेताम्बरसघको अपनी भूल मालूम पडी हो, उसने प्रायश्चित्तकी शेष अवधिको रद्द कर दिया हो और सिद्धसेनको अपना ही साधु तथा प्रभावक आचार्य घोषित किया हो । अन्यथा, द्वात्रिंशिका परसे सिद्धसेन गम्भीर विचारक एव कठोर समालोचक होने के साथ साथ जिस उदार स्वतन्त्र और निर्भय - प्रकृतिके समर्थ विद्वान् जान पड़ते हैं उससे यह आशा नहीं की जा मकती कि उन्होंने ऐसे अनुचित एव अविवेकपूर्ण दण्डको यो ही चुपके से गर्दन झुका कर मान लिया हो, उसका कोई प्रतिरोध न किया हो अथवा अपने लिये Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ पुरातन-जैनवाक्य-सूची कोई दूसरा मार्ग न चुना हो । सम्भवतः अपने साथ किये गये ऐसे किसी दुर्व्यवहारके कारण ही उन्होंने पुराणपन्थियो अथवा पुरातनप्रेमी एकान्तियोंकी (द्वा० ६में) कड़ी आलोचनाएँ की हैं।) यह भी हो सकता है कि एक सम्प्रदायने दूसरे सम्प्रदायकी इस उज्जयिनीवाली घटनाको अपने सिद्धसेनके लिये अपनाया हो अथवा यह घटना मूलतः कॉची या काशीमें घटित होनेवाली समन्तभद्रकी घटनाको ही एक प्रकारसे कापी हो और इसके द्वारा सिद्धसेनको भी उसप्रकारका प्रभावक ख्यापित करना अभीष्ट रहा हो । कुछ भी हो, उक्त द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता सिद्धसेन अपने उदार विचार एव प्रभावादिके कारण दोनों सम्प्रदायोंमें समानरूपसे माने जाते हैं- चाहे वे किसी भी सम्प्रदायमे पहले अथवा पीछे दीक्षित क्यों न हुए हों। ___ परन्तु न्यायावतारके कर्ता सिद्धसेनकी दिगम्बर सम्प्रदायमे वैसी कोई खास मान्यता मालूम नहीं होती और न उस ग्रन्थपर दिगम्बरोंकी किसी खास टीका-टिप्पणका ही पता चलता है, इसीसे वे प्रायः श्वेताम्बर जान पड़ते हैं। श्वेताम्बरोके अनेक टीका-टिप्पण भी न्यायावतारपर उपलब्ध होते हैं-उसके 'प्रमाण स्वपराभासि' इत्यादि प्रथम श्लोकको लेकर तो विक्रमकी ११वीं शताब्दीके विद्वान् जिनेश्वरसूरिने उसपर 'प्रमालक्ष्म' नामका एक सटीक वार्तिक ही रच डाला है, जिसके अन्तमें उसके रचनेमें प्रवृत्त होनेका कारण उन दुर्जनवाक्योंको बतलाया है जिनमें यह कहा गया है कि इन 'श्वेताम्बरोंके शब्दलक्षण और प्रमाणलक्षणविषयक कोई ग्रन्थ अपने नहीं हैं, ये परलक्षणोपजीवी है-बौद्ध तथा दिगम्बरादि ग्रन्थोंसे अपना निर्वाह करनेवाले है अतः ये आदिसे नहीं-किसी निमित्तसे नये ही पैदा हुए अर्वाचीन है। साथ ही यह भी बतलाया है कि 'हरिभद्र, मल्लवादी और अमयदेवसूरि-जैसे महान् आचार्योके द्वारा इन विषयोकी उपेक्षा किये जानेपर भी हमने उक्त कारणसे यह 'प्रमालक्ष्म' नामका ग्रन्थ वार्तिकरूपमे अपने पूर्वाचार्यका गौरव प्रदर्शित करनेके लिये (टोका'पूर्वाचार्यगौरव-दर्शनार्थ") रचा है और (हमारे भाई) बुद्धिसागराचार्यने संस्कृत-प्राकृत शब्दोकी सिद्धिके लिये पद्योमे व्याकरण ग्रन्थकी रचना की है।) इस तरह सन्मतिसूत्रके कर्ता सिद्धसेन दिगम्बर और न्यायावतारके कर्ता सिद्धसेन श्वेताम्बर जाने जाते हैं। द्वात्रिंशिकाओंमेंसे कुछके कर्ता सिद्धसेन दिगम्बर और कुछके कता श्वेताम्बर जान पड़ते हैं और वे उक्त दोनों सिद्धसेनोसे भिन्न पूर्ववर्ती तथा उत्तरवर्ती अथवा उनसे अभिन्न भी हो सकते है। ऐसा मालूम होता है कि उज्जयिनीकी उस घटनाके साथ जिन सिद्धसेनका सम्बन्ध बतलाया जाता है उन्होने सबसे पहले कुछ द्वात्रिंशिकाओंकी रचना की है, उनके बाद दूसरे सिद्धसेनोने भी कुछ द्वात्रिंशिकाएँ रची हैं और वे सब रचयिताओके नामसाम्यके कारण परस्परमें मिलजुल गई हैं, अतः उपलब्ध द्वात्रिशिकाओंमें यह निश्चय करना कि कौन-सी द्वात्रिंशिका किस सिद्धसेनकी कृति है विशेष अनुसन्धानसे सम्बन्ध रखता है। साधारणतौरपर उपयोग-द्वयके युगपद्वादादिकी दृष्टिसे, जिसे पीछे स्पष्ट किया जा चुका है। प्रथमादि पॉच द्वात्रिंशिकाओको दिगम्बर सिद्धसेनकी, १९वी तथा २१वी द्वानिाशकार श्वेताम्बर सिद्धसेनकी और शेष द्वात्रिशिकाओको दोनोमेंसे किसी भी सम्प्रदायक सिद्धसनका अथवा दोनो ही सम्प्रदायोके सिद्धसेनोंकी अलग अलग कृति कहा जा सकता है। यहा इन विभिन्न सिद्धसेनोके सम्प्रदाय-विषयक विवेचनका सार है। १ देखो, वार्तिक नं०४०१से ४०५ और उनकी टीका अथवा जैनहितैषी भाग १३ अङ्क प्रकाशित मुनि जिनविजयजीका 'मालक्षण' नामक लेख । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. उपसंहार और आभार इस प्रकार यह सब उन मूलग्रन्थों तथा उनके रचयिता आचार्यादि ग्रन्थकारोंका यथावश्यक और यथासाध्य संक्षेप - विस्तार से परिचय है जिनके पद-वाक्योंको प्रस्तुत सूची (अनुक्रमणी) में शामिल अथवा सग्रहीत किया गया है. 1 अब मैं प्रस्तावनाको समाप्त करता हुआ उन सब सज्जनोका आभार प्रकट कर देना अपना कर्तव्य समझता हॅू जिनका इस ग्रन्थके निर्माणादि कार्यों में मुझे कुछ भी क्रियात्मक अथवा उल्लेखनीय सहयोग प्राप्त हुआ है । सबसे पहले मैं श्रीमान् साहू शान्तिप्रसादजी और उनकी धर्मपत्नी श्रीमती रमारानीजीका हार्दिक आभार प्रकट करता हूँ जिन्होंने इस ग्रन्थके निर्माण और प्रकाशन-कार्य में अपना आर्थिक सहयोग प्रदान किया है । तत्पश्चात् अपने आश्रम वीरसेवामन्दिर दो विद्वानो न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी कोठिया और प० परमानन्दजी शास्त्री के प्रति भी मैं अपना आभार प्रकट करता हूं जो ग्रन्थ के संशोधन-सम्पादन और प्रूफरीडिङ्ग आदि कार्योंमे बराबर सहयोगी रहे हैं। साथ ही आश्रमके उन भूतकालीन विद्वानो पति ताराचन्दजी दर्शनशास्त्री, प० शकरलालजी न्यायतीर्थ और पं० दीपचन्दजी पाण्ड्या को भी मैं इस अवसर पर नहीं भुला सकता जिनका इस ग्रन्थ में पूर्व-सूचनानुससार प्रेसकापी आदिके रूपमें कुछ क्रियात्मक सहयोग रहा है, और इसलिये मैं उनका भी आभारी हूँ । प्रोफेसर ए० एन० उपाध्येजी एम० ए०, डी० लिट० कोल्हापुरने इस ग्रन्थकी अग्रेजी प्रस्तावना ( Introduction ) लिखकर और समय- समयपर अपने बहुमूल्य परामर्श देकर बहुत ही अनुग्रहीत किया है, और इसलिये उनका मैं यहांपर खासतौर से आभार मानता हूँ । भूतबलि-पुष्पदन्ताचार्यकृत पट्खण्डागमपरसे जिन गाथासूत्रों को स्पष्ट करके परिशिष्ट न० २ मे दिया गया है उनमे से दो एक तो पं० फूलचन्दजी सिद्वान्तशास्त्रीकी खोजसे सम्बन्ध रखते हैं और शेषपर उनकी अनुमति प्राप्त हुई है । अतः इसके लिये वे भी आभारके पात्र हैं । पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने स्याद्वाद विद्यालय बनारमसे, बाबू पन्नालालजी अग्रवाल देहलीने देहली - धर्मपुरा के नये मन्दिरसे तथा बाबू कपूरचन्द ( मालिक महावीर प्रेस ) आगरा ने मोतीकटरा-जैनमन्दिरसे 'तिलोय पत्ती' की हस्तलिखित प्रति भेजकर और ला प्रद्युम्नकुमार जी जैन रईस सहारनपुर ने अपने मन्दिर के शास्त्र भण्डारसे उसे तुलना के लिये देकर और इसी तरह, श्रीरामचन्द्रजो खिन्दुका जयपुरने आमेर के शास्त्र भण्डार से प्राकृत 'पचसंहग्रह' आदि की कुछ पुरानी प्रतियॉ भेज कर तथा 'जबूदीव पण्णत्ती की प्रतिको तुलनाके लिये देकर सूची के कार्यमें जो सहायता हुहुंचाई है उसके लिये ये सब सज्जन मेरे आभार एवं धन्यवाद के पात्र हैं इसके सिवाय, प्रस्तुत प्रस्तावना के खासकर उसके 'ग्रंथ और ग्रंथकार' नामक विभाग के - लिखने मे जिन विद्वानोके ग्रंथो, लेखों, प्रस्तावना - वाक्यों आदिपरसे मुझे कुछ भी सहायता प्राप्त हुई है अथवा जिनके अनुकूल-प्रतिकूल विचारोको पाकर मुझे उस विपयमें विशेषरूपसे कुछ विचार करने तथा लिखनेकी प्रेरणा मिली है उन सब विद्वानोका भी मै हृदयसे आभारी हूं - उनकी कृतियों तथा विचारो के सम्पर्क में आए विना प्रस्तावनाको वर्तमान रूप प्राप्त होता, इसमे सन्देह ही है । 1 अन्तमें मैं बाबू त्रिलोकचन्दजी जैन सरसावाका भी हृदयसे आभार व्यक्त करता हूँ जो सहारनपुर-प्रेससे अधिकांश प्रफोको कृपया लाते और करैक्शन हो जानेपर उन्हें प्रेसका पहुँचाते रहे हैं। जुगलकिशोर मुख्तार वीरसेवामन्दिर, सरसावा जि० सहारनपुर Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ ४८ ५०, ५१ 26 ६१ ह२ ११६ १२० १२१ १२२ عة ؟ "" " १३१ 17 " 99. १४२ १६० 37 १६१ " १६६ पंक्ति X ३६ ३७ ५ C २१ ३८ २५ १२ ३६ ३८ 3 १७, २६ २०, ३०, ३३ २७ ३३ २३ ३६ प्रस्तावनाका संशोधन अशुद्ध शुद्ध उपस्थित करके उपस्थित न करके ( ५० वें पृष्ठका मैटर ५१ वें टपर और ५१ वेंका मैटर ५० वे पृष्ठ पर छप गया है अतः पृष्ठ ५० को ५१ तथा ५१ को ५० बना ले और तदनुसार ही पढ़ने की कृपा करें । ) धवला निम्नकरण आकिकी जाता है पिदिष्टा वत्तव्य 襄 विषोग्रह प्रासादस्थिात् विविध तीर्थकल्प द्वात्रिशकाओं बतलाया जीवन वृत्तान्त त्रियेण आर्यवपुद्राचार्य रुकै सिरूसेन उल्लेख करते हुए लिखा है— जयधवला निम्न कारण आदिकी जाता है ? निर्दिष्टा वत्तवं है विषोयग्रह प्रासादस्थितात् विविधतीर्थकल्प द्वात्रिंशिकाओं बतलाता जीवनवृत्तान्त त्रयेण खट्टाचार्य रुकैरिव सिद्धसेन उल्लेख करते हुए लिखा है X Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्ताक्काकी नाम-सूची। - - अकलक ५०, ५३, १३४ १३६ | अममचरित्र १६१ आराधनासार ५६, ६१ १५१ १५२ १६७, १०७ अमितगति २१, ६६, १०० आर्यखपुट १६० अफलक-चरित १४५ अमृतचन्द्र १३, १२१ १२६ । आर्यमन ३०, ३५, ३६, ४१ अकलकदेव ५१. ५३, ६७ अमृतलाल सवचन्द्र ६८ आर्यमगु ३०, ३१, १६० ११६ १४१, १४२, १४४ अम्बक (नगर)६८ आयमित्रनन्दी २१ १४५ १५४, १५६ १५६, अम्बालाल चवरे दि० जैन ग्रन्थ आयरक्षित १४६ १६६ माला ११७ आर्यवज्र १४६ अकलक-प्रतिष्ठापाठ ५ अरुगलान्वय ३७ आयसेन १६६ अगलदेव १०३ अर्घकाण्ड ६६. आवश्यकचूणि १४६ अग्रायणी पूर्व २० अहंद्वलि ११५ आवश्यक नियुक्ति १४५ १५१, अङ्गप्रज्ञाप्त ११२ ११३ अर्हन्मुनि १६२ १६४ अजितप्रसाद ८६ अलङ्कारचिन्तामणि १५८ आवश्यकहारिभद्रीया टीका १४६ अजितब्रह्म ११२ अवचूरि ३१ १५६ आशाधर २१ २३, ६६, १०० अजित य)सेन ६६ अविनीत (राजा) १५३ आश्रम (नगर)६३ अजितजय ३३ अष्टशती १३७, १५४ स्रपत्रिभगी १११ अन्जज्जसेण ६६ अण्टसहस्त्री-टिप्पण १२१ आहाड (ग्राम) ६६ अजमखु ३० असग १४३ १४४ इत्सिग (चीनी यात्री) १४६ अनगारधर्मामृत ५ आचारवृत्ति १८, १०० इन्द्र १६२ अनन्तवीर्य १६६, १६७ आचाराङ्ग ३७ इन्द्रगुरु १६२ अनेकान्त (मा. पत्र) १६, ३४, आचारागनियुक्ति १२८ इन्द्रदत्त १६२ ५६, ६६, ७५, ८३, ८६, आचारागसूत्र १८ इन्द्रदिन्न १६०, १६२ ८६,६५, ६७, १००, ११६ आचार्यपूजा १५६ इन्द्रनन्दि १६, २०, ३४-३६, १५३, १६४ आचार्यभक्ति १६, १८ ६७, ७१-७३, ६३, १०५अनेकान्तजयपताका १२१, १४६ | आणंदराम ११८ १०७, १०६ अपभ्रंश : आत्मानन्दप्रकाश १४६ इन्द्रनन्दि-श्रुतावतार ३५, ३६ अपराजितमूरि २१, ४६, ६६ आत्मानुशासन १४ इन्द्रनन्दिसंहिता १०८ अभयचन्द्र ८८, ८६,६१,११० | स्मादिनाथ १३१ इन्द्रसुत (चतुर्मुख) ३३ आदिपुराण ५, ६२, १५६, १५८ | इन्द्रसेन १६२ अभयदेव १२०, १२१, १२८, | प्राप्तमीमांसा १३३, १३६, १५३ | इन्स्क्रिपशन्स ऐट् श्रवणबेल्गोल आप्तमीमांसा १३३, १३६, १५३ शासन १३५, १४५, १४८, १४६, १५४, १५७ १५६ १५६, १६५, १६८ आमेर (जयपुर)८, ६४, ६५, इंगलेश्वर ३८, ११०, १११ अभयनन्दि ६७, ७१, ७२, ६३ | उग्रादित्याचार्य १२७ अभयमूरि ८६, ११०, १११ | आयज्ञानतिलक १०१, १०२ उच्चारणाचार्य २० अभयसेन १५८ | आराधना (संस्कृत) २१ | उज्जयिनी १६०,१६३,१६७, १६८ १११, Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १७० पुरानन-जैनवाक्य-सूची उत्तरदेश ७ कर्मग्रन्थ (चतुर्थ) ६६ ८६., १०३, ११. १५ उत्तरपुराण ५ कर्मग्रन्थ (छठा) ६७ कुमार २४, २७ उत्तराध्ययननियुक्ति १४६ । कर्मप्रकृति ७५, ७६, ८१, ८८, कुमारनन्दी ३७, ४६.६७ उद्योतनमूरि १५० ६४, ६७ कुमारसेन २७ उपसग्गहरस्तोत्र १४६ कर्मम्तव ६७ कुमारस्वामी २७ उपाध्याय यशोविजय १३५, । कलापा भरमापा निटवे १५ । कुमुदचन्द्र १२७ १२८ १३६ १३८, १३६ कल्पव्यवहार १०५, १०८ कुम्भनगर ६८ उपासकाचार(अमितगति) १०० | कल्पमूत्रस्थविरावलि ३१, १५६ / कुरुजांगलदेश ६० ११६ कल्याणकारक (ग्रन्थ) १२७ कुवलयमाला १५० उमास्वाति २४-२६, १५१, १५२ कल्याणमन्दिर (स्तोत्र) १२७, के०वी०पाठक ३३ १५२ १५३ १५७ १२८, १३३, १६० केशववर्णी ८८-६१ उमास्वामिश्रावकाचार-परीक्षा ५ । कल्याण विजय १५६, १५७ केशवसेन १२७ ए०एन०उपाध्ये ६, ७, ११, १५. कल्याणालोचना ११२ कैलाशचन्द्र ७५ १६६ १८, २३, ३६, ५८, ५६, ६६ | कविपरमेश्वर ५५ कोक (कवि) १०२ ७०, ८६, ११६, १६६ ।। कपायप्राभृत ३५, ३६, ६६ कोकशास्त्र २०२ एकविंशति-स्थान-प्रकरण १२६ । कसायपाहुड ९, १०, १६, २८, | कोटा राज्य ६६ एकसधि मुनि १०७ २६, ३०. ३५, ६१, ६६ कोएडकुन्द १८. १६. ३८, ११० एकान्तखण्डन १६७ कारकल ७० कोण्डकुण्डपुर १२, ३५-३८ एपिग्रेफिया काटिका ६१ कार्तिक २३ कोएडकुन्द्रान्वय ३७ एयसंधिगणि १०७ कार्तिकेय २२, २३ २६ क्रियाकलाप १०८ एरेगित्तु (गण) ६७ कर्तिकेयानुप्रेक्षा १०, २२, २३. | क्रौंचराज २३, २६ एशियाटिक सोसाइटी कलकत्ता | २४, २५, ११३ क्षपणासार ७६ ६२ १२६ १४० कालकमूरि १६० क्षमाश्रमण ३०, १४५ १६६ ऐलक पन्नालाल दि०जैन सरस्वती कालिकाचार्य १४६ खण्डेलवालवंश ८६ भवन ८६, ६६, १००, ११२ । काशीप्रसाद जायसवाल ३३ खपुट्टाचार्य १६० कट्ठसंघ ६० काष्ठासंघ ५६.६०, १०४ खूबचन्द ८६ कथाकोप २३, २५ कांची. काशी ३१, ३२, १६८ गङ्गवश,६६ कनकनन्दी ७२, ७३, ७४, १०८ | कित्तर कित्तूरान्वय ३७ गणोजो १६६ कनकामर १५६ कीर्तिनन्दी ४६, ६७ गद्यप्रवन्धकथावली १३० कपूरचन्द ६, १६६ कुण्डनगर १०३ गांधी हरिभाई-देवकरण-प्रन्यकमलशील १४२ कुन्थुनाथ ३४ माला ८६ करकडुचरित ११३, १५६ कुन्दकुन्द१२-१६, १८,१६, २२, गुजरात ११७ करणस्वरूप २६ २३,२४, २६, ३४-३६,४१, गुणकिर्ति ६० कीटक शब्दानुशासन १५६ ५८ ५९, ६२, १६, १२०, गुणचन्द्र ३६, ३७ कर्णामृतपुराण १२७ १२२, १५१, १५२, १६५ गुणधर १६, २८-३०, ३५, ३६, कोटक ८६ कुन्दकुन्द अन्वय ८६ कर्मकाण्ड ६८, ७०, ७१, ७३, कुन्दकुन्दपुर ३८ । गुणनन्दी ७२ ७४, ७६, ८१, ८२, ८५- कुन्दकुन्दपुरान्वय ३८ गुणभद्र(सूरि) १४ १०७ ६०, ६४ कुन्दकुन्द-श्रा०-परीक्षा ५ गुणरत्न १२७ कर्मग्रन्थ (द्वितीय) ६७ कुन्दकुन्दान्वय १२, ३६, ३८५६ / गुरुगुणषट्त्रिंशत् पत्रिंशिका १६३ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रस्तावनाकी नामसूची १७३ गुरुपर्वक्रमवर्णन १५६ चामुण्डरायपुराण ७० जीतकल्पचूर्णि ५१६, १२६ गुर्वावली १६० चामुण्डरायवस्ति ७० जीतशास्त्र १०८ गुहिलवश ६६ चामुण्डरायवृत्ति ६० जीवकाण्ड ६८, ६६, ७६, ८४, गो०जी०जी०१० चारणऋद्धि १२ ____८५,८८, ८६, ६१ गो०जी०म० १० चारित्रपाहुड १४ जीवतत्त्वप्रबोधिनी १०,८८-६० गोपनन्दी १०३ चारित्रभक्ति १६ जे० एल० जैनी ८६ गोपाणी (डा०) ६६ चारुकीर्ति ११०-११२ जैनग्रन्थप्रशस्तिसंग्रह ११३ गोम्मट ६६, ७० चालुक्यवंश ११७ जैनग्रन्थावली १२६, १२७, १२८ गोम्मटजिन ७० चित्रकूट ८६ जैनजगत ३६, १५२ गोम्मटराय ७०,६०,६१ चूर्णिसूत्र २०, २८, ३० जैनधर्मप्रसारकसभा १२८ गोम्मटसग्रहसूत्र ४०,७० छेदनवति १०६ जैनसन्देश ७६ गोम्मटसार ६, २६, ५३, ६७- छेदपिंड ७१, १०५-११० जैनसाहित्य और इतिहास ३४, ७०, ७२-७४, ७६, ८१-८४, | छेदशास्त्र १०६, १०६, ११० ६३, ६६, १०० ८८-६५६७,१०६,१०८,१११ | जइवसह(यतिवृषभ) ३०, ३१ जैनसाहित्यनो संक्षिप्त इतिहास गोम्मटसार-कर्मकाण्ड १०, ५३, जम्बूविजय १४६, १५० ७५, ८७, ६३, ६४,१११ जयचन्द्र २६ जैनसाहित्यसंशोधक ६६ ,१६६ गोम्मटसार-जीवकाण्ड १०, १११ | जयधवला ६, १०, २०, २६, ३०, । जयधवला ६.१०. २०. २६, ३०, जैनसिद्धान्तप्रकाशिनी ८० गोम्मटसुत्त ६०, ६१ ३५, ३६, ४५, ५३, ६१, | जैनसिद्धान्तभवन ३२, ७२, गोम्मटेश्वर ६६, ७० ११६, १२६, १५८ १०२, ११० गोयम १०७ जयनन्दी २१ जैनसिद्धान्तभास्कर १६,४१, गोविन्द पै ७० जयसेन १३, १२१ ११५, १५७ गौतमगणधर ३८, ११३, ११५ जबूदीवपण्णत्ती (जम्बूद्वीप- जैनहितैषी ३३, ६०, ६४, १६८ गौर्जरदेश ८६ प्रज्ञप्ति) ८, ३२, ४६, ६४, जैनेन्द्रव्याकरण १४७, १५२ ग्रन्थपरीक्षा ५, १०८ ६६, ६७, ८६, १६६ जैसलमेर ६४ घोघाबन्दरकाशास्त्रभंडार १०१ जायसवालजी ३३ जैसलमेर-भंडार १४५ चएड ५८ जिनचन्द्र ११४, ११५ जोइंदु(योगीन्दु) २४, २६, ५८, चण्डव्याकरण २४ जिनदासशाह ८६ चतुरविजय १४६, १५७ जिननन्दिगणी २१ जोगसार चतुर्मुखकल्कि ३३ जिनप्रभसूरि १२७ जोगिचन्द ५८ चतुवंशतिप्रबन्ध १२७ जिनभद्र १३६, १४४, १४५, ज्ञानप्रवादपूर्व १६ चन्द्रगिरि ७० १४७, १४८, १५१ . ज्ञानविन्दु १३२, १३५, १३६, चन्द्रगुप्त ३८ जिनविजय १४५, १४६, १५०, . १३८, १४८, १५१, १५२ चन्द्रनन्दि ४६, ६७ १६६-१६८ ज्ञानभूषण ५६, ७५, ८२, ८३, चन्द्रप्रमचरित्र ७१, ७२ जिनसंहिता १०७ E८,८६, ११३, ११४, चन्द्रप्रभ-जिनमन्दिर १०३ जिनसेन २०, ४४, ४५, ५४, ज्ञानसार १८ चन्द्रप्रभपुराण १०३ ५५. ५७, १०७, १२०, ज्वालामालिनीकल्प ७१, ७२, चन्द्रप्रभसूरि १२६ १५६. १५८, १६७ १०६, १०७ १०६ चन्द्रर्षि६७ | जिनसेन-त्रिवर्णाचार-परीक्षा ५ ज्वालिनीमंत्रवाद ७२ चामुण्डराय ६६, ७०.८९ ६०, जिनेन्द्र(जिनेन्द्रदेव) ११४, ११५ / टंबकनगर ६५ ६२,६३ | जिनेश्वरसूरि १६८ | टोडरमल्ल ८०,८१ ८,८६, Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ ६१, ६२ डाक्टर उपाध्ये २७,५८,६१,११५ डा०साहब(ए.एन.उपाध्ये) २४ २६ | ढाढसीगाथा १०४ यदि (नयनन्दि) १०४ गागहत्थि ( नागहस्ति) ३० मिचन्द ( नेमिचन्द्र ) ६३ तत्त्वविचार १००, १०१ तत्त्वसंग्रह १४२ तत्त्वसार ५६, ३१ तत्वार्थाय १५१ तत्त्वार्थराजवार्तिक २३ तन्त्रार्थमूत्र २४, २६, ७७, ७६, ६, ११४, १२२, १३६ तत्वार्थाधिगममूत्रटीका १२६ तपागच्छ १६० तपागच्छ - पट्टावली ३१, १५६, १५७, १५६. १६० ताराचन्द्र ६, ७, १६६ तित्थयरभत्ति (तीर्थंकर भक्ति) १७ तित्यो गालिप्रकीर्णक १४६ तिलग (देश) १०३ तिलोयपण्णत्ती (त्रिलोकप्रज्ञप्ति) ६, १२, २७, २६, ३१–३४, ४१-४५, ४७-५७, ८०, २, १६६ तिलोयसार (त्रिलोकसार) १०, ३२, ७१, ६३ त्रिभंगी ७४ त्रिलज्ञणकदर्थन १४२ त्रिलोकचन्द १६६ त्रिलोकप्रज्ञप्ति २७, २६, ६४, ६२ पुरातन - जैनवाक्य-सूची दरबारीलाल कोठिया ७, १६६ दर्शन विजय १६० दर्शनसार ५६, ६१, ११६,११७, १५३ दव्वसहावरणयचक्क ६२ दव्व सहावपयास (ग्रन्थ) ६३ दव्य संग्रह ( द्रव्यसंग्रह) ६३ दशभक्ति १६ दशाचूर्णि १५६ दशाश्रुतस्कन्धनिर्युक्ति १४६ दंसणपाहुड (दर्शनप्राभृत) १२, १४ दामनन्दि १०१, १०२, १०३ दिगम्बरसम्प्रदाय १६२, १६५ दिगम्बरपरम्परा १६३-१६६ दिग्नाग १४१, १४३ दिन्नसूरि १६० दिवाकर १३१ - १३३, १३८, १४७, १४८, १५०, १५६. १६०, १६२, १६६ दिवाकरयति १६२ दीपचन्द पाण्ड्या ७, १६६ दुर्गव दुर्विनीत १५३ दुःषमाकालश्रमण संघस्तव १५६ देव नन्दी (पूज्यपाद) ६६, १४७, १४८, १६५, १६६ देवभद्र १२८ देवपूरि १६१ देवसेन ५६ - ६४, ८४, ६४, ६८, १०१, ११६, ११७, १५३ देवागम १२४, १३६, १५३, ११४ त्रिलोकसार २६, ३३, ३४, ४४, ६४, ७१, ७६, ८६, ६२–६४ थेरावली १५६ १५४, १५७ देवेन्द्रकीर्ति ११२ देवेन्द्रकुमार ६४ देवेन्द्र मैध्दान्तदेव ३८ देशीगण ३६, ३८, ११०, १११ देहलीकानयामन्दिर ६, २२, ५४, | थोसामि थुदि १७ दक्षिण - कुक्कुट - जिन ७० दक्षिणभारत १८ दक्षिणमथुरा १५३ ६१. ११७, ११८. १६६ देहलीकापंचायतीमन्दिर १५,१०८ दौलतराम ५८ द्रव्यगुणपर्यायसा ६२ द्रव्यसंग्रह ७४, ६०, ६२, ६३, ६ द्रव्यस्वभावप्रकाशनयचक्र ६२,६ द्रव्यानुयोगतर्कणा ६२ १९ द्राविड, द्राविडसंघ १५३, ५६ द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका १२६, १२८ १३१-१३३ द्वात्रिशिका १२६, १३०, १३२ - १३४, १३७ - १४०, १४४ १५०, १५२, १५४-१५८, १६१, १६५, १६७, १६८ द्वादशारनयचक्र ६२, १४७, १४= धनञ्जय-नाममाला ११६ धरसेनाचार्य २०, ३५ धर्मकीर्ति १४१ - १४४, १४६ धर्म चन्द धर्मपरीक्षा (श्वे०) ५ धर्म भूषणभट्टारक धर्मरमायन ६७ धर्म मंग्रहश्रावकाचार ११४ धर्मसेन देव (धम्मसेतु) ६० धर्माचार्य १५६ धर्मोत्तर १४१,१४२,१४६, १५० धवला ६,६,१०.१८, २९, ३१.४१ ४५,४७,४८,५०-५७,६६, ७६,८१,६४–६६.११६, १५८ धारा ५६,६३,६४,१०४ धूर्जटि १०३ नन्दिआम्नाय ८६, ११५ नन्दि - संघ ३८,६७, ११५ नन्दिसंघपट्टावली ११५ नदीवृत्ति १३६, १४५ नन्दी सूत्र १३६ नदीसूपट्टावली १५ नयचक्र ५६,६१,६३,१५०, १५६ नयचक्र सटीक १४८, १४६ नयनन्दी ६६, १०३ नागस्ति ३०,३१,३५,४१ नाथूराम प्रेमी ५, ६, १६.२२ २८,३४, ६१, ६३, ६६. Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावनाकी नामसूची ७२,६४, १००,१०४, १०५, परमागमसार ३८ १११, ११२ परमात्मप्रकाकाश २४, २६, ५७, ५८, ११५, ११६ परमाध्यात्मतरंगिणी ११३ परमानन्द ७, ५६, ६१, ६४, ७४, ७५, ८१-८३, ६५, ६७, १६६ ११०, ११४ निजात्माक ५८ नियमसार १०, १३, ३४, ३६, ८,४१,१५१, १५६ नेमिदत्त २३ नेमिनाथ ७० निर्वाणभक्ति १६ निश्चयद्वात्रिंशिका १३७, १४० निशीथचूर्ण ११६, १५६ निः पच्छसंघ १०४ । पुष्करगण ६० नीतिसार ७१,१०७ १०८ नीतिसारपुराण १२७ नेमि २७ नेमचन्द बालचन्द | पुस्तकगच्छ १११ पूजाविधि (ग्रन्थ) १०७ पचवन्तु १२३, १५६ नेमिचन्द्र ३३, ४४, ६७, ७२, पंचसंग्रह ८, ६८, ६६, ८०, ८४, पूज्यपाद १३, १४, १६, २४, ७४, ७६, ८०८७ ६४ ६६, १०६-१०८ ५३, ५८, ६६. १२७, १४७, १५०-१५२, १५७ पूज्यपाद-उपासकाचार ५ पेज्जदोसपाहुड १६, ३० पोदनपुर ७० पोमणी (पद्मनंदी) १०३ प्रकरणार्थवाचा १४३ प्रताप कीर्ति १५० न्यायकुमुदचन्द्र ५६ १५० न्यायप्रवेश १४१ न्यायबिन्दु १४१, १४२ १४६ न्यायमंजरी १५० न्यायविनिश्चय ५३, १४२ न्यायविनिश्चयविवरण १४२ न्यायावतार १२०, १२६, १३४ १३८-१४४, १४६, १५३ १५६, १६१, १६८ पउमादि (पद्मनन्दि ) ५६, ६५ पट्टावली समुच्चय ३१, १६० पट्टावलीसारोद्वार ३१, १६० पद्मचरित १६२ पद्मनन्दी १२, ३५, ३६, ३८,४६, ५६, ६४, ६६-६८ पद्मपुराण ५ पद्मप्रभ १३, ३६, ३६ पद्मप्रभमलधारि १५६ पद्मसिंहमुनि ६८ 1 ! 1 | पिटर्सन साहब १२६ पी० एल० वैद्य १२०, १२८, १४१, १४६ पुखरगणि ६० |पुज्ज विही (ग्रन्थ) १०७ पुण्यविजय १०२, १४४, १४६. १५७, १६२ परिकर्म (ग्रन्थ) ३५ पुत्यय ( पुस्तक) गच्छ ३८, ११० परिशिष्ट १४६ पुष्पदन्त २०, ५०, ६६, १६६ पहाचंद (प्रभाचन्द) ११०,१११ | पुरुषार्थसिद्धय पाय १२६ पचगुरुभक्ति १७ पंचप्रतिक्रमण १७ ८६, ६५-६८ पचप्रवृत्ति ६० पचमिद्धान्तिका १४६ पंचास्तिकाय १३, ८३, १११, ११२ पाटन १२७ ! पाटलिक (ग्राम) ३१, ३२ पाठकजी ३३ पाणराष्ट्र (देश) ३१, ३२, पार्श्वनाथ द्वात्रिशिका १२७ १७५ t पद्यप्रबन्ध १३१ पन्नालाल ६, २४, ११४, १६६ | पार्श्वनाथ मन्दिर ह परमप्पयास (परमात्मप्रकाश) ६ पाहुडदोहा ६, ११६ ११७ पण्डवपुराण ६०, ६१, ११३ पातिसाह व ६० पात्र केमरी १४१-१४३ पात्रस्वामी (पात्रकेसरी) १२७, १४१, १४२, १४४, १५३ पादपूज्यस्वामी १६ पादलित १४६, १६० पारियत, पारियात्र (देश) ६४ ६५, ६६, ६७ पार्श्व २७ १४६ प्रमाणसमुच्चय १४१ प्रमालक्षण (दम) १६८ पार्श्वतीर्थेश्वर १६३ प्रवचनसार १३, १५, १८, ३४, ३६, १११, १२० पार्श्वनाथचरित १२१,१५४ १६७ प्रचनसारोद्धारवृत्ति १२६ पार्श्वनाथ १३१ ↓ पार्श्वनाथचैत्यालय ५६ प्रवर्त्तकाचार्य १६ प्राकृतपंचसंग्रह १६६ प्रद्युम्नकुमार ५४, १६६ 1 प्रद्युम्न १६१ | प्रबन्धकोश १२७, १३० प्रबन्धचिन्तामणि १२७, १३१ प्रभाचन्द्र १३, १६, १७, ५६, ८६, १०३, १०८ १११, १२७, १४६ प्रभावकचरित१२७-१३१, १३३, प्रकृतलक्षण ५८ प्राकृतलक्षण- टीका ५६ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ प्रेमीजी ३४. ३६, ३८-४१, ६३. ६६, १०७ १०८ ११४ प्रो० दुची १४२ प्रो० साहब ११६ फूलचन्द २८, ४१, ७५, १६१ वन्धशतक ६७ १३, २२, २४ बालचन्द्र १३, ५८, ६१.११०. १११ बालेन्दु पंडित ६१ ११०, १११ बाहुबली ६६, ७० बुद्धिसागराचार्य १६८ बृहत् टिप्पणिका ६६ बृहद्रव्यसंग्रह ६३ बृहत्पड्दशनसमुच्चय १२६ बन्धोन्यसत्त्वयुक्तस्तव ६७ चप्पनन्दी ७१, ७२, १०७ बलदेवसूरि ४६. ६७ बलनन्दी ४६, ६४-६७ बलात्कारगण ८६ ११५ बहादुरसिंह १४७ वावादुलीचन्द्रका शास्त्र भन्डार ६० चारसअणुपंक्खा (द्वादशानुप्रेक्षा) भारतवर्ष ५३ बृहन्नयचक्र ६२ बेट्टगेरि. बेट्टकेरां १६ बेलूर ६१ योधपाहुड १४. ३६–३६ ब्रह्मजित ११२ ब्रह्मदेव ५७ ५८, ७४, ६२-६४ ब्रह्महेमचन्द्र १०३ १०४ भगवज्जिनसेन ३२ पुरातन-जैनवाक्य-सूची भट्टाकलकदेव ४३, ५१ भद्रबाहु १४, ३७, ३८, १४५, भगवती आराधना १०, २०, २१, २३–२५, ४६, ६६, १०० भगवान् महावीर और उनका समय ३४, ३७ भगवान वीर १२ भट्ट जयन्त १५० भट्ट प्रभाकर ५८ भट्ट वोसरी १०१-१०३ १४६, १५१, १५३. १५७ भद्रबाहु निमित्तशास्त्र १०८ भद्रबाहु सहिता ५, १०८. १४६ भरत क्षेत्र १२ भरतचक्रवर्ती ७० भर्तृहरि १४६ भाडारकर १५६ भांडारकर ओरियंटल रिसर्चइन्स्टिट्यूट ६१. ११६, २२६ १४०, १५३ भांडारकर प्राच्यविद्या संशोधक मन्दिर २२ भारतीयविद्या १३२. १४७, १५६, १६२ भावत्रिभंग ८, ११०, ११२, भावपाहुड १४ २६,५८ भावस ग्रह ११, ५६, ६१, ८४, ६४, ६८, १०१ ११० - | _११२, ११६ भावसेगु ६० भावसेनदेव ६० भावार्थदीपिका २२ भाष्यगाथा १० भास्करनन्दि १९४ मथुरा ३७ मनोहरलाल मन्दप्रबोधिका ६१ मन्दप्रबोधिनी १० मन्दसौर ३३ मरणकंडिका ६८, ६६ मर्करा १२, ३६, ३६ मलधारिदेव ६० मलयगिरिरि ९३६ | मल्लवादी ६२, १२११४७, १४६, १५६, १६८ मल्ल (तीर्थ कर) २६, २७ मल्लि भूपाल ८६ मल्लिपेण १८७ मल्लिपेण - प्रशस्ति १०८ ममूतिकापुर ७३ महाकम्पयडिपाहुढ २० | महाकर्मप्रकृत्याचार्य ६७ - महाकालमन्दिर १६० १६३,१६७ महादेव १०२, १०३ महापुराण ५५ महाबन्ध २० महामहोपाध्याय श्रभाजी ६६ महावाचक ३० महावीर ११६. १२६ १६३ १६४ महावीर जैनविद्यालय १४६ महावीर - द्वात्रिशिका १२८ महावीरपरम्परा १५६ महेन्द्रकुमार ६, १५० मंत्रमहोदधि भिल्ल ५६ भीमसेन १५८ | भुवनकीर्ति ११३ भूतवलि २०, ६६, १५१, १६६ भृगुकच्छ (नगर) ११२ भोज (राजा) ६४ भोजदेव (राज) ६२, १०३, १०४ | माथुरसंघ ६० १०४ | भोजसागर ६२ माथुरान्वय ३७ ६० मगु १६० माइल्लघवल ६३ माघनन्दी ४६. ६४ ६६ माणिकचन्द्र (दि० जैन) ग्रन्थ माला १४.१५.१८ ६१ ६७८४,६२ ६८, १०४ ११० माणिक्यनन्दी १०३ १०४ माथुर, माथुरगच्छ ५६, ६० माधवचन्द्र १२, मान्यखेट ७२ मान्यपुर ६७ मालवदेश ३ माहादि (माघनन्दि ) २०७ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७ प्रस्तावनाकी नामसूची माहलदेव ६२, ६३ रमारानी १६६ लोयपाहुड ३६ माहल्ल ६३ | रयणसार १५,६१ | वज्रनन्दी १५३ माहवचन्द (माधवचन्द्र) १८ रविषेण १६२ वट्टकेर, वट्टकेरि १८, २४ . माहुरगच्छ (माथुरगच्छ) ६० राचमल्ल ६६ । वट्टेरक १८, १६. मि. लेविस राइस १५६ राजतरंगिणी ३३ वर्द्धमान (तीर्थकर) १६, १७,. मिहिरकुल (राजा) ३३ राजपूतानेका इतिहास ६६ २३, २७, ३४, ३८, १९३. मुनिचन्द्र ८६ | राजवार्तिक ४,४२,४७,४६,५०, १२८, १२६, १५५, मुनिसुव्रतचैत्यालय १३ ५३, ६७ १६७ वराहमिहर १४६ मूडबिद्री ५३,७६-८० राजवार्तिकभाष्य १४४ वसुनन्दि १८, ६१, ७१, ६५ मूलसंघ १२,३८, ५६, ७५, ८६, राजशेखर १२७ ___६६-१०१, १०७ १०४, ११०, १११, ११५ रामचन्द्र खन्दुका १६६ वसुनन्दि-श्रावकाचार ११, ६१, मूलाचार १८,१६,२४,१०० रामनन्दी १०३ १०४ ६४,६६-१०१ मूलाराधनादपण २१,२३,३६ रामसिह ११६,११७ वसुपूज्यसुत २६, २७ मूलिकल्गच्छ ६७ रायचन्द्रजैनशास्त्रमाला ५८,७३ / वाक्यपदीय १४६ मेधावी ११४ ७६ ६२ वागथसंग्रह ५५ मेरुतुङ्गचार्य १२७ रायलएशियाटिकमोसाइटी १४३ वाचक उमास्वाति १५१ मेवाड ६६ राहुलसांकृत्यायन १४६,१५० | वादन्याय १४६; १५० मैत्रेय १४३ रिष्टसमुच्चय ६८ वादिराज १२१, १४२, १५४, मोक्वपाहुड, मोक्षप्राभृत १४ रैधू(कवि) ६० मोतीकटराकामन्दिर ३.५४,१६६ रोहेडक २३ वारों (नगर) ६५-६७ मोहनलालदलीचन्द देसाई १६७ | लक्ष्मीचन्द्र ७५,११६ वासवनन्दी ७१, ७२, १०७, १० यतिवृषभ २०२७-३१,३३-३७, लक्ष्मीभद्र(धर) १६७ वासुपूज्य (तीर्थंकर) २७ ४१,४४,४५,५३,५७ लक्ष्मीसेन १६२ . विक्कम, विक्रम १०४ यवनपुर १४६ : लघीयस्त्रय ४३,५१, ४२ विक्रमराज १५३ यशःकोति ६०, ६१ लघुकर्मकाण्ड ६४ विक्रमादित्य ६० १३०, १६०, यशस्तिलकचम्पू ५ लघुद्रव्यसग्रह ६३ यशोविजय ६२,१२१ लघुनयचक्र ६१ विजयकीर्ति ११३ यापनीय(संघ) ५७ लब्धिसार (लद्धिसार) ६, ७१, विजयवीर्य ६७ युक्त्यनुशासन १५४,१५६ १५७ ७६,६१-६३ विजयसिंहसूरिप्रवध १४६ युगप्रधानसम्बंध १५६ लाला वर्णी ८६ विजयानन्दसूरीश्वरजन्मयोगसार २४, २६, ५८, ११६ लिंगपाहुड १५ शताद्विस्मारकग्रन्थ १४६ योगाचार्यभूमिशास्त्र १४३ - लोकनाथ शास्त्री ७६ विजयोदया २१, ४६,६६ योगिभक्ति १६ - लोकप्रकाश १५६ विदेहक्षेत्र १२ लोकविनिश्चय (लोयविणिच्छय) विद्यानन्द ५०, ६२, ११२, १३४ योगीन्द्र ५८, ११५, ११६ । २६, ३१ १५४, १५६ -रत्नकरएडक १२५,१३८,१५३ लोकविभाग (लोयविभाय) २६, | विनीतदेव १४६, १५० - रत्नकीर्ति ६१ ३१-३४, ३६, ३८-४१, विन्ध्यगिरि ७० रत्नमाला १६७ ४७, ६२ विवुध श्रीधर २० रखशेखरसूरि १६३ लोकानुयोग ४७ . विमलचन्द्र ४६, ६७ रत्नसूरि १६१ | लोगस्ससूत्र १७ . | विमलसेन (गणी) ५६, ६० योगीन्दु २६,५८, ११६ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १७८ पुगतन-जैनवाथ-सूची विविधतीर्थकल्प १२७, १२८, | वृषभ (तीर्थंकर) १७, ११२, | श्रीनन्दि ४६, ६४, ६६, ६७, ६६ १३०. १३१ ११३, १५८ श्रीनिवास (राजा) १८ विशाखाचार्य ११५ वृपभनन्दो १०३ श्रीपाल ६३ विशालकीर्ति ८६ . वृपमसेन (गणधर) ११३ श्रीपार्श्वनाथ १६० विशेषणवती १३६, १४४, १४५, | शकराजा ३४ ।। श्रीपुर ३७, ४६, ६७ १४७, १४८, १५१, १५२, शक्तिकुमार ६६ श्रीपुरान्वय ३७, ३८ विशेषसत्तात्रिभंगी ७४ शक्तिभूपाल ६४, ६७ भीपुरुष (राजा) ४६, ६७ विशेषावश्यकभाष्य १४४, १४५, | शकस्तव १२६ श्रीविजय ४६, ६४, ६६, ६७ १४७, १६६ शरचन्द्र घोपाल ६० श्रुतकेवली १४ । विषमपदव्याख्या ११६ शल्यतंत्र १२७ श्रुतभक्ति १६ विषोग्रग्रहशमन विधि १२६, १२७ | शंकरलाल ७, १६६ श्रुतमुनि ११०-११२ विष्णुनन्दिमित्रादि ११५ शान्तिरक्षित १४२, १५० श्रुतसागरसूरि १४, १०४ विष्णुभट्ट ५०३ . शास्तिनाथमन्दिर ६८ श्रुतस्कन्ध १३, १०१, १०४ विष्णुयशोधर्मा ३३ शान्तिप्रसाद १६६ श्रुतावतार १६, २०, ३४, ३६, विसहणंदो (वृषभनन्दि) १०३ शान्तिभूपाल ६४, ६७ । ७१, १०७ . विस्तरसत्वत्रिभंगी ७२, ७४ | शान्तिसेन १५८ श्लोकवार्निक ५, ५०. ६२ वीवा (पृथ्वी) ११२ शारदागच्छ ८६ श्वेताम्बरपरम्परा १६५-१६७ वार (वर्द्वमान) ६०. ११५, १२६ शालाक्य (प्रन्थ) १२७ श्वेताम्बरसम्प्रदाय १६४-१६७ १३०, १३१. १३६, १४०, शास्त्रवातोसमुच्चय १५० श्वेताम्बरसंघ १६७ १५४, १५५, १६३. १६४ शास्त्रीजी ४०, ४१, ४५, ४७, षटखएडागम ६, २०, ३०. ३५, वीरचन्द्र ७५ ४६-५१, ५३-५७,७६,६७, ६६, ७१, ७७, ८०, ८१. वीरद्वात्रिशद्वात्रिशिका १३१. शाहगढ (सागर) ७५, ७६, ८२ १५१, १६६. वोरनन्दि ४६, ६४-६७, ७१, ६३, ८३, ८६ षड्दर्शनसमुच्चय १२६,१२७,१५० वीरसिंह ११२ | शिवकोटि १६७ षट्प्राभूत १०४ वीरसेन २०, ३०, ३१, ४१-४६, शिवजीलाल २२ षट प्राभूत-टीका १०४ ५२, ५४, ५५. ५७, ६९, : शिवभूति १४६ पट प्राभतादिसंग्रह १४, १५ ८१,६५, १०७, १२६, १५८ : शिवशर्मसूरि ६७ सकलकीर्ति ११३ वीरसेवामन्दिर ६, ७, ३२, शिवार्य (शिवकोटि) २१, २४, | सकलचन्द्र ४६, ६४, ६६ ६४, ६६, ११३, १२६ १६९ २६ सत्साधुस्मरणमंगलपाठ १५६ वीरस्तुति १३०, १३१ शीतलप्रसाद १३, ८६ सत्ति (संति)भूपाल ६५, ६६ वी० एस० (V.S) आप्टे की शुभचन्द्र भट्टारक २२. २६, ५६, | सत्वत्रिभगी ७४ संस्कृत इंगलिश डिक्सनरी सत्त्वस्थान (ग्रन्थ) ७२ शुभकर (शंकर) ६३ सदासुख २२ वेचरदास ११६, १२०, श्रवणबेल्गोल १२, ३८, ६६, | सन्मति (सूत्र, तर्क, प्रकरण) ११७-१२६, १३१, १३२, ६१, १०३, १११, १५१, . ११६, १२१, १२६-१२८, १६३, १६७ १५२, १५६ १३२, १३३-१४१, १४३वोसरि १०२ . श्रावकाचारदोहक ११६ १४८, १५०-१५४, १५६वृत्तिसूत्र २० . . श्रीगुरुपट्टावली १६० १५६, १६१-१६८ वृद्धवादिप्रवध १३३ श्रीचन्द्र २३, ११६ सन्मति-टोका १४८, १५६ वृद्धवादी १३२, १३३, १५६, १६० श्रीधर २१, ३४ सप्ततिका ६७ । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावनाकी नामाची १७६ समन्तभद्र ५३,१०७,१२६,१३३, | सिद्धान्तसार ११३ सेठ भगवानदास कल्याणदास १३६, १३८, १४१, १५२, | सिद्धिविनिश्चय ११६,१४२,१६६ / १२६ १५३-१५६, १६२, १६६- सिद्धिविनिश्चय-टीका १६७ सेनगण (संघ) १५७, १६३ १६८ सिद्धिश्रेयसमुदय १२६ सेनगणपट्टावलो १५७ समयभूषण ७१, १०७ सिरिणदिगुरु ६५ सोम (राजश्रेष्ठि) ६३ समयसार ६,१३,१११,१२१,१६५ सिरिदुसमाकाल-समणमंघथव३१ काल-समणमंघथव३१, सोमदेव १०७ समयसारकलशा ११३ सिरिविजयगुरु ६४, ६५ सोमसेन-त्रिवर्णाचार ५ समराइञ्चकहा १४१ सिघी जैन प्रन्थमाला ६E मौत्रान्तिक १४३ समरादित्य १६१ सिंहनन्दि ३२ स्तुतिविद्या (जिनशतक) १५७ समाधि त्र १४, २३, २६, ५८, सिंहवर्मा ३१, ३२ स्याद्वादमहाविद्यालय ६, ५४, ६६ | सिहमूर ३१, ३२, ४० १६६ सम्मइमुत्त ११६ | सिंहमूरि ३१, ४० स्याद्वादरत्नाकर १६१ सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका ८८,६१,६२ सिहसेन ३२ स्वयम्भू स्तोत्र १०८, १२६, १३३ सय(क)लचदगुरु ६४ सी०पी० और बरारका कैटलॉग १५३-१५७ सरस्वतो गच्छ ११५ स्वामिकार्तिकेय २२, २३, २५ सवगुप्तगणी २१ सीमन्धरस्वामी १२, ५६ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा ४६ सर्वनन्दी ३१-३४,३६, ४०,४१ / सीलपाहुड १५ स्वामिकुमार २२, २६ सर्वार्थसिद्धि १३, ४७, ५३, ६६, सुखधामप्रवेशिनी १२१ ।। स्वामी समन्तभद्र १०८, १२४, १४७, १५१, १५२, १५३ सुखबोधिका ११४ १२५ सहस्रकोर्तिदेव ६० | सुखलाल १७, ६६, ११६, १२०, स्वामी समन्तभद्र (इतिहास) ३७ सगाइणी (संग्रहणी) २६, ३१ १२७-१३५, १३६, १३८, हनुमचरित ११२ सठाणपाहुड ३६ १४३, १४५, १४७-१५२, हरिभद्र १२१, १२६, १२७,१३६, संयमदेव, संयमसेन ६८ १५४-१५७, १६०, १६२, १३७, १४५, १४८-१५०, संहिता ७१, १०७ १६३, १६५, ५६७ । १५६, १६१, १६२, १६८ सागारधमोमृत १०० | सुत्तपाहुड १४ | हरिवंशपुराण ५, ४८, १२०, सामन्तभद्र १५६ सुदर्शनचरित १०३, १०४ । १५.०, १५८, १६७ सालुवमल्लिराय ८६ सुन्दरसूरि १६० । हरिषेण २३, २५ सावयधम्मदोहा ६ ११६, ११७ सुप्रभ(सुप्पह) दोहा ६, ११७ हर्मनजैकोबी १४१ माह सहेस ८६ सुभद्र ११५ हीरालाल शास्त्री ७५ साह सांग ८६ सुमतिकीर्ति ७५.६५ हीरालाल एम० ए० ६, ७५, ७६, सिद्वभक्ति १६ सुमतिदेव १२१ ह५, ११६, ११७ मिद्धराज ११७ सुयखध १०३ हुएन्तसाग (चीनी यात्री) ३३ सिद्वपि १२८, १४१, १५३ सुयमुणि (श्रुतमुनि) ११० हुमाऊं (बादशाह) ६० सिद्धसेन ११६ १२६.१२७-१३० सुरसेण ५६ हेमकीर्ति ६१ १३२-१४८, १५०-१६८ सूरिपरम्परा १५६ हेमचन्द्र ११७, १५५, १६१ सिद्धसेनगणी १६६ सुलोचनाचरित्र ५६, ६०, ६१ हेमचन्द्रकाष ६६ सिद्धान्तार्थसार ६० सुवर्णपथ-शुभदुर्ग ६० हेमचन्द्राचार्य-ग्रन्थावली १२७ सिद्धान्तमन्दिरका शास्त्र- सुहंकर ६३ हेमराज ७५, ८२ । भण्डार ७६ सूर्यप्रकाश ५ हेलाचार्य ७२ Page #198 --------------------------------------------------------------------------  Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन - जैनवाक्य-सूची प्रथमो विभागः अर्थात् दिगम्बर जैन प्राकृतपद्यानुक्रमणी उपदि अइउज्जलखवाओ अइउठि गाउट्ठी इउत्तमसहरणरणो एक पहुदि इसरजुत्ता इकवरभुसुहयं इकु तवं पालेअहिर फरसाई इतित्त डुवकच्छरि इतिवदाहसंता इतिव्ववेयणाए इथूलथूल-थूलं इथूलथूल-थूलं बलि विरो अइबालवुड्ढदासे अबालवुड्ढरोगा भीमदंसणेण य इभीमदसणेण य श्रइमुत्तयाणभवरणा इमेच्छा ते पुरिसा अ श्रा० ति० १५-१२ | जंबू० प० ४ - १४० तिलो० प० ४ - १६२१ इरूवो हि जुवाणो अइलंघेय (इ) विचिट्ठो इलालियो विदेहो भावसं ० ६६ | अइवट्ठेहिं तेहि श्रा० ति० ६- १४ | श्रा० ति० १० - १७ आय० ति० १६ - ६ | श्रइविट्ठि श्रणाविट्ठी श्रइवुड्ढ बालमूयं इससेसरिणवहं इसयमव्वावाह रा० सा० १११ | वसु० सा० १३५ | अइसयमादसमुत्थं तिलो० प० २ - ३४३ | इस रसमइसुगंध वसु० सा० १६१ | श्रइसुरद्दिकुसुम कुकुम श्रारा० सा० ४३ अइसोहण जोएणं सु० सा० १८ | अउदो परिणमित्रो शियम ० २१ उदुम्बर फलसरिसा कत्ति० श्र० २६ | अउपत्तिकीभवंतर छेदपिं० २१६ अकइयशियारणसम्मो वसु० सा० ३३७ अकचटतपजसवग्गा गो० जी० १३५ अकचटतपयसवन्नी पंचसं० १ - २३ | अकडुगमतित्तय मांतिलो० प० ४-३२६ | दम्म विरा तिलो० प० ४-१४७३ | अकदीमा उप्र आदी रिट्स० ८६ वसु० सा० ७१ कत्ति० अ० ६ तिलो० प० १-१२० जंबू प० २ - १६६ वसु० सा० २३५ जंबू प० ३-२४४ सिद्धभ० ६ पवयणसा० १-१३ वसु० सा० २५२ श्राय० ति० २५-४ मोरखपा० २४ भावस० ८ तिलो० प० ४-२२५० तिलो० प० ४-१०१८ भावसं ० ४०५ रिस० २२७ रिट्स ० १६३ भ० आर० १४६० भ० श्रारा ६४७ तिलो० सा० ६३ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकसाय कसायाण अकसायत्तमवेदत्तसायं तु चरितं ट्टिमा हरा ट्टिमा हिरणा अक्वराड वा अक्खर - अणक्खर भए अक्खर - अणक्खरमए अक्खर आलेक्खेसुं अक्खरचडिया मसि मिलिया अक्खरडे हि जगव्त्रिया अक्रपिंडं विउ अक्खर मत्ताही अक्खलियरणारण दसरण गिहत्थमिस्सलिए अगुरुगलहुगुवघां अगुरुगलहुगुवघार्थ गुरुगलहुगेहिं सया अगुरुयतुरुक्कचंदरणअगुरुयतुरुक्कचंदरण पुरातन जैनवाक्य-सूची अगुरु लहुगुवघाया गुरुयलहुतसवायरअगुरुयलहुपंचिंदियअगुरुयलहुयच उक्कं अगुरुयल हुयच उक्क अगुरुयल हुयच उक्कं अगुरुयलहुयचक्कं अगुरुयलहुयं तसवा लद्धिसा० ४६२ अगुरु लहुयं तसवा भ० श्रारा० २१५७ | अगुरुल हुगउवघादं मूला० ६८२ णयच० २७ अट्ठ य दव्वस० णय० १६६ | अग्ग पच्छई दहदिहहिं वसु० सा० ३८४ | अग्गमगि सुभद्दो तिलो० प० ४-६६३ अग्गमहिसि तिलो० प० ४-६८४ | अग्गमहिसि श्र तिलो० प० ४-३८४ अग्गमहिसीण समं पाहु० दो० १७३ अग्गलदेवं वंदमि पाहु० दो० ८६ seite वत्थुण पि रिठ्ठस० १६१ गायणीयामं सुदखं० ६३ | श्रग्गिकुमारा सवे गतिकोणो रत्तो अग्गितयंगुलमाणो अग्गिदिसाए सादी गो० क० १४ कम्मप० १४ मोक्ख पा० ५ | अग्गिदिसादिसु सक्कुलिश्रग्गिदिसादो चउ चउ अग्ग यावदि सोमो परिक्तादो श्रग्गिभया धावंता गिल्लं मग्गिल्लं अगुरुलहुगा ता अगुरुलगा अरणता तिलो० प० ७-१ अक्खाणं श्रणुभवण अक्खाणं श्रणुभवणं अक्खाणि बाहिरप्पा अक्खा मरणवचिकाया महारणसिया हिरो रहि क्खो मरणमेत्तं तिलो० प० ४-४१२ तिलो० प० ४-८५५ वसु० सा० ६६ मूला० ८१५ पाहु० दो० १६६ पाहु० दो० १७१ खइ गिरामइ परमगइ खइ गिरामइ परम गइ अखलिदममिडिदमव्वाअगणित्ता गुरुवयां भ० श्रारा० ६५२ वसु० सा० १६४ अगहिदमिस्सं गहिदं गो० जी० ५५६ - ० २ विस किएहसप्पा अग्गविचोरसप्पा अग्गिविमसत्ता अग्गीवाणामो अग्गी विउहिदुजे अग्गी विय होदि हिमं मूला० १६१ पंचसं० ४-२६२ पंचसं० ५ - ८५ | अग्गीसारण कूडे पंचत्थि० ८४ अग्घविसेसे लद्धं जंबू० प० ५ - ८० अघसे समे सिरे जंबू० प० ११-२५० अचक्खुरस श्रोघभंगो पंचस० ४-४५ अचतयवग्गा चउरो पंचसं० ५- १२३ | अञ्चब्दइट्ठिजुदा पंचसं० ५-१६६ | अञ्चलपुरवरणयरे पंचसं० ३-६२ | अञ्चित्तदेवमाणूसपचस० ४-२६१, २७० चित्ता खलु जोगी पंचसं० ४-३६५ ची चिदमालि ग पंचसं० ५-५५ ७६३ |अच्ची य अश्विमालिंगि पंच०५ - १३७ | अच्चदणामे पडले श्र पचसं० ५-१५८ कम्मप० १५ दव्चस० गाय० २१ पंचथि ३१ पाहु० दो० १७५ श्रगप० ३-४७ तिलो०प०८-३८० तिलो० प० ८-३७६ तिलो० प० ३ - ६१ णिव्वा० भ० २४ अंगप० २-३६ सुद० ८२ तिलो० प० ३-१२१ छाणसा० ५७ पाणसा० ५५ तिलो० प० ४-२७७७ तिलो० सा० ६१८ तिलो० सा० ६२८ तिलो० सा० ४३४ भ० श्रारा० १३२२ तिलो० सा० १८८ रिट्स० २०५ भ० श्रारा० ७२६ वसु० सा० ६५ भ० श्रारा० १५६६ तिलो० प० ३-१६ भ० श्रारा० ६८८ कत्ति० श्र० ४३१ तिलो० सा० ६४१ श्राय० ति० १७-२० भ० श्रारा० ६४१ पंचसं० ५-२०१ श्राय० ति० १-२२ जबू० प० ११-३०८ णिव्वा० भ० १६ मूला० २६२ मूला० ११०० जवू० प० ११-३३८ तिलो० सा० ४५६ तिलो० प०८-५०५ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी अच्चेयण पि चेदा मोक्खपा० ५८ अज्जवसप्पिणि भरहे, परा रयण० ५८ अच्चेलकमण्हाणं मूला० ३ | अज्ज वि तिरयणवता तच्चसा० १५ अच्छइ जित्तिउ कालु मुणि परम० प० २, ३८ | अन्ज वि तिरयणमुद्धा मोक्खपा. ७७ अच्छ उ जीवियमरणं रिठस० १०६ अज्ज वि सा वलिपूया भावस० १५६ अच्छउ भोयणु ता] घरि पाहु. दो० २१५ | अजसकित्ती य तहा पचसं० ३,२१ अच्छउ भायणु ता: घरि सावय. दो० ३० अज्जसकित्ती य तहा पंचस० ४, २६२ अच्छदि णवदसमासे . तिलो० ५० ४, ६२४ अज्जसकित्ती य तहा पंचसं० ४, ३१३ अच्छरतिलोत्तमाए भावसं० २१० | अज्जसकित्ती य तहा पचस० ५, ५६ अच्छरसयमझगया वसु० सा० २६६ अज्जाखडम्मि ठिदा तिलो० ५० १, २२८० अच्छरसरिच्छरुवा तिलो. प० ४, १३७ | अजागमणे काले मूला. १७७ अच्छाणम्मिय पडियं जंबू०-५०७, ११८ अजाण चेलधुवणे छेदस०७४ अच्छादणं महग्धं छेदपिं० ६३ | अज्जीव-पुण्णपावे दव्वस० णय० १६२ अच्छाहि ताव सुविहिद- भ० श्रारा० ५१४ । | अज्जीवा वि य दुविहा मूला० १८६ अच्छिणिमीलणमेत तिलो० सा० २०७ | अज्जीवेसु य रूवी गो० जी० ५६३ अच्छिणिमेसण मे(मि)त्तो भ० श्रारा० १६६२ | अज्जीवो पुण णेो दव्वसं० १५ अच्छिण्णोवच्छिण्णो कल्लाणा० ४४ अज्जु जि णिज्जइ करहुलउ पा० दो० १११ अच्छीणि संघसिरिणो भ० श्रारा० ७३२ अज्जुणि अरुणी कइला- तिलो. प० ४, ११८ अच्छीहि पिच्छमाणो कत्ति० अणु० २५० अज्मयणमेव माणं रयण०६५ अच्छीहिं य पेच्छंता मूला० ८५४ अज्मयणे परिय? मूला० १८६ अच्छोडेप्पिणु अण्णे जबू० ५० ११, १७३ अज्झवसाट्ठाणं भ० श्रारा० १७८१ अजखरकरहसरिच्छा तिलो० प० २, ३०६ अन्झवसाणणिमित्तं समय० २६७ अजगजमहिसतुरगम- तिलो० प० २, ३४४ | अज्झवसाणविसुद्धी भ० श्रारा० २५७ अजगजमहिसतुरंगम- तिलो० प० २, ३०८ | अज्झवसाणविसुद्धी भ० श्रारा० २५६ अजगजमहिसतुरंगम- तिलो० ५० २, ३४ अभवसिदेण बंधो समय० २६२ अजधाचारविजुत्तो पवयणसा० ३७२ | अज्भवसिदो य बद्धो भ० श्रारा० (०) ८०४ अजदाई खीणंता पंचसं० ४, ६४ | अज्मावयगुणजुत्तो भावसं०३७८ अजर अमरु गुणगणणिलउ जोगसा० ६१ | | अट्टज्माणपउत्तो भावस० ३६० अजसमणत्थं दुक्खं म० श्रारा० ६०७ | अट्टरउदं झाणं भावसं०३५७ अजहएणहिदिबंधो गो० क० १५२ / अट्टर उद्द भाणं णाणसा० १४ अजहएणमणुक्क्रस्सलद्धिसा० ३० अट्टरउदं झायइ भावस. २०१ अजहएणमणुक्कसं बद्धिसा० ३२ | अट्टरउद्दारूढो भावस० १६८ अजिअं अजियमहप्पं जंबू० प० २, २०६ | अटुंरुद्द च दुवे मूला० ६७५, ६७७ अजियजिणपुप्फदंता तिलो० ५० ४, ६०७ | अट्टे चउप्पयारे भ. श्रारा० १७०१ अजियजिण जियमयणं तिलो० प० २, १ | अट्ट अणुदिसणामे तिलो० ५०४, १६७ अजजिणणंदिगणिसव्व- भ० श्रारा० २१६५ अट्ठ अपुण्णपदेसु वि लद्धिसा० १२ अजजसेणगुणगण- गो० जी० ७३३ अट्ठ' पालइ मूल गुण सावय० दो० २६ अज्जवम्लेच्छखंडे कत्ति० अणु० १३२ अट्ठकसाये च तो वसु० सा० ५२१ गो० जी० ८० | अट्ठ-ख-ति-अट्ठ-पंचा तिलो० प० ७, ३८८ अज्जवसप्पिणि भरहे, दुस्समया रयण० ५६ | अद्वगुणमहड्ढीओ जंबू० ५० ११ २५५ अजवसप्पिणि भरहे, धम्मज्माणं रयण० ६० | अट्ठगुणाणं लद्धी भावसं० ६३८ अज्जवम्लेच्छमणुए . Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची अट्ट गुणिज्जा वामे गो० क० ८४६ अट्ठत्तरि अधियाए तिलो० प० ४-५७६ अद्वगुणिढिविसिट्टा तिलो० सा० २१६ अत्तरि संजुत्ता तिलो. १०४-२३८२ अट्टगुणिदेगसेढी तिलो० ५० १-१६५ अत्तरि सहस्सा तिलो० प०४-२६१६ अट्ठचउएक्कअडणभ या तिलो. प०४-२८८१ अत्तरीहिं सहिया गो० क. ५०६ अट्ठचउछक्कएका तिनो० म०७-२५१ अकृत्तालसहस्सा तिलो० प०७-३६६ अट्ठचउदुतितिमत्ता तिलो. प०७-१२ अट्ठत्तालसहस्सा तिलो० ५० ७-३५१ अट्ठचउरटुवीसे पंचसं० ५-२२२ अट्टत्तालसहस्सा तिलो. प० ४-६३ अट्ठचउरेयवीसं पसं०५-३६२ अट्टत्तालं दुसरं तिलो. प०२-१११ अट्रच उसत्तपणचउ- तिलो० ५० ४-२८३२ अत्तालं लक्खा तिलो० प० ७-६०३ अट्ठ चदु णाणदसण दवस० गय० १४ अत्ताला दीवा तिलो० प०४-२७१७ अट्ट चदु पाणदसण दन्वसं० ६ / अट्ठत्तिय दोगिण अंबर तिलो० ५०४-२६५६ अट्टचदुदुगसहस्सा तिलो. १०८-३०६ अट्टत्तीसद्धलवा गो० जी० ५७४ अट्ठञ्चिय जोयणया तिलो० ५० ४-१६४१ अट्ठत्तीसद्धलवा जंबू०प०१३-६ अट्ठच्चिय लक्खाणि तिलो०५०८-७० अटुत्तीससदाइ जंबू०प० ११-२६ अट्ठच्चिय लक्खाणि तिलो. प०८-७१ | अट्ठत्तीससहस्सा गो० क० ५०५ अटुच्चिय लक्खाणिं तिलो० ५० ७-६०१ अत्तीससहस्सा पंचसं० ५-३८१ अट्ठ छ अट्ठय छद्दो तिलो. प०४-२६६४ / अट्ठत्तीससहस्सा तिलो. प०७-५८२ अट्ठछचउदुगदेयं तिलो. प० १-२७६ अट्टत्तीससहस्सा तिलो. १०४-१६६८ अछणवणवतियचउ- तिलो० ५० ४-२८८ अहत्तीसं लक्खा तिलो० ५०८-२४५ अट्ठ छदु अट्ठ तिय पण तिलो० ५० ४-२६३८ अट्टत्तीसं लक्खा तिलो. प०२-११५ अट्ठकम्मरहियं ____ जंबू० प. १०-१०२ | अट्ठत्थाणं सुरणं तिलो०५०४-१. अट्ठकम्मरहियं जंबू० ५० १२-११३ | अदलकमलमज्झे णाणसा०२६ अट्ठरेहछिण्णे रिहस० २०४ | अट्ठदलकमलमज्झे वसु० सा० ४७० अट्ठसहस्साणिं तिलो० प०४-१८८६ अट्ठ दस पंच पच य धम्मर० १८३ अट्ठसिहरसहिओ जंवू० ५० १-१७४ अट्ठदसं अहियाणं सुदख०७८ अट्ठा कोडीओ जंबू०प०४-८७ | अट्ठदसहत्थमत्तं . वसु० सा०३६३ अट्ठट्ठा कोडीओ जवू० प० ११-३०१ । अट्ठदुगतिगचदुक्के कसायपा०३७ अट्ठी बत्तीसं . पसं० ५-३१४ तिलो. प०४-२८४६ अहदी सत्तरस य तिलो० सा० ४०२ अट्ठदुणवेकअट्ठा तितो. प. ७-३१६ पंचसं ५-३१६ अट्टी सत्तसया सत्ता तिलो०प०-३३४ अट्रड तिय णभ छहो तिलो० प० ४-२६८१ अट्ठपदेसे मुत्तूण भ० पारा० १७७६ अट्ठणवणभचउक्का तिलो० ५० ४-२६१४ | अट्टाहियसहस्सं तिलो० ५०४-१८७२ अट्ठएणव उवमाणा तिलो० प०८-४६ अट्टमए अट्टविहा तिलो० प० ४-८५६ अट्ठएहमणुकस्मो पंचसं० ४-४३८ अट्टमए इगितिसया तिलो प०४-१४३० तिलो०प०४-४६४ अट्ठएहं आदिएणे छेदपिं० २३७ / अट्टमए णाक्गदे तिलो०प०१-३ गो. जी. ४५२ अट्टण्हं फम्माण अट्ठण्हं जमगाणं जंबू०प०११-७६ / अट्टमछट्टचउत्थे तिलो० सा० ७६५ अट्टराई जमगाणं जं० प० ११-३० / अट्ठमठाणम्मि ससी रिट्ठस० २४२ अट्ठण्हं देवीणं तिलो. सा० ५१२ | अट्टमवग्ग उत्थं णाणसा० २१ अट्टएहं पि य एवं गो. क. १६१ / अहम भरहकूडा जं० प०२-५९ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी - अटु य छञ्चदु दोरिण य छेदपिं० ३१ | अट्ठसमयस्स थोवा अट्ठय पणटुसोया जबू०५. ११-२३६ अट्ठसयचावतुगो अट्ठ य बंधहाणा पंचस० ४-२५२ | अट्ठसयजोयणाणि अट्ठ य सत्त य छूक य पचसं०५-३१ अट्ठसय णमोकारा अट्ठ य सत्त य छक्क य पचस० ५-३८६ | अट्ठसय अट्ठसय अट्ट य सत्त य छक्क य गो० क० ५०८ | अट्ठसयं अट्ठसय अट्ठ य सत्त य छञ्चदु छेदपिं० ३७ | अट्ठसया अडतीसा अट्ठरस महाभासा सिलो. प०१-६१ अट्ठसया पुव्वधरा अट्ठरस महाभासा तिलो० ५० ४-८६६ | अहसहस्सभहिय अट्ठरस मुहुत्ताणिं तिलो. प. ७-२८६ अट्ठसहस्सा चउसयअट्टरसं अंताणे (णिं) तिलो० ५० १-१२३ | अट्ठसहस्सा णवसयअट्ठ वि कम्मइ बहुविह: परम० ५० १-५५ | अट्ठसहस्स अट्ठ वि गन्भज दुविहा कत्ति० अणु० १३१ अट्ठसहस्सा य सदं अवियप्पं साहिय- तिलो० ५० १-२६७ | अट्ठसहरुमहिं तहा अवियप्पे फम्मे समय० १८२ अट्ठस असंजयाइसु अट्ट वि सरासपाणिं तिलो० ५० २-२३१ अहसु एक्को बधो अट्ठविहश्रवणाए भावस० ४५५ / अट्ठसु एयवियप्पो अविहफम्मजुसो अंगप०१-२७ अट्टविहफम्ममुक्का जंबू० प० ११-३६४ / अट्टहॅ फम्म बाहिरउ अट्टविहकम्ममुक्के सिद्धम० १ | अटुंगणिमित्तमहाअट्टविहकम्ममूलं मूला० ८८२ | अट्ठ छक ति अटें अट्ठविहकम्मरहिए जंबू० ५० १-२ | अटुं तालं दलिदं अट्टविहफम्मवियडा धम्मर० १६१ | श्र8 बारस वग्गे अटुविहकम्मवियडा पचस० १-३१ अटुं सोलस वत्तीअट्टविहकम्मवियला गो० जी० ६८ अट्ठाणउदिविहत्तो अट्टविहकम्मवियला तिलो. प० १-१, | अट्ठाणउदी जोयणअट्ठविहच्चण काउं भावस. ४६६ अट्ठाणउदी रणवसय अट्ठविधाउ णिच्चे ढाढसी०३ अट्ठाणवदिविहत्ता अट्ठविहमंगलाणि य वसु० सा० ४४२ अट्ठाणवदिविहत्तं अट्टविहसत्तछब्ब गो. क. ६२८ | अट्ठाणवदी णवसयअट्ठविहसत्तछब्ब पचस०४-२१६ / अट्ठाण वि पत्तेक्क अट्टविहसत्तछब्ब पचस०५-४ अट्टाणं एकसमो अट्ठविहं पि य कम्म समय०४५ अट्ठाणं पि दिसाणं अट्ठविहं वेयंता पंचस. ४-२२५ अट्ठाणं भूमीणं अट्ठविह सव्वजगं तिलो० ५० १-२१४ / अट्ठादिज्जा दीवा अट्ठविहा कयपूया सुदख०६७ अट्ठारस कोडीओ अट्ठसगछक्कपणचउ- विलो० प०२-२८६ ।। अट्ठारस चोदसगं अट्ठसगसत्तएका तिलो० पु०-३३५ अट्ठारस छत्तीसं अट्ठसदं देवसियं मूला० ६५७ अट्ठारस जोयणया अट्ठसदा(या) बादाला जबू०प०११-१३ । अट्ठारस जोयणाई गो० क. २४३ तिलो० प० ४-४३६ तिलो० ५० ७-१०४ छेदपि । जबू० प०६-१६० जंबू० ५० ५-३३ विलो० प. ८-७६ तिलो. प०४-११३६ तिलो० ५०४-१९७० तिलो. प०४-२१३६ तिलो. प०४-१९E. तिलरे. प.८ ३८२ पचस०५-३६१ जबू०प०५-११३ पसं० ५-२१५ गो० ० ६५३ पचसं० ५-६ पचसं०५-२६१ परम० ५० १-७४ सुदख० ४७ सिलो. १७-३१४ तिलो.पं०२-७१ तिलो. प. १-२३१ तिलो. प०३-१५२ तिलो० ५० १-२१० तिलो. प० २-१८४ तिलो. प० २-१७७ तिलो० ५० १-२५७ तिलो० ५० १-२४२ तिलो. प०२-१८५ तिलो. प०६-१८ तिलो० ५० ४-२२६३ तिलो. प० २-५७ तिलो० प०४-७२६ जंबू० ५० १३-१५२ तिलो० ५० ४-१३८८ कसायपा०५१ गो० जी० ३५७ विलो० प० ७-४१५ तिलो० प० ४-२७३७ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन जैनवाक्य-सूची जबू० प० ११-६२ |अट्ठावीससहस्सा मूला० १०८२ श्रट्टावीमं चडवीतिलो० ० सा० ७६५ श्रद्वावीसं च सदं अट्ठावीस रिए अहावीमं गिरए अट्ठावीस रिक्खा अट्ठावीस लक्खा पंचस० ४-४१५ तिलो० प०७५०७ जंबू० प० ११-१७ जंबू० १२- ३० तिलो० प०२-१३७ | अट्ठावीसं लक्खा तिलो० प० ८-५७ तिलो० प० ४-६४४ अट्ठारस विवसाया (चैत्र सया) तिलो०१०७ - ४२१ अट्ठारस वीसदिमा श्रद्धारसहस्सा रिंग अट्ठारसा सहस्सा ६ अट्ठारस जोयलिया अट्ठारस जोयणिया अट्ठारस तेरस श्रडअट्ठारस पयडी अट्ठारस भागसया अट्टार सयसहस्सा अट्ठार सय सहस्सा अट्ठार लक्खाणि अट्टारलक्खाणि अट्ठारसवरिसाधिय अट्ठारसुत्तरस अट्ठारसुत्तरसयं अट्ठारसेहि जुसा अट्ठारहकोडीvi अट्ठारह चर अट्ठ श्रावण साि अट्ठावरणसहस्सा अट्ठावरण सहस्सा श्रावणसहस्सा अट्ठावरणसहस्सा अट्ठावणसहस्सा श्रावणं दंडा अट्ठावरणा दुसया अट्ठावयम उसहो अट्ठावीस दुवीसं अट्ठावीसवित्ता अट्ठावीसविहत्ता अट्ठावीस सदाई वीससाण अट्ठावीस सहसं अट्ठावीससहरसं अट्ठावीस सहस्सा अट्ठावीससहस्सा अट्ठावीस सहस्सा अट्ठावीससहस्सा अट्ठावीससहस्सा तिलो० प० ७-४०० तिलो० प० ७-३७२ तिलो० प० ७-३५४ तिलो० प०२-२५८ तिलो० प० ८-५८ व्विा० भ० १ तिलो० प० ४-१२२५ कसायपा० २७ अट्ठावीस लक्खा अट्ठावीस लक्खा अट्ठावीसं लक्खा छेदपिं० २३२ अट्ठावीसाहिं तहा मिलो० प० ४ - १४०३ | अट्ठावीसाहिं तहा तिलो० प० ४, २५७० | अट्ठावीसाहि तहा तिलो० प० ७-४५० |अट्ठावीसाहिं तहा तिलो० प० ७ - १६६ | श्रट्टावीसुतीसा पचस० १-४१ | अट्ठावीसुत्तरसयजंबू० प० ७-६६ | अट्ठावीसेहिं तहा गो० क० ३६३ | श्रट्ठावीसेहिं तहा तिलो० प०४ - २६०० | अट्ठासट्टिसहस्सं तिलो० प० ७-३०६ | अट्ठास द्विसहस्सा तिलो० प० ४ - १७७५ अट्ठासहि सहस्सा अट्टासट्ठि तिसया अट्ठासट्ठीहीणं अट्ठासी दिगहाणं अट्ठासीदिसयाणि अट्ठासीदिसहस्सा अट्ठासीदी अधिया तिलो० प० ४ - १२६१ तिलो० प० १-२४१ तिलो० प० १-२४० जंबू० प० ११-२७ तिलो० प० ४ - ११४५ अट्ठासीदी लक्खा अट्ठामीदी लक्खा | अट्ठिगिदुगतिगच्छण्णभअट्टि छिरणं गालिखिश्रदिलिया छिरावकतिलो० ० सा० २८२ | अट्ठि य प्रयभुत्ते तिलो० प० ४ - २३७८ श्रद्धिसिरारुहिरवसाजबू० प० ११-२८ | श्रहिं च चम्मं च तहेव मंसं तिलो० प० ४ - २२३८ अट्ठी होंति तिरिण हु तिलो० प० ४ - १९६१ अट्ठीहिं पडिबद्धं तिलो० प० ४, १७१४ | अत्तरमेक्कसयं तिलो० प० ४-२२३० | अत्तरसयकोडी श्र जबू० प०३-२३ पचसं० ४-२५८ ո पचस० ५-५२ नंवृ० प० १२-१०८ तिलो० प० ७-६०२ तिलो० प०८-४३ तिलो० प० ४-२५६२ तिलो० प० २ - १२६ तिलो० प० ४-१४५५ जंबू० प० ६-१२५ जंबू० प०६-१०८ जंबू० प०८-१८ जवू०प० ६-६२ पचसं० ५-४६१ तिलो० प० ४-३६६ जवू० प० ८-१६२ जंबू० प० ६-३१ तिलो० प० ४-२३८१ तिलो० प० ७-३०० तिलो० प० ७-४०२ तिलो० प० ७-५६ १ तिलो० प० २-६३ तिलो० प० ७-४५८ तिलो० प० ४ - १२१५ तिलो० प०८-२२५ तिलो० प० ७-१६ 9 तिलो० प०८-२४१ तिलो० प० ७-६०६ तिलो०प०४-२८६६ मुला० ८४६ भ० श्रारा० १८१६ छेदस० ५३ तिलो० प०३-२०८ मूला० ८४८ भ० आर० १०२७ बा० श्रणु० ४३ तिलो० प० ८-१९६ सुदख० ५२ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी अत्तरसयमेत्तं तिलो० प० ४-१६८४ अडछब्बीसं सोलस गो० क० ६४६ अट्टत्तरमयसरिए तिलो० ५० ४-८१७ अडछब्बीसं सोलस पचस०५-२८७ अट्टत्तरसयसंखा तिलो० प० ४-१६८५ | अडजोयणउत्तंगो तिलो० ५० ४-२१५० अहत्तरमयसंखा तिलो० प०४-१८६८ अडजोयणउबिद्धो तिलो० ५०८-४१३ अट्टत्तरसयसंखा जबू० प० ६-७३ | अडडं चउसीदिगुणं तिलो प० ४-३०१ अठुटो सुहुमो त्तिय गो० क० ४५४ | अडण उदिअधियणवसय तिलो० ५० ५-७७४ अट्ठ अजधागहणं पवयणसा० १-८५ अडणउदिसया ओही तिलो० प०४-११०७ अट्ठक छ अट्ठ तियं तिलो ५० ४-२८०८ | अडणवछक्केक्करणभं तिलो० ५०४-२८६५ अट्ठक्करणवचउक्का तिलो०७-२४८ अडणवदी वाणवढी तिलो० प० १-२४३ अटेगारस तेरस पचस० ५-२१८ अडतियणभअडछप्पण- तिलो०प०४-२६५१ अट्टहालसहस्सा जंबू० प० ७-४७ अडतियणभतियदुगणभ- तिलो०प०४-२८६१ अटेदालसहस्सा जबू० प० ६-१६३ अवियसगट्टइगिपण- निलो० प०४-२६३० अट्ठयारह चउरो पचस० ४-६५ अडतीसा तिरिणसया सुदखं० ६० अट्रेव गया मोक्खं तिलो० ५० ४-१४०८ अडतीसलक्खजोयण- तिलो० प०८-२६ अट्ठव जोयणाई जवू० ५० ३-५२ । | अडवालसयं उत्तर अगप०२-६० अट्ठव जोयणाई जवू०प०४-५० अडदालसयं श्रोही तिलो० प०४-११३३ अट्ठव जोयणेसु य जबू० ५-५० अडदालसहस्साणिं तिलो० ५०४-१६७८ अट्ठेव दिसगइंदा जबू० ५० १-५८ | अडदालं चारिसया गो० क०८७२ अट्ठव धणुसहस्सा मूला० १०६५ अडदाल छत्तीस गो० क० ८५५ अट्ठव मुणह मासे रिट्ठस० १०३ / अडदाला सत्तसया जवू० प० २-३४ अट्ठव य उबिद्धा जवू० प० २-८७ / अडदाला सत्तसया जंबू० प० २-१०० अट्ठव य जोयणसदा जब० ५० १२-२ | अडपणइगिअडछप्पण- तिलो०प०४-२६५२ अट्ठव य दीहत्तं तिलो० ५०४-१६३५ अडमणवयणोरालं श्रास० वि० ५० अट्ठव सयसहस्मा गो० जी० ६२८ । अडमाससमधियाणं तिलो० प० ४-६५८ अटेव सहस्साई गो० क० ५०७ अडयाला बारसया पचस० ५-३१७ अट्टेवोदयभंगा पचस०५-३२६ अडलक्खपुचसमधिय- तिलो० प० ४-५६० अटेवोदयभंगा पंचस० ५-३२८ अडलक्वहीणइच्छिय- तिलो० ५० ५-२५० अटेवोदयभंगा पंचसं० ५-३२६ अडवण्णा सत्तसया गोक०६०८ अहसु जो ण मुज्झदि पवयणसा० ३-४४ अड ववहारात्थि पुणे श्रगप० २-११५ ज?हिं जवेहिं पुणो जबू० ५० १३-२३ | अडवस्सादो वरि । लद्धिसा० १३० अट्ठहिं तेहिं णेया जंब० ५० १३-२१ | अडवस्ते उवरिम्मि वि लद्धिसा० १३२ अहिं तेहिं दिवा' जब० ५० १३-२० अडवस्से य ठिदीदो लद्धिसा० १३६ अट्ठोत्तरसयसंखा जव०प०५-२३ अडवस्से सवहियं लद्धिसा० १३३ अट्ठोत्तरसयसंखा जबू० ३-१२० अडवस्से संवाहियं ललिसा० १३५ अट्ठोत्तरसयसंखा जवू० ५-२८ अडविहमणुदीरंतो पचसं०४-२२२ अड अडसीदी सग णह सुदख० ५७ श्रडवीसचऊ बंधा गो० क० ७३३ अडई-गिरि-दरि-सागर- भ० पारा० ८६० अडवीसतिय दुसाणे गो० ० ५५१ अडकोडि एयलक्खा गो० जी० ३५० | अडवीसदुगं बंधो गो० क० ७०० अडचउचउसगअडपण- तिलो०प०४-२६५८ | अडवीस हारदुगे गो० क० ५४६ • अडचउरेकावीसं गो० क० ५११ | अडवीस पुत्रअंग- तिलो० प०४-५६६ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची - अडवीस पुन्वअंगातिलों प०४-१२५६ भ.भारा० १२०० अडवीमिवुणतीसे गो० क० ७८१ अणणोकम्म मिच्छत्ता- गो० क०७५ अडवीसमयणदीणं जंबू० प०११-३७ | अरणथीणतिय मिच्छ गो० क० १७१ अडवीसं उणहत्तर तिलो० प०१-२४६ श्रणमपञ्चक्खाणं श्रास० ति०५ अडवीसं छत्रीसं तिलो० प० ३-७४ अणमिच्छविदियतसवह- पंचस०४-१२ अडवीसाई तिरिण य पंचपं० ५-४६० अणमिच्छमिस्ससम्म पंचसं० ५-४८३ अडवीसाई बधा पंचसं० ५-४५४ अणमिच्छमिस्ससम्म पंचसं० ३-५१ अडवीसा उणतीसा पचसं० ५-४४५ अणमिच्छाहारदुगू पंचसं०४-१४ अडवीसा उणतीसा पंचसं० ५-४४८ अणमित्तं जलबिंदू रिट्टस० ३४ अडवीसा उणतीसा पंचसं० ५-४५८ श्रणयारअंतकेवलि सुदख०६८ अडवीसे तिगि णउदे गो० क० ७५० अणयारपरमधम्म धम्मर० १८१ अडसगणवचउपडदुग- तिलो०५०४-२६७१ अणयारमहरिमीणं मूला० ७६८ अडसहि कुमुदसरिणभ- जंबू० ११-३३ प्रणयाराणां वेजा रयण०२५ अडसहिगदे तदिए सिलो० सा० ४२४ प्रणयारा भयवंता मूला० ८८७ अडसठिसयसहस्सा जंबू० प०४-१५८ अणरहिश्रो पढमिल्लो पंचसं० ५-३६ अडसहिसया णेया जंबू० पं०४-१६३ अणरहिदसहिदकूडे गो. क० ७६६ अडसट्ठी एकमयं गो० क० ८७१ | श्रणलदिसाए लंघिय तिलो. प०७-२१० अडसट्ठी छच्चसया जंबू० ५० ४-१६ श्रणवट्टसगाउस्से तिलो. सा० १६६ अडसट्ठी सेढिगया तिलो० प०८-१६५ | अणवरदसमं पत्तो तिलो० ५०-६४६ अडसय एक्कसहस्सम- तिलो०प०४-१२७० अणवरयं जो संचदि कत्ति० अणु० १५ अडसीदहावीसा . तिलो० सा० ३६२ असण-अवमोदरियं भ० आरा० २०८ अडसीदि दोसएहिं तिलो० प० ४-७४७ अणसण-अवमोदरियं मूला० ३४६ अडमीदि पुण संता पंचसं० ५-२२८ अणसंजोगे मिच्छे गो० क० ३२८-२० २ अडसीदिं पुण संता पंचसं० ५-२३० अणसंजोजिदमिच्छे । गो० क० ५६१ अडसीदी लक्खपयं अंगप०२ १५ गोक०४७८ अडसीदी लक्खपयं सुदख० २६ अणं अपञ्चक्खाणं कम्मप०५६ अडसीदी सगसीदी तिलो० ५० ४-६६० अणंतणाणादिचरक्कहेदु तिलो० प० ३-२१६ अडसोलस वत्तीसा जंबू० प० ३-१६४ / अणागदमदिक्कंतं मूला० ६३७ अड्ढस्स य अणलस्स य गो० जी० ५७३-क्षे०१ / अणागदमदिक्कंतं अंगप०२-६८ अड्ढस्स गिद्धस्स य शाय० ति० ६-१ | अणादिटुं च थद्धं च मुली० ६०३ अड्ढाइज्जतिपल्लं तिलो० सा० २४३ अणादेज णिमिणं च पंचसं० ३-६३ अड्ढाइन्नसयाणिं तिलो० ५०३-१०२ । अणाभोगकिदं कम्म मूला० ६२० अड्ढाइज्जं तिसयं तिलो० सा० २३७ अणिगूहिदबलविरिओ म० श्रारा० ३०७ अड्ढाइज पल्लं तिलो० प० ३ १७० अणिगूहियबलविरिओ मूला० ४१३ अड्ढाइज्जं पल्ला तिलो० प० -५१२ | परिणदाणगदा सव्वे तिलो० ५०४-१४३४ अड्ढाइज्जा दोरिण य तिलो० ५०३-१५० अणिदाणो य मुणिवरो भ० प्रारा० १२८३ अड्ढादिज्जा दीवा जंवृ० ५० १३-१५२ धम्मर० १७७ अणउदयादो छण्हं कत्ति० अणु० ३०१ अणिमा महिमा गरिमा तिलो० ५० ४--१०२२ अण-एइंटिग्रजाई पसं० ३-३३ / अणिमा महिमा लधिमा वसु० सा० ५१३ अरणगारकेवलिमुणी तिलो० ५० ४-२२८३ । अणिमा महिमा लहिमा मावसं०४१० Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • श्र यस्य पढ अणियां कररणाम किरण पढमा किरण पढ श्रणिट्टगुट्ठाणे यिट्टिवरिमठाणा यदि दुग-दु-भागे यिाियरे थी मि विप्पा यियि मत्तरसं श्रयिट्टिय संखगुणे श्रयिट्टिदयभंगा यदुवंध यस्य पढ यिहिं मिच्छाई यी श्रद्धा ट्टी बंध त संखेन अणियाण य सत्तरह य अणिया य सत्तरह य लिदिसामु सूकरसिहं पुरा दुवि अणिहुनपरगद ह्रिदया दिमसाइदियअमिसा दे कट्टपदे दे अणुकंपा कहा य कपा कहा य अनुकंपा सुद्धवकूल परिणयं अणुकूला परिकूला अणुकुलो समरजय खधवियपेण दु अगामी सादिसु गुरुचाववि अगुरुदेहपमाण अगुरुदेहपमाणे प्राकृतपद्यानुक्रमणी 劈 लद्धिसा० ४०८ गुणासिया उ भ० थारा० २०६४ | सियाय पुणे गो० क० ४८३ | गुनशुकरण अणिमा लद्विसा० ११८ अणुदयतदियं गीघमगो० क० ३६२ | अणुदयसव्वे भगा गो० क० ३८६ अदिस अणुत्तरेसु हि भाव० ३८ श्रदिसणुत्तरदेवा पंचस० ५-४८६ दु एहिं वे पचस० ५ - ३६५ अणुपणा अपमाण य पचमं० ५-३७३ | प्रणुपरिमाणं तच्चं सि० ६५ पालिस एवं पचस० ५- ३५८ अणुपालिदा य आणा पत्रसं० ५-४०६ श्रगलिदो य दीहो लद्विसा० २२४ अणुपुत्रमपुत्र पचसं० ४- ३६५ | अणुपुत्रीसंकमण द्विसा० ११३ अणुपुत्रेण य ठविदो गो० क० ६५४ | अणुपुव्वेणाहारं द्विमा० ११५ | श्रणुपेहा बारह वि जिय जवृ० प० ११–२४० अणुद्धतवो+म्मा जवृ० प० ११-२४२ | अणुवधरोस विग्गहतिलो० प० ४-२७२५ अणुभयगायतरजं मूला० ४४४ | अणुभयवचि वियलजुदा भ० श्रारा० ६६० | श्रणुभयवयरोग जु भ० श्रारा० १८३८ | अणुभाग पदे माइ पुछिय गुरु मूला० ७३२ | अणुभागाणं वधज्मगो० क० ६०६ | अणुभागो पयडीगं छेदस० ११ अणुभासदि गुरुवयण छेदपिं० ३५७ अमइ देइ भ० श्रारा० १८३४ | अणुमा भावसं० ४१३ राहा पुस्से श्राय० ति० २-३३ राहा से श्राय० ति० २-२१ | अलोमा वा सत्तू णियम० २० | अणुलोहं वेदतो अगप० २-७३ | अलोहं वेदंतो जबू० प० २-३० | अलोह वेयंतो ०४८ | लोह वेयंतो अणुवत्तणाए गुणवत्तपंचसं० १–१२४ | अणुवदमहव्वदेहिं दव्वस० १० गोगामी अणु जह जगह वि अहिययरु परम० प० २ - ६ अणुवदमव्वदेहिं अासिएस उत्तर- श्राय० ति० १६-११ अणुवमममेयमक्खय हे श्राय० ति० १६-६ थाय० ति० १८-६ तिलो० प० ४ - १०२४ गो० क० ३४१ पचसं० ५-३४० भावसि० ७७ मूला० १२१८ सम्मइ० ३-३६ तिलो० प० ६-८१ कत्ति० श्रणु० २३५ वसु० सा० ४६४ भ० श्रारा० ३२६ • भ० थारा० १५४ कसाय० ३६ लद्धिसा० २४७ भ० श्रारा० ६६६ भ० श्रारा० ७२ गो० जी० ६० गो० जी०, ४७३ Pr भ० श्रारा० २४७ पाहु० दो० २११ मूला० ८२६ भ० श्रारा० १८३ हिसा० २४५ गो० क० ३११ सिद्धत० २३ तिलो० प० १-१२ गो० क० २६० श्रगप० २-६२ मूला० ६४१ सावय० दो० १६ भ० श्रारा० ५७२ तिलो० प० ४-६५१ तिलो० प० ४-६५० चसु० सा० ५२३ पचस० १-१३२० भ० श्रारा० ६६८ गो० क० ८०७ कम्मप० १५२ भ० श्रारा० २१५३ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० अणुवमवत्तं णत्रअणुवय-गुण-सिक्खावयइँ अवय-मव्यएहि य अवय-मव्वया जे अवेक्खाहिं एव अणुसज्जमागए पुरा अणुसमप्रवट्टणयं अणु-सखा सखज्जा अणु सिट्ठि दादू य अणुसूरी परिसूरी अणुहवभावो चेयणअरण्ड रूवं दव्व अण्णकए गुणदासे श्ररिणामत्तपजिदरणणिरावेक्खो जा रणा एदस्सि अत्थठियस्ये अरणदरश्राउसहिया दविण अददिसा-विदिसासु अण्णभवे जा सुग्ररणा मि चाविदा अणम्मि भुजमाणे अरणयरवेयरणीय अयर वेयणीयं प्रणयरवेणीय अरण्यर वैयग्गायं प्रणयरवेणीय रिसाणच दु (खो १) असो वा अस्सो वा अरण अपेन्द्रसिद्ध अरणं अवरज्भ तरस अरणं इमं सरोरं अएण इम सरीरा - इमं सरीराश्रण इय सिरिज्जइ गिरहद देहं यण च एवमाहं श्रएगा च एवमादिय पुरातन-जैनवाक्य-सूची अरणं च जम्मपुत्रं अरण च वसिद्धमुणी रणंज इय उत्तं stri देहं firefr मूला० ७६४ | अण्णं पि एवमाई भ० श्रारा० ६६८ | अण्णं पि ता वत्थु लद्धिसा० १४८ | अण्णं बहुउवदेसं कल्लाणा० १३ गो० जी० ५६३ तिलो० प० ४-८५ सावय० दो० ५६ पचस० ४- २०७ | भ० श्रारा० २०३४ ३० धारा० २२२ दव्वस० णय० ६३ कत्ति० श्र० २४० भावस० ३६ छेदपि ० १६६ णियम० २८ तिलो० प० ४ - २३६५ मूला० ७०२ बा० श्रृगु० २३ | | भावस० १६ भ० थारा० १७७३ | प्रणव एवमादी अणविय मृलुत्तर| अण्णाएं आवंति जि य अण्णाएं दालिद्दियहॅ अणा ढालिद्दियहॅ णाएं बलि वि खड गो० क० ४३६ निए होति य गो० क० ३७८ | अण्णा रण तिमिरदलणे समय० ३७२ | अण्णागतियं दोस तिलो० प० ८-१२४ रणति हो कत्ति० श्रृणु० ३६ | अण्णादुगे बंधो भ० धारा० ७४ अण्णाणणेहगारव भावसं० ३२ पचसं० ३-४१ अण्णा रणधम्मगारवअण्णाणधम्मलग्गो पचम० ३-४४ | अण्णा रणमश्र भावो पचस० ३-६४ अरणारणमया भावा पचस० ५-४६६ अण्णारणमया भावा पचस० ५-४६७ | अण्णा मोहिए हि छेद्रपि० २६४ मोहिमदी भ० श्रारा० ८३६ अणावाइया भ० श्रारा० १०२३ | अण्णारावाहिदपे मूला० ३११ भ० श्रारा० ८६४ भ० धारा० १६७० अण्णारण अहंकारेअण्णारण घोरतिमिरं णातिए ताणि य गावाहि अण्णारणस्य स उदश्रो णाणं मित्तं श्रएणारणाओ मोक्खं श्ररणा रागविरणामो अलापा गाणी पाटो मोrat • दमणमा० १५ | अण्णा णि ण्वमाई भ० श्रारा० ४४६ श्राणि वि जम्हा , कत्ति० रिस० १० भावपा० ४६ भावस० ११६ कत्ति० श्र० ८० ० श्रणु० २०६ श्र भ० श्रारा० ३३८ तिलो० प० ४-५०० भ० श्रारा० ५५७ छेदपि ० २२६ सावय० दो० १४५ सावय० दो० १४८ सावय० दो० १४६ सावय० दो० १४७ छेदपिं० १५३ तिलो० प० १-४ सिद्धत० ३७ पंचस० ४-३० जबू० प० १-७४ पचस० ४-६६ गो० जी० ३०० गो० क० ७२३ भ० श्राग० ६१३ पिं० १५४ भावस० १८६ समय० १२७ समय० १२६ समय० १३९ J धम्मर० १२८ समय० २३ अगप० ०.२७ छेटस० ३८ छेदपिं० १९ समय० १३२ चारि० पा० १४ भावस० १६४ धम्मर० १२७ पचस्थि० १६४ दमणमा० २१ चमु० मा० १८६ सु० सा० २३६ • Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी ११ अण्णाणि य रइयाड भानस० २५६ / अण्णो उ पाव उदए- वसु० मा० १८६ अण्णाणी कम्म फलं समय० ३१६ | अण्णो करेड अण्णो समय० ३४८ अण्णाणीदो विसयविरयण०७४ दसण. सा० १० अण्णाणी पुण रत्तो समय० २१६ | अण्णोएणगुणिदरासी गो० क. २४६ अण्णाणी वि य गोओ (बो) भ० श्रारा० ७५६ | अण्णोएणगुणेण तहा जबू०प० १२-५४ अण्णाणी हु प्रणीसो गो० क० ८८० अण्णोएणगुणण तहा जबू प० १२-६३ अण्णादमणुएणादं मूला० ८१३ अएणोएणगुणेण तहा जंवू० ५० १२-७७ अण्णायं पासतो सम्मइ०२-१३ | अएणोएणणुकूलाओ मुला० १८८ अण्णा वि अत्थि अणुगुण- छेदपिं० ३२३ अण्णोएणपवेमण य कत्ति० अणु० ११६ अण्णु जि जीउ म चिनि तुहं पाहु. दो० ७४ | अएणोएणभत्थ पुण गो. क४३३ अण्णु जि तित्थुम जाहि जिय परम० ५० १-६५ | अएणोएणभत्थेण य जबू० प०४-२२८ अण्णु जि दसणु अस्थि ण वि परम०प०१-६४ अण्णोएणभत्थेण य जबू, प० १२-५६ अण्णु जि मुललिउ फुल्लिय उ सावय० दो० ३५ अएणोएणं खज्जता कल्लाणा० ७ अण्णु गिरजणु देउ पर पाहु० दो० ७६ अण्णोएणं पविसंता। पचस्थि० ७ अण्णुगणं खज्जंता कत्ति० अणु० ४२ | अण्णोएणं वझते तिलो. प० २-३२४ अण्णु तुहारउ णाणमउ पाहु० दो० ५६ अण्णोण्णाणुगयाण सम्मइ० १-४७ अण्णु म जाणहि अप्पणउ पाहु. दो० ६ अण्णोण्णाणुपवेसो वसु० सा० ४१ अण्णुवइट्ठ। मरिणय सावय० दो २४ | अण्णोएणुवयारेण य गो० जी०६०५ अण्णु वि दोसु हवेइ तसु परम०प० २-४५ | अपणो वि फो वि ण गुणो भ० श्रारा० १६२४ अण्णु वि दोसु हवेड तसु परम० प० २-४६ | अएणो वि परस्सं जो वसु० सा० १०८ अएणु वि वधु वि तिहुयण] परम० प० २-२०२ । अण्हयदारोवरमण- भ० श्रारा० ११८६ अण्णु वि भत्तिए जे मुग्णहिं परम० प० ०-२०५ अतिवाला अतिबुड्ढा मूला० ४६६ अण्णे क्लबबालुय- घसु० सा० १६६ | अतिहिस्स संविभागो वसु० सा० २१८ अण्णे कुमरणमरणं भावपा० ३२ अत्ता कुदि सहाव पचत्थि० ६५ अण्णे भणंति एद छेदपिं० ३६ अत्तागम तच्चाइयह सावयः दो० १६ अरणे भणंति एद छेदर्पि० १६० अत्तागमतच्चारण णियम० ५ ठाएणे भणंति चाउ छेदपि १०६ अत्तागमतञ्चाण घसु० सा० ६ अएणे भणंति जोगा छेदपिं० १३० अत्ता चेव अहिंसा भ. श्रारा० ८०३ (२०) अण्णे य पव्वदाणं जबृ० प०६-१६ अत्ता जस्साऽमुत्तो समय० ४०५ अण्णे य सुदेवत्तसुवसु० सा० २६६ अतादि अत्तमम णियम० २६ अण्णे वि एवमादी छेदपिं० २६५ अत्ता दासावमुका वसु० सा० ७ अण्णे विविहा भंगा तिलो. प० ४-१०४६ | अत्थइ सणी णवसये तिलो० सा० ३३४ अण्णे मगपदविठिया तिलो० सा० ६८३ अत्थक्खर च पदस- _गो० जी० ३४७ अण्णेसिं अण्णगुणो दव्धस० णय०२२२ अत्थणिमित्तमदिभय भ० श्रारा० ११२६ अण्णेसिं अत्तगुणा णयच०५० अत्थम्मि हिदे पुरिसो म० श्रारा० ८५६ अण्णेसिं वत्थूणं अगप० २-४८ अत्थस्स जीवियस्स य मूला० ६८७ अण्णेहि अणंतेहि तिलो० ५० १-७५ अत्थस्स संपोगो मूला• १०२६ अण्णेहि अविण्णादे छेदपिं० १४६ अत्थं अक्खणिवदिदं पवयणसा० १-४० अपणो अपण सोयदि या० अणु० २२ अत्थ कामसरीरा मूला० ७२५ अण्णा अण्ण सोयदि मूला० ७०१ । अत्थं गओ गहो जो श्राय० मि० ४-२८ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जनवाक्य-सूची (७२) अत्थंतरभूएहि य सम्मइ० १-३६ अत्थेसु जो ण मुज्झदि पवयणसा० ३-४४ अत्थं देखिय जाणदि गो० क. १५ | अत्थो बलु दव्यमओ पवयणसा० २-१ अत्थं देक्खिय जाणदि कम्मप० १५ | अथ अप्पमत्तभंगा पंचस० ५-३६४ अत्थं बहुयं चिंता जंबृ० प० १३-७४ | अथ अपमत्तविर दे पंचसं० ५-३७६ अत्थाओ अत्यंतर- पंचसं० १-१२२ | अथ थीणगिद्धिकम्म कसाय०१ अत्थाण वंजणाण य भ० श्रारा० १८८२ | अथ सुदमदिआवरणे कसाय० २११ (१५८) अत्थादो अत्थंतर गो. जी. ३१४ / अथ सुददि उवजोगे क्साय० १८६ (१३६) अत्याहो अत्थतर कम्मप० ३८ अथिरअसुहदुभगया मूला० १२३३ अस्थि अणंता जीवा मूला० १२०३ अथिरसुभगजसअरदी लद्धिसा० १५ अस्थि अणंता जीवा गो० जी० १६६ अथिरं परियणमयणं कत्ति० अणु०६ अत्थि अणंता जीवा पचत १-८५ | अथिरादावणअभो छेदपिं० १३६ अस्थि अणाईभूत्रो(दो) कम्मप० २३ | अथिरेण थिगमइलेण पाहु० दो० १६ अत्ति अमुत्तं मुत्त पवयणसा० १-२३ | अदंतवणमेगभत्ती अंगप०१-१६ अत्थि अविणासधम्मी सम्मइ० ३-५५ | अदिकमण वदिकमणं मूला० १०२६ अत्थि कसाया बलिया श्रारा० सा०३६ अदिकुणिममसुहमरणं तिलो० ५० २-३४५ अत्यि जिणायमि फहियं भावस० २०२ अदिकोहलोहहीणा जंबू०प०१०-५६ अस्थि ण उच्भउ जरमरणु परम० प० १-६६ अदिगूहिदा वि दोसा भ. श्रारा १४३१ अस्थि ण उभर जरमरणु पाहु० दो३५ अदिभीदाण इमाणं तिलो० ५० ४-४७८ अस्थि ण पुण्णु ण पाउ जसु परम० ५० १-२१ । अदिमाणविदा जे तिलो. प०४-२५०१ अत्थि णवट्ठ य दुदा गो० क० ७३८ । अदिमाणाव्वदा जे जंबू प. १०-६३ अस्थित्तणिच्छिदस्स हि पवयणसा० २-६० | अदिरेकस्म पमाणं तिलो. प० ७-४७८ अस्थित्तं णो मरणदि दव्वस० गय० ३०३ अदिरेक्स्स पमाणं तिलो०प०७-४८४ अत्थित्तं वत्थुत्तं दवस०,णयः १२ | अदिरेगस्म पमाणं तिलो. प०४-१२५७ अत्यित्ताइसहावा दव्वस० णय० ३५५ | अदिरेगस्म पमाणं तिलो०प०४ १२५६ अत्थित्ताइसहावा दव्वस० गय०७० अदिलहुयगे वि दोसे भ० श्रारा० ६४५ अस्थि त्ति यात्थि उहय दव्वस०णय. २५७ अदिवडइ बलं खिप्प भ० श्रारा० १७२६ अत्थि त्ति पत्थि गिधं दव्वस० गय०१८ अदिसयरणे [ हे ] हि जुदो जंबू० ५० १३-१०२ अत्थि त्ति णत्थि दो वि य दध्वस० णय० २५४ । अदिसयढारण दत्तं भ. श्रारा० ३२७ अत्थि त्ति णिब्धियाप सम्मइ. ५-३३ / अविसयमादसमुत्थं तिलो०प०१-६१ अत्थि त्ति पुणो भणिया तञ्चम्या०२२ | अदिसयख्वाण तहा जंबू प०३-१०६ अत्थि त्ति य णत्यि त्ति य पवयणसा० २-२३ अदिसयरूवेण जुदो जंदृ० १० १३-१६ अस्थि लवणंबुरासी तिलो० प० ४-२३६६ अदिसंजदा वि दुजण- भ० श्रारा० ३४८ अत्थि सदा अधारं तिल'. ५० ४-४३५ अद्दिढे अण्णायं सम्मइ० २-१२ अत्थि सदो परदो विय गो० क० ८७८ अद्धट्ठा कोडीओ जबू प० ४-८६ अत्थि सदो परदो विय अगप० २-१८ | अद्धत्तेरस बारस गो.जी. ११४ अस्थि सदो परदो वि य । गो० के० ८७७ / अद्धत्तेरस बारस मूला० २२३ अस्थिसहाब दव दन्बस० णय० २५५ | अद्वद्वकोससहिया जंबू० प०७-७७ अस्थिसहावे सत्ता दव्वस० गय०६० जबू० प० ६-१७४ अस्थि हु अणाइभूत्रो(ढो) भावस० ३२६ | अद्धमसणस्स सब्धि मूला० ४६१ अत्थे संतम्हि सुहं भ० श्रारा० ८६१ | अद्धविमाणच्छदा जंबू० प० ६-१०७ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी १३ मूला० ६३८ अद्धं खु विदेहादो तिलो० ५० ५-१०३ अपडिक्कमण दुविहं समय० २८३ अद्धं चरस्थभागो तिलो० सा० ११७ अपडिक्कमण दुविह समय० २८१ अद्धाखए पडतो लडिसा. ३०७ अपदिट्टिदपत्तेय गो० जी०१८ अद्धाणगदं णवमं अपट्टिदपत्तेया गो० जी० २०४ अद्धाणतेणसावद मूला० ३६२ अपदेस सपदेमं पवयणसा० १-११ अद्धाणतेणसावय म. श्रारा०३०६ अपदेसो परमाणू पचयणसा०२-७१ अद्धाणरोहणे जणभ० श्रारा०६११ अपमत्ते य अपुव्ये गो० फ०७०१ अद्वारणसणं मचाभ. श्रारा०२०६ | अपमत्ते सम्मत्त गो० क० २६८ अद्धाबारस जोयण- जबू० प० ३-४६ अपयक्खरेसु छल्ली श्राय. ति० १८-१० अद्धारपल्लछेदो तिलो० ५० १-१३१ अपयत्ता वा चरिया पवयणसा०३-१६ अद्धारपल्लसायर- तिलो०प० ४-३१४ अपरविदेहममुभव- तिलो०प०४-२०७० अद्धियविदेहरुंदं तिलो० ५० ४-२०१६ अपराजियाभिधारणा तिलो १० ४-५२२ अद्धिदुणिहा सव्वे तिलो. सा. ६३५ अपरिग्गहसमणुएणे- चारि० पा० ३५ परम०प०२-१६६ भ० श्रारा० १२११ अद्धवप्रसरणपहुदि तिलो० ५०८-६५२ अपरिग्गहस्स मुणिणो मूला० ३४१ अद्धव असरण भणिया कत्ति० अणु० २ | अपरिग्गहा अणिच्छा मूला० ७८३ अद्ध्वमसरणमेगत्त मूला० ६६२ अपरिग्गहो अणिच्छो समय० २१० अद्भुवमसरणमेगत्त मूला० ४०३ अपरिग्गहो अणिच्छो समय० २११ अद्ध्वमसरणमेगत्त- म० श्रारा० १७१५ अपरिग्गहो अणिच्छो समय० २१२ अद्भुवमसरणमेगत्त बा० थणु०२ | अपरिग्गहो अणिच्छो समय० २१३ अद्धेण पमाणणं तिलो० ५० ४-२१७० अपरिश्चसमहावे पवयणसा० २-३ अद्धव जोयणेसु य जंवृ० प० ५-५० अपरिणमंतम्हि सयं समय० १२२ अधउड्ढतिरियपसर तिलो० ५०४-१०४० अपरिस्साई णिव्वा म. आरा०४१८ अध उतिरियासरे तिलो० ५० ४-१०४४ अपरिस्सावी सम्म म० श्रारा० २६४ अधखवयसेढिमधिगम्म- भ० धारा० २०६३ अपहट्ट अट्टरुद्दे मूला०३६७ अध तेउपउमसुक्क म. पारा० १६२३ अपि य वधो जीवाण तिलो० ५० ४-६३४ अधलोहसुहुमकिट्टि भ० श्रारा० २०६८ पघस०५-३६१ अध मो खवेदि भिक्खू भ. श्रारा० २०६४ अपुवादिवग्गणाणं लन्द्रिसा०६३२ अध हेडिमगेवेज्जे तिलो० ५० ८-१७६ | अप्पइँ अप्पु मुणतयाँ जोगसा० ६२ अधिगगुणा सामरणे पवयणसा. ३-६७ अप्पर मरणइ जो जि मुणि परम०प०२-६३ अधिगेसु बहुसु सतसु भ० श्रारा० १४२८ | अप्पच्चओ अकित्ती भ. श्रारा ८४८ अंधियप्पमाणमंसा तिलो० प० ७-४८० पवयणसा०३-२३ अधियरणे वग्हारे तिलो० सा० ४४३ | अप्पडिकुट्ठ पिंडं पवयणसा० ३-२० (क्षे.) अधियसहस्सं बारस तिलो० सी० ३२५ | अप्पहिलेहं दुप्पडि मूला०४१७ अधिरेकस्स पमाणं तिलो. प०४-२७५६ अप्पदरा पुण तीसं गो० क० ४७३ अधिरेयस्स पमाणं सिलो. प० ७-१२६ । अप्पवएसा मुत्ता दवस० गय० १५३ अधिरेयस्म पमाण तिलो. प० ७-१८५ अप्पपरियम्म उवधि भ० श्रारा० १६२ अधिवासे व विवासे पवयणसा०३-१३ गो० क० ५५५ अपचक्खाणुदयादो भावति० १६ अप्पपरोभयबाधण- गो० जी० २८८ अपडिकमणं अप्पडि- समय० ३०७ । अप्पपरोभयवाहण- पंचसं० १-११६ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची अपवाद भणियं अंगप० २-६५ वगउ परम०प०१-५५ अप्पपसंमणकरणं कत्ति० श्रणु०६२ ढाढमी. २१ अप्पपसंसं परिहर भ० श्रारा० ३५६ अप्पा झायहि एिम्मलर परम० ५० -६० अप्पामगो सलागा छेदपिं० २४२ / अप्पा मायंताणं मोरखपा. ७० अप्पप्रवृत्तिसंचिय पचसं० -७५ अप्पाण णाणमाणउझ रयण. १३५ अप्पवहुलम्हि भागे जबू०प० ११-१४२ , अपामारणा रुं समय. १८० अप्पमहड्ढियमज्मिम- तिलो. १०३-२४ अप्पाणमयाणंता समय०३६ अप्यमहड्ढियमझिम- तिलो. प० ३-२५ | अप्पारणमयाणतो समय० २०२ अप्पयदपयढचारी वेदपिं० १०४ अप्राणं जो गिदह कत्ति० श्रगु० ११२ अप्पविसिञ्ण गंगा तिलो० ५० ४-३०४ अप्पारण मार्यतो समय० १E अप्पसमाणा दिट्ठा तञ्चसा० ३० अप्पाणं पि चवंतं कत्ति० श्रगु० २६ अप्पसरूवह जो रमड जोगसाह अप्पाणं पि ण पिच्छइ रयण. अपसरूवं पेच्छदि णियम० १६५ अप्पाणं पिय सरणं कत्ति० अणु० ३१ अप्पसख्वं वत्) कत्ति० अणु० ६! अप्पाणं मरणता तिलो. प० २-२६६ अप्पसरूवालंबण णियम० ११६ अप्पाणं विणिवायंति छेदपि० २१ अप्पसहावि परिट्ठियहँ परम०प० १-१०० अप्पाणं विगु गाणं णियम. १७० अप्पसहावे जासु रइ परम० ए० २-३६ (वा०) अप्पा णाऊण गरा मोक्वपा० ६७ अप्पसहावे गिरी श्रारा० सा०१ | अप्पा णाणपमाणं दवस० गय०३८७ अप्पसहावे थक्को तच्चसा० ६२ / अप्पा गाणहँ गम्मु पर परम० ५० ५-१०७ अप्पहपरहपरंपरह परम०प०२-१५६ (वा०) अप्पा गाणु मुणेहि तुहुँ परम• प०१-५०१ अप्प जे वि विभिएण वढ परम०५० १-१०६ | अप्पा णिचोऽसंखिन समय० ३४२ अप्पहें णाणु परिचय वि परम०प० २-१५५ / अप्पा णिच्छरदि जहा भ० श्रारा० १४२ अप्प वधंतो बहु गो० क. ४६६ / अप्पा णिय-मणि णिम्मलउ परम०प० ५-६% अप्पं वधिय कम्म पंचस०४-२३० अप्पा तिविहपयारो णाणसा० २६ अप्पा अप्पइँ जो मुणइ जोगसा० ३४ अप्पा ति-विहु मुणेवि लहु परम० प० -१२ अप्पा अप्पर जइ मुणहि जोगसा० १२ अप्पा दमिदो लोएण भ. श्रारा०६१ अप्पा आगम्मि रओ मावपा०३१ अप्पा दंसणणाणमा पाहु० दो० ६६ अप्पा अप्पम्मि रो भावपा० ८३ / अप्पा दंसणि जिरणवरहें परम० प० -१८ अप्पा अप्पि परिट्ठियउ पाहु० दो० ६० अप्पा दसणु एक्कु परु, जोगसा० १६ अप्पा अप्पु जि पर जि परु परम० ५० १-६७ / अप्पा दंसणु केवलु वि परम० प०१-१६ अप्पाउगरोगिदया भ० श्रारा० ४६ } अप्पा दंसणु केवलु वि पाहु. दो० ६८ अप्पा उवोगप्पा पवयणसा०२-६३ अप्पा दंसगुणाणुमुणि जोगसा णाणसा०३५ अप्पाए त्रि विभाचियई अप्पा दियरतेओ पाहु० दो० ७५ णियम० १६२ अप्पा कम्मविवज्जियउ अप्पा परप्पयासो परम० प०१-१२ अप्पा केवलणाणमउ पाहु० दो० ५६ / अप्पा परहें ण मेलयउ परम० ए० २-५५० अप्पा गुणमउ णिम्मलउ परम०प० २-३३ अप्पा परहें ण मेलयउ पाहु. दो० ६५ अप्पा गुरुण वि सिस्सु ण वि परम०प०१-8 अप्पा परहें ण मेलयउ पाहु० दो० १८५ अप्पा गोरउ किएहु ण वि परम० प. ६-८६ पवयणसा० २-३३ अप्पा परिणामप्पा अप्पा चरित्तवंतो मोरखपा० ६४ ! परम०प०१-६६ अप्पा जणियउ केण ण वि परम० ५० ५-५६ / अप्पा पंडिउ मुक्खु ण वि परम० ५० ५-६१ हरइ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुकमणी अप्पा बभणु वइसु ण वि परम० प० १-८७ अमंतरदधमलं तिलो० ५० १-१३ अप्पा बुज्झहि दव्वु तुहुँ परम० ५० १-५८ | अभतरहिमिविदिसे तिलो० सा० ५७६ अप्पा बुज्झिउ णिच्चु जड पाहु० दो० २२ | | अम्मतरपरिमाणं जबू० प० ३-८६ अप्पा माणुसु देउ ण वि परम० ५० १-६० अन्भतरपरिसाए तिलो० प०८-२२८ अप्पा मिल्लिवि एक्कु पर पाहु. दो० ११७ अन्भतरपरिसाए तिलो० ५०८-२३३ अप्पा मिल्लिवि गुणणिलउ पाहु. दो०६७ अब्भतरपरिसाए तिलो. प०४-१६७५ अप्पा मिल्लिवि जगति लउ पाहु० दो० ७० } | अन्भतरपरिसाए 'तिलो० प०५-२१६ अप्पा मिल्लवि जगतिलउ पाहु० दो० ७१ / अ०भतरबाहिरए तिलो० प० ४-२७५३ अप्पा मिल्लिचि णाणमउ पाहु. दो० ३७ भ० श्रारा० १११७ अप्पा मिल्लिवि णाणमउ परम० प० २-७८ अन्तरवाहिरगे भ० श्रारा० १४५० अप्पा मिल्लिवि णाणियह परम० प० २-७७ अन्भनरभागादो तिलो० ५० ५-२१ अप्पा मेल्लिविणारणमउ परम० ५० २-१५८ अभंतरभागेसु तिलो प०५-१३६ अप्पा मेल्लिवि णाणमउ परम० ५० १-७४ अभंतम्मि ताणं तिलो० ५०४-७६० अप्पायत्तउ जं जि सुहु पाहु. दो० २ अभंतरम्मि दीवा तिलो. प०४-२७१८ अपायत्त जं जि सुह परम० प० २-१५४ अन्भतरम्मि भागे तिलो० प०४-२७४६ अप्पायत्ता अझप्प- भ० भारा० १२६६ अभंतरम्मि भागे तिलो प० ४-२५५३ अप्पा य वचिो तेण भ० श्रारा० १४५३ अभतरयणसारण तिलो० प० ४-४७ अप्पा लद्धउ णाणमउ परम०प०१-१५ अन्भनरराजीदो तिलो. प०-६१० अप्पा वंदउ खवणु ण वि परम० ५० १-८८ अभंनरवीहीदो तिलो० ५० ७-१८४४ अप्पा संजमु सीलु तउ परम०प०१-१३ अभंतरवीहीदो तिलो. १०७-२६६ अप्पामुएण मिस्तं मूला० ४२८ अभंतरवेदीदो तिलो० ५०४-२४४८ अप्पासुगजलपक्खा छेदपिं० २६४ अन्भतरसोधीए म. श्रारा० १३४६ अप्पासुगे वसंतो छेदस० ५८ अभंतरसोधीए म० श्रारा० १६१५ अप्पासुयचणयाण दसणसा० २५ अभंतरसोधीए भ० श्रारा० १६१६ अप्पिट्टपतिचरिमो गो० क. १३६ अन्भतरसोहणओ मूला०४१२ अप्पिं अप्पु मुणंतु जिउ परम० ५० १-७६ अभंतरा य किच्चा णाणसा० ४७ अप्पु करिजइ काइँ तसु पाहु. दो० १३६ अभंतरिमो भागो जबू०प० ११-१०१ अप्पु पयासइ अप्पु परु परम० प० १-१०१ अन्भ तह हारि जबू०प०११-२०६ अप्पु वि परु वि वियाणि- परम० प० १-१०३ | अभावगासठाणा छेदस० ५५ अप्पोवयारवेक्ख गो० क० ६१ अभावगाससयणं भ. श्रारा० २२६ अप्पो वि तवो बहुगं म० श्रारा० १४५६ अभितरचित्ति वि मइलिय पाहु० दो० ६१ अप्पो वि परस्स गुणो भ० श्रारा० ३७३ अभितरबाहिरिया रिट्ठस० १३ अप्फालिऊण हत्थं छेदपिं० ४३ | अन्भुज्जदचरियाए भ० श्रारा० ४५६ अवलत्ति होदि ज से म० श्रारा ६८० अभुजदम्मि मरणे भ० श्रारा० ६६० • अब्बभभासिणित्थी छेदर्पि० ४७ अभुटणं च रादो भ० श्रारा० २२७ अब भासंतो छेदस० २६ अमुट्ठाणं अजलि मूला० ५८१ अन्भरहिदादु पुव्वं गो० क० १६ अभुट्ठाणं किदिअम्म मूला० ३७३ अब्भर हिदादु पुवं कम्मप०१७ अब्भुट्ठाणं किदियम्म म० श्रारा० ११६ अभहियजादहासो म० श्रारा० ७११ | अमुट्ठाणं गहण पवयणसा०३-६२ अभंगादीहि विणा . म० श्रारा १०४८ | अभुट्टाणं सरणदि मूला० ३८२ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची अब्भुट्ठया समणा पवयणसा० ३-६३ । अमरिंदणमियचलणं जवू० प०८-१६७ अब्भुदयकुसुमपरं जंबू० ५० १३-१७२ | अमरिंदणमियचलणो जब० ५० १३-१३६ अभयदाणु भयभीरुयह सावय० दो० १५६ | अमरहिं परिगहिदा जंब० ५० १३-१२१ अभयपयाणं पढम भावस० ४८६ | अमलियकोरंटणिभा जब० प० २-७० अभयं च वाहियावय- श्रायः ति०२-१४ / अमवस्साए उवही तिलो० ५० ४-२४४१ अभयसिद्धे पत्थि हु गो० क० ३५५ / श्रमवस्ने उत्ररिमदो तिलो. प०४-२४३७ अभिचंदे तिदिवगदे तिलो० ५० ४-४७४ अमिदमदी तद्देवी तिलो.५० ४-४६० अभिजादितिसीदिसयं तिलो० सा० ४०७ | अमुगम्मि इदो काले भ० श्रारा० ५३२ अभिजिणव सादिपुवुत्त- तिलो. सा० ४३७ अमुणियकज्जाकज्जे तिलो०प० २-३०० अभिजिस्स गगणखंडा तिलो० सा० ३९८ अमुणियकाले पायं श्राय० ति० १-२६ अभिजिस्स चंदतारो तिलो० प०७-५२२ अमुणियतञ्चेण इमं पारा० सा० ११५ अभिजिस्स छस्सयाणि तिलो. प०७-४७३ अमुयंतो सम्मत्तं भ० श्रारा० १८४४ अभिजी छञ्चमुहुत्ते तिलो० प०७-५१७ अम्मा-पिदु-सरिसो मे भ. श्रारा० ७१३ अभिजी सवणधणिट्ठा तिलो० ५० ७-२८ अम्मिए जो परु सो जि पर पाहु. दो० ५५ अभिजुजइ बहुभावे मूला० ६५ अम्मिय इहु मणु हत्थिया पाहु० दो० १५५ म० श्रारा० १६६० अम्हहिं जाणिउ एक्कु जिणु पाहु० दो० ५८ अभिणंदणादिया पच- म० श्रारा० १५५५ | अम्हाणं के अवसा तिलो० सा० ०५२ तिलो०प०४-७८४ अम्हे वि खमा वेमो- भ० श्रारा० ३७८ अभिभूददुविगंधं भ० श्रारा० १०४७ अयउवयरणे णटे छेदस०६६ अभिमुहणिमियबोहण- जबू० ५० १३-५६ / अयणाणि य रविससिणो तिलो०५० ४-४६६ अभियोगपुराहिंतो तिलो० ५० ४-५४४ अय तंब तउस सस्सय तिलो०१० २-१२ अभियोगाणं अहिवइ- तिलो. ५० 5-२७७ अयदत्तगन्भवण्णा जबू० २-८५ अभिवंदिऊण सिरसा पचत्थि० १०५ अयदंडपासविक्कय वसु० सा० २१५ अभिसुआ असुसिरा अघ- भ० श्रारा० १६६६ श्रयदाचीरो समणो पवयण सा०३-१८ अभिसेयसभासंगी- तिलो० ५० -४५३ अयदादिसु सम्मत्तति भावति० ३२ अमणसरिसपविहंगम- तिलो. सा० २०५ अयदापुराणे ण हि थी गो० क० २८७ श्रमणं ठिदिसत्तादो लद्धिसा० ११६ अयदुवसमगचउक्के गो० क.८४५ अमणु अणिदिउणाणमउ परम० प० १-३१ अयदे विदियकसाया गो० क०६७ अमणुएणजोगइट्ठवि- मूला० ३६५ अयदे विदियकसाया गो० क. २६६ अमणुएणसंपओगे भ० पारा० १७०२ | अयदो त्ति छ लेस्साओ गो० जी० ५३१ । श्रमणुगणे य मणुएणे चारि० पा० २८ अयदो त्ति हु'अविरमण गो० जी० ६८८ अममं चउसीदिगुणं तिलो० ५० ४-३०२ अयसमणत्थं दुःखं भ० श्रारा. १०७ अमयक्खरं णिवेसउ भावसं० ४३० | अयसारण भायणेण य भावपा० ६६ अमयजलखीरसोमा- श्रायः ति० १६-१५ | अरई सोएणूणा । पंचसं० ४ -२४६ अमयमहुखीरसपिजोग० भ० १७ अरई सोएराणा पचस०५-२६ अमयम्मि गए चंदे । प्रायः ति० १६-२० / अर-कुंथु-संति-णामा तिलो० ५०४-६०५ अमरको उवसग्गो श्रारा० सा० ५१ | अरजिणवरिंदतित्थे । तिलो० प०४-११७२ अमरणरणमिदचलणा तिलो० प० ४-२२८२ | अरदी सोगे संढे गो० क. १३० अमराण वंदियाणं दंसणपा० २५ अरदी सोगे सढे कम्मप०१२६ अमरावदिपुरमझे तिलो. सा०,५१५ / अर-मल्लि-अंतराले तिलो० प० ४-१४१३ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ अरविवरसंठियारिण अरविंदोदरarur अरस- अरू - अगंधो - अरसमरूवमगंधं श्ररसमरूवमगंधं - अरसमरूवमगंध अरसमरूवमगंधं - श्ररसमरूवमगंधं अरस च अण्णवेला अर-संभव- विमलजिणा घडी-सरसी अरहंतचरणकमला अरहंत मोक्कारं अरहंत मोक्कारो अरहंत परमदेव अरहंत परमदेवा अरहंत परमदेवेहिं अरहंत परमदेवो अरहंतभत्तिया इसु अरहंतभासित्थ अरहत-सिद्ध- आइरिय अरहंत सिद्ध केवल अरहंत सिद्धचेइयअरहंतसिद्धचेइयअरह सिद्धचेदियअरहंत सिद्धचेदिय अरहंत सिद्धचेदिय अरहंत सिद्धचेदिय अरहंत सिद्धचेदियअरहंत सिद्धपडिमा अरहंत सिद्धभत्ती अरहंतसिद्धसागरअरहंत सिद्धसाहुसु अरहंत सिद्धसाहू अरहंतासु भत्तो अरहंतासुराणं अरहंता जे सिद्धा रहता पडिमा अरहंतादिभत्त हंतादि भत्तो प्राकृतपद्यानुक्रमणी जंबू० प० ११-८ | अरहंतादिसु भत्तो जंबू० प० ३ - ५७ | अरहंतु वि दोसहि रहिउ कल्लाणा० ३६ | अरहंतु वि सो सिद्धु फुड पचस्थि० १२७ | अरहते सुदिट्ठ समय० ४६ | अरहतेसु [य] भत्ती भाव० ६४ | अरहंतेसु य रात्र मिसा० ४६ अरहंतो य समत्थो अरहाणं सिद्धाणं १७ भ० श्रारा० ७४४ गो० क० ८०२ | अलिएहिं हमियवय रोहिं कम्मप० १४८ | अलिचुंत्रिएहिं पुज्नइ कम्मप० १६० सावय० दो० ५ जोगसा० १०४ मूला० २५ लिय कसायहि मा चवहि भ० रा० ३१७ | अलियमरणवयणमुभयं भ० श्रारा० ५५८ | अलियवयपि स पचत्थि० १३६ | अलियस्स फलेग पुगो भावति० ११५ | अलियं करेइ सवहं पंचसं० ४-२०६ अयं परणीयं रिस० १८५ श्रलियं स किंपि भरिणयं ढाढसी० १२ अवकहडामठपरता जंबू० प० ६-११२ | अवगदमारणत्थंभा पवथणसा० ३-४६ | अवगदवेद सयअवयवेदो संतो गो० क० ८०६ बोधपा० ४ सीजपा० ४० विलो० प० १ - १६ र जिय जिपइन्ति करि परम०प०२-१३४ मूला० ५७० ढाढसी० २२ पवयणसा०२ - ८० भ० भा० २१६ तिलो० प० ४-६०८ | अरि जिय जिवरि मणु ठवहि भ० आरा० ५६२ | अरि मरणकरह म रइ करहि . जंबू० प० ६-११४ अरिहंति णमोक्कारं मूला० २०६ | अरिहंति वदराराम - भ० श्रारा० ७५५ अरिहादितिगंतो धम्मर० १३७ | अरिहे लिंगे सिक्खा जंबू० प०२-१७७ | अरिहो संगञ्चाओ जबू० प० ६-१६५ | अरुणवरणामी श्र जबू० प० १३–६० | अरुणवरदीवबाहिरवसु० सा० ४० stotrarataबाहिरसुतपा० १ अरुणवरवारिरासिं भ० श्रारा० ६०६ | अरुणो तिगोण दहणो भ० श्ररा० १६३३ | अरुहाई पडिमं हा सिद्धाइरिया भ० श्रारा० ४६ पंचस० ४-२०२ पंचस्थि० १६६ हा सिद्धाइरिया बा० अ० १२ मोक्खपा० १०४ पंचत्थि० १७१ हा सिद्धाइरिया अरुहा सिद्धायरिया पचगु० भ० ७ अरे जिउ सोक्खे मग्ग स परम०प०२ - १३४ ( बा० ) भ० श्रारा० ६६६ पाहु० दो० १३४ पाहु० दो० ६२ मूला० २०१ मूला ५६२ भ० श्रारा० २०३८ भ० श्रारा० ६७ श्रारा० सा० २२ तिलो० प०५-१७ तिलो० प० ८-६०६ तिलो० प० ८-५६६ तिलो० प०५-४७ श्राय ० ति० १ वसु० सा० ४०८ कलाणा० २४ भावसं० ४७३ सावय० दो० ६१ श्रास० ति० १८ कत्ति० श्र० ४३२ धम्मर० ५१ वसु० सा० ६७ वसु० सा० २०६ भ० आर० ८४७ रिट्स० २३६ मूला० ८३४ कसायपा० ४५ लद्धिसा० ६०४ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-भूनी अवगहईहावायो सुदसं० ८ अवराणताणतं तिलो. सा०४८ अवगहिदत्थस्न पुणो वृ०प० १३-५८ अवराणि च श्रणाणि व जंबू० ५० १०-१० अवगाढो पुण यो जवृ० ५० १०-२३ अवगदीणं ठाणं गो० क० ७६५ अवगासदाणजोग्गं दव्यस० १६ अवरादो चरिमो त्तिय लद्धिसा० २८७ अवगाहा सेलाणं जवृ० प० ६-८६ अवरादो वरमहियं ल द्विसा० ३६२ अवगुण-गहरामहुनगई परम० ५० २-१८६ अवग पज्जायठिदी गो० जी० ५७२ अवणयदि तवेण तम मूला० ५८८ अवग मिच्छतियद्धा लडिमा० १७८ अदितिप्पयडीण गो० क. २८० अबराहिमुहे गन्छिय तिलो० प०४-१३२७ अवणियकुंआयामं जंबू० प० -१५८ अवरुक्कस्म ठिीणं गो० क० ६६० अवधउ अरवरु जं रजइ पाहु० दो० १४४ । अवरुक्कस्म मभिम- तिलो० ५० १-१६ अवधिहारण बिरयं. भ० श्रारा० १६४६ अवरुक्कस्मेण हवे गो० क० २४२ अवधिदुगेण विहीणं गो० ० ८२७ श्रवस्त्रार इगिपदेसे गो० जी० १०२ अवरहिदिवधज्झवसा- गो० क० ६४६ अवरुवरिम्मि अंणतम- गो० जी० ३२२ अवरणहरुक्खछाही भ. श्रारा० १७२४ अवरु वि जं जहिं उवयरइ मावय० दो० ११६ अवरद्दव्वादुवरिमगो० जी० ३८३ । अवर अझवसाणे समय०४० अवरद्धे अवरुरि गो० जी० १०६ अवरे अरणोचमगुणा जब० प०६-१०५ अवरपरित्तस्सुवरि तिलो. सा० ३६ वरेण तदो गंतुं जंबू० प०८-१६४ अवरपरित्तं विलय तिलो. सा. ४६ अवरेण तदो गंतुं जंबू०प०८-१०६ अवरपरित्ता संखेगो० जी० १०१ जबू०प०८-१६ अवरमपुरणं पढम गो० जी०६६ अवरेण तदो गंतु जंबू०प०८-११२ अवरवरदेसलद्धी लहिन्या. १८२ अवरेण तदो गंतुं जवृ० प०८-१३१ अवरविदेहस्संते तिलो० प०४-२२०१ अवरेण तदो गंतुं जंबू० प०८-१४६ अवरविदेहाण तहा जवृ० प० ४-१४६ अवरेण तदो गंतुं जंबू० प०८-१६८ अवरं च पिट्टणाम जवृ० प० ११-२१० अवरेण तदो गतु जबू० प०८-१७४ अवरं जुत्तमसंखं तिलो० सा० ३७ अवरेण तदो गंतुं जबू० प०१-२ अवर तु श्रोहिखेत्त गो० जी० ३८० अवरेण तदो गंतुं जवृ० १०६-२१ अवरं दव्यमुदालिय- गो० जी० ४५० अवरेण तदो गंतुं जबू. ५०६-२४ अवरं देसोहिस्स य श्रगप० २-७१ अवरेण तदो गंतुं जंबू० प०६-२६ अवरं मज्झिम उत्तम- तिलो० ५० ५-१२२ अवरेण तदो गंतुं जब० ५० ६-३२ अवरंसमुदा सोहम्मी गो० जी० ५२२ अवरेण तदो गंतु जब ५० -३६ अवरंसमुदा होति गो० जी० ५१६ अवरेण तदो गंतुं जंब० प० ६-३६ अवरं होदि अणंत गो० जी०३८६ अवरेण तदो गंतुं जब० ५० ६-४४ अवराओ जेट्टद्धा (दा) तिलो० ५० ७-४७१ अवरेण तदो गंतुं जव० प० ६-४६ अवरा ओहिधरित्ती निलो०प० ६-६० अवरेण तदो गंतुं जब० प०१-५२ अवरा खाइयलद्धी तिलो० सा० ७१ अवरेण तदो गंतुं जब० प० ६-६० अपराजिदकामादी तिलो० सा० ६६६ अवरेण तदो गंतुं जब० प० ६-६४ अवराजिदणगरादो जंबू० प०८-१२७ अवरेण तदो गंतुं जबू० ५० ६-७२ अवराजिददारस्स य तिलो० प० ४-२४७३ | अवरे देसट्टाणे लद्धिसा० १८३ अवराजिदा य रम्मा तिलो० सा० ६७० | अवरे परमविरोहे गायच०३६ अवराजेट्ठावाहा लद्धिसा० ३७६ | अवरे परमविरोहे दव्वस० शय०२०८ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्र अवरे बहुगं देदि हु अवरे वरसखगुणे अवरे विय सेयणिया अवरे विरदट्ठाणे अवरे विसुरा तेसिं अवरे सलागविरलरणश्रवरे पाए अवरोग्गाहरणमारणं अवरोग्गाहरणमाणे अवरो जुत्तातो अवरोत्ति दव्ववरणो अवरापरसावेक्खं द्विसा० २८५ | अवसेसवरणाओ गो० जी० १०८ | अत्रसेसवरणरणाओ ० प० ११-२७५ अवसेस वहिविसंसा दिसा० १६० श्रवसंससमुद्दाणं तिलो० १० ८ - ३६२ | श्रवमसुरा सव्वे तिलो० सा० ३८ | श्रवमेमं जं दिट्ठ थाप० ति० ११-६ श्रवसेसं पाण गो० जी० ३७६ | अवसेसा जे लिंगी गो० जी० १०३ अवमेसा क्वत्ता गो० जी० २५६ | श्रवमेमा राक्खत्ता श्रवमेसारण गहाण अवसेमा गहाण दव्चस० गाय० ७ अवरोपरसुविरुद्धा अवरोपरं विभिस्मा अवरो भिण्णमुहुत्तो विरहाणीदो गो० क० १२६ जबू० प० ११ - २६१ श्रवसेसा वा वसा पडीओ अवसेसा पयडीओ अवसा पुढवी गो० जी० ३७८ | अवसेसा वि य या गो० जी० २८१ सा वि देवा पवयणसा० ३-६५ | अवसे से च भ० थारा० ८७ अवहट्ट अट्ट अवरो हि खेत्तदी अवरोह खेत्तमज्झे अववददि सासरणत्थ अवादियलिंगदो सपिम्मिकाले अवमपिरि उस्मपरिण- बा० श्रणु० २७ अवहट्ट कायजोगे अवसप्पिणिउस्सप्पिणि- तिलो० प० ४-१६१२ | अवहीए अदालं अवसप्पिणिउस्सपिरिण- निलो० प०४-१६१३ यदि ति ही जबू० प० २- २०४ अवहट्ट सपिरिए एवं अवसप्पिणिए एवं तिलो० प० ४ -७१६ | अवहीदित्ति प्रोही तिलो० प० ७-५५० यदि ति ही तिलो० प० ४-१६१० विकत्थंतो गुणो कत्ति ० ० १७२ | विकारवत्थवेसा मूला० ४६१ | अविगट्ठ वि तवं जो वसु० सा० ३५५ अविचलइ मेममिहरं तिलो० प० १-१६० सत्ताई तिलो० प०२-२४ वितक्कमवीचारं जंबू० प० १३-६६ अविदकमवीचारं तिलो० प०८-६६३ | अविदिदपरमत्थेसु य छेदपिं० ६० अविभत्तमण्णत्तं सप्पिणिए दुस्समअवसप्पिणिए पढमे वसा वसियर अवमाणे पंच घडा अवसादि श्रद्धरज्ज वसईदया मेसइंडिया अवसप्पजुगले अवसेसरिणसासमए श्रवसे सतवसलागा अवसेस ताण मज्झे श्रवसतोरणा सेवाओ अवसेसवरणाओ प्राकृत पद्यानुक्रमणी जबू भावपा० ५० दव्वस० य० २५१ दव्वस० णय० २६३ • छेदपिं० २३० तिलो० प० ४-२७३६ १६ तिलो० प० ४-२०६१ तिलो० प० ४-१७४२ * पचस ०१-२०५ जबू- प० १२-४० तिलो० प० ३-१६७ जबू० प० ७-२४ पचस० ५-१६६ सुत्तपा० १३ तिलो० प० ७-५२४ तिलो० प० ७-५२० तिलो० सा० ३३३ तिलो० प० ७-१०१ जंबृ० प० ४- १२७ गो० क० १८३ पचस० ४-४७६ जवृ० प० ११-१२१ जबू० प० ४-२६६ जवू० प० ५-१०६ तिलो० प० ४- २०४२ मूला०८८३ प्रविभागपडिच्छेदो श्रविभागपलिय (पडि) च्छेदो, भ० श्रारा० १७०४ भ० भाग० १६६४ सिद्धत० ६३ कम्मप० ३६ गो० जी० ३६६ पचस० ११२३ भ० श्रारा० ३६४ मूला० १६० भ० श्रारा० २५८ जबू० प० १३-१३६ तिलो० प० ३-१६६ भ० श्रारा० १८८६ भ० श्रारा० १८८८ पवयणसा० ३-५७ पचत्थि० ४५ गो० क० २२३ पचस० ४-५१३ for furt रयणसा० १०१ जबू० प० ३-१७७ तिलो० प० ४-१७०१ भ० श्रारा० ६२२ वि य वहो जीवाण तिलो० प० ४-२७१२ *इसका पूर्वार्ध उपलब्ध न होनेसे उत्तरार्ध दिया है । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PP पुगतन-जैनवाक्य-सूची अह गुणपज्जयवंतं दव्वस० णय० २७० । अहमिक्को खलु सुद्धो समय० ३८ अह घर करि दाणेण सहुँ सुप्प. दो० ५ | अहमिक्को ग्यलु सुद्धो समय०७३ अह चुलसीदी पल्लट्ठ- तिलो० ५० ६-८६ ग्रहमिदा जह देवा गो० जी० १६३ अह छुहिज्ण सूअरं (१) भावस० २२५ | अहमिंदा जह देवा ' पचसं० १-६५ अह जइ सत्तिविहीणो छेदपि १७६ अहमिंदा जे देवा तिलो०प०४-७०७ अह जाणो उ भावो समय, ३४४ अहमिदा वि य देवा जवृ० प०४-२७१ अह जीए संधीए रिहस० १ अहमीसजुत्तदिट्टे थाय० ति० १८-२१ अह जीवो पयडी तह समय० ३३० दबस० णय० ३६३ अह जो जस्स य भत्तो रिहस० ११६ अहमेक्को खलु सुद्धो तिलो० प०६-२६ अह ढिंकुलियामाणं भावम० ३८६ अहमेदं एदमहं समय०२० अह ण पयडीण जीवो समय० ३३१ अहरणहा तह दसरणा रिट्टस० २७ अह णियणियणयरेसु तिलो० ५० ५-१३६८ अह राजइ उत्तर सर- श्रायः ति० १४३ अह णीराओ देहो कत्ति० अणु० ५२ / अह लहइ अजवंतं कत्ति० श्रगु० २६१ अह णोराओ होदि हु कत्ति० अणु० २६३ अहव फुड(ड) फुलिगेहि रिट्टस०६० अह तिरियउड्ढलोए भ० श्रारा० १७१४ । अब मयंकविहीरणं रिट्टस० ६६ अह तिरियउड्ढलोए जवृ० प०१३-१५३ | अहव मुणतो छंबई भावसं० ६०७ अह तिव्ववेयणाए श्रारा० सा० ४२ | अहव सुदिपाणय से भ० श्रारा०४४५ अह तीसकोडिलक्खे तिलो० प०४-५५४ अहवा अप्पं आसा- ० श्रारा० १२६० अह तेउपउमसुक्कं भ० श्रारा० १९२३ अहवा आगम-गोआ- वसु० सा० ४५० अह तेव वट्ट तत्तं वसु० सा० १३६ अहवा अ वसु० सा०४७७ अह थीणगिद्धि-णिद्दा कम्मप० ४८ अहवा आणदजुगले तिलो. प० -१८५ अह दक्खिणभाएणं तिलो. ५० ४-१३५८ अहवा आदिममभिम- तिलो० ५० ५-२४३ अह दक्विणभाएणं तिलो. प० ४-१३५४ अहवा आयामे पुण जवृ० ५० ५-६ अह दे अएणो कोहो समय० ११५ | अहवा इच्छागुरिणद तिलो० प० ४-२०३३ श्रह देसो सम्भावे सम्मइ. १-३७ | अहवा एय वयणं भावस० ६६ अह धणसहिओ होदि कत्ति० अणु० २६२ / अहवा एसो जीवो समय० ३२६ अह पउमचक्कवट्टी तिलो. प० ४-१२८३ | अहवा एसो धम्मो भावस० ४१ अह पडिकमणं ण सुयं छेदपि ११३ अवा कारणभूदा दव्वस० गय० १६५ अह पंचमवेदीओ तिलो० ५० ४-८६२ | अहवा किं कुणइ पुरा- वसु० सा० १६६ अह पिच्छइ णियछायं रिस० ७६ | अहवा खिप्प उ सेहा । भावस० ४३५ अह पुण अप्पा ण वि मुणहि जोगसा. १५ / अहवा गिरिवरिसाणं तिलो० ५० ४-१७४६ अह पुण अप्पा णिच्छदि भावपा० ८४ अहवा चारित्तारा भ० श्रारा०८ अह पुण छाप्पा णिच्छदि सुत्तपा० १५ अहवा जत्ताजत्ते छेदस० १४ अह पुरण पुव्वपयुत्तो सम्मइ० २-३६ अहवा जइ असमत्थो भावस० ४६२ अह भरहप्पमुहाणं तिलो० प० ४-१३०१ / अवा जइ कलसहियो भावस० २३६ अह भजइ परमहिलं वसु० सा० ११८ अहवा जइ भणइ इयं भावसं० २४६ अह मज्झिमम्मि आए प्राय० ति० १८-२५ अहवा जह कहव पुणो भावसं० १६४ अह महमहंति णिज्जइ जंवृ० प० ६-११० अहवा जं उम्भावेदि भ० श्रारा० ८२७ अह माणिपुण्णसेलम- तिलो० प० ६-४२ ) अहवा जिणागमं पुत्थ- वसु० सा० ३६२ अह माणिपुरणसेलम- तिलो० सा० २६५ । अहवा णादाराणं श्रगप०१-४४ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुकमणी २३ - -- भ श्रवा पाहि च वियपि- वसु० सा० ४६० अहवोत्तरइ देसु तिलो० ५० ३-१४६ अहवा णिय वढत्त भावस० ५८१ अह सत्तू पावेहि श्रायः ति०७-३ अहवा णिलाउदेसे यसु० सा० ४६६ अह सयमप्या परिणमदि समय० १२४ अहवा तण्हादिपरी- भ० श्रारा० १५०१ । अह सयमेव हि परिणदि समय० ११६ अह्वा तरुणी महिला भावस० ५८४ अह संति-कथु-अर-जिण- तिलो०प० ४-१२८२ अहवा तल्लिच्छाई भ० श्रारा० १२६३ अह सम्मारत्थाण समय० ६३ अहवा तिगुणियमझिम- तिलो० ५० ५-२४४ अह सावसेसकम्मा भ० श्रारा० १६३० अहवा दसणणाणञ्च- भ० भारा० १६७ अह साहियाण ककी तिलो० ५० ४-१५०६ अहवा दुक्खप्पमुह तिलो०प०४-१०८५ अह सुट्टिय सयलजग सि- पंचस० ५--५०१ अहवा दुक्खप्पहुदि तिलो० प० ४-१०८१ श्रायति०१३-६ अहवा दुक्खप्पहुदि तिलो. प०४-१०७६ | अह सो सुरिंदहत्थी जंबू० प० ४-२१६ अहवा दुक्खादीणं तिलो० प० ४-१०८३ अह सोह (इ) पच्छिमाओ श्राय० ति० १३-५ अहवा देवो होदि हु कत्ति० अणु० २६८ अह हरु पुहु हु अहव हरि सुप्प० दो० ५७ तिलो०प०४-१६६८ अह होइ सव्वसरिओ श्राय० ति० ११-८ अहवा पढमे पक्खे छेदपि०२३२ | अह होदि सीलजुत्तो कत्ति० अणु० ३६४ अहवा पयत्त-अपयत्त छेदपिं० १६ | अहिधूमिए कुसीला श्रायः ति०१-४ अहवा पसिद्धवयणं भावस० ५६ अहिधूमिएसु मंदं श्राय० ति० १०-२१ अहवा बहुभेयगय तिलो० प० १-१४ अहिधूमिय पावजुया श्राय० ति०१३-४ अहवा बहुवाहीहिं तिलो० प० ४-१०७३ | अहिमतिऊण देहं रिट्टस० ८६ अहवा वभसरूव कत्ति० अणु० २३४ अहिमंतिउरण सुत्तं रिट्ठस० ६३ अवा मरणसि मज्झ समय० ३४१ अहिमंतिय मतेण रिस० १५० अहवा मग सोक्वं तिलो० प० १-१५ अहिमंतिय सयवारं रिदृस० १५२ अहवा रु तिलो० प०६-१० अहिमारएण णिवदिम्मि- भ० श्रारा० २०७५ अहवा वत्थुसहायो भावसं० ३७३ अहिमुहणियमियबोहण- प. जंबू० १३-५६ अहवावलिगदवरठिदि- लद्विसा० ६५ गो० जी०३०५ अहवा वासणदो यं दव्वस० णय० ४४ अहिमुहणियमियबोहण- पंचसं०१-१२१ अहवा वीरे सिद्धे तिलो० ५० ४-१४६५ अहिमुहणियमियबोहण- कम्मप० ३७ अहवा समक्ख-असमक्ख- छेदपि० ४४ अहिमुहवकतुरियगो श्राय० ति०२-१० अहवा समाधिहेतु भ. श्रारा० ७०८ अहियंकादडवीसं तिलो० सा० ४३१ अहवा सयबुद्धीए भ० श्रारा० ८२५ | अहियागमणणिमित्तं गो० क० ६५० अहवा सरीरसेजा भ० श्रारा० १६६ | अहियारो पाहुडयं गो० जी० ३४० अहवा ससहरबिंब तिलो० ५०७-२१६ अहिवल्लि माघनन्दि य णदी० पट्टा १६ अहवा सिद्धे सद्दे णयच० ४१ | अहिसिरमंडवभूमी तिलो०प०४-८५० अहवा सिद्धे सद्द दव्वस० गय० २१३ अहिसेयपट्टसाला जबू० प०१-३३ अहवा सो परमप्पो धम्मर. ६ अहिसेयफलेण णरो वसु० सा० ४६१ अहवा होइ विणासो भ० श्रारा० ११५४ | अहिसेहगिह देवा धम्मर० १७० अह विकिरियो ग्इओ भातसं० २२० | अहिंसादीणि उत्ताणि चारि० भ० ५ अह विएणविंति मंती तिलो०प० ४-१५२१ | अहो धम्ममहोधम्म कल्लाणा०५३ अह वि दुलदा लदा वि य जबू० प० १३-१४ अंकमुहसंठिदाई जबू०प०११-१० अह वेदगसद्दिट्ठी चसु० सा० ५१६ | अंक अंकपहं मणि- तिलो०प०५-१२३ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची अंकायारा विजया तिलो० ५०४-२५५२ अंतरकदपढमादो सद्धिसा० १५० अंकायारा विजया तिलो. प० ४-२७६४ अंतरफदा दु छण्णो लदिसा० २६२ अंग सुहमइँ वादर परम० प० २-१०३ अंतरगा तटसंखेज गो०० २५५ अंगदछुरियाखग्गा तिलो० प० ४-३६३ | अंतरतचं जीवो कत्ति० अणु० २०५ अंगसुदे य बहुविधे भ० श्रारा० ४१६ तिलो० ५० १-२१२८ अंगाई दस य दुरिणय भावपा० ५२ / अंतरदीवे माया मूला० १२१२ अंगारय सिय ससिसुय- थाय० ति०४-११ | अंतरपढम पत्ते सद्धिसा० ८५ अंगुल असंखगुणिदा गो० क० ३८६ | अतरपढमठिदि त्ति य लदिसा० ५२ अंगुल असंखभाग गो० क० २३० अंतरपढमठिदि त्ति य लद्विसा० ५३ अंगुलअसंखभागं गो० क० ४३४ | अंतरपढमठिदि त्ति य लदिमा० ५५ अंगुलअसंखभागं मूला० १०८७ | अंतरपढठिदि त्ति य लद्विसा० ५८६ अंगुलअसंखभार्ग गो० जी० ३६० अंतरपढमा दु कमे लदिसा० २४८ अंगुलअसंखभागं गो० जी० ४०० अंतरपढमे अण्णो लद्धिसा०२४२ अंगुलअसंखभाग गो० जी० ४०८ | अंतरवाहिरजप्पे णियमसा० १५० अंगुलअसंखभागं गो० जी० १७१ / अंतरभावप्पबहु गो० जी० ४६१ अंगुलअसंखभाग गो. जी. ३६८ अंतरमवरुक्कसं गो० जी० ५५२ अंगुलअसंखभागे गो० जी० ३२५ अंतरमुवरी वि पुणो गो० क० २३६ अंगुलअसंखभागो कत्ति अणु० १६६ अंतरमुहुत्तकालो भावस०६७८ अंगुलअसंखभागो गो० जी० ६६६ / अंतरमुत्तमझे भावस०४०६ अंगुलमावलियाए गो० जी० ४०३ / अंतररहियं वरिसइ जवू० प०७-१३८ अंगुलिणहावलेहणिमूला० ३३ | अंतरहेढुक्कीरिद लखिसा० २४३ अगुलि तह अालत्तय रिट्ठस० १४८ अंतरायस्स कोहाई पंचमं०४-२११ अंगे पासं किच्चा भावसं० १३६ | अंतरिए अंतरियं श्राय० ति०२-२६ अंगोवंगट्ठीण तिलो० प० २-३३६ | अंताइसूइजोग्गं तिलो० सा० ३१५ अंगोवंगुदयादो गो० जी० २२८ | अंतादिमज्महीणं जंबू० प० १३-१६ अंजणकवन्नधाउक- तिलो० सा० २८३ | अंतादिमझहीरणं तिलो०प०१-६८ अंजणगिरिसरिसाणं जंबू० प० ७-६५ अंतिमए छइंसण पंचसं०१-४६५ अंजगदहिकरणयणिहा तिलो. सा. ६६८ | अंतिमखधंताई तिलो. प० ४-६७० अजणदहिमुहरइयर- जबू० प०३-३७ / अंतिमजिणणिव्वाणे णदी० पट्टा०१ अंजणपहुदी सत्त य- तिलो० ५० ८-१३६ अंतिमजिणणिवाणे णदी० पट्टा० १० अंजणमूलं अंक तिलो. प० २-१७ अतिमठाणं सहमे गो० क०५४८ अंजणमूलंकणिहो तिलो० प०४-२०६५ / अंतिमतियसंहडण गो० क.३२ अंजणमूलिय अंका तिलो० सा० १४८ | अंतिमतियसंहडण कम्मप०६० अंजलिपुडेण ठिच्चा मूला० ३४ / अंतिमरसखंडुक्की नद्धिसा० ६३ अडजपोतनजरजा पंचस. १-०३ / अंतिमरसखंडुक्की लदिसा. १७६ अंडेसु पवढंता पचस्थि० ११३ / अंतिमरुंदपमाणं तिलो० ५० ५-२५३ अंतज्जोई कमलं णाणसा० १० अंतिमविक्खंभद्धं तिलो. प०५-२६३ अंतयडं वरमंगं अगप०१-४८ | अंतु वि गंतुवि तिहुवणहँ परम०प०२-२०३(बा०) अंतरफडपढमादो लद्धिसा० ८७ अंते अंकसुहा खलु जंबू० ५० ११-१ अंतरफदपढमादो लद्धिसा० २१० | अंते टंकच्छिण्णो तिलो. सा. ६३. Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी २४ अते दलबाहल्ला अतेसु जंबुसामी अनोकोडाकाडिटिअंतोकोडाकोडिट्ठिअंतोकोडाकोडी अंतोकोडाकोडी अतोकोडाकोडी अंतोकोडाकोडी अतोकाडाकोडी अतोकोडाकोडी अंतोकोडाकोडी अंतो णत्थि सुईणं अंतो बहिं व मज्झे अंतोमुहुत्त अवरा अंतोमुहुत्तकालं अतोमुत्तकालं अंतोमुहुत्तकालं अंतोमुहुत्तकाला अंतोमुहुत्तकाले अंतोमुहुत्तकाले अंतोमुहुत्तकाले अंतोमुहुत्तपक्खं अतोमुहत्तपक्खं अंतोमुत्तमझ अंतामुहुत्तमझ अतोमुहुत्तमझ अंतोमुहुत्तमद्धं अंतोमुहुत्तमद्धं अतोमुहुत्तमद्धं अंतोमुहुत्तमवर अतोमुहुत्तमाऊ अंतोमुहुत्तमेत्तं अतोमुहुत्तमेत्तं अतोमुहुत्तमेत्तं अंतोमुहुत्तमेत्तं अतोमुहुत्तमेत्तं अंतोमुहत्तमेत्ता अंतोमुहुत्तमेत्ते अंतोमुहुत्तमेत्ते अंतोमुहुत्तमेत्तो तिलो० सा० ६४० | अंतोमुहुत्तमेत्तो गो० जी० ४६ सुदख० ६७ | अतोमुहुत्तसेसा वसु० सा० ५३१ गो० क. ६४५ | अंधलयबहिरमूगो भ० प्रारा० १३५ गो० क. १५७ अंधो णिजो य पात्रो श्राय० ति० २-३० पचसं०४-४०२ अधो णिवडइ कुवे तिलो० ५० ४-६१४ लद्धिसा० ४०४ | अवरछसत्ततियपण- तिलो. प०४-२५२२ ल द्विसा० २२५ अंबरतिलग मंदर- तिलो० सा० ७०५ लद्विसा० ६७ अंबरपणएक्कचऊ तिलो० ५० ४-२३७७ गो० क० ६१६ / अबरपंचेक्कचऊ तिलो. प० ४-५८ लद्धिसा० ७ | अंबरसहियो वि जई दसणसा० १४ अंबरि विविहु सद् जो सुम्मइ पाहु. दो० १६८ पाहु० दो०१८ | अंवो णिबत्तण पत्तो मूला०६६१ भ० श्रारा० १०५० | अंसा दु समुप्पएण जंबू० ५० १२-७१ दवस० णय० ८७ अंसो अंसगुणेण य जंवृ० प०१२-६६ गो० क. १०८ गो० जी०१० श्रा लद्विसा० ११७ आइच्च-इंदयस्स य तिलो. प० ८-६६ लद्धिसा० ३४ आइञ्च-इंदयस्स य तिलो० प० ८-१२३ लद्धिसा० १६७ आइञ्चचंदजदुपहु- तिलो० सा० ५७३ तिलो० सा० १८१ आइच्चदेवसहिओ जबू० ५० -११७ वसु० सा० ४६६ आइञ्चमंडलणिभा जबू० प० १३-११७ गो० क०४६ प्राइच्चा ण वि एवं जबू० प० १२-३४ कम्मप० ११७ आइट्ठो सम्भावे सम्म. १-३६ पचस० १-१४ आइतियं बावीसे पचस०५-४६ पंचसं० १-१६ आइदुयं णिबधं पचस०५-१८ पचस०१-१८ आइरिओ वि य वेजो मूला० ६४२ लद्धिसा० १०२ आइरियउवझायाणं मूला० ५६१ कसायपा० ६६ (४६) आइरियपरपराई अंगप० ३-४६ कसायपा० १०८ (५५) आइरियपरंपरेण य जंबू० प० १३-१४२ तिलो०प०४-२२५३ | आइरियपायमूले भ० श्रारा० ५६३ लद्धिसा० ६१६ / आइरियाणं विज्जा चसु० सा० ३४६ गो० जी०२५२ | आइरियादिसु पंचसु मूला०३८ लद्धिसा० २०८ आइल्लयस्स बीओ प्राय० ति०२-७ लद्धिसा० २६७ आइल्लयस्स बीओ प्रायः ति०२-८ लद्धिसा० ३०१ श्रा-ई-उ-ख-घाईणं श्राय० ति० १०-१८ कत्ति० अणु० ४६८ आ-ईसाणं कप्पं तिलो. प०८-५६४ गो० जी० २६१ आ-ईसाणं देवा तिलो० प० ८-६७६ गो० . आ-ईसाणा कप्पा मूला० ११३१ गो० क० ६१० आ-ईसाणा कप्पा मूला० ११३६ गो० क० ८६ | आ-ईसाणा देवा मूला० ११७० Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ - कुल जोणि-मग्गणप्राक्कस्स पदेसं प्राक्स पसं उत्ते क्खये मरणं उक्खयेण मरणं उक्खयेण मरणं आउगबंधरणभावं उगबंधाबंधरणभागो थोवो उगभागो थोवो आउ गलइ गवि मरणु गलइ उगवन्नाणं ठिदि उगवाणं ठिदिउट्टिरिक्खमस्सिरिणउट्टि लद्ध-रिक्खं कोताह कोसिंखा उट्ठ रज्जुघणं आदिबंध ज्वहिदी विमारणं आउटरज्जु सेढ आटड्ढरासिवा रं दुहारतित्थ उधवासस्स उरं आडवलेण अवट्टिदि उनले दि कालो ऊभवम्मि गाणे मत्ती आरसवंधणभावं संति सग्गहु इवि उस खये पुरणो उस जहरणट्टदि उस बंधसमये उस्सय संखेज्जा आऊ कुमार- मंडलिआऊ चप्पयारं श्राऊ चप्पयारं ऊणि पुचकोडी पुरातन जैनवाक्य-सूची वसु० सा० १५ | आऊणि भवविवाई गो० क० २११ आणि भावविवा पंचसं० ४-४६६ | आऊरिण भवविवागी आणि आहारो तेजो बुद्धी कल्लाणा० ६ समय० २४८ समय ० २४६ | आउन्येण जीवदि आऊदयेण जीर्वाद कत्ति० अ० २८ तिलो० प० ७-४ गो० क० ३५६ गो० क० १६२ पचसं० ४-४६० जोगसा० ४६ लद्धिसा० ७८ | ऊ पडि गिरयदुगे भ० श्रारा० ६२७ तिलो० प० ६-१०१ सावय० दो० ७३ शियमसा० १७५ श्राऊ परिवारिड्ढीआऊ पल्लदसंसो आऊ बंधरणभावं आऊ बंधणभावं आऊ बंधरणभावो लद्धिसा० ४०३ तिलो० सा० ४३० तिलो० सा० ४२६ तिलो० प० ४-१८३८ तिलो० प० ४-१८४४ तिलो० प० ११८६ गो० क० ६४७ जबू० प० ११-३५० | तिलो० सा० १३६ गो० जी० २०३ | आक्वणी कहाए गो० क० ३६७ | आक्खेवणी कहा सा भ० श्रारा० ११३६ | आक्खेवणी य संवे गो० क० १८ आगच्छिय दीसरकम्म० १६ | आगच्छिय हरिकूडे तिलो० प० ५-२६० आगमकदविणारा श्राय० ति० २५-१ आएग य पाएग य आए गार्याम्म वि जो एसस्स तिरत्तं एसस्स तिरत्तं एस एज्जंतं आसं एज्जंत कंपिय अणुमा रिय कंपि प्रमाणिय कंसिकमदिघोरं आगमचक्खू साहू आगम-णोश्रागमदो आगमदो जो बालो आगमपुवादिट्ठी आगममाह गो० क० ६५३ श्रागमसत्थाइं लिहा तिलो० प० २-२६३ आगमसुदाणाधागो० क० ६३६ आगमहीण समो तिली० प० ४ - १२१२ | आगरसुद्धिं च करेज्ज भावस० ३३५ आगंतुकरणामकुलं कम्मप० ३२ | अगंतुक मारणसियं जबू० प० २ - १७५ | आगंतुगवत्थव्वा श्रा गो० क० ४८ कम्मप० ११६ पचसं० ४-४८६ तिलो० प० ६-३ तिलो० प० ४- १५६३ समय० २५१ समय० २५२ लदिसा० ११ तिलो० सा० २४२ तिलो० सा० ७६६ तिलो० प० ४-४ तिलो० प० ७ - ६१८ तिलो० प० ६-४ प्राय० ति० ३-१ थाय० ति० २-१ मूला० १६२ भ० श्रारा० ४१३ भ० श्रारा० ४१० मूला० १६० भ० श्रारा० १६२ मूला० १०३० तिलो० प० ४-४२३ अंगप० १-५६ भ० श्रारा० ६५६ भ० श्रारा० ६५५ तिलो० प० ५-६६ तिलो० प०४-१७६६ मूला० ८३१ पवयणसा० ३-३४ दव्वस० गाय० २७६ भ० श्रारा० ५६८ पवणसा० ३-३६ भ० श्रारा० ६५६ वसु० सा० २३७ भ० श्रारा० ४४६ पवयणसा० ३-३३ वसु० सा० ४४५ मूला० १६६ भावपा० ११ भ० धारा ४११ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी आगंतुघरादीसु वि भ० श्रारा० ६३६ आणद-पाणदपुफिय आगतुयवत्थव्वा मूला० १६३ प्राणद-पाणदवासी आगतूण णियंतो तिलो. प०४-२४४ आणदतूरजयदिआगतूण तदो सा तिलो०प०४-२०६५ आणा अणवत्था वि य आगाढावञ्चपयत्त छेदपिं० २२७ आणा अणवत्था वि य आगाढे वसग्गे भ. श्रारा० २०७२ आणाए कक्किणिो आगासकालजीवा पचस्थि० ६७ आणाए चक्कीणं आगासकालपुग्गल पचत्थि० १२४ आणाए चक्कीणं । आगासभूमिउदधी भ० श्रारा० ६६३ आणाए चक्की आगासमगुणिविट्ठ पवयणसा०२-४८ | प्राणाए जाणणा वि आगासमेव खित्त वसु० सा० ३२ | आणाणिदेसपमाआगासम्मि वि पक्खी भ० श्रारा० १७८२ | आणाभिकंखिणावज्जआगासस्सवगाहो पवयणसा० २-४१ | आणाभिकंखिरणावज्जआगासं अवगासं __ पचत्थि० ६२ | आणावह-अहिगमदो आगासं वजित्ता गो० जी० ५८२ आणा संजमसाखिलआचक्खिदुं विभजिदूं मूला० ५३४ | आणाहवत्तियादीहिं आचारगधरादो तिलो०प०४-१५०८ आणिय गुणसंकलिदं आचेलक्कं लोचो भ० श्रारा० ८० आणीय गेहक्मला आचेलक लोचो मूला० ६०८ आणुधरीयं कुथु आचेलकुदसिय भ० आरा० ४२१ आतंक्रोगमरणुप्पत्तिआचेलक्कुद्देसिय मूला० १०६ | श्रा-तरिमखिदी चरम- श्रा-जोदिसि त्ति देवा मूला० ११७६ आदट्ठमेव चिंतेआणक्खिदा य लोचे भ० श्रारा० १२ श्राद-पर-समुद्धारो आणद-श्रारण-णामा तिलो. १०८-१४६ आदम्हि दव्यभावे आणदणामे पडले तिलो० ५० ८-५०२ आदर-अणादरक्खा आणदुकापप्पहुदी पचस०४-३४६ आदर-अण प्राणदपहुदिचउक्कं तिलो. प०८-२०१ | आदसहाशदएणं आणदपहुदी छक्कं तिलो० ५० ८-१४५ आदहिदपइण्णाभाप्राणद-पाणद-भारण- तिलो० ५० ८-१३४ आदहिदमयाणतो आणद-पारगद-रण तिलो० प०८-१६० आदंके उवसग्गे आणद-पारगढ-आरण तिलो० प०८-२०५ | आदंक उबसग्गे आणद-पाणद-आरण तिलो० प०८-३३८ | आदाओ उज्जोओ प्राणद-पाणद-आरण तिलो० प० ८-३८४ आदाश्रो उज्जोवं आणद-पाणद-रणतिलो. प०८-६८५ आदा कम्ममलिमसो आणद-पाणदइंदे तिलो० प०८-२२२ आदा कम्ममलिमसो आणद-पाणदइंदे तिलो०प०८-४३६ आदा कुल गणो पवआणद-पाणदकप्पे तिलो० ५०८-१८४ आदा खु मज्भणाणं आणद-पाणदकप्पे मूला० १०६६ श्रादा खु मज्मणाणे आणद-पाणदकप्पे मूला० ११४२ | आदाखु मज्भरणाणे आणद-गणददेवा जबू० प० ११-३४६ । श्रादा खु मज्झणाणे तिलो० सा० ४६८ गो० जी० ४३० तिलो. सा० ५५१ मूला० १५४ मूला० ४६४ तिलो. प. ४-१५२ तिलो. प०४-१३४३ तिलो. प०४-१३५५ तिलो०प०४-१३६४ मूला० ६३४ मूला० ६८२ भ० श्रारा० २१४ मूला०३५४ दवस. णय० ३२१ भ० श्रारा०३१० भ. श्रारा० ७०३ तिलो० सा० ३६१ तिलो० सा० ५७४ कत्ति० अणु० १७५ तिलो०प०६३१ तिलो. प० २-२६२ भ० श्रारा० ४८३ भ. श्रारा० १११ समय० २०३ तिलो० ५० ५-३८ तिलो. प०४-२६०१ मोक्खपा० १७ भ० श्रारा० १०० भ० श्रारा० १०२ मूला० ४८० मूला० ६४२ गो० क. १६५ पंचस० ४.५५४ पवयणसा०२-२६ पवयणसा० २-५८ भ० श्रारा० २४२ समय० २७७ भावपा० ५८ समय०१५२०३(ज०) णियमसा० १०० Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची दव्वस० गाय०११६ | आदिमपासादस्स य तिलो० ५० ५-२१२ प्रादा णाणपमाणं पवयणसा. १-२३ | आदिमपासादादो तिलो० ५० ५-१६६ श्रादा णाणपमाणं दवस० गय० ३८५ आदिमपीठुच्छेहो तिलो तिलो० प०४-७६७ आदाणे णिक्खेवे मूला० ३१६ आदिममज्झिमबाहिर- तिलो० ५० ४-२५६० आदाणे णिक्खेत्रे भ. श्रारा० ८१८ आदिमज्झिमबाहिर- तिलो. प०४-२५६४ आदाणे णिक्खेवे म. श्रारा० ११५१ आदिमरयणचउक्क तिलो. प०४-१३७८ आदा तणुप्पमाणो दवस० णय०३८३ आदिमलद्धिभवो जो लद्धिसा०५ आदाय तं पि लिंगं पवयणसा०३-७ आदिमसत्तेव तदो गो० क. ४४२ ॥ आदावणादिनाहणे मूला० १३५ आदिमसम्मत्तद्धा गो० जी०१६ आदावणादिजोगग्ग छेदपिं० १७६ | आदिमसंठाणजुदा तिलो. प० ४-२३३२ आदाव-तसचउकं पंचसं०४-४४६ आदिमसंहडण जुदा तिलो. प० ४-१३६१ आदावुज्जोदविहा मूला० १२३२ आदिमसंहडणजुदो तिलो० ५० १-५७ आदावुज्जोवाणं पंचस० ५-६७ आदिम्मि कमे वड्ढदि गो० क० १०७ आदा हु मज्भ णाणे मूला० ४६ आदिल्लदससु सरिसा गो० क० ३८१ आदिश्रवसाणमज्झे तिलो० प० ४-६७६ आदी अंतविसेसे तिलो. सा. २०० आदिअवसाणमज्झे तिलो० ५० ४-६८० आदी ते सुद्धे गो० क० २५४ आदिजिणप्पडिमाओ तिलो. प०४-२३० आदी अंते सोहिय तिलो. १०२-२१८ आदिणिहणेण हीणा तिलो० ५०३-३७ | आदीए दुविसोधण मूला० ५३५ आदिणिहणेण हीणो तिलो० ५० १-१३३ आदीओ णिहिट्ठा तिलो. प०२-६१ आदितियसुसंघडणो भ० श्रारा० २०४४ आदी छ अट्ठ चोदस तिलो. प०२-१५८ आदिधणादो सव्वं गो० क. १०१ आदी जंबूदीओ तिलो० प०५-१७ आदिप्पायारादो तिलो० ५० ८-४२० आदीदो खलु अट्ठम- तिलो० सा० १६६ आदिमकच्छंगुणिदो जबू० प० ४-१६६ आदीदो चउमज्झे छेदस०४ आदिमकरणद्धाए लद्धिसा० ४० आदी लवणसमुद्दो तिलो. प०५-१२ आदिमकरणद्धाए लद्धिसा० ४२ आदी वि य चउठाणा पचसं०५-२४० आदिमकरणद्धाए लखिसा० ३६३ आदी वि य संघयणं पंचसं० ३-४२ आदिमकसायबारसभावति०११ आदुरसल्ले मोसे भ० श्रारा० ६१८ आदिमकूडे चेहदि तिलो० प० ४-१५१ आदे तिदयसहावे दन्वस० गय० ३२२ आदिमकूडोवरिमे तिलो० ५० ४-२०३६ आदेसमत्तमुत्तो पंचत्थि० ७८ आदिमखिदीसु पुह पुह तिलो० प० ४-७५४ आदेसमत्तमुत्तो तिलो०प०१-१.. श्रादिमच उकप्पेसुं तिलो. प०८-५६८ आदे ससहरमंडल- तिलो. प०७-२०६ आदिमछट्ठाणम्हि य गो० जी० ३२६ | आदेसे वि य एवं गो० क.८७५ आदिमजिणउदयाऊ तिलो० प० ४-१५८० आदेसे संलीणा गो० जी०४ आदिमणिरए भोगजभावति० ४५ प्रादेहि कम्मगठी सीलपा० २७ आदिमतिगसंघडणो छेदपिं० २८४ आदोलम्स य चरिमे लद्धिसा० ४८० आदिमदोजुगलेस तिलो. प० ८-३२४ आदोलस्स य पढमे लन्द्विसा० ४७६ आदिमपरिहि तिगुणिय तिलो० प० ४-४३१ | आदोलस्स य पढमे लद्धिसा० ४८" आदिमपरिहिप्पहुदी तिलो. प० ४-२७६६ | आधाकम्मपरिणदो मूला० ४८७ आदिमपहा दु बाहिर- तिलो० ५० ७-३६० | श्राधाकम्मपरिणदो आदिमपचट्ठाणे गो० क० ३७६ | अधाकम्म उद्दे- समय० २५० २५ (ज.) मूला० ६३४ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ प्राकृतपद्यानुक्रमणी सर आधाकम्म उद्देसमय० २८७ आयदणाणायदणं गो० क. ७४ प्राधाकम्मादीया समय० २८५ क्षे० २४ (जय०) आयमचाए चत्तो भावसं० ६०८ आधाकम्मादीया समय० २८६ | आयमपुराणचरिया ढाढसी० २५ प्राधाकम्मुइसिय मूला० ४२२ | आयमसत्थपुराण दसणसा० ३६ आधाकम्मे भुत्ते छेदस० ४३ | आयरियउवज्झाए भ० धारा० १०३ आधाकम्मे भुत्ते छेदपिं० १०० आयरियकुलं मुञ्चा मूला० ६५६ आ-पंचमीति सीहा मूला० ११५४ आयरियत्तणतुरिओ मूला०६६० श्रापुच्छ बंधुवग्गं पवयणसा० ३-२ | आयरियत्तणमुवणयइ मूला०६६३ आपुच्छा य पडिच्छण- भ० श्रारा० ६६ आयरियत्तादिणिदाणे भ० श्रारा० १२४० आबद्धधिदिदढो वा भ० श्रारा १४०२ आयरियधारणाए भ० श्रारा० ३२३ आबाधाणं बिदियो गो० क. १४१ आयरियपरंपरया जंवू० ५० १-१८ आबाधूणठिदी कम्म- पंचस० ४-३८६ आयरियपादमूले भ० श्रारा० ५६३ आवाहं बोलाविय गो० क० १६१ | आयरियभवाहो सुदखं०८० आवाहं बोलाविय गो. क. १२० आयरियविसाख-पोट्ठिल- णदी० पट्टा०८ आवाहूणियकम्मट्टि- गो० क० १६० आयरियसत्थवाहेण भ० श्रारा० १२६० श्राबाहूणियकम्मट्टिगो० क. ६११ आरियस्स दु मूलं छेदपिं० २६१ आभरणा पुन्वावर- तिलो० ५०८-४०३ आयरियाणं वीसत्थ- भ० श्रारा० ४८८ आभिणिबोधियसुदो- मूला० १२२४ आयरियादिरिसीहि छेदपिं० १७१ आभिणिबोहियणाणी जबू० ५० ११-२५६ आयरियादिसु णियहत्थ- छेदर्पि० १८३ आभिणिवोहियसुदो- जोगिभ० १६ आयरियेसु य राओ मूला० ५७१ आभिणिसुदोधि(हि)मणके- पचस्थि० ४१ | आयस्स जस्स उ-अ-ओ श्राय० ति० १-३३ आभिणिसुदोहिमणके- समय० २०४ | आयंबिलणिब्धियडी- भ० श्रारा० २५४ आभीयमासुरक्खं गो० जी० ३०३ आयंबिल-णिन्वियडी- वसु० सा० २६२ भाभीयमासुरक्खा पंचसं० १-११६ | आयंबिलणिन्वियडी- वसु० सा० ३५१ अाभुजता विसयसुहा · पाहु० दो० ४ | आयंबिलणिब्धियडी मूला० २८२ आमरिसखेलजल्ला निलो० ५० ४-१०६५ | | आयंबिलसिव्वियडी छेदस०३ आमस्सण परिमस्सण भ० श्रारा० ६४३ छेदस०५ ओमंतणि आणवणी मूला० ३१५ आयंबिलम्हि पादूण छेदपिं० ११ आमंतणि आणवणी भ० श्रारा० ६४६ | आयंबिलेण सिंभं म० श्रारा० ७०१ आमंतणि आणवणी गो० जी०२२४ आयाण य तत्ताण य श्राय० ति०१-४८ श्रामंतेऊण गणि भ० श्रारा० २७६ | आयाणं जह भणिए श्राय० ति० २३-३ आमासम्मि पक्का भ० श्रारा० १०१२ | आयादो वयमहियं लद्धिसा० ५२२ आमासयस्स हेट्ठा तिलो० प० ४-६२३ | आयापायविदण्हू भ. श्रारा० १०६ आमिससरिसउ भासियउ सावय० दो० २८ | आयामकदी मुहदल- तिलो० सा० ३२० आमुक्क पुण्णहेर्ड भावसं० ३६४ | आयामदलं वासं तिलो. सा. १७८ आमोसहिए खेलोजोगिभ० १६ | आयाम विक्खंभं जंबू० प० ७-८ आयइँ अडवड वडवडइ पाहु. दो०६ आयामं सतिभागं छेदपिं०८ आयगयं पायगयं श्रायः ति० ६-१ आयामे मुहसोहिय तिलो. प०५-३१८ आयरिणय भेरिरवं तिलो० ५० ३-२११ आयामो पएणासं तिलो० प० ४-१६३३ श्रायदण चेदिहरं बोधपा० ३ | आयामो हि सहस्सं जंवू० ५० ३-७२ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुगतन-जैनवाक्य-सूची आयार-जीदकापगु भ० यारा० १०६ । श्रागधरणाए तत्पद भ० धारा० २०२६ श्रायार-जीदका पगुम० श्रारा० १३० बागवणापटायं भक धारा०४५८ पायार-जीदकप्पगुमूला० ३८० पराधसापुरस्नर म० श्रारा० ४५३ आयारत्थो पुण से म० यारा०४२७ अराधणाविधी जो म. धारा०२०२४ आयारवमादीया भ० श्रारा. ५०६ प्रागयित्न धीग म. शारा०२१६३ पायारवं च श्राधा- म० थारा० ४१७ श्रारार्वायत्त धीग भ० धारा०२१६२ आयार पढमग नागप० १-१३ पारामाण विवं श्राय० वि०१०-२३ प्रायारं पंचविह म. प्रारा० ४१६ पाराहावजुत्तो मूला० १० अायारं सुद्दयडं मुदभ० २ श्रागहराणिजुत्ती मूला०२६ पायाराई सत्थं भावस० ५२४ श्रागहरामारा धारा०मा० ११ अायारादी अंगा कल्याणा० २८ आगहसाह व शिययसा० ८४ आयारादी गाणं समय. २७६ श्रागहणाइसारं धारा० सा० ११३ आयारे सहयडे गो० जी० ३४५ आराहणाइमारो पारा० सा०२ आयारो खाईणं थाय० ति०६-१० पागहरणार कम्जे म. धारा पायावुजोयाणं पचम० ४-०७४ भागहयापट्टागं रिस०५ पायावुज्जोयाणं पंघसं०५-१०८ श्राराहया भगवढी भ० धारा० २१६८ यावुज्जोयाणं पंचम० ५-१०१ पाराहिउण केई थारा० मा० १०८ पायावुजोवुदयं पचसं०५-११६ बाराहिजड देउ पाहु० दो० ५० पायाधुजोवुदये पघसं०५-१९७ आरिदंग सिसिहो तिलो. प० २-५० यासगया पुण गयो अंगप० ३-४ पारुह वि अंतरपा मोक्खपा०७ यास णभ एवं पण तिलो. प० ४-१६२ आमहिउणं गंगा तिलो. प०४-१३०% आयासतंतुजलसे जोगिभ० २० प्रारुहिणं तेसुं तिलो० ५० ५-७१ श्रायास-दुक्खवेरभ मूला० ७२१ आरूढो वरतुरयं तिलो० प०५-८० आयास- फलिह-सण्णिह- वसु० सा० ५७२ आरूढो वरमोरं तिलो० ५० ५-६७ आयासवेरभयदुक्ख- भ० प्रारा० ३७० आरोग्गनोहिलाहं . मूला०५६६ आयासं पि ण गाणं समय० ४०१ पारो मारो तारो तिलो०प०२-४४ आया सपदेसं मूला०५४६ आरो मारो तारो जम्ब० प० ११-१५३ आरणइंदयदक्षिण- तिलो. प०८-३४६ / आरोविरुण सीसे वसु० सा० ४ १७ धारणदुगपरियंतं तिलो० ५०८-५३१ श्रारोहियाभियोग्गग- तिलो० सा०५०१ आरएणो(गो)वि मत्तो भ० श्रारा० ७६३ | आलसडूढो शिरुच्छाहो गो० क०६० आरत्तिउ दिएणड जिगहँ सावय० दो० १६६ | आल जणेदि पुरुसस्स भ० धारा १८ आरंभं च कसायं मूला. १७७ आलंबणं च वायण- भ. श्रारा० १७१० आरंभे उवसग्गो थाय. ति०३-१३ बालवणं च वायए भ० श्रारा० १८७५ आरंभे जीववहो भ० श्रारा० ८२० आलंबणेहिं भारदो भ. श्रारा० १८७६ आरंभे धणधरणे रयणसा० १०७ आलिहउ सिद्धचकं भावसं०४४३ आरंभे पाणिवहो मूला० ६२१ आलिंगिए य संते श्रायति०१०-३ आराए दु खिसिट्ठा तिलो० सा० १६१ आलिंगिएसु णेहो श्रायः ति० १२-३ आराधणपत्तीयं म० श्रारा० ७०६ आलिंगिएसु दिवसा श्रायः ति०१४-४ आराघणपत्तीयं भ० श्रारा. १६६४ आलिंगिएसु पुरिसो श्राय० ति. ११-३ आराधणं असेसं भ० आरा० २१६४ | आलिंगिए सुवरण श्राय०ति० १६.२६ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रा प्राकृतपद्यानुक्रमणी आलिंगिएसु सुम्मा आलिगिएसुसुरसा आलिगिए सुहमई आलिगियो पमुक्को लिगियो य संतो आलिगियम्मि बहुय आलिगियम्मि विजओ. आलिंगियसंताणं आलिगियसंतेहि आलिंगियाइपुरो आलिंगियाहिधूमियआलीणगंडमंसा आलोइदं असेसं आलोगणं दिसाण आलोचण गुणदोसे आलोचण पिंदणगरआलोचणमालुंचण आलोचणं दिवसियं आलोचणाए सेज्जा आलोचणापरिणदो आलोचणापरिणदो आलोचणापरिणदो आलोचणा हु दुविहा आलोचिदणिस्सल्लो आलोचिदं असेसं आलोचिदं असेसं आलोचेमि य सव्वं आलोयण तणुसग्गो आलोयण पडिकमणं आलोयण पडिकमणं आलोयण पडिकमणं आलोयण पडिकमणो आलोयणमालुचणआलोयणं सुर्णित्ता आलोयणं सुणित्ता आलोयणादिकिरिया आलोयणादिया पुण आलोयणापरिणदो आलोयणाय करणे आलोयणा य काउस्स श्रायः ति० १६- आलोयणेण हिदयं भ० श्रारा० २०८५ आय. ति० १०-१२ श्रावडपत्थ जह ओ- भ० थारा० १२४३ श्राय० ति० १४-४ आवडिया पडियूला भ० थारा० १५२० श्राय० ति० ४-१३ आवरण अंतराए पंचस०४-४०५ श्राय० ति० ४-१५ श्रावरणदुगाणखये लद्धिसा०६०७ श्राय० ति० १६-८ प्रावरणदेसघादं गो० के० १८२ श्रायः ति० १५-३ आवरणदेसघायं प्रचसं० ४-४८० श्राय० ति० ६-३ यावरणमंतराए पचसं० ४-३६० प्राय० ति० ७-६ आवरणमोहविग्धं कम्पप०६ रिट्टस० १६५ आवरणमोहविग्धं गो. क. १ प्रायः ति० २४-४ आवरणविग्ध सत्रे पंचस० २-३ मूला० ८३० आवरणविग्ध सम्वे पंचसं०४-२३३ म. श्रारा० ५६४ आवरणवेदणाये गो० क. ६३८ मूला० ६७० आवरणस्स विभेयं अंगप० २-८६ भ. श्रारा० ४७४ आवरणाण विणासे भावस० ६६६ मूला० ६२३ आवलिअसंखभागं गो० जी० ३८२ मूला० ६२१ श्रावलिअसग्वभाग गो० जी० ४५७ मूला० ६१६ आवलिअसंखभागा गो० जी० ४१६ म० श्रारा० १६६ श्रावलि असंखभागा गो० जी० ४२१ म. श्रारा० ४०५ आवलिअसंखभागेण गो० जी० २१२ भ० श्रारा० ४०६ आवलिअसंखभागो गो० जी० ३६६ भ० श्रारा० ४०७ आवलिअसंखसमया गो. जो० ५७३ भ० श्रारा० ५३३ आवलिअसंखसमया जंबू० ५० १३-१ भ० श्रारा० २०८४ गौ० जी० २११ म. श्रारा० ५६६ श्रावलियअणायारे । कसायपा० १५ भ० श्रारा० ६०३ , आवलियपुधत्तं पुण गो० जी० ४०४ भ० श्रारा० १७१ | आवलियमित्तकालं पंचसं० ५-३०१ छेदस० ६० आवलियमेत्तकालं पचसं० ४-१०१ मूला० १०३१ | आवलियं आवाहा गो० क. १५६ । अंगप० ३-३५ वलियं आवाहा गो० क० ६१८ मूला० ३६२ श्रावलियं च पविटुं कसायपा० २२५ (१७२) छेदपि० १७४ आवसहे वा अप्पा म० श्रारा० ७६ णियमसा० १०८ श्रावादमेत्तसोक्खो भ० श्रारा० १६६० छेदपि० २७२ आवासएण जुत्तो णियमसा० १४६ भ० धारा० ६१७ आवासएण हीणा णियमसा० १४८ दवस. णय० ३४३ आवासयठाणादिसु मला० १६४ म० श्रारा ५५४ आवासयठाणादिसु भ० श्रारा० ४१२ भ० श्रारा० ४०४ आवासयणिज्जुत्ती मला० ५०३ मूला० ५६१ | आवासयणिज्जुत्ती मूला० ६६० छेदपिं० ६२ | आवासयपरिहीणो छेदपिं० १२२. वण Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ वासपरिण आवास परिहरणो आवासयं च कुपदे आवासयं तु श्रवावासयाई कम्मं आवासया पि मौणे आवासया हु भवश्रद्धाश्रावासं जइ इच्छसि वाहि देवे वाहिऊण संघ सासरीरे auri faar आस आसत्थं सभव्यजीवो आसत्यमेक्सयं सवसे एवं श्रसवइ जं तु कम् पुरणं आसव हे सुहं आसवदिजं तु कम्म सवदि जेण कम् आदि जे 'आसव-बंध-संवरश्रसव-संवर- गिज्जरआसव-संवर-दव्वं सदू जीव आसवदूय तह सा विमुक्क सागिरिदुग्गाणि य आसाढ कत्तिए फग्गुआसाढ कत्तिए फग्गुसाढपुरमीए साढपुरणमी श्रसाढबहुलदसमी साढे दुपदा छाया आसाढे संवच्छरसादित्ता कोई सादिदा दोहो आसादे चउभंगा आसाय छिन्नपयडी सायछिन्नपयडी पुरातन जैनवाक्य-सूची म० रा० २०५५ मूला० ६८५ भावसं० ६१० छेदपिं० १२३ | सायछिन्नपयडी छेदस० ४८ सायछिन्नपयडी आसायपुरण ताओ आसि उज्जेणियरे सि मम पुत्रमे छेदस० ७६ श्रासीतखुत्तो गो० जी० २२० | श्रासी कुमारसेणो शियमसा० १४७ आसीदि होइ संता भावसं० ४६६ | आसीय महाजुद्धाई भावसं ० १४६ श्रासीवादादि ससिमूला० २०८ आसीविसेण अवरुद्धस्स भाव ४२८ | सीविसोव्त्र कुविदो मूला० ५६८ | श्रसी ससमय पर समयदव्वस० णय० ३१६ | श्रासुक्कारे मरणे तिलो० प० ४-१२१२ -सोधम्मादाव भ० श्रारा० ३५६ | आहट्टिदूण चिरमवि भावसं० ३२१ हर श्रणेण मुरणी हरइ सरीराणं भावसं ० ३२० मूला० २४० | श्राहरणहिम्मत दव्वस, २६ | आहरणवासियाहि पंच० १५७ | हरणहे मग्यां दव्वसं ० ० २८ | हरणहेमरयणा भ० श्रारा० ३८ | श्राहदि श्रणेण मुखी गो० जी० ६४३ | आहदि सरीराणं बा० श्रणु० १८ | आहार अभयदा मोखपा० ५५ आहारकायजोगा मूला० ६८८ | आहारगा दु देवे म० रा० १३०४ | आहार-गिद्धि-रहित्रो वसु० सा० ३५३ | आहारजुयल जोगं वसु० सा० ५०७ | श्राहारणिमित्तं किर तिलो० प० ७-५३१ | आहारत्थं काऊण आहारत्थं पुरिसो आहारत्थं मज्जाआहारथं हिंस तिलो० सा० ४११ तिलो० प० ४-६६३ मूला० २७२ पिं० ११२ | आहारदंसणेण य भ० आर० ६६२ | अहारदंसणेण य भ० श्ररा० १६३४ | आहारदारिदा पंचसं० १-३२५ | आहारदारिदा पंचसं० ४-३२७ | आहारदायगा पंचसं० ४-३४३ | आहारदुगविहीणा श्रा पंचसं० ४-३४८ पंचस० ४-३५६ पचसं० ४-३७६ भावस० १३८ समय० २१ म० धारा० १६०६ दंसणसा० ३३ पंचसं० ५-२११ भ० श्रारा० ६४२ तिलो० सा० ८०० भ० श्रारा० ८६२ भ० श्रारा० ६४६ वसु०सा० ५४२ भ० श्रारा० २०८३. पंचसं० ४-४७० भ० श्रारा० १२५ पंचसं० १-६७ पंचसं० १-१७६ वसु० सा० ५०२ वसु० सा० ४०४ णयच० ७४ दव्वम० णय० २४४ गो० जी० २३८ गो० जी० ६६४ जव० प० २-१४६ 2 गो० जी० २६६ गो० क० ५४२ कत्ति० अ० ४४१ पंचर्स ० ४-१६२ मूला० ८२ भ० श्रारा० १६५१ भ० श्रारा० १६४६ भ० श्रारा० १६४७ भ० श्रारा० १६४२ गो० जी० १३४ पचसं० १-५२ तिलो० प० ४-३६७ जबू० प० २-१४४ मूला० ४५४ पंचसं० ४-७८ } Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रा प्राकृतपद्यानुक्रमणी आहारदुगं सम्म आहारटुग हित्ता आहारदुगुणा तिसु श्राहारदुगुणा दुसु आहारटुगे होति हु आहारदुगोरालाआहारदुयं अवणिय आहारदुयं अवणिय आहार-भय-परिग्गहआहारमो जीवो आहारमो देहो लाहारमप्पमत्ते आहारमप्पमत्तो आहार-मारणंतियआहारय-श्रारालियआहारय-जुवजुत्ता आहारय-तित्त्थयरं अहारयदुगरहिया आहारय भविएसु आहारयमुत्तत्थं आहारय-वेउब्बियआहारयं सरीरं आहारवग्गणादो आहारसरणसत्ता आहारसरीरिंदियआहारसरीरिंदियआहारमरीरिदियआहारसरीरुदयं आहारस्सुदयेण य आहारं तु पमत्ते आहाराभयदाणं आहारासणणिदाआहारासणणिदाआहागसणणिहाआहारे कम्मूणा आहारेण य देहो आहारेदु तवस्सी आहारे बंधुदया आहारे य सरीरे आहारे व विहारे गो० क० ४१५ | आहारो उस्सासो तिलो० प०७-३ सिद्धतसा० ५४ | आहारो उस्सासो तिलो० ५० ७-६१७ पचसं०४-७२ | आहारो उस्मासो तिलो. प०८-३ सिद्धतसा० ७६ | आहारो पज्जत्ते गो. जी. ६८२ भावति० ८५ | आहारो य सरीरो बोधपा० ३४ पचर्स. ४-४६ सिद्धतसा० ४६ पचस० ४-२६८ आहारोसहसत्था वसु० सा० २३३ पंचस०५-११ आहिडयपुरिसम्स व भ० श्रारा० १७६८ भावपा० ११० आहुट्टमासहीणो सुदख० ६५ भ० श्रारा० ४३५ भावसं० ५११ गो० क. १७२ | इइ अवकहडाचक्कं रिट्ठस० २४० पचस०४-४६० रिस० २५३ गो० जी० ६६८ | इइ भणियं सिमिणत्थं रिहस० १३० सिद्धंतसा० २१ इइ भणि [णिय छाया रिट्ठस० ८५ सिद्धससा० ६५ इइ रिट्ठगणं भणियं रिट्ठस० ४० पचस० ४-४२७ इक्क उपज्जइ मरइ कु वि जोगसा० ६६ श्रास ति० ५४ । इक्कहिं घरे वधामणउँ सुप्प० दो०१ कसायपा० ४८ इक्कं च तिरिण पंच य पचस०४-१८ गो० जी० २३६ प्राय० ति०१-४३ पचस० २-८ इक्कं बंधइ णियमा पंचसं०४-२५६ पंचसं० ४-४१३ । इक्कावरणसहस्सा पंचसं० ५-३६६ गो० जी० ६०६ / इक्कु वि तारइ भवजलहि सावय० दो० ८५ तिलो. प. ४-२५०५ / इक्केणं जइ पाओ प्राय० ति० १८-१७ गो० जी० ११८ इक्केणं पण्हेणं श्राय० ति० २२-११ कत्ति० अणु० १३४ ।। इक्को जीवो जायदि कत्ति० अणु० ७४ पचसं०१-४४ | इक्को रोई सोई । कत्ति० अणु० ७५ पंचसं०५-१६७ | इक्को विजए चंदो रिस० ४५ गो० जी०२३४ इक्को सहावसिद्धो कल्लाणा० ३५ गो० क० २६१ । इक्को संचदि पुरणं कत्ति० अणु० ७६ तिलो. ५० ४-३७० इक्खुरस-सप्पि-दहि-खी- वसु० सा० ४५४ पारा० सा० २६ इगअहणवणभपणदुग- तिलो० प० ४-२६८५ भावस० ६१७ इगकोडिपणसहस्सा सुदख० २८ मोक्खपा० ६३ इगकोडिपण्णलक्खा तिलो० प०४-२६२ पचसं० ४-६७ | इगकोडी छल्लक्खा तिलो० प०८-२३८ भावसं० ५२१ / इगकोसोदयरुंदो तिलो प०४-२०८ मूला०६४५ इगचउतियणभणवतिय- तिलो० ५० ४-२८१८ गो० क. ७३७ इगछक्कएक्कणभपण- तिलो० प० ४-२६०६ मूला० १०४५ इगछट्टअट्ठदुगपण- तिलो० प० ४-२६३४ पवयणसा० ३-३१ | इगणउदि लक्खाणिं तिलो० प०४-२७३ ६ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवास्य-सूची इगनितिपंच फममो तिलो ५० ८-३१३ मगिकामांवरमला मिली. प० ४-४६ इगतीस-वहि-उवमा तिलो. १०२-२१० गिगगग पराग मिलो० मा ११ इगतीमलबजायगा- तितो प०-३६गि प3 गामाय पघम.-110 इगतीम सत्त घउ दुग मिलील ५० -10 गिचादि चल्न गिलो. मा० ५% इगतीस च सदाई संवृ० प० ४-३० निमगवर्यामती गील ३०००० इगतीमं च महम्मा जय०१० ४-३५ गिफराबवीन गो० फ. १६ इगतीमं च सहरमा जब० ५० ४-३६ / गिरवीन च नामा पम्य. ५-१६ हगतीमं लक्रपाणि जिलो० ५०८-१६ | इगिजास्थावगटा. पपम० ४-३६१ इगदालुत्तरस गायय- तिली १०-७३ दगिटापटयानो गो० २० इग दग चउ अड अत्तिय शिलो. प. ४-२६१३ गिटारगफहटयानो गो० २०१० इग पण दो इगि छन्चर निलो० ५० ५-०८८३ ! मगिगगनदी तीन गांक०७४ उगपणमगडपणपण- तिलो ५०५-२६१८ एगिगाभपणच उपन्दग- मिन्नो०५०४-२६७२ इगपल्लपमारणाऊ. तिलो. प०४-१७६१ इगि गव व मििगगिग. निलो० मा० २८ इगपुचलक्खसमधिय- शिली. प० ४-५६१ गिरणयनियममददग- निनो०५०४-२६६५ इगलक्खं चालीसं तिलो. ५०-101 इगिणवदी बवा गो० क० ०४६ इगविगतिगचरिदिय- भ० पाग० २०६६ इगिनीनवधगंमु य पधम०५-२४७ इगविगतियचउपंचिं- भ० भारा० १७४० इगितीमवंबठाणे गो. २०७४ इगविगलिंदियजणिदे थाम० ति० ३७ हगितीम सत्त चत्ता যা : ৫ इगविजयं ममत्थं तिलो० ५० ४-२३०० गितीस सत्त पत्ता- तिलो मा० ४६२ इगवीस चदुर सदिया मूला० १०.३ | इगितीमंना बंबड पचम०५-२५५ इगवीमपुव्यलक्खा निलो० ५० ४-५६३ इगितीमा गणवयमदा जंवृ० प० ३-६ इगवीसमोहखवणुव- गो० जी० ४७ इगितीसे तीसुदओ गोक० ४४४ इगवीसलग्ववच्छर- तिलो० ५० ५-१२६० इगिदालमयसहस्मा जवृ० १० ११-० इगवीमवम्सलवग्या तिलो० ५० ४-६५६ इगिदाल च मयाइ गो० क.८७० इगवीससहस्साई तिलो० ५०४-१४०६ इगिदालीससहस्सा जवृ० प० १३-७० इगवीससहस्लाई तिलो० प०४-६०१ इगि-दुग-तिग-संजोए पसं० ४-१७६ इगवीसमहरूमाथि तिलो० प० ४-३१८ इगिदुगपंचेयारं गो. जी. ३५८ इगवासं चिय रिक्वे रिटम० २५० इगिदुतिच उरक्वेसु य सिन्छ तसा. ६६ इगवीस तु सहावा दव्वम० णय० ६६ इगिपणसत्तावी पघस० ५-२४४ इगवीसं तु महावा दवस० गय० ६८ इगि पच तिरिण पंच य पचसं० -२५७ इगवीस लक्खाणि तिलो० प० -५२ इगि पंच तिरिण च य पचसं० ५-५१ इगसट्ठियभागकदे तिलो० प० ७-६८ इगिपंचेंदियथावर गो० क. १३१ इगसट्ठी अहिएण तिलो. प०८-७ इगिपंचेदियथावर कम्मप० १२७ इगसट्ठीए गुरिणदा तिलो. प०७-११२ इगिपतिगद पुध पुध गो० क० ६३५ इगसयअठारवासे __ण दी. पट्टा० १७ इगिपुरिसे बत्तीम गो० जी० २७७ इगसयजुदं सहस्मं तिलो० ५० ४-११५५ | इगिवट्ठाणेण दु गो० क० ७६८ इगसयरहिदसहस्स तिलो. प. ४-११५६ इगिविगलथावरचऊ गो० क० २८ इगहत्तरिजुत्ताई तिलो० प० ४-१६६६ | इगिविगलथावरादव- पचस० ४-३७४ इगि अड अट्ठिगि अट्ठिगि- गो० क० ५७७ इगिविगलथावरादव- पचस०४-३७७ इगिअडपहुदि केवल- तिलो० सा० ६० । इगिविगलवधठाणं गो० क०७१५ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी इगिविगलिदियजाई पचसं० ४-३२४ / इच्चेवमादि अविचिं- भ० धारा० १२३८ इगिविगलिदियजाई पचस० ५-२१२ / इच्चेवमादिओ जो मूला० ३७६. इगिवितिकासो वामो तिलो० सा० १८० इच्चेवमादि दुक्खं भ० यारा० १५८७ इगिवितिचग्यचडवारं गो० जी० ४४ इञ्चेवमादिदोसा भ० धारा० ४६५ रगिवितिचाखपगादस- गो० जी०४३ | इञ्चेवमादिविणो भ० श्रारा० १२२ इगिवियलिदियजीवे पचस०४-३५४ इच्चेवमादिविविहो भ० श्रारा०२१० इगिवियलिंदियसयले पचस० ५-४२२ । इश्वमेदमविचिं भ. बारा० १२८४ इगिमासे दिणवड्ढी तिलो० सा० ४१० इञ्चेव समणधम्मो भ० श्रारा० १४७६ इगिवरण इगिविगले गो० जी० ७६ इञ्चेवं क्म्मुदी भ० श्रारा० १६२२ इगिवारं वजित्ता गो० क० ६४३ इच्छगुणरसियाणं जवू० प०४-२०१ इगिविहिगिगिखखतीसे गो० ० ५७८ इच्छट्ठाणं विरलिय जंवू० प०४-२१७ इगिवीसछदालसयं तिलो. सा० ३६० इच्छतो रविबिम्ब तिलो० ५०७-२४२ इगिवीसटाणुदये गो० क० ७७५ इच्छं (ढ) परिरयरासिं तिलो० ५० ७-२६५ इगिवीसमोहखवणुव- गो० क० ८६७ इच्छाए गुणिदाहिय-(ओ) तिलो० प० ४-२०४६ इगिवीससहस्साई तिलो. प० ४-११०८ इच्छागुणविएणेया जंबू० प० २-१८ इगिवीस चउवीसं पंचसं०५-१६ इच्छा-मिच्छा-कारो मूला. १२५ इगिवीसं चउवीस पचस०५-१०६ इच्छायारमहत्थं सुत्तपा० १४ इगिवीमं छब्बीसं पचस० ५-१६० इच्छारहियउ तव करहि जोगसा० १३ इगिवीसं छब्बीसं पचस०५-४६४ तिलो. १०७-३६३ इगिवीसं ण हि पढमे गो० क. ६७६ गो. जी. ४१६ इगिवीसं पणुवीस पचस० ५-६७ / इच्छियजलणिहिरुदं तिलो० ५० ५-२४६ इगिचीसं पणुवीसं पचस०५-१७६ | इच्छियदीवुवहीअो तिलो० ५० ५-२६७ इगिवीसादठ्ठदओ गो० क० ७७२ इच्छियदीवुवहीणं तिलो प० ५-२४५ इगिवीसादीएक्कत्ती- गो० क० ६६७ | इच्छियदीवुवहीणं तिलो० ५० ५-२४६ इगिवीसेक्कारसद जंबू० प० १२-१०१ | इच्छियदीवुवहीण तिलो० ५० ५-२४७ इगिवीसेण णिरुद्ध गो० क० ६७५ इच्छियदीवुवहीदो तिलो. प० ५-२४८ इगिवीसेयारसयं तिलो. सा० ३४५ इच्छियदीवे रुंद तिलो० ५० ५-२५२ इगिसगणवणवदुगणभ- तिलो० सा० २५ इच्छियपदरविहीणा तिलो. प० २-५६ इगिसयतिएिणसहस्सा तिलो. प. ४–१२३१ इच्छियपरिरयरासिं तिलो० प० ७-३७६ इगु (गि) ण उदिसदसहस्सा जवू० ५० ११-४५ इच्छियपरिरयरासिं तिलो०प०७-३६७ उचाइगुणा बहओ वसु० सा० ५०/ इच्छियपरिहिपमाण तिलो० प०७-२७० इचाइवहुविणोए वसु० सा० १०६ | इच्छियफलं ण लभइ रयणमा० ३४ इच्चेयाइ वि मवे धम्मर० १८५ | इच्छियवासं दुगुण तिलो० ५० ५-२६८ इच्चेवमदिक्कतो भ० श्रारा० १८७७ इज्जावहियं उत्तम अंगप०३-१८ इन्चेवमाइकवच भ० श्रारा० १६८० गो० क.८६१ इच्चेवमाइकाइयवसु० सा० ३३० । | इट्ठविओए अट्ट भावस० ३५६ इच्चेवमाइदुक्ख कत्ति० अणु०३७ इट्ठविओग दुक्खं कत्ति० अणु०५६ इच्चेवमाइबहुल वसु सा० ६६ / इट्ठसलायपमाणे - गो. क. १३७ इच्चेवमाइबहुलं वसु० सा० १८१ इ8 परिरयरासिं तिलो० ५० ७-३११ इच्चेवमाइया जे पचस० १-१६४ | इ8 परिरयरासिं तिलो० प० ७-३२७ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ पुरातन-जैनवाक्य-सूची इट्ठात्रो कमायो इट्ठाणिट्ठवियोगजोइट्ठाणि पियाणि तहा इडिंदयप्यमाणं इतु इच्छाकारो इहेसु अणिटेस य इट्ठोवहिविक्खंभे इडपिंगलाण पवर्ण इढिमतुलं विउब्धिय इढिमदुलं विउव्यिय इणमरणं जीवादो इणससितारासावदइतिरियं जावजीवं इतिरिया जावकालिय इत्तिरिणं सव्वयर्ण इत्तो उवरिं सग सग इत्थिकहा अत्थकहा इत्थिणउंसयवेदे इत्थिरणउंसयवेदे इत्थिणउसयवेयं इत्थिपुरिसेसु णेया इथिविसयाभिलासो इत्थिसंसग्गविजुदे इत्थीगिहत्थवग्गे इत्थीणं पुण दिक्खा इत्थीपुरिसणउसयइत्थीपुरिसणउसयइत्थी'वेददुर्ग इत्थीपंसादिगच्छंति इत्थी वि य जं लिंग इत्थीवेदे वि तहा इत्थी-संसग्ग-पणिदइत्थु ण लेवउ पंडियहिं इत्थेव तिगिण भावा इदि अट्ठारससेढी इदि अभंतरतडदो इदि उसहेण वि भणियं जवृ० ५० ११-२६३ । इदि जोयण एगारह गो० क० ७० | इदि णाणभूसपट्टे । जबू० प० ४-२५८ | इदि णामप्पयडीयो तिलो० प० २-५८ इदि णिच्छयववहारं मूला० १२६ इदि मिचंदमुणिणा भ. श्रारा० १६८८ । इाद त पमाणविसयं तिलो० प०५-२५८ । इदि पडिमहस्सवस्सं णाणसा० ५६ | इदि एचहि पंचहदा भावपा० १२८ | इादे पुव्वुत्ता धम्मा म० श्रारा० २०४६ । इदि वारहअंगाणं समय० २८ इदि मग्गणासु जोगी तिलो० सा० ७६६ । इदि मोहुदया मिस्से मूला० ३४७ | इदि वादय पचगुरू छेदस० ६२ | इदि सज्जणपुज्ज रयभ० श्रारा० १७७ आस० ति०१४ / इदि संढ संकामिय मूला० ८५५ | इवई परलोगे वा पचसं०४-८६ | इधई परलोगे वा सिद्धतस्म० ५६ | इय अवगुणो देवो पचसं० ४-४७२ इय अट्ठगुणो वेदो पंचसं० ४-१३ / इय अमेयअञ्चण . भ० श्रारा ७६ इय अण्णाणी पुरिसा मूला० १०३३ इय अण्णोषणा सत्ता भावसं० ८७ इय अप्पपरिस्सममगदसणसा० ३५ इय अवराइं बहुसो पचसं० १-१०४ | इय अव्वत्तं जइ सा मूला० १२२६ इय आय-पायअक्खरआस० ति० २६ | इय आलंवणमणुपेहा मुला० ३०६ इय इदणंदि जोइदम० श्रारा०८१ इय उजभावमुवगदो मावति०११ | इय उत्तरम्मि भरहे मूला० १०२८ परम. प०२-२१५ इय उवएसं सारं भावसं०६०० इय एक्केककलाओ तिलो० सा० ६८४ इय एदे पंचविधा तिलो० सा० ३५६ इय एयंतविणडिओ अगप० ४१ इय एयंतं कहियं कत्ति० अणु. ४०७ इय एरिसमाहारं भावति. ११६ गो० क० १५ इय एवं जो बुज्झइ तिलो० सा० ६१४ अंगप०२-११७ ___ कम्मप० १०२ बा० अणु०६१ तिलो० सा० १०१८ दव्यस० गय०२४८ तिलो० सा० ८५७ भ. श्रारा० १३५४ दवस० गय०७३ अंगप०१-७४ श्रास ति०६१ पचस०५-३०३ भावति०२ रयणसा० १६७ रिट्ठस०१४ लद्धिसा० ४४० भ० श्रारा० १२७२ भ० श्रारा० १८०४ धम्मर० १७८ म० श्रारा० ५०७ भाबम० ४७८ भावस० १६० तिलो० प०४-३५५ भ० श्रारा० ४५७ वसु० सा० ७७ भ० श्रारा० ५६१ श्राय० ति० २२-१ भ० श्रारा० १८७४ छेद० ३६२ भ० भारा० ५५३ तिलो. प० ४-१३५ भावस० १६० मोक्खपा० ४० तिलो०प०७-२१३ म. पारा० १३१५ भावसं० ७० भावस०७२ वसु० सा० ३१७ आरा० सा०८६ तञ्चसा० ३६ इदि गुणमग्गणठाणे इदि चदुबंधक्खवगे Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी ३७ - ज्ज इय एवं णाऊणं धारा० सा० ६० | इय पञ्चक्खो एसो इय एस लोगधम्मो भ० भारा० १८११ इय पच्छएणं पुच्छिय इय एसो पच्चक्खो मूला० ३८० इय पण्णविजमाणो इय एसो पच्चक्रवो भ० श्रारा० १२६ इय पर्यावभागयाए इय कम्मपयडिठाणा पंचसं०५-४६८ इय पव्वज्जाभंडिं इय कम्मपयडिपगदं पचस० ४-५१६ इय पहुदि णंदणवणे इय कम्मबंधणाणं समय० २६० इय पंचसट्टिदोसाइय कहियं पञ्चक्खं रिट्ठस० १३५ इय किपुरुसा इंदा तिलो० ५० ६-३७ इय पूर्ण कादणं इय खामिय वेरग्गं भ. श्रारा० ७१५ इय बहुफालं सग्गे इय घाइकम्ममुक्को भावपा० १५० इय बालपंडियं होदि इय चरणमधक्खादं भ० श्रारा० १६४४ इय भावणाइजुत्तो इय चिंतंतो पसरइ भावस०४१८ इय भावपाहुडमिणं इय जइ दोसे य गुणे भ० श्रारा० ४७२ इय मज्झिममाराधणइय जम्मणमरणाणं तिलो० प०८-५४६ इय मंतिअसव्यंग्गो इय जाण गेहभूमि श्राय० ति० १०-५ इय मंतेयामंतिय इय जाणिऊण जोई मोक्खपा० ३२ इय मिच्छत्तावासे इय जाणिऊण गुणं भावस०५८५ इय मुक्कस्सियमाराइय जाणिऊण भावह कत्ति० अणु०३ इय मूलतंतकत्ता इय जाणिऊण भूमी- श्राय० ति० १०-२५ | इयरं मंतविहीणं इय जाणियम्मि चंदे श्राय० ति०४-२७ | इयरे कम्मोरालियइय जाणियम्मि चोरे श्राय० ति० १८-१८ इयरो वितरदेवो इय जे दोसं लहुगं __भ० श्रारा० ५८१ इयरो संघाहिवई इय जे विराधयित्ता भ० श्रारा० १९६२ इय लिगपाहुडमिणं इय भायंतो खवओ भ० श्रारा० १६०३ इय वरणगा वि दुद्धं इय ठवियअंसचक्के आय. ति० ४-४ इय वासररत्तीओ इय गाउं गुणदोसं भावपा० १४५ इय विलवंतो हम्मद इय गाउँ परमप्पा भावसं० ८३ इय विवरीय उत्तं । इय णाऊण खमग्गुण- भावपा० १०७ | इय विवरीयं कहियं इय णाऊण वि कालं श्राय० ति० २४-६ इय समभावमुवगदो इय पाऊण विसेसं भावसं० ४८७ | इय सव्वसमिदकरणो इय पायं अवहारिय तिलो० ५० १-८४ | इय संखा णामाणिं इय णिव्ववो खवयस्स भ० श्रारा० ५०६ इय संखा पञ्चक्खं इय तिरियमणुयजम्मे भावपा० २७ इय संखेवं कहियं - इय दक्खिणम्मि भरहे विलो प० ४-१३३४ | इय संणिरुद्धमरणं इय दढगुणपरिणामो भ० श्रारा० ३१४ इय संसारं जाणिय इय दुट्ठयं मणं जो भ० श्रारा० १३६ इय सामएणं साहू इय दुलह मणुयत्तं कत्ति० अणु०३०० इय दुल्लहापवोहीए भ० श्रारा० १८७१ | इय सो खाइयसम्मत्तइय पञ्चक्खं पिच्छिय कत्तिः अणु० ४३५ | इरियागोयरसुमिणा वसु० सा० ३३१ भ० श्रारा०५८६ भ० श्रारा० १६७८ भ० श्रारा० ६१४ म० श्रारा० १२८८ तिलो० ५० ४-१९६७ छेदपिं० ३२८ म० श्रारा० १६२८ तिलो० प०८-५८६ भावसं० ४२० म० श्रारा० २०८७ श्रारा० सा० १०५ भावपा० १६३ म. श्रारा० १६३३ रिट्रस०७१ रिस० ४४ भावपा०१३ म० धारा० १६२६ तिलो०प०१-८० रिट्ठस० ११३ पंचसं० ४-५३ भावसं० १५७ भावसं० १५४ 'लिंगपा० २२ रिठस० १७० तिलो० प०७-२६१ भावसं०६१ भावसं० ५७ भावसं० ६२ भ० श्रारा० ८६ भ० श्रारा० १८४५ विलो० प०८-२६६ तिलो० ५० १-३८ भावसं० ४४७ भ० श्रारा० २०१५ कत्ति० अणु०७३ म. पारा०२१ भ० धारा० १८९० भ० श्रारा०२१५६ मूला००६२८ समा Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९ पुरातन-जैनवाक्य-सूची इरियादाणणिखेवे भ० श्रारा० ६६ इहलोइय-परलोडय- भ. धारा० ८५१ इरिया-भासा-एसणामूला० १० इहलोए परलोए। भ० श्रारा० २०५१ इरिया-भासा-एसप ' चारि० पा० ३६ इहलोए पुरा मंता भावस०४५७ इरियावहपडिवरणे मूला० ३०३ इहलोए व महल्लं तिलो० प०४-६३५ इरियावहमाउत्ता पंचस, ४-२२३ | इहलोगणिरावेक्खो पवयणसा०३-२६ इलणामा सुरदेवी तिलो० ५० ५-१५५ | इहलोगवंधवा ते भ० भारा० १७५१ इलयाइथावराणं भावसं० ३५२ | इहलोगिय-परलोगिय- भ० श्रारा० १८१४ इसरगव्वु मां उरि घटहि सुप्प० दो० ४७ इह वग्गमाउआए तिलो० सा० ६२ इसुगारगिरिंदाणं तिलो० प० ४-२५४१ इह विविहलक्खयाणं पवयणसा० २-५ इसुदलजुदविक्रखंभो तिलो. सा. ७६६ इह होइ भरहखेत्तो जंवू० ५०२-२ इसुपादगुणिदजीवा तिलो. प० ४-२३७२ | इहु तणु जीवड तुझ रिउ परम० प० २-१८२ इसुरहिदं विक्खंभं जंबू० प० २-२३ । इहु परियण ण हु महुतणउ जोगसा० ६७ इसुवगं चउगुणिदं तिलो. प०४-२५६६ इहु सिव-संगमु परिहरिवि परम० ५०२-१४२ इसुवग्गं चउगुणिदं तिलो. प०४-२०१५ | इगाल जाल अच्ची मूला० २११ इसुवगं चउगुणिदं तिलो० सा० ७६१ इंगाल जाल अची पंचस०१-७४ इसुवग्ग छहगुणिदं जबू० प०६-१० इगाल जाल मुम्मुर तिलो०प०२-३२७ इसुवग्गं विगिहि गुणं ___ जवू० प० ६-७ | इगालो धोव्वंतो म० श्रारा० १०४४ इसुहीणं विक्खंभं तिलो० सा० ७६० इगालो धोव्वतो भ० श्रारा० १८१७ इह इंदरायसिस्सो तिलो० सा० ८५८ | इंदट्टियं विमाण तिलो० सा०४८४ इह एव मिच्छदिट्ठी दन्वस० गय० १३२ / इंद-पडिंद-दिगिंदय- तिलो०प०१-४० इह केई आइरिया तिलो०प० ४-७१७ | इद-पडिंद-दिगिंदा तिलो. सा. २२३ इह खेत्ते जह मणुआ तिलो० प० २-३५० इंद-पडिंदप्पहुदी सिलो. प०३-११० इह खेत्ते वेरग्गं तिलो० ५० -६४५ | इंद-पडिंद-समाणिय- तिलो. प०६-४ इह जाहि बाहिया वि य गो० जी० १३३ तिलो० ५०-३०५ इह जाहि बाहिया विय पचसं०१-११ | इंद-पुरीदो वि पुणो जबू०प०११-३६८ इह णियसुवित्तबीयं रयणसा०१८ इंदप्पहाण-पासाद- तिलो. प०८-३६५ इह-पग्लोइयदुक्खा- म० श्रारा० १६४८ तिलो० प०८-५५३ इह-परलोके जदि दे भ० श्रारा० ११०७ इंदप्पासादाणं तिलो० ५०८-४१२ इह-परलोयणिरीहो कत्ति० अणु० ३६५ इंद-फणिंद-परिदय वि जोगसा०६८ इह-परलोयत्ताणं मूला० ५३ / इंदय-सहस्सयारा तिलो०प०८-१४४ इह-परलोयसुहाणं कत्ति० अणु० ४०० | इंदय-सेढीवद्धप्प- तिलो. सा० ४७७ इह भिएणसंधिगंठी तिलो. सा० ३६६ इंदय-सेढीबद्धं तिलो० १०२-३०२ इह य परत्त य लोए भ० आरा० १४१८ इंदय-सेढीबद्धा तिलो० सा० १६८ इह य परत्त य लोए भ० श्रारा० १४२६ | इंदय-सेढीबद्धा सिलो० प०२-३६ इह य परत्त य लोए भ० श्रारा० १४३० इंदय-सेढीबद्धा तिलो. १०२-७२ इह य परत्त य लोए म० श्रारा०१४३५ तिलो० प०८-११२ इह य परत्त य लोए भ० आरा. १४३८ जंबू० ५० ११-१३२ इह य परत्त य लोए भ० श्रारा० १४५८ इंदसदणमिदचलणं तिलो. प०७-६२० इह रयणसकराबा- तिलो. प०१-१५३ पंचथि०१ इहरी समूहसिद्धो सम्मइ० १-२७ । इंदसमा पडिइंदा तिलो० प. ३-६६ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी - इंदसमा हु पडिंदा इंदसमा हु पडिंदा इंदसयरामिदचलणं इंदसयणमियचलणं इंदस्स दु को विभवं इंदाणं अत्थाणं इदाणं चिण्हाणिं इदाणं परिवारा इंदादीपंचण्हं इंदा य सुपडिरूवा इंदा रायसरिच्छा इंदा सलोयपाला इंदिणसुक्कगुरिदरे इंदिय-अणि दियुत्थं इंदियकसायउवधीण इंदियकसायगुरुगत्तइंदियकसायगुरुगत्तइंदियकसायगुरुगत्तइंदियकसायगुरुगत्तइदियकसायचोराइंदिय-कसाय-जोगणिइंदियकसायणिग्गहइदियकसायदुईतइंदियकसायदुइंतइंदियकसायदोसा इंदियकसायदोसेइदियकसायदोसेइंदियकसायपणिधाइंदियकसायपणिहाइंदियकसायपएणगइंदियकसायबाधा इंदियकसायमइयो इदियकसायवसिगो इंदियफसायवसिगो इदियकसायवसिया इंदियकसायसण्णा इदियकसायसरणा इदियकसायहत्थी इंदियकसायहत्थी इंदियकसायहत्थी तिलो० सा० २२६ इंदियकायाऊणि य तिलो० सा० २७६ | इंदियकाये लीणा तिलो० ५० ६-७३ इदियगयं ण सुक्खं तिलो०प०६-१०३ इंदियगहोवसिट्ठो जबू० ५० ११-२६५ इदिय चउरो काया तिलो. १० ८-३८६ इंदिय चउरो काया तिलो० प०८-४४६ इंदिय चउरो काया तिलो० प०-४५१ इंदिय चउरो काया तिलो० ५०३-११३ इंदिय चउरो काया तिलो० सा० २७० इंदिय चउरो काया तिलो० प० ३-६५ इंदिय चउरो काया जबू० प०४-१२२ इंदिय चउरो काया तिलो० सा० ४४६ इंदियचोरपरद्धा अंगप० २-६३ इंदिय छक्क य काया भ० श्रारा० १६८ इंदिय छक य काया भ० श्रारा १२६५ क य काया भ० श्रारा० १३०० इंदिय छक्क य काया भ० श्रारा० १३०७ इंदिय छक्क य काया भ० श्रारा० १३१२ इंदिय छक्क य काया भ० श्रारा० १४०६ इंदियजं मदिणाणं भ० श्रारा० १७०५ इंदिय-णोइंदिय-जोभ० आरा० १३४५ इदिय तिरिण य काया भ० श्रारा० १३६५ | इंदिय तिरिण य काया भ० श्रारा० १३१६ | इंदिय तिरिण य काया मूला० ७४० इंदिय तिरिण य काया भ० श्रारा० १३१३ | इदिय तिरिण य काया भ० श्रारा० १३४४ | इंदिय तिरिण य काया भ० नारा० ११५ | इंदिय तिरिण य काया मूला० ३६६ | इंदिय तिरिण य काया भ० श्रारा० १३६७ | इंदिय तिरिण वि काया भ० श्रारा० १३४६ इदिय-दुदंतस्सा भ० श्रारा० १३३२ इंदिय दोरिण य काया भ० धारा० १३३६ इंदिय दोरिण य काया भ० श्रारा० १३४२ इंदिय दोगिणा य काया भ० थारा० १३१४ इंदिय दोगिण य काया पंचस्थि० १४१ य काया भ० भारा० १०६४ | इंदिय दोरिण य काया भ० श्रारा० ११०८ य काया भ० भारा० १४०६ इदिय दोगिण य काया भ० श्रारा० १५१० । इंदिय दोरिण य काया गो० जी० १३१ गो० जी०५ श्रारा० सा० १७ भ. श्रारा० १३३० पंचसं०४-१४५ पंचस०४-१४६ पंचसं०४-१६१ पंचसं०४-१६५ पंचसं० ४-१६६ पंचसं०४-१८३ पंचसं०४-१८७ पचसं०४-११० भ० श्रारा० १३०१ पंचसं०४-१५१ पत्रसं०४-१५३ पंचसं०४-१५५ पंचस० ४-१६० पचसं० ४-१७० पचसं० ४-१७२ कत्ति० अणु० २५८ गो० जी० ४४५ पंचसं०४-१४२ पचसं०४-१४६ पंचसं०४-१५० पचसं०४-१५६ पंचपं०४-१६६ पसं० ४-८० पंचसं०४-१८४ पचस०४-१८८ पंचस०४-१६२ भ० श्रारा० १८३७ पंचसं० ४-१४० पंचसं०४-१४३ पंचसं०४-१४७ पचसं०४-१५७ पचसं०४-१५६ पंघसं०४-१६३ पंचस. ४-१७८ पंचसं०४-१८१ पंचसं०४-१८१ ० ० ० ० Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची ई इंदियपसरु णिवारिय इंदिय पंच य काया इंदिय पंच य काया इंदिय पंच य काया इंदिय पंच य काया इंदिय पंच य काया इंदिय पंच वि काया इंदिय पंच वि काया इंदिय पंच वि फाया इंदिय पंच वि काया इंदिय पाणो य तधा इंदिय-बल-उस्सासा इंदिय-मणस्स पसमजइंदिय-मणोहिणा वा इंदिय-मणोहिया वा इंदियमयं सरीरं इंदियमय सरीरं इंदियमल्लाण जो इंदियमल्लेहि जिया इंदियमेओ काओ इंदियमेश्रो काओ इंदियमेओ काओ इंदियमेओ काओ इंदियमेश्रो काओ इंदियमेश्रो काओ इंदियमेश्रो काओ इंदियमेश्रो काओ इंदियवाहेहि हया इंदियविसय चएवि वढ इंदियविसयवियारा इंदिविसयवियारा इंदियविसयविरामे इंदियविसयसुहाइसु इंदियविसयादीदं इंदिय-समिदि-अदंतवइंदियसामग्गी वि अइंदियसुहसाउलश्रो इंदियसेणा पसरह इंदियसोक्खणिमित्तं इंदु-रवीदो रिक्खा पाहु० दो० १६६ | इंदो तह दायारो वसु० सा० ४०२ पंचसं० ४-१४८ इदो वि देवराया जंवृ०प०४-२४८ पंचसं० ४-१५२ | इंदो वि महासत्तो जंबू० ५० ४-१५१ पंचसं० ४-१५४ पंचसं० ४-१६८ पंचसं०४-१७१ पंचसं० ४-१६४ / ई-उ-घटन अलिकूला । प्रायः ति०१७-१५ पंचसं० ४-१६ | ई-ऐ-ौ उड्ढमुहा श्राय०नि०१-१५ पंचसं० ४-१८ ईसप्पभाराग म. थारा० २१३३ पंचसं० ४-१६१ ईसर-बंभा-विण्हू मूला० २६० पवयणसा०२-१४ । ईसाप-दिगिंदाणं तिलो० ५०-५३६ मूला० ११६२ ईसाणदिसाभाए तिलो० प०४-१७२८ दवस० णय० ३६७ ईसाणदिसाभाए तिलो० प०४-१७६३ गो० जी० ६७४ | ईसाणदिसाभागे ___ जंव० ५० ४-१४५ पंघसं० १-१८० तिलो० प०४-२७७८ श्रारा० सा० ३४ ईसाणम्मि विमाणा तिलो० प०८-३३५ भ० धारा० १३६३ तिलो० ५०-५६५ श्रारा० सा०२३ तिलो० सा० ५३१ श्रारा० सा०५६ जंय० प०११-३१८ पंचसं०४-१३६ तिलो० ५०८-५१५ पंचसं० ४-१४१ | ईसाणिंद-दिगिंदे तिलो० ५०-५१४ पघसं०४-१४४ | ईसाणिंदपुरादो जबू०प०११-३२३ पंचसं० ४-१५६ ईसाणिंदो वि तहा जंबू०प०४-२६७ पचसं०४-१६० | ईसाभावेण पुणो णियमसा० १८६ पचसं०४-१७७ | ईसालुयाए गोवव- भ० बारा० १५० पंचसं० ४-१७६ ईहणकरणेण जदा गो० जी० ३०८ पंचसं० ४-१८२ ईहापुव्वं वयणं णियमसा० १७४ श्रारा० सा० ५३ ईहारहिया किरिया भावसं०६७१ पाहु० दो० २०२ ईहियअत्थरस पुणो जं० ५० १३-५६ श्रारा० सा० ५५ भावसं० ६३० तच्यसा०६ रयणसा० १३८ उअसग्गभवे दिढे प्रायः ति० - णाणसा०४२ | उइओ भमिश्रो भामिय. रिट्ठस० २२६ छेदपि० १२८ । उकवेन्ज व सहसा वा भ० भारा० ४३३ भ० श्रारा० १७२१ । उक्कादि जे अंसे लद्धिसा. ४०० म० श्रारा० १८६ उक्कट्टदि पडिसमयं लद्धिसा० ६२६ आरा० सा० ५८ | उकट्टदि पडिसमयं लद्धिसा० ६३३ दवस० णय० ३३१ उक्कट्टेहि विहूणं जंबू० प० २-२७ विलो० सा० ४०४ / जक्कट्टिदइगभागं लद्धिसा० १०४ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी ४१ टक्कट्ठिदइगिभागं लद्धिसा० ६६ उकिट्ठो जो बोहो णियमसा० ११६ उक्कट्टिदइगिभागं लद्धिसा० २८१ | उकिरणे अवसाणे स्लन्द्विसा० ५६३ उक्कट्टिददव्वस्स य लद्धिसा० ४६० कीरिदं तु दन्वं लद्धिसा० ४३२ उक्कट्ठिदवहुभागे लद्धिसा० १४२ | उगवीसट्टारसगं कसायपा० ५० ज्क्कट्टिदम्मि देदि हु लद्धिसा० ७३ उगुतीसअट्ठवीसा पंचसं०५-२२२ उक्कद्विदं तु देदि अ- लद्धिसा० ४६० | उगुतीसट्ठावीसा पंचस०५-४०२ उक्कडजोगो सरणी गो० क० २१० | उगुतीस-तीसवंधे पंचसं० ५-२३१ उक्कइदि जे असे कसायपा० २२२ (१६६) उगुतीसबंधगेसु य पंचसं०५-२३३ उक्करिसधारणाए तिलो० ५० ४-६७६ / उगुदालतीससत्तय गो० क० ११८ उकस्सअसंखेज्जे तिलो० प० ४-३११. उगुवीस तियं तत्तो गो० क० ८३६ उक्कस्सएण छम्माम० श्रारा० २१०३ गो० क० ४६५ उक्कस्सएण भत्तपभ० श्रारा० २५२ उगुसट्टिमप्पमत्तो पंचसं० ५-४७६ उक्कस्सखोवसमे तिलो० प० ४-१०५७ उग्गतवचरणकरणे पंचगु० भ० ५ उक्कस्सखोवसमे तिलो० प० ४-१०६० उग्गतव-तविय-गचो भावस० ३७६ उक्कस्सखओवसमे तिलो. प० ४-१०६३ / उग्गतवा दित्ततवा तिलो० प० ४-१०४७ उकस्सजोगसपणी पचसं० ४-५०४ उग्गतवेणगणाणी मोक्खपा० ५३ उक्कस्सटिदिचरिमे गो० जी० २४६ उग्गमउपदणए मूला० ३१८ उक्कस्सटिदि बंघिय लद्धिसा० ५९ उग्गम उत्पादणए मूला०४२३ उक्कस्सटिदिबंधे लद्धिसा० ६६ / उग्गमउप्पादणए म० श्रारा० २३० उकस्सटिदिबंधे गो० क० १४० उग्गमउप्पादणए म० श्रारा०४१२ उक्कस्सदिदिबंधो लद्धिसा० ५८ उरगमउप्पादणए भ० श्रारा० ६३६ उकस्सपदेसत्तं पंचसं० ४-५०० उग्गमउप्पादणए म० श्रारा० ११६७ उक्कस्समणुक्कस्सं पचसं०४-४१७ उग्गमसूरप्पहुदी मूला १३० उक्करसमणुक्कस्सं पंचसं० ४-४४२ | उग्गसिहादेसियसग्ग- चसु० सा० ४३० उक्कस्समणुकस्सो पंचसं० ४-३१४ । उग्गहईहावाया श्रा० भ०१ उक्कस्ससंखमज्झे तिलो० प०४-३१० उग्गहईहावाया जंवू० ५० १३-५५ उकस्ससंखमेत्तं गो० जी० ३३० उग्गाढदूण विक्खं जंबू० ५० ६-६ उक्कस्सं अणुभागे कम्पायपा० १८२ (१३२) उग्गाढो वज्जमओ जबू० प० ४-२२ उकस्सं च जहरणं ____वसु० सा० ५२८ | उग्गाहणं तु अवरं तिलो. प०५-३१४ उक्कस्साउपमारणं तिलो० प०८-४६३ | उग्गाहिं तस्सुदधि भ० श्रारा० ११०६ उकस्साऊ पल्लं तिलो० ५० ६-८३ उग्गो तिव्वो दुट्ठो रयणसा० ४३ उक्कस्सा केवलियो म० श्रारा० ११ | उग्घडिय कवाडजुगल- तिलो० प०४-१३२१ उक्कस्सेणं छच्छम्माछेदपिं० २६६ / उग्घाडो संतरिदो छेदपिं० २०५ उक्कस्सेणाहारो मूला० ११४६ उग्घेण ण बूढाओ भ० श्रारा० ६R उक्कस्सेणुस्सासो मूला० ११४७ | उच्चत्तणम्मि पीदी म० श्रारा० १२३२ उक्कस्से रूवसदं तिलो० प० ६-६५ उच्चत्तणं व जो णीच- भ० श्रारा० १२३३ उक्किट्ठभोयभूमीवसु० सा० २५८ | उच्चस्सुच्चं देहं गो० क० ८४ उक्किट्ठसीहचरियं सुत्तपा० उच्चं णीचं णीचं पंचसं०५-२५८ उकिट्ठा पायाला तिलो. प० ४-२४०८ | उच्चाणिचागोदं मूला० १२३४ उक्किट्टिइ विहि तिहिं भवहिं सावय० दो० ७४ | उच्चारं पस्सवणं वसु० सा० ७२ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ उच्चारं परसवर्ण उच्चारं परसवर्ण उच्चारं परसवणं उच्चारं परसवणं उच्चारं परसवणं उच्चारिकरण गा उच्चारिऊण ते मावस ० ४४१ उच्चातियम्हि पाए पaयणसा० ३ -१७ ते ० १ (ज) उच्चासु व गीचासु क उच्चमुचणीचं उच्चुच्चमुच्चणीचं उच्चुव्वेल्लिदतेऊ उच्चुव्वेल्लिदते ऊ घीरो वीरो उच्छत्तेण सहस्सा उच्छंगदंतमुसला उच्छंग दंतमुसला उच्छंगमुसलता उच्छाहरिणच्छिदमदी उच्छाहभावरणासंउच्छ सो धम्मो उच्छे अद्धवासा उच्छे अंगुले य उच्छे आउ-पहुदी उच्छेद- श्राउ- विरिया उच्छेहजोयणेणं उच्छेहजोयणेणं उच्छेदजोय रोग उच्छेदसमभागे पुरातन जैनवाक्य सूची मूला० २५३ | उच्छेहा ऊपहुदिसु मूला० ३२२ उच्छे य या मला० ४४८ | उच्छेहो दंडारिंग मूला० ११२ उच्छेहो वे कोसा छेदपिं० २०६ उच्छे पहुदिखी उच्छेद्दपहुदिखीणे उच्छे पहुदीसुं उच्छे पहुदी हि उन्ह-वास पहुदी उच्च्ह-वाम-पहुदी उच्छेद- वास-पहुदी उच्छे पंचगुणं उच्छे विगुणित्ता उच्छेहा आयामा उच्छेहा आयामा वसु० सा० ३८२ | उज्जदसत्था सन्वे उज्जलिदो पज्जलिदो उज्जवर विहिं ण तरइ उज्जाण-जगइ-तोरण भ० श्रारा० १२२६ | उज्जाणणालियागं उज्जारण-भवरण- कारणण पचसं० १-१४ पंचसं० ५-२६३ | उज्जाणम्मि रमंता गो० क० ६३६ | उज्जाणेहि जुत्ता गो० क० ६३७ उज्जिते गिरिसिहरे तिलो० प० ४ - ६३० उज्जु तिहिं सतहिं वा जंबू० प० ६-१६ | उज्जुयभावम्मि सत्तजंबू० प० ४ - २०३ | उज्जोउतसचउक्कं जबू० प० १२-८ | उज्जोए पडिलिहियं जंबू० प० ११ - २६० उन्जोयमप्पसत्थं मूला० ००० उज्जोयमप्पसत्था चारि ० पा० १३ उज्जोय र हियवियले तिलो० प० ४ - १२७६ | उज्जोव - उदयरहिए तिलो० प० ४- २०७४ | उज्जोवरणमुज्जवणं जंबू० प० १३-२८ | उज्जोवतसचउक्कं तिलो० प० ४-४० | उज्जोवर हियसयले तिलो० प० ४ - १५४० तिलो० प० २-३१५ | तिलो० प० १ - २१५२ | उज्जोवसहियसयले उज्जोवो खलु दुविहो उज्जोवो तमतमगे उमति जत्थ हत्थी उट्ठाविऊण देहं उट्टाविय तेल्लोक्कं तिलो० प० ५-१८१ तिलो० प० ८- ४१६ तिलो० प० ४-३६४ तिलो० प० ४-४०२ | दिदि भोजस् तिलो० प० ४-१७०७ विलो० प० ५- १५१ उट्टियवेगेण पुणो तिलो० प० ४-४८ | उदुइंद्रय पुत्रवादीतिलो० प० १-१८२६ | उदुजोग्गकुसुमदम्मप्पविलो० प० ४-२१०८ उडुजोग्गदव्यभायणजेवू० प० ३ ०१ उडुजोग्गदभायणजंबू० प० ५-१० | उडुरणामे पत्तेक्कं जंबू० प० ४-६३ | उडणामे सेटिगया जंबू० ए० -१२३ उडुपहलुम्फस्साउ उ तिलो० प०४-१५८० जंबू० प० ४-६३ तिलो० प० ४-२२५४ तिलो० प०४-१८११ जैवृ० प० ११-२८० तिलो० सा० १५७ वसु० सा० ३५६ जंबू० प० १-५४ जंवृ० प० १३-२६ जंबृ० प० ७-१०२ वसु० सा० १२६ विलो० प० ४-१६५ सुखं०८१ मूला० ४३६ भ० आरा० ६७३ पंचसं० ५-५६ छेदपिं० १६६ पंचसं० ४-३०६ पचसं० ३-१८ पंचस० ५-१२० पंचसं० ५-१२१ भ० श्रारा० २ पचस० ४-२६६ पचसं० ५-१३४ पंचसं० ५-१४५ मूला० ५५२ गो० क० १६६ भ० श्रारा० १६१८ भावसं० ४३४ तिलो० प० ४- १०६४ मूला० ६७३ छेदपिं० १५२ तिलो० सा० १८६ तिनो० प०८-६० तिली० सा० ८२२ तिलो० प० ४-७३८ तिलो० प० ४-१३८४ तिलो० प०८-८३ विलो० प० ८-८४ तिलो० प० ८-४६३ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'उ उडुपह- उडुमज्झिम- उडुउडुपहुदिदया उडुपहु दिएक्कतीसं उडुविमलचंदामा उडुविमलचंदवग्गूउडुसेढीबद्धदलं उडुसेढीबद्धद्धं डहरणादिचवला उड्डाहरा थेरा उडूढ-अध- मज्म-लोए उढगया प्रवासा उड्ढजुगे खलु वढी उड्ढ - तिरिच्छ-पदारणं उधो तिरियम्हि दु उढहतिरियलो उडूढ अहतिरियलोए उढम्मि उरलोए कहाणी गंतू पुरो उडूढं वह दिग्गी उढाउ दक्खिणाघो उड्दुडूढं रज्जुघणं उ ( g ) डूढे उढोधमो अंकवडूटिय उइगिवीस वीसं उउदी तिरिया उरणताललक्खजोयरणउती जो सदा उ (ऊ) णत्तीससयाइ ' उतीससहस्साधियउती तिरिणसया उगती लक्खाणं उदा पणत्तरि उरणदालं लक्खाण उरणवरणजुदेक्कसयं उणवणदिवस विरहिदउगवणभजिदसेढी उगवणसहस्सा अडउरणवरणसहस्सा एव उगवणसहस्सा रिंग प्राकृत पद्यानुक्रमणी उगवणा दुसयारिंग उवा पंचसया उवसगुणं किवा उणवीसजोयणेसुं उणवीसमो सयंभू उणवीससा वस्सा उरणचीससहस्सा इ तिलो० ५०८-१०१ भ० श्रारा० १४०३ | उणवीससहस्सारिप भ० श्रारा० ३८६ } उरणवीस सहस्सारिंग मोक्खपा० ८१ उणवीसा एयसगं तिलो० सा० २६५ | उरणचीसेहि य जुत्ता तिलो० प० १ - २८७ उरणसट्टिजुदेक्क्सयं गो० क० ८६३ | उरणसट्ठिजोयरणसदा मूला० ७५ | उपसट्ठिसया इगतीससिद्धभ० ३ उरासीदिसहस्सा‍ि मूला ४०२ | उणसीदिसहस्सागि चसु० सा० ४६१ | उण्णयपीरणपत्रहरतिलो० प० ४ - १७८६ उहं लंडदि भूमी जंबू० प० ५-४८ उन्हं वादं उन्हें णाणसा० ५४ | उत्तपइण्णयमज्झे तिलो० प० ७-४६२ || उत्तम गम्हि हवे विलो० प० १-२६१ |उत्तम श्रादा भ० श्रारा० ३६३ | उत्तमकुले महंतो तिलो० प० ६-३७ उत्तमख ममद्दवज्जवभावति० ४३ | उत्तमख मा (म) ए पुढवी चिलो० प० २-५६ | उत्तमगुणगहणरओ तिलो० प०८-२८ तिलो० प०८-८० तिलो० प०८-५०६ तिलो० प०८ - १३७ विलो० प० ८-१२ तिलो० सा० ४६४ तिलो० सा० ४७४ उत्तमगुणारण धम्मं उत्तमखित्ते बीयं जंबू ० प० ७-१५ गो० क० ८६ | उत्तम ठाणगदाण तिलो० प० ४-५७१ | उत्तमरणारण पहाणो तिलो० प० ८- २०२ | उत्तमदुमं हि पिच्छइ तिलो० प० २-८८ तिलो० प० १ - १६८ तिलो० प० २ - ११४ उत्तमदेवमणुस्से उत्तमधम्मेण जुदो उत्तमपत्तविसेसे तिलो० प० ०-१५३ उत्तमपत्तं गिदिय तिलो० प० ४- १५४२ उत्तमपत्तं भणियं तिलो० प०९ - १७८ | उत्तमपत्तु मुगिंदु जगि तिलो० प० ८ - १७४ | उत्तमपुरिस हॅ कोडिसय तिलो० प० ७-५५७ उत्तमभोगखिदीए तिलो० प० ४-१२२३ उत्तम - मज्म- जहां ४३ तिलो० प०२-१८२ तिलो० प० ७-१६७ जंबू० प० २-१६ सिलो० प० १-११८ तिलो० ५० ४-१५७६ तिलो० प० ४-१४०४ तिलो० १० प० ४-२५७२ तिलो० प० ८-६२८ तिलो० ए०४-२८२३ जबू० प०३-१३० पंचसं० १-४२ तिलो० प० ७-२६२ , मूला० १६०४ तिलो० प०८-१७५ तिलो० प० ४-७२ तिलो० प०४-१२२० जंबू० प० ३-११० तिलो० सा० ८६६ भ० सारा० १५४८ तिलो० प०२-१०२ गो० जी० २३६ पियमसा० ६२ भावस० ४२१ बा० थ५० ७० श्रा० भ० ५ कत्ति० श्र० ३१५ कत्ति० अणु० २०४ भावसं० २०१ अंगपं० ३-३१ कत्ति० अ० ३६५ रिट्स० ४६ श्रारा० सा० ११० कत्ति० अणु० ४३० कत्ति० अ० ३६६ भावस० ५५४ बा० श्रणु० १७ सावय० दो० ७६ सुप्प० दो० ७३ तिलो० प० १-१ चसु० सा० २८० Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 उत्तममज्झिम उत्तमरणं खु जहा उत्तमु सुक्खु उत्तमु सुक्खु उत्तरकुरुगंधादी उत्तरकुरुदे वकुरूउत्तरकुरुमरणुयाणं उत्तरकुरुमणुयाणं उत्तरकुरुम्म मझे उत्तरकुरू पढमो देइ जइ देइ जइ उत्तरदिस उत्तरदिस रिट्ठा उत्तरदिए रिट्ठा उत्तरदिसाविभागं उत्तर दिसाविभागे उत्तरदिसाविभागे उत्तरदिसाविभागे पुरातन- जैनवाक्य-सूची बोधपा० ४८ | उत्तरबहुले परहे उत्तरभंगा दुविहा उत्तरमग्गे पढमो उत्तरदिसि को दुगे उत्तरदिसे रोया उत्तर-देवकुरुसंउत्तरधमवि एवं उत्तरधमिच्छंतो उत्तर- पच्चिमभागे उत्तरपडी तहा उत्तरपयडी पुमो उत्तरपुत्रं दुरिम भावस० ५०४ परम० प० २-५ उत्तरकुलगिरिसाहे उत्तरगा यदुआदी उत्तरगुण्उज्जमणे उत्तरगुण उज्जोगो उत्तर-दक्खिगा-उड्ढाउत्तर-दक्खि-दीहा उत्तर-दक्खि-दीहा उत्तर दक्खिण- पासो उत्तर-दक्खिण-भरहो उत्तर-दक्खिण-भाए उत्तर-दक्खिण-भाए तिलो० प० ४ - १८५६ उत्तर-दक्खिण-भाए उत्तर-दक्खिण-भागाउत्तरदहवासिणिश्र परम० प० २-७ उत्तर महप्पहक्खा तिल्लो० सा० ७४१ | उत्तरमुहे गंतु जंबू ० ० ६-१६६ | उत्तर-मूल-गुणाणं नंबू० प० ४- १३५ | उत्तरलोयडूढवादी तिलो० प०८-६ | उत्तरसरसंजुत्ता जंबू० पं० ६-५७ | उत्तरसरसंजुत्ता जबू० पं० २ - ११५ उत्तरसरसंजोए तिलो० सा० ६४६ उत्तरसरा क- गाई तिलो० सा० ११३ | उत्तरसेढीए पुण भ० श्रारा० ११६ | उत्तरसेढीए पु मूला० ३०० | उत्तरसेढीबद्धा तिलो० सा० ३४४ | उत्तराणि श्रहिज्जति तिलो० प० ४-२०६८ उत्तरिय वाहिणीओ तिलो० प० ८-६०४ | उत्ताराष्ट्रियगोलक - जंबू० प० ४-५ | उत्तारणट्टियमंते तिलो० प० ४ - २६७ उत्तारणधवलद्दत्तो तिलो० प० ८-६५३ | उत्तारणावट्टिदगो उत्तगदंतमुसला तिलो० प० ४-२०१२ |उत्तुंगभवरणविद्दा उत्तेव सव्वधारा तिलो० प० ४-२८१६ जंबू० प० ३-७८ उत्थरइ जा ण जरओ तिलो० प० ४ -२७७६ | उदइलाणं उदये उ तगुणो तिलो० १० ८- ६१८ उदए गंधउडीए त्रिलो० प०८-६३७ उदएण एक्ककोसं जंबू० प० ६-११७ उदर पवेज्ज हि [खु] सिला तिलो० प० ४-१६६२ उद संजमस्स दु तिलो० प० ४-१७६५ | उदओ च जबू० प० ६-६७ | उदो तीसं सत्तं तिलो० सा० २७५ | उदय सव्वं चउपरणजंबू० प० १०-३३ | उदय हवेदि पुन्त्रातिलो० प० ४ - २६८ | उदकारणामेण गिरी जंबू० प० १२- ७८ उद्गो उदगावासो जंबू० प० १२-४७ उदधित्थरिणदकुमारा जंबू० प० ६-७१ उदधिपुधत्तं तु तसे पंच० ४-२३२ |उदधिसहस्सपुधत्तं गो० क० १६६ | उदधिसहस्सपुध तं चिलो० प० ४-२३०१ | उदधिसहस्सस्स तहा श्राय० ति० ३०-४ गो० क० ८२३ छेदपिं० २३१ तिलो० प० ५-४४ जंबू० प०८-१२१ छेदस० १३ जंबू० प० ११-३२८ श्राय० ति० १६-१० श्रा० ति० २०-६ श्राय० ति० २०-७ श्राय० ति० १०-२२ जवू० प०८-१८६ जंबू० प० ११-३०६ तिलो० सा० ४७६ अंगप० ३-२५ तिलो० प० ४-४८७ तिलो० सा० ३३६ तिलो० सा० ५५८ तिलो० प० ८-६५६ तिलो प० ७-३७ जंबू० प० ३-१०१ जंबू००८-१२६ तिलो० सा० ५४ भावपा० १३० लद्धिसा० २६ तिनो० प०४ तिलो० प० ४- १५६७ भ० श्रारा० ६७२ समय० १३३ कसायपा० १४५ (६२) गो० क० ७०२ गो० क० ७२६ तिलो० प० १-१८० तिलो० प० ४-२४६२ तिलो० प० ४- २४६५ तिलो० प०३-१२० गो० क० ६१५ लखिसा० ४११ लद्धिसा० ४१८ पंचसं० ४-४१२ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ उदधिस्स दुदिधरणं उदीरणभरिदो उदधी होति तेत्तिय उद्यगद्सगंहस्स य उदयगढ़ा कम्मंसा • प्राकृतपद्यानुक्रमणी ' जंबू० प० १२- ४६ | उद्यादिश्रवट्टिदगा सीलपा० २८ | उदयादिगलिद सेसा जबू० प० ११-१८४ उदयादिया ठिदीओ उदयद्वाणकसाए द्विसा० ५२४ | उदद्यादिसुट्ठिदीसु य पवयणसा॰ १–४३, उदयादिसु पंचरह पसं० २- १६८ | उदयादो सत्तरसं गो० क० ४८२ | उदयाभाश्रो (वो) जत्थ य उदया मदि व खइये उदयद्वाणं दो रह उदहारणं पयडिं उदयट्ठाणे सखा उदयत्थकँपसंकंतिउदयत्थमणे काले उदयदलं श्रयामं मूला० ३५ तिलो० सा० ११३ उदयपयडिसं खेज्जा गो० क० ४६० पचसं० ५-३१३ | उदयावरणसरीरोश्रा० ति० १७-२१ उदयावलिस्स दव्वं | उदयावलिम्स बाहि उदया हुोकसाया पंचसं० २-३२० उदयिल्लागंतरजं द्धिसा० १४६ उदये चउदस घादी तिलो० सा० १३० उदयेण उवसमेण य भ० रा० ११०८ | उदयेणक्खे चडिदे तिलो० सा० ७८४ | उदये दु अपुरणस्स य समय ० १६८ उदये दु वरण फेदिकम्मतिलो० प० ८-४५६ उदये संकममुदये पंचसं० ३–४६ | उदये संकममुदये पंसं० ५-४६६ उदर क्किमिणिग्गमणं गो० क० २७८ | उदरग्गिसमरणमक्खमउदय आणिवि कम्मु मइँ परम० प० २ - १८३ | उदरिय तदो बिदीया उदयबह उक्कट्टिय उदयभूमिवेहो उदयम्मि जायवड्ढिय उदयवी पुरिद Saritaart उदयरस पंचसा उदयस्सुदीरणस्स य उदयसुदीरणस्य य उदयरसुंदीरंगांस्स य पचथ० ८५ तिलो० प०८-२४८ जंबू० प० ४- १८२ जह मच्छा उदयंत- दुमणि-मंडलउदयंत भारण-संरिभउदयं पडि सत्तरहं उदयं भूमुहवासं उदयं भूमुहवासं उदयं भूमुहवासं उदयं भूमुह वेहो उदयं सट्टणाणि य उदया 'इगिपरवी उदया इगिपरणसगाडउदया इगिरवीसा उदीरेई सामगोदे उस मसंयमक्खियउद्दिट्ठपिंडविरो गो० क० १५६ उद्दिट्ठ जदि विचरदि तिलो० प० ४ - १६३१ उद्दिद्वं पंचूां तिलो० प० ४ - १६६४ उद्दिसइ जो य रोयं तिलो० सा० ६३७ | उद्दे समेत्तमेयं तिलो० सा० १३४ | उद्देस -संमुद्दे से गो० क० ७४१ ० १ | उद्देसिय कीदयडं गो० क० ७३३ | उद्देसे खिसे गो० क० ७१३ | उद्वारेयं रोम पंचसं० ५-४५७ | उद्धारेयं रोमं उदया इगिवीसचऊ उदया उगती सर्तिय उदया चवीसूरणा उदयामावलिम्हि य उदया उदयादो ४५ कसायपा० १७६ (१२६) कसायपा० १८० (१२७) दव्वस० य० ३६१ पंचसं० ५-३१६ भावस० २६८ गो० क० ७३४ गो० जी० ६६३ लद्धिसा० ७१ लद्धिसा० २२२ गो० के० ७३५ | उद्धुदमणस्स गरदी गो० क० ७२४ उद्धयमरणस्स सुह गो० क० ६६६ । उपलाहिं जोइय करहुलउ लद्धिसा० ६८ | उप्पज्जइ जेण विबोहु लद्धिसा० ३०६ | उपज्जदि जदि गाणं लद्धिसा० ३०२ लद्धिसा० १४३ पचसं० १-१०३ लद्धिसा • २४४ लद्विसा० २८ पंचरथ० १६ गो० क० ८३४ गो० जी० १२१ गो० जी० १८४ गो० क० ४४० गो० क० ४५० मूला० ४६६ रयणसा० ११६ लद्धिसा० ६७ पंचसं० ४-२२१ पचरिथ० ११६ वसु० सा० ३१३ मूला० ४१५ तिलो० प० २-६० आय० ति० ८-१८ वसुं० सा० ३१३ मूला० २८० मूलां० ८१२ मूला० ६६१ तिलो० सा० १०१ जंबू ० प० १३ - ४० भ० धारा० १६५६ भ० श्र० १२६७ पाहु० दो० ४२ पाहु० दो० ८२ पवयणसा० १-५० Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ पुरातन-जैनवाश्य-सूची उपज्जदि जो रामी शिलो. मा० ७३ | पाटो य विग्णासो दम्पप० णय० ४०१ उपपज्जदि सएगाणं था० अगु० ८३ | उपायपुचगारिणय गो०जी०३४४ उपपज्जमारणकालं सम्मा० ३-३० उपायपुवमग्गा मुदर्म ५ उज्जति चवंतिय ज० ५० १-२५८ मामगादिगमण मूला. १७३ उत्पति तहि बह- सिलो० मा १८ मासेज व गुणमे- म. पारा० ११३ उपजंति मणुम्सा भावसं०५३५ उम्भिरणकमलपाटल- जय० ५० ४-२३५ उप्पज्जति महत्पा जपू० ५० १०-८५ उभियदलक्कमुरबद्ध सिलो. मा०६ उपपज्जति वियति य सम्मा० 1-17 उत्भियदिवटमुरवद्ध- शिलो० ५० १-१४४३ उपज्जते भवणे सिली. प० ३-२०८ उभयतवेदिहिना तिलो० ५० १-२६० उज्जतो फर्ज दम्पम० गय०३६३ / उभयतटेसु गादीणं जंय० १०३-18 उप्पडदि पद धावदि लिंगपा० १५ उभयधण मंमिलिदे गो० क. १०२ जापगणपढमसमयम्हि- पमु० मा० १६३ उभयविणटे भावे तसमा०५८ उपएणम्मि य वाही मूला० १३१ उभयंतग-यणवेदिय- तिलो सा० ६६५ उपपएणसमयपहुटी धम्मर० ७२ उभयेसि परिमाणं तिलो. ५०1-1८६ उत्पएणमुरविमाणे तिलो० ५०८-५६६ उम्मग्गचारि म-गिटा- शिलो. सा० ४५० उप्पएणं पि फरमाए दपि १०० उम्मग्ग-गिमग-जला जप०७-१२० जापरण पि कसाय दपि २१४ उमग्ग-णिमग्ग-गदी तिलो. सा. ५६३ उपएणाण सिसूरणं थाय० ति० १२-१ उम्मग्गदेसो मग्ग मूला ६० उपरणो उप्पएणा मूला० ६२२ उम्मग्गदेमामो सम- पचन. ४-२०५ उप्पएणो फरणयमए भावम० ४१२ गो० क००५ उपएणोदयभोगो समय० २१५ उम्मग्गदेसगोमग्ग कम्मप०१७ उपपत्तिमंडिदाई तिलो० ५० ४-२३१६ उम्गग्गदेसणो मग- भ.पारा०11 उत्पत्ती तिरियाणं तिलो० ५० ५-२६२ उम्मग्गसंठियारणं तिलो. प०६-१ उत्पत्ती मणुयाणं तिलो० ५० ४-२६४५ उम्मग्गं गच्छंतं समय० २३४ उत्पत्ती व विणासो पंचस्थि० ११ उम्मग्गं परिचत्ता शियमसा०५६ उप्पलकुमुदालरिणमा जबू०प० ४-१०८ उम्मणि थक्का जासु मणु पाहु० दो० १०४ जप्पलगुम्मा गलिणा तिलो० प० ४-१६४४ उम्मत्तो होड गरो म० श्रारा० ११५० उप्पहउवएसयरा तिलो० ५० ३-२०५ / उम्मृलिवि ते मूलगुण पाहु० दो० २१ उप्पाओ दुवियप्पो, सम्मइ० ३-३२ उयसयपडिदावरणं भ० भारा० १६७८ उपाडित्ता धीरा भ० श्रारा० ४७१ | उरपरिसप्पाढीण वेदपि०३२० उप्पादहिदिभंगा पवयणसा० २-१ उलुखलित्तिछहणं घरसा-? छेदपि० ८८ उप्पादहिदिभगा पवयणसा० २-३७ उल्लसिदविभमानो तिलो० ५० ५-२२५ उत्पाद-वय-विमिस्सा णयच० २२ । उल्लाव-समुल्लावहि म. पारा० १०८ उप्पाद-वय-विमिस्सा दव्यस० गाय० १६४ भ० भारा०.२५६ उप्पादवयं गउणं दव्वस० णय. १६१ उवएसो पुरण आयरि- भ० श्रारा० २०६० उप्पादवयं गोणं णयच० १६ उवोए उवओगो समय० १८१ उप्पादा अइघोरा तिलो० प० ४-४३२ उद्योगमओ जीवो दन्वस० सय०११८ उप्पादेदि करेदि य समय०१०७ उवोगमत्रो जीवो पवयणसा०२-८३ उप्पादो पद्धंसो पक्यणसा०२-५० उवोगविसुद्धो जो पवयणसा० -१५ उप्पादो य विरणासो पवयणसा० १-१८ | उवोगस्स अणाई समय०८ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी - उवोगा जोगविही पंचसं० ४–४/ उबरिमगुणहाणीयं गो० क० ६४४ उवओगा जोगविही पंचस० ४-५४A उपरिमगेवज्जेसु य मूला० १०६८ उपोगो खलु दुविहो पचस्थि. ४० उवरिमजलस्स जोयण- विलो० प० ४-२४०३ उवोगो जदि हि सुहो पवयणसा० २-६४ उवरिमतलविक्खंभो विलो. प०६-११ उवोगो दुवियप्पो - दबसं०४ उपरिमतविक्खभो विलो. प० ७-६५ उवकुदि जो वि णिच्चं पवयणसा० ३-४६ उवरिमतलविक्खभो तिलो. प० ७-१८ उवगहिदं उवकरणं भ० श्रारा० १६६३ उवरिमतलविक्खंभो विलो०प०७-१०० उवगृहणगुणजुत्तो वसु० सा० ५५ उवरिमतलवित्थारो तिलो० ५०७-१०६ उवगृहणगुणजुत्तो भावस० २८३ । उवरिमतलस्स चेदि तिलो० ५० ४-२१४६ उवगृहण-ठिदिकरण भ० श्रारा० ४५ तिलो०प० ७-८५ उवगृहणादिया पुव्वुत्ता __ मूला० ३६५ उवरिम दुय चउवीस य पचप्स. ५-२२१ उवगृहणादिया पुव्वुत्ता भ० थारा० ११४ उवरिमपच्छिमपडला तिलो• सा० १७३ उवघादमसग्गमण गो० क० ४४ / उवरिमपंचट्ठाणे पंचसं० ५-४०८ उवघादमसग्गमणं कम्मप० ११५ उवरिमभागा उज्जल- तिलो० प०४-७७८ उवघादहीणतीसे गो० क. १६७ उवरिमलोयायारो तिलो प० १-१३८ उवधायं कुन्वतस्स समय० २३६ उबरिम्मि इंदपाणिं तिलो. प०८-२०८ उवघायं कुव्वंतस्स समय० २४४ उवरिम्मि कंचणमो तिलो० प० ४-१८०६ उवजोगवग्गणाओ कसायपा० ६५ (१२) । उवरिम्मि णिसहगिरिणो तिलो० ५० ७-४३४ उवजोगवग्गणाहि य कसायपा० ६६ (१६)। उवरिम्मि णीलगिरिणो तिलो० ५० ४-२११४ उवजोगो वएणचऊ गो० जी० ५६४ / उवरिम्मि णीलगिरिणो तिलो० ५०४-२३३० उवदेसेण परोक्खं समय० १८६ क्षे० ११ (ज) उपरिम्मि णीलगिरिणो तिलो० ५० ७-४४६ उबदेसेण सुराणं तिलो० ५० ४-१३३७ | उवरिम्भि ताण कमसो तिलो० प० ४-२४६७ उवधिभरविप्पमुक्का मूला० ७६६ उवरिम्मि देवि वत्थ रिट्ठस. १४५ उवभोगमिदिएहिं समय० १६३ उवरिम्मि माणुसुत्तर- तिलो० प० ४-२७६२ उवभोज्जमिदिएहिं पचत्थि० ८२ | उवरिल्लपंचया पुण। पचसं०४-७६ उवमातीत ताणं तिलो. ५० ४-७०६ उवरिल्लपंचये पुण गो० क. ७८८ उवयरणठवण लोहे छेदस० २८ | उवरि वि माणुस्सुत्तर- तिलो० प० ४-२७५३ उवयरणदंसणेण य गो० जी० १३७ | उवरि समं उक्कीरइ लद्धिसा० २४१ उवयरणदसणेण य पचस०१-५५ | उवरि उदयहाणा लद्धिसा० ५१४ उवयरण जिसमग्गे पवयणसा०३-२५ तिलो०प०६-८२ उवयरण तं गहियं भावसं० १२८ जंबू०प०११-३५४ उवयारा उवयारं णयच०७१ उवरिं उसुगाराणं तिलो० ५० ४-२५३६ उवयारा वयारं दवस० णय० २४१ तिलो०प०५-१२० उवयारिओ वि विणो वसु० सा० ३२५ | उवरिंदो वजित्ता पचस० ५-४५० उवयारेण वि जाणइ दव्वस० णय०२६० उवरीदो णीसरिदो जबू० प०४-६ उवरदपावो पुरिसो पवयणसा० ३-५६ उवलद्धपुरणपावा - मूला० ८३५ उवरदबंधे चदु पंचगो० क० ६३२ | उववज्जइ दिवलोए भावसं० ४८३ उवरदबंधेसुदया गो० क० ७४५ / उववजिदूण जुवला जंवू० प० २-१५१ उवरयबंधे इगिती पचस०५-२४६ उववणकाणणसहिया जंवू० प० २-४१ उवरिमखिदिजेहाऊ तिलो०प०२-२०८ | उवव तिलो० प०४-८४१ !!!!!!!! जाऊ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची 4. उ उववण-पोक्खरणीहिं तिलो० ५००-५४ / उवसप्पिणि अवसप्पिणि भ० भारा० १७७८ (५०) तिलो० प०४-१२७ | उवसमड किण्हसप्पो भ० श्रारा०७६२ उववण-वावि-जलेणं तिलो० प० ४-८०६ उवसमई सम्मत्तं रयणसा० १५५ उववणवेदीजुत्ता तिलो० प० ४-१६६१ उवसम खईओ मिस्सो गो० क० ८१३ उववरणसंडा सव्वे तिलो० प०४-१७५५ | उवसमखमदमजुत्ता बोधपा० ५२ उववरणसंडेहिं जुदा तिलो० ५०४-२०८१ उवसम-खय-भावजुदो रयणसा०७१ उववादगम्भजेसु य गो० जी० ६२ उबसम-खय-मिस्सं वा मूला० ७६० उववादघराणेया जंबू० प० ३-१४१ उवसम-खय-मिस्साणं दव्वस० गय० २६१ उववादजोगठाणा गो० क०,२१६ उवसम-खाइय-सम्म भावति०६६ उववादमंदिराई तिलो. ५००-१२ : उवसमचरियाहिमुहो लद्धिसा० २०३ उववादमारणतिय- __ गो० जी० १६८ उवसमणिरीहझारणज्म- रयणसा० १२४ उववादमारणंतिय- तिलो. प० २-८ उवसमणे अक्खाणं कत्ति० अणु० १३७ उववादसभा विविहा तिलो० प० -४५२ उत्रसमदयादमाउह भ० पारा १८३६ उववादा सुरणिरया गो० जी०६० उबसम दया य खंती मूला० ७५३ उववादोवट्टणमे मूला० ११६२ उवसमभावतवाणं कत्ति० श्रगुं० १०५ उववादे अञ्चित्तं . गो० जी० ८५ | उवसमभावूणेदे भावति० ११० उववादे पढमपर्द गो० जी० ५८४ | | उवसमभावो ज्वसम- गो० क० १६ उववादे सीदुसणं गो० जी० ८६ उवसंमवंतो जीवो आरा० सा० ६५ नववादो उववट्टण मूला० १०४४ / उवसमसम्मत्तद्धा लद्विसा० १०० उववायाउ णिवडई वसु० सा० १३७ उवसमसम्मत्तुवरि लद्धिसा० १०३ उववासपंचए वा छेदपिं०६ उवसमसम्म उवसम भावति० २० उववासमोणजुत्तो रिहस० ११० | उवसमसुहमाहारे गो० जी० १४२ उववास-वाहि-परिसम- वसु० सा० २३६ उवसमसेढीदो पुण लद्धिसा० ३४० उववास विसेस करिवि बहु पाहु० दो० २०७ उवसंतखीणमोहे पंचस० ३-२८ उववासविहिं तस्स वि अंगप० २-६७ उवसंतखीणमोहे गो० क० १०२ उववास-सोसिय-ता जंबू० प० २-१४८ / उवसंतखीणमोहे भावसं० ११ उववासह होइ पलेवणा ___ पाहु० दो० २१४ | उवसंतखीणमोहो पंचस्थि०७० उववासहु इक्कहु फल। सावय० दो० १११ उवसंतखीणमोहो पंचसं०१-५ उववासं कुब्वंतो कत्ति० अणु० ३७८ उवसंतखीणमोहो गो० जी० १० उववासं कुव्वाणो कत्ति० अणु० ४४० उवसंतद्धा दुगुणा लद्धिसा० ३७१ उववासं पुण पोसह वसु० सा० १०३ उवसंतपढमसमये लद्धिसा० ३०० उववासा फायव्वा वसु० सा० ३७१ उवसंतवयणमगिहत्थ मूला० ३७८ उववासो कायव्वो धम्मर० १५४ उवसंतवयणमनिहत्थ- म० श्रारा० १२४ उववासो य अलाभे भावसं० १७८ उवसंता दीणमणा मूला० ८०४ उवसग्गपरिसहसहा | उवसंते खीणे वा पंचसं० १-१३३ उवसग्गवाहिकारण छेदस० ५१ उवसते पंडिवडिदे लखिसा० ३०२ उवसग्गदो अणारोछेदपिं० १२४ /'उवसंतो त्ति सुराऊ गो० ० ४४६ उवसग्गेण य साहरि- म० श्रारा० २०७० उवसंतो दु पुहत्तं उवसरणा सँएणो वि य तिलो प० १-१०३ उवसंपया य ऐया मूला० १३६ उवसप्पिणि अवसप्पिणि कत्ति० अणु० ६६ । उवसंपया य सुत्ते बोधपा० ५६ मूला० ४०४ मूला. १४४ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी उवसामगा दु सेटिं गो० क० ५५६ | उसहजिण-पुत्त-पुत्तो । दसणसा० ३ उवसामगेसु दुगुणं गो० क. ८४३ उसहजिणिदं पणमिय जबू० प०२-१ उवसामगो च सव्वो* कसायपा० ६६(४०) उसहजिणे णिव्वाणे तिलो० ५०४-१२७४ उवसामगो य सम्बो * लद्धिसा० ६६ | उसहतियाणं सिस्सा तिलो० ५० ५-१२१३ उवसामएक्खएण दु ___कसायपा० ११६(६६) उसइदुकाले पढमदु तिलो० सा० ८३७ उवसामणा कदिविहा कसायपा० ११२(५६) | उसहमजियं च वंदे थोस्सा०३ उवसामरणाखएण दु कसायपा० ११८(६५) | उसहमजियं च संभव- तिलो० प० ४-५११ नवसामणा विधत्ती लद्धिसा० ३३६ उसइम्मि थंभरुदं तिलो० ५० ४-८२० उवहिउवमाउजुत्तो तिलो०प० ४-१५३० उसहादिजिणवराणं मूला० २४ उवहिउवमाणजीवी तिलो. प० ३-१६५ | उसहादिजिणवरिंदा णियमसा० १४० उवहिउवमाणजीवी तिलो० प०८-५५० | उसहादिदससु आऊ तिलो० ५० ४-५७८ उवहिउवमायजीवी तिलो०५०८-६६७ (दे०) | उसहादिसोलसाणं तिलो. प० ४-१२२८ उवहिउवमाण सउदी तिलो० ५० ४-१२४० उसहादी चउवीसं तिलो० ४-७१६ उवहिउवमाण णवके तिलो. प० ४-५६६ तिलो० प०४-६७४ उवाहिउवमाण तिदए तिलो० ५० ४-५६८ उसहो चोदसदिवसे तिलो० ५० ४-१२०७ उवहिदलं पल्लद्धं तिलो० सा० १४१ तिलो०प०४-१२०० उवहि सहस्सं तु सयं ___ लखिसा. ११६ उस्सग्गियलिंगफदस्स भ० श्रारा० ७७ उवहिस्स पढमवलए जबू० प० १२-४४ उस्सप्पिणि-अवसप्पिणि- सुदख०२ उवहीण परणकोडी तिलो. सा० ८०० उस्सप्पिणिए अज्जा- तिलो० ५० ४-१६०६ उवहीणं तेत्तीसं ___ गो० जी० ५५१ उस्सप्पिणीयपढमे तिलो० सा०८६८ उवही सयंभुरमणो तिलो० ५० ५-२२ उस्सप्पिणीयविदिए तिलो. सा०८७१ उवहीसु तीस दस णव तिलो० प० ४-१२३६ उस्सरइ जस्स चिरमवि भ. श्रारा० ७५ उचट्टणा जहरणा कत्ति० अणु० १३७ लद्धिसा० ३६८ उस्सासद्वारसमे उव्व दिदा य संता मूला० ११५५ उस्सासस्सट्ठारस- तिलो० ५० ५-२८५ उव्यत्तण-परियत्तण छेदपिं० २०६ उस्सासो पज्जत्ते पचस० १-४७ उन्वयमरणं जादी उस्सियसियायवत्तो मूला० ७६ वसु० सा० ५०५ उव्वरिऊण य जीवो धम्मर०७४ उस्सेहअंगुलेणं तिलो० ५० १-११० उबलि चोप्पडि चिट्ठकरि x परम०प०२-१४८ उस्सेहआउतित्थय- तिलो० ५० ४-१४६६ उज्वलि चोप्पडि चिट्ठकरि ४ पाहु. दो० १८ उस्मेहगाउदेणं तिलो. प०४-२१६६ उध्वस वसिया जो करइ पाहु० दो० १६२ उस्सेहोहिपमाणं तिलो० प० ३-५ उव्वस वसिया जो करइ परम०प० २-१६० उहयगुणवसणभयमल रयणसा०८ उध्वसिए मणगेहे पारा० सा० ८५ उहयचउद्दिसिअहमिहिं सावय० दो०१३ उव्वंकं चउरंक गो० जी० ३२४ उहयं उहयणएण य दवस० णय० २५६ उव्वादो तं दिवसं भ० श्रारा० ४१६ उंदरकद पि सदं भ० श्रारा० ८६६ उवासहि णियचित्तं श्रारा० सा० ७५ उंबरबडपीपलपिय वसु० सा० ५८ उज्बुदुसरावसिहरो जंबू० प० ४-६ उज्वेलणपयडीणं गो० क० ४१३ उठवेलवेदिरुदं तिलो० प०४-२३६६ उव्वेल्लण-विज्झादो गो० क० ४०६ ऊ-ऐ-औ-अ-अः सर- श्रायः ति० १५-१३ उव्वेल्लिद्-देवदुगे गो० क० ३८८ । उ-ऐ-घादिसु कंसं श्रायः ति०१८-५ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० पुरातन-जैनवाक्य-सूची ऊणत्तीससयाई ऊपत्तीससयाहियऊपत्तीसं भंगा ऊरापमाणं दडा ऊरणसहस्लपमाणं ऊसरखित्ते बीयं एअट्ठ तिएिण सुरणं एअंतो एप्रणयो एइदिय आयावं एइंदियट्ठिदीदो* एइंदियहिदीदो* एइंदिय पिरयाऊ एइंदिय णेरइया एइंदियथावरयं एइंदियपहुदीणं एइदियपहुदीसुं एइंदिय पंचिंदिय एइंदियभवगहणेएइंदियमादीणं एइंदियविगलिंदिय एइंदियवियलिंदियएइंदिय वियलिंदियएइंदियस्स जाई एइंदियस्स फासं एइंदियस्स फुसणं एइंदिया अपंता एइंदियादिकाएं एइंदियादिचरिएइंदियादिजीवा एइंदियादिदेहाx एइंदियादिदेहा x एइंदियादिदेहाएइंदियादिपाणा एइंदियादिपाणा एइंदिया य जीवा एइंदिया य पंचेएइंदियेसु चत्ता गो० क० ८६६ | एईदियेसु पंच वि- भ० श्रारा० १७८ गो० क० ६०५ | एइंदियेसु पंचसु धम्मर० ७८ • पंचसं० ५-३८० एइंदियेसु बायर पंचसं०४-८ तिलो० प० २-७ । एइंदियेहि भरिदो कत्ति० अणु० १२२ तिलो० ५०८-१३० एऊणयकोडिपयं सुदख० ४२ भावसं० ५३२ एए अण्णे य बहू भ० श्रारा० १६१ एए उत्ते देवे भावसं० २५७ एए उदयहाणा पंचस० ५-४२१ एए जंतुद्धारे मावसं० ४६८ तिलो० ५० ६-५०८ एएण कारणेण दु समय०८२ ण्यच०१ | एएण कारणेण य. . भावपा०८५ पंचस०४-४५२ एएण कारणेण य सुत्तपा० १६ लद्धिसा० २२८ एए रणरा पसिद्धा भावसं० ५४० लद्विसा० ४१४ एएणं चिय विहिणा श्राय० ति० २४-७ पचस० ४-४५२ / एए तिरिण वि भावा चारित्तपा० ३ मूला० १०६६ एए तिरिण वि भावा चारित्तपा० १८ पंचसं० ४-४७० एए तिरिण वि भावा भावस० २६० गो० जी० ४८७ एए तेरस पयडी पचस० ५-२१३ भावस० १६७ एए पुण संगहो सम्मइ०१-१३ पचसं० ४-३६४ | एए पुव्वपदिट्ठा पंचसं० ५-६१ कसायपा) १२४ (१३१) एए विसयासत्ता भावस० १८० गो० क०० एए सत्तपयारा भावसं० ३४८ मूला० ११२८ | एए सव्वे दोसा धम्मर० १२० मूला० ११३७ एए सव्वे भावा समय०४४ पचस० १-१८६ एएसिं सत्तण्हं भावसं० २६७ पचसं० ५-१११ / एएहि य संबंधो समय० ५७ पघसं० १-६७ एएहि अवरेहि श्रारा० सा०५२ गो० जी० १६६ / एएहि लक्खणेहिं . चारित्तपा० ११ मूला० १२०५ / एओ य मरइ जीवो मूला० ४७ छेदस०८ / एकट्ट च च य छस्सत्त गो० जी० ३५३ छेदपिं० १४ / एकट्ठीभागकदे तिलो० प०७-३६ मुला० ११८६ एकत्तरिलक्खाणिं तिलो०प०३-८५ दव्चस० गय० २३५ / एकत्तीसं दंडा तिलो० प० २-२५१ णयच० ६५ | एकत्तीसं पडलं जबू०प०११-२१२ णयच० ५३ । एकत्तीसं पडला- • जबू० प०११-२१७ मूला० २८१ | एकपदिव्वदकरणा- भ० श्रारा० ६६७ मूला० ११८७ एकम्मि चेव देहे भ० श्रारा० १२७३ मूला० १२०२ | एकम्मि ठिदिविसेसे कसायपा० २०० (१४७) मूला० १२०५ | एकम्मि वि जम्मि पदे भ. श्रारा० ७७५ मूला० १०४६ / एकम्हि कालसमये। गो० जी०५६ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुकमणी ५१ एकम्हि कालसमये। पंचसं० १-२० एक्कत्तीसमहस्सा तिलो० प०७-२२३ एफम्हि कालसमये। गो. फ. ६११ | एक्कत्तीससहसा तिलो० प०७-२४६ एफस्स दु परिणामा समय० १३८ एक्कत्तीससहस्सा तिलो० ५०४-१९८६ एकस्स दु परिणामो समय० १४० एक्कत्तीससहस्सा तिलो०प०७-१२३ एकरस वत्थुजुयलस्से चेदपिं० २६३ एक्कत्तीसमहस्सा तिलो. १०८-६३१ एकं च तिरिण सत्त य मूला० १११५ | एक्कदरगदिणिस्वय- गो० जी० ३३७ एक जिएस्स रुवं । दसणपा० १८ तिलो० प०८-५६७ एका अजुदसहावे दव्यस० गय० ६६ एक्क दुति पच सत्त य तिलो. प० २-३११ एकादसलक्खाणिं तिलो०प०२-१४५ तिलो० प० २-२२० एफावरणसहस्सं गो० क. ४६३ तिलो. प०२-२४२ एकावरण कोडी सुदसं० ५८ एक्कपएसे दव्य दवस. णप० २२१ एको(को)चेवमहप्पा पचत्यि०७१/ एक्कपलिदोवमाऊ तिलो० प० ३-१४७ एकोणतीसदंडा तिलो० प० २-२५० एक्कपलिदोवमाऊ तिलो० १०३-१५५ एकोणवएगदडा तिलो. ५०२-२५६ एस्कपलिदोवमाऊ तिलो० १०३-१६४ एक्कचउकच उक्केक्क- तिलो०प०४-२६१७ | एक्कपलिदोवमाऊ तिलो०प०४-७६ एक्कचउक्कट्ट जरा- तिलो. सा. १६७/एक्कपलिदोवमाऊ तिलो. प०४-२७६ एक्कचउक्महजण- तिलो० ५० ५-७० एक्कपलिदोवमाऊ तिलो० ५० ५-५१ एकच उक्कतिछक्का तिलो. १०७-३८० एकरुपलिदोवमाऊ. तिलो० ५० ५-१०६ एक्कचउक्कं चउवी- गो० जी० ३१३ | एक्कपलिदोवमाऊ तिलो. प०५-१३४ एक्कचउहाणं दुग्ग- तिलो० ५० ५-५६७ एक्कपलिदोवमाऊ तिलो० ५०८-६६६ एक्कचउसोलसखा तिलो० ५०४-०५६५ / एक्क-पह-लघणं पडि तिलो० सा० ४०८ एक्क छ छ सत्त पण णव तिलो०प०४-२७०७ एक्कन्भहिया रणउदी तिलो० प०८-१५४ एक्क8 छक्केकं तिलो० ए०४-२८५८ | एक्कम्मि ठिदिविसेसे क्सायपा० २०२ (१४६) एक्कट्टियखिदिसंख तिलो० प० २-१७३ | एकम्मि महुरपयडी पचसं०४-५०६ एक्कट्टी परणट्टी तिलो० सा० ६७ | एक्कम्मि विउस्सग्गे छेदस०६ एक ण जाणहि वडिय पाहु० दो० ११४ एक्कम्हि भवग्गहणे कसायपा० ६४ (११) एक णव पंच तिय सत्त तिलो० ५० ७-२५३ / एकम्हि (एक्के) विदियम्हि पदे मूला० १३ एक्कणिरुद्धे इयरो दव्यस० गय० २५८ | एक्क य छक्केगार पचस०५-३०७ एक्कतिसगदससत्तर- तिलो० प० २-३५१ | एक्क य छक्केयार गो० क० ४८१ एक्कत्तरि सहस्सा तिलो. प०४-२०२४ एक्क गो. क. ४८८ एक्कत्तालसहस्सा तिलो० प० ४-२८०२ / एक्कयरं च सुहासुह- पचस०४-२७५ एक्कत्तालसहस्सा तिलो० प० ७-३४६ एक्कयर वेयंति य पचस ५-१३८ एक्कत्तालसहरसा तिलो. प० ७-३६७ एक्करसतेरसाई तिलो. प०४-१११० एक्कत्तालसहस्सा तिलो. प० ७-६०६ | एक्करसवण्णगध तिलो०प०१-६७ एक्कत्तालं दंडा तिलो० प० २-२६५ एक्करससया इगिवी- तिलो० ५०८-१६८ एक्कत्ताल लक्ख तिलो० प०८-२५ एक्करससहस्साणिं तिलो०प०४-२१४० एक्कत्तालं लक्खा तिलो. प०२-११२ एक्करससहस्साणिं तिलो० प०४-२४४३ एक्कत्तालेक्कसय तिलो. प०७-२६१ एक्करससहस्साणिं तिलो० ५० ७-६०८ एक्कत्तीसट्ठाणे तिलो० ५० ४-३०८ एक्करस होति रुद्दा तिलो. प०४-१६१८ एक्कत्तीसमुहुत्ता तिलो. प०७-२१४ । एक्करसो य सुधम्मो तिलो० प० ४-१४८४ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची - एइकलउ इंदियरहियउ __ जोगसा० ८६ / एक चेव सहस्सा तिलो० ५० ४-११३५ एक्कवरसेण उसहो तिलो० ५० ४-६७० एक छचउअट्ठा तिलो. प०४-३८५ एक्कविहीणा जोयण- तिलो० प० २-१६६ एक छएणवणभए- तिलो०प०४-२५६३ एक्कसमएण बद्धं ** भावसं० ३२८ एक्कं जोयणलक्खं तिलो० प०४-१७३७ एक्कसमएण बद्धं * कम्मप०२५ | एक जोयणलक्खं तिलो प०४-१७५१ एक्कसय उणदालं तिलो० ५० ७-६०५ / एक जोयणलक्खं तिलो० ५० ४-२५८६ एक्कसयं पणवण्णा तिलो०प०४-२४८० एक जोयणलक्खं तिलो० प०४-२६०४ एक्कसया तेसट्ठी तिलो. प०५-५३ | एक जोयणलक्खं तिलो. प० ७-१५१ एकसयेणभहियं तिलो० प०४-११३२ एक जोयणलक्खं तिलो. प० ७-१५४ एक्कसहस्सटुसया तिलो. प० ४-१६४ एक जोयणलक्खं तिलो० ५० ७-१५५ एक्कसहस्सपमाणं तिलो. प०८-२३३ एक जोयणलक्खं तिलो. प०७-१५६ एक्कसहस्सं अडसय- तिलो. प० ४-४२१ एक जोयणलक्खं तिलो० ५०.७-१८१ एक्कसहस्सं गोउर- तिलो० प० ४-२२७१ एक जोयणलक्खं तिलो० ५०७-२४१ एक्कसहस्सं चउसय तिलो० ५० ४-११२३ एक जोयणलक्खं तिलो० प०७-२६७ एक्कसहस्सं तिसयं तिलो० प० ४-४३० | एक जोयणलक्खं तिलो० प० -८१ एक्कसहस्सं पणसय- तिलो० प०४-१७०४ एक जोयणलक्खं तिलो०प०८-४४१ एकसहस्सा सगसय- तिलो० प०४-११४६ एक जोयणलक्खा तिलो० ५०२-१५५ एक्कस्सि गिरि विड(दु ?), तिलो०प० १-२४६ एकंततेरसादी तिलो. प० २-३६ एकहि इंदियमोक्कलउ सावय० दो० १२८ एक तालं चउगुणि- तिलो०प०४-28 एक एक्कम्मि खणे भावसं० ६७३ एकं तालं लक्वा तिलो० प०४-२८२६ एक कोदंडसयं तिलो० ५० २-२६४ | एकं तु उडुविमाणं जवू० ५० ११-१६४ एक कोदंडसयं तिलो० प० २-२६३ / एकं पंडिदमरणं मूला० ७७ एक कोसं गाढो तिलो. १०४-१६४८ | एक पि अक्खरं जो भ० धारा० ६२ एक खलु अट्टकं __ गो० जी० ३२८ | एक पि णिरारंभं । कत्ति० श्रणु० ३७७ एक्कं खलु तं भर्त पवयणसा० ३-२६ / एक्कं पि वयं विमलं कत्ति० अणु० ३७० एक खंडो भरहो जंबू० प०२-६ एक्कं पि साहुदाणं जंबू० प०१७-३५७ एक च ठिदिविसेसं कसायपा० १५५ (१०२) एक्क (एक) पुण संतिणामो भावसं० १४१ एक च ठिदिविसेसं कसायपा० १५६ (१०३) एक्कं लक्खं चउसय- तिलो० प० ७-११७ एकं च ठिदिविसेसं लद्धिसा० ४०१ / एक्कं लक्खं णवजुद- तिलो० प० ७-३७८ एकं च तिएिण तिरिण य जंवू० ५० ११-४१ / | एक्कं लक्खं पण्णा- तिलो० ५० ७-२४० एक्कं च तिरिण पंच य गो० क० ७६३ | एक्कं व दो व तिएिण य भ० श्रारा० ४०२ एकं च तिरिण सत्त य जंबु० ५० ११-१७७ / एक्कं व दो व तिगिण व गो० क० ५८४ एक च दोरिण तिरिण य समय० ६५ / एक्कं वाससहस्सं तिलो. प० ४-१२६८ एकं च दो व चत्तारि पंचसं० ५-२८ एक्कं समयजहएणं तिलो० ५० ४-२६१४ एकं च दो व चत्तारि पंचसं०५-२६६ एक्स गो० जी० २५३ एक्कं चयदि सरीरं कत्ति० अनु० ३२ / एक्कंहि(म्हि)य अणुभागे कसायपा० ६६ (१३) एक च सयसहस्सं तिलो० प० ७-५०६ / एक्काई पणयंतं पंचस०४-२४८ एक चिय होदि सयं तिलो० ५० ४-२०४६ एकाउस्स तिभंगा 'गो० क० ६४५ एकं चेव सहस्सा तिलो. ५० ४-११२६ / एका कोडी एक्क तिलो०प०८-२३६ एक चेव सहस्सा तिलो०प०४-११२६ एक | एक्काणवदिसयाई सिलो०प०४-१११७ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी ८ एकादि दुउत्त रयं तिलो० ५० ७-५२७ पक्रककिराहगई तिलो० ५०-६०२ एमादि-दुरुत्तुत्तर जंय० ५०२-१६ कागोउराण तिलो० ५० ५-७३५ एकादी दुगुणकमा गो० क० ८६० चारखेत्त तिलो० ५० ७-५५३ एकारसकूडा तिलो० प०४-२३५६ | पक्कपकचारखेत्त तिलो० ५० ७-५७३ एकारमचावाणि तिलो. ५०२-२३५ पक्कचारखेत्ते तिलो०प०७-५७५ एकारसजागाण गो० जी० ७२२ कोकजुवइग्यणं तिलो० ५०४-१३७२ एकारमट्टणव रणव तिलो० सा० ७२० गमक्कतोयणंतर- तिलो० ५० १-१३३८ एकार-मत्त-समय- तिलो० सा० ४६१ । पक्रक्कट्टिदिखडय लन्द्रिसा० ७६ एक्कारमपुन्बादा- तिलो० ५० ५-१६३२ फोक्कट्टिदिखडय- लदिमा० ४०५ एकारममा फोडल- तिलो. प०५-१७ एक्कक्कदिगुग्घाडं छेदपि०५४ एक्कार-सय-सहरसं तिलो० सा० ४४५ / पक्क्क दिसाभागे तिलो० प० ४-२०७० एकारस-लक्खाणिं तिलो प. ४-२६१४ एक्फेक्कदिसाभागे जव० ५० ७-४२ एक्कारस-लक्खाणिं सिलो. ५००-६६ एकके कपल्लवाहण- तिलो० ५०८-५२१ एक्कारस-लक्खाणिं तिलो० प०८-१७१ एक्कमयंकारणं मिलो० ५० ७-३१ एक्कार-सहस्साणि य तिलो० ५० ४-५७० एक्ककमाणथभे तिलो०प०३-१३६ एक्कार-सहरसारिण तिलो० ५०४-२८०४एक्केक्कमुहे चचल- तिलो० ५०८-२८० एकारसि पुव्वरहे तिलो० प०४ ६५३ एकेक्कम्मि गुहम्मि य जंबू० प० २-६४ एक्कारसुत्तरसयं तिलो० ५०-१५३ एक्क्कम्मि दम्मि हु जबू० प० ६-४१ एकारसे पदेसे तिलो० प०४-१७६१ | एक्केक्कम्मि मुहम्मि दु जय० प० ४-२५२ एक्कार दसगुणियं गो० क० ८५२ पक्केक्कम्मि य दंतो जंबू०प०४-२५३ एकावरण-सहस्सा निलो० प०४-१२२३ एक्फेक्कम्मि य वत्थू सुदभ० ६ एक्कावरण-सहस्सा तिलो० ५० ७-३५० एक्फेक्कम्मि वि दसग तिलो० ५०८-२८१ एकावरण-सहस्मा तिलो. प. ७-३७० पक्केकरज्जुमित्ता तिलो० ५० १-१६२ एक्कासीदी-लक्खा तिलो० ५०३-८१ पक्क्क लक्खपुवा तिलो. प० ४-१४०५ एक्कासी-पयडीणं पंचप्स० ३-७० एक्फेक्कवणे पडिदिस- तिलो. सा० ६११ एक्का हवेदि रज्जू तिलो० ५००-१७० एक्केक्कवरणगाणं जबू० प० ४-६६ एक्काहियखिदिसंखा तिलो० ५० २-१५७ एक्केक्कविदेसु तहा जबू० ५० १३-७२ एक्कु करे मण विरिण करि परम०प०२-१०७ एक्फेक्कसदसहस्सा जबू० प० १०-१६ एक्कु खणं ण वि चिंतइ रयणसा... एक्केक्कससंकाणं तिलो० प०७-२५ एक्कु जि मेल्लिवि वंभु परु परम०५० २-१३१ । एक्केक्कस णिठभण लद्धिसा० ६२६ एक्कुत्युवसंतसे गो० क० ६६० एक्केक्कस्म दहस्स य शिलो० प०४-२०६२ एक्कुलउ जइ जाइसिहि जोगसा० ७० पक्फेक्स्स विमाणस्त जंवू० ५० ११-३४३ एक्कु सुवेयइ अएणु ण वेयइ पाहु. दो० १६५ पक्केक्कस्मिदे तणु- तिलो० प० ६-७० एक्के एक्कं आऊ गो० क० ६४२ एक्केक्कंगुलि वाही भावपा० ३७ एक्के काले पगं कत्ति० अणु० २६० एक्के चिय लक्ख तिलो० ५० ४-११८० एक्केक्कइंदयस्स य तिलो० सा० ४६३ एक्केक्कं जिणभवणं तिलो०प०४-७४८ एक्केकइंदयस्स य तिलो. प०८-११ एक्केक्कं ठिदिखंडं वसु. सा. ५१६ एक्केकउत्तरिंदे तिलो० ५०-३१७ एक्केक्कं रोमग्गं तिलो० ५० १-१२५ एक्केककमलसंडे तिलो० ५०४-७८६ एक्केक्कंहि(म्हि) य ठाणे कमायपा० ४० एक्केककमलसंडे तिलो० प०८-२८२ एक्केक्काप उववण- तिलो०प०४-०३ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ एक्केक्फाए गट्टयएक्क्कए ती एक्क्का दिसा एक्क्का पुरीए एक्क्का कमो errorist एक्क्का चेत्ततरू एक्केक्का जिरणकूडा error दहा एक्का अंतर एक्का अंतर एक्केक्कारणं गट्टयएक्कारणं ताणं एक्क्काणं दो दो एक्क्का पsिहंदा एक्कासि इंदे एक्क्के अट्ठा rrhea पासा एक्के पास दे एक्क्के पुरण वग्गे एक्क्के सि पुरातन-जैनवाक्य-सूची तिलो० प० ४-७५६ | एक्कोणवीस दंडा तिलो० प०८-२८४ एक्ोवीलक्खा तिलो० प० ५ - १६४ | एक्कोणवीसलक्खा तिलो० प० ७-८६ | एक्कोणवीसवारि हिaureuro २५ एक्कोणवीस सहिद तिलो० प० ४-८८५ | एक्कोणसहित्था तिलो० प० ८-४३० एक्कोणा दो सियातिलो० प० ५ - १४० | एक्को तह रहरेणू जंबू० प० ६-१४३ | एक्को पासादारणं जंबू० प० ६-८७ | एक्को य चित्तकूडो जबू० प० ६-११६ एक्को य मेकूडो तिलो० प० ४-७५८ | एक्कोरुकलं गुलिका जबू० प० १३-२४ | एक्को रुकवेसाणिकतिलो० प० ४-७२३ | एक्कोरुगा गुहासुं तिलो० १० ८- २१८ | एक्को व दुगे बहुगा तिलो० प० ३ - ६३ | एक्को वा बि तयो वा दव्वस० य० १५ | एक्को वि haat जबू० प० ६-१८८ | एक्को वि य मूलगुणो एकोणतीस लक्खा एक्कोणती लक्खा एक्कोणमण्णइंडयपक्को वरि विसेसो एक्को वरि विसेसो ए तिलो० प० २-२४४ तिलो० प०२-१३६ विलो० प०८-५५ तिलो० प० ८-५०३ तिलो० प० ४-२६२५ तिलो० प० २-२४० तिलो० प० १ - २३० तिलो० प० ४-५४ तिल्लो० प० ५-१६१ जंबू० प० ६-८१ तिलो० प० ४-२३६४ तिलो० प० ४- २४८२ एक्को सुद्धो बुद्धो एक्को हवेदि रज्जू एक्को हवेदि रज्जू तिलो० प० ६-६६ | एक्को हवेदि रज्जू एक्arat asवेदी mahrat visiदो एक्केण चक्केण रहो ण यादि श्रंगप० २ - ३२ | एक्को हं गिम्ममो सुद्धो एक्को फरे कमं एक्को करेदि कम्म एक्को करेदि पाव एक्को करेदि पुराणं eratorsit raat कोसो दंडा एक्को चिय वेलंबो एक्को चेव महापा एक्को जोयकोडी एक्कोच उसयाई एकोणतीसपरिमा मूला० ६६६ एक्को होदि विहत्थी बा० अणु० १४ | एगगुणं तु जहां वा० अणु० १५ एगट्ठ व य सत्त य बा० अ० १६ | एगट्टिभागजोयणछेदपिं० १६८ एग-रणव-सत्त छच्चदुतिलो० प० ४-५६ | एगणिगोदसरीरे तिलो० प० ४ -२७५६ |एगणिगोदसरीरे गो० क० ८८१ | एग (य) णिगोद (य) सरीरे * तिलो० ५० ४-२७५५ एगन्त्तरि य सहस्सा तिलो० प० १-२२७ एगत्तरि विष्णिसदा तिलो० प० ४-५२ एगदवियम्मि जे अत्थतिलो० १० २ - १२५ | एगपदमस्सिदस्सवि तिनो० प० ८-४२ एगमवि भावसल्लं तिलो० प० २-६५ एगम्मि भवग्गणे तिलो० प० ४- १५६२ एगम्हि य भवगहणे तिलो० प० ४ - २०६० | एगम्हि संति समये तिलो० प० ४- २४६२ तिलो० प० ४- २४६७ 'पवयणसा० २-४ε मूला० ६२० दव्वस० य० २६४ दसणसा० ४८ तिलो० प० ५-८० | एक्को सरणारा पिंडो विमलाह- णियप्पा० ३ गो० क० २२६ तिलो० प० ४-८४४ तिलो० प० ४-२५३३ | दसणसा० २२ तिलो० प० २-१७० तिलो० प० २- १७२ तिलो० प० २ - १७४ बा० श्रणु० २० तिलो० प० ४-६० गो० जी० ६०६ जंबू० प० १० - ६३ जंबू ० प० १२-१५ जवू० प० १०-६४ गो० जी० १६४ मूला० १२०४ पंचस० १-४ जबृ० प० ६-८ " जंबू ० प० ७-७४ सम्मइ० १-३१ मूला० ६५३ भ० श्रारा० ५४० भ० धारा० ६८२ मूला० ११८ पवयणसा० २-११ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी एगवराडयकागिणिएगविहो खलु लोओ एगसमयप्पबद्धा एगसमयप्पबद्धा एगसमयम्मि एगदएगसहस्सं अछुत्तएगसहस्तं गवसदएगं णिसएगदी सदु एगंत णिन्त्रिसेसं एगतं मग्गंत एगंता सालोगा एवं तिरिण य सत्तं एगते अञ्चित्ते एगतेण हि देहो एगंते सुहदेसे एग पंडियमरणं एग वा उदि च य एग सगय तच्चं एगं सुहुमसरागो एगादिगिहपमाण एगादि बिउत्तरिया एगाहि वेहि तीहि य एगुणतीसत्तिदयं एगुत्तरणवयसया एगुत्तरमेगादीएगुत्तरसेढीए एगुरुगा लंगलिगा। एगुववासो छलैं एगे इगिवीसपणं एगेगअट्ठवीसा एगेगकमलकुसुमे एगेगकमलकुसुमे एगेगकमलसडे एगेगमट्ट एगेएगेगमट्ट एगेएगेगम्मि य गच्छे एगेगसिलापट्टे एगेगं इगितीसे एगेगं इगितीसे एगे वियले सयले छेदपिं० ६१ / एगो जइ णिज्जवो भ० श्रारा० ६७४ मूला० ७११ | एगो मे सस्सदो अप्पा * भावपा० ५६ कसायपा० १६६ (१४६) एगो मे सस्सदो अप्पा: मूला० ४८ कसायपा० १६४ (१४१) एगो मे सासदो अप्पा णियमसा० १०२ सम्मइ० ३-४३ | एगो य मरदि जीवो णियमसा० १०१ जवू० प० १०-१२ एगोरुगवेसाणिग- जंबू० ५० ११-११ पचस०५-३५२ एगोरुगा गुहाए तिलो० सा० १२० छेदपिं० १४८ एगोरुगा गुहासुं जबू० ५० १०-५८ सम्मइ०३-२ जंवृ० ५० १०-५३ मूला० ७८६ / एगो चि अणंताणं भावस० ६६३ भ० भारा० १६६८ एगो संथारगदो भ० श्रारा० ५१६ तिलो० प० २-२०३ | ए ठाण. एयारस सावय० दो० १८ मूला० १५ | एण थोत्थेण जो पंचगुरु वंदए पंचगु० भ० ६ पवयणसा० १-६६ | एण विहाणेण फुडं भावसं० ४८२ रिट्ठस. १६४ एएह पि जदि ममत्ति भ० श्रारा० १६६८ मूला० ११७ | एत्तियपमाणकाले वसु० सा० १७५ जबू०प० ७-६ एत्तियमेत्तपमारणं तिलो० प० ७-५७६ तच्यसा० ३ एत्तिसमेत्तविसेसं तिलो० प० ४-४०० पंचस० ५-३०६ । एत्तियमेत्तविसेस तिलो० ५० ४-४०८ कत्ति० अणु० ४४३ एत्तियमेत्ता दु परं तिलो. प० ७-४४८ तिलो० सा० ५६ | एत्तणपेसणाइ तिलो० प० ४-६६७ जबू० ५० १३-३७ | एत्तो अपुत्रकरणो मूला० ११६६ ___ गो० क० ६६८ | एत्तो अवसेसासं कसायपा० ३४ जवू० प० ३-२६ | एत्तो उवरि विरदे लद्धिसा. १८६ पवयणसा०२-७२ तद्धिसा० ६३१ भ० नारा० २१२ तिलो० ५० १-२७६ तिलो. सा० ६१६ | एत्तो जाव अणंतं तिलो. प० ४-५८५ छेदपि ६८ एत्तो दलरज्जूण तिलो० ५० १-२१३ गो० क० ५६५ एत्तो दिवायराणं तिलो० प० ७-४२२ जंबू०प० १२-८६ एसो पदर कवाड लद्धिसा० ६२३ जवू० ५० ५-२५६ | एत्तो वासरपहुणो तिलो० प०७-२६२ जंबू० प०४-२५७ एत्तो समऊणावलि लछिमा० ५७ जंबू० प०४-२५४ | एत्तो सलायपुरिसा तिलो० प० ४-५०६ गो० क. ६६४ | एत्तो सुहुमतो त्ति य ल द्विसा० ५६२ पचसं०५-३६५ | एत्थ इमं पणुवीसं पचसं० ५-८४ जवू० प०४-२५५ | एत्थ पमत्तो आऊ पचसं०४-२२७ जवू० प० ४-१४१ एत्थ मुदा णिरयदुर्ग तिलो. सा० ८६३ गो० क. ७४१ | एत्थ विभंगवियप्पा पचस०५-१४७ पचस० ५-२४६ एत्थं रिणरयगईए पचस०४-२६३ गो० क० ७११ । एत्थ मिस्सं.वजं पंचस०३-७ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ एत्थापुविहारां एत्थावसप्पिणीए ert दि कसायं एवञ्च चउगुणिदे मण्यारसुतं एम्म कालसमये दम्म र्धार मुणो एम्म ममभागे दम्म तम्स्सेि + दहाट एक्क दहि गुट्टा एद (य) म्हि गुणट्ठाणे + दहिगुणा एहि देसयाले एदम्हि रदो णिच्चं *एदम्हि रदो णिच्च * दहि विभज्जते एदस्स उदाहरणं एदस्स चउदिसासुं एदस्स चउदिसासुं एवं अंतरमाणं एवं अंतर मा एवं अंतरिदू एदं श्रादवतिमिरक्खे एवं खेत्तपमाणं एदं चउसीदिहदे एदं चक्खुप्पासो एवं चि चउगुरिर्द एवं चैव यतिगुणं एवं पञ्चा एवं पायच्छितं एवं पायच्छित्तं एवं पायच्छितं एवं पायच्छ्रितं एदं वि य परमपदं एवं सरीरमसुई अंतरहि दु एहि अंतरहि दु एवं होदि प्रमाणं दाडं जोयाि पुरातन जैनवाक्य-सूची लन्हिसा० ६३५ एटाउ अट्टपवयण-x तिलो० प० १-६८ पचसं० ५-४८८ तिलो० प० ४-२७०६ मूला ७७० जंबू० प० २-१७६ भ० श्रारा० ३१२ जवृ० प० २-१६५ तिलो० प० ८-६१२ मूला० ६४ गो० जी० २१ पंचसं० १८ भावसं० ६४० मूला० ११२ दव्वस० य० ४११ | तिलो० प० ७-८१ तिलो० प० ७-२८५ एटाउ श्रपवयण - x दाउ पंचवज्जिय दाउ वा दाउ वाओ एदाए जीवाए एटाए बहलत्तं एटा बहुझे | एदाए भत्तीहि य एदाओ गामाश्र एदाओ देवीओ एदाओ सव्वाओ समय० २०६ गो० जी० ३६७ एटा तिलो० प० १-२२ एटा मदिरा तिलो० १०५ - १६० | एदाणं कूडाणं विलो० प० - ६१८ एवा (पयदा) चोहस पिड एदार अंतरा एदारण कालमा दारण चर-विहारां ति-खेत्ता एदाणं कूडा एदाणं कूडा एदाणं ति-गाणं एदाणं तिमिराणं तिलो० प० ७-५८३ तिलो० प० ७-४२० एदारणं दारागं तिलो० प० १-१८२ एदाणं देवारणं तिलो० प० ४ - २६१२ | एदाणं देवीगं तिलो० ८० ७-४३३ | एदाणं पत्तेक तिलो० प० ४ - २७०३ एदाणं परिहीओ तिलो० प० ७-५०४ |एदाणं परिहीओ मूला० १०५ | एदाणं परिहीओ छेदपिं० २० एदाणं परिहीणं छेदपिं० ० ४६ | एदाणं पल्ला इं छेदपिं० ३१२ एटाणं पल्लागं पिं० ३५६ | एटा बत्तीसं नव्वस० णय० ४१० दाणं भवराणं मूला० ८४४ दाणं रचिदू एदाणं रुंदाणं ० प० ६-३ जंबू ० ० ७ - ३४ | एदाणं विश्वाले तिलो० प० ७-३१० एदाणं विश्वाले तिलो० प० ८-३६४ earn fara Ա मूला० ३३६ भ० धारा० १२०५ भ० श्रारा० १८६ तिलो० प० ४-२१११ तिलो० प०४-२०३३ तिलो० प०४-१८६ तिलो० प०२-१५ तिलो० प० ८-६५५ जंबू० प० ४-२८५ जवृ० प० ६-१३४ जवृ० प० ४ १०७ तिलो० प० ७-८४ कम्मप० ६४ तिलो० प० ७-५६१ तिलो० प० ४- १५५५ तिली० प० ६-१२ तिलो० प०४-२३८० तिलो० प० ७-७२ तिलो० प० ६-१८ तिलो० प० ७-५० तिलो० प० ७-७४ तिलो० प० ४-२७६६ तिलो० प० ७-४१४ तिलो० प० ४-४३ तिलो० प० ४-२४६८ तिलो० प० १-१५६ तिलो० प० ४-२८२१ तिलो० प० ४ -२०७७ तिलो० प० ७-४० तिलो० प० ७-६६ तिलो० प० ७-२१०४ तिलो० प० ८-४६२ तिलो० प० १-१३० तिलो० प०८-२७६ तिलो० प० ३-१२ तिलो० प० ४-२२२० तिलो० प० ४-२७८७ तिलो० प० ८-११० तिलो० प० ८-४२३ तिलो० प० ८-४२५ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी एदाणं विञ्चाले तिलो. ५०-४२० एदे जिणिंदे भरहम्मि खेचे चिलरे०प० ४-५५० एदाणं वित्थारा "तिलो० प०८-३७२ | एदे जीवणिकाया पंचत्यि० ११२ एदाणं सेढीयो तिलो० प०८-३१ एदे जीवणिकाया पंचस्थि० १२० एदाणं मेलाणं निलो० प० ४-२५५६ एदेण अंतरेण दु कसायपा० २०३(५०) एदाणि चेव सुहमस्स पचस० ५-४१० एदेण कारणेण दु समय. १७६ एदाणि णस्थि जेसिं समय० २०० एदे(ए ण कारणेण दु समय० ८२ एदाणिपंच दन्वाणि एचयणसा०२-४३१०२(न.) गोक० २७५ एदाणि पुव्यवद्धाणि एदेण कारणेण दु क्यायपा० १६३(१४०) एदाणि य पत्तक्कं तिलो० ५० १-१६ एदेण् कारणण य जवृ० प०३-१२६ एदाणि रिक्खाणं तिलो० ५० ७-४६३ एदण गुणदसंखेज्ज- तिलो० प०७-२१ एदारिसम्मि थेरे भ० श्रारा० ६२६ । एदण चेव भाणदा भ० भारस० २१५५ एदारिसे सरीरे मूला० ८५० एदेण दु सो फत्तर समय०१७ एदासि भासाणं तिलो० ५० १-६२ | एदेण पयारेणं तिलो० १० १-१४८ एदासु फलं कमसो भ० नारा० १६७३ | एदेणप्पा बहुगवि लद्धिसा०५८ एदासु भासासुं विलो० ५० ५-६०० | एदे णव पडिसत्तू तिलो० ५०४-१४२१ एदाहिं भावणाहिं दु* मूला० ३४३ एदेण सयलदोसा दन्नस० णय० ४१२ एदाहि भावणाहिं दु:- ___ भ० श्रारा० १८५ एदेणं पल्लेगां तिलो० प०१-१२८ एदाहि भावणाहिं हु " भ० श्रारा० १२१३ | एदेणेव पदिट्ठा म. पारर० ११६६ एदाहिं सदा जुत्तो+ म० श्रारा० १२०० एदे तिगुणियभजिदं तिलो० ५० ७-११६ एदाहिं सया जुत्तो + मूला० ३२६ एदे तेसट्ठिणरा तिलो० ५०४-१५६ एदि मघा मज्झरहे तिलो० ५० ७-४६४ एदे दहप्पयारा कत्ति० अणु. ४०० एदे अचेदणा खलु समय० १११ एदे दोसा गणिणो भ० धारा०३६६ एदे अट्ट सुरिंदा . तिलो० ५० ३-१४२ एदे पंच विमाणा जंनू० ५० ११-३३६ एदे अण्णे बहुगा मूला० ५०० एदे पुण जहखादे शास. ति०५२ एदे पात्थे सम्म म० श्रारा० १०६६ एदे बारस चक्की तिलो० प०४-१२८० एदे अवरविदेहे तिलो० ५०४-२२१२ | एदे भावा णियमा गो० जी० १२ एदे इंदियतुरया - मूला० ८७६ एदे महाणुभावा सु० सा० १३२ एदे उक्कस्साऊ तिलो० ५०५-२८३ । एदे मोहजभावा । कत्ति० अणु० ६४ एदे एक्कत्तीसा जंबू०प०११-२११ एदे य अंतभासा सिद्धंत० ५२ एदे कारणभूदा वसु० सा० २२ एदे वि अडकूडा सिलो० ५० ५-१५७ एदे कालागासा पंचस्थि० १०२ एदे विमाणपडला जंबू०प०११-३४१ एदे कुलदेवाइ य तिलो० ५०६-१७ एदे वेदगखइए श्रास० ति० ५८ एदे खलु मूलगुणा पवयणसा० ३-४ एदे सत्तट्ठाणा गो० क० ३८६ एदे गणधरदेवा तिलो० ५० ४-६६५ एदे सत्ताणीया तिलो० प०८-२३६ एदे गयदंतगिरी तिलो० प० ४-२०१० एदे समचउरस्सा तिलो० प०४-७८६ एदे गुणा महल्ला ___ भ० श्रारा० ३२६ एदे समयपबद्धा कसायपा० १६८(१४५) एदे गोठरदारा तिलो. प०४-७३४ एदे सव्वे कूडा तिलो० प०४-१७३३ एदे चटदस मणुवो तिलो० प० ४-५०३ | एदे सव्वे जीवा कल्लाणा० १५ एदे छहव्वाणि य णियमसा० ३४ | एदे सव्वे देवा तिलो०प०३-१०६ एदे छप्पासादा तिलो० ५०५-२०५ । एदे सच्चे देवा तिलो० प०४-२३२० Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची दवस० गय०५ एदे सव्वे दोसा एदे सव्वे दोसा एदे सव्वे भावा एदे संवरहेढुं एदेसि कूडेसिं एदेसिं खेत्तफल एदेसि चंदाणं एदेसि ठाणाओ एदेसि ठाणाणं एदेसि ठाणाणं एदेसि ठाणाण एदेसि पायरवरे एदेसि दाराणं एदेसिं दोसाणं एदेसि दोसाणं एदेसि पल्लाणं * एदेसिं पल्लाणं * एदेसिं पुव्वाणं एदेसि लेस्साणं एदेसु दससु णिचं एदेसु दिगिंदेखें एदेसु दिग्गदिदा एदेसु दिसाकराणा एदेसु पढमकूडे एदेसु मंदिरेर्स एदेसु मंदिरेर्स एदे(ए)सु य उवोगो एदेसु वि णिदिवो एदेस वेंतरिंदा एदेसु हेदुभूदेसु एदेसुं चेत्तदुमा एदेसुं पट्टसभा एदेसुं पत्तेक्कं एदेसुंभवणेसुं एदे सोलस कूडा एदे सोलस दीवा एदेहि य णिव्वत्ता एदेहिं अएणेहिं एदेहिं गुणिदसंखेजएदेहिं गुणिदसंखेज भ० श्रारा० ३६७ / एदेहिं तिविहलोग भ० श्रारा०८७५ णियमसा० ४६ एदेहिं वाहिरेहि कत्ति० अणु० १०० । एदेहिं विहीणाणं तिलो० ५० ५-१२५ एदे हेमज्जुणतब- . तिलो० प० ४-२६१६ ए पंचिदिय-करहडा जंबू० ५० १२-३६ ए बारह वय जो करइ गो० क० २४१ एमइ अप्पा झाइयइ गो० क० २३२ एमादिए दु विविहे कसायपा० ७४(२१) । एमेव अट्ठवीसं कसायपा० ८१(२८) एमेव अट्ठवीसं तिलो० प०४-८५ एमेव अट्ठवीसं तिलो० ५०४-७५ एमेव ऊगतीसं भ० श्रारा० १२ एमेव ऊरणतीसं भ० श्रारा० ११६७ एमेव ऊणतीसं तिलो० सा० १०२ एमेव एक्कतीर्स जंबू० ५० १३-४१ एमेव एक्कतीर्स सुदम० - | एमेव कम्मपयडी भ० श्रारा० १६१० एमेव कामतंते भ० श्रारा० ४२२ एमेव जीवपुरिसो तिलो० प०८-५३७ एमेवट्ठावीसं तिलो० ५० ५-१७० एमेवट्ठावीसं तिलो. प०५-१४८ एमेवट्ठावीसं तिलो० प० ४-२३२७ एमेव दु सेसाणं तिलो० ५० ४-२०४ | एमेव बिदियतीसं+ तिलो० प०४-२५१ एमेव बिदियतीसं+ समय०६० एमेव मिच्छदिट्ठी जबू० प०२-१७० | एमेव य उगुतीसं तिलो. प० ६-६७ एमेव य उगुतीसं समय० १३५ एमेव य चउवीसं तिलो० प०५-२३० | एमेव य छब्बीसं तिलो. प०७-४५ एमेव य छव्वीसं तिलो० ५० ४-२६०३ एमेव य छन्त्रीसं तिलो० ५०४-२१०६ एमेव य छब्बीसं तिलो० ५० ५-१२४ | एमेव य छन्त्रीसं जंबू० प० ११-८६ एमेव य पणुवीसं समय०६६ एमेव य पणुवीसं तिलो० ५० १-६४ एमेव य पणुवीसं तिलो० ५० ७-१३ | एमेव य ववहारो तिलो० ५० ७-३० | एमेव सत्तवीसं कम्मप० ११० जंवू० ५० १३-१३० लद्धिसा० २६ तिलो० ५० ४-१५ परम० प० २-१३६ सावय० दो०७२ पाहु० दो० १०२ समय० २१४ पंचसं०५-१०३ पंचस० ५-१२७ पंचसं०५-१६३ पचसं० ५-१४४ पंचसं०५-१४७ पचस० ५-१७२ पचसं०५-१३२. पचस०५-१५० समय०१११ मूला० ८६ समय० २२५ पंचसं० ५-१४२ पंचसं० ५-१७१ पंचसं० ५-१६१ जंवू०प० १२-१८ पचसं०४-२६७ पंचसं० ५-६० समय० ३२६ पंचस० ५-१०४ पचस०५-१८६ पंचसं०५-११२ पंचसं०५-११५ पंचस०५-११८ पचसं०५-१२५ पंचसं०५-१३६ पचसं०५-१६० पंचसं० ५-१०० पंचसं०५-११४ पंचसं०५-१८२ समय० ४८ पंचसं०५-१०२ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी एमेव सत्तवीसं एमेव सत्तवीसं एमेव सत्तवीसं एमेव सम्मदिट्ठी एमेव होइ तीसं + एमेव होड तीसं+ एमेव होइ तीसं एमेव होइ तीसं एमेव होइ तीसं - एमेव होई तीसं एमेव होइ तीसंएमेवूणत्तीसंx एमेवूणत्तीसं ४ एयह दव्वइँ देहिय एयक्ख अपन्जत्तं एयक्ख विग-तिगक्खे एयक्खरा दु उवरि एयक्ख-वियल-सयला एयक्खे चदु पाणा एयक्खे जे उत्ता एयक्खेत्तोगाढं एयक्खेत्तोगाढं पयग्गगदो समणो एयग्गेण मणंरुं-* एयग्गेण मणं रुं-* एयह तिएिण सुगणं एयद्विदिखंडुक्कीएय एउंसयवे एय एउंसयवेयं एयत्तपिच्छयगो एयत्तणेण अप्पे एयत्तभावणाए एयत्तु असंभूदं एयदरस्सुदएण य एयदरं च सुहासुहएयदवियम्मि जे अत्थएय दुय चदुर अट्ट य एयपएसिममुत्तो एयपदादो उवरिं एयपदेसे दव्वं पचसं०५-११६ |ण्यपदेसो वि अणू पंचस० ५-१७० | एयपयमक्खरं वा पंचस०५-१८४ | एयभत्तेण संजुत्ता समय० २२७ | एयम्मि गुणहाणे पंचस०४-२६७ एयम्मि भवे एदे पचस० ५-६० | एययरं वेयंति य पंचपं० ५-१२६ एयरसख्वगंध पंचसं० ५-१३१ एयरसवण्णगंधं पचसं० ५-१४५ एयवत्थु पहिलउ विदिउ पचसं० ५-१४६ एय-विय-कायजोगे पचसं० ५-१६६ ! एयसमएण विधुदि पंचस० ५-१२८ एयसरीरोगाहिय___ पंचसं० ५-१६५ | एयस्स अप्पणो को परम० प० २-२६ एयस्सा संजाए गो० क० ५३० एयहिं जुत्तउ लक्सहिं __ मावति० ७८ | एयं आयगयं जं गो० जी० ३३४ एयं च पच सत्त य तिलो० ५० ५-२७७ | एयं च सदसहस्सा कत्ति० अणु० १४० एयं च सयसहस्सा श्रास० ति० ३६ | एय च सयसहस्सा गो० क. १८५ | एयं च संतदित्तं पचसं ४-४८८ | एयं जिणेहि कहियं पवयणसा ३-३२ एयंतपक्खवायो मूला० ३१८ एयत बुद्धदरसी भ० श्रा० १७-८ एयंतमिच्छट्ठिी तिलो० प० ७०५१० | एयंतम्मि वसंता , लद्धिसा० ८५ | एयंतरोववासा , लद्धिसा० २४६ | एयंतवडूढिठाणा पचसं०३-१७ | एयंत-विणय-विवरियसमय०३ एयंतं पुण दव्वं अगप० ३-११ | एयंतं संसइयं म० श्रारा० २०० | एयंतासब्भूयं समय० २२ | एयं तु अविवरीदं भावसं० १९५ एयं तु जाणिऊणं पचस० ५-६८ | एयं तु दव्वछक्कं गो० जी०५८१ | एयंते हिरवेक्खे * जंबू० ५०३-१६६ | एयंते हिरवेक्खे * दव्वस० णय० १३५ एयंतो एयणयो गो० जी० ३३६ एयं पणकदि परणं + णयच० ५६ ] एय पणकदि परणं + दव्वसं० २६ भावसं० ६२७ चारि० भ०७ भाक्सं० १६६ कत्ति० अणु० ६५ पंचस० ५-१५६ णियमसा० २७ पस्थि० ८१ सावय० दो० १७ पंचस० ४-१०० भ० श्रारा० ७१८ गो० क. १८६ भ० श्रारा० १५२४ वसु० सा० ३७२ परम० ५० १-२५ श्राय० ति०८-२१ णाणसा०२२ जबू०प०११-११५ जवू०प०६-१२७ जवू०प०१०-३० थाय० ति० २३-१० मोक्खपा० ८५ सम्मइ० ३-१६ गो० जी० १६ भावस० ६३ मूला० ७६० चसु० सा० ३७६ गो० क० २२२ चा० अणु० ४८ कत्ति० अणु० २२६ दसणसा०५ सम्मइ०३-५६ समय० १८३ समय० ३८२ भावस० ३१६ गयच० ७६ दवस० णय. २६८ दवस० गय० १८० कम्मप० १४० गो० क. १४४ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची एयं वा पपकाये एयं सत्य सव्वं एयाइणा अविहला एया वयाइँ परो एयाए भावपाए एयागो देवाश्री एयारणमवत्थाणं एयाण सम्मुहो जो एयाणं आयाण एयाण आयाणं एयाएं पि हु मज्झे एयाणेयक्खेत्तट्टिएयारपेयभनगदं एया(आ)णेयभवगर्य:एयाणेयवियप्पप्पएयादसेमु पढमं एयादीया गणणा एया पडिया बीयाएया य कोडिकोडी एया य कोडिकोडी श्यार-जीवठाणे एयारद्वृत्तीसा एयारसट्ठ णव णव एयारस-ठाण-ठिया। एयारस-ठाणाई एयारस-दस-भेर्य एयारसम्मि ठाणे एयारसंगधारी एयारसंगधारी एयारसंगपयकयएयारसंगसुदसाएयारसुदसमुद्दे एयारसेसु तिएिण य एयारहविहु तं कहिउ एयारंगपयाणि य एयारंसोसरणे एया वि सा समत्था एरावणमारूढो एरावणो त्ति सामे- एरावदखिदिणिग्गद- गो० क० ३०१ एरावटमणिकंचए- तिनी सा० ४२६ तिलो. मा० ५५६ एरावदाम्म उदश्रा तिलो० ५०४-४४२ मूला० ०६७ एगबदविनयोदिद- तिलो० ५० ५-२१७२ घम्मर० १५७ एरिस-उट्टिय परि- वसु० सा०७४ भ० श्रारा० २०४ । एरिसगुणअजयंx भावसं० २५४ जंवू. ५० ४-२६५ एरिसगुण अजय x वसु० सा०५६ प्राय० ति० ३-१० परिमगणेहिं मन्वं बोधपा० ३६ आय० ति० ४-१४ एरिसपत्ताम्म वरे मावस०११२ प्रायः ति० १-३६ / ए रसभेदभासे णियममा० ६२ आय. ति० १-३२ एग्मियभावणाए णियमसा००६ पाय. ति० १६-२३ एला-तमाल-चंदण- जंबू०प०२-७८ गो० क० १८७ एला-तमाल-वल्ली- तिलो० ५०४-१६४१ भ० श्राग० १७१३ एला मरीचि-णिवहो जंवू०प०४-७ मूला० ४०१ एलायरियस्स दिणाण छेदपिं० २५१ करताणा० ३८ एव मए सुदपवरा सुदम० " वसु० सा० ३१४ एवमहमीदितिदए गो० क० ७०६ तिलो. सा. १६ एवमणतं ठाणं तिलो० सा०॥ वसु० सा० ३६८ एवमणुद्धददोमो भ० भारा०५३० मूला० २२५ । एवमधक्खादविधि भ० धारा १६२६ गो० जी० ११६ एवमधक्खादविधि भ० थारा० २०६१ पंचसं०५-२५५ एवमबंधे बंधे गो० क० ६४४ जंब० प० ११-४० एवमभिगम्म जीवं पंचत्यि० १२३ जबू० प० ३-३६ एवमलिये अदक्ते समय०२६३ वसु० सा० २२३ एवमवलायमाणो भ० आरा० २३५ वसु० सा०५ एवमवि दुल्लहपरं म. पारा० ४३२ । था. अणु० ६८ | एवमसेसं खेत्तं तिलो० ५० १-१४७ वसु० सा० ३०१ एवमिगवीसकक्की तिलो. १० -१५३२ भावस० १२२ | एवमिह जो दु जीवो समय० ११४ वसु० सा० ४७६ / एवमेव गो कालो कल्लाणा०५१ अंगप०१-७७ एव हि लक्खण-लक्खियउ जोगसा० १०६ जोगिभ०८ | एवं अट्ठ वि जामे म० श्रारा० २०५३ अंगप० ७५ एवं अट्टवियप्पा तिलो. प०१-२५० पंचसं० ४-२० एवं अणंतखुत्तो तिलो० ५०४-६१८ सावय० दो०६ एवं अणाइकाल कत्ति० अणु० ७२ अंगप० ५-७० एवं अणाडकाले धम्मर०६४ तिलो० सा० ६१६ । एवं अणेयमेयं तिलो० ५० १-२६ भ. श्रारा०७४६ एवं अधियासेतो भ० प्रारा० १६३ तिलो० ५० ५-४८ एवं अवसेसाणं तिलो० ५०४-२६ जंब० ५० ११-२८६ एवं अवसेसाणं जंब० प० १-४५ तिलो० ५० ४-२४७४ । एवं भवसेसाणं जंबू०प०३-१४४ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी ६१ एवं अवसेसाणं एव असखलोगा एवं आउच्छित्ता एवं प्रारच्छित्ता एवं आएणफुर्ड एवं आगतूणं एवं आदित्तस्स वि एवं आदिममझिमएवं आपुच्छित्ता एवं प्रायत्तणगुणएवं आराधित्ता एव आराहितो एवं आसुक्कारे एवं इहई पयहिय एवं इंगिणिमरण एवं उग्गम-उप्पाएवं उत्तमभवणा एवं उवरि वि णेश्रो एवं उवरि णवपरणएवं उबसग्गविधि एवं उवसम मिस्सं एवं एगे आयाएवं एदं सव्वं एवं एदे अत्थे एवं एसा आराधरणाएवं एमो कालो एवं एसो कालो एवं कए मए पुण एवं कच्छा विजओ एवं कत्ता भोत्ता एवं कदकरणिज्जो एवं कदपरियम्मो एवं कदे णिसग्गे एवं कमेण भरहे एवं कमेण चंदा एवं कमायजुद्धम्मि एवं काउण तो एवं काऊरण तवं एवं काऊण रवो एवं काऊण वसं जंवू० ५० ३-२२० एव काऊण विहिं गो० जी० ३३१ / एवं कालगदरस दु भ० श्रारा० ३८४ एवं कालसमुद्दो भ. श्रारा० १५०६ एव किरियाणाणाश्राय० ति० १७-३ एव केई गिहिवाजबू० ५० ५-११२ एव खवो फवचेजवू० प० १२-११ एवं खवो सथातिलो०प०७-१७ एवं खिगितीसे ण हि मूला० १४७ एव खु वोसरित्ता बोधपा० २६ एवं गमणागमणं भ० धारा०२१६० एवगुणजुत्ताणं कल्लाणा० ५४ एवगुणवदिरित्तो भ० श्रारा० २०२५ एवंगुणसंजुत्ता भ० श्रारा० २०६२ एवगुणो महत्थो भ० श्रारा०२५३२ एवंगुणो हु अप्पा भ० श्रारा० २४५ एवं चउत्थठाणं जबू० प० ४-६८ एवं चज्दादीणं गो० जी० १११ एवं चउबिहेसुं थास. ति० ३४ । एवं चउसु दिमासुं भ० आरा० २०५० एवं च णिकमित्ता दव्वस० णय० ३१७ | एवं चत्तारि दिणा सम्मइ०१-४६ एवं चदुरो चदुरो श्रारा० १६०२ एवं चरित्तणाणं । भ० पारा० १०६८ एवं चरियविहाणं भ० श्रारा० २१६३ एवं चलपडिमाए जबू० ५० १३-१५ एवं च सयसहस्सं तिलो० प० ४-३०६ एव च सयसहस्सा पचसं० १-१७५ एवं च सयसहस्मा तिलो० ५० ४-२२६० एवं चिय अवसेसे पचस्थि०६१ एवं चिय णाऊण य भ० श्रारा० ११८१ एवं चिय परछाया भ० श्रारा० २७० एवं चेटुं तस्स वि भ० श्रारा० ५१२ | एवं चेव दुणेया तिलो. प०४-१५४६ एवं छन्भेयमिद जबू० प० १२-३३ | एव छह अहियारा म० श्रारा० १८६२ | एवं छायापुरिसो वसु० सा० ४०७ एव छिंदण-भिंदणवसु० सा० ५१४ | एवं जं जं पस्सदि वसु० सा० ४११ | एवं जंतुद्धारं जंबू० प०७-१२१ । एव जं संसरणं वसु० सा० ३६७ भ० श्रारा० १९६६ तिलो०५० २७४० अंगपं० २-१७ म० श्रारा० १३२५ म. श्रारा० १६८२ भ० श्रारा० १४८६ गो० ० ७६७ भ० आरा० ५५१ प्रायः ति० १३-१ मूला० ५१३ मुला० १८५ गो० जी० ६१० मूला० ६८० श्रारा० सा०८२ वसु० सा० २६४ तिलो०प०८-28 तिलो०प०८-१०८ तिलो० ५०८-६८ भ० श्रारा० २०३५ वसु०सा० ४२३ म० श्रारा० ६७२ वसु० सा० ४४६ मूला० ८८८ वसु० सा० ४४३ जबू०प०५-४७ जंबू० ५०३-१२५ जबु०प०७-४ तिलो० ५० १-१४६ चारित्तपा० ६ रिस०६५ भ० श्रारा० ११४१ जबू० प०४-४३ दव्वसं० २३ सुदख० ८५ रिट्ठस० १०७ जंबू०प० ११-१७५ भ० श्रारा० ८५५ भावमं० ४५४ कत्ति० अणु० ३३ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची एवं जाणइ णाणी एवं जाणदि णाणं एक जाणतेण वि एवं जाणंतो वि हु एवं जिणपएणतं एवं निणपएणत्तं एवं जिणपएणत्ते एवं जिणा जिणिंदा एवं जिणाणंतरालं एवं जीवदळ एवं जीवविभागा एक जे जिणभवणा एवं जेत्तियदिवसा एवं जेत्तियमेत्ता एवं जो जाणित्ता एवं जो णिच्चयदो एवं जोदिसपडलं एवं जो महिलाए एवं जोयणलक्खं एवं ण को वि मोक्खो एवं णरयगईए एवं णाऊण फलं एवं णाऊण फुड एक रणाऊरण फुडं एवं गाऊपणा फुडं एवं णाऊरण फुडं एवणाऊण सया एवं णागाणीया एन णाणप्पाणं + एवं णाणप्पाणं + एवं णाणी सुद्धो एवं णादूण तवं एवं णिप्पडियम्म एवं णियडाणियडं एवं णिरुद्धतरयं एवं एहवणं काऊएवं तइ उगुतीसं एवं तइ उगुतीसं एवं तं सालंवं एवं तिदियं ठाणं समय० १०५ एवं तिसु उपसमगे बा० अणु०८६ | एवं तु जीवदव्वं भ. श्रारा० ५२६ एवं तुझ उवएकत्ति० अणु० ६३ / एवं तु णिच्छयणयस्स मोक्खपा० १०६ एवं तु भद्दसाले दसणपा० २१ । एवं तु भावसल्लं सम्मइ० २-३२ एवं तु महड्ढीओ पवयणसा०२-१०७ एवं तुरयाणीया तिलो० ५० ४-५७७ एवं तु समुग्घादे सम्मइ० २-४१ | एवं तु सारसमये मूला० २२६ एवं तु सुकयतवसंजबू०प० ४-६२ एवं ते कप्पदुमा छेदपिं० २५२ | एवं ते देवगणा तिलो. प० ५-११६ । एवं ते देववरा कत्ति० अणु० २० | एवं ते होति तदो कत्ति० अणु० ३२३ एवं थिरंतिमाए जबू० प० १२-१२ एवं थुणिजमाणो भ० श्रारा० ११०६ एवं थोऊण जिणं तिलो० ५० १७६० एवं दक्खिण-पच्छिम समय० ३२३ एवं दव्वे खेत्ते धम्मर०७३ एवं दसविधपायच्छित्तं वसु० सा० ३५० एवं दसविधसमये भावसं० १६१ एवं दह(स)छेया वि य भावस० ५७७ एवं दंसणजुत्तो श्राय० ति०१-४७ एवं दसणमाराआय० ति० ५-६ एवं दंसणसावय भावस० ६०६ एवं दीवसमुद्दा जंबू० प०४-२०७ एवं दुगुणा दुगुणा पवयणसा० २-१०० एवं दुगुणा दुगुणा तिलो० ५० ६-३३ एवं दुविहो कप्पो समय०२७८ एवं दुस्समकाले भ० श्रारा० १४७४ एवं धम्मज्माणं भ० श्रारा० २०६६ एवं पइएणयाणि य रिट्ठस० १२१ एवं पउमदहादो भ० श्रारा० २०२१ एवं पएसपसरणवसु० सा० ४२४ एवं पडिकमणाए पंचस०४-२६० एवं पडिटुवित्ता पंचसं०५-८३ एवं पणछब्बीसे भावस० ३८० एवं पणमिय सिद्धे वसु० मा० २७६ । एवं पएणरसविहा गो० क० ३८५ मूला०६७४ भ० भारा० १४८५ समय० ३६० जंवू०प०५-७२ भ० श्रारा० ४६६ जंबू० ५० ११-२६६ जबू०प०४-१८८ गो० जी० ५४६ •मूला० ११८४ जबू०प० ११-३०३ ‘जबू० प०२-१३५ जंब०प०४-२७६ जंब० ५० ११-३२५ जंब० ५० १३-७६ श्राय० ति० २४-५ वसु० सा०५०१ जब० ५० ५-११६ तिलो० ५० ५-७५ कसायपा०५८ छेदपिं० २८ छेदपि १७५ अंगप० ३-३८ दव्वस० णय० ३२३ भ० श्रारा० ४८ वसु० सा० २०५ मूला० १०७६ जंव०प०३-१०४ जंब० प०११-२७६ भावसं० १३२ तिलो०प०४-१५१८ भावसं० ६३६ अगपं० ३-३६ तिलो०प०४-२१० वसु० सा० ५३२ भ० भारा० ७१६ भ० धारा० १९६६ गो० क० ७०० पवयणसा० ३-" तिलो०५०२-५ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए एवं पह-चसे एवं पचविसेस एवं पचविले एवं पचविसेसं एवं पवयरणसारसु एवं पवयसारं एवं पंचतिरिक्खे एवं पंचपयारं एव पंचपयारं एवं पंडिद पंडिदएवं पंडिय मरणं एवं पायच्छि एवं पायविहाणं एवं पि श्रणिऊ एवं पि कीरमाणो एपिच्छतो विहु एवं पिद्धसंवर एवं पुग्गलदव्च एवं पुब्वदिसाएएवं पूजेऊ एवं पेच्छतो विहु ज० ए० २-५४६ एवं भावा भरहस्स खेचे तिलो० प० ४ - ६४० एवं प्रमत्तमियर ल दिसा० २१७ एवं पराणि दव्याएवं परिजगदुक्खे एवं परिमग्गित्ता एवं परिहारे मणएवं पा जादा एवं पल्ला जाटा # ए पल्ला संख एवं परिणा एवं बहुप्पयारं एवं बहुप्पयारं एव बहुप्पयारं एवं बहुपया रं एवं बहुप्पयारं एवं बहुप्पमारं प्राकृत ग्यानुक्रमणी एव बहुप्पयार एवं बहुप्पयारं एव बहुविदुक्ख एवं बहुविहरयणप्पभावसं ० ५५६ | एवं बंधो उ (दु) दुहरि चसु० सर० २७० प्राय० ति० १६-१२ समय ० ६६ भ० आर० ६३० भ० श्रारा० २०८ भावति० १०१ हिसा० २३० लद्धिसा० ४३७ लद्धिसा० ३३५ तिलो० ए० ८-३५४ एव चारसकप्पा एवं चारसभेयं एवं बाहिरव एव वितिचरिदियएव विदियस लागे एव बोली एवं भांति के ई एवं भांति केई एव भगत कई एव भरिए घिचू भ० धारा० ६२८ पचव्यि० १०३ गो० क० ३४७ कत्ति० गु० ३४६ भावसं० १६५ भ० श्राग० २१५६ भ० श्रारा० २०७७ छेद०६३ प्रा० ति० २-३४ | जबू० प० १२-८० भ० थारा० १५०० त्रमु० सा० ११० भ० श्रारा० १८२५ एव भावमभाव एव भावेमाणो एव भेओ होई एव भेदभा एव भोगजतिरिये एवं भोगत्थी वसु० सा० ७६ वसु० सा० २०० चसु० सा० २०३ | सु० सा० ३१८ तिलो० प० २-३५४ एवं मए अभिदा एव मए अभिया एवं मए अभिया एवं मट्टियजलपरिएवं मरणुयगदीए एवं महाघराणं एवं महाणुभावा एवं महापुराणं एवं महारहाणं समय० ६४ एवं मारणादितिए जबू० १० १-१७ | एवं मारणादितिए जंबू० प०५-११८ एवं मिच्छादिट्ठीकत्ति० श्रणु० २७ । एवं मिच्छादिट्ठी कत्ति० श्रणु० ४४ एवं मिच्छादिट्ठी मूला० ७१० एवं मित्ततविणासीलपा० ३३ | एवं मुणिए गभे मूला० ७३७ एवं मूढमदीया एवं मेलविदे पुण एवं रयण काउएवं रयणादीरां एवं रविसंजोश्रो एव रासिसरो चिय ६३ तिलो० प०२-२० समय० ३१३ तिलो० प०८-१२१ चसु० सा०३७३ कति० श्र० ८‍ छेद ३६ तिलो० सा० ४१ तिलो० ४- १५६४ भावसं० ३६ भावस० २३५ भावसं० २४१ चसु० सा० १४७ पॅच स्थि० २१ भ० घ्यारा० २०५ चसु० सा० ३११ शियमसा० १०६ भावति० ५६ भावति० ६६ मूला० ८६१ थोस्सा ० ६ जोगिभ० २३ छेदपिं० २६७ कत्ति ० ० ५५ जंबू० प०३-१३६ भ० श्राख० ६७० तिलो० प० ४-१६६८ जबू० प० ४-१७७ गो० क० ३२३ भावति० ६३ भावसं ० ० १६४ समय ० २४१ तिलो० प०४-३६६ तिलो० प०८-१०२ श्राय० ति० ११-५ भ० श्रारा० १६५७ जबू० प० १२-५२ वसु० सा० ४०१ तिलो० प०२-२७० आय० ति० ४-१६ रिट्ठस० २३६ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची एवं स्ववईओ जबू०प०४-२६३ एवं सदि परिणामो एवं लोयसहावं कत्ति० अणु० २८३ एवं सदो विणासो एवं वदृतार्ण भावस० १४५ एवं सदो विणासो एवं वरपंचगुरू तिलो० ५० ५-६ एवं सम्म सहरसएव ववहारणी समय० २७२ | एवं सम्माइट्ठी एवं ववहारस्स उ समय० ३५३ एवं सम्मादिट्ठी एवं ववहारस्स दु समय० ३६५ एक सयंभुरमणं - एवं वस्ससहस्से तिलो० प० ४-१५१४ एवं मरीरसल्लेएवं वासारत्ते भ० श्रारा० ६३१ एवं सत्तागभरणे एवं विउला बुद्धी पंचस०१-१६२ एवं सलागरासि एवं विचारयित्वा भ० श्रारा० १५६ एवं सव्वत्थेसु कि एवं विदिउगतीसं पंचसं०४-२६६ एव सव्वपहेसं एवं विदिउगतीसं * पचस०५-१२ एवं सव्वपहेसुं एवं विदिदत्थो जो पवयणसा० १-७८ एवंविधाणचरियं मूला० १०१५ एवं सव्वे देहम्मि एवंविधिणुववरण मूला० १६६ एनंमहिनो मुणिवरएवं विवाहकब्जे आय. ति० १२-५ | एवं संखुवएस एवं विविहणएहि कत्ति० अगु० २७८ एवं संखेज्जेसु टिएवं विसग्गिभूदं म० श्रारा०८८१ | एवं संखेवेण य एनविहपरिवारो तिलो० प० ६-७७ । एवं संखेवेणं एवंविहरूवाणि तिलो०प०६-२० एवं संखेवेणं एनविहरोगेहि य रिट्ठस. ८ एवं संखेवेणं एवंविहसंकमणं लद्धिसा० ७६ / एवं संखेयेणं एविहं कहाणं अंगप०६७ एव संजमरासि एवंविहं तु भणि रिट्ठस० ६७ / एवं संथारगदस्स एनविहं पि देखें कत्ति० अणु ८६ एवं संथारगदो एवंविहं सहावे पवयणसा०२-१६ | एव सामएणेसुं एवंविहाणचरियं मूला० १६६ / एवं सामाचारो एवंविहाणजुत्ते मूला० ३६ / एवं सारिजंतों एवंविहा बहुविहा समय० ४३ एनं सावयधम्म एविहा य सद्दा रिहस० १८८ एन सा वि य पुण्णा एवंविहिणा जुत्त भावस० १२६ एवं सिय परिणामी एवविहु जो जिणु महइ सावय० दो० १८० एवं सीलगुणाणं एवं वेदड्ढेसु य जबू० प०२-७३ एवं सुट्ट असारे एवं सगसगविजया- तिलो०प०४-२८०५ | एवं सुभाविदप्पा एवं सच्छंददिट्ठीणं अंगप० २-२६ एवं सुभाविदप्पा तिलो०प०२-२१५ एवं सत्तखिदीणं एवं सत्तट्ठाण गो० क० ३६५ एवं सेसपहेसु एवं सत्त वि कच्छा जंबू० प० ४-२३८ । एवं सेसिदियदंएवं सत्तवियप्पो सम्मह० १-४१ / एवं सोमण तो भ० श्रारा० १६१ पंचत्यि०१३ पंचत्यि०२४ म० श्रारा० ११११ समय०२०० समय० २४६ तिलो० ५० ५--३३ भ० श्रारा० २५६ तिलो० सा०.३३ तिलो. सा०,४० भ० आरा० १६६५ तिलो०प०७-११६ तिलो. ५०७-४५२ तिलो०प०८-२७२ भ० श्रारा० १०३७ लिंगपा०१६ समय० ३४० लद्विसा० २५५ चारित्तपा०४३ तिलो०प०४-१६३४ तिलो० प०४-१९८५ तिलो०प०४-१९६८ . तिलो० प०४-२७१४ मूला० ८६० भ० श्रारा० १४६३ भ० श्रारा० १६४६ तिलो. प०४-२६१० मूला० १६७ भ० श्रारा० १५०८ चारित्तपा० २६ तिलो. सा०३४ दवस. णय०१४ मूला० १०४१ कत्ति० अणु० ६२ म. पारा० १६२४ भ० श्रारा० १६६१ तिलो. सा० ८४४ तिलो. प०७-३६५ सम्मइ०२-२४ वसु० सा० १४५ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + श्रो एवं सो गज्जतो एवं सोमणसवणे एवं सोलस भेदा एवं सोलस भेदा एवं सोलस संखा " एवं सोलससंखे एवं हि जीवराया एवं हि रूवं पडिम जिणस्स एवं हि सावराहो एवं होदिति पु एत्र होदिपमा एस अखडियसला एस उवा कम्माएकमात्र एस करेमि परणाम एसरणक्खिवादा-एसणिक्खेवादा + एस बलभद्दकूडो एस म भेदा एस सुरासुरमसिंट- x एम सुरासुरमर सिंह- X एसा गणधरथेरा एसा दुजा मदी दे एसा दुरियसंखा एसा पत्थभूटा प्राकृतपद्यानुक्रमणी | तिलो० प०४-१४ एसोचि पुण चंदो सो त थ कोई एसो दहप्पयारो एसो दुधसामित्ततिलो० प० ४-२७४४ एसो दु वाहिरतवो तिलो० प० ४ - ५ | एसो पञ्चखाओ समय० १८ एसो पमत्तविर तिलो०प०४-१६२ एसो पयडीबंधो एमा भत्तपइरणा एसेव लोयपाला एसो खरलंभो एसो अज्जानं पि सोया एसो अवंदणिज्जो एमो श्रपयारो सो पारो एसो उक्करसाऊ एसो मोच को एसो कमोच मा सोमो दु एमो चरणाचारो वसु० सा० ७५ जंबू० प० ४ - १२३ तिलो० प०४ - २५२८ समय ० ३०३ | एसो पंचरण मोयारो जंवृ० प० १२ - ६१ | एसो पुव्त्राहिमुहो तिलो० प० ७-३०६ भ० प्रा० ३७५ एसो बंधसमासो एसो बंधसमासो एसो बारसभे भ० श्रारा० १४४६ | एसा छव्हिपूजा एसा जिदिपडिमा जिरणाणं तिलो० प०४-१६६ वसु० सा० ३६१ मूला० १०८ | मूला० ३३७ भ० श्र० १२०६ | तिलो० प० ४ - १९७८ एसो मम होउ गुरू एमो य चंदजोश्रो एसो सम्मामिच्छो एसो सव्वसमासो एसो सन्चो भेश्रो एह त्रिहूइ जिणेसर हॅ तिलो० प० ६-७५ | ए (इ) हु वरुघरिणी एहु सहि पासो परमापा मुजोर वसु० सा० ४७८ एहु ववहरे जीवडउ तिलो० प० ४-४६२ पवयणसा० १-१ हु जो भ० आर० २६० समय० २५६ जवृ० प० ११-१४४ पवयणसा० ३-५४ |श्रोक्करणकर पुण भ० श्रारा० २०२६ | ओकडूदि जे असे जंबू ० ० ४ - २४६ | श्रोक्कटि जे असे आय० ति० २१ - १२ श्रगाढगाठणिचिदो मूला० १८० भावस० २६४ छेदपि ० २७६ श्रा० ति० १४ - ११ श्राय० ति० १७-७ तिलो० प० ८-४५६ तसे थावरकसायपा० १७४(१२१) श्रोध देवे रण हि गिरकसायपा० ८० (२७) श्रोध पचखतसे जंबू० प० १२-४५ ओघं वा रडये मूला० २४४ | श्रवादेसे सभत्र ओ गाढगाढणिचिदो गाढगाढणिचि श्राय० ति० १६-१८ पवयणसा० २-२४ कत्ति० श्रणु० ४०४ पंचस० ५-४७८ श्रगाढो वज्जमो श्रोगाहरणाणि तारण कम्मे सरगदि ६५ मूला० ३५६ मूला० ६३५ भावसं० ६१३ भावसं ० ० ३४० मूला० २१४ तिलो० प० ४-१८५ पचयणसा० २-६७ पंचस० ४-२१४ कत्ति० प्रणु० ४८६ दसणसा० ४२ श्राय० ति० १६-१३ भावसं० २५८ भ० श्रारा० ३७४ तिलो० सा० म सावय० दो० १७६ सुप्प ० दो० ७६ परम० प०२-१७४ सावय० दो० ७६ परम० प० १-६० गो० क० ४४५ क्सायपा० २२१(१६८) कसायपा० १५४ (१०१ ) भ० श्रारा० १८२४ पवयणसा० २-७६ पचत्थि ० ६४ जवृ० प०४-२० गो० जी० २४६ गो० क० ३१८ गो० क० ३१० गो० क० ३४८ गो० क० ३४६ गो० क० ३४६ गो० क० ८०० Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 દ૬ धियसामाचारो ओघे आदेसे वा श्रघे चोदसठाणे श्रघेणालो चेदि हु श्रोघे मिच्छदुगे विय श्रघे वा आदे जस्सी तेजस्सी श्रदइए थी संढं खलु भावो श्रदइया चक्खुदुगं श्रदइया भावा पुण द उसमित्रो श्रदयियं उवसमियं दरिया पुरा भावा दरकोप दरको पढ पुरिसपढमे दरमापढ दरमाणप दरबार पढ दरमायाप दरम दरहुमादी श्रदरहुमादी दो श्रोमोदरिए घोरा दुगे वज्जे ओरालमिस्सकम्मइयराल मिस-कम्मे ओराल मिस्स कम्मे रालमिस्स-कम्मे श्ररालमिस्सजोए ओरालमिस्साजोगं ओरालमिस्साजोगे ओराल मिस्स तसवहराल मिस्स सारणे ओरालं तम्मिस्सं रालं तम्मिस्सं ओराल दंडदुगे श्ररालं पज्जत्ते ओराल वा मिस्से पुरातन जैनवाक्य सूची मूला० १२६ | ओरालाहारदुए गो० जी० ७२६ गो० जी० ७०६ भ० श्रारा० ५३४ ओरालिए य तेरस लिओ देहो ओरालि आहार ओरालिय उज्जोवं ओरालिय उत्तत्थं भ० श्रारा० ४७८ ओरालिय तम्मिस्सं ओरालियमस्सं वा भावति० ६७ भावति० २७ | श्रोरालियवेगुब्वियभावति० ३४ | श्रोरालियवेगुब्वियभावति० ६८ श्रगलियवेगुब्वियदव्यस० य० ७५ | ओरालियवेगुब्वियद्रव्वस० णय० ३६७ ओरालियवरसचं गो० क० ८१८ | ओरालियंगवंगं :लद्धिसा० ३१८ | ओरालिय गांगं x लद्धिमा० ३११ ओरालियगवंगं ** द्धिसा० ३२० | ओरालियगवंगं x नद्धिसा० ३१६ ओरालियंगवंग लद्धिसा० ३१७ | ओरालिये सरीरे लद्धिसा० ३१३ | ओराले वा मिस्से लद्धिसा० ३१४ | ओलगसालापुरदो दिसा० ३१५ | अलगमतभूसणदिसा० ३१० प्रोल्लं सत वत्थं लद्धिसा० ३४१ श्रोट्टणमुचवट्टण भ० प्रा० १५०४ | श्रवट्टरणा जहरणा गो० क० ४२५ ओवट्टेटि ठिदिं पुण सिद्धत० ६१ ओसरणा सेवरणाओ पचसं० ४ - ११ | श्रोसहरणयरी तह पुडपचसं० ४-५६ | श्रसहाणेण परो पचसं० ५-१६५ साय हिमग महिगा पचस० ४-३५७ | श्रमाय हिमय महिया पत्रस० ४- १७४ | ओहिट्ठाणं चरिमे गो० क० ३५३ | हिट्ठाणं जंबूगो० क० ७६० (क्षे० ४) हिदुगे बधतिय श्रास० ति० ४० | हिमरणपज्जवाणं श्रास० ति० ४६ | श्रोहिमणपज्जवाणं श्रास० ति० = | ओहिरहिदा तिरिक्खा गो० क० ५८७ | ओहि पि विजारांतो गो० जी० ६७६ ओही- केवल दसरणभावति० ८१ हीदंसे केवल गो० जी० ७०७ गो० क० १०५ | श्रो पंचस ४-४३ सिद्धत० १४ पवयासा० २-७६ पंचसं० ४-८१ पंचमं० ४-४६६ गो० जी० २३० सिनंत० २६ गो० जी० ६८३ गो० जी० २४३ कम्मप० ६८ गो० क० ८१ कम्मप० ७३ गो० जी० २५५ पंचस० ४-२६१ पंचसं० ४ -२७६ पंचस ५-५८ पचसं० ५-७२ पचस० ५-१२६ कसायपा० १ (१३५) गो० क० ११६ तिलो० प०३-१३ तिलो० प० ४-८१ भ० श्रारा० २११३ कसायपा० १६१ (१०८) कसायपा० १५२ (६६ ) कमायपा० १५८ (१०) भ० श्रारा० १३६४ तिलो० प० ४-२२६२ भावसं० ४६६ मूला० २१० पंचसं० १७८ तिलो० ० सा० १४६ श्रगप० १-३२ गो० क० ७३० तिलो० प० ४-६६७ गो० क० ७१ गो० जी० ४६१ तिलो० प०३-२३४ गो० क० ७३ पचसं० ४-३४ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ प्राकृतपद्यानुक्रमणी क कउलायरिओ अस्पद भास. १७२ | फट्टगिमहीये इय श्रायः ति० १८-११ शकुदखुरसिंगलंगुल- जवृ० ५०३-१०७ | कट्टादिवियडिचालण छेदम० ४४ ककडमयरे सव्वन्भतिलो सा०३८० | कट्टो वि मूलमंघो ढाढमी० १५ फकस-बयणं णिठुर- भ० पारा० ८३० फडयफडिसुत्तकुंडल- जय० ५० १३-१२५ पकि-सुदो अजिदजय निलो० प०४-१४१२ फडयकडिसुत्तणेउर तिलो०प०४-३६३ फकी पडि एकेक तिलो० प०४-१५१५ फडिओ अमित्तरित्तो श्राय० ति० ६-४ कन्व-गाईणं घाई श्रायः ति० ६-१२ कडिओढ़ेस खरो वि य श्रायः ति०८-१४ कमोल-कलस-थाला- वसु० मा० २५५ काहि-सिर-णामा-हीणा रिट्ठस०६० कच्छपमाणं विरलिय जंवृ० प०४-२०० फडिसिरविसुद्वसेस जय० प० ४-३२ यच्छम्मि महामेघा तिलो. ५० ४-०२४६ फडिमिरविमुद्धसेसं जबू० ५० ४-१३३ कच्छावजयम्मि विविहा तिलो० ५० ४-०२४४ कडिसिरविससअद्ध जबू०प०४-३८ कच्छम्स य बहुमज्झ तिलो. ५० ४-२०४५ | कडिसुत्त-क्डय-कच्छा(कठा)- जवृ० ५०८-१६ कच्छ खेत्तं वसहि दसरासा००७ फडिसुत्त-काडय-बंधी- जब० ५० ११-१३३ फच्छाए कन्छाए जंव प०४-... पडुअमएण्ड महरं भावसं० १४ कच्छाखडाग नहा जबू०प०७-७३ कदुगम्मि अणिबलिदम्मि भ० श्रारा० ७३३ कन्चारणं पुव्वाण जवृ० प०८-२ फडु तित्त च कसाय रिट्टस० २४ कन्छादिप्पमुहाण तिलो. प०४-०६६१ कड्ढ मरिजलुजलहि विपिल्लिउ पाहु०दो०१६७ कच्छादिप्पहुढीण तिलो० ५०४-२८७४ कणप्रो कणयप्पह फग्ग- तिलो० ५० ४-१५६८ कच्छादिसु विजयाण तिलो ०५० ४-२७०९ कणय कण्याह पुण्णा तिलो० सा० ६६४ कच्छादिमु विजयाण : तिलो० ५० ४-२८७५ कणगिरीणं ज्वरि तिलो० ५०४-२०१६ कच्छादिसु विजयाण :- सिलो० ५० ५-२६१० करणद्दिचूलिउवरि तिलो० प० ८-८ कच्छादिसु विसयाणं .. तिलो० ५० ४-२६६० कणयद्दिचूलि-उवरि तिलो. प०-१२६ कच्छाविजयम्न जहा जवृ० प० ७-७१ फणयधराधरधीर तिलो. प०१-५१ फच्छा सुकच्छा महाकच्छा तिलो०५०४-२२०४ तिलो प०४-२२६७ कन्छा मुकच्छा महाकच्छार तिलो० मा० ६८७ कन्छ-जर-खास-मोमो भ० पारा० १५४२ कगण्यमयकुडविरचिट- तिलो० ५० ५-२३५ करणयमयचारुदडा जब प० १३-११६ कच्छ (त्त)रिकरकचमूजी(ची) तिलो०प०२-३४२ कच्छ कंडुयमाणो म० श्रारा० १२५२ कण्यमयवेणिवहा ___ जब प० ६-३० मन्जल कज्जलपह मिरि- तिलो० मा० ६०१ कणयमयवेदिणिवहो जव० ५० ६-६६ फज्ज अप्पज्माणं ढाढसी०१८ कणयमयवेदिणिवहो जब० प०६-११६ कज्ज किं पि ण साहदि कत्ति अगु० ३४३ कणयमया पासादा जब० ५० ५-५६ कज दवस. णय. ३०६ करण्यमया पामादा जंय. प. ५-६० कज्ज सयलसमत्थ दवस० गय० १६८ कण्यमया पासादा जब प०६-६० कन्जाभावेण पुणो भ० श्रारा० २१३८ । कणयमया फलिहमया तिलो० ५०८-२०६ कज्जेण मुणह दव श्राय. ति० १८-३ कणयमया भावादो समय० १३० फज्जेसु थिरेनु थिरा प्रायः ति० २३-५ । कणयमिव णिरुवलेवा मुला० १०५१ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची कणयलदा णागलदा मूला० ८६ / कदकफलजुदजलं वा * पंचस. १-२४ कणयन्वणिरुबलेवा तिलो० प०३-१२५ कदकरणसम्मखवणणि लद्धिसा० १५४ । कणयव्वणिरुवलेवा तिलो० ५० ४-३८ कदकारिदाणुमोदण णियमसा०६६ कणयं कंचणकूडं तिलो० ५० ५-१४५ कदजोगदाददमणं भ० श्रारा० २४० करणयं कंचण तवणं तिलो० सा० ६४८ | कदपावो वि मणुस्सो भ० श्रारा० ६१५ कणयादवत्तचामर- जंब० प० ४-१७३ कदलीघादसमे गो० क०५८ करणयादिचित्त सोदा- तिलो. सा. १५८ कदलीघादेण विणा तिलो० प०२-३५३ कणवीरमल्लियाहिं यसु० सा० ४३२ | कदि आवलियं पवेसेइ कसायपा० ११(६) करणकुमारीण घरा जब० प० ४-१०५ | कदि श्रोणदं कदि सिरं मूला० ५७७ करणं विधवं अंते मूला० १८२ कदि कम्मि होति ठाणा कसायपा०४७ करणाघोसे सत्त य रिस० ३८ कदि पयडीओ बंर्धाद कसायपा० २३(५) करणारयणेहि तहा जंब० प०७-१४४ कदि बंधतो वेददि पंचस०५-३ करणाविवाहमादि जंबू०प०१०-७७ कदि भागुवसामिजदि कसायपा० ११३(६०) करणेसु करणगूधो भ० श्रारा० १०४० कदिसु च अणुभागेसु च क्मायपा० १६६(१९३) करणोहसीसणासा- भ० श्रारा० १५६५ फदिसु य मूलगदीसु य क्सायपा० १८२(१२६) कतकफलभरियणिम्मल- रयणसा० ५५ / कहमपह व णदीओ तिलो० प० ४-४८४ कत्तरिसरिसायारा तिलो. प० २-३२८ कधं चरे कधं चिढे मूला० १०१२ कत्ता आदा भणिदो समय० ७५ क्षे ६ (ज) कापठिदिबंधपञ्चय- तिलो. सा० ४४ कत्ता करणं कम्म पवयणसा० २-३४ कप्पतरुजणिय बहुविह- अबू० प०४-२६ कत्ता भोई अमुत्तो भावपा० १४६ कप्पतरुधवलछत्ता तिलो० प. ४-६२ कत्ता भोत्ता आदा णियमसा० १८ कप्पतरुधवलछत्ता जंवू० प०२-३ फत्तारो दुवियापो , तिलो० ५० १-५५ कप्पतरुभूमिपणिधिसु तिलो० प० ४-३६ कत्ता सुहासुहाणं वसु० सा०३६ जबू०प०६-४६ कत्तित्तं पुण दुविहं भावस० २१८ कप्पतरूण विणासे तिलो०प०४-४६० कत्तियकिण्हे चोइ(द)सि सिलो० ५० ४-१२०६ । कप्पतरूण विरामो तिलो० प०४-१६१५ कत्तियबहुलस्संते तिलो० ५० ४-१५२६ । कप्पतरू मउडेसुं सिलो. प. --४४८ कत्तियमायसिरं चिय रिट्ठस० २३१ | कप्पतरू सिद्धत्था तिलो० ५० ४-३५ कत्तियमासे किण्हे तिलो० ५० ५४४ (५४३) कप्पदुमदिरणवत्थु तिलो. प०४-३५७ कत्तियमासे पुएिणम- तिलो० ५० ७-५४० कप्पदुमा पएणट्ठा तिलो०प०४-४१६ कत्तियमासे सुक्किल- तिलो० ५० ७-५४२ कप्पमहिं परिवेढिय तिलो० ५०४-१९३२ कत्तियमासे सुक्के सिलो. प० ७-५४६ कप्पववहारकप्पा गो० जी० ३६५ कत्तियसुक्के तइए . तिलो. प० ४-६८५ कप्पन्चवहारे पुण छेदपिं० २२५ कत्तियसुक्के पंचमितिलो. प०४-६८० कप्पव्ववहारो जहिं श्रगप०३-२७ कत्तियसुक्के पंचमि- तिलो० ५० ५-११६२ कप्पसुराणं सगसग गो० जी० ४३२ कत्तियसुक्के बारसि- तिलो प०४-६६३ कप्पसुरा भावण्या कत्ति० अणु० १६० कत्थ वि ण रमइ लच्छी कत्ति० अणु० ११ कप्प पडि पंचादी तिलो. प०८-५२६ कत्थ वि रम्मा हम्मा तिलो. प० ८-08 कप्पाकापं तं चिय अंगप०३-२८ फत्थ वि हम्मा रम्मा तिलो. प. ८-८२६ कप्पाकप्पातीदं तिलो० प०८-११४ फत्थ वि वरवावीओ तिलो० ५०८-१२ कप्पाकप्पादीदा तिलो० प०८-६७४ कदकफलजुदजलं वा* गो० जी०६३ । कापाकप्पे कुसला भ.भारा.६४८ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी ६ कप्पाणं सीमाओ तिलो० ५०८-१३६ | फम्मइयकायजोगी गो० जी० ६७० कप्पातीदसुराणं तिलो० प० ८-५४६ कम्मइयदुवेगुध्विय सिद्धत. २७ कप्पातीदा पडला तिलो० प०८-१३५ | कम्मइयवग्गण धुव- गो० जी० ४०६ कप्पामरा य णिय-णिय- विलो. प० ८-६८७ कम्मइयवग्गणासु य समय० ११७ फरिपत्थीणमपुराणे भावति० ७५ कम्म दिढ-घण-चिक्करणपरम० ५० १-७८ कप्पित्थीसु ण तित्थं गो० क० ११२ / कम्मइय वज्जित्ता श्रास० ति०६० फप्पूरकुकुमायरुवसु० सा० ४२७ कम्मइये णो संति हु भावति. ८७ कप्पूरणियररुक्खा जवू० प० ३-१३ | कम्मकयमोहवढिय- * गो. क. ११ कापूरणियररुक्खो जवू० प०४-४४ कम्मफयमोहवढिय- ** कम्मप० ११ कप्पूरतेल्लपयलिय भावसं०४७५ कम्मक्लंकविमुक्कं तिलो०प०८-१ कप्पूररुक्खपउरो तिलो० प०४-१८१३ | कम्मक्लंकालीणा दवस० गय० १०८ कप्पूरागरुचंदणजबू० ५० ५-१६ | कम्मक्खए हु खइओ भावति० २२ कप्पूरागरुणिवहं जवू० प०६-८ कम्मक्खया दु पत्तो णयच०२८ कापेसु य खेत्तेसु य जंबू०प०२-२०१ कम्मक्खया दु सुद्धो दव्वस० गय० ६५ कप्पेसु रासिपंचम- तिलो० सा० ४७८ कम्मक्खवणणिमित्तं तिलो०प०६-१६ कप्पेसु संखेज्जो तिलो. प०८-१८६ कम्मक्खोणीए दुवे तिलो० प०४-६१ कम्पोवगा सुरा जं म० श्रारा० १६३५ कस्मखयादुप्पएणो दध्वस० गय० २७० कमकरणविणट्ठादो लद्धिसा० ३३३ कम्मघणवहलकरकड- जंव० ५० ४-३० कमठोवसग्गदलणं तिलो० ५० ६-७४ । कम्मजभावातीदं दव्वस० णय० ३७२ कमलकुसुमेसु तेसुं तिलो. प० ४-१६६० परम० ५० १-३६ कमलदलजलविणिग्गय- तिलो० मा० ५७१ परम०प०१-४६ कमलबहुपोसवल्लिय- जंबू० प० ६-६५ | कम्मणिमित्तं जीवो वा० अणु०३७ कमलवणमंडिदाए तिलो० ५० ५-२२६८ कम्मणिमित्तं सवे समय० २७२ कमल चउसीदिगुणं तिलो० ५०४-२६६ कम्मणिमित्तं सब्वे समय० २७३ कमला अकिट्टिमा ते तिलो. प. ४-१६८७ कम्मत्तणपाओग्गा पवयणसा०२-७७ कमलाण हवदि णिवहो जवृ० ५० ६-७० कम्मत्तणेण एक्कं + गो. क. ६ कमलुप्पलसंछण्णा जब० प० २-६६ कम्मत्तणेण एक्कं + कम्मप०६ कमलेसु तेसु भवणा- जबू० प. ६-३३ कम्महव्वादण्ण गो० क०६४ कमलोदरवरणणिहा तिलो० ५० ५-१६५४ । कम्मपवादपरूवरा अंगप० २-८८ कमलोय (द) ग्वण्णाभा जबू० प० २-६८ | भावति० ४८ कमवण्णुत्तुरवढिय- गो० जी० ३४८ कम्मभूमिजतिरिक्खे भावति०५४ कमसो असोयचंपय- तिलो० ५० ६-२८ | कम्ममलछाइयो वि भावस० २६० कमसो उबड्दति हु तिलो. प० ४-१६११ | कम्ममलपडलसत्ती लद्धिसा० ४ कमसो पहरहिणेण तिलो०प०५-१०३ कम्ममलविप्पमुक्को पंचत्थि०२८ कमसो बि-सहस्सूणिय- निलो० मा० १७४ | कम्ममसुहं कुसीलं समय० १४५ कमसो भरहादीणं तिलो०प०४-१४०७ तिलो. प०१-१०६ कमसो वप्पादीणं तिलो० ५० ४-२२६६ | कम्ममहीरुहमूलच्छेद णियमसा० ११० कमसो सिद्धायदण तिलो० सा० ७२१ । कम्मय-ओरालिय-दुग सिद्धंत० ६७ कमहाणीए उवरिं तिलो० ५० १७८१ कम्मसरूवेणागय-x गो० क० १५५ कम्मडए तीसंता पचम० ५-४३६ । कम्मसरूवेणागय-x गो० क. ११४ | कम्ममहीए वाल Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० कम्मरस बंधमोक्खो कम्मल य परिणाम कम्माभावेण य कम्मरसाभावेण य कम्मरसुदयं जीवं कम्महॅ केर भावडर कम्म केरा भावडा कम्महि जासु जगतहिं वि कम्मं कम्मं कु खवेइ जो परखेत्तिय सेव जहिं कम्मुदयजक म्मिगुणो कम्मुदयजपज्जाया कम्मु पुरकि मो वड | कम्मु पुराउ जो खवइ कम्मु पुराइउ जो खवड कम्मुवसमम्मि उवसमकम्मे उरालमिस्स दन्वस० णय० १३० समय० ३८३ समय० ३८४ | कम्मेण विणा उदयं सम्मइ० ५-१६ कम्मे लोकम्मम्मिय समय० ३६७ | कम्मे गोकम्महि य पवयसा० २ - २५ | कम्मे व णाहारे ढव्वस० य० ३४४ | कम्मेव य कम्मइयं दव्यस० य० १२४ । कम्मेव य कम्मभवं समय० ३११ कम्मेवारणाहारे पचत्थि० ६२ | कम्मेहि दुराणी कत्ति० अणु० ६० | कम्मे हि भमाडिज्जदि ( 3 ) समय० १४२ | कम्मेहि सुहाविज्जटि (इ) गो० क० ५४६ | कम्मोढएण जीवा भ० आर० १८५२ | कम्मोदयेण जीवा पंचत्थि० ५७ कम्मोदयेण जीवा कसायपा० ५६ | कम्मोदयेण जीवा समय ० २१६ ० १६ ( ज०) भ० श्रारा० १६२१ | गो० क० ६५ तिलो० प० ४-१०२० कत्ति० श्रणु० ४३६ कम्मं कारणभू कम्मं पुत्रक कम्मं जं सुमसु कम्मं जोगणिमित्तं कम्मं गाणं हवइ कम्मं णामसमक्खं कम्मं तियालविसयं कम्मं दुविवि कम्मं पडुच्च कत्ता कम्मं पिस कुदि पुरातन जैनवाक्य सूची मूला० ६७४ | कम्मावपि डिवद्धो समय० ७५ | कम्मासवेण जीवो समय० १६२ कम्मु कम्मु कम्मं पुराणं पा कम्मं बद्धमबद्धं कम्मं वा हितिये कम्मं विपरिणमिज्जड कम्मं वेदमा कम्मंसि य ठाणेसु य कम्मं हवे कि कम्माई बलियाई कम्मागमपरिजागगकम्माण ज्वसमेण य कम्माण णिज्जरट्ठ कम्मा जो दुस कम्मारणं फलमेको कम्मारणं मज्झगदं कम्मारणं मज्झरायं कम्माणं संबंधो कम्माणि अभज्जाणिदु कम्माणि जस्स तिरिग दु कम्माभावदुहिदो कम्मादविहाव सहावकम्मादो पा पचस्थि० १५१ समय ० ४१ पाहु० दो० ३६ परम० प० १-७३ परम० प० १-४८ परि० ६३ कम्मोराल दुगाईं कम्मोराल दुगाई | कम्मोराल दुगाई कम्मोरा लिय मिस्सय कम्मोरालियमस्स कहि पत्तविसेमे परि० ३८ | कयपावो परयो कय- विक्कय-सेवा-सामि मूला० १२४० दव्वम० ण्य० १६० णयच० १८ | करकयचक्कधुरीदो गो० क० ४३८ | करचरणअंगुलीगं कसायपा० ११० ( १३७ ) | कर-चरण- जाणु-मत्थयकमायपा० १०२ (४६) करचरणतल पहुदिसु भ० श्रारा० १७६४ करचरणतल व तहा रयणसा० १३२ | करचरण (पद) पिट्ठसिरा मिसा० १११ करचरणे अतो क तिलो० सा० ३२४ मा० श्रणु० ५७ रयणसा० ८७ सावय० दो० ६७ गो० क० ८१५ मा० श्रणु० ८४ परम० प० २-३६ पाहु० दो० ७७ पाहु० दो० १६३ गो० क० ८१४ गो० क० ११६ पचरिथ० ५८ तिलो० प० ६-४५ समय० १६ गो० क० ३३२ पचस० १-६६ गो० जी० २४० गो० क० ३५६ समय० ३३२ समय० ३३४ समय० ३३३ जबू० प० १०-७६ समय० २५४ समय० २५५ समय० २५६ पचसं० ४-४४ पंचस० ४-४५ पंचस० ४-६१ गो० जी० २६३ गो० क० १८६ वसु० सा० २४३ भावसं० ३४ श्राय० ति० २-२२ तिलो० प० २-३५ रिट्स० २६ रिट्स० ११६ तिलो० प०३-१००८ रिहस० १२५ वसु० सा० ३३८ रिहस० ३१ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी रिट्टस. १५८ | कल्लाणपावगार उ- भ. श्रारा० १७१२ फर-जुअलं उध्वट्टिय फर-जुअ-हीणे जाणह रिट्टस० १०४ | कल्लाणवादपुग्न अंगप० २-१०४ करणपढमा दुजा वय लद्धिसा० १४७ भ० श्रारा० १४६४ कल्लाणिढिसुहाई करणं अधापवत्तं वसु० सा० ५१८ कल्लाणे वरणयरे दसणसा० २६ करणे अधापवत्ते लन्द्विमा० ३४३ कल्ले परे व परदो भ० श्रारा०५४१ करणेहिं होदि विगलो भ० श्रारा० १७८७ कल्हारकमलकंदल- जवू० प०१-३६ जबू०प०२-८१ करबंधं कारिज्जइ रिट्टस० २३ कल्हारकमलकदलकरभंगे चउमानं रिहस. ११८ कल्हारकमलकदल जंबू० प०६-४७ करयल-णि क्वित्ताणिं तिलो. प० ४-१०७८ | कल्हारकमलकदल तिलो० प० ४-१६४६ कररुहकेसविहीणा तिलो. प०३-१२६ कल्हारकमलकुवलय- तिलो०प०४-१३२ करवत्तमरिच्छायो तिलो. प० २-३०७ कल्हारकमलकुवलय- तिलो० ५० ४-३२३ करवाल-कोत-कप्पर- जंवू० ५० ३-८६ कवणु सयाणु उ जीव तुहुँ सुप्प० दो० ४४ करवालपहरभिएणं तिलो० प० २-३४७ कव्वडणामाणि तहा जवू० प० ७-५० जंबू०प० ८-१३३ करहा चरि जिणगुणथलिहिं पाहु० दो० ११२ कन्वडमडंबणिवहो करिकेसरिपहुदीणं तिलो० ५० ४-१०१४ कबडमडंबणिवहो जबू० प०६-१०२ करितुरयरहाहिवई रिट्टस. १२६ कसणपुरिसेहिं णिज्जड तिलो० ५० १-४३ भ. श्रारा० २०२ श्राय.ति. १०-६ कसिणा परीसहचमू करिसतणेद्वावग्गी- मावसं० ५६० कस्स थिग इह लच्छी पचस० १-१०८ कस्स वि णत्थि कलत्तं कत्ति० अणु०५१ परम०प०२१४६ कस्स वि दुट्ठकलत्तं कत्ति० अणु० ५३ फरिसीहवसहदप्पण- जवू० प०४-२३ कत्ति० अणु. ५४ करिहयपाइक्का तह क्स्स वि मरदि सुपुत्तो तिलो०प०६-७१ करिहरिसुकमोराण तिलो० प० ४-३६ कह एस तुझ ण हवदि समय०१६६०१३(ज०). कह कीरड से उवमा- जबू० ५० ११-२२२ करुणाए णाभिराजो तिलो०प०४-४६६ कह ठाइ सुक्कपत्त भ. श्ररा० १६०० फलभो गयेण पंका- भ. श्यारा० १३२१ कहदि हु पयप्पमाणं अंगप० २-६० कललगद दसरत्त भ. श्रारा० १००७ कहमवि पिस्सरिऊरण वसु० सा० १७७ कलसचउकं ठाविय भावम० ४३८ कमवि तमंधयारे म० श्रारा० १२६ कलहपरिदावणादी भ० श्रारा० ३६० ° कह वि तो जइ छुट्टो वसु० सा० १५६ कलहप्पिया कदाई तिलो० सा०८३५ | कह सो घि'पइ अप्पा समय० २६६ कलह काऊण खमा छेदर्पि० २५० कह चरे कहं तिहे अंगप० १-१६ कलह वादं जूवा लिंगपा० ६ कहियाणि दिट्ठवाए भावम ३८३ कलहादिधूमकेदृमूला० २७५ सावय० दो०६४ कलहेण कुणइ लाह श्रायः ति०२-०३ कंकरपापिणद्धहत्था जबू०प०४-२७३ कलहो बोलो मंझा म. श्रारा० २३२ कं करणं वोच्छिज्जदि क्पायपा० ११५(६२) कलुसीकद पि उदयं भ० श्रारा० १०७३ कखा-पिवासणामा तिलो. प० २-४७ कलुसे कदम्मि अच्छदि .तिलो० ५० ४-६२ | कखाभावणिवित्ति बा. अणु०७५ कल्लं कल्लं पि वरं मूला० ६३८ | कखिदकलुसिदभूदो । मूला० ८१ कल्लाणपरंपरय * भ० श्रारा० ७४१ / कचण-कयंब-केय (अ) इ. जबू० प० २-८० कल्लाणपरंपरया - दसणपा० ३३ / चणकूडे शिवसह तिलो. प०४-२०१ कल्लाणपावगाओ मूला० ४०० । कचण-पगाण णेया जबू०प०६-४८ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ कच हिस्स तस्स य कचदंडुत्तुंगा कंचरणपवालमरगय कंचणपायारजुदा कचरणपायारजुदा कचरणपायारत्तय कंच पायारा कचरणपासादजुदा कंचपासादजुदा कंचम विमालो कंचम सुतुंगो कंचणमपिरिणामां कंच मणि-पायारा कचणमणिरयणमया कंचमणिरयणमया कचमणिरयणमया कंच मयाणि खंडप्पकचरण मरगय विद्दुमकंचरण-रूप्प-दवाणं कंच रणवेदी सहिदा कंच वेदीहिं जुदा कचणसमावणो सोवाजुदा arrelatera कटकसल्ले जहा कंटय कलिं च पासाकंटयखण्यपडिणिय कट सक्कर पहु कंठदेहि विपाणेकंठाणं वेदंतो कंठुद्धेरा हुसासो कंडरी पीसी चुल्ली asयगुचरिम ठिटी तेहि कोमलेहि य कंद पकिल्विसासुरकंदष्पकुक्कुप्राइयकदपदपदण कंदष्पदेव किव्विसकंदप्पभावणाए कंपमाइया पुरातन जैनवाक्य सूची तिलो० प० ४-४८३ ज० प० ४-२३ जं० प० १-३४ जय० प०८-० जं० प० ६-१६२ सिलो० प० ४- ११३ तिलो० प०२-१८३ जंयु० प० ८-१०८ जवृ० प० ८-१६७ जैवृ० प० १-२२ जंबू० प०८-१४० जबू० प० १३ - १३० जंबू० प० २-६० जबू० ए० ४–३± जब० प० ६-१०४ जबू० प० ११ - २४६ तिलो० सा० ७३५ जवू० प० ८-११३ पचमं० ३-२ तिलो० प० ४-१४२ जंवृ० प० ६-१२४ तिलो० प० ४-४० तिलो० प० ४ - २३११ ! कंदपमाभिजोगा कंदप्पमाभिजोगं केंद्र राजराजा कंपाय बड कंद कंद मूलं वीर्य कंदा मूला छन्ली कंडायरियां कंपिल्लपुरे विमलो | कंबलि वत्थं दुद्धिय कसक्यारे बहुपर्य काइयमादी सव्वं कंद्र फलमूलबीया कदर पुलिसगुहा कंद्ररविवरदरीसुवि व मूलभ्य व | जंबू० प० ८- १६ | काउस्सग्गणिजुत्ती काउस्सग्गहि ठिश्रो भ० श्रारा० ४६५ | काउस्सग्गं मोक्खपहछेदपिं० २१० काउस्सग्गुत्रवासा मूला० १५२ | काउस्सग्गे सुज्झदि सिलो० प० ४-६०६ काउस्सग्गो श्रालोकागो कार काउस्सग्गो खमरणं काउस्सग्गो दाणं भ० श्रारा० १५१ कपायपा० ८४ (३१) गाणसा० २६ काऊ काऊ काऊ मूला० १२६ नद्धिसा० ५८४ जंबू० प० ४- २६२ वसु० सा० १६३ भ० श्रारा० १८० काऊ काऊ. तह का काऊ काऊ तह का काऊरण अट्ठ एय कारण अंग सोही काऊ करणलद्धी भ० श्रा/० १७६ काऊ ग्रूवं भ० श्रारा० १६१६ काऊ मुक्का भावपा० १३ काऊ मोक्कारं माणसा० ४ क मूला० ११३३ मूला० ६३ तिलां० प०८-२६० लिंगपा० १९ कल्लागा० ०० मूला० १३४ जवृ० प० १९-१६४ गो० जी० १८० भावपा० १०१ मूला० २१४ तिलो० प० ४-१६६६ तिलो० प० १-१३० भारम० ११७ श्राय० ति० १८ काय वाइयमाणमि- x काय वा मासि x काय वाइय-मासिकाइदि ( काऊंटि) अभयघोसो भ० भा० १५५० hi बहुत पिय काइँ चहुत्त सप का विखीरा ज सावय० दो० १०४ सावय० दो० मध् धम्मर० १० भ० भार० ६६४ मूला० ३०२ भ० श्रारा० १९८ भ० श्र० ५३१ मूला० ६८३ वसु० सा० २०६ मूला० ६१० छेदपि १५ छेदस० ३४ छेदपिं० ८४ मूला० ६४५ छेदपिं० २६२ छेदपिं० ३३० गो० जी० ५२६ मूला० ११३४ पचस० १-१८१ वसु० सा० ३७३ रिट्स० १०६ य० ३१४ देव्वस० परम० प० २-१११ दसरापा० १ मुला० २०२ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी ७३ * फाऊण णमोक्कार मूला० १०४२ | कामादुरो रो पुण भ० धारा ८८८ काऊण णमोक्कार लिंगपा० १, कामा दुवे तऊ भो मूला० ११३८ काऊण तवं घोरं वस० सा०५११ कामी सुसंजदाण वि भ० प्रारा०६०२ काऊण दिव्यपूजं तिलो. प०३-२३० । कामुम्मत्तो पुरिसो तिलो. ५०४-६२८ काऊण पमत्तेयरवसु० सा० ५१७ कामुम्मत्तो महिलं भ० पारा० ६२३ काऊए। य किदियम्म मूला० ६१८ कामुम्मत्तो संतो भ. श्रारा० ८८८ काऊरण य किरि (दि) यम्म भ० श्रारा० ५६१ कामो रागणिदाणं क्सायपा० ८६(३६) काऊण य जिणपूया छेदस० ८८ कायकिरियाणियत्ती * णियमसा० ७० काऊणाउसमाइ भ० श्रारा० २११६ कायकिरियाणियत्ती भ० श्रारा० ११८८ काऊणाणंतचउठू वसु० सा० ४५६ । कायकिरियाणियत्ती - मूला० ३३३ काऊ णीलं किरह गो० जी० ५०, कायकिलेसुववासं रयणसा० ८६ काऊणुज्जवणं पुण नसु० सा० ३६४ । कायकिलेसें परतणु झिजड प०५०२-३६२०१(बा०) काएसु णिरारंभे भ० श्रारा० ८१६ कायगुरूवं मद्दण वसु० सा० ३२६ का हिंसा तुच्छा ढाढसी०५ | काय-मण-वयाकिरिया- सम्म०३-१२ काओसग्गम्हि कदे मूला० ६६६ कायमलमत्थुलिंग मूला० ८४७ काओसग्गम्हि ठिदो मूला० ६६४ । | कायव्वमिणमकायब भ. श्रारा०६ काप्रोसग्गं इरियामूला० ६६२ कायाई परदवे णियमसा० १२१ कागादिअंतराए छेदपि० ६४ / कायेण च वाया वा समय० २६७ २०२२ (ज०) फागादिअंतराए छेदस०४० कायेण दुक्खवेमिय समय०२६७क्षे० १८ (ज०) कागा मेज्मा छद्दी मूला० ४६५ | कायेदियगुणमग्गण मूला०५ कागणवणजुत्ताणि य जंवू० ५० ८-५३ । कारणकजविभाग श्रारा० सा० १३ काणि वा पुचबंधा- कसायपा० १२१(६८) कारणकजविसेसा कत्ति० अणु० २२३ कादूण चलह तुम्हो तिलो. प० ४-४८६ कारणकजसहाव इन्धमा राय०३५८ कादूण दहे पहाणं तिलो० ५० ८-५७६ कारणणिरवेक्खभवो भावति० २३ कादूण दाररक्वं तिलो. प०४-१३३३ । कारणदो इह भब्वे दब्चस० गय० १२६ कादूरामंतरायं तिलो० ५० ४-१५२६ / कारण-विरहिउ सुद्ध-जिउ परम०प० १-५४ का देवदुग्गईओ मूला० ६२ कारणु कजे वियाणहु ढाढसी०११ कामकदा इत्थिकदा भ० श्रारा० ८८२ कारावगिदपडिमा वसु० सा० ३८६ कामकहइँ परिचत्तिय सावय. दो०४५ कारी होइ अकारी भ० श्रारा० १८०६ कामगिणा धगधगं- भ० श्रारा० ६३७ कारुगगिहरापाण छेदपि० ३३८ कामग्गितत्तचित्तो . धम्मर० १०४ कारुयकिरायचंडा वसु० सा० ८८ फामग्घत्थो पुरिसो भ० श्रारा००४ कारुयपत्तम्मि पुणों छेदस० २५ कामदुहा वरधेरा भ. श्रारा० १४६५ कारेचि खीरभुज रिट्टस० १४६ कामदुहिं कापतरूं ग्यणसा०५४ कालगदा वि य सता जवू. प०३-२३६ कामपिसायम्गहिदो भ० श्रारा० १०० कालग्गिरुदणामा निलो० प० ०-३५१ कामप्पुण्णो पुरिसो तिलो० ५० ४-६२६ कालत्तयसंभूदं तिलो० ५० ४-१०५० कामभुजगेण दहा भ० श्रारा० ८६१ | कालप्पमुहा पाणा तिलो. प०.४-१३८३ कामधो मयमत्तो णाणसा० १६ | कालमणंतमधम्मो- भ० श्रारा० २१३६ कामातुरम्स गच्छदि तिलो०प०४-६२७ कालमणतं जीवो पारा० सा० ८१ कामादुरस्म गच्छदि भ० धाग० ८८६ / कालमणंतं जीवो रयणमा० Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ पुरातन जैनवाक्य-सूची - कालमणंतं जीवो भावपा० ३४ वागाय" भ. श्रारा० १९४८ कालमणं णीचा- म. श्रारा० १२३० फालेण उवाएगा य भावसं० ३४५ कालमहकालपउमा तिलो. सा. ६६२ / काले विणए उवधा- + भ. शारा० ११३ कालमहकालमाराव- तिलो. सा. ८२१ काले विणए उवहा- + मूला० ३६७ कालमहकालपडू- तिलो० प० ४-७३७ काले विण वहा- + मूला० २६६ कालमहकालपंडू- तिलोप० ४--१३८ । कालेमु जिणवराण तिलो. प०४-१४७० कालम्मि असंपत्ते छेदपि ४ कालो बल्लेस्वावं गो० जी० १५० कालम्मि सुसमणामे तिलो० प० ४-४०१ कालो साप ण हवड समय० ४०० कालम्मि सुसमसुसमे तिलो० ५० ४-३६३ । कालो त्ति य वरदेमो पंचन्थि०१०१ कालयडो दहिवराणे रिट्टम० ५७४ कालोदगोवहीदो तिलो० ५० ५-२६६ फालविकालो लोहिद- तिलो० मा० ३६३ फालोदयणगरीदो तिलो. प०४-०७४५ कालविसेसा णहूँ अंगप० ३-४८ कालोबहिबहुमज्झे निलो० प०४-२७३८ कालविसेसेणव हिद- गो० जी० ४०७ / कालो परमणिरुद्वो जंबू० ५० १३-४ फालसमुहस्स तहा जबू० प० १६-५६ कालो परिणामभवो पंचयि० १०० फालसमुद्दप्पहुदी जवृ० ५०११-४४ कालो रोरवणामो तिलो०प०२-५३ कालसहाववलेणं तिलो. प०४-१६०१ कालो वि य ववएमो गो० जी० ५७६ कालस्स दो वियप्पा तिलो. प०४-२७६ कालो सन्नां जणयदि गो० क० ८७६ फालस्स भिएणभिएणा तिलो० ५० ५-०८३ कालो सहावणियई सम्मइ०३-२३ कालस्स य अणुरुव __भावस०५१३ फावलिय अएणपाणे छेदपि ३३६ कालस्स वट्टणा से पवयणसा०२-४० का वि अपुव्या दीसदि कत्ति० अणु० २१९ कालस्स विकारादो तिलो० प० ४-४८५ काविट्ठ उपरिमते तिलो. प०१-००४ कालस्स विकारादो तिलो० ५० ४-४७६ काविहो वि य इंदो जंय. ५० ५-१०० कालहिं पवणहिं रविसमिहिं पाहु० दो० २१६ कासु समाहि फरउँ को अचऊँ पाहु० दो० १३१ कालं अस्सिय दळां गो० जी० ५७० फासु समाहि करउँ को अंच जोगसा० ३६ कालं काउं कोई __ भावस. ६५८ फिकवाउगिद्धवायस- वसु० सा० १६६ कालं संभावित्ता भ० श्रारा० २७३ किचा अरहंताणं पवयणसा० १-४ कालाइलद्विजुत्ता कत्ति० अणु० २१६ किचा काउस्मग्गं सिदभ. १० कालाइलद्धिणियडा तचसा० १२ किच्चा काउस्सग्गं भावस०४७६ कालाई लहिणं श्रारा० सा० १०७ किच्चा देसपमाणं केत्ति० अणु० ३१७ कालागुरुगंधड्ढा जबू०प०३-१४ किचा परस्स णिंद भ० श्रारा० ३७१ कालागुरुगंधड्ढा जबू० प० ११-६३ | किट्रिगजोगी माणं र लद्विसा० ६३६ कालायरुणहचंदह- वसु० सा० ४३८ किट्टिय-ठिदि आदि महा- क्सायपा०१७८(१२५) काला सामलवण्णा तिलो. प० ६-५६ किटिं सुहमादीदो लद्धिसा० २६६ कालु प्रणाइ प्रणाइ जिउ परम० प० २-१४३ / किट्टी कदम्मि कम्मे कसायपा० २०४(१५१) कालु अणाइ अणाइ जिउ जोगमा० ४ | फिट्टी कदम्मि कम्मे क्सायपा० २०५(१५२) कालु मुणिज्जहि दव्वु तु] परम० प०२-२१ किट्री कदम्मि कम्मे कसायपा० २०६(१५३) कालु लहेविणु जोइया परम० ५० १-८५ किट्टी कदम्मि कम्मे कसायपा० २०७(१५५) कालुस्स-मोह-सरणा- णियमसा० ६६ । किट्टी कदम्मि क्म्मे ___कसायपा० २१३(१६०) काले चउरण उड्ढी गो० जी० ४११ | किट्टी कयवीचारे - कसायपा० कालेण उवाएण य* ___ मूला० २४६ । किट्टीकरणद्धहिया लद्धिसा. ३६६ । । स Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क किट्टीकरणद्धा किट्टीकरणद्धाए किट्टीकरणे चर किट्टी करेदि यिमा किट्टी च ठिदिविसेसे किट्टी च पदेसग्गेण लद्धिसा० ५०३ |किहा दिलेस्सर हिया लद्धिमा० २८६ रिहा भमरसवण्णा लद्धिसा० ६३६ |किएहा य गील-काऊक्सायपा० १६४ (११) किएहा याये पुराइ (?) क्सायपा० १६७ (११४ ) क्हिा रयण-सुमेधा क्सायपा० १६६ (११६) विरहेण होड हाणी कसायपा० २२६ (१७६) किए हे तयोदसीए फित्ति जरसें दुसुभा कित्तियपर्यंतसमये कित्तियपहृदिसु तारा कित्तिय रोहिरिणमिगसिरकित्तिय रोहिणिमियसिर कित्तिय चंद्रिय महिया क्मायपा० २३० (१७७) लविसा० २६० द्विसा० ४६१ लद्विमा० ५११ लखिसा० ५७१ भावस ४१ किट्टी दो कहिं पु किट्टी किट्ट पु किट्टीयद्धा चरि किट्टीयो इगिफड्डु - किट्टी वेग किट्टी वेग पढ किeिकुम्ममच्छरुवं किरार - पुरिस महो - + किरार किंपुरिस-महो - + किरणर-किंपुरुसादि य किरणरचउ दस-दसधा किर देवास किरणर पहुचिक किरपदी तर - विधी किरणो जइ धरt जयं किचक्कारणं पु कि हतिया मज्झिमकिएहतिये सुहलेम्मति किहदुमाणे वेगुoिrकिण्हवर सेण मुदा किराह सुमेध सुकडूढा किराहं सिलासमाणे रिहाइति संजम कि हाइतिए चउदस forestry या कि हाइति बधा रिहाइले सरहिया किए हाईति या किरहा गीला काऊ कहाणीला का रिहादिति रिपलेस्सा किरहादितिलेस्सजुदा किरहादिरासिमावलि - प्राकृतपद्यानुक्रमणी तिलोब ० सा० ०५१ तिलो० प० ६- २५ तिलो० प० ६-२७ तिलो० सा० २५६ तिलो० प० ६-१५ तिलो० प० ६-३२ तिलो० प० ६-५८ भ० श्रारा० १५५ | | कितीए वणिज्जइ कित्ती मेत्ती माणस्स कित्ती मेत्ती मारणम्स फिदिक्म्मं जिरणवयरणम्स किदियग्म उवचारिय किदियम्म चिदयमं किदियम्मं पि करंतो कि तम्हि णत्थि मुच्छा किमिणो व वणो भरिद भावस० २२४ गो० जी० १२६ | किमिरागकवलस्स व गो० जी० ५२७ भावति० १०५ श्रास० ति० ५६ गो० जी० ४२३ तिलो० सा० २३६ गो० जी० २६१ किमिरागरत्तसमगो किमिरायच क्कत शुमलकिमिरायचक्कत रणुमलकिमिरायच कमलकद्दकिरिय अभुट्ठाणं किरियातीat सत्यो किरियावद रयमेपचम० १-१७ | किविणेण सचियधरण पचस० ४-१० पच० ४-३५ पचस० ५-१५१ पचस० १-१५३ पचम० ४-३६८ | फिसिए तसघाए गो० जी० ४६२ कि ते वित्तञ्जिा भ० श्रारा० १९०८ | किह ढा जीवो रणो ग त्रा० श्रणु० ५५ कि दा राम्रो रजे तिलो० प० २-२६४ गो० जी० २३६ किह ढा सत्ता कम्मवकिह पुराण काहिि ७५ गो० जी० ५५५ पचस० ११८३ तिलो० प० २-२६५ तिलो० प० ८-३०७ तिलो० प० ३-६० जबृ० प० १०-२० तिलो० प० ७-५३६ वसु० सा० ४३ तिलो० सा० ४३६ तिलो० सा० ४४० तिलो० प० ७-२६ तिलो० सा० ४३२ थोस्सा० ७ तिलो० प० ४-१६१ भ० श्रारा० १३१ कि वि भांति जिउ मन्त्रगउ विभियोगाणं किञ्चिदेवारण तहा मूला०,३८८ अंगप० ३-२२ मूजा० ६४० मूला० ५७६ मूला० ६०८ पवयणसा० ३-२१ भ० श्रारा० १०३६ भ० श्रारा० ५६७ क्सायपा० ७३(२०) कम्मप० ६० गो० जी० २८६ पचस० १-११३ वसु० मा० ३२८ दव्वम० गाय० ३६० छेदपि ० १११ भावस० १६ परम०प० १-५० तिलो० प०४-०३१६ जन्र० प० ८३ श्रारा० ना० ६३ मूला० ४६३ भ० श्रारा० १७५४ भ० श्रारा० १८२७ भ० भाग० १७२८ भ० प्रा० १६१६ • Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · ७६ कि पुराणो मुहिकि पुत्र दसमासे कि पुरण व दसमासं किं अस्थि त्थि जीवो किं श्रत्थि रात्थि जीवां किं अंतरं करे तो कि फरम फस्स वचमि काहदिवास कादि वासो fहम्म for कि किज्जइ (कीरs) जोएं किं किज्जइ बहु क्खरहॅ कि किज्जइ सुप्प भरगड किं किंचरण त्ति तक्कं किं किंचि वि वेयमय कि किं देइ र धम्मतरु किं करण फस्स कत्थ व किं के विदिट्ठो हं किंचि विदिट्टिमुपावत्तकिसमे पावस किंचूणछम्मुहुत्ता किचूणरज्जुवासो किं जप्पिएरण बहुरणा किं जंपिएण बहुरणा किं जंपिग बहुरा कि जपिएरण बहुरा कि जपिएस बहुरा किं जंपिएरण बहुरा कि जं सो गिवंतो किं जाणिऊण मयलं किं जीवदया धम्मो कि ठिद्रियाणि क्कम्माकाम ते हि लोगे किं तस्स ठाण मोख किं दत्तं वरदाण fi दवगो सीया कंदा मे दो किं पट्टवेइ दू किं पलवियेण वहुरणा किंवा (ग) फलं पक्क पुरातन जैनवाक्य-सूची किं पुरा यार सहाकिंवा किं पुरण कंटप्पारण किं पुरण कुल गुणसंघजकिं पुरा गच्छ मोहं कपायपा० १५९(६८) | कि पुरा गुणसहिदाश्र कि छुहाना कि पु जटिला ससाकिं पुरा जीव-काये कि पु जे श्रसरणा किं पुण तरुणा कि भ० थारा० १६१६ म० श्रारा १०५४ भ० प्रा० १०१६ श्रंगप० १ ३७ सुदख० १४ वसु० सा० १६६ यसमा० १२४ मूला० ६२३ मोक्खपा० ६६ तासा० ६ पाहु० दो० १२४ भावस० ४०५ मावय० दो० ६८ मूला० ७०५ वसु० सा० १०३ भ० श्रारा० १७०६ वसु० मा० ११० तिलो० प० ७-४४५ तिलो० सा० १२८ दु वसु० मा० ३४७ भ० भारा० १४८६ भ० धारा० १६४१ सुप्प० दो० १५ | किंपुरिसक्रिपरा विय पवयासा० ३-२४ किंपुरु (रि) स किरारा सप्पु कि बहुए डवड वडि किंबहुणा उत्ते य किं चहुणा उत्ते य कि वहुणा भरिए दु किंबहुणा भवि कि बहुरा भणिदेण दु किं बहुला वचणे किंबहुणा मालव कि बहुणा हो तजि बहिरकिंबहुणा हो देवकिं बंधी उदयादो किं मज्म पिरुच्छाहा किं मे जपदि किं मे किं लेस्साए बद्धाकिं चण्पणेण बहुरणा किं वेदतो विट्टि किं सुमिदंसमि किं सो रज्जणिमित्त कि हडुमुंडमाला भ० श्ररा० २००३ | मूला० ६२४ हुस्सुतरुण बहुसु भावपा० १६२ वसु० मा० ४६३ श्रय• ति० २३-८ भावस० ३८४ रयणसा० १२६ ० अणु० ४१३ कत्ति० कम्पायपा० १२३(७०) क कीडंति (दीव्वंति) जदी चिं कीडं पुरा दुविह कोरविहंगारूढो धम्मर० १६६ भावस० २३० भावस० ४१७ | कील (ड) तसत्यबाहिय भाव० २२६ | कीलि (ड) यसत्यासत्याकुक्कुडको इलकीरा रयणमा० १३६ कुक्कु कंदप्पाइय बा० अणु० ३० भ० भारा० १५५६ भ० धारा० ३०: भ० धारा० १६५८ भ० भा० १५३४ भावपा० १२६ भ० श्रारा० १६ भ० भा० १४८७ भ० श्रारा० ११३५ भ० प्रा० १६१२ भ० आर० १६४६ भ० श्रारा० १०६६ भ० भारा० ३३२ तिलो ०सा० २५७ तिलो० सा० २७३ पाहु० दो० १४२ मूला० १८६ रयणसा० १६१ गाणसा० ३७ रयणसा० १४४ रयणसा० १५४ गो० क० ३३६ भ० श्रारा० १६५८ भ० भारा० ११०४ कपायपा० १११ (१३८ ) तिलो० प० ४-३१८ कम्पायपा० २१४ (१६१ ) वसु० सा० ४६६ भावसं० ४६१ कति० गु० २५२ णियमसा० ११७ मोषखपा० म भावस० २०६ भावसं० २४७ पचस० १-६३ मूला ४३५ तिलो० प० ५-६१ श्राय० ति० ३-२ श्राय० ति० ३-१३ तिलो० प० ४-३८१ मूला० ८५८ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी ७७ कुम्चस्सुवरिम्मि जल रिट्ठस० ६० कुलजस्स जस्स मिच्छत्त- भ० श्रारा० १३३३ कुच्छिगयं जस्सरण भावस० ५११ कुलजाई विज्जागो तिलो० प० ४–१३८ कुच्छियगुरुकयसेवा भावस० १८८ कुल-जोणि-जीव-मग्गण- णियमसा० ५६ कुच्छियदेवं धम्म मोक्खपा० ६२ | कुल-जोणि-मरगणा वि य मूला० २२० कुच्छियधम्मम्मि रो भावपा० १३८ कुलदेवदाण वासं जबू०प०७-१३३ कुच्छियपत्ते किंचि वि भावस० ५३३ कुलदेवा इदि मरिणय तिलो०प०३-५५ कुज्जा वामण तणुणा तिलो. प०४-१५३८ कुलधारणा दु सव्वे तिलो० ५० ४-५०८ कुट्टाकुट्टि-चुरणा भ. श्रारा. १५७१ कुलपव्वद-बत्तीसा जंचू० ५० १३-१४८ कुटुं खभं भूमि छेदपिं० २०७ कुलपव्वदेसु एवं जंबू० प०५-६० कुणइ पुणो वि य तुट्ठो धम्मर० १७५ कुल-रूव-जादि-बुद्धिसु था. अणु०७२ कुणइ सराह कोई भावसं० २६ कुलस्वतेयभोगा भ० थारा० १८०० कुणउ मुणी कल्लाणा छेदपिं० ६५ | कुलरूवाणाबलसुट- भ० श्रारा० १३७५ कुरणदि य माणो णीचा- भ० श्रारा० १२३६ | कुलवयसीलविहूणे मूला० २८४ कुण वा णिद्दामोक्ख भ० श्रारा० १४४८ | कुलाइ देवाइ य मण्णमाणा तिलो०५० ३-२२६ कुणह अपमादमावा- म० श्रारा० २६६ कुलिसाउह-चक्कधरा पवयणसा० १-७३ कुणिमकुहिभवा लहुगत्त- भ० श्रारा० १८१५ कुविदो व किएहसप्पो भ० धारा० १६६ कुणिमकुडी कुणिमेहिं य भ० भारा० १०२६ कुव्वंतस्स वि जत्तं भ० धारा० ७८७ कुणिमरसकुणिमगध भ० भारा० १०६७ कुल्यते अभिसेयं तिलो० ५० ५-१०४ कुतवकुलिंगिकुपाणिय- रयणसा० ४६ | कुळां सगं सहान पचस्थि०६१ कुद्धो परं वधित्ता भ. श्रारा० ७६७ कुवं सभावमादा पचयणसार २-६२ कुद्धो वि अप्पसत्थ भ० श्रारा० १२१८ कुसमुढि घेत्तूण य । भ. श्रारा० १९६२ कुमइदुगा अचक्खु तिय सिद्धत० ४५ कुसलस्स तवो णिवुणस्स रयणसा० १५८ कुमइदुगे पणवरण • सिद्धत० ५७ | कुसला दाणादीसुं तिलो. प०४-५०१ कुमइ कुसुय अचक्खू सिद्धत० ३३ कुसवरणामो दीओ तिलो०प०५-२० कुमदि कुसुदं विभग अंगप० २-७६ कुसुममगंधमवि जहा भ० श्रारा० ३५१ कुमयकुसुदपसंसगा सीलपा. १४ कुसुमाउहन्व सुभगा जंबू० प० ७-११४ कुमुद-कुमुदंग-गलिणा तिलो. प० ४-५०२ / कुसुमेहिं कुसेसयवदण- ___ वसु० सा० ४८५ कुमुदविमाणारूढो जबू० ५० ५-१०८ कुहिएण पूरिएण य पाहु० दो० १६५ कुमुद चठसीदिहद तिलो० ५०४-२६६ | कुंकुमकप्पूरेडिं तिलो० ५० ५-१०५ कुम्मुएणढजोणीए तिलो० ५० ४-२६४६ | कुंजरकरथोरभुवा तिलो० ५०४-२०७४ कुम्मुण्णदजोणीए - मूला० ११०३ | कुंजरतुर यपदादी- तिलो० सा० २८० कुम्मुएणयजोणीए - गो० जी० ८२ कुंजरतुरयमहारह तिलो. प०४-१६७६ कुम्मो ददरतुरया तिलो. सा. ४८७ कुंजरतुरयादीणं तिलो. प०६-७० कुरो हरिरम्मगभू तिलो० सा० ६५३ कुंजरपहुदितणूहि तिलो० प० ४-१६८० कुरुभदसालमज्झे तिलो० सा०६६१ । कुंडलगिरिम्मि चरिमो तिलो. प० ४-१४७६ कुल-गाम-गयर-रज्ज भ० श्रारा० २६३ / कुंडलगो दसगुणिो तिलो. सा. १४३ कुलगिरिखेत्ताणि तहा जंवू० प० २-८ कुडलमंगदहारा तिलो० ५० ४-३६० कुलगिरिवक्खारणदी- तिलो० सा० ६२६ कुंडलवरो त्ति दीओ तिलो० ५० ५-१८ कुलगिरिसमीवकूडे तिलो० सा० ७४४ कुंड-वसंड-सरिया । तिलो० ५० ४-२३१० कुलगिरिसरियासुप्पह- तिलो० ५० ४-२१६७ । कुडम्स दक्विणेण निलो०प०४-०३२ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची कुंडं दीवा सेला तिलो० ५० ४-२६१ वडोवरि पत्तेक्वं तिलो० ५० ३-४३ कुंडाण तह समीवे जवृ० प०७-२० कडो सिद्धो णिसह तिलो. ५० ४-१७४६ कुंडाणं णायवा जंवृ० प० ७-६० के अंमे झीयदे पुन्च कमायपा० १२२(६६) कुंडाणं णिदिहा जबू० ५० १-६५ , केइ पडिबोहणण य तिलो० ५० ५-३०७ कुंडादो दक्खिणदो तिलो. सा० केह पडियोहणणं तिलो ५०४-२६५२ कुंडेहि णिग्गदात्रो जंवृ०प०७-११: केई कुंकुमवएगा। जवृ०प००-८४ कुंतेहि कोमलेहि य वृ० ५० ४-२६६ / केई गय-सीह-मुहा भावस०५३८ कुंथुचउक्के कमसो तिलो० ५० ४-५२०१ | केई गहिदा इंदिय- म० श्रारा० १२६६ कुथुजिणिदं पणमिय जवू. प. १०-१ केई देवाहितो तिलो०प० २-३६० कुंथुपिपीलियमंकुरणपचमं०-७१ केई पुण पायरिया छेदस. ७६ कुंथु च जिणवरिंद थोस्सा०४ केई पुरण गय-तुरया भावस० ५४४ कुंथुभरिटलमत्त वसु० सा० ४८१ केई पुण दिबलोग भावसं०५४५ कुंदेदुसंखधवला तिलो. प. ४-८० केई भणंति जइग सम्मइ०२-४ कुंदेंदुसखवरणा जवृ० ५०३- केई विमुत्तमंगा भ० श्रारा० १५३७ कुदेदुसंखवण्णो जबू०प० ७-E0 केई समवसरणया भावसं० ५६५ कुंदेंदुसंखसएिणह- ज० प०८-१६३ के कढमाए ठिटीए कसायपा० ६०(७) कुंदेदुसंखहिमचय- जवृ० १०३-११६ / केचिय तु अणावएगा पंचस्थि० ३२ कुदेदुसुंदरेहिं तिलो० ५० ५-१०६ के चिरमुवसामिजदि कसायपा० ११४ (६१) कुंभंड-जक्ख-रक्खस-". तिलो. १०६-४८ केस वि अप्पट वचियउ परम० प०२-६० कुंभंड-रक्ख-जक्खा " तिलो. सा० २०१ केदूखीरसघस्सव- तिलो० सा० ३७० कुभीपाएसु तुमं भ. श्रारा० १५७३ भ० आरा० ५६५ कुंभीपागेसु पुणो धम्मर०५६ केलास वारुणीपुरि तिलो० सा० ७०२ कुंभो ण जीवदवियं सम्मइ० ३-३७ / केव चिर उवजोगो कसायपा० ६३ (१०) कूडतुलामाणाइय] सावय. दो० १६२ / केवडिया उवजुत्ता कसायपा० ६७ (१४) कूडम्मि य वेसमणे तिलो. प० ४-१७० केवडिया किट्टीओ कसायपा० १६० (१०६) कूडहिरएणं जह णिच्छ- भ० श्रारा० ६०० / केवलकप्पं लोगं भ० श्रारा० १६७ कृडागारा महरिह- तिलो० प०४-१६६६ केवलजुयले मणवचि- पचस. ४-५८ कूडा जिणिंदभवणा तिलो० ५०६-२० केवलणापतिणेत्तं तिलो. प०१-२८३ कुडा जिणिंदभवणा तिलो० ५० ६-२४ केवलपाणदिणेसं तिलो०प०६-६८ कूडाण उपरिभागे तिलो० ५०४-१९७१ केवलवाणदिवायर- तिलो० ५० १-३३ कूडारण उवरिभागे तिलो० प०६-१२ केवलवाणदिवायर-x गो० जी०६३ कूडाण समंतादो तिलो० ५० ३-५६ / केवलवाणदिवायर-४ पचसं०१-२७ कूडाणं उच्छेहो तिलो० ५० ४-१४६ । केवलखाणमयंत सम्मइ०२-१४ कूडाणं ताइच्चिय तिलो० प० ५-१३१ । केवलपाणम्मि तहा पचस० ४.३१ कूडा णंदावत्तो तिलो० प० ५-१६६ केवलणाणवणाफइ कद तिलो० ५० ४-५५१ कूडाणं मूलोवरि तिलो. प०४-१६७ केवलणाणसहाउ सो जोगसा० ३६ कूडाणि गंधमादण- तिलो. प०४-२०५५ केवलणाणसहावो + णियमसा०६६ कूडा सामलिरुक्खा तिलो० सा० १८७ | केवलवाणसहावो+ तिलो. प०६-४८ कूडेसु होति दिव्वा जवृ० प० २-४६ केवलणाणसहावो कत्ति० अणु० ४८४ कूडेसुं देवीओ तिलो. ५०४-१६७४ / केवलवाणस्सद्वं तिलो. सा. ५० Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी केवलणाणं दंसण भावति० २४ कोई उहिज्ज जह चंद- भ० श्रारा० १८३० केवलणाणं दस भावति० ४१ कोई तमादयित्ता । भ० श्रारा० ६६५ केवलणारा दसरा भावति०६४ कोई पमायरहियं । भावसं० ६५७ केवलणाणं इसणगो० क० १० कोई रहस्सभेदे भ० श्रारा०४६१ कवलपारा दसराकम्मप० १० कोई सव्वसमत्यो मूला० १४५ केवलणाणं साई सम्मइ० २-३४ को एत्थ मज्भ मारणो भ० धारा० १४२७ केवलणापाणतिम- गो० जी० ५३८ को एस्थ विभो दे भ० भारा० १६५६ केवलपायावरणस्व- सम्मह० २-५ को एदाण मणुस्सो जव० प० ११-३१६ केवलपणावावरणंx पचसं०४-४७७ को करइ कटयाणं गोक०३ केवलवाणावरण x गो० क० ३६ को जाणड रणवअत्थे : अगप०२-२६ केवलगायावरणं कम्मप० ११० को जाणइ सवभावे * गो. क०८८६ केवलपाणिं अवरउ परम०प०२-१६६ | को जागाइ सत्तचऊ गो० क. ८८७ केवलणाणुप्पएणो सुदख० ६६ कोहाण खेत्ताटो तिलो. प० ४-६२८ केवल पाणे खाइय भावति० ६७ कोडितिय गोसया तिलो. प०४-१३८ केवल-दंसण-णाणमा परम० ५० १-०४ कोडिपयं अडअहिय सुदख०४३ केवल-दसण-णाणमय परम० प०१-६ कोडिपय उप्पादं अंगप० २-३८ केवल-दंसरा-पाणं कल्लाणा ४० कोडिल्लमासुरक्खा मूला०२५७ केवल-दसण-णाणे कसायपा० १६ कोडिसदसहस्साइ मूला० २२० केवल-दसणु णाणु सुहु परम०प० २-१६६ कोडिसहस्सा णवसय- तिलो. प० ४-१२६७ केवलद्गमणहीणा पंचस० ४-२६ | कोडी लक्ख सहस्सं तिलो०मा० १०१६ केवलदुयमणपज्जव- पचसं०४-२८ कोडीसय छञ्चाधिय जबू० ५० ४-१६७ केवलदुयमणवज्जं पचस ४-२३ कोडी सत्त य वीसा जबू० प० ४-०६४ केवलदेहो समणो पत्रयणसा० ३-२८ कोढी संतो लद्ध भ. श्रारा० १२२३ केवलभुत्ती अरुहे भावस० १०३ को ण वसो इत्थिजणे कत्ति० अणु० २८१ केवलमिंदियरहियं णियमसा० ११ | कोणास आपसुक्खस्स भ. श्रारा० १६६ केवलिणं सागारो पंचस० १-१८१ | कोणाम णिरुव्वेगो भ० श्रारा० ५४४५ केवलु मलपरिवन्जियर पाहु० दो० ८६ को णाम णिरुव्वेगो भ० थारा० १४४६ के वि अभत्सिवसेणं श्रायः ति० ८-१० को गाम भडो कुलजो भ. श्रारा० १५१८ केस-णह-मसु-लोमा मूला० १०५२ कोणाम भणिज्ज वुहो समय० २०७ केसरिदहस्स उत्तर- तिलो. प० ४-२३३५ को णाम भणिज्ज बुहो समय० ३०० केसरिमुहसुदिजिव्भा- तिलो० मा० ५८५ | कोणेसु सरा देया रिठस० २३८ केसरिमुहा मणुम्सा निलो० ५०-२४६४ को तस्स दिज्जइ तवो भ० श्रारा० ५८५ केसरिवसहसरोरुह- तिलो० प० ४-८७८ कोदंडछस्सयाई तिलो०प०४-७२८ केसववलचकहरा तिलो० प० २-२६१ कोदंडदंडसव्वल जवू०प०३-१८ केसा ससज्जति हु भ० श्रारा०८८ कोध-भय-लोभ-हस्स-प- भ० श्रारा० १२०७ केहि चिदु पज्जयेहि समय० ३४५ कोधं खमाए माणं भ० श्रारा० २६० केहि चिदु पज्जयेहि समय०३४६ क्मायपा० १७३ (१२०) कोडल-कलयल-भरिदो तिलो. प०४-१८१५ कोधादिसु वटुंतस्स समय० ७० कोइलमहुरालावा तिलो० ५०४-३८६ कोघेण य माणेण य मूला० ४५३ कोई अग्गिमदिगदा भ० पारा० १५२८ कोधो मारणो माया भ. श्रारा० ११२७ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची कोधो माण। माया मूला० ५४८ कोहरम पढमक्ट्रिी लढिसा०४३ कोधो मारणो माया मूला० ७३५ । कोहस्स पढमकिट्टी लखिसा० ५६३ कोधो य हथिकप्पे मूला० ४५४ ।। कोहरस पढमसंगह लद्धिसा० ५१३ कोधो व जदा मारणों पचस्थि० १३८ कोहस्स पढमसगह लद्विसा० ५३८ कोधो सत्तुगुणकरो भ० श्रारा० १३६५ फोहस्स विदियकिट्टी लन्द्विसा० ५४० को मज्म इमो जम्मो धम्मर० १६४ कोहस्स विदियसंगह- लद्विसा० ५४४ फोमलहरियतिणंकुरछेदपिं० ३८ । कोहस्स य जे पढमे लद्विसा० ५३३ कोमारतणुतिगिंका मूला० ४५२ कोहस्स य पढमठिी- लद्धिमा० ०६८ कोमारमंडलित्ते तिलो. प०४-१४२४ । कोहस्स य पढमठिटी- लदिमा० ६०० कोमारमंडलित्ते तिलो० प०४-१४२८ कोहम्म य पढमादो लद्धिसा० ५७३ कोमार-रज-छदुमत्थ- सिलो. १० ४-७०३ | कोहस्स य माणस्स य लदिसा० ४६४ कोमारा तिषिण सया तिलो० ५० ४-१४२७ कोहस्स य माणस्स य भः श्रारा० २६१ कोमारा दोरिण सया तिली०प०४-१४२६ कोहस्स य माणस्स य गो० क०४६ को व अणोवमरुवं जंबृ० प० ११-२३० को है इह करमाओ भावसं०४१६ को उप्पार्यतो सम्मइ०३-० कोहं ग्वमए मार्ण _णियमसा० ११५ कोविदिदित्थो साहू समय० १६६ २०१२ (ज.) कोहं च छुहइ माणो कमायपा० १३६ (८६) कोसदुगदीहबहला तिलो० सा० ५८४ कोहंच छहदि माणे लदिसा० ४३६ कोसदुगमेक्ककोसं तिलो० ५० १-२७३ कोहं माणं माया वसु० सा० ५२२ कोसद्धं उच्छेहा जंब० ० ३-१६४ | कोहाइकसाएK. पचसं० ४-३६६ कोसद्धो अवगाढो तिलो० ५० ४-१८६० कोहाइचउसु बंधा पसं० ५-४३८ कोसलय धम्मसीहो म० श्रारा० २०७३ | कोहाढिएहिचउहिविपययणसा०३-२६२.१७ (ज०) कोसस्स तुरियमवरं तिलो० सा० ३३८ । कोहादिकसायाणं गो० जी० २८१ कोसं आयामेण य जंब. प० ३-७६ | कोहादिकिट्टियादिट्टि लद्धिसा० ५३४ कोर्स आयामेण य जंबू० ५० ६-१५८ कोहादिकट्टिवेदग लद्धिसा० ५३२ कोसंबीललियघडा भ० श्रारा० १५४५ तिलो० प०४-२६४३ कोसाणं दुगमेक्र्क तिलो० सा० १२६ कोहादिसगम्भावक्रत्र- गियमसा० ११४ कोसायामं तहलतिलो. सा० ०३६ कोहादी उवजोगे कसायपा० ४६ कोसि तुम किं णामो म. पारा० १५०५ | कोहादीरामपुन लद्धिसा०४६८ को सुसमाहि करउ को जोगसा० ४० कोहादीणं सगसग लद्धिमा० ४८६ कोसुंभो जिह राओ पसं० १-२२ कोहादीणुदयादो भावति० १६ कोसेक्कसमुत्तंगा जब० ५० ११-५४ कोहुप्पत्तिस्स पुणो बा० अणु० ७॥ कोहचउक्कं पढमं भावसं० २६६ / कोहुवजुत्तो कोहो समय० १२५ कोहचउक्काणेक्के भावति० ६२ / कोहेण जो ण तप्पदि कत्ति० अणु० ३६४ कोहदुगं संजलणग लद्धिसा० २६७ कोहेण य कलहेण य रयणसा. ११६ कोहदुसेसेणहिद लद्धिसा० ४७१ कोहेण लोहेण भयंकरेण तिलो. प० ३-२१७ कोहपढम व माणो लद्धिसा. ५५२ कोहेण व लोहेण व छेदपिं० १४१ कोह-भय-लोह-हास-प मूला० ३३८ कोहो चउव्विहो वुत्तो कसायपा० ००(१७) कोह-भय-हास-लोहा- चारित्तपा० ३२ | कोहो मारणो माया मूला० १२२८ कोह-मद-माय-लोहेमूला० ६EE | कोहो माणो माया वा० अणु० ४६ कोहस्स पढमकिट्टि लद्विसा० ५२७ , कोहो माणो माया कल्लाणा० ३३ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ख कोहो माणो लोभ कोहो य कोध रोसो हो व मा माया कोहोवसामणद्धा को विहंगरूढो ख खग्गसहस्वगूढं खट्ट कपालहरो हिक्क- डोब-सवरा खइएण उवसमेण य खइयो मो खखपद्संसस्स (?) पुढं खखपढसंसस्स (१) पुढ खगगिरि-गगदु-वेदी खगमंडलोय जइ सो ख-मयरण-राह-टु-दुग-इगि- तिलो० प०८-३८५ ख-गयरण-सत्त-छ-एव-चङ तिलो० प०८ - १५२ | खग-सुण-खर-विस-रि-हरि- श्राय०ति० १-२६ खवगसुहुमस्स चरिमे खवगस्स घरदुवारं तिलो० सा० ८६५ | खवगुवसमगेण विणा श्राय० ति० २ - २० | खवगे य खीणमोहे खवगो य खीणमोहो खवणं वा उवसम जबू० प० १६-०२७ खवणाए पट्टवगे x खवाए पट्टवगो x वयस्सो वा खवयस्स कव्वा धम्मर० ६७ जबृ० प० २-१६७ खरणरणुत्तावरणवालणखरणरणुत्तावरणवालरण भ० श्रारा० १६८ | खवयस्स चित्तसारं भावपा० १० । खवयस्स जइ र दोसे खवयस्स तीरपत्तरस धम्मर० ७६ खणरणुत्तावरणवाल‍ खणमेत्ते अणादियखणमेत्ते विसय भ० श्रारा० २०२७ | खवयस्तिच्छासपातिलो० प० ४-६१३ खरिहरि (1) सविसाय वसु सुम्प० दो० १४ । खत्रयं पञ्चक्खावेदि खवयस्सुवस परणस्स छेदपि ० ३ २ । खविए को हाई छेदपि ० ३४८ | खविद घरघाइ कमे छेदपिं० ३४६ खंचहि गुरुवयांकुसहि छेदपिं० ७८ | खडंति दो वि हत्था भ० श्रारा० २१७० | खड्डच्छेहो कोसा मूला० ४३ भावस० २६५ भावम० २६६ । खती - मद्दव - अज्जव खरणभसगणभग्नगचरखती - मद्दव प्रज्जव द्विसा० ३ | खंतु पिरंतु वि जीव जइ खंदे सत्थ खधं सयलसमत्थं + खवं सयलसमत्थं + खंयं सयलममत्थं + खत्तिय-वंभरण- वइसा खत्तिय-वरण- महिलाओ खत्तिय सुद्दित्थी खमरणं छट्ठट्टम दसखम-दम-रियम-धराण खमामि सव्वजीवाण खडवसमं च खइयं खयरबसम पउत्त प्राकृत पद्यानुक्रमणी भ० प्रा० १३८७ | खय- वडूढीग पमाणं क्सायपा० ८६ (३३) |खयिगो हु पारिणामियखरपवरणघायचियलियखर पंकप्पा हुला खरभाग-पंक-बहुलाखरभागी गाव्वो खरभाय-पंकभाए दव्यस० ० ३०७ लद्विसा० ३७० तिलो० प०५-८६ खयरवसमियविसोही x यस मियविसोही x खयकुमूलसूलो खयरामरमणुयकरखय-वड्ढीण पमाणं खवएसु उवसमेसु य खवसु य आरूढा भावस० ६४८ | खवओो किलामिदंगो जवृ० प० १३–४६ |खवगपडिजग्गणाए तिलो० प० ४-५७ तिलो० प०४-६८ गो० जी० ६५० रयणसा० ३६ भावपा० ७१ ०प०४-२४०२ तिलो० ८१ तिलो० प० ४-२०३२ भावति० ३१ जबू० प० ४-१८१ तिलो० प०२-६ जबू० प० ११-११२ तिलो० प० २-१० कत्ति ० ० श्रणु० १४१ भावस० ६४३ भावसं० १०७ भ० श्रारा० ४१८ भ० श्रारा० ६७५ लबिसा० २०२ भ० थारा० ६६६ भावति० ३० गो० जी० ६७ कत्ति० श्रणु० १०८ गो० क० ३४३ कसायपा० १०६ (५६) पचसं० १-२०३ भ० प्रा० ६७६ भ० श्रारा० ६१४ भ० श्रारा० २०१७ भ० आर० ४८४ भ० श्रारा० ४५६ भ० श्रारा० ४४२ भ० प्रा० ५१६ भ० श्रारा० ७०७ पंचमं० ५-३४ भावति० १ सावय० दो० १३० धम्मर० २ तिलो० प० ४-१६०३ तिलो० प० ४-२८८२ मूला० ७५२ मूला० १०२० पाहु० दो० ६३ भ० श्रारा० १२४७ तिलो० प० १-६५ गो० जी० ६०३ मूला० २११ 1 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन जैनवाक्य-सूची खधं सयलसमत्थं + पंचत्थि० ७५ / खीरवरे श्रादीए वृ० प० १२-२७ खंधा असंखलोगा - गो० जी० १६३ खीरसघस्सवजलके- तिलो०प०७-२२ खंधा जे पुव्वुत्ता दवस० गय० १२७ / खीराई जहा लोए। धम्मर०६ खंधा बादरसुहुमा दवस० गय० १०३ / खीरुवहि-सलिल-धारा- वसु० सा० ४७५ खंधा य खंधदेसा पंचस्थि०७४ / खीरोद-समुदम्मि दु जवू० प० १२-२८ खंधेण वहंति पर भावसं० ५७१ खी(खा)रोदा सीतोदा तिलो० ५० ४-२२१४ खंभियपाविलसंखा (१) तिलो० ५० ४-१९८३ खीला पुरण विएगोया जंवृ० ५० १२-१०३ खभेसु होति दिव्वा जबू० १०५-५४ खुन्नद्धं णाराए लद्धिसा० १४ खाइय-अविरदसम्मे गो० क०२३३ खुन्ना वामणरुवा जंबू. ५०२-१६४ खाइयखेत्ताणि तदो तिलो० ५० १-७६३ | खुट्टह भाउ ण तमु महड मावय० दो० १८६ खाइय-दंसण-चरण भ० थारा० १९१३ भ० श्रारा०३६४ खाइयमसंजयाइसु पचस०१-१६७ खुद्दे थेरे सहे भ० श्रारा०३८८ खाइयसम्मत्तेदे भावति० १११ खुद्दो कोही माणी मूला० ६८ खाइयसम्मो देसो गो० क० ३२६ रयशसा० ४४ खाई कगाइ एते श्राय० ति०६-१३ खुल्लहिमवंतकूडी तिलो० प०४-१६५६ खाई पूजा लाई रयणसा० १३१ खुल्लहिमवंतसिहरे तिलो० ५०४-१६२६ खाअोवसमियभावो गो०० १७ तिलो०प०४-१६२४ खात्रोवसमियभावो भावति० ७ | खुल्ला-वराड-संखा पंचसं० १-७० खामेदि तुम्ह खवओ म० श्रारा० ७०५ खुहर्जिभियाहि(भणेहि)मण्या वृ०५०२-१५६ खायंति साणसीहा घम्मर० ६१ खेडेहिं मंडियो सो जंबू०प०८-५६ खारो तित्तो तित्तो श्राय. ति०६-११ खेत्तजणिदं असा तिलो. सा. ३१७ खित्ताइवाहिराणं पारा० सा०३० खेत्तविसेसे काले रयणसा० १७ खिदिजलमरुग्गिगयणं णाणसा० ५३ खेत्तस्स वई यरस्स मूला० ३३४ खिव तसदुग्गदिदुस्सर- गो० क० ३०० खेत्तं दिवडूढसयधणु- तिलो० ५० ३-१६३ खीणकसाए णाणचभावति० ३६ खेत्तं पएसणाम दवस० गय०६४ खीएकसायदुचरिमे गो० क. २७० | खेत्तं वत्थु [य धणगद] मूला० ४०८ वीणकसायदुचरिमे* पंचसं० ५-४६० खेत्तादिकला दुगुणा जंबृ० प० २-१५ खीर्णता मझिल्ले पंचसं० ४-५८ | खेत्तादिवढि(हिमाणं तिलो० ५० ४-२६२७ खीणे धादिचउक्के लद्विसा० ६०६ खेत्तादीणं अंतिम- तिलो० प०४-२६२६ खीणे दसणमोहे x गो०जी०६४२ गो० जी० ५३७ खीणे दसरणमोहेx पचसं०-१६० तिलो० प०७-२६७ स्वीणे पुचणिबद्धे पंचथि०११६ | खेमपुररायधाणी जंबू०प०८-१६ खीणे मणसंचारे वारे श्रारा० सा०७३ खेमपुरी पणिधीए तिलो. प०७-२६८ खीणेसु कसाएसु य कयायपा० २३२(१७६) खेमंकर चंदामा तिलो०प०४-११६ खीणो त्ति चारि उदया- गो० क० ४६१ । खेमंकर चंदाह तिलो० सा० ७०० खीर-दधि-सम्पि-तेल्लं भ० श्रारा० ०१५ खेमंकरणाम मणू तिलो० ५० ४-४४० खीर-दहि-सप्पि-तेल-गु- मूला० ३५२ खेमा खेमपुरी चेव तिलो० सा० ७१२ तिलो. प०८-२०३ | खेमा णामा एयरी तिलो०प०४-२२६६ खीरवरणामदीवे जबू० ५० १२-३६ | खेमादिसुरवणत्तं (?) तिलो० ५०७-४४३ बीरवरटीवपहुदी- -तिलो० ५० ५-२७४ । खेमापुराहिवइया बृ० प०७-११० Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग खेरसुरराये हिं खेल पडिदमप्पाणं खेलो पत्तो सिंभो खेस्सठिय चरखंड atarra खोभेदि पत्थरो जह ग इ-दिय-तित्यंते गइ-इंद्रिय च काए इ-इंदियं चकाए * इ-इदिये च काये गइ-इंदियेसु फाये * गइउदयजपज्जाया कम्मत्ता गइ चउ दो य सरीर + गइ चउ दो य सरीर + इचरएस भरिणयं गइचउर गुलगमणे परियं गई चेपरिया धम्मो यदि एवं गउ संसार वसंता प्राकृतपद्यानुक्रमणी तिलो० ए०४-१८७६ गजंत-संधि-बंधाभ० श्रारा० ३३६ | गणरणादीदारण तहा भ० थारा० १०४१ | गणरातीदेहिं पुणो तिलो० प० १-१४५ | गणणा देयपदेसगतिलो० प०५-१६ गणरक्खत्थं तम्हा भ० थारा० १०७२ | गणराय-मति - तलवरगणरदेवादी गणहरदेवेण पुणो हरवलये पुण गणरवहादी गगरणयरजुवइ मज्ज गणं दुविपयारं गगणं सुज्जं सोम गच्छइ विसुद्धमाणो गच्छच्चयेण गुणि गच्छदि मुहुत्तमेके गच्छदि मुहुत्तमेके गच्छसमा तक्कालियगच्छसमे गुणयारे गच्छंहि (हि) केइ पुरिसा गच्छा पालणत्थं गच्छिज्ज समुद्दस्स वि गच्छेज्ज एगरादियगच्छेदि जोइ गणे गच्छे वेब्जाव ८३ भ० श्रारा० १६५० | गव्भजजीवाणं पुरा ५० रा० २७४ | गव्मणपुइत्थिसरणी भ० श्रारा० ६७४ | गभाईमरणंतं भ० रा० ४०३ | गव्भादो ते मरणुया तिलो० प० ४-४०३२ |गन्भादो ते मणुया मूला० १७४ गव्भावरण उच्छव वसु० सा० ४१३ जंबू० प० ४-२० जबू० प०२-२०० लद्धिसा० ४६४ भ० आर० १६६० तिलो० प० १-४४ तिलो० प०८-२६५ जबू० प० १३-१४१ गाणसा० २७ छेदपिं० १७८ पंचसं ० ०१ - २०७ |गणिउवएसामयपाबोधपा० ३३ | गणिकामहत्तरीओ पंचस० १-५७ | गणिका महत्तरीगं मूला० ११६७ गणिया चत्तवि गो० जी० १४९ गणिया सह संला भ० श्रारा० १७४ गो० जी० १४५ | गणिणिज्जक्खसुलोया (?) तिलो० प० ४ - ११७८ पंचमं० १-५६ | गणिया महत्तरीगं तिलो० प० ८-४३४ पचस० २-१२ गतनम मनगं गोरम पचस० १ - २३६ | गत्तापञ्चागढं उज्जपचसं ० ५- १८६ | गदरागदोसमोहो जोगिभ० २१ | गदिया आउउदओ सम्मइ० ३ - २६ गदियादिजीवभेद x दवस ० १७ | गदिआदिजीवभेदं x पंचसं० ४-३२३ |गदिआदिमग्गरणाओ परम० प० १-६ गदिजादी उस्सास जबू० ० ४ - ११५ | गदिजादीउस्सा -- द्रव्वम० णय० १४१ | गदिठाणोम्गह किरियातिलो० प० ८-१० | गदिठाणोग्गहकिरियावसु ० सा० ५२० | गठिणग्गाहरणकातिलो० प०८-१६० गदिठिदिवट्टरणगहणा तिलो० प० ७ - १८२ | गढिणामुदयादो [चउ ] तिलो० प० ७-२६५ गदिमधिगटरस देहो गो० जी० ४१७ गदियादिसु जोगाए तिलो० प० ३-८० गद्दापहारविद्धो भ० श्रारा० १४७६ तिलो० सा० २७१ तिलो० सा० ५०५ छेदपि ० ४ १ गो० जी० ३६२ भ० श्रारा० २१८ भ० श्रारा० २१४३ गो० क० २८५ गो० क० १२ कम्मप० १२ मूला० ११८८ गो० क० ५१ कम्मप० १२२ गो० जी० ६०४ गो० जी० ५६२ मूला० २३३ दन्द्रस० णय० ३४ भावति० १७ पंचस्थि० १२६ गो० क० २८४ धम्मर० २३ गो० जी० ८७ गो० जी० २५६ भावसं० १७४ जंबू० प० १०-८० तिलो० प० ४-२५१० अंगप० २- १०५ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची - २४७ गम्भावयारकाले जंवू० ५० १३-६३ गरुडहें भावई परिणवइ सावय० दो० २१७ गम्भावयारजम्मा वसु० सा० ४५३ गरुडे सेसे कमसो तिलो गम्भावयारपहुदिसु तिलो० ५०८-२६४गरुडे सेसे मोलस तिलो० सा० २३८ गव्भुन्भवजीवाणं तिलो० ५० ५-२६३ गलए लायदि पुरिसस्त भ० धारा १७६ गमणणिमित्तं धम्मम- णियमसा. ३० गंलणा[रय अ-भ-ख दिया श्राय० ति० १७-१४ गमणम्मि कुणइ विग्धं श्राय० ति० ३-१८ गसियाई पुग्गलाई भावपा० २२ गमणं चलंतिमाए(ये) प्रायः ति० १३-२ | गह-भूय-बायसीओ भावसं०४५८ गमणागमणविमुक्के सिन्दभ०६ | गहरहिए य अदिट्टे श्राय०ति० १८-२८ गमणागमणविवज्जियउ पाहु० दो० १३७ गहसंजोयं कज्जं श्रायः ति०१-४ गमणागमणविहीणे तचसा ६८ गहिउझियाई मुणिवर भावपा० २४ गमिय असंखं ठाणं तिलो. सा. ६८ गहिऊण मियमदीए तिलो० प० ४-१७७ गमिय तदो पंचसयं तिलो० सा० ६५६ / गहिऊण य सम्मत मोक्खपा. ८६ गयघडियवेयताडिय- श्राय० ति० १-२५ | गहिऊण सिसिरकरकिर- वसु० सा० ४२५ गयजोगस्स दु तेरे गो० क० ६११ गहिऊरणास्सिणिरिक्खम्मि चसु० सा० ३६६ गयजोगस्स य बारे गो० क० ५६८ | गहिओ विरुद्धगहियस्स श्रायः ति० २-१७ गयणमिव णिरुवलेवा श्रा० भ०६ दव्वस० गय०३४६ गयणं पोग्गलजीवा दव्वस० णय०६६ / गहिदुवकरणे विणए मूला० १३७ गयणंबरछस्सत्त दु तिलो० ५० ४-११६१ / गहिदूणं जिणलिंगं तिलो०प०४-३७२ गयणि अणंति वि एक उड परम० ५० १-३८ । गहिदोग्गहम्मि(हे) विसरिऊ- छेदपिं० ६१ गयणेक अट्ट सत्त य तिलो० प०७-२३२ । गहिय विमुक्को लाहे श्राय० ति०२-१८ गयणेक्क छ णव पंच छ तिलो० ५० ५-२५२१ / गहियं च रुद्धगहियं । श्रायः ति०३-३ गयणेण पुणो वच्चदि जबू० ५० १३-६६/गहियं च रुद्धगहिय श्रायः ति० ३-८ गयदंतगिरी सोलस तिलो० प० ४-२३०५ / गहिरविलधूममारुद- तिलो० ५०२-३२० गयदंताणं गाढा तिलो० प०४-२०२८ गहिलउ गहिलउ जणु भरणइ पाहु० दो० १४३ गयरागदोसमोहो जबू०प० १३-१५४ तिलो० मा० ६०० गयरासिजुत्ततिहिणो श्राय. ति०१७-१६ | गंगसमा सिंधुणदी तिलो० सा० ५६७ गयरूवं जं झेयं भावस० ६३२ गंगाकूड पमुत्ता जव० ५० ३-१४८ गयवरखंधारूढो जंबू०प०५-१३ | गंगाकूडेसु तहा जब० प० १-७२ गयवरतुरयमहारह- जंबु० प०३-१०० गंगाजलं पविट्ठा भावस० २५० गयवरसीहतुरगा जंवू० ५०२-१५६ गंगाजलेण सित्तो जब० ५० १-२६ गयवसहे [चिय चलणे रिस० १६७ / गगा जहिं दु पडिदा जव. प०३-१५३ गयसंकलासु बद्धा जवू०प०११-१७२ | गंगाणईए णिग्गम- तिलो० प०४-१६ गयसकंति विहत्ते श्राय० ति० १७-१८ गंगाणई व सिंधू तिलो०प०४-२६३ गयसित्यमूसगम्भा- तिलो० ५० ६-४३ | गंगाणदीहि रम्मो जंब० प०६-१७ गयहत्थपायनासिय रिस० ३५ गगातरंगिणीए तिलो०प०४-२३४ गययकेसरिंगमणं तिलो. सा० ३८८ गंगादीपादियाणं जब० प०११-४६ गययंकेसरिवसहे तिलो० सा० ६७४ / गंगादीसरियायो जंब० ५०२-६० गरुडद्वयं सिरिप्पह- तिलो० ५० ४-५१३ । गंगादुगं व रत्ता तिलो. सा०५६६ गरुडविमारणारूढो तिलो० ५० ५-६३ गंगाटु रोहिदस्सा तिलो० सा० ५८१ गरुडविमाणारुढो जबृ० प०३-१४६ ___ जवू० ५० ५-१०४ । गंगा पउममहादो Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुकमणी गगा-महाणटीए गगा य राहिदासा गगा-रोहिद-हारओ गंगा-सिंधु-गईण गगा-सिंधु णदीणं गंगा-सिंधू-गामा गंगा-सिंधू-तोरणगगा-सिंधू वि तहा गंगा-सिंधू सरिया गंगा-सिंधू हि] तहा गगा-सिंधूहि जुदो गंगा-सिंधूहि तद्दा गगा-सिंधूहि तहा गंगा-सिंधूहि तहा गगा-सिंधूहि तहा गगो सुधम्मुणामो गंड महिसव-राहा गतुं पुनाहिमुहं गतूण अण्णदेसे गंतूण गुरुसमीव गंतूण णंदणवणं गतूण णीलगिरिदो गतूण तदो अवरे गंतूण तदो पवे गंतृण तदो पुवे गतूण तदो पुव्वे गतूण थोवभूमी गतूण दक्खिरणमुहो गतूण दीव णिवडई गतृण पच्छिमदिसे गंतूण य णियगेहं गंतूण सभागेहं गंतूणं लीलाए गंतूणं सा मझ गतूण सीदिजुदं गंथच्चाएण पुणो गथच्चाओ इदियगंथच्चाओ लाघवगथ-णिमित्तमदीदियगंथणिमित्तं घोर तिलो. प०४-२४५ | गधयव्वित्थारो- प्राय० ति० २३-१४ जंवृ० प० ३-६६१ गंथडियाए लुद्धो भ० भारा० १९४६ तिलो. प० ४-२३७० गंथमिण जो ण दिइ रयणसा० १६६ तिलो०प०४-२६६ गंथस्स गहण-रक्खण- भ० नारा० ११६४ तिलो० प०४-१५४५ गंथह उपरि परममुणि परमः प० २-४६ तिलो० प०४-२२६४ गंथाडवी चरत भ० धारा० १४०१ जंबू० प०३-१७८ | गंथाणियत्ततराहा भ० श्रारा० १६५४ जवृ० प०८-१७८ गंथेसु घडिद-हिदओ भ० श्रारा० ११६५ जव०प०२-१० गंथोभयं णराणं भ० श्रारा० ११२८ जंब० प०१-४८ गंधड्ढकुसुममाला- जबू० प० ४-२७५ जंबू०प०८-१३० गंधरसफासरुवा समय० १० जव० प०८-१०४ गंधव-गट्ट-जट्टस्स भ० श्रारा० ६३३ जवू०प०८-११४ गंधबणयर-णासे सिलो० प०४-६१० जंव० ५० १-६६ गंधव्य-गीय-बाइय- जंबू०प०५-८ जंव० प०६-१८ गंधव्वाण अणीया जब० प० ४-२२१ सुदर्ख०७४ | गंधोएण जि जिणवरहें सावय० दो० १८२ तिलो० ५० ४-६०४ गंधो पाणं ण हवइ समय. ३६४ तिलो० प० ४-१३०५ | गंभीरो दुद्धरिसो मूला० १५६ छेदपि ० २८० गंभीरो दुद्धरिसो मूला० १८४ वसु० सा० ३१० गाउप्र-तिरिण वि जाणसु जंचू०प०१-२२ भ० श्रारा० १८३२ गाउअ-सय तह चउरो जव० ५० १३-१० जंब० प०६-२६ गाउद-चउत्थभागो जब० ५० १२-१७ जबू० प०-१०२ | गाउय आयामेण य जंब० प० २-५६ जव० प०८-२५ गाउय-दल-विक्खभा जव० प०६-१३२ जवू० ५०-३८ गाउय-पुधत्तमवरं गो० जी० ४५४ जवू०प०८-६३ / गाढप्पहारविद्धो भ० श्रारा० १५५३ तिलो. प. ४-२५३ गाढप्पहारसंता भ० श्रारा० १५२६ तिलो. ५० ४-१३३० गाढो वित्थारो वि य तिलो० सा० ४६१ जंबू० ५० ७-११५ गाम-णयरादि सव्वं तिलो० ५० ४-३४० जबू०प०८-११३ गाम णगरं रएण मूला० २६३ वसु० सा०२८६ गामाण छरणउदी तिलो० ५०४-२२३४ वसु० सा०५०४ जवृ०प०८-६८ तिलो० प०४-१३०६ छेदस० ५६ तिलो० प०४-२३३७ मूला.. तिलो० ५० ७-३६ / गामे णगरे रगणे मूला०२६१ भ० श्रारा० ११७४ गामे णयरे रगणे धम्मर० १४५ भ० श्रारा० ११६८ गामेयरादिवासी मूला० ७८५ भ० श्रारा० २३ गामे वा णयरे वा णियमसा०५८ भ० श्रारा० ११३८ | गायदि णञ्चदि धावदि भ० श्रारा० ११७ भ० श्राग० ११४० ! गायति अच्छरायो धम्मर. १६३ राड Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची गायंति जिणिंदाणं तिलो. १० ४ ७५० गिरिमसहरपहवड्ढी तिलो० ५० ७-१४६ गायति महुर-मणहर- जवू० प० ४-२२८ गिरिसीसगया दीवा जंबू०प०१०-५० गायति य गच्चंति य जंवू० ५० ११-२६४ गिह अंगदुमा णेया जब० प० २-१२६ गारविश्रो गिद्धीयो मूला० १५३ गिह गंथ-मोह-मुक्का बोधपा०४५ गालयदि विणासयदे तिलो० ५० १-१ गिहतरुवरवरगेहे भावसं० २८८ गावइ णच्चइ धावइ भ० श्रारा० ११३४ गिह लिंगे वट्टतो भावसं० १०० गाह-दह-पंक-दिदी तिलो० सा० ६६७ / गिह-वावार-रयाणं भावसं० ३६३ गाहा-सदे असीदे कसायपा० २ गिह-वावार-वरत्तो भावस०३६६ गाहेण अप्पगाहा सुत्तपा० २७ गिह-वावारं चत्ता कत्ति० अणु० ३७४ गिण्हइ दव्वमहावं णयच० २६ | गिहिदत्थेयविहारो मूला० १४८ गिएहदि अदत्तदाण लिंगपा० १४ गिहिदत्थो सविग्गो भ० श्रारा०३४ गिएहदि मुंचदि जीवो कत्ति० अणु० ३१० गिहि-वावारपरिट्टिया जोगसा०१८ गिद्धा गरुडा काया तिलो० ५० २-३३५ गिंभे दिवसम्मि तहा छेदस० ३३ गिद्धउ लय भारुडो रिस० १७६ गीतरदी गीतयमो तिलो० सा० २६३ गिरि-अभंतर-मझिम- तिलो० सा० ३८२ गीदत्यपादमूले भ. श्रारा०५४७ गिरि-उदय-चउभागो तिलो० ५० ४-२७६८ | गीदत्या कद कज्जा भ० श्रारा० १६७६ गिरि-उवरिम-पासादे तिलो० प० ४-२७४गीदत्थो चरणत्यो भ. श्रारा० ३६६ गिरि-कंदर-विवर-सिला णाणमा० । गीदत्थो पुरण खवयस्म भ० श्रारा० ४४१ गिरि-कदरं च अडविं भ० श्रारा० १७३६ गीदरदी गीटर(य)सा तिलो० ५० ६-४० गिरि-कंदरं मसाणं भूला० ६५० गीदरवेसु सोत्तं तिलो० ५० ४-३५४ गिरि-कूड-चरगिहेसु य जंवू० प० ४-१०४ गुज्झको इदि एदे तिलो० ५० ४-६३४ गिरि-जुद दुभहसाल तिलो० सा० ६३० | गुडखंडसक्करामिय-- गो० क. १८४ गिरि-णदियादि-पदेसा भ० श्रारा०२००७ गुडखंडसक्करामिय-- कम्मप० १४४ गिरि-णिग्गउपइवाहो भावसं० ३१६ गुणकारिओ त्ति भुजड भ० श्रारा० ५७३ गिरि-तड-वेदीदारं तिलो. प. ४-१३६० गुणगणमणिमालाए भावपा० १५८ गिरि-तड-वेदादारे निलो० ५० ४-१३३५ गुणगणविहूसियंगो मोमरखपा० १०० गिरि-तुरियं पढमतिम- तिलो० सा० ७४६ गुणगार-भागहारं जबू०प०१०-१. गिरि-दीहो जोयणदल- तिलो० सा० ७३० गुणगारा पणणउदी तिलो० ५० १-२४५ गिरिपहुदीणं वासं तिलो० मा० ७५२ गुणगारेण विभत्त जंद० प०५-७ गिरिपहु सिरिधरणामा तिलो. प०५-४१ गुण-गुणिश्राइचउक्के + दध्वस० णय० १६० गिरिबहुमज्झपदेसं तिलो० ५० ४-१७१३ गुण-गुणिपज्जय-दवे * णयच०४६ गिरि-भ६साल-विजया तिलो० ५० ४-२६०२ गुण-गुणिपज्जय-दब्वे- दयप. य. २१६ गिरि-भद्दसाल-विजया तिलो० ५० ५-०८२० गुण-गुणियाइचउक्के + एयच० २० गिरि-भद्दसाल-विजया- तिलो० सा० ७५१ गुणजीवठाणरहिया गो० जी० ७३३ गिरि-मत्थयत्थ-दीवा तिलो० सा० ११६ गुणजीवादिपरूवण सुदखं०८४ गिरि-रहिदपरिहिगुणिद तिलो० सा० ६३१ गुणजीवा पज्जत्तीx पंचसं० १-२ गिरि-वरकूडेसु तहा जंवू० ५० ३-६६ गुणनीवा पज्जत्तीx गो० जी० २ गिरि-वरसिहरेसु तहा जवू० प० ७-१२ / गुणजीवा पज्जत्ती गो० जी० ६७६ गिरि-वरिसाणं विगुणिय तिलो०प० ४-१७४८ | गुणजीवा पज्जत्ती गो० जी० ७२४ गिरि-सरि-सायर-दीवो मावसं० २०८ तिलो० प०३-१८३ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी ८७ गुणजीवा पज्जत्ती तिलो० ५० २-२७२ | गुणसेढी गुणसंकम x लद्धिसा० ३६० गुणजीवा पज्जत्ती तिलो० ५० ४-४१० गुणमेढी गुणसंकम लद्धिसा० ३६४ गुणजीवा पज्जत्ती तिलो. प०८-६६२ गुणसेढी-गुणसफम लद्धिसा० ५३ गुणठाणएसु अहसु पंचसं०५-२६६ गुणमेढीदीहत्तम लद्धिसा०५५ गुणठाण-मग्गणेहि य योधपा० ३१ गुणसेढीदीहतं लखिसा. ३६५ गुणठाणादिसरूवं तिलो. प० -४ गुणसेढी सत्थेदर लद्धिसा० ३११ गुणणिव्यत्तियसएगा सम्मइ० ३-३० गुणहाणिप्रणतगुणं गो० क० ४३५ गुणतीसजोयासदा मूला १०६३ | गुणाधिए उवज्झाए __ मूला० ३६० गुणदो अवंतगुणही- कसायपा० ११०(१७) | गुणिदूरण दसहि तदो तिलो. प०४-२५२० गुणदाधिगस्स विणय पवयणसा० ३-६६ गुणिय चउरादिखंडे लद्धिमा० ५८१ गुणधरगुणेसु रत्ता तिलो०१०४-३६६ | गुत्तित्तयजुत्तस्स य भाषस० १०४ गुणपञ्चइगो छद्धा गो० जी०३७१ गुत्तिपरिखाइ गुत्तं भ० श्रारा० १८४० गुणपज्जयदो दव्यं दन्चस० णय. ४१ गुत्ति-मयं लेस्साणं सुदखं० ७६ गुण-पज्जयाण लक्खण- दबस० णय० २८२ गुत्ता जोगणिरोहो कत्ति० अणु० १७ गुण-पज्जयादभिएणो यंगप०१-३८ कत्ति० अणु०१६ गुण-पज्जायसहावा टव्वस० गय० ६७ | गुरुवारभई गरयगड गुरुआरंभ णरयगड सावय० दो० १६१ गुण-पज्जाया दवियं दव्वस० गय०८ गुरुदत्त-पंडवेहिं य श्रारा० सा०५० गुणपरिणदासणं परि- तिलो० ५० १-२१ | गुरु दिग्णयरु गुरु हिमकरण पाहु० दो० १ गुणपरिणामादीहिं. भ० श्रारा० ३२५ / गुरुदेवतच्चकारणु दाढसी० २४ गुणपरिणामादीहि भ० आरा० ३२८ गुरुपरिवादो सुदवो मूला० १५१ गुणपरिणामो जायइ वसु० सा० ३४३ गुरुपुरो किदियम्म वसु० सा० २८३ गुणपरिणामो सडूढा भ० श्रारा०३०६ गुरुभत्तिविहीणाणं रयणसा०८२ गुणभरिदं जदि-णार भ० श्रारा० १४१५ गुरु-लघु(हु)देहपमाणो दवस० गय० १२१ गुणयारद्धच्छेदा तिलो० सा० १०५ गुरु-साहम्मिय-दव्वं मूला० १३८ गुण-वय-तव-सम-पडिमा- रयणसा० १५६ गुलगुलंतेहिं तिबलेहिं वसु० सा० ४१२ गुणवंतह सह संगु करि सावय० दो० १४१ गूढसिरसधिपव्व : मूला०२१६ गुणवीसउत्तराणिं तिलो० ५०८-१८३ गूढसिरसंधिपव्वं । गो० जी० १८६ गुणसरिणदा दु एदे समय०११२ गेण्हइ दव्वसहावं दवस० गय० ११८ गुणसहमंतरेणा सम्मइ०३-१४ | गेण्हइ वत्थुसहाव दवस० गय० १६६ गुणसंकरणसरूवं तिलो० ५० ५-१६८ | गेण्हइ विधुणइ धोवइ पवयणसा०३-२०२०५(ज) गुणसंजादप्पयडिं गो० क. ६१२ पवयणसा०२-१३ गुणासेढि अणंतगुणा- कलायपा० १६५ (११२) गेएहदि णेव ण मुंचदि पघयणसा० १-३२ गुणसेढिअणंतगुणे-;- कसायपा० १४६ (६३) गेण्हदि व चेलखंडं पवयणसा०३-२०२०३(ज) गुणसेढिअणंतगुणे- + लद्धिसा० ४५१ । गेण्हते सम्मत्तं तिलो० ५० -६७७ गुणसेढिअसंखेज्जा + सायपा० १४६ (६६) गेरुय चंदण वव्वग मूला २०६ गुणसेढिअसंखेज्जा + लद्धिसा० ४३६ गेरुय हरिदालेण व मूला०७४ गुणसेढि अंतरहिदि लद्धिसा० ५७६ | गेविजमणुदिसयं तिलो०प०८-११७ गुणसेढिसखभागा लन्द्विसा० १३६ गेवेज्ज करणपूरा तिलो० ५० ४-३६१ गुणसेढीए सीस लद्धिसा०८६ गेवेज्जयादिकाओ जंबू०प०११-३४. गुणसेढी गुणमकमx लद्विसा० ३७ | गेहुच्छेहो दुसया तिलो०प०८-४५४ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची गेहे गेहे भिक्खं भावसं ० ३० गोवदण-महाजक्खो तिलो. १०४-३२ गेहे वटुंतस्म य भावसं० ३६१ गोवद्धणो य तत्तो अंगप० ३-४४ गो-इत्थि-बाल-माणुग्न- छेदपिं० ३०८ गोसिंगधादबंदी छेदपि० ३३७ गोउरतिरीडरम्मा • तिलो. प०४-६८ गोसीस-मलय-चदण- तिलो०प०३-२२४ गोउरदारजुदाओ तिलो० प० ३-३० तिलो०प०४-७३६ गोउरदारसहस्सा जबृ०प०६-१६१ गोसीस-मलय-चंदण- तिलो०प०४-मह गोउरदारेसु तहा जबू०प०१-७३ गोसीस-मलय-चंदण- जवू० प०३-२०४ गोउरदुवारवोउल- (१) सिलो. प०४-७६१ गोसीस-मलय-चंदण- जबू०प०५-११५ गोउरदुवारमझे तिलो०प०४-७४१ | गोसीस-मलय-चंदण- जंबू प०११-२३५ गोउरवासो कमसो तिलो० सा० ४६३ / गो-हत्थि-तुरय-भत्थो(१) तिलो० प० २-३०४ गोउरसहस्सपउरो जंवू० प०७-४१ गो-केसरि-करि-मयरा तिलो० ५०४-३८८ गोखीर-कुंद-हिमचय- जवृ० प०४-२३६ गोखीरफेणमक्खो- तिलो० सा० ७०७ । | घड-पड-जड-दव्याणि हि कत्ति० अणु० २४८ गोघादवंदिगहणे छेदस० ८३ / घणअंगुलपढमपदं गो० जी० १६० गोट्टे पाओवगदो भ० श्रारा० १५५६ / घणकुई सकवाडे भ० श्रारा०६३८ शानिय-पोत्तिय- प्रायः ति०८-११ | घणघाइकम्ममहणं तिलो. प० ६-७२ गोदमणामो दीवो जंबू० ५० १०-४३ / घणघाइकम्ममहणा तिलो०प०१-२ गोदं कुलालसरिसं* भावसं०३३७ घणघाइकम्ममहणो णाणसा० २८ गोदं कुलालसरिसं.. कम्मप०३१ घणघाइक्म्मरहिया णियमसा० ७१ गोदेसु सत्तभंगा पचस०५-१३ घणघादिकम्मदलणं जंबू०प० १३-१७५ गोधूम-कलम-तिल-जव- तिलो. प०४-२२४३ / घणपडलकम्मणिवहव्य वसु० सा० ४३७ गो-बभण-महिलाणं वसु० सा०६७ घणफलमुवरिमझिम- तिलो० ५० १-१७४ गो-बंभणित्थिपावं वसु० सा०६८ तिलो. प०१-२१६ गो-बंभणित्थिवधमे- भ० थारा० ७६२ घणफलमेक्कम्मि जवे तिलो० ५० १-२३७ गोमज्झगे य रुजगे मूला० २०८ घणफलमेक्कम्मि जवे तिलो० ५० -२५४ गोमुत्त-मुग्ग-णाणा- तिलो० सा० १२३ / घणमाउगस्स सञ्चग- तिलो० सा० ६४ गोमुत्त-मुग्ग-वरणा तिलो० ५० १-२६८ घणसमयजणियभासुर- जवृ० ५० ३-२३६ गोमुह-मेसमुहक्खा तिलो० प०४-२४६६ घणसमयघणविणिग्गय- ज०० ५० ४-२६ गोमेदमयक्खंधा तिलो० प० ४-१६२७ / घणसुसिरणिद्धलुक्खं तिलो. प० ४-१००२ गो-मेस-मेघ-वदणा जवृ० १० ११-५३ घणह(त)रकम्ममहासिल- तिलो० ५० ४-१७८५ गोम्मटजिणिंदचंदं गो० क०८११ घणहिमसमये गिंभे छेदर्पि०७७ गोम्मटदेवं वंदमि णिवा० भ० २५ घद(य)तेल्लभंगादी तिलो० प० ४-१०१२ गोम्मटसंगहसुत्तं गो० क०.६६५ धम्माए आहारो तिलो. प० २-३४६ गोम्मटसंगहसुत्तं गो० क. १६८ घम्माए णारइया तिलो० प०२-१६५ गोम्मटसुत्तल्लिहणे गो० क० ६७२ घम्मादीखिदितिदए तिलो० प० २-३५६ गोयमथेरं पणमिय गो० जी० ७०५ घम्मादीपुढवीणं तिलो० प० २-४६ गोयरगयस्स लिंगुट्ठा- छेदपिं० १८७ धम्मा वंसा मेघा तिलो० ५० १-१५३ गोयरपमाण दायग- , मूला० ३५५ / चम्मा वसा मेघान कम्मप० ८६ गोर-कसणजीरय- प्राय० ति० १०-5 / घम्मा वंसा मेघा तिलो० सा० १४५ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी बम्मा बंमा मेघा " जयू० ५० ११-११२ घादि-तियाणं णियमा लहिसा० ३२४ बम्मे तित्थं बंधदि गो० क० १०६ घादि-तियाणं बधो लन्द्रिसा० ५३६ घयवरदीवादीणं जंबू० ५० १२-२६ घादि-तियारण वधो ल दिमा० १४८ घरवावारा केई मावसं० ३८५ घादि-तियाण सगसग- गो० क० २०. घरवासउ मा जाणि जिय + पाहु० दो० १२ | घादि-तियार। मत्त । लद्विसा० ५४६ घरवासउ मा जाणि जिय + परम०५० २-१४४ | घादि-तियाण संखं लद्विसा० ५०५ परिणी घरेण सोहह श्राय० ति० १०- १घादि-ति मादं मिन्छ लद्धिसा० २० घर पुरु परियणु धणिय वणु सापय० दो० १२० घाहिं व वेयरणीय - गो० क० १६ घंटाए कप्पवासी तिलो१०४-७०६ घादि व वेयणीयं कम्मप० २० चटाफिकिरिणजिद- जबू० ५० ५-८१ घादीण मुहुत्तेत लद्धिसा० ५६७ घटाकिंरिणिणिवहा जवृ० ५० ४-१६५ घादीणं अजहरणो गो० क. १७८ घंटाकिकिरिणिवहा जयू०प०३-१७२ घाटीणं छदुमत्था + पचसं० ४-२१७ बटापडायपउरा जंबू०प० १-१८३ घादी छदुमट्ठा + गो० क० ४५५ घंटाहि घटसद्दावसु० सा० ४८८ घाटी णीचमसादं x गो. क.४३ घाइ-चउक्फविरणास भावस० ६६५ घादी णीचमसाद ४ कम्मप० ११४ घाइ-चउक्कह किट विलउ जोगसा० २ | घादी वि अघाटिं वा , गो. क० १७ वाइ-चउक्क चत्ता दन्यस० गय०४०७ घादी वि अघाटिं वा क्म्मप० १८ वाइ-तियं खीणंता पघस० ३-६ | घादे एक्कावीसं छेदपिं० ३१० घाइ-चउक्के ण तवमा० ६६ | चित्तूण पडिमा रिस० १८२ घाईकम्मग्वयादो दव्वस० गय० १०७ घिद(घर)भरिदघडसरित्यो मूला० ६ घाईणं अजहएणो पचस० ४-४३६ घोडगलिंडसमाणस्स म० श्रारा० १३४७ बाडा घडा चउत्थे तिलो. मा० १५८ घोडणजोगमसरणी पसं० ४-५०५ चाणिदिय वड वसि करहि सावय० दो० १२५ | घोडणजोगोसरणी गो० क०२१६ घाणिदियसुदणाणा तिलो० ५०४-६ER घोडय लदा य खभो मूला० ६६८ चाणक्करमखिदीदो तिलो. ५०४-६१० घोडयलदिममाणस्स मूला० ६६४ बादयदम्बादो पुण लन्द्विमा० ५२३ | घोरट्टकम्मणियरे दलिदूण तिलो०प० ४-१२०६ वादता जीवाण जबू० प० ११-१६७ | घोरसंसारभीमाडवीकाणणे पचगु० भ० ४ घादि-कम्म-विवादस्थ धारि० भ०२ | घोरु करतु वि तवचरणु परम० प० २-१६१ वादिक्खएण जादा तिलो० ५० ४-६०४ | घोरु ण चिएगाउ तवचरणु परम० प० २-१६७ वादिक्खयजादेहि य जव० ५० ५३-१०१ | घोरे णिरयसरिच्छे मूला०८०६ घादि-ति-मिच्छ-कसाया गो० क. १२४ | घोसादकी य जह किमि भ० श्रारा० १२५३ ना चडऊण महामोहं चहण सव्वसंग चहऊरण सव्वसगे चइदम्मि किरहपक्खे चडदूण चउगदीश्रो चरअट्टलक्कतितिपण- कत्ति० श्रगु० २२ चअट्ठपंचसत्तट्ठ- तिलो. प० ४-२६२४ श्रारा० सा० ११२ | चउ अड खं दुग दो रणभ तिलो० प०४-२८६० धम्मर० १५६ चउइकिकंदुगड- तिलो० प०४-२८७१ सिलो० ५० ७-५३६ चउ इग णव पण दो दो तिलो० प० ४-२६६७ तिलो० ५० ४-६४१ चउइगदुगपणसगदुग तिलो०प०४-२६७५ तिलो० ५० ५-२६३७ । चउ-इयरगिगोएहि जु- पचस० १-३८ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची चन-व चउ-कसाय-सण्णा-रहिउ जोगसा० ७६ | च-ठाणेसुं सुराणा तिलो० ५० ३-४ चउ-कूड तुंगसिहरो जंबू० प०८-४० चउ-ठाणेसुं सुण्णा तिलो० प० ३चउ-कोसरुंदमझ तिलो० ५० ४-१६६७ । चउ-ठाणेसुं सुगणा तिलो. प०७-४१८ तिलो० ५० १-११६ चउण उदि-जोयणाणि य- जवू प० - चउ-गइ इह संसारो* णयच. ६४ चउणउदिसयं णवसत्तड- तिलो० सा० ७५४ चर-गइ इह संसारो* दवस. णय० २३४ चजणउदिसया ओही तिलो. ५० ४-११०१ चउ-गइ-दुक्व: तत्ता] परम०प०१-१० चउपउदि-महस्सा इगि- तिलो० ५० ७-३३८ चउ-गइ-पकविमुक्कं तिलो. प०८-७०० चउणउदि-सहस्सा इगि- तिलो० ५० ७-३३६ चउ-गइ-भवसंभमणं णियमसा० ४२ चउणउदि-सहस्सा इगि- तिलो. प० ७-३४० चउ-गइ-सरूवरूवय गो. जी. ३३८ चउणादि-सहस्सा छस्स- तिलो. प० ७-३११ चउ-गइ-सरूवस्वय श्रगप. १-७ चउणउदि सहस्सा तिय- तिलो० ५०७-३२२ चउ-गइ-सकम-गजुदो अगप०१-२५ चजण उदि-सहस्सा तिस- तिलो. प० ७-३२३ चउ-गइ-संमारगमण रयणसा० १४५ चरणउदि-सहस्सा पण- तिलो० ५० ७-३०५ चउ-गदिभव्यो सरणी कत्ति० अणु० ३०७ चउरण उदि-सहस्सा पण- तिलो० ५० ७-३०६ चउगयरणसत्तणवणह- निलो० प०७-२४६ चाउदि-सहस्सा पण- तिलो. प०७-३३६ चउ-गोउरखेत्तेसुं तिलो० प० ७-२७६ चटण उदि-सहस्सा पण- तिलो० प०७-१०७ चउ-गोउरजुत्तेसु य तिलो० ५० ७-२०५ | चाउदि-सहस्मा परण- तिलो० ५० ७-४०८ चउ-गोउरदारेसुं तिलो० प०४-७४३ चउणउदि-सहस्सा पण- तिलो० प०७-४०१ चउ-गोउरमणिसाल-ति तिलो० मा० ६८३ / चउणउदि-सहस्सा पण- तिलो० ५० ७-४१० चउ-गोउरवं वेदी- तिलो. सा. ६४२ / चउणउदि-सहस्साणि तिलो. प०४-१७५० चंउ-गोउरसंजुत्ता तिलो० सा० ८८५ चउणउदि-सहस्साणिं तिलो० ५० १-२२२४ चउ-गोउरसंजत्ता तिलो०प०४-७८ चउणउदि-सहस्साणिं तिलो०प०७-२३८ चउ-गोराणि सात्ति- तिलो० ५०४-१६४२ | चउणादिं च सहस्सा जंबृ०प०३-२० चउ-गोउरा ति-साला तिलो० प० ३-४४, चउणादि । सहस्सा जंब० प० ७-३० चउ चउ कूडा पडिदिस- । तिलो० सा० ६४४ चउणभअडपणपणदुग- तिलो०प०४-२६२२ चउ चउ सहस्स कमला- जंबू० ५० ६-३४ चउणभणव इगि अडणव तिलो०प०४-२८५२ चउ चउ सहस्समेत्ता तिलो० प०७-६४ चणवअंबरपणसग- तिलो० प०४-२६७६ चउ चेत्तदुमा जबू- तिलो० सा० ५०३ चउणवगयणट्ठतिया तिलो० ५०७-५६६ चउ छक्क अड दु अड पण तिलो०५० ४-२६५७ चड़णवणव इगि खणभ तिलो०प०४-२८५६ चउ छक्कदि च उ अट्ट गो० क० ३६३ चउणवपणच उछक्का तिलो० ५० ४-२२२१ चउ छक्क पंच णम छह तिलो० प०४-२००४ चउ-ति-दुग-कोडकोडी तिलो. मा० ७ चउ छकं बंधतो पंचसं०४-२४० चउतियइगिपणतिदय निलो० प० ४-२६०८ चउछव्वीसिगितीस य पचसं०५-२४५ चरतियतियपंचा तह तिलो० ५० ७-४६५ चउ-जुत्तजोयणसय तिलो० ५०४-२०३६ चउतियणवसगछक्का तिलो० ५० ७-३१६ चउ-जोयण उच्छेहं तिलो० ५० ४-१८१६ चउतिसातिसयमेदे(जुत्ते?) तिलो० ५० ४-६२६ चउ-जोयण उच्छेहो तिलो. प०४-१६१० | चश्तीस-सहस्साणिं तिलो० प० ४-२२३६ चउ-जोयण-लक्खाणि तिलो० प० २-१५२ / चउतीसं चउदालं तिलो० ५० ३-. चउ-जोयण-लक्खाणि तिलो० ५० ४-२५६४ / चउतीमं पयडीण पंचस. ३-७६ चर-जोयण-लक्खाणिं तिलो०प०४-२८१४ । चउतीसं लक्खाणिं तिलो० प..-११६ चउ-जोयण-विक्खंभं जब० प०६-१५१ / चउतीसं लक्वाणिं तिलो. १०-३५ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुमागणी चउ-तोरण घउ-दारो वसु० मा० ३६५ चदालं चावाणि तितो. प. २-२५५ चउ-तोरण-वे दिजुदा शिक्षी०५०४-२०६१ च उदाल तु पमत्ते पंचम०५-३४६ चनारणवेदिजुदा तिलो. ५०४-२२० चर-दिमागेलसहस्म मिला० सा० ६४४ च उतारणवेदीहिं तिलो. प० ४-२०१५ चउ-१३:ो बधा पघसं०४-७६ चउतारणाभिगमा शिलो. प०३-३६ चउपरणांगच गिपण- सिलो० ५० ५-२६२६ चतारणेहि जुत्ता तिली०प०४-२०४ १३पणचादमचारी गो. जी. ६७७ च उतोरणहि जुत्तो तिलो०प०१-०२ |च उ पण छएणभ अडतिय शिलो०प०४-२६०० चउत्थ-पंचमकाले जबू०प०२-१८८ च. चांतच उगवया सिलो. १०७-३२१ च उत्यम्मि फालसमये जं० प०२-१०४ तिलो. ५० ३-६२ चन्त्यो य मणिमहो जबू०प०२-५. चउपुवंगजुदाई तिलो. १०४-०५० चउत्धीए पुढवोप मूना.१०५८ चउपुचगजुदाई तिलो० ५० ४-१२५१ चदस्बिरण-इदाणं . लिलो० ५०८-२६१ चपुच्चंगजुदायो सिलो. प०४-१२५५ चटम पदक्खुलीग सिद्धत० चउपुवंगजुदाश्रो सिली. ५० ४-१२५५ चउदम चेव सहम्मा जबू० ५० ३- ०चपुग्वंगहिया तिलो०५०४-१२५२ चउदस-जुद-पचमया तिलो. प. ७-१५८ सिलो० ५०४-१२५३ चउदस-जायण-लक्वं सिलो० प० -६२ चउ-वधाम्म दुविहीं पचस०५-२८३ चनस-णदीहि महिया जंय. प० ७-१८ चउ-भजिद-इट्टरुंदं सिलो. ५० ५-२५४ चदम पइएण्या बनु शगप० ३-६० चउ-भंगा पुत्वस्स य धम०५-३३० चउदम पचपाप-तसे सिद्धत. १३ चउ-मण चर-बयणा तिलो० ५०३-१८८ चउटस भव्वाभच्चे सिद्धत. १० चरखधावरविरद- गो० जी० ६६० चउडम-मल-पारसुद्ध घमु० मा० २३॥ चउरक्खा पंचक्रया कति० गु०१५५ चउदस-महाणदीणं ज० ५० ५-६३ चउरट्टहँ दोसह हिर मावय० दो.. चउदस-रज्जुपमाणो तिलो० ५० १-१५० चउरम्भहिया मीदी तिलो. प. ४-१२६३ चउटस-रयणवईणं जय०प०४-२१२ चररसयाई वीसुत्त छेदपि० ३६. चढस-रयणव ईगं तिलो. प०८-०६३ । चउरम्सो पुवाए तिलो० प०१-६६ चरदसहि महस्मेहि य जबू० ५० १-१०३ चउरगुलमेत्तमही तिलो. प०४-१.३५ चउदह-भेदा भणिदा णियममा० १७ चउरं (च)गुलंतरपाटो मूला० ५७३ चउ-दडा इगि हत्यो तिलो. प० २-२५२ | चउरगुलंतगले तिलो. प०४-८६३ चउदाल-पमाणाई तिलो. प०४-५६० । श्रगप० १-८ च उदाल-लक्ख-जोयण सिलो० ५०८-२१ चउरासीदि-सहस्सा तिलो. १० -१२७॥ चउदाल-सद जबू० प० १२-१३ | चउरामी-लक्वहिं फिरि जोगसा० २५ चउदाल-सया वीरे. तिलो. प० ४-१२२७ च उरिसुगारा हेमा तिलो. सा. ६२५. चउटाल-महम्सा अड- तिलो० ५०७-१२८ चरिदियाणमा. मूला० ११०१ चउदाल-सहस्मा अड- - तिलो० प० ७-१२६ | चउरुदयुवसंतसे गो. क. ६८१ चउदाल-सहस्सा अड- तिलो० प०७-२३० | चउरूवाइं आदि सिलो० प० २-८० चउदाल-महस्मा अड- तिलो० प०७-२३५ चउरो चउरो य तहा जंबू० १०६-७० चउदाल-सहस्सा रणवतिलो० प० ७-१.१ पंचस०५-४५६ चउदाल-सहस्सा रणवतिलो०प०७-१३० लक्वापिं बम्हे तिलो० प०८-१५० च उनाल-सहस्साणिं तिलो० ५० ७--१३१ | च उ-लक्खादो सोधसु तिलो० ५०४-२६१० उदाल-सहस्साणि तिलो. १०७-२२६ । चउ-लक्खाधियतेवी तिलो०प०६-१६ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ९ पुरातन-जैनवाक्य-सूची सो चज्वग्गं तेणवदी सुदख० १६ | चउवीस-सहस्साणि तिलो० ५० १-१४०॥ च उवच्छरसमधियअड- तिलो० ५० ४-६४६ | चउवीस-सहस्साणिं तिलो०प०१-१८८२ चउ-वणमसोयसत्तच्छ- तिलो० सा० १०११ चउवीस-सहस्माणि तिलो. प.-14 चउवरण तिसयजोया तिलो० ५० ४-१२४६ चउवीस-सहसम्माधिय- तिलो० प०३-०३ । चउवण्ण तिसयजोयण तिलो० ५०-६१ | चउवीमं चउवीसं तिलो० सा० १२१ चउवएण-तोम-णव-चउ- तिलो. ५० ४-१२४३ चउवीमं चावाणि तिलो०प०४-३३ चउवएण-तीस-गव-चउ- तिलो० सा० ८०६ । चउवीस-महस्तेहिं य जंबू०प०६-१५४ चस्वएणभहियाण तिलो० ५०४-२८३८ | चउवीसं चिय कोमा तिलो०प०४-०४६ चउवण्ण-लक्ख-चच्छर- तिलो० प०४-१२६१ / चउवीसं तित्थयरा अंगप०२-३६ चउवएण-सहस्साणिं तिलो० प०४-२२२७ चउवीसं दो उवरि पंचस०५-४४. च उवएण-सहस्सा सग- तिलो० प० ७-३७१ चउवीसं लक्खाणिं निलो०५०२-८ चउवण्ण-सहस्सा सग- तिलो० प०७-३५३ / चउवीसं लक्खाणिं तिलो. प०२-१३० चउवण्णं च सहस्सा तिलो० ५० ७-५०५ चउवीसं लक्खाणिं तिलो० प.-४६ चव्वं(र)कताडिदाई तिलो० ५०४-१११३ चउवीसं वजित्ता पंचसं०५-१६२ चउ-वावी मज्झपुरी तिलो० ५० १-१६६१ / चउवीसं वज्जुदया पंचसं०५-१६ चउविदिसासुं गेहा तिलो. प. ४-२३१७ चउवीसं वज्जुदया पचसं०५-४२० चउविसजिणाण णामट्र- अंगप० ३-१४ / चउवीसं वज्जुदया पंचसं० ५-४३० चउविह-उवसग्गेहिं तिलो० ५० १-१६ | चउवीसा चिय दंडा सिलो० ५० ४-१५४३ चउविह-कसायमहणे जोगिभ० ४ चउवीसेण य गुणिया पंचसं०५-३३॥ चउविह-दाणं उत्तं भावसं० ५२२ चउवीसेण वि गुणिद पंचसं०५-३१६ चउविह-दाणं भणिय जंबू० ५०२-१४५ चउवीसेण विगुणिया पचसं०५-३११ चउविहमरूविदव्यं वसु० सा० २० चउविवह तं हि विणय- अगप० २-१०० चउविहमेयविहं वा छेद पिं० ६६ चउ सग सग णम छक्कं तिलो० ५०४-२८८५ चउविह-विकहासत्तो भावपा० १६ |चउसहि-चमरसहिनी दसणपा० २६ चटविह-सुरगण-सामियं जवृ० ५० ५-१२५ तिलो०प०१-६२१ चवीस-छह-दियहे रिट्टस. २३४ चउसट्टि छस्मयाणि तिलो०प०२-१६ चउवीस-जलहिखंडा तिलो०प०४-२५२४ चउसहि-पदं विरलिय गो० जी० ३५२ चउवीस-जुदवसया तिलो०प०८-२०० चउसटि-सहसनारिंग तिलो० ५० ३-७० चउवीस-जुदेक्कसयं तिलो. प०७-२६०चउसट्टि होति भंगा पचसं० ५-३३२ चउवीसवारसयं गो० क. ७६७ । चउसद्धिं चुलसीदी जंबू० १०.१-१२५ चवीस-बार-तिघण तिलो० सा० ००३ / चउसर्हि व महस जंबू०प०७-२६ चउवीस-मुहुत्तं पुरण तिलो० सा० २०६ चउसही अहसया तिलो० प०७-११२ चउवीस-मुहत्ताणि तिलो. ५०२-२८७ चउसट्टी गुरुमासा छेदपि०२२४ । चवीस य पिज्जुती मूला० ५७४ चउसही चउसीदी तिलो. प०३-११ चवीस वि ते दीवा जंब० ५० १०-५२/ चटसही चालीसं तिलो०प०-१५६ चवीस-विभंगाणं जंब० ५० ११-३१/चटसट्टी-परिवन्जिद- तिलो० ५० ५-२७ चवीस-विभंगाणं जय० प० 11-७८ चउमट्टी पुट्टी तिलो. प०१-४०४ चवीस धीस बारम निलो० १०२-१८ चउ-सराणा रणरतिरिया तिलो० ५० ४-४१३ चउबीम-सहम्मायो जबू० प०५-१५ चउ-सण्णा तानो भय- मिलो० १०३-१७ चवीस-सहम्मागि निलो ५० -१३६२ चउ-सरगणा निग्यिगदी तिलो. प. --३०४ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपनानुक्रमणी - - चल सत्त एक दुग चर तिली. ५० ४ २८६४ चक्सिस्स विजयभंगो तिलो० ५० ५-१६१६ चउसत्तट्टेस्कदुगं तिलो० ५०४-२८३४ चक्कीण चामराणिं तिलो० ५० ४-१३८१ चउ सत्त दोरण अट्ट य तिलो० ५० ५-२६४७ चक्कीण मामलणो तिलो० ५० १-२६६ चरसद-जुद-दुसहस्मा निलो० ५० -१२३५ चकी दा सुएगाई तिलो० ५० ४-१२८६ चउसमएसु रसस्म य ज दिमा० ६२३ } चक्की भरहो दीहा- तिलो० सा० ८७७ चउसय छ-सहस्माणि तिलो० ५० ५-१२३२ चक्की भरहो सगरो तिलो. सा०८१५ चउसय सत्त-सहस्ग तिलो. प०४-१२३३ तिलो०प०४-१३०२ चउसहियतीसकोट्ठा निलो. प०४-८५ | चक्कहि करकचेहि य धम्मर० ४८ चउसाला वेदीया तिलो ५०४-७०१/चक्कहि करकचेहि य भ. पारा० १५७५ चउमीदि च उसयाणं तिलो० ५० १-२२६ चक्खिदियादिदुप्परि- छेद पिं० १८६ चउमीदि-लक्खगुणिदा तिलो० ५० ४-३०६ चक्खु-श्रचक्खु-अवहि-के- सम्मइ०२-२० चउसीदि-मया श्राही निलो० ५० ४-११२१ चक्खु-अचक्खू-श्रोही भावति०१ तिलो० ०४-१०६० चक्खु-अचवू श्रोही णियमसा. १४ चउसीटि-सहस्साई तिलो. १० ४-१०६३ | चक्खु-अचाक्खू-ओही कम्मप०४० नउसीदि-सहस्साणि तिलो ५००-२१६ | चक्खुजुगे बालोए णियमसा० १०३ चसीदि-ह्दलदाए तिलो. प० ४-३०५ चक्खुम्म जसम्सी अहि- तिलो. सा. ७६३ चउसीदी-अधियमयं तिलो. ५०७-२२० चक्खुम्मि साहारण गो० क० ३२५ निलो०प०४-२७०२ चक्खुविभगूया सग सिद्धत०३५ घउसीदी लस्वाणि तिलो० ५०८-४२६ चक्खुस्स दसरास्स य म. पारा चज्सु दिसाभागेसुं . तिलो० ५-६० चक्खु व दुबल जस्स म० श्रारा. ३ चउसु वि दिसाविभागे जवृ० प० ६-१६१ चक्रवूण जं पयासइ गोजी. १५ चउसु वि दिसासु तोरण- वसु० मा० ३६७ चक्खूप जं पयासइ. चउस वि दिसासु भागे जंबू० प०८-८५ चक्खूण जे पयासइ * पं०-३६ घउहत्तरि छञ्चमया जबू० ५० ३-१८ | चक्खूपमिच्छसासणचउहत्तरि-जुद-सगसय तिलो० ५०८-७४ चपखूदं मे छद्धा चहत्तरि सत्तत्तरि पचम०५-०७५ चक्खूदंसे जोगा चउहत्तरि सहस्सा तिलो. प०८-२६ चउहत्तरि सहस्सा तिलो. प०८-५६ चखू सोश्र धारणं चरहिद-तिगुणिद-रज्ज-. निलो० ५० १-२५६ चक्खू मोदं घाण चर हेट्ठा छह उवरि पचनं. ५-४४७चक्खू मोद घाई चक्कधरो वि सुभूमो भ० श्रारा० १६५० चट्टहिं पट्टहिं कुडि चक्कसग्करणयतोमर- तिलो० प० २-३३३ / चडणे गाना नहिसाः ३-३ चक्कसरसूलतोमर- तिलो० ५० २-३१८ चटणदललाई लहिला. ३५३ चक्कहर-केवलीणं सुदस० ४० चंडपम्पुबाट चक्कहरमाणमलो निलो० ५० ५-२०८६ चपडामह चक्कहरमाणमहणा जब ५० --10चहानाहन्द चक्कहर-राम-केसव भावपा० १४६ वादग्दोहन्मान चक्कत चमक्कतो जंवू० प० 12-१८८ चमात्यायन्स य चक्कि कुरु-फणि-सुरेंदे- तिलो. मा० ४६. चदमागम ययानाचक्किदु तेरससुराणा तिलो० मा० ११ बह-माय-माव-माहा लदिला. २६ सदिसा Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची चडमाया वेदद्धा लद्धिसा० ३६६ चत्तारि वि खेत्ताई x गो० जी० ६५२ चडिदूणेवमणंतं तिलो० सा० ८६ चत्तारि वि छे(ख)त्ता x पंचसं० १-२०॥ चतुरो इसुगारणगा जंवू० ५० १३-१४६ / चत्तारि वेदयम्मि टु कमायपा०४ चत्तं रिसिपायरणं भावसं० १४४ चत्तारिसदेगुत्तरि जंबू० प० २-१३ चत्ता अगुत्तिभावं णियमसा० E1 चत्तारि-सय स-परा तिलो. प०४-११५२ चत्ता पावारंभ पवयणसा० १-७६ | चत्तारि-सयाणि तहा तिलो० ५० ४-१८ चत्तारि अट्ट सोलस जंबू०प०३-१६५ । चत्तारि-सयाणि तहा तिलो० प० ४-१६० चत्तारिश्रादिणवबंध- पंचसं०५-३६ चत्तारि-सया गया जंबू०प०२-३६ चत्तारि कला गेया जंब० प०३-२८ चत्तारि-सया तुंगा जंबू० ५० ३-२५ चत्तारिकूडसहियो जंब० ५०६-१७१ चत्तारि-सया पण्णुत्तर- तिलो० ५० ५-३० चत्तारि गुणहाणा तिलो० प०८-६६३ चत्तारि-सहम्स-सुरा जव० ५० १२-० चत्तारि चउदिसासु तिलो. ५० ४-२४७७ चत्तारि-सहस्साई जंब० ५० ६-३५ चत्तारि जया पाणय- भ० श्रारा० ६६३ चत्तारि-सहस्साई तिलोप०४-१०६७ चत्तारि जणा भत्तं भ० पारा० ६६२ चत्तारि-सहस्साई तिलो. प०४-११८ चत्तारि जणा रक्खंति भ. श्रारा० ६६४ चत्तारि-सहस्साई तिलो० प०४-२०३८ चत्तारि जोयणसयं जंयू० प०११-६० चत्तारि-सहस्साई तिलो० प०-३८३ चत्तारि जोयणसया जबू० प०८-१६६ चत्तारि-सहस्साणि दु जंव०प०५-१७ चत्तारि जोयणसया जब० प०१-४ चत्तारि-सहस्साणि य तिलो०५०२-७७ चत्तारि जोयपाणं तिलो० ५० ४-२६१५ चत्तारि-सहस्साणिं तिलो० ५०२-१७५ चत्तारि तिग चदुक्के कसायपा० ३८ चत्तारि-सहस्साणिं • तिलो० प०३-६६ चत्तारि तिरिण कमसो गो० क० २४६ चत्तारि-सहस्साणिं तिलो. प०४-१६३७ चत्तारि तिरिण तिय चार गो० क० ४५३ / चत्तारि-सहस्साणिं तिलो०प०४-२६२३ चत्तारि तिरिण दोरिण य तिलो० १० ८-३६३ | चत्तारि-सहस्साणि तिलो. प०४-२७६५ चत्तारि तुंगपायव जंब० ५० ६-१६७ चत्तारि-सहरसाणिं तिलो. प०५-१६३ चत्तारि धणुसदाई । १०६२ चत्तारि-सहस्साणिं तिलो० ५००-१६५ चत्तारि धणु-सहस्सा जंब० ५० १-२६ | चत्तारि-सहस्सारिणं तिलो० ५०८-२० चत्तारि धणु-सहस्सा जंव० ५० १-३१ चत्तारि-सहस्सहिं जंब० प०८-५७ चत्तारि धगु-सहस्सा जव० प०१-६६ चत्तारि-सागरोवम- जंब० प० २-३१० चत्वारि पडिक्कमणे मूला० ६०० चत्तारि सिद्धकूडा. तिलो. ५० ५-१२५ चत्तारि पयडिठाणा पचसं०४-२३७ | चत्तारि सिरा-जाला- भ० पारा० १०२६ चत्तारि वारमुवसम गो. क. ६१६ चत्तारि सिंधु-उवमा तिलो० ५०-४६५ चत्तारि महावियडी. मूला० ३५३ चत्तारि होति लवणे तिलो०प०७-२७२ चत्तारि महावियडी भ० धारा० २१३ चत्तारो कोदंडा तिलो० ५०२-२२४ चत्तारि य खवणाए कप्तायपा०८ | चत्तारो गुणठाणा तिलो०५०२-२७३ चत्तारि य पट्टवए कसायपा०० चत्तारो चत्तारो तिलो०प०४-३३ चत्तारि य लक्खाणिं निलो० ५०८-६३३ चत्तारो चत्तारो तिलो० ५०४-२५३७ चत्तारि रचिय एदे निलो० प० २-१६ चत्तारो चावाणि तिलो. प० २-२२३ चत्तारिलोयपाला तिलो० प० ३-६६ चत्तारो पायाला तिलो०५०४-२५०७ चत्तारि लोयपाला जव०प०११-२४४ तिलो०प०७-५५३ चत्तारि वि खेत्ताईx गो० क० ३३४ ! चटुकुडतुंगसिहरो जव. प. 1 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी ६५ चदुकोडिजोयणे अड- जय० ५० १२-८२ / चम्मट्ठिकीडउदुरु वसु० सा० ३१५ चदुगदिभव्यो सरणी गो० जी० ६५१ चम्मट्ठिमंसलवलुद्धो रयणस० ११३ चद्गदिमदिसुदबोहा गो० जी० ४६० चम्मरयणो ण बुड्ढइ जंबू०प०७-१४१ चद्गदिमिच्छे चउरो गो० क. ३५१ चम्म रुहिरं मस । भावस०४०७ चदुगदिमिच्छो सरणी । ल द्विसा० २ चम्मार-वरुड-छिपिय छेदपिं० २२२ चदुगदिया एइंदी गो० क० ५६३ चयदलहदसकलिदं तिलो० ५०२-८५ चदुगुण-इसूहि भजिदं जबू० प० २-२६ चयधणंहीणं दव्यं गो० क. १०३ चदुगोउरसंजुत्ता जब० ५० १०-१०१ चयहदमिक्कूणपदं तिलो. १०२-६४ चदुतिगदुगछत्तीसं भावति० ४२ तिलो० प० २-७० चदुतियइगितीसेहिं तिलो० ५० १-२२० चरणकरणप्पहाणा सम्मइ०३-६७ चदाल-सयसहस्सा जबू०प०६-८२ | चरणम्मि तम्मि जो उन्न- भ० प्रारा० १० चदुदाल-सयं आदी जबू० ५० १२-१६ चरणं हवइ सधम्मो मोक्खपा०५० चदुपञ्चहगो बंधो गो० क० ७८७ चरदि णिवद्धो णिच्च पवयणसा०३-१४ चदुबंधे दो उदये गो० क. ६७८ चरविंबा मणुवाण तिलो० ५० ७-११६ चदुमुह-बहुमुह-अग्जक्ख- तिलो० प० ४-११४ चरमधरा-सारा हरा। गो. जी. ६३७ चदुरमलबुद्धिसहिदे जंय० प०१-११ चरमसमयम्मि तो सो म० श्रारा० २१२५ चदुर दुगंते वीसा कसायपा०४३ चरमे खुद-जंभ-वसा तिलो० सा० ७६१ चदुरंगाए सेणा भ० श्रारा० ७५७ चरया परिवजधरा • तिलो० ५०-५६१ चदुरंगुला च जिव्भा मूला. ६EE / चरयाय परिव्वाजा तिलो० ५० ५४७ चदुरुत्तरचदुरादी जय० प० १२-४६ चरिएहि कत्थमारणो भ० धारा० ३६८ चदुरेक्कदुपणपंच य ___ गो० क. ५५६ | चरिमअपुण्णभवत्थी गो० क० २१० चदुरो य महीसीण जबू० प० ६-६५ चरिमणवट्ठिदकुंडे तिलो० सा० ३५ चदुसटि-लक्खभजिदं जबू०प० १२-६४ चरिमणिसेउ(यु)क्कट्ठे लद्विसा० ६० चदुसंजलण णवण्हं पघस० ४-१६८ चरिमदुवीसूणुदयो गो० क० ७५७ चदु सुरणं एकत्ति य जबू०प० २-२० चरिमपहादो बाहिं तिलो० प०७-२८८ चदुसु वि दिसाविभाग जवृ० ५० ६-६५ | चरिमस्स दुचरिमस्स य तिलो० सा० ८२ चदुसु वि दिसासु चउरो जबू० ५० १०-५१ , चरिमं चरिमं खंड गो० क० ६५८ चदुसु वि दिमासु चत्तारि जवू० ५० १०-१५ चरिमं दसमं विसुपं तिलो. सा० ४२६ चदुर्हि समएहिं दंड भ० श्रारा० २११५ चरिमं फालि दिएण लद्धिसा० १४५ चमरकरणाग-जक्वग- तिलो० सा० ६८७ | चरिमं फालिं देदि दु तद्धिसा० १४४ चमरग्गिम-महिसणं तिलो. ५० ३-६२ चरिमादिचउक्कस्स य तिलो० सा०६० चमरतिये सामाणिय- तिलो० सा० २२७ चरिमाबाहा तत्तो ल द्धिसा० १७६ चमरदुगे आहारो तिलो० ५०३-१११ चरिमुव्वकेणवहिद गो० जी० ३३० चमरदुगे उस्सासं निलो० ५० ३-१४ चरिमे खंडे पडिदे लद्विसा. ५६E चमरदुगे परिसाणं निलो० सा० २०६ चरिमे चदुतिदुगेक गो० क० ६६८ चमरंगरक्खसेणा तिलो० सा० २४४ चरिम पढमं विग्धं लद्धिमा०६०७ चमरिंदो सोहम्मे तिलो. प०३-१४१ चरिमे सव्वे खंडा लन्हिसा० ४७ चमरीबाल खग्गिवि- भ० धारा० १०५१ | चरिमो बादपरागो कमायपा० २०६(१५६) चमरो सोहम्मेण य तिलो० सा० २१२ चरिमो मउडधरीसो सुदख०७० चम्मच्छ: पीयहँ जल सावय० दो० ३० ! चरिमो य सुहुमरागो कमायपा० २१० (१५७) Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची चरियथालयचारू चरियट्टालयचारू चरियट्टालयपउग चरियट्टालयरइदा चरियट्टालयरम्मा चरियं चरदि मग ना चरिया छहा य तराहा चरिया पमादबहुला चरियावरिया वदसमिचलचबलजीविदमिण चलगढसंविभाश्रो चलणरहिओ मणुरमी चलणविहीणे दिखे चलणं वलणं चिंता चलतदियअवरवंधं चलमलिएमगाढसविचलमलिगमगाढंच चलवेरिणि पावजुए चलियो चलणकिलेज चलियसरियम्मि पाए चहुविह अणेयभेयं चकमणे य हाणे चडाल-अण्णपाणे चंडाल-डोब-चीवरचंडाल-भिल्ल-छिपियचढाल-सबर-पारणा चंडाल-सबर-पारणा चंडालसंकरे सई चडालादिसुटणहिं चंडालादिसु सोलस चंडो चवलो मंदो चंडो ण मुच(य)इ वेरं तिलो०प०४-१७३ चंदरविगयगावंडे तिलो० ५० ७-५०१ तिलो०प०८-११३ चंदरविजवुदीवय गो० जी० ३६० तिलो. प०५-२१२७ चदसुराण पिच्छ रिटमः ५६ तिलो० ५०४-२१०० चदम मदमहम्म जयू० प० १२-१५ तिलो. प०४-७३२ चदरम मदमसम्म मूला० ३१२२ पंचथि. चाम्न सदमहम् तिलो. ५००-६१ भ० श्रारा० १५० चस्मायु विमाणे प्रगप... पचत्यि. १३३ चढाउपमुहबादी (2) सुटस० २३ मोरसपा० ७३ चदारणणि सुम्पहु भण: मुप्प० दो० ३४ मूना० ४७३ चदा दिवायग गह- तिलो. १०७-० याय० ति० १८२६ / चंदादो मत्तटो तिलो. प०७-४६८ नवसा० १३ चंदादो सिग्धगदी तिलो. प०४-१ ग्मि० १०१ चंदा पुगण पाया तिलो. सा० ३०३ भावस० ६६७, चंदाभसुसीमाओ तिलो० ५० ७-५८ लद्विमा० ३७८ चंदाभा य मुसीमा तिलो. मा०४४७ णियममा० ५२ चदाभा सूराभा तिलो. प०८-६२० बा० अणु०६१ चंदाभ सग्गगदे तिलो०प०४-४५ नाय० ति० १०-१६ चंदिरण बारसहस्मा तिलो० सा० ३४६ श्राय० ति०३-२५ चंदेहिं णिम्मलयरा थोस्मा०८ श्रायः ति० - चदो णियसोलसम तिलो. मा० ३४२ समय० १७० चंदो मंदो गमणे तिलो मा०४०३ भ० भारा० ५८० चंदो य महाचंदी तिलो. प० ४-१५८७ छेदपि० ३३६ : चंदोव दिएण्डें जिन्हें सावय० दो० १६ भावसं० २०६ चंदो वसहो कमलो जं० १० १३-१२ भावस० ५४३ चदो हविज उरहो भ. श्रारा० ६० तिलो० प० ४-१६२० चंदो हीणो य पुरणो भ. श्रारा० १७२२ छेदपि० ४-१५१६ चंपय-अमोय-गहणं जबू० ५० ५-६६ छेदपि ० ६७ चपय-असोय-वरणा जंबू० प० ३-२०१ छेदपि० ३४० चपय-क्रयंव- परो जबू० प० ४-४५३ छेदपिं० २२३ चपंति सव्वदेह धम्मर०४६ मूला० ६५५ चपाए मासखमण भ० श्रारा० १५४६ गो० जी० १०८ चंपाए वासुपुजो निलो०प०४-२३६ पचसं०१-१४४ चाउम्मासिय-वरिसिय छेदस०५० भावसं० ४७१ चाउचरणपराध वि छेदपिं० ३५८ जंबू. ५०११-१११ चाउचरणपराध । दार्पि०१० तिलो. प० ४-५३२ चाउचरणे संघ जवृ० ५० १०-७४ तिलो०प०४-५८७ चाउव्वएणो संघो जवू० ५०-६६६ तिलो० ५० ५-१६४ | चाओ य होड दुविहो मूला० १००६ तिलो० प०७-१८० चागी(ई) महो चोक्यो पंचसं.-1 तिलो० ५० ४-६०६ । चागी भद्दो चोक्खो" गो.जी. ७५ चंदण-सुअंध-लेओ चदणे वव्वगे चावि चंदपहो चंदपुरे चंदपह-पुप्फदंतो चंद-पह-सूइवट्ठी चंदपुरा सिग्घगदी चंदप्पह-मल्लिजिणा Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च प्राकृतपद्यानुक्रमणी चामर ससहर-कर-धवल चामीयर - रयणमए चामीयर-वरवेदी चामीयर समरणो चायम कीरमाणे चारणको गकल्लाचारणवर सेणाश्रो चारित्त पडिणिवद्धं चारित्तमोहणीए चारित्तसमारूढो तं खलु धम्म चारि वि कम्मे जरिणया चारुगुणसलिलपरं चारुसुखडेहिं जुदो चारुसुदंसणधरणे चालणि-गयं व उदयं चालं जोयलक्खं चालीस-जोगाई चालीस दुसय सोल चालीस - सहस्सारिंग चालीस कोदंडा चालीस लक्खा चालुत्तरमेक्कस चावसरिच्छो हिरणो चावारिण छस्सहस्सा चावारिण छस्तहस्सा चिट्ठति जहा चिर चिट्ठति तत्थ गाउदचिट्ठेज्ज जिरगुरणारोचित्तणिरोहे माणं चित्तपडं व विचित्तं चित्तपडं व विचित्तं * arita णारंभ पवयणसा०३ ३१०२१ (ज) चादुम्मासे चउरो चादुव्वण्णे संघे चामरघटा किकिणिचामरघटार्किकिरणचामरघंटा किंकिरिणचामरदुदुद्दिपीठं चामरपहुदिजुदाणं चित्तपडं व विचित्तं मूला० ६५८ चित्त पडिलेवपडिमा - मूला० २६३ | चित्तवइरा दु जाव य | चित्त-विचित्त-कुमारा चित्तविरामे विरमति चित्त-समाही - गुत्तो चित्तस्सावो तासि चित्तं वित्तं पत्त जबू० प० ३ - १८३ तिलो० प० ४-१६६ तिलो० प० ४- १६३० तिलो० प० १- ११३ | तिलो० प० ४-८०४ सावय० दो० १७६ | चित्तं समाहिद जस्स तिम्रो० प०८-५६२ चित्ताओ सादी तिलो० प० ४ - १६२४ | चित्ता वज्जा वेलुरिय तिम्रो० प० ४ - ४८६ | चित्तासोहि (चित्तसोही) म• मारा० ६७७ | चित्ते बहुल - चउत्थी भ• मारा० ६३४ | चित्ते वइरे वेरुलितिम्रो० प० ॥-११७७ चित्तोवर बहुम स. १६३ चित्तोवरिम-तलादो बा १० | चित्तोवरिम-तलादो, चारिता. ४२ चित्तोवरिम-तलादो पवयणसा० १-७ चित्तोरम-तलादो देव्वस० णय० ७४ | चित्तोवरिम-तलादो जबू० प० १३ - १७३ चित्तोवरिम-तलादो जबू० प० - १३६ | चित्तोवरम-तलादो गो० क० ७३६ | चित्तोवरिम-तलादो भ० श्रारा १३३ | चिर-उसिद-भयारी तिलो० प०८-२७ | चिरकालमब्जिदं पि य तिलो०, प० ४ - १७६३ चिरकियकम्महॅ खउ करइ तिलो० प० ७-१७० चिरपव्वइदं वि मुणी तिलो० प०८-१८८ | चिरबद्धकम्मणिवह तिलो० प० २-२५४ चितइ कि एवढ तिलो० प०२-११३ | चिंतइ जपइ कुरणइ ण वि तिलो० प०३-१०६ चिंतो सरूव तिलो० प० १-६७ चिंताए चिताए तिलो० प० ४-८६६ चितियमचितियं वा - तिलो० प० ४ -८७५ | चितियमचितियं वा भ० प्रा० ६६४ चितियमचितियं वा तिलो० सा० ५२० चितियमचिंतियं वा वसु० सा० ४१८ | चिंतेइ म किमिच्छ चितेमि पवरणगदं ? भावस० ६१६ जच तिलो० प० - २१ तिलो० सा० ८७३ पचयणसा० ३ - २४ १ १ (ज) भावस० ५६२ भ० श्रारा० २१०५ चिध चमरछत्तई जिगहॅ भावसं० ३३६ | चुरिणसरूव प्रत्थं ६७ ' कम्मप० ३३ चसु० सा० ४४४ तिलो० सा० २६६ ० प० ६-११६ भ० धारा० १३२ तिलो० प० ७-२० तिलो० सा० १४७ तेसिं सुत्ता० २६ तिलो० प० ४-६६८ जबू० १० ११ - ११७ तिलो० प० ५-६ तिलो० प० ४- २३६८ तिलो० प० ७-६५ तिलो० प० ७-८२ तिलो० प० ७-८३ तिलो० प० ७-८ निलो० प० ७-६३ तिलो० प० ७-६६ तिलो० प० ७-६ मूला० १०२ मूला० ७४८ सावय० दो० ६६ • मूला० ३५८ टव्वस० गाय० १५६ भावस० ४१५ पाहु० दो० ६० कत्ति० श्रणु० ३७२ तिलो० प० ४-६७१ पचस० १-१२५ कम्मप० ४० गो० जी० ४३७ गो० जी० ४४८ वसु० सा० ११४ जब ० प० ११-३६३ सावय० टो० २०० तिलो० प० ६-७६ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ पुरातन-जैनवाक्य-सूची - चुएणीकयो वि देहो धम्मर०७१ चित्तदुमं तलरुंद तिलो० प० ३-३२ चुलसोदि छ तेत्तोसा तिलो. सा. ६०५ चेत्तदुमा मूलसुं तिलो. ५०३-१३७ चुलसीदि उदि पणतिग- तिलो. प० ४-६५६ तिलो०प०५-२३२ चुलपीदि-लक्खकोडी अगप० १-६८ चेत्तप्पासादखिदिं तिलो०प०४-०१६ चुलसीदि-लक्खगुणिदे जब० प०४-२४२ चेत्तस्स फिराहपच्छिम- तिलो० ५० ४-११६६ चुलसीदि-लक्खदेवा जव० प०४-२४३ चेत्तस्न बहलचारिमे- तिलो० ५० ४-१२०० चुलसीदि-लक्ख-भहिम तिलो० मा० ६८२ चेत्तस्म य अमवासे तिलो० ५० ५-६६६ चुलसीदि-लक्खयत्ता- तिलो० मा० ४५१ चेत्तम सुकरट्टी तिलो. १०४-१५ चुलसीदि-लक्खसखा जव० ५०४-१६ चेत्तस्म सुकतइए सिलो. प० ४-६६६ चुलसीदि-सयसहस्सा जबू० ५० ५-१५७ चेत्तम सुक्कतदिए तिलो० ५० ५-६६. चुलसीदि-सयसहस्मा सुदसं० २० चेत्तस्म सुकादममा- तिलो०५०४-१९८७ चुलसीदि-सहस्साणिं तिलो० ५० ६-६ चेत्तस्म सुक्कपंचमि- तिलो० ५० ५-१४ चुलसीदि-सहस्साणि तिलो० ५०४-१७३६ चेत्तासिदणवमीए तिलो०प०१-६४३ चुलसीदि-हद लक्खं तिलो०प०४-२६३ चेत्तासु पिण्हतेरसि- तिलो. प०४-६४८ चुलसीदिं च सहस्ता जव०प०११-३१२ | चेतासु सुद्धचट्टी- तिलो०प०४-६६५ चुलसीदीयो सीदी- तिलो० ५०८-३५५ | चेढणपरिणामो जो दवस० ३४ चुलसीदी वाहत्तर- तिलो०प०५-१४१६ चेदणमचेदशं पिहु दवस० गय०५६ चुलसीदी य असीदी तिलो० सा० ४८ चेदणमचेदणा तह दब्वम० गय०१६ चुलसीदी-लक्खाणि तिलो० ५०२-२६ चेयारहिओ दीसड तश्वसा० ३६ चुल्लहिमवंतरुदे तिलो०प०४-२११ चेयणरहियममुत्तं दचण य०१७ चूडामणि आहिगरुडा तिलो० प. ३-१० चेयंतो वि य कम्मो भ० श्रारा०१५.. चूडामणि-फरिण-गरुड तिलो० सा० २१३ चेया उ पयडीयटुं समय०३२ चूरेई हत्थपत्थर छेटपिं० २१८ चेलादिसव्वसंगचा- भ. श्रारा० ११२२ चूलिय-दक्खिणभाग · तिलो० ५० ४-१६३३ / चेलाटीया संगा भ. श्रारा० ११५८ चेहय बंधं मोक्खं बोधपा.६ चेल्ला-चेल्ली-पुत्थियहिं परम०प००-८८ • चेदि तेसु पुरेसुं तिलो०प०४-२१६३ | चौतीस-तीस चोदाल- जब० १. १-१२६ चेट्टदि देवारगणं तिलो० प०४-२३१४ चोत्तीस-भेदसंजुद- तिलो० ५० ५-३९३ चेटति उहाकरणातिलो० प०४-२७२६ चोत्तीस चउटालं तिलो. सा० २१० चेट्ठति णिरुवमाया तिलो० ५० ५-२१५ चोत्तीसंभोगधरा अंगप० २-६ चेति तिरिण तिरिण य तिलो०प०४-२३०४ चोत्तीसं लक्खाणिं तिलो० ५००-१२० चेट्ठति माणुसुत्तर- तिलो० प० ४-२७७१ चेात्तीसाइसयाणिं तिलो० ५०-२६६ चेटुंति माणुसुत्तर- तिलो० ५० ४-२६२० चोत्तीसादिसएहिं तिलो. प० ६-१ चेटुति सुरगणाई तिलो० प० ४-८५४ चोत्तीसाधिय सगसय तिलो. प० ४-६५४ चे?दि कच्छणामो तिलो० ५०४-२२३२ / चोत्थीए सदभिसए तिलो० ५० ७-५३५ चेट्ठोदि कापजुगलं तिलो० प० ८-१३२ चोदस-इगि-रिण-रुदं तिलो० ५० ४-२७०७ चेटेदि जम्मभूमी तिलो०प० २-३०३ तिलो०१०२-80 चे?दि दिव्ववेदी तिलो०प०४-२०६६ चौदसग-रणवगमादी कसायपा० ५२ चेत्ततरूणं पुरदो तिलो० ५० ४-१६०८ चादसग-दसग-सत्तग कसायपा० ३२ चेत्ततरूण मूले तिलो० सा० २१५ | चाहस-गुहायो तस्सि तिलो० प० ४-२७४६ चेत्ततरूण मूले तिलो० प० ३-३८ | चौदस चेव सहस्सा जंबू० प०११-१३६ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IN प्राकृतपद्यानुक्रमणी ६६ चोदस-जीवे पढमा पचसं० ५-२५४ | चाइस-बच्छर समधिय तिलो० ५० ४-६४३ चाइसजुद-ति-सयाणिं तिलो. प. ७ -२६४ चौदस [यासयसहस्सा तिलो०प० ४-५६४ चोद्दस-जोयण-लक्खं तिलो०प०८-६२ चोदस सरायचरिमें पचसं० ४-४६१ चाइस-जोयण-लक्ग्ग तिलो०प० २-५४१ चोहस-सहस्स-जोयण तिलो. प० ४-१६१ चौदस-जोयण-लक्खा तिलो. प० ४-२८१३ चोदग्म-सहस्स-जीयण तिलो० प० २-१७६ चोद्दस-ठाणे छक्का तिलो० ५०८-४६६ चाहम-सहरसमेत्ता । तिलो० ५० ६-२६ चोदस-ठाणे छक्का तिलो. प. ८-४६६ चे।इससहस्स स्गसय तिलो ५० ४-५४६६ चेहिस-ठाणे छका तिलो. ५०८-४७५ चोदालं लक्खाणि तिलो० प०२-१०६ चादम-ठाणे छक्का तिलो. प०८-४७८ चोरस्स पत्थि हियए भ० श्रारा० ८६२ चाइस-ठाणे छक्का तिलो० ५०८-४८१ चोराण भयं वाहीण श्राय० ति०३-१६ चेोद्दम-ठाणे छक्का तिलो०प०८-४८४ चोराण समाएण य लिंगपा० १० चे,इस-ठाणे छक्का तिलो० प ८-४६० चौरी चार हणेइ पर सावय० दो०१८ चोदस-ठाणे सुरणं तिलो० ५० -४६५ चोरो वि तह सुवेगो भ० आरा० १३५८ चोहरा-ठाणे सुरण तिलो. प०८-४६८ चोसट्ट-कमलमालो निलो० प० ४-१८६६ चोदस-ठाणे सुण्ण तिलो० ५०८-४७१ चाइस-ठाणे सुगणं तिलो. प०८-४७४ छ चोदस-ठाणे सुरण तिलो, प०८-४८० चोद्दस-ठाणे सुएणं तिलो० ५०-४८३ छक्कट्ठम्चोइसादिसु तिलो. सा. १७० चोद्दग-ठाणे सुरणं तिलो. प०८-४८६ छक्मणभअहतियचाउ तिलो. ५०४-२६४१ चोहम-ठाणे सुण्ण तिलो० प०८-४८ छक्कदि गवतीस-सय तिलो० सा० ३४७ चोदम-ठाणेसु तिया तिलो । ८-४६४ छक्कदिहिदेक्कणउदी तिलो० ५० २-१८६ चोदम-ठाणेसु तिया तिलो०५०८-४७० छक्क दुग पंचा सत्तय तिलो० ५० ५-२७०८ चोदस-ठाणेस तिया तिलो०प०८-४७३ छक्कम्मदेसयरणे छेदस० ३७ चाहप-ठागोसु तिया तिलो० ५०८-४७६ छक्कम्मे संछुद्धे ल द्विसा०४८७ चोदस-ठाणेसु तिया तिलो. प०८-४८५ | चक्कं चदु णव चदु दह सुदख० ३७ चोदस-ठाणेसु तिया तिलो० ५०८-४८८ छक हस्साईणं । पंचस०४-८० चादम-ठाणेसु तिया तिलो. प०८-४६१ छक्कापक्कम-जुत्तो पंचस्थि० ७२ चाहस-ठाणेसु तिये- तिलो० ५०८-४७६ छक्कुलसेला सव्वे तिलो० ५० ४-२३६२ चोदस-दस-णव-पुत्री भ० श्रारा० ४२८ छक्केक्क एक्क छग तिलो० ५०४-२८१० चेाहस दहा सोलस- तिलो० प० २-२३६ छक्केक्क दु राव इग पण तिलो०प०४-२६३१ चोदम दु सदसहस्मा जवृ० ५०३-१६७ छक्खड छक्कविजयं जब०प०७-१५० चाहसपुव्वधरा पडि- तिलो. सा. ५४० छक्खंडपुढविमंडल- तिलो० ५० ४-५१५ चौदस पुवुद्दिट्ठा पचस. १-३५ छक्खडभरहणाहो तिलो० ५० १-४८ चहिस-बच्छरममधिय- तिलो० ५०४-१४ । छक्खहमसियो सो जव० प०८-७ चोदस-भजिदो तिउणो तिलो० ५० १-२६४ । छक्खडेहिं विभत्तो जब० ५०८-१६५ चोहस-भजिदो वि यदि तिलो. प. १-२४७ । छच्चउ इगि एक्वेक्क तिलो० प०४-२८६४ चाइस-मग्गणराजुद- गो० जी. ३३६ छचउ सग छक्केक्कं तिलो. प० ४-२६१८ चोङ्सयसहस्सेहि य जवृ० १०६-१५६ तिलो०प०४ ०४६३ चोदसय जाणि तहा तिलो०प०२-१० छञ्चसया पण्णासुत्त वसु० सा० ५४८ चोडसया छाहत्तरि - निलो० प..-७८ छच्चसहस्सा तिसया तिलो. प० ७-३४६ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० पुगतन-जैनवाक्य-सूची छचसहस्सा तिमया सिलो. १००-३६४ छट्टम-कालवमाणे- ब०५० २-125 छ घिय फोदडागि गिलो. १०२-२२६ । छट्टम-कालस्मते जब ५००-११८ छ चिय सयाणि पएणा सिलो० ५०४-२७२० बम-सिदिचरमिदिय- तिसो०५००-105 छञ्चेव य इसुघग्गं जय० ५० २-२८ घट्टम-चरिमे होति [1] तिलो. मा० ८६६ छमेव य फोडीयो जय० प० ४-१६० घट्टम्मि जिवरजगण- तिमो. १०४-८५८ छञ्चेव सया तीसं तिलो० ५००-५०० व लहुमाम मासिय वेदपिं० २३ छच्चेव महस्सा जय० ५० ११-१४ चहाणागं यादी गो० जी० ३२० छच्चेव सहम्सागि सिलो०प०४-११३१ चट्टोप पुढवीए मूला० १०६० छच्चेव सहस्साणिं शिली. ५० ८-१छट्टीए वरणमंडो सिलो. प०४-२७३ छच्छक्कगयणमत्ता तिलो० ५० ४-३२० बट्टीटो पुढचीदो मूला. ११. छच्छक्क पदगमग- सिलो० ५० ४-२८०० अधिरं असहं गो० २०१८ छनाए जह अत जय० ५० ५-८ छट्टो त्ति पारि भंगा गो० ० ६३४ छजीव छडायदणं भावपा० १३, छट्टो ति पढमसरणा गो० जी० ... छज्जीवणिकाएटिं मूला० ६५४ छटोवहि उवमाणा तिलो०प०-११९ छज्जीवणिकायाणं मूला० ४२५ एणउदिउत्तराणि तिलो० ५० -१८० छज्जीवदयावरणे जोगिम०५ छएण उदिफोडिगामा तिलो० ५० ५-१३११ छज्जुगलसेसएसुं तिलो० ५०-३५. छएणनदिगामफोडी- जब० प०१-५३ छज्जुगलसेसकप्पे तिलो० मा० ५८० छएणउदिचसहस्सा गो० क० १०१ छज्जुगलसेसफप्पे तिलो. सा० ४८३ छएणउदिनोयणसया तिलो० ५०४-२६०५ छज्जुगलसेसकप्पे तिलो. सा. ४६० सिलो०५०४-११०४ छज्जुगलससफापे तिलो० सा० ५०७ छएणनदि घ वियप्पा पंघसं० ५-३०२ छज्जोयण अट्ठसया तिलो० प०८-७५ छएणयदि च सहस्सा जं. ५००-२८ छज्जोयण-परिहीणो जय० प० ४-१२६ छएणवइगामफोडी- जंवू०प००-५४ छज्जोयण-लक्खाणिं तिलो० ५०२-१५० छएणवइगामकोडी- गंयू०प०-३४ छज्जोयण सक्कोसा जय० प०३-१४१ छएणउदी छचसया जंबू०प०७छज्जोयण सक्कोसा जंब० प०३-११३ छएगवएकतिछक्का तिलो. प०७-३६१ छज्जोयण सकोसा जंब० प० ७-८० छएणव चउक पणचउ तिलो० ५००-३८४ छज्जोयण सक्कोसा जंबू० ५०८-150 छएणव छ त्तिय सग इगि- गो० क० ६६३ छज्जोयण सकोसा जंग० ५०८-१२ छएणव छ त्तिय सत्त य पसं०५-३६४ छज्जोयणेक्कोसा तिलो. १०४ १६७ छएणवदिकोडिएहिं . ० ५००-५५ छज्जोयणेक्ककोसा तिलो० ५० ४-२१४ छण्णवदि सहस्साणं तिलो. प०४-२२२२ छज्जोयणो य विडवी नंब०प०६-६४ छएणव सग दुग छक्का तिलो० ५०७-३१५ छट्ठ अणुव्वयघादे+ छेदपि० ३०७ छएणं आवलियाणं कसायपा. १६५ (१४२) छ? अणुव्वदघादे+ छेदपिं० ३४२ छण्णाणा दो संजम तिलो० ५० ५-३०५ लट्ठमदसमदुवा भ० पारा० १०६ छएणोकसाय णवमे भास० ति०१७ छहट्ठमदसमदुवाभ० पारा० २५१ छण्णोकसायणिहा गो० क० २१३ छट्टट्ठमदसमदुवामूला० ३४८ छएणोकसायपयला पंचस० ४-५०१ छट्टट्ठमदसभेया तिलो० ५० ४३८ । छण्हमसएणी कुणई पंचसं०४-४२८ छट्ठमभत्तेहिं मूला० ८१० छण्हं कम्मखिदीणं जंबू०प०११-20 छट्ठमए-गुणठाणे भावसं० ६०६ | छण्हं पि अणुकरसोx ' गोक. २०७ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुफमणी १०१ छण्हं पि अणुक्कस्तो x पचस० ४-५६२ छद्दन्न-णवपयस्था दसणपा० १६ छण्हं पि सावयाणं छेदस०८० छदव्य-णवपयत्था भावस० ३६५ छएहं सुरणेरइया पंचस० ४-५२५ छद्दन्व-णवपयत्थे तिलो० ५० १-३५ छत्तर छणससिपंडुर सावय० दो० १०० छव-णवपयत्थे पंचसं० १-१ छत्तत्तयसिंहासणजव० ५०२-७५ छहव्व-णवपयत्यो लद्धिसा०६ छत्तत्तयसिंहासण- तिलो० ५० ७-४० छद्दन्ध-णवपयत्थो तिलो० ५० ४-६०३ छत्तत्तयसिंहासण- तिलो. ५०८-५८1 | छहव्वावहाणं गो० जी०५८० छत्तत्तयसीहासणजंबू० ५० ४-५४ छन्वेसु य णाम गो० जी० ५६१ छत्तत्तयादिजुत्ता तिलो० ५०४-८५३ छदो-णव-पण-छद्दग- तिलो० प०४-२६७८ छत्तत्तयादिजुत्ता तिलो० प०४-१८०५ छद्दो तिय ग पण चउ तिलो० ५० ४-२८८६ छत्तत्तयादिसहिदा तिलो० ५०४-२०२ छद्दो-तिय-सग-सग-पण- सिलो० प०४-२६५४ छत्तत्तयादिसहिदो तिलो० ५० ४-२४६ छद्दो भू-मुह-रुंदो तिलो० ५०३-३३ छत्त-धय-कलस-चामर- जंब० ५० १३-१२ | छधणुसहस्सुस्सेधं मूला० १०६३ छत्तस्स रायमरणं रिडस० १२० छप्पढमा बंधंति य पचसं०४-२१५ छत्तं मयं च फलसं रिट्टस. १८९ छप्पणइगछत्तियदुग- सिलो. ५०४-२६६१ छत्तासिदंडचक्का तिलो. प०४-१३०७ छप्पणउदये उवसं गो० फ० ६८८ छत्तिय-अट्ठ-ति-छक्का । तिलो० ५०७-३६३ छप्पण णव तिय इग दुग तिलो० ५० ५-२६६६ छत्तियणभछत्तियदुग- तिलो० ५०४-२६६२ छप्पएण चउदिसासुं। तिलो०प०४-११२ छत्तीस अचरतारा विलो० ५००-११६ छप्पएण छक्क छक्कं तिलो. १०७-२३ छत्तीसगुणसमग्गो भावसं० ३७७ छप्पएणब्भहियसयं तिलो० ५०८-१६५ छत्तीसगुणसमएणा- म. मारा. ५२५ छप्पएणरयणदीवा जबू० प० ७-५३ छत्तीसट्टारसए छेदस०६ छप्पएणरयणदीवे- जबू० ५०६-१५७ - छत्तीस-लक्ख-पंचस भंगप० २-३ । छप्पण्णसहस्साणिं तिलो० ५०४-२२२२ छत्तीसं च सहस्सा जब० ५० १२-३१ छप्पएणसहस्साधिय- तिलो. प० ३-७२ छत्तीसं तिएिसया भावसं० २८ छप्पएणसहस्सेहि तिलो० ५०४-१७४० छत्तीसं बत्तीसं पंचसं० ५-३३८ छप्पण्णसहस्सेहिं तिलो० प० ४-१७७० छत्तीसं लक्खाणि तिलो० प० २-११७ छप्पएणहरिद(हिदो)लोश्रो तिलो० ५० १-२०१ छत्तीसं लक्खाणिं तिलो० प०४-२८१२ छप्पएणहिदो लोश्रो तिलो० ५० १-२६६ छत्तीसं लक्खाणिं तिलो०प०८-३२ छप्पएणं च सहस्सा जंबू०प०७-३१ छत्तीसा गाहाए (प्रो) ढाढसी० ३७ छप्पएणंतरदीवा तिलो० सा० ६७० छत्तीसा तिरिएसया __ जंब० प० ४-१६४ छप्पएणंतरदीवा तिलो० प०४-१३६४ छत्तीसुत्तर-छसया तिलो. प०८-१७३ | छप्पण्णा इगसट्टी सिलो० प० २-२१३ छत्तीसे वरिससए * भावस० १३७ छप्पण्णा वेहिसदा जंबू०प० १२-६७ छत्तीसे वरिससए * दसणसा० २१ छप्पय-णील-कवोद-सु- गो० जी०४६४ छत्तु वि पाइ सुगुरुवडा पाहु० दो० १३० छप्पंचचउसयाणिं तिलो०प०८-३२६ छत्तेहि एयछत्तं वसु० सा०४६० छप्पंचणवविहाणं गो०जी०५६० छत्तेहि य चमरेहि य वसु० सा० ४०० छप्पचणवविहाणं * पचस०१-१५४ छदुमत्थदाए एत्थ दु भ० श्रारा० २१६७ छप्पंचतिदुगलक्खा तिलो०प०२-१७ छदुमत्थविहिदवत्थुसु पवयणसा० ३-५६ छप्पंचमुदीरतो पंचसं०४-२२४ छदुमत्येण विरइयं जंबू० ५० १३-१७१ | छप्पंचादेयंतं गो० क. ७६ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ पुरातन-जैनवाक्य-सूची छप्पंचाधियवीसं गो० जी० १५५ छन्त्रीसा कोडीओ जंवृ०प०४-१६० छप्पि य पज्जत्तीओ मूला० १०४७ छन्वीसिगिवीसुदया पंचस०५-२२३ छब्बंधा तीसंता ' पंचसं० ५-४६७ छब्बीसे तिगिरणउदे गो० २०४८ छब्बावीमे चउ इगि- पंचसं० ४-२४७ तिलो० प०४-५१२० छवावीसे चउ इगि-.. पंचसं०५-२७ | छसु ठाणेसु [य] सत्तट्ट- पंचसं० ४ २१३ छब्बावीसे चउ इगि-.. पंचसं० ५-२६८ छसु पुरणेसु उरालं पंचस०४-१ छवावीसे चदु इगि- गो० क० ४६७ छसु सगविहमढविह गोक०४५३ छन्भेदभागभिएणो जंबू० प०८-१०५ | छसु हेट्ठिमासु पुढविसु पसं० ५-६६३ छन्भेया रसरिद्धी तिलो० ५० ४-१०७५ छस्सग पण इग छएणव तिलो० प० ४-२८४७ छन्भया वा सभूसिज्जा चारि० भ० ६ छस्सम्मत्ता ताई तिलो० प० २-२८२ छम्मासद्धगयारणं तिलो० सा० ४२१ छस्मयजोयणकदिहिद- गो० जी०१४ छम्मासाउगसेसे धम्मर० १० छस्सयदडुच्छेहो तिलो० ५० ४-४७५ छम्मासाउगसेसे वसु० सा० ५३० छस्सय परणासाई ___ गो० जी० ३६५ छम्मासाउगसेसे पंचसं० १-२०० छल्सय पंचसयाणि तिलो. प०८-३७० छम्मासाऊसेसे वसु० सा० १६४ छस्सिदिएसुऽविरदी प्रास. ति०४ छम्मासे छम्मासे जंबू०प०८-१६३ छह-अट्ठारह-वासे णंदी० पट्टा० १४ छम्मासेणं वरगुह- जंबू० प०७-१२५ छहगुणिदं इसुवग्ग जबू० प० २-२४ छम्मुहओ पादालो तिलो० प० ४-६३३ छह दब जे जिणकहिय- जोगसा० ३५ छल्लक्खा छास(व)ट्ठी तिलो० ५०८-२६७ । छहदसणगंथिं बहुल पाहु० दो० १२५ छल्लक्खा छास(व)ट्ठी तिलो० ५० ४-१८३६ छहदसणधंधइ पडिय पाहु० दो० ११६ छल्लक्खा छास(व)ट्ठी तिलो० प० ४-१८४० छहिं अंगुलेहि पादो तिलो० प० ५-५१४ छल्लक्खा छास(व)ट्ठी तिलो० प० ४-१८४३ हि अंगुलेहिं वादो वृ० ५० १३-३० छल्लक्खा छास(व)ट्ठी तिलो० ५० ४-१८५५ छहसुण्णं अट्ठदसं मुदखं० ४५ छल्लक्खाणि विमाणा- तिलो० ५०-३३२ छहि कारणेहिं असणं मूला० ४७ छल्लक्खा वासाणं तिलो० ५० ४-१४६० छंडियगिहवावारो पारा० सा०२४ छन्वीसजुदेक्कसयं तिलो० ५० ४-२६५५/ छंडिय णियवड्दुत्तं (वुड्ढत्त) भावस० २१ छच्चीसभहियसयं तिलो. प० १-२२६ छंडेविणु गुणरयणणिहि पाहु० दो० १५१ छन्वीसमदो सोलं तिलो० सा० ६७५ छंदणगहिदे दन्वे मूला० १२८ छब्बीस-सत्तचीसा कसायपा० २६ छंदपमाणपवद्धं अगप० ३-४ छब्बीस-सत्तवीसा कसायपा०४६ छागलमुत्तं दुद्धं भ० श्रारा० १०० छन्वीमसया णेया जंबू० प०४-१६० छाणवदी लक्खपयं सुदख० ३६ छन्वीससहस्साणिं तिलो. प०४-०३६ । छादयदि सयं दोसे, गो० जी० २७३ छब्बीससहस्साधिय तिलो० ५०४-०४० छादयदि सयं दोसे पचसं० १-१.५ छन्वीसं चिय लक्खा- तिलो० ५०८-४६ छादयदि सयं दोसे। कम्मप० ६३ छन्त्रीसं च सहस्सा वृ० ५०७-४८ 'छादालदोसमुद्धं छन्चीसं चात्राणिं तिलो० ५००-२४८ छाढालसहस्साणिं तिलो. प०४-१२२४ कन्वीमं पणवीसं मूला० २२४ . छादालसुण्णसत्तय- तिलो० सा० ३८६ छन्चीमं लक्खाणि तिलो० ५० -१२८ ! छादाला तिरिणसदा जवृ० प०३-६ छन्वीस-सत्तसुरणं सुदख० ४८ । छायातवमादीया णियमसा० २३ इन्चीमाए उवरि पचम० -१३० ' छायापुरिमं सुमिणं रिटमा ६१ मूला० १३ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज छाया - दोसदूसियछायाल-सेस मिस्सो छाडि छरसारिण छात्र-सहरसा छाट्ठ-सहरसा छाट्ठ- सहस्सा ि छाडि अदालं छावहिं च सयाणि छावट्ठि च सहस्सा छावट्ठि च सहस्सा ट्टी छा छवी सत्ता छावत्तरि एयारहछावन्तरि - जुदछस्सयछासट्टिको डिलवा छासट्ठी अधियसयं छाट्ठी - लक्खाणि छासी अधिसय छाहत्तरिजुत्ताईं 1 हिंसा पट्ट erreभीरुरोसो छुहत हवाहवेयरछुहत हाभयदेसो प्राकृतपद्यानुक्रमणी भावपा० ६६ | छुतहाभय देसो धम्मर० ११८ मूला० २५४ भ० श्रारा० ११८६ पचस० ५-४७३ | छुहत हा सीउहा तिलो० प०२-१०६ छत्तस वर्दी यरस्स तिलो० प० ४ - १४५१ |छेत्तूरा भित्ति वधिदूर पीयं तिलो० प० २-३६४ विलो० प० ४ - १४५२ |छेत्तू य परियायं * तिनो० प० ७-५८० छेत्तूरा य परियायं *जबृ० प० ११-४७ | छेत्तुं तसालि + तिलो० ० प० ४ - २५६७ छेत्तणं तसालि + जबू० प० १२-८७ छेद बंधरण वेढण गो० जी० ४७० पचस० १-१३० निलो० प० १-१६७ तिलो० प० १-१७२ भ० श्रारा० ११६० जंबू० प० १२-१०८ | छेदणभेदण्डह जबू० प० ७ - ८५ जबू० १० २ - १०१ छेद रणभेदादहरणं | छेटुवजुत्तो समरणो art पचस० ५-१८ तिलो० प० ४-६६८ तिलो० प० ८-४६० तिलो० प०२-२६६ तिलो० प० ८-४६ १ तिलो० प० ८-१५५ तिलो० प० ७-५६८ जबृ० प०३-२२ जबू० प० २-२४१ तिलो० प० ३-८३ विनो० प०८-२४२ तिलो० प० ४-३७६ कत्ति० श्र० ३६ पचस० ३-६७ भावस० १७८ परम० प० १-७२ समय० २०६ तिलो० प० २-३३४ समय० २३८ समय० २४३ जबू० प० ११-१७४ जबू० प० ११-१७१ सावय० दो० १८ सावय० दो० १०७ छहत्तर विरिणसदा छाहत्तरि-लक्खजुया छात्र- लक्खाणि छाहत्तर - लक्खाणि छक्केण मरदि पुंसो छिज्जइतिल तिलमित्तं छज्जइ पढमं बंधो छिज्जइ भिज्जइ पयडी छिज्जर भिज्जउ जाउ खड छिज्जदुवा भिज्जदुवा छि सिरा भिरकर रा छिंददि भिददि य तहा छिददि भिंददि य तहा छिदंतिय करवत्तेछिंदतिय दितिय as दंसण गड्ढायर as सुविसुद्धिय होइ जिय fear छेदोवडावण जइ छेरभेयरणतारण जो मझे इद्ध कोई वरेण गण ज जइ अहर वग्ग - अहरक्खto हिलासु शिवारियउ जड अंतरम्मि कारणजइ आउ न पिच्छर जइ इक्कम विश्रंसे जर इक्क हि पावीसि पय जइ इक्केणाएं ढाढसी० १० जइ उप्पज्जइ दुक्ख यिमसा० ६ जइ उपज्जइ दुक्ख जइ उवरत्थं तिजयं धम्मर० ११७ वसु० सा० म १०३ एरिसो व धम्मो भ० श्रारा० १५८३ तिलो० प० ४-६१७ पवयणसा० ३-१२ पवयणसा० ३-२२ अंग५० १-२२ वसु० सा० १७६ थाय० ति०२-११ वसु० सा० ३०६ श्राय० ति० ४-२६ श्राय० ति० ७-६ सावय० दो० ५१ जइ इच्छइ परमपयं धम्मर० १३१ जइ इच्छसि भो साहू परम०प०२-१११०३ as इच्छह उत्तरिढुं + जइ इच्छह उत्तरितुं + जइ इच्छहि कम्मखय जह इच्छहि सतोसु करि जईसरणाम गरो जइ उत्तरवग्गाणं वसु० सा० ३६० रिट्स० ७५ श्राय० ति० ४-७ पाहु० दो० १७७ थाय० ति० ५-१३ णयच० ८७ दन्चस० णय० ४१६ श्रारा० ० सा० ७४ सावय० दो० १३० धम्मर० १२६ श्राय० ति० ६-६ श्रारा० सा० ६४ मूला० ७८ भावस० २२८ धम्मर० १८ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ जइ एरिसो विमूढो एरिस विलो लोहिज्जो पुरातन जैनवाक्य-सूची धम्मर० १०५ घम्मर० १०१ वसु० सा० ३०६ भावसं ० ६७ भावसं ० ३२ सम्मइ० २-२३ श्राय० ति० ४-१ श्राय० ति० १५-२१ भावसं० १७१ जइ एवं जइ एवं तो इत्थी अइ एवं तो पिरो अइ श्रग्गहमेतं दंas he faceओ जइह माओ जइ कह कि कसायग्गीash वितत्थ गिइ इह वियाई हु जर कह वि हुंति भरिया as किरा कर लं इको विउरिए जइ खरिणयतो जीवो जइ खाइयसट्ठी जह गित्थु दाणेण विणु as गिवंतो सिइ जई चितहिं सुप्पहु भाई जइ चेयरणा णिच्चा जइ जर मरण - करालियउ जइ जलहाणपउत्ता जई जिय उत्तमु होइ वि जइ पउम दिगाहो जइ पढमतइज्जेहिं श्राय० सि० ८-६ रिहस० ११ वसु० सा० १३८ | जइ पढमतइयवग्गक्खभावसं० ६४ आ पढमतइयवरणा वसु० सा० २१५ | वह पष्ठमतइयवरणा सावय० दो० ८७ चिदिदमश्र जह पावर उच्चत्तं जई पिच्छर गयरगतले भाव० ६८ | जइ पिच्छर गहु वय जोगसा० ४६ जइ पुज्जर को विरो जइ पुण केण वि दीसर भावसं० १०२ सुप्प० दो० ७५ भावसं ० १८ परम० प० २-४ जई जिय सुक्खहँ अहिलसहि सावय० दो० १२२ जइ जीवेण सह च्चिय ज जुत्तो दिट्ठो वा as fuaat महापा जइ विकु च्छेद जाणे विसो जर म्मिल अप्पा मुखइ जम्मिनु अप्पा मुगहि जइ विसद्धु विकु विकरइ जर तप्पइ उग्गतवं जर ता धारावडा (2) जइ विजय- पालरणत्थं जइतुपं गवणीयं जर ते हवंति देवा जइ ते होति समत्था भू as fro पथ ( थी) घरि वसइ तो भ० श्रारा० २६३ भावसं० ५६ जोगसा० ३७ परम०प०१-११४ भावसं ० ६२ जइ दंसणेण सुद्धा जहदा उच्चत्तादि रिणजइ दा खर्डालोगे - जई दिए दह सुप्पहु भइ जइ दीसइ परिपुर जइ दे कदा पमाणं जइ देखेर छड्डियउ जइ देवय देव सुर्य जइ देदि तत्थ सुरहरजइ देवो व जइ देवो हरिण रक्खइ जंबू० प० ४-२८० जइ पुण सुद्धसहावा जर पुत्तदिदाणे समय ० ० १३६ जइ फलइ कह वि दा श्राय० ति० १८-२४ जइ वद्ध मुक्क मुहि भावसं० २३८ जइ बंभो कुरणइ जयं समय ०२५६ जइ बीहउ चउगइगमरणा (पु) सीलपा० ३१ जइ भइ को वि एवं जोगसा० ३० जर भाविज्जइ गंधे जया इमेण जीवेजइया तव्त्रिrate भावसं० २३१ जया दहरहyat भावसं० २३६ जया मणु ग्गिंथु जिय धम्मर० ११५ जया स एव संखो ● भावसं० ७८ ज रायेण दोसे जद्द लद्धर माणिक्कडउ जइ वग्गपदमवण्णा भावसं ० २१६ सुप्प० दो० ४० 1 - ज सुत्तपा० २५ भ० प्रा० १२३६ भ० भा० ७७२ सुप्प० दो० २७ रिट्स० १०५ भ० श्रारा० ६३५ सावय० दो० ३६ भावस० ७६ वसु० सा- १२० कत्ति० अ० २५ ' भावस० ४३ दंसणसा० ४३ आय० ति० ६-११ श्राय० ति० ६-१ श्रा० ति० ६-८ श्राय० ति० १७-५ मूला० ८६८ घस्मर० ८२ रिट्स० १०० रिस० १४ कत्ति० भावसं० ४४६ वसु० सा० १२२ ० अणु० २०० भावस० ३३ भावसं० ४०२ जोगसा० ८७ भावसं० २०४ जोगसा० ५ भावसं० ३८६ भ० धारा० ३४२ मरिण को करिवि कलहीजइ पाहु०दो० १४० जमे होई मरणं वसु० स० १६८ समय० ७१ देव्वस० णय० ३७१ भावसं० २२६ जोगसा० ७३ समय ० २२२ चारि० भ० ६ पाहु० दो० २१६ श्राय० ति० ५-६ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत ग्धानुक्रमणी १०५ जइ वा पुवम्मि भवे वसु० सा० १४६ | जगमज्मादो उवरि तिलो० प०४-० जइ वायनाडिपत्ता श्रायः ति० १६-२६ / जगढिघणपमाणो तिलो० ५० १-१ जइ वारउँ तो तर्हि जि पर पाहु० दो० ११% जगसढिसत्तभागो । तिलो० सा० ७ जड वि खिविज्जे कोई __धम्मर० ६७ | जगसेढीए वग्गो । तिलो० सा० ११२ जइ चिलवयति करुण सिलो. प० २-३३७ जच्चंध-बहिर-सूत्रो भ० धारा १७८८ जइ विसयलोलएहिं सीलपा० ३० | जच्छिच्छसि विक्खंभं तिलो. ५० ४-१७६५ जइ वि सुजायं बीय भावस. ४०१ | जच्छिच्छसि विक्खंभ तिलो. प०४-१७६७ जड सग्गंथो मुक्खं भावसं० ८८ | जाँच्छच्छसि विक्खंभं जबू०प० ६-४७ जइ सयदेवयानो भावसं० ८२ | जच्छिच्छसि विक्खभं जबू०प० १०-६६ जइ सबमरियपात्रो प्रायः ति० १८-१४ | जच्छिच्छसि विक्खंभं जबू० ५० ११-१६ जइ सय वभमयं ढव्यस० णय० ५२ जडसम्भावं ण हु मे दचस० णय० ४०४ जह सव्व सायारं सम्मइ० २-१० जडसम्भावो ण हु मे ३ णयच० ८२ जह सव्वाण वि जोओ आय० ति० १६-२४ ! जण जज्जुर सुप्पह भण्ड सुप्प० दो० ४३ जइ संति तस्म दोसा भावस० १०६ जणण-मरणादिरोगा- भ० थारा० १४६१ जइ संसारविरत्तो याय. ति० १६-१ जणणंतरेसु पुह पुह तिलो० ५०४-००० जइ सुद्धउ धणु वल्लहउ सुप्प० दो० १७ जणणी जणगु विकत घरु परम० ५० १-१३ जइ सुमिणम्मि विलिज्जद रिट्ठस. १२२ जगणी वसततिलया भ० श्रारा० १८०० जइ हुंति कह वि जडगो पारा० सा० ४७ जणपायडो वि दोसो भ० भारा० १४३३ जइ होइ एयमुत्ती धम्मर० ११० जणवदसच्चं जध श्रो- मूला० ३०६ जई होइ धो बलियो प्रायः ति०१-१० | जणवद-सम्मद-ठवणा-+ मूला० ३०८ जक्खयणागाढीणं मूला० ४३१ जणवद-सम्मदि-ठवणा-+ गो० जी० २२१ जक्खयणायाईणं भावस०७५ जणवद-सम्मदि-ठवणा-+ भ० थारा० ११६३ जक्खिदमत्थएK तिलो. प. ४-६११ जण्हुम्हि विउस्सग्गे छेदस० ३५ जक्खिंदो वि महप्पा जंवृ० प०६-७६ जण्हुप्पमाणतोये रिहस० १४३ जकावीओ चक्केसरि तिलो. १०४-६३५ जएहूवरि चउ-चउ- । छेदपिं० ८३ जक्खुत्तममणहरणा तिलो. प० ६-४३ जत्तस्स पह ठत्तस्स गो० जी० ५६६ जक्खुत्तमा मणोहर- तिलो. सा. २६६ जत्ता-साधण-चिन्ह-क- भ० श्रारा०८२ जगजगजगतसोहं जवृ० ५० ११-१६८ जत्तु जदा जेण जहा गो. क. ८८२ जगजगजगंतसोहा जबू०प०५-७८ जत्तेण कुणइ पावं बा० अणु० ३१ जगदीअभंतरण तिलो० प०४-६८ जत्तो दिसाए गामो भ० श्रारा० १९८६ जगदीअभंतरण तिलो. प० ४-६६ जत्तो पाणवधादी भ० धारा० ८३१ जगदीवरिमभाग तिलो० ५० ५-१६ जत्तोपाये होदि हु लद्विमा० २५२ जगढीउवरिमरुदो तिलो. प०४-२० जत्तोपाये होदि हु लद्धिसा० ३३४ जगदीए अब्भतर- तिलो० ५० ४-८७ जत्थ असंखेजारणं लन्डिसा० १२३ जगदीदो गतूण जवृ० ५० १-४६ जत्थ करे श्रह पव्वे रिट्स० १५६ जगदीबाहिरभागो तिलो० प०४-६६ जत्थ कसायुप्पत्तिर मूला० ६४६ साइ५ तिलो०प०४-२५२६ जत्थ कुवेरो त्ति सुरो जबू० प०११-३२२ जगदी-विरणासाई तिलो० ५० ४-१२ जत्थ गुणा सुविसुद्धा कत्ति० अणु० ४८. जगपदरसत्तभाग तिलो. सा. १२६ जत्थ ण अविणाभावो दवस. य. ३६ जगपूरणम्हि एक्का लद्धिसा० ६२२ ! जत्थ ण करणं चिंता भावस० ६२१ नाG - - .. Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ पुरातन-जैनवाक्य-सूची जत्थ ण फलमलम कत्ति० अणु० ३५३ | जदि तारिमाओ तुम्हे भ० श्रारा० १६.४ जत्थ ण कटयभंगो भावपं० १२० जदि ते ण संति अट्टा पवयणमा० १-३१ जत्थ ण जादो ण मदो म० श्रारा० १७७५ माया पवयणसा०३-15 जत्थ ण झाणं मेयं श्रारा० सा० ७८ जदि तेनि बाधादो भ० श्रारा० १६० जत्थ ण सोत्तिग अस्थि दु म० श्रारा० २२८ जदि दवे पजाया कत्ति थणु० ०४३ जत्थ ण होज तणाई भ० श्रारा० १९८४ जदि दसणण सुद्धा पवयणमा०३-२४३०१३(ज) जत्य णिसएणो पुच्छड थाय० ति० ५-६ जदि दा अभूतपुख्य भ. श्रारा. १६३० जत्थ णिसएणो पुच्छड श्राय० ति०५-१० जदि दा एव पदे भ० धारा० १५५८ जत्थ त्थइ जिणणाहो जंवू० ५० १३-१०३ | जदि दा जणेड महण- भ० श्रारा० ६२८ जत्थ दु वेदड्ढणगो जंबू० प० ८-१०४ जदि दा तह अएगाणी भ० श्रारा० १५३० जत्थ पुण उत्तमट्ठम- भ० श्रारा० ६८४ | जदि दा रोगा एक्कम्मि भ० श्रारा० १०५४ जत्थ जवृ० प०४-२६० जदि दाव विहिसिज्जा भ० पारा० १०२१ जत्थ वरणेमिचंदो गोक०१०८ जाद दा विहिंसदि गरो भ. श्रारा० १०४६ जत्य वहो जीवाणं धम्मर० १५ जदि दा सवदि असते- भ० श्रारा० १४२० जत्थुद्देसे जायदि तिलो० सा० ८०। जदि दा सुभाविदप्पा भ० थारा० १६४८ जत्थेक्कु मरइ जीवो+ पंचस. १-८३ / जदि दिवसे मंचिदि भ० थारा० १६६७ जत्थेक्कु मरइ जीवो + गो० जी० १६२ जदि धरिसण्मेरिमयं भ० थारा० ४६४ जत्थेयारहसड्ढा श्रंगप० -४० जदि पञ्चक्खमजाय पवयणमा०१-३६ जत्थे व चरद बालोx भ० पारा० ६२०३ / जदि पदि दीवहत्यो मूला. १०६ जत्थेव चरदि बालोx मूला० ३२६ । जदि पढदि बहुसुदाणि य मोक्वपा० १०० जदणाए जोग्गपरिभा- भ० श्रारा० १६५ जदि पत्रयणम्स मारो भ० धारा०१% जदं घरे जद चिट्टे * मूला० २०१३ जदि पुग्गलकम्ममिणं समय०५ जदं चरे जदं तिढे श्रगप०१-७ जदि पुण चडालादी छेदपिं० ३०१ जद तु चरमाणस्स मुला० १०१४ जदि पुण परवादिवित्रा- छेदपिं० १४२ जदि अधिवाधिज्ज तुमं __ भ० श्रारा० ६४४० जदि पुण मुहम्मि पम्सदि छेदपिं०६६ जदि आयरिश्रो छेद छेदपि० २५८ , जदि पुण विराहिणं छेदपि० २८७ जदि इदरो सोऽजोग्गो मूला० १६८ जदि मरदि सासणो सो लद्धिसा. ३४६ जदि एगणिसं वसदिय- छेदपिं० १३५ जदि मूलगुणे उत्तर- भ० श्रारा० ५८४ जदि कुरणदि कायखेद पवयणमा० ३-५० जदि वत्थुदो वि भेदो कत्ति० अणु० २४६ जदि कोइ मेरुमत्तं भ० श्रारा० १५६३ भ० श्रारा० १९७७ जदि गोउ(पु)च्छविसेस लद्धिमा० १३७ जदि वा सवेन्न संते- भ० श्रारा.१४०१ जदिनगोचारस्स विहिं श्रगप० ३-२४ जदि वि असंखेजाणं लद्विसा० १५१ जदि चरणकरणसुद्धो मूला. १६७ / जदि वि कहचि वि गथा भ० श्रारा० ११४२ जदि जीवादो भिएणं कत्ति० अणु० १७६ जदि विक्खादा भत्तप- भ. श्रारा० १६७६ जदि जीवो ण सरीर समय० २६ जदि वि य करेंति पावं मूला० ८६६ जदि ण य हवेदि जीवो कत्ति. अणु० १८३ जदि वि य से चरिमंते भ० श्रारा० १६६० जदि ण हवदि सव्वण्हू कत्ति० अणु० ३०३ भ. श्रारा० ११६५ जदि ण हवदि सा सत्ती । कत्ति० अणु०२५५ जदि विसमो सथारो भ० श्रारा० १६८ जदि तस्स उत्तमंगं भ० भारा० १६६E जदि विसयगंधहत्थी म. श्रारा० १४११ जदि तं हवे असुद्ध मूला० ३२४ । जदि वि सयं थिरवुद्धी भः श्रारा० ३३३ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी १०७ । जदि सक्कदि कादं जे णियमसा० १५४ | जमलजमला पसूया + जबू० प० २-११८ जदि सत्तरिस्स एत्तिय- गो० क० १४५ / जमला जमलपसुदा+ तिलो०प०४-३३३ जदि सबमेव णाणं कत्ति० अणु० २४७ | | जम्म-जर-मरण-तिदयं धम्मर० १३६ जदि सव्वं पि असतं कत्ति० अणु० २५१ जम्म-जरा-मरण-समा मूला० ६६६ जदि संकिलेसजुत्तो लद्धिसा० १५० जम्मण-अभिणिक्खवणं भ० आरा० १४३ जदि संति हि पुण्णारिण य पवयणसा० ३-७४ जम्मण-खिदीण उदया तिलो. प० २-३१० जदि संथारसमीवे छेदपि० २०० जम्मण-मरण-जलो भ० श्रारा० २१५८ जदि ससारत्थाणं समय० ६३ / जम्मण-मरण-विमुक्का तञ्चसा०३८ जदि सागरोपमाऊ मूला० ११४५ जम्मण-मरण-विवजियउ परम० प० २-२.३ जदि सुद्धस्स य बंधो भ० श्रारा० ८०६(क्षे.)। जम्मण-मरणाणतर- तिलो. प० २-३ म० श्रारा० ११३७ जम्मण-मरणुव्वन्गा मूला०७७५ जदि सो परदव्याणि य समय० ६६ | जम्मसमुद्दे बहुदोस-* बा० अणु०५६ जदि सो पुम्गलदळवी समय० २५ | जम्मसमुद्दे बहुदोस- भ० श्रारा० १८२१ जदि सो सुहो व असुहो पवयणसा० १-४६ जम्ममरो रिक्खाओ रिट्ठस० २३० जदि हवदि गमणहेदू पचस्थि० ६४ | जम्म खलु सम्मुच्छण- गो० जी० ८३ जदि हवदि दव्यमरणं पंचस्थि० ४४ / जम्मध-मूय-वहिरो धम्मर ८३ जदि होज्ज मच्छियापत्त- भ० श्रारा० १०३६ | जम्मं मरणेण समं कत्ति० अणु०५ जदि होदि गुणिदकम्मो लद्धिसा० १२७ जम्माभिसेयभूसण- तिलो० ५० ३-५८ जध उग्गविसो उरगो भ० श्रारा० १३६८ | जम्माभिसेयसुररइ-(?) तिलो० ५० ४-१७८३ जध करिसयस धरणं भ० श्रारा० १३६७ / जम्मि भवे संदेहं । भावसं० २६५ जध कोडिसमिद्धो विस- भ० श्रारा० १३८२ | जम्मि सणी णक्खचे रिट्ठस० २२४ जधजादरूवजादं पवयणसा०३-५ | जम्हा अरिहंत हवा धम्मर० १३२ जध ते णभप्पदेसा पवयणसा० २-४५ जम्हा असञ्चवयणा- भ० श्रारा० ७६१ जध भिक्खं हिंडतो भ० श्रारा० १३३५ जम्हा उवरिद्वाणं पंचस्थि० ६३ जध सरणद्धो पग्गहि- भ० श्रारा० १३३४ | जम्हा उचरिमभावा लद्धिसा० ५१ जमकगिरिंदाहिंतो तिलो. प०४-२१२३ जम्हा उवरिमभावा गो० जी० ४८ जमकगिराणं उवरि तिलो. प०४-२०८० जम्हा उवरिमभावा गो० क० ८१८ जमकं मेघगिरीदो तिलो० ५०४-२०८७ जम्हा एक्कसहावं दवस. णय० ३० जमकं मेघसुराणं तिलो० प०४-२०८५ जम्हा कम्मस्स फलं पचस्थि० १३३ जमकूडकचणाचल- जबू० प० ६-२० जम्हा कम्मं कुचदि(इ) समय०३३५ जमकोवरि बहुमज्झे तिलो० ५०४-२०७८ | जम्हा धादेदि(एइ) परं समय० ३३८ जमगाण जहा दिट्ठा जंवृ० प०६-१०० जम्हा चरित्तसारो भ० श्रारा०१४ जमगारण जहा दिट्ठा जंवृ० प०६-१०१ धम्मर० १३३ जमगा णामेण सुरा जंवू०प०६-२१ | जम्हा जाणइ(दि) णिच्चं समय०४०३ जमगो मेघो वट्टा तिलो० सा० ६५५ | जम्हा ण णएण विणाx णयच०३ जमणामलोयपालो तिलो० प०४-१८४२ | जम्हा णएण ण विणा x दध्वम० गय० १७४ जमणालवल्लतुवरी- तिलो. प० ४-१३३ जम्हा णिग्गंथो सो भ० श्रारा० ११७२ जमणिच्छंती महिल भ० श्रारा० ६३१ जम्हा दु अत्तभावं समय० ८६ जमलकवाडा दिव्वा तिलो० प० ४-१७७ जम्हा दु जहरणादो समय० १७१ जमलकवाडा दिन्वा जंव० ५००-८६ | जम्हा पंचपहाणा मावस०७१ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ जम्हा पंचविहाचारं जहा विदि कम् जम्हा सुदं वितक + जम्हा सुटं वितक्कं + जहा सो परमसुही जम्हा भावा जहि गुणा विस्ता जहि य जहि य काले जहिय लीगा जीवा जहिय वारिमेत्ते जहि विमाणे जादो जय जिवरिंदो कम्मबंधा जय जय मरण] मारणो जयवंत जयकित्ती मुणिसुव्वयजय-जीव-द- वड्ढाजय विजयवइजयंती जयसेणचक्की जया (दा) विमुंचए (दे) चेया (दा) जरइ र मरण संभवड जर - उद्द (उब्भि) सेय- अंडय जर जोवर जीवउ मरणु जर मरण - जम्म- रहिओ जर - मरण - जम्म- रहिया जर-रोग-सोग-हीणा जर-ग्रणी चंपइ जर-वाहि-जम्म-मरणं जर - वाहि-दुक्ख - रहियं जर-सूलप्पमुहा जर-सोय-वाहि-वेयणजलकंतं लोह्रिदयं जलगव्भजपज्जत्ता जलगंधकुसुम तंदुल - जलगंधकुसुम तंदुल - जल - चंदरण-ससि-मुत्ताजलजंघा फलपुष् जल स्वरविहय केसरिजलणिहि-सयंभुरमणे जलतंदुल पक् जलथलश्रायासगढ़ पुरातन - जैनवाक्य-सूची मूला० २१० जलथलयायासयले मूला० ५७८ | जलथलग्वगसम्मुन्छिम भ० आर० १८८१ जलथलगव्भयपचत्त भ० चारा० १८४ धम्मर० १२४ जलथल हयल संगय जल-थल - सिहि-पवणंबरजलधारा जिपयगयड जलधाराणिक वे लहिसा० ३५ गो० क० ६६६ जं० प० १३ – २७ | जलाडिगए तम्मित्रि मूला० ११५ | जलपुष्फक्लयसेसाभ० श्रारा० १३८ | जलबुदबुद सक्कधर मूला० १०४६ तिलो०प० ६-७६ जलवुच्चय-सारिन्चं जलयर-कन्छ - मंडूकजलयरचत्तजलोहा जलयरजीवा लवणे रिहस० २५४ सुदख०६१ तिलो० प०४-१५७८ | जल-वद- मंतेहि हवे वसु० सा० ५०० | जलवरसाजायाई जंव० प० ११-१६७ जलसिहरे विक्खंभो तिलो० प० ४ - १२८४ जलसिंचरण पर्यारणहलगु जलहर पडलसमुच्छि जलिटो हु कसायग्गी जलिया लिंगियढड्ढ़ा जलमलमइ लिगा जल्लमल लित्तगत्तं जलमल लित्तगत्तो जवृ० प० २-१६२ | जहवि लित्तो देहो श्रारा० सा० २२ | जले मइलिदंगा बोघपा० ३० जल्लो सहि सव्वो सहयोघपा० ३७ | जवणालिया मसूरि तिलो० प० ४ - १०२३ जवणालिया मसूरी :भावसं० ५१२ | जबसालि उच्छु पउरो तिलो० प० ८ - १६ जवसालिवल्ल उरो समय० ३१५ | पाहु० दो० २४ भावसं० २०४ सुप्प० दो० २५ गाणसा० ३३ | सिद्धभ० ११ मूला० १०८६ | जसकित्तिपुराणला हे तिलो० प० १-७२ जसकित्ती बंधंतो तिलो० प० ७-४६ | जसणाममुच्चगोदं भ० श्रारा० ८३१ जसबायरपज्जत्ता तिलो० प० ४-१०३३ श्राय० ति० १-३० जंबू० प०२-१७१ ज जसहर सुभद्दरणामा जसहररायस्स सुता जसु प्रभंतरि जगु वसइ जसु कारण धणु संचियइ मूला० ४४८ | जसु जीवंत मरणु मुवर मूला० ४२७ धम्मर० १०६ मूला० १०८४ मूला० १०८५ प्राय० ति० मह भावपा० २१ सावय० ० १८३ मु० सा० ४८३ श्राय० ति० १६-२१ छेदपिं० ३१६ बा० अ० ५ कत्ति० श्रणु० २१ तिलो० प० २-३२६ तिलो० प० ४-१६४६ तिलो० सा० ३२० छेदपिं० ३०२ भावसं० १२१ निलो० प० ४-२४४६ परम० प० २-११६ तिलो० प० ८-२४७ भ० श्रारा० २६६ रिट्टस० १६४ घम्मर० १८७ जोगिम० १३ कत्ति० प्र० ४६१ भ० श्रारा० ६१ मूला० ८६४ वसु० सा० ३४६ मूला० १०६१ पंचसं० १-६६ जबू० प० ७-३६ जंबृ० प० ६-५६ ग्यणसा० २७ पचसं० ४-२५४ कसायपा० २१२ (१४६ ) पंचसं० ५ - ११० तिलो० सा० ४६६ व्विा० भ० १८ परम० प० १-४१ सुप्प० दो० ३३ पाहु० दो० १२३ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी १०६ HI जसु ण हु तिवग्गकरण दबस० णय० १६६ जस्स रागो दु दोसो दु णियमसा० १२८ जसु दसणु तसु माणुसह सावय० दो० ५४ / जस्स वि अवभिचारी भ. पारा० ७८ जसु पत्तत्तमराइयउ सावय० दो० १७१ । जस्स सरिणहिदो अप्पा ५ मूला० ५२५ जसु परमत्थे बंधु णवि परम० ५० १-४६ । जस्स सरिणहिदो अप्पा ४ णियमसा० ३२७ जसु पोसण-कारणु हु पर सुप्प० दो० ५२ | जस्स हिदयेऽणुमत्तं पंचस्थि० १६७ जसु मणि रणाणु ण विष्फुरइ पाहु. दोहा० २४ जस्ति इच्छसि वासं तिलो. प० ४-१७६८ जसु मरिण गाणु ण विष्फुरइ पाहु० दो० ६५ तिलो. प०१-१०६ जसु मरिण णिवसइ परमपउ पाहु० दो० ६६ / जस्सिं मग्गे ससहर- तिलो. प०७-२०७ जसु मणु जीवइँ विसयवसु सुप्प० दो० ६० । जस्सुदएण य चडिदो लद्धिसा० ३५७ जसु लग्गउ सुप्पहु भाइ सुप्प० दो० ६१ / जस्सुदएणारूढो लद्धिसा० ३५९ जसु हरिणच्छी हियवडए परम० ५० १-१२१ जस्सुदएणारूढो लद्धिसा० ३५२ जस्स अणेसामापा पवयणसा० ३-२७ । जस्सुदये वजमयं क्म्मप०७८ जम्स असखेजाऊ तिलो०प०३-१६६ कम्मप०७४ जस्स कए जं कर्ज पाय. ति०२२-१० कम्मप०७५ जस्स कम्मस्स उदये कम्मप० ७७ जस्सोदए गगणे कम्मप०६४ जस्स कम्मरस उदये कम्मप. ८१ जह अणियट्टि पउत्तं भावसं० ६५२ जस्स कम्मरस उदये कम्मप० ८२ जह अपणो गणस्स य म० श्रारा० १४८३ जस्स कसायस्स [य ज लद्धिसा० ५४४ ।जह आइच्चमुद्देतं भ० श्रारा० १७४० जस्स गुरु सुरहिसुओ भावस० २५१ जह आगमलिंगेण य जबू०प० १३-७६ जस्स जदा खलु पुरण ' पचत्थि० १२३ जह इह विहावहेदू दव्वस० गय०३६२ जस्स ण कोइ अणुदरो जबृ० प०१३-१७ जह इंधणेहि अग्गी म. श्रारा० ११५३ जस्स ण कोहो माणो तञ्चसा० १६ भ० श्रारा० १२६४ जस्स ण गया(दा) ण चक्क भावस०२७६ जह इंधणेहिं अग्गी भ० श्रारा० १६५४ जस्स ण गोरी गंगा भावस० २७५ जह इंधणेहिं अग्गी भ० श्रारा० १६१३ जस्ल ण णह-गामित्तं भावसं० ६११ जह उक्स्सं तह मज्भ- चसु० सा० २६० जस्स ण तवो ण चरण भावस०५३१ जह उत्तमम्मि खित्ते वसु० सा० २४० जस्स ण पिच्छइ छाया रिट्ठस०७७ जह उसुगारो उसुमुज्जु- . मूला० ६७३ जस्स ण विजदि रागो पंचस्थि० १४२ जह ऊसरम्मि खित्ते चसु० सा० २४२ जस्स ण विज्जदि रागो * पत्थि० १४६ |जह एए तह अरणे सम्मइ०१-१५ जस्स ण विजदि रागो* तिलो० ५० १-२३ जह करणयमग्गितविय समय० १८४ जस्स ण संति पदेसा पवयणसा० २-५२ जह कराय-मज्ज-कोत्व- . मावसं० १५ जस्स ण हु आउसरिसा वसु० सा० ५२४ जह कवचेण अभिज्जेण भ० पारा० १६८१ जस्स त्थि भय चित्ते धम्मर० ११६ जह कचणमग्गिगर्य गो० जी० २०२ जस्स परिग्गहगहणं सुत्तपा० १६ जह कचरणमग्गिगय पंचस०१-८७ जस्म पुरण उत्तमट्ठमभ० श्रारा० ६८४ जह कंचणं विसुद्ध सीलपा०६ जस्स पुण मिच्छदिद्विस्त भ. श्रारा०६१ । जह कंटएण विद्धो भ. श्रारा० ५३६ जस्स य कदेणा जीवा भ. श्रारा० १३७ जह कंसियभिंगारो भ० श्रारा० ५७६ जस य पाय-पसायेण + लद्धिसा० ६४६ जह कालेण तवेण य दव्वस०३६ जस्स य पाय-पसायेण + गो० क० ४३६ जह किएह-पक्ख-सुक्का जबूत प०२-२०३ जस्स य वग्गे वएणो आय० ति०१-३१ । जह कुणइ को वि भेय तच्चसा०२४ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170 पुगताना मी जनमो नमो. भाग 1.6 गी गगति प्रा." जा, कालो भ. 13. Em iffम: गरमाग जा गोल भाग - Tr: गं गा कर जा समाग्मिो मन 15 Infiri जामोद मांगरियो ::-- niram सोधया ज, फोदिलाया 1ani mirrT जाको विना AAP विपरियो T; कांगमय 1 •ins 7 Tir मिलो म . " जा मावि ite - मारना मामा पुग मी n 1. विमा जामाद गो. मी समय 055 जा गगनोन न . १४* गाममनी or from भागने. . या infi भाम. माग 3 rinामाग मग.. Tोग गुटी 4in 1-112ीप मा साग १११ नाना ii. 2011 भाग जा, नरो वागी गमागमनमा मामा - गा निगरानी आनंबाचगान भारमा ६५३ - កុរ ចុះ भाग १५ ० घारा. 1833 मा गिग्सपिगिधग किमी 101 जानारमाननी भार. १४. जाराचीनं वागव .. नागम(मोगा भाजपा० १११ हजा गलानि दागी ८ मा नानिमिया नागा भ. परा० १५०० जा सा गुगपरिणामी गारा 31 जा तीन नाचेव , पंचम १-२ जा, जा जोगहाग गिनी प."-८० जानीमंता, चय म. 1-20 जाः जद गिव्यममं नारा १६५ जाग पियंदा भ. बारा ७३० जह जा पीटा जायः पारा सा जामिणमि मागे ० ५०३-२२० जा जा बहुम्मुमो मं- मम्मा :- जाधिरमपित मम्मा . -: जह ह मजा भोगे म. सारा० १०६२ जा दम दमगुम्नि य जा जा मणमंचाग नशमा० ३० जातिय गियय दोस म. घाग०३० जह जाह मरागार गग भ. बारा० ५८ जावीयो गम्भहरे भावण १२१ जह जह वइड लन्छी भायम ४६८ जा चरिमिटी मो तह पारा०४२ जह जाह वयपरिणामी भ० 'पाग १०७६ : जा धाउ. धम्मनोx मूला. २४३ जह जह विमासु रई प्राग० मा० ६६ जा धादू धम्मता x जह जह सुदमोगाह दि भ० श्रारा० १०५ जह पडमगयरयणं पशि०.३ जहजायस्वम्वं मोफरवपा० ११ जह पकवुभिदुम्मी म. सारा०५०३ जहजायस्वमरिसा योधपा०५५ सह पढमं उपतीसं पंचम०४-०८ जहजायस्वमरिसो सुसपा० ८ जह पढम तह विदिय णासा०३८ जहजायलिंगधारी भावस० १६२ । जह पत्थरो या भिज्जइ जह जीवत्तमणाई दम्चस० गय० ७६ जह पत्थरो पडतो भ. थारा० १६७४ जह जीवन्स अगएणुव- समय० ११३ जह परदव्वं मेडिदि समय०३६१ मूला० ७४६ भावपाल Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी १११ वह जह परदव्यं सेडिदि समय० ३६० जह मारुओ पवड्ढइ भ० प्रारा०८११ जह परदव्वं सेडिदि समय० ३६३ । जह मूलम्सि विणढे दसणपा० १० जह परदव्यं सेडिदि समय० ३६४ जह मूलाओ खंधो दसणपा० ११ जह परमएणस्स विसं म० श्रारा ८४५ जह रयणाणं पवर भावपा०८० जह पव्वदेसु मेरू भ० धारा० ७८५ जह रयणारा वइरं भावस०५२६ जह पाहाण-तरंडे भावसं. १८७ जह रससिद्धो चाई णयच० ७८ जह पुग्गलदव्याणं पचत्यि०६६ जह रायकुलपसूत्रो (दो) म० श्रारस०२० जह पुण ते चेव मणी सम्मइ०१-२४ जह राया ववहारा समय० १०८ जह पुण सो चिय पुरिसो समय० २२६ / जह रुद्धम्मि पवेसे चसु० सा० ४४ जह पुण सो चेव णरो समय०२४२ जह रोग-सोग-हीणा जवू० १० ११२ जह पुण्णापुरणाइ + एचस०१-४३ जह लोहणासट्ट कत्ति० अणु०३४१ जह पुण्णापुण्याइ + गरे०जी० ११७ जोगसा० ७२ जह पुरिसेगाहारो समय० १७६ दव्चस० गय० ३४५ जह फणिराओ रेहड भावपा० १४३ . जह वा अग्गिस्म सिहा भ. धारा० २१३० जह फलिहमणिविमुद्दो मोक्खपा० ५१ । जह वाणियगा सागर- भ० श्रारा० १६७३ जह फलिहमणी सुद्धो समय० २७८ पाय म. श्रारा० १२४४ जह फुल्लं गंधमय बोधपा० १५ जह वालुयाए अवडो भ० श्रारा०५७६ जह वधे चिंततो समय. २६१ दच्चस० गय० ३८० जह वधे छित्तूण य समय० २६२ जह विसमुवमुज्जतो समय० १६५ जह बालो जप्पंतो* मूला० ५६ जह विसयलुद्ध विसदो (१) सीलपा० २१ जह बालो जप्पंतो .. भ० श्रारा० ५४७ जह वोसरित्तु कत्ति मूला० ६२५ जह वाहिरलेस्साअो भ० श्रास. १९०७ रायच०४ जह बीयम्मि य दड्ढे भावपा० १२४ दश्वम० गय० १७५ जह भद्दसालऽरपणे जबू०प०४-६५ दवस० णय. २८८ जह भहसाल-सुवणे जबू० प. ५-१२१ भावपा० १५२ जह भंडयारिपुरिसो - भावस० ३३८ । जह सलिलेण व लिप्पियइ जोगसा० १२ जह भंडयारिपुरिसोकम्मप० ३५ - जह सवरणाणं भणियं छेदस० ७१ जह भारवहो पुरिसोx पचस० १-७६ / जह संखो पोग्गलदो समय०२२२२०१४ (ज०) जह भारवहो पुरिसोx गो० जी० २०१ जह सबधविसिट्ठो सम्मइ०३-१८ जह भेसज पि दोस भ० श्रारा० ५८ जह सिप्पिउ कम्मफल समय० ३५२ जह मक्कडो खणमवि भ० श्रारा०७६१ जह सिप्पियो उ कम्म समय० ३४६ जह मक्कडओ यादो भ० श्रारा० ८५४ जह सिप्पिओ उ करणा- समय ३५१ जह मच्छयाण पयदे मूला० ४८६ | जह सिप्पिो उ करणे- समय० ३५० जह मज्ज तह य महू वसु० सा० ८० जह सिप्पिओ उ चिट्ठ समय० ३५४ जह मज्नं पिवमाणो समय० १६६ / जह सीलरक्खयाणं भ० श्रारा० ६६४ जह मज्म तम्हि काले मूला० ७६६ जह सुकुसलो वि वेज्जा भ० धारा० ५२८ जह मज्झिमम्मि खित्ते वसु० सा० २४१ जह सुत्तबद्ध-सउरणो भ.श्रारा० १२७८ जह मणुए तह तिरिए दवस० णय० ८८ जह सुद्धफलिहभायण-४ पचस० १-२६ जह मणुयारणं भोगा जबू० प०२-१६१ जह सुद्धफलिहभायण-x भावस०६६२ जह मणुयाणं भोगा तिलो. प० ४-३६० / जह सुह णासइ असुहं दवस० णय० ३४२ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ जह सेटिया दुप परस्स जह सेडिया दुग परस्स जह सेडिया टुण परस्स जह सेडिया दु ए परस्ल जह हवदि धम्मदव्य जह हिमगिरि कमले जबू० प० ६-४० ढाढसी० ३२ चारि० भ० ट जोगसा० जहि अप्पा तहि सयल-गुण जहि भावइ तहिं जाहि जिय परम० प० २-७० जहि मइ तहि गइ जीव तुहुॅ परम० प० १-११२ पवयणसा० ३-३८ भ० श्रारा० १०८ देव्वस० णय० ११८ सम्मइ० २-२६ सम्मइ० २३० जहा लाऊ गरे जहाखादं तु चरितं जं श्ररणारी कम्म + जं गाणी कम्मं + हावाद पुट्ठा भावा भावे जं अवियपं तचं जं असभूदुब्भावरणजं अंगं तो जं तो पिडि वादो उप्पाist किंपि (च) रिट्ठ जं इंदिएहि गिज् जं उप्पज्जइ दव्वं जं उवहिं सेज्जं पडि जं एणं श्रवरं जं एवं तेल्लोक जं कम्मं दिढबद्धं जं काले वीरजिणे काविलं दरसणं पुरातन जैनवाक्य-सूची समय० ३५६ | जं कि पिको विकज्जं जं किंपि तेरा दिए कपि देवलो समय० ३४७ समय० ३५८ समय० ३४६ पचत्थि० ८६ जं कि पिपरिय भिक्ख ज किं पवि उपरण जं किंपि सयल दुक्ख जंकिट्ट वेदयदे जं किंचि कय दोसं ज किंचि खादिजं किं जं किंचि गिहारभं जं किंचि तस्स व्यं जं किंचि महाक जं किंचि मे दुच्चरितं जं किंचि मे दुच्चरियं * किंचि विचितंतो जं कि पि एत्थ भणियं तचसा० ६ म० श्रारा० ८२६ श्राय० ति० ४-१७ | भ० श्रारा० १५८४ भ० श्रारा० १५७२ रिट्स० २५४ जं किं पि सोक्खसारं मूला० ३६ दव्वसं० ५५ वसु० सा १४७ जं कीरड पररक्खा | कुदि विमलुद्धा जं कुवि खिरमणो कूड सामली ए जं केवल ति गाणं जं खलु जिगोवदिट्ठ जं खावि सि वसो जंगभवासकुणि ho कति० ज श्राय० ति० ६-२ 'कुण्ड गुरुरएसम्म वसु० सा० २७२ जं कुरणदि भावमादा समय० १६ ते ० २ (ज०) जं कुरणदि (इ) भावमादा | जं कुर्गादि भावमादा जं गाढस पमाणं जंधासु दुरिवरिसं जं च कामसुहं लोए कति० अ० २०७ ज चडयडंत-कर-चर भावसं० २७८ जच दिसावेरमणं भ० श्रारा० २०८१ दव्वस० णय० २२ रिया तेसु छेदस० १६२ जं च दुर्गादिदेहीणं श्राय० ति० १६-७ जं च (थ) दु वेदट्ठणगो 'जंबू० प०८ - १२४ भ० श्रारा० ७८३ जं च पुरण भावसं० १६ जं चरदि सुद्धचरणं तिलो० प० ४ - १५०३ | जं च समो अप्पाणं सम्मइ० ३-४८ ज च सरीरे रिट्ठ कसायपा० १७७(१२४) |जं चावि संतो भावपा० १०४ जं चिय जीव सहावं जं छोडि सि जं मे - वसु० सा० २६८ ज जत्तो जारिसयं वसु० सा० ७३ | जं जस्स अक्खर तं मूला० १३६ | जं जस्स जम्मि देसे शियमसा० १०३ जं जस्स जोग्गगहियं भ० श्रारा० १०२४ जं जस्स जोग्गमुच्च ज जस्स दुसं ठाणं जं जस्स भरिणय भावं · ० श्रणु० ४५१ वसु० सा० ३५७ चतु० सा० ३०८ कत्ति० ० ४ दव्वस० य० ३१२ वसु० सा० ५४० वसु० सा० २३८ समय० ६१ समय० १२६ तिलो० प० २-६१२ आय० ति० २३-१६ भ० श्रारा० १५६७ पवयणमा० १-६० मूला० २६५ भ० श्रारा० १५७० भ० श्रारा० १६०१ तिलो० प० ८ - ३६१ रिट्ठप० ११६ मूला० ११४४ भ० श्रारा० ११८० सम्मइ० ३-११ बोघपा० ११ मूला० ५२१ रिस०१८ क्सायपा० २१७ (१६४) दव्वस० णय० २८६ भ० श्रारा० १२७७ श्राय० ति० २०-२ श्राय० ति० २२-५ कत्ति० श्रणु० ३२१ जवृ० प० ११-२८६ तिलो० प०८-३१० भ० श्रारा० २१३५ ढव्वस० ण्य० २६६ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी ११३ ज जह थक्कउ दव्वु जिय परम०प०२-२६ | जं तत्थ देव-देवी- जबू०प०११-२०० ज जं अक्खाण सुह रयणसा० १३६ जं तल्लीणा जीवा तथ्वसा० ७३ जंज करेइ कम्मणयच० ४३ | जतं मंत ततं रयणसा० २८ जज करेइ कम्म- दव्वस० णय० २१५ | जंतारूढो जोणिं छेदपिं० ११ ज जं खवेदि किट्टि फसायपा० २१८ (१६५) जंतु दिसावेरमणं धम्मर० १४८ ज जं जिणेहि दि8 दवस० णय०२ | जं तेण कहिय-धम्मो जबु०प०१३-१३८ जं जं जे जे जीवा मूला० ६८६ | जतेण कोदवं वा * कम्मप० ५४ ज जं मुणदि सुदिट्ठी दव्वस० गय० २६४ | तेण कोहवं वा गो० क. २६ जं जं सयमायरियं भावसं० १३६ | ज तेणतरलद्धं मूला. १५७ जं जाड-जरा-मरणं रयणसा० १५३ / जं तेहिं दु दादव्वं मूला० ५६८ जं जाणइ त णाणं मोक्खपा० ३६ । जं दव्वं तरुण गुणो पवयणसा०२-१६ ज जाणइ तं गाणं चारित्तपा०४ । ज दामणंदिगुरुणो श्राय० ति०१-२ ज जाणिऊण जोई मोक्खपा० ३ | ज दिज्जइ तं पावियइ सावय० दो० १२ जं जाणिण जोई मोक्खपा० ४२ मूला० ५४७ ज जाणिज्जइ जीवो कत्ति. अणु० २६७ ज दीसइ दिट्टीए रिट्ठस० १३१ जं जाणेइ सुदं तं सुदख० ८३ ज दुक्कड तुमिच्छा मूला० १३२ ज मिय दिज्जइ इत्थुभवि सावय० दो० ६५ | जं दुक्खं संपत्तो म० श्रारा० १५६७ जं जीवणिकायवहे- भ० श्रारा० ८१६ जं दुक्खु वि तं सुक्खु किउ पाहु. दो० १० जं जेण फलसरूवं श्रायः ति २२-६ | ज दुप्परिणामाओ वसु० सा० ३२६ जं जोयणवित्थिएणं ४ जवू० ५० १३-३५ जंधणुसहस्सतुंगा तिलो० ५० ४-२५११ ज जोयणवित्थिएण x तिलो० सा० ६५ | जं पच्चक्खग्गहणं । सम्मइ०२-२८ ज भाएई (इज्जइ) उच्चा- वसु० सा०४६४ । जंपणपरभवणियडिप- भ० श्रारा० १२१ ज णत्थि बंधहेदु भ० श्रारा० १३७ | जं परदो विण्णाणं पवयणसा०१-५८ जणत्थि राय-दोसो* भावस०६७० जं परमप्पय तच्चं णाणसा० ४८ ज णत्थि राय-दोसो *- पंचस० १-२८ | ज परिमाणविरहिया धम्मर० २६ जंणत्थि सव्वबाधा- , भ० श्रारा० २१४६ | जं परिमाण कीरइ वसु० सा० २१२ जणा(जएणा)णरयणदीपो तिलो० प०५-३१६ | परिमाण कीरड वसु० सा० २१६ ज पाणीण वियप्पं + गयच.. ज परिमाणं कीरइ (दि) कत्ति० अणु० ३४२ जंणाणीण वियप्प + दव्वस० णय० १७३ तिलो० सा० १००८ जणामा ते कडा तिलो० प०४-१७२४ तिलो० ए०४-२१५६ जणामा ते कूडा तिलो० प० ४-१७५८ | जंपति अस्थि समये सम्मइ०३-१३ ज णिम्मलं सुधम्म बोधपा०२७ | ज पाणयपरियम्मम्मि भ० श्रारा० ७०६ जं णियदव्यहँ भिएणु जडु परम० ५० १-११३ |ज पीयं(कयं)सुरयाण(सुरापाणं) धम्मर० २८ जणियबोहरु बाहिरउ परम प० २-७५ जं पुण स्वीदव्व भावसं०३१७ जणियम-दीवपउर जंबू०प० १३-१७४ जं पुण सगयं तच्च तच्चसा०५ जंणीलमडवे तत्त- भ० श्रारा० १५६६ | जं पुण संपइ गहियं भावस० १५० ज णोकसाय-विग्घर- लद्धिसा० ६१० ज पुणु वि णिरालंबं भावसं०३८१ जंणोकसाय-विग्घच- लद्धिंसा० ६५१ जं पुप्फिद किएगाइद मूला०८२३ जं तक्कालियमिदर पवयणसा० १-४७ ज पेच्छदो अमुत्तं पवयणसा० १-५४ जं तत्तणाण-स्वं परम०प० २-२१३ । जं बद्धमसंखेज्जा भ० नारा०७१७ he - Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ जंबीर- जंबु केलीजंबीर- मोय-दाडिमजंबुकुमार-सरिच्छा -रविंदू दीवे जंबु-सम-वरण स जबूउभय परिही जंबूचारधरुणो जंबूजाय लक्खनजंबू लक्खो जंबू जय लक्खो जंबूद-रयणमयं जंबू- रणमयं जंबूय-रयदम जंबूतरुदलमाणा जंबूदी समोर जंबूदीदी जंबूदीवखिदीए जंबूदीव परिि जंबूदीपवरदजंबूदीपवदिजंबूदी मही जंबूदी दुवे जंबूदीवसरिच्छा जंबूदीवस जहा जंबूदीवस्स जहा जंबूदीवस तदो जंबूदीवस तदो जंबूदीवर तहा जंबूदीवस तहा जंबूदीवर तहा जंबूदीवस पुण जंबूदीवं परियदि जंबूदी भरो जंबूदीवादीया जबूदीवाहितो, जंबूदीवाहितो जंबूदी एको जंबूदीवे या jaata जंबूदी मे १ पुरातन-जैनवाक्य-सूची तिलो० सा० ६७३ | जंबूदीवे मेरू वसु० सा० ४४० | जंबूदीवे लवणो तिलो० प० ४ - १३६ | जंबूदीवे लवणो x तिलो० सा० ३७५ | जबूदीवे लवणो x तिलो० सा० ६५२ |जवृदीवे लवणो तिलो० सा० ३१४ | जंबूढीवे वाणो तिलो० सा० ३६२ | जबूदीवो दीवो तिलो० प० ५-३२ | जंबूदीवो धादइ- ** सुदखं० २५ जवृदीवो धादइतिलो० ० सा० ३०८ | जंबूदीवो भणिदो जबू० प० ११ - २६६ | जंबूदीवो भणिदो जबू० प० ११-११६ | जंबूदीवो भणिदो जबू० प० ११-३१६ | जंबूदुमा वि या तिलो० सा० ६५० | जबूदुमा वि तस्सदु सावय० दो० २०२ | जंबू- दुमेसु एवं तिलो० प० ४-१७११ | जंबू-धादइ- पुक्खरतिलो० प० ४–२६१६ | जंबू- धादकि-पुक्खर मूला० १०७२ | जबू-धादगि-पोक्खरतिलो० प० ४ - २२४४ | जंबू- पायव - सिहरे तिलो० प० ४-२५८१ | जंबूय के दूां (?) तिलो० प० ४ -२७३५ | जंबूरुक्खस्स तलं तिलो० प० ७-२१८ | जंबू- लवणादीगं तिलो० प० ६-६२ जं बोल्लइ ववहार उ जबू० प० ४-६४ जं भजिदो सि भज्जिदजबू० प०५-८६ जं भदसालवण-नितिलो० प० ४- २०७१ जंभास दुक्खसुहं, तिलो० प० ४-२११६ जंभवं सुमसु ज भासियं असचं जमहूँ कि पवि जंपियड जं मया दिसदेव जंबू० प० १-३८ जबू० प० ११-१७८ जंबू० प० १३ - १६६ जंबू० प० ११-३८ | जं मुणि लहइ अांत-सुहु जबू० प० १०-२ गो० जी० १६४ जबू० प० ११-६० तिलो० प० ५-५२ तिलो० प० ५-१७६ तिलो० सा० ५६३ जं वडज्म बीउ फुडु जबू० प० १-५५ ra तिलो० प० ४ - ४३६ |जं वत्थु अणेयंतं अगप० २-१ जं वतं गिवासे ज तिलो० प० ४-४२७ जंबु० प० १२-१३ जबू० प० ११-८ मूला० १०७८ तिलो० प०५-२८ तिलो० सा० ६६१ जबू० प० १०-६० जंबू० प० ११-८४ मूला० १०७४ जंबू० प० ११-३६ जंबू० प० ११-४८ जंबू० प० ११-७३ जबू० प० ६-६८ जंबू० प० ३ १२८ जंबू० प० ३-१२ जंबू० प० ११-१८६ तिलो० सा० १६३०४ जंबू० प० ११-१६५ जंबू० प० ६-७५ तिलो० प० ७-५८७ तिलो० १०४ - २१६३ तिलो० प० ५-३७ परम० प० २-१४ भ० श्ररा० १५७४ तिलो० प० ५-७१ तिलो० प० ४-१०१३ समय० १०२ धम्मर० २७ परम० प० २ - २१२ मोक्खपा० २६ परम० १० १-११७ भाबस ० ५३० जयत्तय-रहिय जं लद्धं श्रवराणं जं लद्धं पायव्वा तिलो० प० ४- २४२७ जबू० प० ६-५० जं लिहिउ पुच्छिउ कह व जाइ पाहु० दो० १६६ जं वज्जिज्जं हरियं वसु० सा० २६५ जोगसा० ७४ कत्ति० अ० २६१ कत्ति ० ० २२५ मूला० ८५१ 1 Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी ११५ ज वा गरहिद-बयणं भ. पारा० ८२६ जाइ-जर-मरण-रोग-भ- वा० श्रणु० ११ जं वा दिसमुवणीदं भ० श्रारा० १९६८ जाइजरामरणभयाx गो० जी० १११ ज वि य(चिय) सरायचरणे दवस०णय० ४०१ जाइजरामरणभयाx पघसं० १-६४ जं वेतो किट्टि क्सायपा० २१६(१६३) जाइ-सरणेण केई तिलो० ५० ५-३०८ ज वेलं फालगदो म० श्रारा० १६७४ जाईअविणाभावी गो० जी० १८० ज सका तं कीरइ दसणपा० २२ जा उज्जमो ण वियलइ श्रारा० सा० २८ ज सज्ज-रिसह-गंधार- तिलो०प०८-२५८ जा उ(पु)ण तत्ताणुगया । श्रायः ति० २२-७ ज समणाणं वुत्तं छेदपिं० २८६ | जा उवरि उवरि गुणपडि- भ० श्रारा० १७१ ज सवण सत्थाण कत्ति० श्रणु० ३४८ जा उवसंता सत्ता पंचस०३-१० जं सवणाणं भणियं छेदस० ७१ जाए(जो पुण)विसय-विरत्तो सीलपा० ३२ ज सवणाणं भणियं छेदस० जा एसो पयडीयटुं समय०३१४ जं सचलोयसिद्धं कत्ति० अणु० २४६ जाओ पइएणयाणं तिलो० ५० ८-३२६ ज सव्व पि पयासदि कत्ति० अणु० २५४ जा किंचि वि चलइ मणो तचसा० ६० ज सब पि य संत कत्ति० श्रणु० २५१ Aजा गदी अरिहंताणं * मूला० ११६ जं सब्चे देवगणा भ० श्रारा० २१५० | जा गदी अरिहताणं मूला० १०७ जं सगहेण गहियं रायच० ३७ जागरणत्थं इच्चे- भ० श्रारा० १४४३ ज सामएणग्गहणं सम्मइ० २-१ जा चावि वज्झमाणी कसायपा० १६६(१४३) जं सामरणं गहण - गो० जी०४८१ जा जीव-पोग्गलागं तिलो० ५०५-५ जं सामरणं गहण कम्मप० ४३ जाणइ फज्जाक + पचसं०१-१५० जं सामरणं गहणं दवस० ४३ जाणइ फज्जाकञ्च+ गो० जी०५१४ जं सामरणं गहण पचस० १-१३८ जाणइ तिकालविसए - . गो० जी० २६ज सार सारमझे जरमरणहरं दव्यस०णय०४१५ जाणइ तिकालसहिए - पंचस० १-११७ ज सिव-दसणि परम-मुह परम०प०१-११६ जाणड परसह भुजइ पचसं०१-६६ जं सुत्तं जिण उत्त सुत्तपा०६ जाणइ पस्सइ सव्वं धारा० सा० ८८ ज सुद्धमसंसत्तं मृला. ८२४ जाणइ पिच्छइ सयलं भावस० ६६५ जं सुद्धो त अप्पा भावस० ४३३ । दव्यस० गय० ३७६ ज सुहमसुहमुदिएण समय० ३८५ | जाणगभावो जाणदि दच्चस० णयः ३७७ ज सुहमसुहमुदिण्ण पचस्थि० १४७ जाणदि अत्थं सत्थं अंगप०१-३ ज सुहु विसय-परमुह उ जाणदि पस्सदि सव्वं णियमसा० १५८ जं सेसं तं धुवो प्राय० ति० २४-३ जाणदि पस्सदि सब पचस्थि० १२२ ज हवदि अणिवीयं मूला० ८२६ जाणदि फासुयदव्वं . म० थारा० ४४४ जं हवदि लद्धिसत्तं सिलो० ५० ४-१०३० जाणवि मरणवि अप्पु परु परम० प० २-३० जं होइ भुजियव्वं सच्चसा० ५० जाणह य मज्म थाम भ० श्रारा०५७० ज होज्ज अविवरण मूला. ८२१ जाणहि भावं पढमं भावपा.६ ज होज वेहिअं ते. मूला० ८२२ जाणतस्स विसोही छेदस० ६१ ज होदि अण्णदिट्ट भ० श्रारा० ५७४ जाणंतस्सादाहिद भ० श्रारा० १०३ जा अवर-दक्विणाए भ० श्रारा० १६७० जाणतो पस्संतो णियमसा. १७२ जाइ-कुल-रूव-लक्खण- सम्मइ०१-४५ जाणंतो पिच्छनो भावसं० ६७४ जाइ-कुसुमेहिं जविनो रिस० १११ जाणादि मज्म एसो भ० श्रारा०६०२ जाइ-जर-मरण-रहिय णियमसा० १७७ | जाणादो वि य भिएणं दवस० णय०४८ पाहटो Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ जाणित्ता सपत्ती जा यिसरीरछाया कत्ति० श्रणु० ३५० रिठ्ठस० ७४ जायंति 'जुयलजुयला जायंते सुरोए जासिसल देहियहॅ परम०प०२ - ४६ ते ० १ | जायंतो य मरतो जागुगसरीरभवियं जामा मजले जाणुपमाणतोये जाविहीरो भरिण जाणीव जादजुगले दिवसा जादं सयं समत्तं जादा भोगभूवे जादि - कुल संवासं पुरातन जैनवाक्य-सूची जामु सुहासु भावडा जाय अक्खय- गिहि-रयजायइ कुपत्तदाणेजायइरिगविज्जदारोजायण - समरपुराणमरणा जायदि जीवरसेवं जायद व एस्सदि गो० क० ५५ छेदपिं० ८२ रिट्स ० १४३ रिस० ३०२ | जारिसत्रो देहत्थो जारिसया सिद्धप्पा जंबू० प० ११-६६ तिलो० सा० ७८६ पवयणसा० १-५६ तिलो० प० ४-३७८ के जादिर जादिसरण के जादिसर के जादी कुलं च सिप्पं जादी सुमरणं जादे ता जादे केवलणाणे जादे पायच्छित्तं जादो लोग - लोगो जादो खु चारुदत्तो जादो सय स चेदा जादो सिद्धो वीरो जादो हुवा जा धम्मो जिदिट्ठ पिच्छयपहे जाघे पुण उवसग्गे जामण गंथं छडइ जाम छंड गेहूं जामण भावहि जीव तुहुँ जाम र सिढिलायंति न जाम रंग हराइ फसाए जाम विप्पो कोई भ० श्रारा० ८६६ तिलो० प० ४-५०७ जावइयाई तराई जावइयाई दुक्खाई Grater कर दोसा जानइया वयणवा X | जावई (दि) या वयणवहा x जा वग्गणा उदीरेजावज्जीवं सव्वाजाव ण जाणइ अप्पा जाव ण तवग्गितत्तं जाव ण भावइ तच्चं जाव ण वाया खिप्पटि जाव ण वेद विसेस + जाव ण वेद विसेस - + तिलो० प० ४-१४७४ जावा अविसुद्धा तिलो० १० ४-५२५ | जावदिय जंबुगेहा भ० श्रारा० १०८२ परि० २६ भ० थारा० २०४३ रिहस० २५६ | जावदिय अनुभवणा जावदियं आयासं धारा० सा० ३२ | जावदियं उद्देसो भावसं० ३६३ जावदियं पञ्चक्खं जोगसा० २७ | जावदियाइं कल्लाश्रारा० सा० २७ | जावदियाई सुहाई जाव दिया उद्धारा श्रारा० सा० ८३ | जावदियाणि य लं ए श्रारा० सा० ३७ परम० प० २-१६४ तिलो० प० ४-३८० तिलो० प० ४-२१५३ मूला० ४५० तिलो० प० ३-२४० तिलो० प० १-७४ तिलो० प० ४ ७०३ छेदपिं० १२५ पंचस्थि० ८७ वसु० सा० ४८४ वसु० सा० २४८ वसु० सा० ४८६ मूला० ३३६ पंचत्थि० १३० पवयणसा० २-२७ जा रायादि-रिणयन्ती जा रायादि-रिणयन्ती # जा रायादि-गियत्ती | जावदिया परिणामा जावदिया रिद्धी ज जाव दु आरण अच्चुद जाव दु केवलरणास्सुजादु विदेहवंसो जादु विदेहवंसो जाव [दु] धम्मं दव्व चसु० सा० २६२ तिलो० प०८-१६६ जालस्स जहा अं भ० धारा० १२७५ जा (जॉ) वइ गाणि उवसमइ परम० प० २-४३ भ० श्रारा० ६६२ मूला० ७०७ भ० श्रारा० १९८० शियमसा० ६६ मूला० ३३२ भावस० ६२३ यिमसा० ४७ भ० श्रारा० ८०० भ० थारा० ८५३ सम्मइ० ३-४७ गो० क० ८६४ कसायपा० २२६ (१७३) भ० श्रारा० ७०४ रयणसा०८६ धारा० सा० १०० भावपा० ११३ भ० श्रारा० २०१६ तिलो० प० ६-६२ समय० ६६ छेदपिं० ३५४ जबू० प०३-१३३ जवू० प०३-१३२ दव्वस० २७ मूला० ४२६ तिलो० सा० ५२ भ० प्रारा० १८२६ भ० श्रारा० १७८५ मूला० १०७७ जबू० प० ११-८७ छेदस० ६० भ० धारा० १६३६ मूला० ११३२ भावति० १८ जबू० प० २-७ जबू० प० २-१२ तिलो० ० प० ६-१८ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज जाव पमाए वट्टइ जावय खेम सुभिक्ख जावय बलविरियं से जावय सदी ण णस्सदि जावं अपडिकमणं जावंतरस्स दुचरिमजावति किंचिदुक्खं जाति केइ भोगा जावंति के संगा जाति केइ संगा जावंतु किंचि लोए Tags सा जावुवरिमगे वेज्जं जावे (हे) दुप्पो वा प्राकृतपद्यानुक्रमणी भाक्सं० ६०५ जिरण- देवो होउ सया भ० श्रारा० १५६ | जिरण - पडिमई कारावियहॅ जिरण - पहिमागमपोत्थय जिरण- पडिमा - संछो जिरा-पढिरूवं वरियाजिरण- पयगय - कुसुमंजलिहिं जिण-पासादस्स पुरा ० प्रा० २०१४ भ० प्रा० १५८ समय० २८१ लद्धिसा० २१२ " | भ० श्रारा० १६६७ भ० श्रारा० १२६१ | जिरणपुरदुवारपुरदो भ० श्रारा० २६४ जिणपुर पासादारणं जिण पूजा-उज्जोगं भ० श्रारा० ११८० भ० प्रा० २१४५ | जिरणपूजा मुरिदा भ० श्रारा० १७८ जिरविचं गाणमयं मूला० ११७५ | जिणभवणइँ कारावियहॅ मूला० ६२७ | जिरणभवण थूह-मंडवभ० श्रारा० १०५६ जिणभवरणपहुदी जा सव्व सुदरंगी जा सकप्पवियप्पो समय० २७० दे० २३ ( ज०) जिणभवणस्सवगाढं जा संपविप्पो जासंकोचि | जा सासया लच्छी जासु जणणि सग्गागमणि जासु को मोहु मउ जासु धार घेउ वि जासु रण वण्णु रग गधु रसु जासु हिसि उसा जाहि व जासु व जीवा * जाहि व जासु व जीवा जाहीर अणुभागेजा सा जिउ मिच्छत्तें परिणमिउ जिणइंदवरगुरूणं जिण इंदाणं चरियं | भावसं० ३२२ | जिणभवणगरण देसे भावसं ० ६१२ जिरणभवणारण वि सखा कत्ति० अ० १० | जिराभव असा सावय० दो० १६० | जिरणमग्गबाहिरं ज परम० प० १- २० जिरणमग्गे पव्वज्जा परम० प० १-२२ जिएमहिम- दंसणेण परम० प० १-१६ जिरणमदिर- कूडारण सावय० दो० २१४ जिरणमंदिर जुत्ताई पचसं ० १-५६ जिरणमदिर - रम्माओ गो० जी० १४० जिरणमुदं सिद्धिह कसायपा० १७२(११६) जिए लिंगधरो जोई भ० प्रा० १६६२ | जिगलिंगधारिणो जे परम० प० १-७६ जिलिंगे मायावी जबू० प० ६-१२६ | जिरणत्रय गहिसारा जबू० प० १-८५ जिरणचयरिणच्छिदम दी जबू० प० ८-११४ | जिरणवयरणधम्मचेइयजवू० १०५ - २७ जिरणवयधम्मचेइयशियमसा० ११५ | जिरणवयणभाव तिलो० सा० ६६५ जिरणवयणभासिदत्थ जिरण - चरिया (याणि) लपंता तिलो०प०५ - ११५ जिरणवयण मणुगता जिइंदाणं या जिइदा डिमा जिग-कहिय-परमसुत्ते जिरण - गिहवासायामो जिरा - जम्मरण - क्खिवर जिर-पारण- दिट्ठि-सुद्धं जिण - दिट्ठणामइंदयजिरा- टिट्ठपमारणाओ सु० सा० ४५२ | जिरणवयणमेव भासदि चारित्तपा० ५ जिरणवयणमो सह मिण तिलो० प० ८-३४७ जिरणचयरण मोसह मिणं तिलो० प०३ - १०८ | जिरणवयणमोसह मिणं * ११७ क्ल्लाणा० ४८ यावय० दो० १६२ छेदपिं० १६८ जंबू० प०३-१६१ भ० श्रारा० ८५ सावय० दो० १६१ तिलो० प० ४-१८८४ तिलो० प० ४-१६४० तिलो० प० ४-७५१ त्रिलो० प० ८-५७५ रयणसा० १३ बोधपा० १६ सावय० दो० १६३ जबू० प० ५-१२२ तिलो० प० ४-२०५१ जबू० प०५-८ छेदपि ० ३१३ जबू० प० ६-७४ तिलो० सा० ६८४ दसासा० २३ बोधपा० ५४ तिलो० प०८-६७६ तिलो० प० ४-१६६६ तिलो० प० ४-४० तिलो० प० ४-२४५३ मोक्खपा० ४७ रयणसा० १६४ तिलो० प० ८-५५६ तिलो० सा० ६२२ सोलपा० ३८ मूला० ८४२ वसु० सा० २७५ कल्लाणा० २५ कत्ति० श्रणु० ४८७ मूला० ८६० मूला० ८०५ कत्ति० श्रणु० ३६८ दंसणपा० १७ मूला० ६५ मूला० ८४१ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ पुरातन-जैनवाक्य-सूची जिणवयण सद्दहाणो मूला० ७३३ जिम चिंतिज्जड घरु घरिणि सुप्प० दो० ६४ जिणवयणममिदभूदं म० श्रारा० १५६० जिम माइज्जइ वल्लहउ सुप्प० दो०६ जिणवयणे अणुरत्ता मूला० ७२ जिम लोणु विलिजइ पाणियहँ पाहु० दो० १७६ जिणवयणेयग्गमणो कत्ति० अणु० ३५६ | जिय अणुमित्त वि दुक्खडा परम० प०२-१२० जिएवर-चरणंबुरुह भावपा० १५१ जियकोहो जियमाणो धम्मर० १३५ जिणवर-मएण जोई मोवस्त्रपा० २० जियभय-जियउबसग्गे जोगिम० २२ जिणवर-वयणविणिग्गय- जंबू० ५० १३-१४४ जिय मंतई सत्तक्खरई सावय. दो० २१५ जिणवर-सासणमतुल भावस. १६६ जिह छब्बीसं ठाण पचसं० ५-६६ जिणवरु झावहिं जीव तुहुँ पाहु० दो० १६७ | जिह तिरह तीसाणं * पचस० ५-६५ जिणवंदणापविट्ठा तिलो० प० ४-६२७ जिह तिएह तीसाणं * पंचसं०४-२७२ जिणसत्थादो अटे पवयणसा० १-८६ जिह पढमं उपतीसं पचसं० ५-८१ जिणसमकोट्ठविदा तिलो० सा० ८४२ | जिह समिलहिं सायरगयहिं सावय० दो० ३ जिणसासण-माहप्पं कत्ति० अणु० ४२२ | जीइ दिसाए वरणा आय० ति०६-१७ जिण-सिद्ध-साहु-धम्मा भ० श्रारा० ३२२ परम०प०२-२२ जिण-सिद्ध-सूरि-पाठय- वसु० सा० ३८० जीउ सचेयणु दव्वु मुणि परम० प० २-१७ जिण-सिद्धाणं पडिमा तिलो० सा० १०१५ तिलो०प०४-१०८६ जिणहरि लिहियई मंडियई सावय० दो० २०१ जीए जीओ दिट्ठो तिलो० प० ४-१०७७ जिणु अञ्चइ सो अक्खयहिं सावय० दो० १८५ | जीए ण होति मुणिणो तिलो० ५० ४-१०५६ जिणु गुणु देइ अचेयणु वि सावय० दो० २१८ | जीए पस्स(सेय) जलाणिल- तिलो०प०४-१०७१ जिणु सुमिरहु जिणु चितवहु जोगसा० १६ जीए लाला सेम्मच्छे- तिलो० ५० ४-१०६७ जिणो देवो जिणो देवो कल्लाणा० ४६ जीओप्पत्तिलयाणं तिलो. प० ४-२१५७ जिणोवदिट्ठागमभावणिज्नं तिलो०५०३-२१५ | जीरदि समयपबद्धं x गो० क०५ जिएिणं वत्थिं जेम बुहु परम०प० २-१७६ | जीरदि समयपबद्धं x कम्मप०५ । जिण्णुद्धारपदि(इ)ट्ठा- रयणसा० ३२ जीवइ ण जीवइ चिय श्राय०ति०८-१७ जित्थु ण इंदिय-सुह-दुह। परम० ५० १-२८ जीवकदी तुरिमंसा तिलो. प० ४-१८२ जिदउवसम्गपरीसह मूला० ५२० जीवकम्माण उहयं भावसं०३२४ जिदकोहमाणमाया मूला० ५६१ जीवगदमजीवगदं भ. श्रारा०८१० जिदणिद्दा तल्लिच्छा भ० श्रारा० ६६० जीवगुणठाणसरणा सिद्धत०१ जिदमोहस्स दु जइया समय० ३३ जीवगुणे तह जोए सिद्धत०३ जिदरागो जिददोसो भ० श्रारा० १६१८ जीवट्ठाणवियप्पा पचस० १-३३ जिभाए वि लिहतो भ० श्रारा०४८१ जीवणिबद्धं देहं बा० अणु०६ जिन्भाछेयण णयणा- वसु० सा० १६८ जीवणिबद्धा एदे(ए) समय०७४ जिम्मा जिव्भगलोला तिलो० प० २-४२ / जीवणिबद्धा बद्धा मुला०६ जिब्भा जिभिगसपणा तिलो. सा. १५६ / जीवत्तं भव्यत्तम गो० क० १६ म० श्रारा० १६६१ | जीवत्तं भव्वत्त भावति० १०० जिभिदिउ जिय संवरहि सावय० दो० १२४ जीवदया दम सच्चं सीलपा० १६ जिभिंदियणोइंदिय- तिलो० ५० ४-५०६१ जीवदि जीविस्सदि जो भावति. १३ जिभिदियसुदणाणा- तिलो० प० ४-६८५ | जीवदुगं उत्तटुं गो० जी० ६२१ जिभुक्कस्सखिदीदो तिलो० ५० ४-१८६ / जीव-दु विदेहमज्के तिलो० सा० ७७७ जिभोवत्थणिमित्तं मूला० ६८८ | जीवपएसापचयं भावस० ६२२ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज 54. जीaurसेक् जीव एसेक् जीव परिणामहेदु जीव परिणाम जीव म जाणहि अप्प जीव म जाहि अप्पणा जीवमजीवं व्त्र जीवमजीवं दव्वं जीव म धम्महॅ हाणि करि जीवम्मि दिवे जीवम्हि हेदुभूदे जीव वहत गरय-गई + जीव वहति गरय-गइ + जीव हो taara जीवसमासा दो च्चिय जीवसमासा दोणि य प्राकृत पद्यानुक्रमणी जीवसहावं गाणं जीवस्स कुजोगिदस्स जीवरस जीवरूवं जीवस जे गुणा - Marate ra जीवरस गत्थि तित्ती x जीवस्स पत्थि वित्ती x जीवस्म पत्थि रागो जीवस्स पत्थि वग्गो जीवरस त्थि वणो जीवस्स संवरणं जीवरम च्चियादो जीवरस दु कम्मे य जीवस्स बहुपयारं जीवस्स विगारणस्स वि जीवस्स होति भावा जीवरसाजीवरस दु जीवस्सुवयारकरा जीव का जिय जीवहॅ तिहुयण-संठियहॅ जीवहॅ सण गाण, जिय जीवहॅ भेउ जि कम्म- किउ जीव मोक्ख हे वरु मूला० ६६७ परम० प० २ - १२३ पाहु० दो० ११६ सुदख० ११ दव्वस० १ सुप्प० दो० ५१ आय० ति० १८-० समय० १०५ परम० प० २ - १२० पाहु० दो० १०५ भावसं० ३२५ जीवहॅ लक्खणु जिणवरहि कम्म० २२ | जीवहॅ सो पर मोक्खु मुणि तसंखा समय ० ८० जीवा जीवा राहणा जीवाइ जे पयत्था जीवाइ- सत्त- तच्चं जीवाए व वगं जीवा-गुरु-अणु-सूई जीवा चउदसभेया जीवा चोइस-भेया * जीवाजीव म एक्कु कार जीवाजीवचिहत्ति जीवाजीवविहत्ती जीवाजीव विहती जीवाजीवसमुत्थे भ० आर० ४६४ तिलो० प० ४-४११ भावपा० १४१ तिलो० प०३-१८५ | जीवाजीवहॅ भेउ जो जीवाजीवं श्रासव जीवाजीचं दव्वं जीवाजीचं रुवाजीवाजीवा भावा जीवाजीवासवबंध पचस्थि० १५४ भ० श्रारा० १२७७ समय ० ३४३ समय० ३७० समय ० ५३ | जीवार रात्थि कोई भ० श्रारा० १२६३ जीवाण पुग्गला भ० श्रारा० १६५३ | जीवाण पुग्गलाणं जीवाण पुग्गलाणं समय ० ५१ जीवाण पुग्गला समय० ५२ समय ०५० | जीवाणमभयदा चा० ० ६५ जीवाणं खलु ठाणाकत्ति० श्रणु० ७८ जीवाणं च य रासी समय ० १३७ | जीवाणं मिच्छुदया ० २०८ | जीवादिदव्वणिवहा ० अ० १८० जीवादिपयट्ठा कत्ति० कचि ० भावस० २ | जीवादिबहित्तचं समय० ३०६ |जीवादीदव्त्राणं वसु० सा० ३५ |जीवादी - सद्दहणं परम० प० १-५६ | जीवादी - सद्दहरणं परम० प०२-०६ जीवादी -सदह परम० प० २ - १०१ जीवा दुग्गलाद परम० प० २ - १०६ | जीवाढोणतगुणा परम० प० २ - १२ | जीवादोतगुणो ११६ परम० प०२-३८ परम० प०२-१० गो० जी० १८७ पचत्थि० ५३ माणसा० १७ दव्वस० णय० १५६ तिलो० प० ४-२०२३ जंबू० प० २-३१ पचसं० १-१३७ गो० जी० ४७० परम० प० १-३० मूला० ७६६ चारित्तपा० ३८ मोक्खपा० ४ १ मूला० २१ जोगला० ३८ दव्वस० प० १४६ गो० जी० ५६२ मूला० ५४४ पचस्थि० १०८ वसु० सा० १० म० श्रारा० १७३५ कचि० अ० २२० विलो० प० ४-२८० भावस० ३०६ यिमसा० १८३ भावपा० १३४ मूला० ११६८ गो० जी० ३२३ भावत्ति ० १५ दव्वस० गाय० २४६ बा० श्रणु० ३६ णियमसा० ३८ णियमसा० ३३ दसासा० २० दन्चस० ४१ समय० १५५ यिमसा० ३२ गो० जी० २४८ गो० जी ५६८ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० पुरातन-जैनवाक्य-सूची ज०प०६-१७ जीवा पुम्गलकाया पचत्यि० ४ जीवो कम्मं उहयं समय०४२ जीवा फुग्गलकाया पचत्थि० २२ जीवो कसायजुत्तो मूला० १२२० जीचा पुग्गलकाया पचस्थि०६७ जीवो कसायबहुलं भ० श्रारा ८१७ जीचा पुमालकाया पचस्थि०६१ जीवो चरित्तदंसण समय०२ नीवा पुगालकाया पंचत्थि० ६८ | जीवो चेव हि एदे समय० ६२ जीवा पुग्गलकाया दव्वस० गय० ३ जीवो जिणपएणत्तो भावपा० ६२ जीवा पोग्गलकाया पवयणसा० २-४३ | जीवो,जो ण कसानो ढाढसी. १६ जीवा पोग्गलकाया णियमसा०६ जीवो ण करेदि घर्ड समय० १०० जीवा पोग्गलधम्मा तिलो०प०१-६२ जीवो णाणसहावो कत्ति० अणु० १७८ जीवावग्ग विसोधिय जंबू० प० २-२६ जीवो णाणसुहादी सुदख० ४४ जीवावग इसुणा जंबु. ५०६-१२ जीवो त्ति हवदि चेदा पंचत्थि० २७ जीवा-विक्खंभाणं तिलो० प०४-२५६५ जीवो दु पडिक्कमश्रो मूला० ६१५ जीवा-विक्खंभाणं + जीवो परिणमदि जदा * पवयणसा० १-६ जीवा-विक्खंभाणं + तिलो० सा० ७६४ | जीवो परिणमदि जदा * तिलो० ५० १-५८ जीवा वि दु जीवाणं कत्ति० अणु० २१० जीवो परिणामयदे समय० ११८ जीवा सयल वि णाणमया परम०प० २-६७ जीवो पाणणिवद्धो पवयणसा०२-५६ जीवा संसारत्था पचस्थि० १०६ | जीवो बधो य तहा समय० २६४ जीचाहदइसुपादं तिलो० सा० ०६२ | जीवो बंधो य तहा समय० २६५ जीचा हवंति तिविक्षा कत्ति० अणु. १६२ जीवो वंभा जीवाम्म म० श्रारा० ८७८ जीवा हु ते वि दुविहा दन्वस० णय० १०४ जीवो भमह भमिस्सइ पारा० सा०१४ जीविदमरणे लाहा मूला० २३ जीवो भवं भविस्सदि पवयणसा०२-२० जीविदरे कम्मचये गो० जी० ६४२ जीवो भावाभावो दवस. य११० जीवे कम्मं वद्धं समय० १११ | जीवो मोक्खपुरक्कड- भ. श्रारा० १८५७ जीवेण सयं बद्धं समय० ११६ | जीवो ववगदमोहो पवयणसा. ५-१ जीवे धम्माधम्मे दवस० गय०१४८ कत्ति० अणु० १६० जीवे व अजीवे वा समय० १६ २०४ (ज०) | जीवो वि हवइ भुत्ता कत्ति० अणु० १८६ जीवेसु मित्तचिंता भ० श्रारा० १६६६ / जीवो सयं अमुत्तो पवयणला० १-५५ जीवेहि पुग्गलेहि य दव्वस० णय. 85 जीवो सया अकत्ता भावसं० १७६ जीवो अणंतकालं कत्ति० अण ० २६४ जीवो स-सहावमओ दवस० गय०३६६ जीवो अणाइणिच्चो मावस० २८६ / जीवो सहावणियदो पंचत्थि० १५५ कत्ति० अणु १८ जीवो अणाइणिहरणो * मूला० १८० जीवो अणाइणिहणो * सम्मइ. २-४० जीवो हु जीवदव्वं' वसु० सा० २९ जीवो श्रणाइणिहणो कत्ति० अणु ० २३१ जीहग्गे अइकसिणं रिट्ठस० ३० जीवो अणाइणिहणो सम्मह०२-३७ जीहा जल व मेलइ रिस० १४. जीवो अणादिकालं म० श्रारा००२८ जीहासहस्सजुगजुद- तिलो० ५० ४-१५७३ जावो अण्णाणी खलु अंगप० २-२० जीहोहदंतणासा- तिलो. प०४-१०६६ जीवो उबओगमश्रो दव्वसं० २ जुगम(वं) समंतदो सो तिलो. प० ४-१७८९ जीवो उवोगमश्रो णियमसा० १० | जुगलाणि अणतगुण तिलो० ५० ४-३५६ जीवो कत्ता य वत्ता य नगप० २-८६ णियमसा० १६० जुगवं वहइ णाणं गो. क. ३३६ जीवो कम्मणिवद्धो णाणसा० २ | जुगवं संजोगित्ता Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज जुगवेदक साहि जुगवे कमाएहिं जुज्जइ सबंधवमा जुण पाचलम इल जुणो व दरिदो वा जुत्तरस तवधुराए जुत्ता घरणावहिघरणाजुत्तीसु जुत्तमग्गे जुतोपमारइ तो सुदा - सुदि (?) पक्रा जुवराय व कलत्ताणं (?) जुवला जुवला जादा जू - महु-मज्ज- मसं जू धरहु हारिण पर‍ जूगा-गुंभी-मक्करजूगाहिय लिक्खाहि जूयं खेतस्स हु जूय मज्ज मसं जे जधागहिदत्था जे अत्यपज्जया खलु जे अतरभागे जे अभियोग-पइरणयजे श्रम सुभा एहि जे उपरणा तिरिया जे उपरणा तिरिया जे उप्परगा गमी तीस जे कय कम्मपत्ता कम्मभूमिजादा जेम्मभूमिजादा जे कम्मभूमिजादा कम्मभूमिमा जे कुव्वति भत्ति जे केइ अण्णाणतवेहिं जुत्ता जे के वि उवएसा जे केई उवसग्गा जे के विदव्वसवरण जेोहमा माया जे खलु इदियगेज्मा प्राकृत पद्यानुक्रमणी पचस ५-४० जे गच्छादो संघा गारवेहिं हिदा पचस० ५-३०६ सम्मइ० ३ - २१ | जे गेरहात सुवरपभ० रा० १०६६ | जे (ज) चिच्छसि विक्खंभं भ० रा ० ६५६ | जे छांडय मुणिसंघ भ० श्रारा० ६६१ | जे जत्थ गुणा उदया तिलो० प० ८- ६२४ | जे जाया मारणग्गिए इव्वस० य० २६६ | जे जिगलिंगु धरे वि मुरिण भ० प्रा० ६४५ | जे जिरणवणे कुसला जे जुत्ता परनिरिया जे जुत्ता रतिरिया जे जे जम्हि फसाए जे जेट्ठदारपुर दो जे भार्यंत सदव्वं पचयणसा० १-७० तिलो० प० ७-७६ तिलो० प०८ - २१६ | जनू० १०६ - १७१ | रिस० ५ सावय० दो० ३८ जेट्टपरित्ताणतं पचधि० ११५ | जेट्टभवणारण परिदो भ० सारा० मह | जेट्ठम्मि चावण्हे वसु० सा० ६० जेट्ठवर द्विदिवधे वसु० सा० ५६ | जेटू सिदवारसीए पचयणसा० ३-७१ | जेट्टस्स किएहचोदसिमूला० ३६६ | जेटुस्स किए चोदसि - तिलो० प० ४ - २४७५ | जेहरम बहुल चोस्थीतिलो० प०८-२६६ | जेट्टस्स बहुवारसिभ० श्र० १४१५ | जेट्टस्स बारसीए जवृ० प० ११-१७६ | जेनंतरसंखाटोजंबू० प० ११-१८६ जेट्टाए जीवाए जबू० प० १२-८५ | जेट्ठाओ साहाश्रो पंचसं० ४ - २४० जेट्ठाण मज्झिमाणं भावसं० २७ जेद्वाणं विच्चाले जबू० प० २ - १५० जेट्ठा ताओ पुह पुह जवू० ० ६- १७२ | जेट्टा ते संलग्गा जंबृ० प० ११ - १०४ | जेट्ठा दो-सय- दंडा जवृ० प० ३ - २३५ | जेट्ठाचाहोचट्टियतिलो० प० ४-२५०६ जेट्ठा मूल पुवुत्तर तिलो० प०३-२४१ जेट्ठा मूले जोरहे वसु० सा० ३३३ | जेट्ठावरबहुमज्झिम मूला० ६५५ | जेट्ठावरभवणाणं भावपा० १२० जेट्टे समयपबद्धे तिलो० १०३ - २०६ | जेण श्रगालिउ जलु पियउ पंचधि० 8 जेण कमेण पाओ, १२१ छेदपिं० १७६ भ० श्रारा० १४४ तिलो० प० ४-२५०७ तिलो०प०४ - २५८० तिलो० प० ४-२५०४ पंचसं० ५-३२१ परम० प० १-१ परम० १० २ - ६१ कप्ति० श्र० १६४ तिलो० प०४-२१४४ तिलो० प०५-२६१ क्सायपा० ६८ (१५) तिलो० प० ४-१६२० मोक्खपा० १६ तिलो० सा० ४७ तिलो० सा० २६६ तिलो० प०४-१८६ लद्धिसा० म तिलो० प० ४-५४० तिलो० प० ४-११६७ तिलो० प० ४-११६८ तिलो० प० ४-६५८ तिलो० प० ४-६५६ तिलो० प० ४-२३८ तिलो० प० ४-२४२४ तिलो० प० ४-१८७ तिलो० प० ४-२१५४ तिलो० प० ४-२४२६ तिलो० प० ४-२४१२ तिलो० सा० ४४८ तिलो० प० ४- २४११ तिलो० प० ४-२३ गो० क० १४७ तिलो० सा० ४३३ भ० प्रा० ८६६ गो० जी० ६३१ तिलो० ० सा० २६८ गो० क० १८ सावय० दो० २७ श्राय० ति० २१-६ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ पुरातन-जैनवाक्य-सूची जेण कसाय हवति मणि परम० ५०२-४२ / जे दव्यपज्जया खलु मूला० ५८१ जेण कोधो य माणो य मूला० ५२७ | ज दंसणेसु भट्ठा दसणपा०८ जेण जदा ज तु जहा अंगप० २-२२ / जे दसणेसु भट्ठा दसणपा० १२ जेण ण चिरणउ तव-यरणु परम०प० २-१३५ । जे दिट्ठा सूरुग्गमणि परम०प०२-१३२ जेण णिरंजणि मणु धरिउ परम०प०३-५२३क्षे ३ जे धणवत ण दिति धणु सुप्प० दो० ३६ जेण णिरंजणि मणु धरिउx पाहु० दो० ६२ | जे पच्चया वियप्पा पचसं०४-१७३ जेण तच्च विबुझेज मूला० २६७ जे पच्चया वियप्पा पचसं० ४-१६६ जेण मरणोविसयगया- सम्मह०२-१६ जे पज्जयेसु हिरदा पवयणसा०२-२ जे णयदिट्ठिविहीणा * णयच०१० जे पढिया जे पांडया पाहु० दो० १५६ जे णयदिट्ठिविहीणा * दव्वस० णय० १८१ जे परभावचए वि मुणि जोगसा० ६३ जेण रागा विरज्जेज मूला० २६८ जे परमप्प-पयासयह परम० प० २-२०६ जेण रागे परे दवे मोक्खपा०७१ | जे परमप्प-पयासु मुणि परम प०२-२०४ जेण विजाणदि सव्वं पंचत्थि० १६३ / जे परमप्प: भत्तियर परम० प० २-२०८ जेण विणा लोगस्स वि सम्मइ० ३-६८ क्षे०१ जे परमप्पु णियंति मुणि परम० ५० १-४ जेण विणिम्मियपडिमा- गो० क० ६६६ | जे परिणामविरहिया धम्मर०५६ जे णवि मरणहिं जीव फुडु जोगसा० ५६ जे पंचचेलसत्ता मोक्खपा० ७६ जेण सरूविं झाइयइ परम० प० २-१७३ | जे पचेदियतिरिया तिलो. १०८-५६२ जे ण सहत्थहिं णिय य धणु सुप्प० दो० १६ जे पावमोहिदमई मोरखपा० ७८ जेण सहावेण जदा कत्ति० अणु० २७७ जे पावारंभरया रयणसा०११२ जेण सुदेउ सुणरु हवसि सावय०दो० १५५ जे पि पडंति च तेसि दंसणपा० १३ जेण हु मज्झ हव्वं वसु० सा०७४ जे पुग्गलदव्वाणं समय० १०१ जेणिय-बोह-परिट्ठियह परम० ५० १-५३ जे पुण कुभोयभूमी- वसु० सा० २६१ जे हिरवेक्खा देहे तिलो०प०८-६४७ | जे पुण गुरुपडिणीया मूला०७१ जेणुन्भियथंभुवरिम गो० क. १७१ जे पुण जिणिंदभवण वसु० सा० ४८२ जेणेगमेव दव्वं भ० श्रारा० १८८३ जे पुण पणहमदिया मूला० ६० जेणेव हि संजाया पवयणसा० १-३८ जे पुण भूसियगंथा भावस. १३५ जेणेह पाविदव्वं मूला० ७५० जे पुण विसयविरत्ता सीलपा०८ जेणेह पिंडसुद्धी मूला० ५०१ जे पुण विसयविरत्ता मोक्खपा०६८ जे तसकाया जीवा वसु० सा० २०८ / जे पुण सम्माइट्ठी वसु० सा०२६५ जे तियरमणासत्ता भावसं० २३ | जे पुण सम्मत्ताओ भ० श्रारा०५४ (१०) जेत्तिय कुंडा जेत्तिय तिलो० ५० ४-२३८६ जे पुणु मिच्छादिट्टी भावस० ५६४ जेत्तिय जलणिहि-उवमा तिलो० ५०८-५५१ जे पुन्चसमुद्दिट्टा वसु० सा० ४४७ जेत्तिय तुडिचडि धावइ दम्महु सुप्प० दो० ६८ जे पुव्वुत्ता संखा जवृ०प० १२-७६ दव्वप० णय० १४० | जे बावीस-परीसह सुत्तपा० १२ जेत्तियमेत्ता पाऊ तिलो०प०३-१६१ | जे भव-दुक्खह बीहिया परम० ५० २-२०७ जेत्तियमेत्ता पाऊ _ तिलो०३-१७४ / जे भंजति विहीणा तिलो. प० ४-२५०८ जेत्तियमेत्ता तस्सिं तिलो० प०४-१७६२ तिलो०प०३-२०३ जेत्तियविज्जाहरसे- तिला०प०४-२३८७ जे भोगा किल केई मूला० ७०८ जेत्तो वि खेत्तमेत्तं गो० जी० ४७२-२०२ जे मज-मस-दोमा जेत्तूण मेच्छराए तिलो० ५०४-१३८६ जेम सहावि णिम्मलउ परम० ५०२-१७७ । नी वसु० सा०६० Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी १२३ जे मंदरजुत्ताइ तिलो० प० ४-४०-४६ जेहउ मणु विसयह रमड जोगसा० ५० जे मायाचाररदा तिलो० प० ४-२५०२ जेहउ सुद्धप्रयासु जिय जोगसा० ५६ जे रयणतउ णिम्मलउ परम०प० २-३२ जेहा पाणहें झुपडा पाहु० दो० १०८ जे रायसंगजुत्ता भावपा० ७२ जेहि ण दिएण दाणं भावस० ५६६ जे वढिदा दु चदा जवू०प० १२-४२ जेहि ण णिय धणु विलसियउ सुप्प० दो०६३ जे वयणिजवियप्पा सम्मइ. १-५३ जेहि अणेया जीवा ४ गो. जी. ७० जे वि अहिंसादिगुणा भ० पारा० ५७ जेहिं अणेया जीवा x पचस० १-३२ जे वि य अण्णागणादोx छेदपिं० १७० जेहिं माणग्गिवाणेहि पचगु० भ०२ जे वि य अण्णगणाटो x छेदपिं० १८१ | जेहिं दु लक्खिज्जंते* पंचस०१-३ जे सच्चवयणहीणा तिलो० ५० ३-२०२ जहिं दु लक्विज्जते गो० जी०८ जे वि हु जहरिणय ते- भ० श्रारा० १६४० | जेहिं दु लक्खिज्जते * गो० क० ८.२ जे सरमिं सतुट्ठ-मण परम०प०२-१११ क्षे०४ | जेहिं जिणह णिहि वल्लहउ सुप्प० दो० ६२ जे सखाई खंधा दवस० णय० ३२ | जे हीणा अवहारे लद्विसा० ४७० जे सघयणाईया सम्मइ० २-३५ जे हुँति तत्थ आया आय० ति०२१-७ जे मंतवायदोसे सन्मइ० ३-५० 0 दिढे तुटुंति लहु परम०प०१-२७ जे संसारसरीरभोगविसये तिलो० ५० ४-७०२ | जो अजुदाऊ देवो तिलो०प०३-११७ जे संसारी जीवा भावसं०४ जो वाणुमणणं ण कुणटि कत्ति० अनु० ३८८ जे सिद्धा जे सिज्झिहिहिं जोगमा० १०७ जो अणुमेत्त वि राउ मणि परम० प० २-८१ जेसिं अस्थि सहाओ पचस्थि०५ जो अण्णेसि दचं छेदपिं०६६ जेसि अमेज्झमझे रयणसा० १४० कत्ति. श्रणु० २०३ जेसि पाउसमाई भ० श्रारा० २११० जो अत्थो पडिसमयं कत्ति० अणु० २३७ जेसिं आउसमाणं भावस० ६७० जो अपरिमिदपराधो छेदपिं० २५३ जेसिं जीवसहावो + पचत्थि. ३५ जो अप्पणा दु मरणदि समय०२५३ जेसि जीवसहावो + भावपा० ६३ | जो अप्पणो सरीरे धम्मर० ११३ जेमि ण संति जोगा गो० जी० २४२ | जो अप्पसुक्ग्यहेदु भ० श्रारा० १२२१ जेसि ण संति जोगा। पंचसं०१-५०० जो अपाणं जाणदि कत्ति० अणु०४६३ जेसि तरूण मूले तिलो० ५०४-११३ जो अप्पाणं झायदि तबसा० ५७ जेसिं विसण्सु रदी पवयणसा० १-६४ जो अप्पा तं गाणं तञ्चसा०४४ जेसिं हवंति विसमा- म० श्रारा०२१११ | जो अप्पा सुद्ध वि मुणड जोगसा. १५ जेसि हुंति जहएणा पारा० मा० १०६ जो अबंभ सेवदि छेदपिं० ५० जे सुणति धम्मक्खरहें सावय० दो० ११८ | जो अभिलासो विसए- भ. श्रारा० १८२६ जे सुद्धवीरपुरिसा धम्मर० १८४ जो अवमाणणकरणं भ० भारा० १४२६ जे सेसा णरतिरिया जबृ० प० १५-१६१ | जो अवलेहइ णिचं वसु० सा. ८४ जे सोलस कप्पाइ तिलो० ५०-१४८ जो अहिलसेदि पुराण कत्ति० अणु० ४५० जे सोलस कप्पाइ तिलो. प०८-१७८ | जो आचणकालो सम्मह०३-३६ जे सोलस कप्पाई तिलो. प० ८-५२३ जो आदभावणमिर + समय. ५१ क्षे०२(ज०) जे सोलस कापाणं ' तिलो० प० -५२६ | जो आदभावणमिण + तिलो० प० ६-४४ जेहउ जजरु गरय-घर परम० प० २-१४६ | जो श्रायरेण मरणदि कत्ति अगु० ३१२ जेहउ जन्जरु गरय-घरु जोगसा०५१ जो आयासह मरण धरड परम०प०२-१५० जेहउ णिम्मलु णाणमउ परम० ५० १-२६ । जो प्रारंभण कणदि कत्ति श्रगु० ३८५ । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ पुरातन-जैनवाक्य-सूची जो इच्छइ निस्सरिढुं मोक्खपा० २६ | जो उवयादि जदीणं __कत्ति० अणु • ४५७ जो इच्छदि निस्सरिदुं तिलो० ५० १-५० जो उवविधेदि सव्वा- भ० श्रारा० २००५ जोइज्जइ तिं बंभु परु परम० ५० १-१०६ जो उवसमइ फसाग भावस० ६५५ जो इट्ठण (जोइस)णयरीणं तिलो० ५०७-११५ जो एड प्रणाहूरो श्रायः ति० २३-१४ जोइय अप्पें जाणिएण परम० ५० १-६६ जोए करणे सरणा मूला० १०१७ जाइय चिंति म किं पि तुहुँ परम० ५० २-१८७ जो एगेगं अत्थं कत्ति० अण्० २७६ जोइय जोएं लइयइण पाहु. दो० ६१ | जो एत्य अपडिपुराणो पचस०५-५०३ जाइय णिय-माण णिम्मलए परम०प० १-११६ जो एयसमयबट्टी * णयच० ३८ जोइय णेहु परिचयहि परम० प० २-११५ जो एयममयवट्टी दवस० गय० २१० जोइय दुम्मइ फवुण तु: परम० प० २-१७५ जो एरिसियं धम्म धम्मर० ११ जोइय देहु धिणावणउ परम० प० २-१५१ जो एवं जाणित्ता पवयणसा०२-१०२ जोइय देहु परिच्चयहि परम० ५०२-१५२ जो एव जाणित्ता तिलो. प०१-३५ जोइय भिएणउ माय तुहॅ पाहु. दो० १२६ / जो एवंविहदोसो वेदपि० २७८ जोइय मिल्लहि चिंत जइ परम० प० २-१७० जोएहिं तीहि वियरइ भावस० ६४६ जोइय मोक्खु वि मोक्ख-फलु परम० प० २-२ | जो प्रोलग्गदि धारा- भ. धारा० २००६ जोइय मोहु परिच्चयहि परम०प० २-१११ | जो फत्ता सो भुत्ता भावसं० २६६ जाइय लोह परिच्चयहि परम०प० २-१३ | जो फम्मजादमइओ मोपखपा० ५६ जोइय विसमी जोय-गइ " परम० प० २-१३७ / जो कम्मक्लुसरहियो जवृ० प०१३-६३ जोइय विममी जोयनाइ* पाहु० दो०१८ जो फम्मंसो पविसदि क्सायपा० २२४ (१७१) जोइय विंदहिं णाणमउ परम० ५० १-३६ जो पल्लाणसमग्गो जवू० ५० १३-८८ जोइय सयलु वि फारिमउ परम० प० २-१२६ | जो कुणइ का उमग्गं कत्ति० अण्० ३७१ जाइय हियडइ जासु ण वि पाहु. दो० १६४ जो कुणाइ जयमसेसं भावसं० २१५ जोइय हियडइ जासु पर पाहु० दो० ७६ | जो कुणाइ पुण्णपाच भावसं०३८ जोइसदुमा वि णेया जंवू० प० २-१२८ जो कुणदि वच्छलत्त समय० २३५ जोइसदेवीणाऊ तिलो. सा. ४४६ जो कोइ मज्म उवधी मूला. १९४ जोइसवरपासादा जवू० ५० १२-१०६ जो फोडिए ण जिप्पइ मोक्खपा०२२ जाइसविन्नामंतो __ रयणसा० १०६ | जो को वि धम्मसीलो दंसणपा०६ जोइसिय-णिवासखिदी तिलो० प०७-२ | जो खलु श्रणाइणिहणो दव्यस० गय० २६ जोइसिय-वाण-जोणिणि- गो० जी० २७६ | जो खलु जीवसहाओ दवस० गय० ११५ जोइसिय-वाण-वेंतर- तिलो० ५० ५-७३ | जो खलु दव्वसहावो पवयणसा०२-१७ जोइसियंताणोहीगो० जी० ४३६ जो खलु संसारत्थो पंचस्थि० १२८ जोइसियाण विमाणा कत्ति० अणु० १४६ | जो खलु सुद्धो भावो तच्चसा०८ जोइसियादो अहिया गो० जी० ५३६ | जो खलु सुद्धो भावो श्रारा० सा० ७६ जो इह सुदेण भणिो दव्वस० णय० २८६ | जो खवयसेढिरूढो भावस०६६० जो इंदियाई दडइ भावसं० १७६ जो खविदमोहकम्मो तिलो० प०६-४६ जो इंदियादिविजई पवयणसा० २-५६ जो खविदमोहकलुसो पवयणसा०२-१०४ जो इंदिये जिणत्ता समय०३१ | जो खु सदिविप्पहूणो भ० श्रारा. १८४३ जोईणं माणगम्मो परमसुहमहो णियप्पा० ४ जंबू० ५० १३-५ जंबू०प० १२-७२ भ. श्रारा०५५३५ जो उप्पएणो रासी जो उवएसो दिन्नइ __ कत्ति० अणु० ३४५ ) जोगहाणा तिविहा गो. क. २१८ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी जोगणिमित्तं गहणं * मूला० ६६६ जो जम्मुच्छवि पहावियट साघय० दो० १६८ जोगणिमित्तं गहणं* पथि० १४८ जो जम्हि गुणो दवे समय० ११३ जोगपउत्ती लेस्सा गो० जी० ४८६ जा जन्हि सछहंतो कसायपा० १४० ८७) जोगविणासं किच्चा कत्ति० अणु० ४८५ जो जस्स पडिणिही खलु जबू० ५० ११-७ जो गहइ एक्कसमए ४ णयच० ३० जो जस्स वदृदि हिदे भ. श्रारा० १७६३ जो गहइ एक्कसमये x दवस. णय० २०२ जो जम्स होइ ठाणे श्राय० ति० २४-२ जोग पडि जोगिजिणे गो० जी० ७१० जो जं अंगं भुजइ श्राय० ति०८-१६ जोगा पयडिपदेसा + मूला० २४४ जो जं सकादि य कसायपा० ६२(6) जोगा पयडिपदेसा+ गोक० २५७ | जो जाइ जोयएसयं मोक्खपा० २१ जोगा पयडिपदेसा + पचसं०४-५०७ जो जाए परिणमित्ता भ० श्रारा० १९२२ जोगा पयडिपदेसा दव्वस० णय० १५४ | जो जाणइ अरहनो(तं) ढाढसी० ३८ जोगाभाविदकरणो म० श्रारा० २२ जो जापाइ समवायं मूला० ५२२ जोगिम्मि अजोगिम्मि य गो. क. ७०३ जो जाणइ सो जाणि जिय परम०प०१-४६२.(प्र) जोगिम्मि अजोगिम्मि य गो० क०८७३ जो जापदि अरहतं पवयणसा०१-८० जोगिम्मि ओघभगो पचस०४-३६४ जो जापदि पच्चक्खं कत्ति० अणु० ३०२ जोगिस्स सेसकालं लद्धिसा० ६४० जो जाणादि सो पाण पवयणसा० १-३५ जोगिस्स सेसकालो लद्धिसा. ६६ जो जाणादि जिशिंदे पवयणसा०२-६५ जोगे गहिदम्मि वरिस- छेदपिं० १४५ | जो जाणिऊण देहं कत्ति० अणु० २ जोगे चउरक्ग्वाणं गो० जी० ४८६ | जो जारिसत्रो कालो भ० श्रारा० ६७१ जोगेसु मूलजोगं मूला० ६३७ / जो जारिसी य मेत्ती भ० श्रारा०३४३ जोगेहि विचित्तेहिं म० श्रारा० २५३ | जो जिउ हेउ लहेवि विहि परम० ५० १-४० जोग्गमकारिजंतो म० श्रारा. ११० | जो जिणवरिंदपूआ धम्मर० १३८ जोग्गमकारिज्जतो म. आरा० ११२ | जो जिणसत्थं सेवइ कत्ति० अणु० ४६१ जो घरि हुत: धण-फपाइँ सावय० दो० ६३ | जो जिण सोहउँ सो जि हउँ जोगसा० ७५ जो चउविह पि भोज्नं कत्ति० अणु० ३८२ जो जिणु केवलणाणमउ परम० प० २-१६७ जो चच्चइ जिणु चंदण सावय० दो० १८४ | | जो जिणु एहावइ घयपयहिं सावय० दो० १८१ जो चत्तारि वि पाए समय० २२६ जो जिणु सो अप्पा मुणहु जोगसा० २१ जो चयदि मिट्ठभोज्नं कत्ति० अणु० ४०१ जो जीह तिहीइ पहू श्राय० ति० १-२७ जो चरदि णादि पिच्छदि पंचत्थि० १६२ जो जीइ दिसाइ गओ श्राय० ति० १-३४ जो चरदि संजदो खलुणियमसा० १४४ दन्वस० गय० १०६ जो चावि य अणुभागा कसायपा० २२७(१७४) जो जीवरक्खणपरो कत्ति अणु०३६६ जो चिय जीवसहावो दवस. णय० २३७ जो जीवो भावंतो भावपा०६१ जो चिंतइ अप्पाणं कत्ति० अणु० ४५३ जो जुद्धकामसत्थं कत्ति० अणु०४६२ जो चिंतेइ ण वंकं कत्ति० अणु० ३६६ जो जेणं संच(चा)रइ श्राय०ति० २७-८ जो चिंतेइ सरीरं कत्ति. अणु० १११ जो जेमइ सो सोवह भावसं० ११४ जो चेव कुणाइ सो चिय समय० ३४० जो चेव जीवभावो जो जोडेदि विवाह णयच०६७ लिंगपा०६ जो छइंसगतकतक्कियइमं रिट्रस०२५७ जो जो रासी दिस्सदि तिलो० सा०८८ जो जण पढइ तियालं णिव्वा० भ० २७ | जो ठाणमोवीरा मूला० ६२२ जो जत्थ कम्ममुक्को भावस० ६६० जो डहइ एयगामं भावस. २४३ जो जत्थ जहा लद्धं मूला० ६३१ । जो ए करेदि जुगुप्प समय०२३१ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ पुरातन-जैनवाक्य-सूची जो ण कुणाइ अवराहे ___ भावसं० ३०२ | जोण्हाणं णिरवेक्खं पवयणसा० ३-५१ जो ण कुपादि परतत्ति कत्ति० अणु० ४२३ जो तइलायहॅ भेउ जिणु जोगसा० २८ जो ए/ जापाइ जो ए जाणइ भावस० २३२ जो तच्चमणेयतं कत्ति० अणु० ३११ जो ण तरइ णियपावं भावसं० २५२ भावसं० ३५१ जो ण मरदि ग य दुहिदो समय० २५८ जो तसवहा उ विरदो पचसं० १-१३ जो प य कुवदि गव्व कत्ति० अणु० ३१३ जो तसवहा उ विरदो + गो० जी० ३१ जो रायपमाणरहिं तिलो० ५० १२ / जो तं दिहा तुट्टो पवयणमा० १-६२२०८(ज) जो ए/ य भक्खेदि सयं कत्ति० अगु० ३८० जो तिक्खदाढभीसण- धम्मर० ६८ जो गवकोडिविसुद्धं कत्ति० अणु० ३६० जो तिलोत्तम जो तिलोत्तम भावस० २९६ जो गवि जापाइ तच्च कत्ति० अणु० ३२४ जो दसभेय धम्म यत्ति० श्रणु० ४२१ जो पावि जागाइ अप्पु परु जोगमा० १६ एयगामं धम्मर० १०२ जो पवि जाणादि अप्पं कत्ति० अणु० ४६४ जो दंसणपभट्ट छेदपि० १६१ जो पवि जापदि एव पचयणसा० २-६१ | जोदिगणाणं संखा जबू०प० १२-१०२ जो पवि जारादि जुगव पचयणसा० १-४८ | जो (जं)टीहकालसवा- भ. श्रारा००७७ जो गवि बुज्झइ अप्पा पारा० सा० २१ जो दु अवग्गहणाणं जबू० ५० १३-६५ जो पविमएाइ जीउ समु परम० प० २-५५ जो दु अटुं च रुदं च मूला० १२६ जो पवि मण्पाइ जीव जिय परम०प०२-१०५ | जो दु अट्टं च रुदं च णियमसा. १08 जो ण विरदो हु भावो पचसं० १-१३४ जो दुगंछा भयं वेदं णियमसा. १३२ जो ण हवदि अण्णवसो णियमसा० १४१ जो दु ण करेदि कंखं समय० २३० जो ण हि मण्णइ एवं भावस०२७० जो दु धम्मं च सुकं च शियमसा० १३३ जो णाणहरो भन्यो श्रगप. ३-५४ जो दु पुण्ण च पावं च णियमसा० १३० जो णिक्खवणपवेसो भ० श्रारा० ४१५ जो दु हस्सं रई सोग णियमसा० १३१ जो णिच्चमेव मरणदि दव्वस० णय०४५ जो देओ होउणं भावस०२३३ जो णिज्जरेदि कम्म भ० श्रारा०२३४ जो देवमणुयतिरियउ छेदपि० ५३ जो णिय-करणहिं पचहिं वि परम० ५० १-४५ जो देहपालणपरो कत्ति० श्रणु० ४६७ जो णियछायाबिंवं रिदृस० ८२ | जो देहे हिरवेक्खो मोक्खपा० १२ जो णिय-दसण अहिमुहा परम० प० २-५६ | जो धम्मत्थो जीवो कत्ति० अणु० ४२० जो णिय-भाउ ण परिहरइ परम० प० १-१८ ! जो धम्म-सुकमाणम्हि णियमसा० १५१ जो णियमवंदणाणं छेदपि० ५५ जो धम्म ण करतो धम्मर०७ जोणि-लक्खई परिभमइ + परम० प०२-१२२ जो धम्म तु मुइत्ता समय० १२५ ते १० (ज) जो णिवसेदि मसाणे कत्ति० अणु० ४४७ जो धम्मिएसु मत्तो कत्ति० अणु० ४२० जो णिसिभुत्तिं वजदि कत्ति० अणु० ३८३ जो धवलावइ जिणभवणु सावय० दो० १६४ जो णिहदमोहगंठी. पवयणसा० २-१०३ | जोधेहिं कदे जुद्धे समय० १०६ जो णिहदमोहगंठी तिलो० प०६-५२ | जो पइँ जोइउँ जोइया पाहु० दो० १७६ पवयणसा०१-१२ | जो पइठावइ जिणवरहें सावय० दो० १६१ - जोणिहि लक्खहि परिभमइ + पाहु० दो० ८ | | जो पक्कमपक्कं वा पवयणमा०३-२६२ १६(ज) जोणी इदि इगवीसं तिलो० प०८-५ जो पक्खमासचउमास- छेदपि० १२० जोणी संखावत्ता तिलो. प०४-२६४८ / जो पढइ सुणइ गाहा सुदख०६४ जो णेव सच्चमोसोx पंचसं० १-१२ / जो पढइ सुगइ भावड भावसं०७०० जो णेव सच्चमोसो ४ गो० जी० २२० । जो परदव्वम्मि सुहं पंचयि० ११६ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Τ 15 ज जो परदव्यं ण हरइ जो परदव्वं तु सुहं जो परदेहविरत्तो जो परदोस गोवद जो परमत्यें किलु वि जो परमप्पर परमपउ जो परमप्पा गाणमर जो परमप्पा सो जि हउ जो पर महिला कज्जे जो परिमाण कुव्वदि जो परियार अप्प परु जो परियाणइ अप्पु परु जो परिवज्जइ गथ जो परिहरेत जो परिहरेदि संग जो परसइ समभाव जो परसदि अप्पा जो परसाद पाण जो परसदा जो पाउ वि सो पाउ मुगि जो पाव मोहिमदी जो पनि मोहक सो जो पिंडत्थु पत्थु बुह जो पुच्छर थिरके जो पुच्छि ग याड जो पुज्जर अवस्य जो पुढविकाइजी करि - जो पुढविकायजी वे जो पुरा इच्छति रमिदु जो पुरण एवं जो पुरण कित्तिणिमित्त जो पुर गोगारिमुह 'जो पुरण चिंतदि कज्जं जो पु जो पुरण जहणत्तम्मि जो पुरा गिरवराधी (हो) जो पुरण तीसदिवरिसो जो पु धम्मो जीवेजो पुरा पदव्य जो पुणमिच्छादिट्टी प्राकृतपद्यानुक्रमणी १० प्र० ८७ ० ३३६ | जो पुरण लच्छिं संघटि जो पुरण विमयविरतो वति० जो पुरण सम्मादिट्ठी कति० अ० ४१८ | जो पुरण (घर) हुतइँ धरण करणइँ परम० प० १–३७ | जो पुणु वड्डुद्धारो (?) परम० प०२-२०० | जो बहुमुल्ल वत्युं परम० प०२-१७५ | जो बहुवो सो हु कडी जोगसा० २२ | जो बोलड अप्पारणं भावसं० २२२ जो भइ को वि एवं कति ० ० ३४० | जो भत्तउ रयण-तयहॅ जोगसा० ८२ | जो भत्तउ रयण-तयह जोगसा० = जो भत्तपदिएणाए कत्ति ० ० ३८६ | जो भत्तपदिरणाए कत्ति० श्रणु० ३५१ जो भावरणमोक्कारेकत्ति ० ० ४०३ | जो भिज्जइ सत्थे चसु० सा० २७७ | जो भुंजदि श्रधाकम्म णियमसा० १०६ जो मलयम कत्ति० तिलो० ५० ६-६७ समय० १४ | जो मज्झमम्मि पत्तम्मि समय० १५ जो मइंदियविजई जोगसा० ७१ जो मादि जीवैमि य लिंगपा० ३ | जो मरणदि पर महिल तिलो० प० ६-२१ जो मद हिंसामि य जोगसा० ६८ | जो मरइ जोय दुहिढो श्राय० ति० ५-५ जो महिलाससग्गी थाय० ति० १३ - १ भावस० ४५६ सूजा० १००६ मूला० १०१० भ० श्रारा० १२६८ | जो मुणिभत्तवसेसं भ० श्रारा० १६०७ | जो मोहरागदोसे कत्ति० श्रणु० ४४२ जो मोहं जिणित्ता भावसं० २४५ | जो मोहं तु मुइत्ता कत्ति० गु० ३८६ जोयण-अट्टहस्सा भाव० ४२ जोयण - श्रट्टावीमा वसु० सा० २४७ | जोयरण- अनुच्छेहा समय० ३०५ | जोयरण - श्रकुच्छे हो मूला० ६०२ | जोयरण- उरगतीससया भ० श्रारा० १७५२ | जोयरण-वरणउदिसया मोखपा० १५ | जोयरण-रणव य सहस्सा भ० श्रारा० ५ | जोयण- तीससहस्सा • | जो मंगलेहि सहिदो जो मिच्चुजरारहिदो १२७ कत्ति० अणु १३ कत्ति० अणु० १०१ जब्रु० प०२-११७ भावसं ०५१६ (क्षे०) भावसं० ४४८ कत्ति ० अ० ३३५ जंबू ० प० ४-३१ भावसं ० ५५५ भावस० २८० परम० प० २-३१ परम० प० २-६५ जो मिच्छत्तं गतूजो मुगि छवि विसयसुह भ० श्रारा० २०३० भ० श्रारा० २०८ भ० श्रारा० ७५६ रिट्स० १२७ मूला० ६२७ श्राय० ति० ६-६ वसु० सा० २४६ कत्ति ० ० श्रणु० ४३८ समय० २५० कत्ति० श्रणु० ३३८ समय० २४७ समय० २५७ भ० श्रारा० ११०२ जबृ० प० १३-१११ जंवृ० प० १३-८६ भ० धारा० १६६५ पाहु० दो० १६ रयणसा० २२ पचयणसा० १-८८ समय० ३२ समय ० १२५०६ (ज) तिलो० प० ४-१७२० अबू० प० २-१४ जवू० प० १-२६ तिलो० प०४-१८१८ विलो० प० ४-१७७६ तिलो० प०४-१७४० तिलो० ४-१८३ तिलो० प० ४-२०२२ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ पुरातन-जैनवाक्य-सूची जोयणदलवासजुदो तिलो० ५०४-२७५२ | जोयणसयमुव्बिद्धो तिलो० १०४-२७० जोयणदलविक्खभो तिलो. प०४-१६२८ जोयणसविक्खभा तिलो० ५० ४-२४६१ जायण माणसठिद- तिलो. प०१-६० जोयणमयं समर्माहयं जंबू० ५० ११-२३३ जोयण-पचसयाई तिलो०प०४-२७२१ जोयणसयाणि दोरिणं तिलो० ५० ४-२८३६ जोयण-पंचसयाणि तिलो०प०४-२७१६ जोयणमहस्स एदे जवू०प०३-२०६ जोयण-पंचसहस्सा तिलो. प० ७-१८ जोयणसहस्सगाढा तिलो० प०५-६१ जोयण-पंचसहस्सा तिलो० प० ७-१६८ जोयणसहस्सगाढो तिलो. प. ४-१७७६ जोयण-पंचूपझ्या जंबू० प० २-१६ जोयणमहस्सगाढो तिलो० प०४-२५७५ जोयणमधियं उदयं तिलो०५०४-७७६ जोयणसहस्सगाढो तिलो. प० ५-५८ जोयण-मुहुवित्थारा जंबू०प० ४-२७८ जोयणसहस्सतुगा तिलो०प०५-१३७ जोयणमेक्कट्ठिकए तिलो. सा० ३३७ जोयणसहस्मतुंगा जंबू०प०१०-२८ जोयणमेत्तपमाणो जंबू० ५० १३-१०६ जोयणसहस्सतुगो ___ जंबू०प० ४-६८ जोयण य छस्सयाणि तिलो. प० ४-२७२० जोयणसहस्समधियं तिलो. प०५-३१६ जोयणया छण्णवदी तिलो० ५०८-५३ जोयणसहस्ममेक्र्क तिलो. प०५-१६३ जोयण-लक्खं तिदियं तिलो० ५०४-२७६८ जोयणसहस्समेक्क तिलो० प०४-१८०८ जोयण-लक्खं तेरस तिलो. प० ४-२४२५ जोयणसहस्समेक्कं तिलो. प०४-२०७३ जायण-लक्खं वासो तिलो. सा० १५ जोयणसहस्समेक्कं तिलो. प० ४-२५३३ जोयण-लक्खायामा तिलो. प०५-६४ जोयणसहस्समेक्कं तिलो० प०४-२५७७ जोयण-लकरवायामा तिलो० ५०६-६५ जोयणसहस्समेक्कं तिलो० ५०४-२६०६ जोयण-वीससहस्सं तिलो सा० १२४ जोयणसहस्समेक्कं तिलो० प०४-२७४७ जोयण-वीससहस्सा तिलो०प०१-२७० जोयणसहस्समेक्कं तिलो. प०५-२३६ जोयण-वीससहस्सा तिलो. प०४-१७५३ जोयणसहस्सवासा तिलो०प०५-६८ जोयण-सगदु दु चक्किगि तिलो० सा० ३१२ जोयणसंखाखा तिलो० सा० २२० जोयण-सट्टिसहस्सं तिलो० ५०४-२०२१ जो रत्तीए चरियं छेदर्पि० ७२ जोयण-सट्टी रुंदं तिलो० प०४-२१८ जो रयणत्तयजुत्तो दव्वसं०५३ जोयण-सत्तसहस्सं तिलो० सा० १७६ जो रयणत्तयजुत्तो कत्ति० अणु० ३६२ जोयण-सत्तसहस्सं तिलो०प०४-२०६४ जो रयणत्तयजुत्तो मोक्खपा० ४३ जोयण-सदं तियकदी तिलो० प० ६-१०२ जो रयणत्तयणासो पवयणसा०३-२४२०१६(ज) जोयण-सद-मज्जादं तिलो०५०४-८९७ जो रयणत्तयमइओ श्रारा० सा०२० जोयणसदेक्क बे चउ जबू०प०३-१६८ जो रसेंदिय फासे य मूला० ५२८ जोयण-सयायाम तिलो. सा. १८१ | जो रायदोसहेदू कत्ति० अण० ४४१ जोयण-सयायामा जंबू०प०४-४६ | जो रित्तो पावजुत्रो आय. ति०८-१२ जोयण-सयायामा जंबृ० प०५-६ | जो रुक्खमूलजोगी छेदपिं० १३३ जोयण-सयायामा जबू०प०५-३६ जोऽरूविरूविजीवा अंगप०२-१२ जोयणसयउधिद्धा 'जबू० प० २-१०४ | जो लेइ अणसणं चिय रिट्ठस० २५२ जोयणसयदीहत्ता निलो० ५०८-४३६ जो लोहं णिहणित्ता कत्ति० अणु० ३३६ जोयणसयतुंगं जबू० प० ५-६३ | जो वज्जेदि सचित्तं कत्ति० अणु० ३८. जोयणसयप्पमाणा जंबू०प०११-१५७ | जो वट्टणं च मण्णइ * गयच.५० जोयणसयमुत्तुंगा तिलो०प०४-२१०२ / जो वट्टणं ण(च) मरणइ * दव्वस०णय० २१२ जोयणसयमुव्विद्धा जबू० प०६-४५ / जो वट्टमारणकाले कत्ति० अणु० २७४ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झ जो वट्टमा लच्छिं जो वढाइ लच्छिं जोवणमए मत्तो जो वयभार सो जितपु जो वह सिरे गंगा जो वावर सवे जो वावरे सद जोवारि-वी हि कोदवजो विय विणिपडत जो वि विराधिय दुसराजो चि सहदि दुव्यरण जो वेद वेदज्जदि जो सग्गसुहरिणमित्तं जो सघरं पि पलित्तं जो सम-भाव-परिट्टिय जो सम-भावहॅ वाहिरउ जो समयपाहुडमिंणं जो सम-सुक्ख - गिली बुहु जो सम- सुक्ख-लिगो जो मोसव्वभू जो समोसव्वभूदेसु जो सम्मत्त-पहारण बुहु जो सम्मत्तं खवया जो सव्वसंगमुक्को जो सव्त्रसगमुक्को जो सव्वसंगमुक्को* जो सव्वसंग्रमुक्को जो (ज्ञा ) संकप वियप्पो जो संग गहि गहि जो संग जो संगदि सव्वं जो संगं तु मुइत्ता जो संचित्रण लच्छिं जो जमेसु सहि जो संवरेण जुत्तो जो संवरे जुत्तो जो सामाइ छेदो जो सावय-वय-सुद्धो प्राकृतपद्यानुक्रमणी जो साहदि साम जो साहेद श्रीद वसु० सा० १४३ | जो सादि विसेसे कत्ति० श्र० १६ कत्ति ० ० श्रणु० १७ सावय० दो० ११६ धम्मर० १०० कत्ति० अ० ४५८ कत्ति० जणु० ३३१ श्राय० ति० १०-७ भ० श्रारा० १४० | जो सिद्धभत्तिजुत्तो जो सियभेदुवया रं जो सुप्त वारे जो मूला० १२६ जोगसा० ६० भ० श्रारा० १६३३ समय० १८८ hree तिप्पयारं पचस्थि० १५८ | झारणग्ि तिलो० प० ६-२४ | झापट्टि हु जोई तिलो० प० ६-४६ | झारणरिणलीणो साहू तिलो० प० ६ - ६३ कारणस्स फलं तिविहं कत्ति श्र० २७३ भास्स भावणा विय दव्वस० णय० २०६ कारणस्स य सत्ती कत्ति० श्रणु० २७२ | भाणं करेइ खवयस्सो - समय० १२५क्षे०८(ज०) झारण कसायडा कत्ति० अ० १४ भाणं कसायपरचक्क * पृ० ११७ पर मुद्रित समय० का 'जा' ( = यावत् ) शब्दसे प्रारम्भ होनेवाला वाक्य और यह समान हैं। । सव्वं समय ० १० सुरणा जो संवाद प्रभ छेदपिं० ५२ समय० २४० भ० श्रारा० १६८७ समय० २४५ जो सो पेहभावो दु जो सो दुइभावो जो हाइ एयगावी जो हव रुद्वगहि कत्ति ० ० १०६ भावस० २४४ समय ० २१६ श्राय० ति० २-१५ कत्ति० अणु ० ४१५ | जो हवाइ सव्वसरिओ श्राय० ति० २-२० भ० श्रारा० २८४ जो सम्मूढो जो हि सुए हिगच्छइ + समय ० २३२ समय ० ६ परम० प० १-३५ परम० प० २-१०६ समय ० ४१५ जोगसा० ६३ तो भि ढव्वस० णय० १२० जो हि सुदे विजादि + पवयणसा० १ - ३३ जो हु जो ज्वाय क्खम्मि जो होट जधाछंदो जो होदि सिपा सम्मइ० ३-४५ भ० श्रारा० १३११ कत्ति० श्रणु ११४ यिमसा० १२६ मूला० ६८७ सुत्तपा० ११ भाणं कसायरागे पचत्थि० १४५ | झारणं कसायवादे पचत्थि० १५३ | झाणं किलेस सावदपंचसं० १-१६५ भाणं चप्पयारं कत्ति० श्रृणु० ३६१ झारणं भाऊण पुणो भ भाणं भागच्भासं भाणं तह भायारो १२६ कत्ति० अ० २६६ कत्ति० अ० २७१ कत्ति० श्र० २७० समय० २३३ दव्वस० णय० २६३ मोक्खपा० ३१ G यासा० १८ तच्चसा० १ तच्चसा० ४६ शियमसा० ६३ भावस० ६३३ दव्वस० य० १७८ भावसं० ६३४ भ० श्रारा० १८६४ भ० श्रारा० १८६६ भ० श्रारा० १६०० भ० श्रारा० १६०१ भ० श्रारा० १८६८ भ० श्रारा० १८६७ खाणसा० १० भावस० ४८१ दव्वस० ण्य० १७७ भावसं० ६८३ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० पुरातन-जैनवाक्य-सूची ट, ठ माणं पुधत्तसवितक्क- भ० श्रारा० १८७८ | माणेहिं तेहि पावं भावस०३६४ झाणं विसयछुहाए भ० भाग० १६०२ | झाणे कम्म-क्खउ करिवि पग्म० ५० २-२०॥ झाणं सजोइकवलि भावसं०६८२ झायइ धम्मत्झाणं भावस. ६०३ झाणं हवेइ अग्गी समय० २१६ क्षे०१७(ज०) झायह णियकर(उर? भू?)मञ्झे णाणसा० २० झाणागदेहिं इंदिय- भ० श्रारा० १३१८ | माहि धम्म सुक्क भावपा० ११६ झाणाणं संताणं भावसं० ३८७ माहि ५च वि गुरवे भावपा० १२२ माणे जदि णियादा तिलो० प०१-४२ झायहु सुद्धो अप्पा ढाढसी०३४ झाणेण कुणउ भेयं तवसा २५ मायतो अणगारो भ. श्रारा० १९४७ झाणेण तेणं तस्स हु भावसं० १०५ झायारो पुण झाणं भावसं० ६१६ माणेण य तह अप्पा भ० श्रारा० २१२६ मीट्ठिदिपम्मसे क्सायपा० १२६ (७३) माणेण य तेण अधक्खा- भ० श्रारा० २१०० झुाणअक्खियसपुरणहल सावय० दो० १७८ झाणेण विणा जोई णाणसा०७ भेश्रो जीवसहावो दवस. एय० २८७ झारणेहिं वियकम्मा मूला० ७६५ भावस० ६३१ रं टंकुक्किएणायारो तिलो० ५० ४-२७१६ | ठिच्चा रिणसिदित्ता वा म. पारा० २०४१ ठिदि-अणुभाग-पदेसा गो० क० ६१ ठिदि-अणुभागाणं पुण गो० क० ४२६ ठिदि-अणुभागे अंसे कसायपा० १५० (१०४) ठवणा-ठविदं जह दे मूला० ३१० ठिदिउत्तरसं ढीए कसायपा० २०१ (१४८) ठविद ठाविदं चावि मूला० ५४३ | ठिदिकरण-गुण-पउत्तो भावसं० २८२ ठविदूण माणुसुत्तर- तिलो. प० ४-२७८६ | ठिदिकार अधम्मो भावसं० ३०० ठाणगदिपेच्छिदुल्ला- भ० श्रारा० १०६१ ठिदिखंडपुधत्तगदे लद्धिसा० ४४८ ठाणजुदाण अधम्मो दव्वसं० १८ | ठिदिलंडमसंखेज्जे लद्धिसा० ६२० ठाण-णिसेज्ज-विहारा णियमसा. १७४ ठिदिखंडयं तु खइये लद्धिसा० २२० ठाण-णिसेज्ज-विहारा पवयणसा०१-४४ ठिदिखंडयं तु चरिम लद्धिसा० ३८५ ठाणभंसं पवासो प्रायः ति०३-१४ ठिदिखंडसहस्सगदे लद्धिसा० ४३० ठाणमपुण्णेण जुद गो० क० ५२२ ठिदिखंडाणुक्कीरण लद्धिसा० १३४ ठाण-सयणासणेहिं य मूला० ३५६ - भ. श्रारा. १०६६ ठाणा चलेज मेरू भ० पारा० १४८८ ठिदिगुणहाणिपमाणं गो० क. १५१ ठाणाणि आसणाणि य मूला० ६६३ ठिदिबंधपुधत्तगदे लद्धिसा. २२७ ठाणासणाणि छ च्चिय तिलो. प० २-२२७ ठिदिबंधपुधत्तगदे लद्धिसा. ४२७ ठाणासणादिजोगे छेदपिं० १३७ | | ठिदिबंधपुधत्तगदे लखिसा० ४२८ ठाणी मोणवदीए जोगिभ० १२ | ठिदिबंधपुधत्तगदे लद्धिसा० ४४७ ठाणे-चकमणादा मूला० ६१४ | ठिदिबंधसहस्सगदे ** लद्धिसा० २२६ ठाणेहि वि जोणीहिं वि गो० जी० ७४ | ठिदिबंधसहस्सगदे लद्धिसा० २३७ ठावणमंगलमेदं तिलो. प० १-२० । ठिदिबंधसहस्सगदे * लद्धिसा० ४१२ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी ड, ढ, ण १३१ । ठिदिबंधसहस्सगदे लद्धिसा० ४१३ णइरिदि-दिसा-विभागे तिलो० प०४-१७६४ ठिदिबंधसहस्सगदे लद्धिसा० ४२६ । णइरिदि-दिसा-विभागे तिलो० प० ४-१८३० ठिदिबंधसहस्सगदे लद्धिसा० ४३७ णइरिदि-दिसा-विभागे तिलो. ५० ४-१६५५ ठिदिबधस्स सिणेहो भ० श्रारा० २११४ णइरिदि-पवण-दिसाओ तिलो० ५०४-२७८० ठिदिबंधाणोसरणं लद्धिसा० २५४ णइरिदि-भागे कूडं तिलो० प० ४-१७२६ ठिदिबंधोसरणं पुण लदिसा०५४ गइरिदि-वायव्व-दिसं तिलो. सा. ६४० ठिदिभोयणेगभत्ते छेदपिं० १२७ इ-वणवेदी-दारे तिलो० प०४-१३६३ ठिदियरण-गुण-पउत्तो वसु० सा०५४ णउदि-जुद-सत्तजोयण तिलो प० ७-१०८ ठिदि-रसघादो रात्थि हु लद्धिसा० १७३ णउदि-पमाणा हत्था तिलो० ए० २-२४६ ठिदि-सत्तमघादीणं लद्धिसा० ४८६ णउदि-सएण विभत्तं जंबू०प०२-६ ठिदि-सत्तमपुव्वदुगे लद्धिसा० २०६ णउदि-सदेहिं विभत्तं जंबू० प०२-१७ ठिदिसंतकम्मसमकर- म० श्रारा० २११२ उदि-सय-भजिद-तारा तिलो० सा० ३७१ ठिदिसतं घादीणं लद्धिसा० ४५५ णउदि-सहस्स-जुदाणि तिलो. ५० ४-१४०० णउदी चउदस-लक्खा जबू० प०१-६६ उदी चदुग्गदिम्मि य गो० क० ६२१ णउदी चेव सहस्सा पंघस० ५-३५५ डज्झदि अंतो पुरिसो भ० भारा० ११५६ तिलो० प०४-१०० डझदि पंचमवेगे भ० श्रारा० ८६४ | णउदी पंचसहस्सा जबू० प० ७-३२ डहिऊण जहा अग्गी भ० श्रारा० १८५१ । | णउदा सत्तसदेहि य जबू०प०१२-१५ डहिऊण य कम्मवण धम्मर० १८१ | णउदी-संता साणे पचस० ५-२१६ डभसएहिं बहुगेभ० श्रारा० १४३४ णउदीसुं तेसु तहा पचस०५-२०६ डंभिन्नइ जत्थ जो धम्मर० १७ णउदुत्तर-सत्तसए तिलो० सा० ३३२ डोला-घरा य रम्मा जबू०प०३-१४३ | ण उ होइ थविरकप्पो भावसं० १३८ डोलियगमणम्मि पुणो छेदपि० ८. ण उ होदि मोक्खमग्गो समय० ४०१ ण करति जे हु भत्ती जंवू० ५० १०-७३ ण करेज्ज सारणं वा भ० श्रारा० ४२६ ण करेदि भावणाभा- + . मूला० ३४२ ढक्का मुदिंग झल्लरि जब० ५० ४-२३० | ण करेदि भावणाभा-+ भ० श्रारा० १२१२ ढंख(क) गय वसह रासह रिट्ठस० १६६ / ण फरेंति णिवुइ इच्छ- भ० पारा० १६१५ ढिल्लउ होहि म इंदियह ६ सावय०दो० १२६ | ण कुणेइ पक्खवाय पचस०१-१५२ ढिल्लउ होहि म इंदियह * पाहु. दो० ४३ ण कुदोचि वि उप्पण्णो - पचत्थि० ३६ दुक्कित्तु तिमिस-दारं जबू. ५० ७-१२४ / ण कुदोचि वि उप्पएणो* समय. ३१० णक्खत्त-सीमभागं तिलो०प०७-५१५ रण णक्खत्तसूरजोगज- तिलो० सा० ४०६ णक्खत्तं तह रासी रिट्ठस० २३७ णइगम-संगह-ववहार-+ गयच० १० एक्खत्ताणं णेया जबू० ५० १२-१२ णइगम-संगह-ववहार- + दवस० णय० १८४ णक्खत्तो जयपालग- णदी० पट्टा०११ गइ-णिग्गम-दारजुदा तिलो. सा० ६५८ रणक्खत्तो जयपालो तिलो. प०४-१४८६ णइमित्तिका य रिद्धी तिलो. प० ४-१००० णक्खत्तो जयपालो सुदख० ७५ णइरिदि-दिसाए ताण सिलो० ५० ५-१६७६ | णक्खत्तो जस(य)पालो ४ जंचू० ५० १-१६ ढ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ पुरातन-जैनवाक्य-सूची णखहरणादिच्छरिया- छेदपिं० २१६ ट्ठकम्मबंधो मावसं० ३७६ णग-गुह-कुड-विणिग्गय- जंबू० प० २-१६ | णट्टकम्मसुद्धा दव्वस० णय० १०६ ण गणेइ इट्टमित्तं वसु० सा० ६३ / णट्ठपयडिवंधो भावसं० ६८७ ण गणेइ दुक्खसल्लं श्रारा० सा०६८ णमयट्ठाणे जोगिम०६ ण गणेइ माय-वल्पं वसु० सा० १०४ ट्ठपमाए पढमा गो० जी० १३८ णग-पुढवि-बालुगोदय- कसायपा० ७१ (१८) । णट्ठा किरियपवित्ती भावसं० ६८१ गरस्स जह दुवार भ० श्रारा० ७३६ | णट्ठा य रायदोसा * गो० क० २७३ णगराणि बहुविहाणि य जंबू० प०८-५११ । णट्ठा य रायदोसा लद्धिसा० ६१२ गरी सुगधिणी वज्ज- तिलो० सा० ७०८ णट्ठासेसपमाओ+ भावस० ६७४ गरेसु तेसु णेया जबू० प०८-६० णठ्ठासेसपमाओ+ पचस० १-१६ ण गुणे पेच्छदि अववद- भ० श्रारा० १३६६ णट्ठासेसपमादो+ गो० जी०४६ णग्गत्तणं अकज्ज भावपा०५५ ण? अयउवयरणे छेदपिं० १६७ णग्गत्तणि जे गव्विया पाहु० दो० १५४ णढे असेसलोए भावसं० २४२ णगो पावइ दुक्ख । भावपा० ६८ णढे कहिज्जमाणे श्रायति०१८-१ णग्गोह सत्तपण्ण तिलो० ५० ४-६१४ णढे मण-वावारे पारा० सा. ६६ ण च एदि विणिस्सरिढुं मूला० ८७६ णढे मण-संकप्पे भावसं०३२३ ण चयदि जो दु ममत्ति पवयणसा० २-६८ णट्टो भग्गो य मओ रिठस० १८७ पञ्चदि गायदि ताव लिंगपा० ४ ण्ड-भड-मल्ल-महाओ मूला० ८५६ णचंतचमरकिंकिणि- तिलो० ५० ५-११२ ण डहदि अग्गी सच्चे- भ० श्रारा०८३८ गच्चत-विचित्त-धया तिलो० प०८-५७६ ण तहा दोसं पावइ भ० श्रारा० १६४१ गच्चा दव्यसहाव दन्वस० णय. १६४ ण तिलोत्तमाए छलिओ भावस० २७७ गचा दुरतमद्धयभ० श्रारा० १२८२ णत्ताभाए रिक्खे भ० श्रारा० १६८८ णचावइ बहुभगिरं सुप्प० दो० ७७ णत्थि अणं उवममगे __ गो० क० ३६१ णचा संवट्टिज्ज भ० श्रारा० २०२० णत्थि अणूदो अप्पं भ० श्रारा० ७८४ णचा संवट्टिज्ज भ० श्रारा० २०२३ णत्थि असण्णी जीवा तिलो० ५० ४-३३१ णच्चिदविचित्तकीडण- तिलो. १०३-२१६ | णत्थि कलासठाणं तञ्चसा० २० ण जहदि जो दु ममत्त तिलो० ५० -५३ | णत्थि गुणो त्ति व कोई पवयणसा० २-१८ ण जहा णं व दिणे (?) रिट्रस० २४३ | णत्थि चिरं वा खिप्पं पचत्यि० २६ णज्मवसाणं णाण समय० ४०२ | णत्थि णउसय-वेदो । गो० क० ४६७ णट्टयसालाण पुढं तिलो० ५० ४-७५५ | णत्थि ण णिच्चो ण कुणइ सम्मइ०३-५४ णट्टयसाला थमा तिलो. १०४-७११ | गात्थि दु आसव-धो समय० १६६ गट्टाणीयमहदरी- जं० ५० ११-२६३ / णत्थि धरा आयासं भावसं० २१७ गट्टाणीया वि सुरा जवृ० ५० ४-२०८ | त्थि परोक्खं किंचि वि पवयणसा० १-२२ गट्ठकसाये लेस्सा गो० जी० ५३२ । | णत्थि पुढवीविसिट्ठो सम्मइ०३-५२ णट्ठ-चउ-घाइकम्म भावसं० ४८० णत्थि भयं मरणसमंx पत्थि भय मरणसमें मूला० ११६ ण?-चदु-घाइकम्मो दन्वसं. ५० | णत्थि भयं मरणसमंx भ० श्रारा० १६६६ णहचलवलियगिहिभा- भ० श्रारा० ६०७ | पत्थि मम कोड मोहो तिलो. प० ६-२७ णट्ठट्टकम्मदेहो । दव्वस० ५५ णत्थि मम को वि मोहो समय० ३६ कम्मबधण भावसं० ६६८ | णत्थि मम धम्मादी । समय० ३७ गट्ठकम्मबंधा णियमसा० ७२ । णत्थि य सत्तपदत्था गो० क.८८५ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी १३३ णत्थि वय-सील-संजम- भावसं० ५५१ णमसामि पञ्जुएणो णिव्वा० भ०५ णत्थि विणा परिणाम पवयणसा० १-१० णमित्रो सि ताम जिणवर पाहु. दो० १४१ णत्थि सदो परदो वि य गो० क० ८८४ णमिण अतिजिणे पचस०३-१ णदि-णिग्गमे पवेसे तिलो. सा. ६०१ | णमिण अभयणदि गो० क० ७८५ दि-तीर- गुहादि-ठिया तिलो० सा० ८७० | णमिऊण जिरावरिंदे भावपा०१ ण दु णयपक्खो मिच्छा दव्वस० णय० २६२ णमिऊण जिणं वीर णियमसा०१ ण परीसहेहिं संता भ०पारा० १७०० णमिऊण जिणिदाण पचस० ५-१ पवयणसा०५-२६ णमिण गमियणमिय श्राय० ति०१-१ ण पियति सुरा रा य खति भ० श्रारा० १५३३ णमिऊण मिचदं गो० क० ८७ ए बलाउ-साउ-अट्ठ मूला० ४८१ णमिऊण णेमिणा गो० क० ४५१ एभअट्ठवडदुगपण- तिलो० ५०४-२६३५ णमिऊण मिलाई जंबू० ५० १२-१ णभअदुअट्ठसगपण- तिलो०प०४-२६५६ | णमिण देवदेवं धम्मर० १ णभइगपणाभसगदुग- तिलो०प०४-२६७७ | णमिण पुप्फयंत धम्मर०६-१ णभएकपंचदुगसग- तिलो० प० ४-२७५६ णमिण य त देवं मोक्खपा०२ णभ-एय-पएसत्थो गो० जी० ५७२२०१ णमिणा य पंचगुरु छेदस. १ णभ-जघंट-णिभाणं तिलो० ५० ४-४२२ णमिऊण वड्ढमाए जंबू० ५० १-८ गभगयणपचसत्ता तिलो० ५० ७-३१८ णमिऊण वड्ढमाणं - रयणसा० १ णम चउ गव छक्क तियं तिलो० ५० ४-११६० णमिऊण वड्ढमाणं गो० क. ३५८ णभ चउवीसं वारस गो० क० ४७२ णमिण सव्वसिद्धे चा० अणु०॥ एभ छक्कड इगि पण णभ तिलो०५०४-२८६६ । णमिउरण सुपासजिणं जवृ० १०५-१ णभछक्कसत्तसत्ता तिलो० ५० ७-२४७ ण मुणइ. इय जो पुरिसो भावस० ३६८ णभ-ण-ति-छ-एक्केक्कं तिलो० प० ४-११६३ | ण मुणइ जिणकहियसुयं भावस० १६३ णभ-गाव-भ-वय-तिया तिलो०५० ७-३८२ ण मुगइ वत्थुसहावं * गयच०६६ णभणवतियअडचउपण तिलो. ५० ४-२६३२ ण मुगाइ वत्थुसहावं * दव्यस० णय० २३६ णभतिगिरणभइगि दोदो गो० क० ३४२ | ण मुणंति सयं धम्म भावस० १८१ णभतियतियइगिदोहो- तिलो० ५० ४-२६६६ | ण मुयइ पयडि अभव्वोx भावपा० १३६ णभतियदुगदुगसत्ता तिलो० प० ७-३३३ | ण मुयइ पयडिमभव्वोx समय०३१७ णभदोणवपणचउदुग- तिलो०५०४-२६८७ ए मुयइ सग भावं तवसा० ५५ णभ दो पण म तिय चउ तिलो०प०४-२८६० ण मुयति तह वि पावा वसु० सा० १५० णभ पण रावणामअड गाव तिलो०प०४-२८५१ णमोत्थु धुदपावाण मूला० ३८ एभ पण दु-छ-पंचंबर तिलो० ५० ४-११७५ ण य अस्थि को वि वाही श्रारा० सा० १०२ णभपणदुगसगछक्कट्ठा- तिलो०प०४-१२६६ ण य इंदियकरणजुआ(दा) पचस० १-७४ ण भवो भंगविहीणो पवयणसा० २-८ ण य इंदियाणि जीवा पंचस्थि० १२१ णम सत्त गयण अड व तिलो०प०४-२६२५ ण य कत्थ वि कुपाइ रइं वसु० सा० ११५ एभसत्तसत्तणभचउ तिलो०५०४-२८४३ ण य कुषइ पक्खवायं गो० जी० ११६ णमकारेपिणु पंचगुरु सावय. दो०१ ण य का वि देदि लच्छी कत्ति. अणु० ३१६ ण मरइ तावत्थ मणो तच्चसा०६४ पचस्थि० ८८ ण मरति ते अकाले तिलो० सा० १६४ | ण य चिंतइ देहत्थं भावसं०६२८ णमह गुणरयणभूसण- गो० क० ८६६ । ण य जायति असंता भ० भारा० ३६२ णमह परलोय-जिणघर- तिलो० सा० ५६१ । य य जे भव्वाभव्वा + गो० जी० ५५८ Williel Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ पुरातन-जैनवाक्य-सूची NRNN ण य जे भव्वाभव्वा + पंचसं० १-१५७ णरकंतकुंडमझ सिलो. प० ४-२३३६ ण य जेसिं पडिग्वलणं कत्ति० अणु० १२७ णर-करिणं चरसो शय. ति० २०-४ णयणेहि बहु पस्सदि जबू०प० १३-७३ णरगइणामरगइणा गो० क० ५२५ ण य तइओ अस्थि णो सम्मइ० १-१४ णरगीदं बहूकेदू । तिलो. सा. ६६७ ण य तम्मि देसयाले भ० श्रारा० ७७४ णरणारिहिं पुण्णा जंबू० प०-१४ ण य दव्यट्ठियपस्खे सम्मइ०१-१७ परणारयतिरियसुरा पवयणसा० १-७२ ण य दुम्मणा ण विहला मूला० ८५० | णरणारयतिरियसुरा पवयणसा. २-२६ ण य देइ णेय मुंजइ मावसं०५५८ गणरणारयतिरियसुरा पवयणसा०२-६१ ण य पत्तियइ परं सो ४ पचसं० १-१४८ णरणारयतिरियसुरा णियमसा० १५ ण य पत्तियइ परं सोx गो० जी० ५१२ णर-णारिगणा तइया जंबू० प० २-१२२ ण य परिगेहमकज्जे मूला० १६२ णर-णारीण जमलं आय. ति० २-१६ ण य परिणमदि सयं सो गो० जी० ५६६ णर-णारी-णिवहेहि तिलो. ५० ४-२२७५ ण य परिहायदि कोई म. श्रारा० १३८० णर-तिरिय-गदीहितो तिलो० सा० ५४६ ण य बाहिरओ भावो सम्मइ०१-५० णरतिरिय देसश्रयदा तिलो० सा० ५४५ ण य भुंजइ आहारं वसु० सा० ६८ णरतिरिय लोहमाया- गो० जी० २६७ ण य भुजदि वेलाए कत्ति० अणु० १ | णरतिरियाण विचित्तं तिलो० ५०४-१००६ ण य मिच्छत्तं पत्तो * पंचसं० १-१६८ णरतिरियाणं आऊ तिलो० ५० ४-३१३ ण य मिच्छत्तं पत्तो * गो० जी० ६५३ / णरतिरियाणं ओघेो लद्धिसा० १६ ण य मे अस्थि कवित्तं श्रारा० सा० ११४ णरतिरियाण ओघो गो० जी०५२६ एयरपदे तस्संखा तिलो० सा० ४६४ / णरतिरियाणं द8 तिलो० ५० ४-१००५ णयरभवाणं मज्मे रिस० १७७ णरतिरिया सेसाउं * गो० क. १३७ एयरम्मि वरिणदे जह समय०३० । णरतिरिया सेसाउं कम्मप०१३३ णयराण बहिं परिदो । तिलो. सा० ७१७ णरतिरिये तिरियणरे ल द्धिसा. १८५ णयराणं बिदियादीतिलो०सा०४६६ | णरदुय-उच्चजुयाओ पंचस०४-३३१ णयराणि पंचहत्तरि- तिलो०प०४-२२३५ परदुय-उच्चूणाश्रो पंचस० ४-३२६ ण य राय-दोस-मोह समय० २८० गरदेवाअरहिया पंचसं०४-३३४ णयरीण तदा बहुविह- तिलो० ५० ४-२४५० | णरदेवाऊरहिया पंचस० ४-३३६ तिलो०प०४-२२७६ ण रमइ विसएसु मणो तश्वसा० ६३ तिलो०प०४-२२६५ ण रमति जदो णिच्चंx पंचसं०१-६० णयरेसु तेसु दिव्वा तिलो० ५० ६-६६ ण रमंति जदो णिच्च ४ गो० जी०१४६ ण्यरेसु तेसु राया जंबू० प० ४-८० | णरयतिरिक्खणराउग- लद्धिसा० ३४७ णयरेसुं रमणिज्जा तिलो० प०४-२६ णरयतिरियाइदुग्गइ रयणसा० ३. ण य सच्च-मस-जुत्तो- पंचसं. १-६० णररासी सामगणं तिलो० ५० ४-२६२२ रण य सच्च-मस-जुत्तो - गो० जी० २१८ णरलद्धिअपज्जत्ते . गो० जी० ७१५ ण य सुरसेहरमणिकिर सावय० दो. २२३ परलोए त्ति य वयणं गो०जी०४५५ ण य होदु जोव्वणत्थो सम्मइ०१-४४ परसुरसुक्खं भुजं ढाढसी०३१ ण य होदि णयण-पीडा मूला०६१३ | ण रसो दु वदि णाणं समय० ३६५ ण य होदि मोक्खमग्गो समय० ४३६ | पलया बाहू य तहा गो. क. २८ ण य होदि संजदा वत्थ- म० श्रारा० ११२४ / णलया बाहू य तहा - कम्मप०७४ णरएसु वेयणाओं सीलपा० २३ । ए लहदि जह लहंतो भ० आरा० १२५५ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी १३५ ण लहंति फलं गरुयं भावस० ५५० णवजोवण पि पत्तो धम्मर० ८४ णलिणविमाणारूढो जबू० ५० ५-१०७ णवणउदिअधियअडसय- तिलो. प० ४-६५५ एलिणं चउमीदिगुणं तिलो० ५० ४-२६८ णवणदिअधियचउसय- तिलो० ५० ४-६५६ णलिणा य गलिगुम्मा जंबू० प० ४-१११ णवणादि वसयाणि तितो. ५०२-१० णलिणा य गलिगुम्मा तिलो०५०४-१९६४ गावणादि सगसयाहिय- गो० क० ४६२ एव अट्ट पंच णव दुग तिलो० ५० ७-३५ णवणादि-सहस्सं सव- तिलो० ५० ७-५६४ णव अट्ठ सत्त छक्क क्सायपा० ५३ णवणादि-सहस्साई तिलो० ५० ४-३३६३ गाव अडेक्कतिछक्का तिलो० ५० ७-३८६ णवणउदि-सहस्साछस्स- तिलो०प०७-२३६ णव अड सग व पव तिय तिलो०५०४-२०१७ णवणादि-सहस्साछस्स- तिलो०५०७-२३६ णवअभिजिप्पहुदीणं तिलो० ५० ७-४६१ एवणउदि-सहरसा राव- तिलो० प०७-१५० णवइगणवसगछप्पण- तिलो. प०४-२६५० णवणादि-सहस्साणिं तिलो० ५० ४-१७६२ एव इग दो दो चउ गभ तिलो० ५० ४-२८११ | गवर।उदि-सहस्स्मणि तिलो० ५० ४-२२२३ णव एक्क पंच एक्क तिलो. प०४-२६०३ गवणादि-सहस्साणि तिलो० ५० ४-२२३७ णव एग एग सुरण जवू०प०३-१३४ | णवाउदि-सहस्सागि तिलो. प० ४-२२१३ * एव कूडा चेट्टते तिलो. ५० ४-२०५८ | णवराउदि-सहस्सागि तिलो० ५० ७-१४५ एव कोडिपयपमाण सुदख० ५० णवरणउदि-सहस्सागि तिलो० ५० ७-५४८ णवाडीपडिसुद्धं मूला० ६४४ एवणउदि-सहस्सागि तिलो० ५० ७-५७८ णवाडीपरिसुद्धं मूला० ४८२ गवरणउदि-सहस्सहि य जबू०प०८-२८ णवकोडीपरिसुद्ध मूला०८११ णचराउदि-सहिद रावसय तिलो०५० २-१८६ गवगाई वंधतो पचसं०४-२४६ | णवणादिं च सहस्सा जव० ५० ४-३६ गवगेविजाणुदिस-: गो० क०३. एवरणदि च सहस्सा जव० ५०७-२६ णवगेविजाणुद्दिस कम्मप० ८४ | णवण उदिं च सहस्सा जव० प०७-४६ णवचउचउपणछो- तिलो० प०४-२६७६ | णवणउदी-जुद-णवसय- तिलो० प० २-१६० णवचउछप्पंचतिया तिलो० ५० ७-३८१ णवणउदी तिरिणसया तिलो. प० २-१६ णव चउवीस वारस गो० क० ४७२ णवणभछएणवपणतिय- तिलो०५०४-२६०५ एवचउसत्तहाइ तिलो०प०७-२५४ । णव गभ तिय इग छराणभ तिलो०प०४-२८६७ एवचपयगधड्ढा जबू० प०३-२४ । एवणभपणअडचउपरण- तिलो०५०४-२६४३ एवचंपयवरवण्णा जबू० प० ६-६३ | गवणवइ-जोयणाणिं जबू० ५० ११-१६२ णव चेव सहस्सा अड जंबू० ५० १०-१४ | णवणवकजविसेसा कत्ति० श्रणु० २२६ णव चेव होति कूडा जबू०प०७-८२ णवणवदि-जुद-चदुस्सय- तिलो. प० २-१६७ णव छक्क चदुक च य __गो० क० ४५६ णवणवदि-जुद-चदुस्सय- तिलो. प० २-१८१ णव छक्क चदुकं च हि पचसं० ४-२३६ णवणवदि-सहस्साणिं सिलो० ५० ७-४२७ णव छक्कं चत्तारि य+ पचसं०५-१ णवणवदि-सहस्साणि तिलो. ५० ७-१४६ णव छक्कं चत्तारि य+ पंचस०५-२७६ णवावदि च सहस्सा जबू० ५० १२-१०० णव जोयणउच्छेहो तिलो० ५० ५-२०० णव व वारस राव गइ- सिद्धंत० ३२ एवजोयगदीहत्ता तिलो० ५०४-२५१४ | णव एव बिंदु-तिवारं रिठस० २२० णवजोयणयसहस्सा तिलो० ५० ५-२८३७ * इस नम्बर की गाथा के अनन्तर श्रागरा व सहारनणवजोयणलक्खाणि तिलो. प० ४-२५६१ पुरकी प्रतियोंमें 'यहाँ दस गाथा नहीं ऐसा उल्लेख णवजोयणलक्खाणिं तिलो. प०८-६६ | है, तदनुसार श्रागेकी गाथाश्रोंकी सख्यामें १० की एवजोयणसत्तसया तिलो. प०८-७२ । वृद्धि की गई है। Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ रावणिहि-चउदहरयणं गव-लोकसायवग्गं एव-लोकसाय विग्वचएवतिय एभ खं एव दो एवढसएक्कारसमी णवदुत्तरमत्तमए णवदुत्तरमत्तसया दोछट्टच उपण एव दस सत्तत्तरियं एव दस सत्तत्तरियं एव दंडा तिय-हत्था रणव-दडा बावीसं णवदुगिगिगिदोण्णिखदुग - तिलो० १०४ - २८५६ तिलो० सा० ३३२ | जवृ० प० १२-६३ तिलो० प० ४-२६४४ तिलो०प०४-२६८६ | तिलो०प०४ - २८५३ दव्वम० णय० ८४ तिलो०प०४-२५१० | तिलो० मा० १४१ छेदपि ० १० पचस० १-४४ गो० क० ७४० पंचस० ५-२१६ तिलो० प० ४ - ११३७ | लदिसा० ४७५ जोगिम० ७ तिलो० सा० ६४५ भ० श्रारा० ५६७ णवपण अडणभच उदुगणवपणऋडदुगऋडणवराव पण ढोडवी चउ राव पणवीस व छप्परा राव परणार सलक्खा व पंच मोक्कारा व पंचाणउटि-सया णवपंचोदयसत्ता -- पचोदयता पत्रपुञ्चधरसयाई गवफड्डुयाण करण गवर्वभचेरगुत्ते वमति जलजमे वमम्मिय जं पुव्वे वमासागि मेसे एवमी श्रक्रगदा मी पुत्र मी वीसदिमा गाव अंजणे वृत्तो मे किचि जाग दि वसुरलोयग वय पदत्था जीवा गाय पत्याएं पुरातन जैनवाक्य-सूची वय सहमा श्रोही गाव य सहसा घटसयगाय व सहरमा चउमयवय सम्मा घमय बा० श्रणु० १० भावपा० ८६ लद्विसा० ६०८ तिलो० प०४-२६६६ राव य सहस्सा छस्सयणव य सहस्सा यवसयएव य सहस्माणि चरराव य सहस्सा दुसया छेदपिं० २३६ |रावर असंखारातिम O पंचस० ५ - २७७ पचस० ५-४१३ | तिलो० प० २-२३३ | तिलो० प० २-२३२ | वरि परियायछेदो वरिय अव वरि य जोइसियारण गवरि य णामं कूडद्दह - वरि य णामदुगाणं गवरि य दुसरीराणं णवरि य पुवेदस्स य वरि य सव्ववसम्मे वरिय सुक्का लेस्सा वरि विसेसं जाणे वर विसेसं जाणे वरि विसेसं जाणे वरि विसेसो एक्को af विसेसो एक्को वरिविसेसो एक्को रविसेस सो वरि विसेस एसो वरि विसेसो एसो वरि विसेस एसो रिविसेस एसो वरिविसेस एसो वरि विमेसो कूड वर विसेमी जाणे वरि विसेसो जाणे. af विसेसोरियरिणयवरि विसेसो श्रो वरि विमेमो तसि वरि विमेसो देवो वरि विमेमो पंडुगगवरि विसेसो पुब्बागरि विमेमो मट्टवरि विमेसो सट्ट वरि समुग्वादगदे गरि समुग्धादम्मि य वरिह वगेवंजा वसु० सा० २६४ गो० जी० २२५ तिलो० प० ४-६४७ aafio २३३ | जं० प० ११-११८ भ० शा ० =६५ | सिलो० प० ४-४६८ | गो० जी० ६२० मूला० २४८ | तिलो० प० १-११६६ तिलो० प० ७-२६६ सिलो० १०७-३१२ गिलां० ए००-३६८ ण तिलो० प० ४- १२२६ तिलो० प० ४ - १६८८ तिलो० प० ७-३२८ तिलो० प०४-१७१६ दिसा० २८६ छेदपिं० २६० गो० क० ६७७ तिलो० ५०७-६१६ तिलो० प० ४ - २३३६ द्विसा० ३२३ गो० जी० २५४ लद्धिसा० २५६ गो० क० १२० गो० जी० ६६२ गो० जी० ३१८ गो० क० ४४३ गो० क० ८२६ तिलो० प० ४-२१२६ तिलो० प० ४ - २१३३ तिलो० प० ४-२२६१ तिलो० प०२-१८० तिलो० प० ४ - २६२ तिलो० प० ४-१७२७ तिलो० प० ४-२०५७ तिलो० प०४-२३८६ तिलो० प० ८-५६५ तिलो० ० प० ४-२३१४ जबू० प० ४-८६ जंबू० प० १२-१६ तिलो० प० ४-७६२ जबू० प० - ६१ तिलो० प० ४-२३६४ तिलो० प० ७-१०७ तिलो० प० ४-२४८३ तिलो० प० ७-८ तिलो० प०८-६८३ तिलो० १० ८-६६५ वादिमा० ६६४ गो० जी० ३४६ तिलो० प० ६-६८ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' प्राकृतपद्यानुक्रमणी १३७ णवरि हु धम्मो मेज्मो भ० पारा० १८२० | ण विणासियं ण णिचं दव्वस० णय० ४२ णवरि तणसथारो भ० ओरा० २०६४ | ण वि तुहु कारणु कज्जु ण वि पाहु० दो० २८ णवलक्खा एवर उदी- तिलो० प० २-६१ ण वि तुहुं पडिउ मुक्खु ण वि पाहु० दो० २७ णविहवभं पयहि भावपा० ६६ ण वि तं अभित्थुमति य मला०८१७ णववीस-सहस्माणि तिलो० ५० ४-१०६८ | ण वि दुक्ख । वि सुक्खं णियमसा० १७८ रणव सग छदो चउ राव तिलो. प० ४-२८४५ / ण वि देहो वंदिजा दसणपा० २७ गवसत्तपचगाहा मूला० २७३ ण वि धम्मो बोछिज्जइ जवू०प०८-१६५ णव सत्त य णव मत्त य तिलो. सा० ७३७ ण वि परिणमइ गिराहइ + समय० ७६ णव सत्तोदयसंता पचस०५-२३२ ण वि परिणमइण गि(गे)एहइ+तिलो०प०१-६६ णवसय-णउदि-वेसु तिलो० ५० ४-१२४ १ ण वि परिणमइ(दि)ण गिण्हइ (दि) समय० ७७ णवसय सत्तत्तरिहिं गोक०४८६ | ण वि परिणमइ(दि)ण गिण्हइ(दि) समय० ७८ णव सव्वाओ छक्क + पचस ० ५-१० | ण वि परिणमइ(दि)ण गिण्हइ(दि) समय० ७६ णव सव्याओ छकं + पचसं०५-२८० ण वि परिणमाद ण गेएहदि पवयणसा० १-५२ णवसवच्छग्समधिय- तिलो० ५० ४-६४७ | ण वि भुजता विसय-सुह। पाहु० दो०५ णव सासणो त्ति बवो गो० क० ४६० । ण वियप्पदि णाणादो पचस्थि० ४३ णवसु चउक्के इक्के सिद्धत० ४३ || ण वि राग-दोस-मोह समय० ३०८ णवसु चउक्के एक्के पचस०४-४० ण वि सक्कइ चित्तु जं समय० ४०६ ण वसो अवसो अवमस्स मूला० ५१५ | ण वि सिज्झइ वत्थधरो सुत्तपा० २३ ण वसो अवसो अवसस्स * णियमसा० १४२ / ण वि होइ तत्थ पुरणं भावस. ७७ णवहत्था पासजिणे तिलो० ५० ४-५८६ / ण वि होदि अप"मत्तो समय०६ णवहिन-बावीससहस्स- तिलो. प० २-१८३ ण सद्दहदि जो एदे मूला० १०११ णव अजोई-ठाण पचस० ५-१७६ | ण समत्थो रक्खेउ धम्मर० ११४ ण वि अत्थि अण्णवादो सम्मइ० ३-२६ | | ण समुभवड ण णस्सइ दन्वस० णय० ४० ण वि अस्थि माणुसाण धम्मर० १६० ण सय बद्धो कम्मे समय० १२१ ण वि इंदियउवसग्गा णियमसा० १७६ ण सहति इयरदप्पं रयणसा० ११४ ण वि इदियकरणजुदा गो० जी० १७३ ण सुया उ जेण पक्ख्यि- छेदपिं० ११४ ण वि उप्पज्जइ ण वि मरइ परम० प० १-६८ भ० श्रारा० १३४३ ण, वि एस मोक्खमग्गो समय० ४१० णह(भ)एयपएसत्थो दवस० गय० १३१ णविएहिं जंणविज्जइ मोक्खपा० १०३ णह-जंतु-रोम-अट्ठी-* वसु० सा० २३० णियमसा० १८० णहदंतसिरणहारू भावस० ४०८ ण वि कारणं तणादी- भ० श्रारा० १६७२ णह-गेम-जंतु-अट्ठी- * मूला० ४८४ ण वि कुवइ कम्मगुणे समय०८७ पवयणसा०२-१३ ण वि कुवदि ण वि वेयइ समय० ३१६ ण हर्वाद समणो त्ति मदो पचयणसा० ३-६४ ण वि को वि जाइ मयरो जबू० प० ७-१२६ ण हि आगमेण सिझदि पचयणसा० ३-३७ ण वि खुम्भड से सेएणो- जंबू० प०७-१३५ | ण हि इदियाणि जीवा पचस्थि० १२१ ण वि गोरउरा वि सामलउ पाहु० दो० ३०ण हि गिरयगदी पिण्ह-ति भावति० १०६ ण वि जाणइ कजमकज्जं रयणसा० ४० | ण हि शिरवेक्वो चागो पवयणसा० ३-२० ण वि जागाइ जिण-सिद्धस- रयणसा० १२७ ण हि तम्हि देसयाले मूला० ६२ ण वि जाणाइ जोग्गमजो- रयणसा० ४१ ण हि तस्स तरिणमित्तो पवयणसा०३-१७ २(ज) ण विणा वट्टदि रणारी पवयणसा०३-२४क्षे १०(ज) ण हि तं कुणिज्ज सत्तू- भ० भारा० १३६४ . . Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ हिदा हि पूजा हिमादि जो एवं * हि रज्जं मलिजिऐ हि सासरण पुणे हि सो समवायादो हुत्थिते तेसिं वेदिद गहु एवं जं उत्त हुकम्म सय हु जाइ यि अंगं ए हु तस्स इमो लोश्रो ण हुदडइ फोहाई हुदीसइ सूरो विय गहु पिच्छइ पिय-जीहा गहु मदि जो एव हु विग्गा सियदलकमलु गहु वेयइ तस्स फलं गहु सासणभत्तीमेत्तएण गहु सुरगइ स तरणुसद्द हु सो कडुग फरसं गंगागकुमारा (गो) यह केसं लोमा तारणतभवेण सम दामा मंदर गदर पहुदा एस दरण-मंदर- सिधा दरण-मंदर सिहा दरवणम्मि या वरण रुभित्ता दरणवरणसंछष्णा दरणवरणस्स कूडा दवणा उ रणदरण-सोमरण-पंडुव दादी दाददी गंदा गंदवदी पुरण दादीयतिमेहल दादयतिमेहल दादीयतिमेहल गंदा भद्दा य जया दावत्तपकर रयणसा० ३६ | पवयणसा० १-७७ | तिलो० प० ४ - ६०२ गो० क० ११५ | पुरातन जैनवाक्य-सूची परि० ४६ भावस० ६५ भावसं ० ६१ भ० धारा० १८५० | रिस० २५ | मूला० ६२६ ढीमरपट्टिय दीसर - बहुम गंडीस रम्मि दीवे दीसम्म दीवे traff रयणसा० ७० रिस० १३४ | गंदीसरविदिसासुं रिस० ३७ | गर्दीसरो य अरुणो दोसरो य अरुणो : तिलो० प० ६-५६ सावय० दो० २१२ | गंदुत्तरदा भावस० ३७ | पाइरिणगणसंछष्णा जबू० प० ५ १२४ तिलो० प० ५-६२ तिलो० प० ५- १४६ तिलो० सा० ६६६ | तिलो० प० ३-४५ तिलो० पाउस एव सव्वं पाऊण चक्कवट्टि गाउ जिप्पत्ति राउ गिरवसेस पाउण तस्स दोसं शियमसा० ११८ गाऊ देवलीय तिलो० प० ४-१६६८ गाऊ पुरिससत्तं तिलो० प० ४-१८०४ गाऊ य चक्कदरो सम्मइ० ३-६३ रिट्स० १३६ भ० श्रारा० १४११ णिव्वा० भ० ६ तिलो० प० ८- ५६७ जबू० प० ४-१०१ गाऊ लोगसारं तिलो० सा० ६२५ गाऊ विकारं वेजंबू० प० ४-८५ गाऊ सयमपं जबू० प० ४-६६ पाऊण आएसं जबू० प० ८ - १३ | गागकुमारीयाओ जबू० प० ४ - १०३ | गागफजीए मूलं तिलो० प० ४-१६६६ गोकुंथू धम्मो गाडयघरा विचित्ता गाडीइ जत्थं चंदो गाणगुणेण विहीरगा गाणगुणेहि विहीरगा णापतिए अब्दाला १०, प० ४-१६४७ • तिलो० सा० १०१४ रिट्स ० २२८ तिलो० दिमित्त (त) वास सोलह द्वियडे वरगामे मंत्रीय गांद मित्तो गढीय एडिमित्तो दी यदिभित्तो दीसविमे गाणपगमप्पाणं तिडिक्की सिक्खि वढ पीओप १० प० ८-१४ गाणप्पमाणमादा A गंदी० पट्टा०५ दसणसा० ३६ जयू० १० १-१२ तिलो० प० १-१४८० सुदख० ७१ वसु० सा० ४५५ छेदपिं० ११७ तिलो० प० ५-५७ जयू० प० ५-१२० वसु० सा० ३७४ तिलो० प० १-४६ तिलो० प०५-८२ जयू० प० ११-८२ मूला० १०७५ तिलो० प० ४-७८२ जयू० प० ११-१३० धम्मर० २६ जबू० प० ७–११ε जबू० प० १५० धम्मर० १६७ भावस० ५४६ धम्मर० १६५ छेदपिं० ७ जवृ० प० ७-१४२ मूला० ७१६ भ० श्रारा० १४६८ जबू० प० ७-१४५ रिट्टस० २१८ जंबृ० प० ६-३६ समय ० २१ - ०१५ ( ज०) तिलो० प० ४-६६३ जवृ० प० ३-१४२ श्राय० ति० १६ - १६ समय० २०५ चारित्तपा० ४ १ सिद्धत० ५८ पाहु० दो० ८७ भ० आरा० ७६७ पवयणसा० १-८६ पवयणसा० १-२४ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी १३६ णाणप्पवादपुव्वं अगप०१-५६ णाणं करेदि पुरिसस्स णाणभासविहीणो रयणसा०६४ | णाणं किरियारहियं णाणमधम्मा ण हवइ समय० ३६६ णाणं चरित्तसुद्धं गाणमयभावणाए श्रारा० सा०४८ णाण चरित्तहीणं णाणमयविमलसीयल भावपा० १२३ णाण चरित्तहीणं णाणमयं अप्पाणं मोक्खपा० १ णाणं जई खणधंसी णाणमयं पियतचं तच्चसा० ४३ / णाणं जिणेसु य फमा णाणमया भाचाओ समय० १२८ णाणं जिणेहि भणियं णाणम्मि दसराम्मि य- भ० श्रारा० २८६ | णाण जीवसरूवं णाम्मि दसपम्मि य - भ० श्रारा०२८७ णाणम्मि दसणम्मि य दसणपा० ३२ णाणं ण जादि णेये णाणम्हि दसणम्मि य भ० श्रारा० १६३६ गाणं णरस्स सारो णाम्हि दसणम्हि य मूला० ५७ । गाणं णाऊण गरा णाणम्हि भावणा खलु समय०११२०१(ज) णाणतरायदसय * णाणम्हि भावणा खलु तिलो० ५० १-२५ | णाणंतरायदसयं * णाम्हि य तेवीसा कसायपा० ४७ | णाणंतरायदसयं णाणवरमारदजुदो मूला० ७४७ णाणतरायदसयं णाणविणयादिविग्या अगप०१-२१ णाणंतरायदसयं णाणविण्णाणसपएणो मूला० ६६८ णाणंतरायदसयं णाण-वियक्खणु सुद्ध-मणु परम० प० २-२०६ णाणंतरायदसयं णाण-विहीण] मोक्ख-पउ परम० प० २-७४ | णाणंतरायदसयं - णाणस्स केवलीणं म० श्रारा. १८१ णाणतरायदसय - णाणस्स गस्थि दोसो सीलपा० १० णाणतरायदसयं णाणस्स दसणस्स य समय० ३६६ | णाणतरायदसयं णाणस्स दंसणस्स य भ० धारा० ११ णाणतरायदसयं गाणस्स दसणस्स य * गो० क०८ णाणं तह विणयादी गाणस्स दसणस्स य * कम्मप०८ णाणं दंसणचरणं गाणस्म दमणस्स य * पचस०२-२ णाणं दंसणसम्म णाणस्स दंसणस्स य मूला० १२२२ णाणं दंसण सुहवीमाणस्स दंसणस्स यx गो० क० २० | णाणं दंसण-सुह-सत्तिगाणस्स दसणस्स यx कम्मप० २१ णाणं दोसे णासदि माणस्स पडिणिबद्ध समय० १६२ णाणं धणं च कुल्बदि गाणं अट्ठवियप्पं दवसं०५ णाणं पयासो सो-४ णाण अट्ठवियप्पो पवयणसा० २-३२ णारा पयासो मो-x णाणं अत्थतगयं पवयणसा० १-६१ । णाणं परप्पयासं गाणं अपुढे अविसए सम्मइ०२-२५ णागां परप्रयास णाणं अप्पपयासं णियमसा० १६४ गाणं परण्ययास णाणं अप्प त्ति मदं पवयणसा० १-२०णागं पंचविहं पिय णाण करणविहीणं + मूला० १०.! गाणं पंचविह(ध) पि य गाणं करणविहूणं + भ० श्रारा००७० गाण पि कुणाद दास १०० गाणं पि कुरादि दोसे भ० श्रारा० १३३१ सम्मइ०३-६८ सीलपा० ६ मोक्खपा० २७ सीलपा०५ भावसं०६६ तिलो. सा० १२ णाणसा० ३ णियमसा० १६१ सीलपा० ३७ कत्ति० अणु० २५६ दसणपा० ३१ सीलपा पचसं०३-२७ पचसं०४-३२१ पंचस०३-७४ पंचस०४-४१६ पचसं०४-४४० पंचस०४-४५० पचसं० ४-४६२ गो० क. २०१ पंचसं० ४-४६४ पचसं० ४-४६१ पचसं० ५-४७० वसु० सा० ५२५ सुदख० . दवस. एय० ३०० चारित्तपा०२ दवस० गय०२५ दन्बस० गय०१३ म० श्रारा० १३३० पंचयि० ४० मूला० ८६ म० श्रारा० ७६६ गियमसा० १६० णियमसा. " णियमसा० १६५ गो० जी०१० गूषा ११ भ.भारा० १२५ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० पुगतन-जैनवाक्य-सूची णाणं पि गुणे गानेभ. श्राग०१३४० रगाणावरगाचयक पंचम०४-१७८ णाणं पि हि पज्जायं + णयच०६० गाणावरणचगह भावनि०३ गाणं पि हु पज्जायं + दच्चम० गाय० २३ गागावर पदि य तिलो० ५० १-७१ णाण पुरिसस्स हवदि बोधपा.२० णाणावरगाम्न खाए जंवृ० ५० १३-१३२ णाण भूयवियारं फत्ति० अणु० १८१ णाणावरणं यम्म + मावस०.३१ णाण सम्मादिट्टि समय० ४०४ गावावरणं कम्म + बम्मप० २८ णाणं मरणं मेरं मूला. १६ णाणावरणादीग दव्यस०३१ णाणं सिक्खदि णाण मूला० ३६८ णाखावरणानीयसन समय. १६५ गाणं होदि पमाण तिलो. १०-८३ गाणावग्णादीया पग्यि . २० णाणा उ जो ण भिएणो कहाणा० ४३ | गगाणावरणानीहि य भावपा० ११० णाणाकुलाई जाई भावम० २०७ गाणावग्गो विग्धे पंधमं०५-०७८ णाणागुणगणफलिओ जयू० ५० १३-१६६ गाणाविह-स्वयरमा जय० ५० ५-३० णाणागुणतवणिरए जबू० ५० १-५ ! रगाणाविहनवत्तफ्ल तिलो० ५० ५-३ णाणागुणहासिसला गो० क. णाणाविहादिगामद- मिली. ५० ५-१०४५ णाणाचारो एसो "मूला० २८७ णाणाविह-जियागेहा तिलो० ५०४-१८ णाणाजपवदणिचिदो x तिलो. प०४-२२६५ । गाणाविह-तरेहि तिलो. प०८-११ णाणाजणवदणिवहो जबू०प०७-३७ णाणाविह-वगणायो तिलो०प००-११ णाणाजणवदएिवहोx जय० ५०८-२६ णाणाविह-वस्थेहि य जवृ०प० १३-११८ णाणाजीवा पाणा- णियमपा० १५५ गाणाविह-वाहराया। तिलो० प०५-१८ णापाण दंसणारा भावस० ३३० दव्यम० णय० १७२ णाणापरवाइ-महिदो जबू० ५० १३-१४३ । णाणि मुएपिणु भाउ म्मु परम० प० २-४७ णाणातरुवरणिवहा जय०प० ७-१०६ । णारिणय पाणिउ पाणिपण परम० ५० १-१०८ णाणातोरणाणिवहा जबू० ५० १-५३ णाणिहॅ मूढहें मुणिवरहें परम० ५० २-८६ णणादुम-गण-गहणं जयु० ५० १-५१ रणागी फम्मस्म ग्वयत्य- भ० साग० ८०५(क्षे०) णाणादुमगणगहणे जबू० प०१-१५१ गाणी खवेड क्म्म रयणसा० ७२ णाणादेसे कुसलो भ० श्रारा० १४८ | णाणी गच्छदि पाणी मृला० ५८६ णाणाधम्मजुदं पि य कत्ति० श्रगु० २६४ गाणी गाणमहायो पवयणसा०१-२८ णाणाधम्मेहिं जुदं कत्ति० अ० २५३ णाणी खाणं च मदा पंचस्थि० ४८ णाणाभेअ-विभिएणं रिट्टस०४० णाणी रागप्पजहो समय० २१८ णाणाभेय-विभिए रिट्ठम० १४७ णाणी सिव-परमेट्ठी भावपा० १४६ णाणाभेयं पढमं श्रगप० २-७२ णाणुग्गमि जसु समसरणि सावय० दो० १७० णाणामणिगणणिवहा जंबू० ५० ३-५३ णाणुज्जोएण विया भ० श्रारा०७७१ णाणामणिगपाणिवहा जंबू० प० ८-१०१ णाणुज्जोवो जोवो भ० प्रारा०७६८ णाणामणिरयणमया जबू० प०७-५६ णाणु पयासहि परमु महु परम० ५० १-१०४ णाणामणिरयणमया जंबू०प०१२-७४ णाणुवजोगजुदाणं गो० जी०६७५ णाणारयपविचित्तो तिलो० सा० ६१८णाणुवहिं संजमुवहि णाणारयणविणिम्मिद- विलो० ५० ४-२२५२ गाणे माणसिद्धी रयणसा० १५७ णाणारयणुवसाहा तिलो. सा०६४८ णाणेण तेण जागाइ भावस० ६७२ णाणावरणचउक्कं * गो० क०४० णाणे दसरा-तव-वी- भ० श्रारा० ६१० णाखावरणचउक्क * कम्मप० १११ । णाणेण दंसणेश य सीलपा० ११ मूला० १४ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग गाय दसणे य गाणे सव्वभावा गाणे णाणुवयरणे गाणे जमे गाणोदयाहिसित्ते दहिसिंद पाणोवर हिदेण गाढा चेढा दिट्ठा गादारस्स य पहा गादाऽसंखप्पएमो समयमुवगओ रणादृण आसवाणं गादू देवलोयं गादू समयसारं णाभिधोणिग्गमणं गाभिगिरि चूलिमुरि गाभिगिरी गाभिगिरी गामक्खये तेजो णामवरणा दव्व रामवरणा दव्व रामवरण रामवरणा दवे रामवरणा दव्वे रामवरण वे गामवरणा दव्वे णामवरणा दव्वे रामट्टवाद प्राकृतपचानुक्रमणी दसणपा० ३० | णामाणि जाणि काणिचिभ० आरा० १०१ रामाणि ठावणाओ वसु० सा० ३२२ | गामादीयं छणं पचस० ४-३६७ | णामे टवणे हि य संजोगिभ० १४ गामेण रिट्ठजसो पचस ० ४ - २ | णामेण कंतमाला भ. रा० ७६० | खामेण कामपुप्फं अगप० ३–१२ | णामेण हिराई अंगप० १-४३ | णामेण चित्तकूडो यिप्पा० ६ रामेण चित्तकूडो समय ० ७२ | णामेण जहा समरणो तिलो० प० ८- ५७३ |णामेण पभासो त्ति य दव्यस० णय० ४१३ | णामेण भद्दसाल मूला० ४६६ | णामेण भद्दसालो तिलो० सा० ४७० रामेण मेच्छखंडा तिलो० प० ४ - २४४३ गामेण य जमकूडो गामेण वइजयंती भ० श्ररा० २१२६ | रामवरणा दव्वे रामदुगे वेयणियट्ठि रामदुगे वेयये णामधुवोदयवारस मधुवदयार गामस्स व धुवाणि य रणामस्स बंधठाणा 'णामम्स य बधादिसु गामरस य धोदयरणामस्स य वधोदयगामस्य वधोदयराम वरणा वि रणाम ठवा दवियं खामा मक्खराओ मे विगसोया गामेण वेणुदेवो गामेण सिरिणिकेद मूला० २१८ | गामेण सुभद्दमुरणी मूला० ५३८ | गामेण हंसगव्र्भ मूला० २४१ | णामे सक्कुमारो मूला० २७४ | णामेहि सिद्धकूडो दव्वस० ण्य० २७१ अंगप० २ - ६६ वसु० सा० ३८१ मूला० ६१२ गायकहा छट्टगं मूला० ६३२ | गायकुमार मुगिंदो मूला० ६४८ गायव्वं दविया लद्धिसा० २५८ गारइयाणं वेरं द्विसा० २६४ | गारछ वकुब्वेल्ले लद्धिमा० ३०३ | णारयतिरिक्ख परसुरगो० क० गारयतिरियमदीदो गो० क० ५२६ | गारयतिरियणरामरगो० क० ५४४ खारयतिरियणरामर गो० क० ७८४ गो० क० ६६२ | गारग पास-पउरो गो० क० ६६५ पचसं० ५ - ३६६ गारंग - फणस - विहं | गाली तिगम्स मज् गावा उवरि गावा गावाए ि गावागढ़ाव बहुगइ णारय-सारिण- रस्म-सु सम्मइ० १-६ गो० क० ५२ आय० ति० १४-१० १४१ मूला० ५४२ तिलो० प० १-१८ मूला० २७ बोधपा० २८ जंबू० प० ११ - २६२ तिलो० प० ४-४६६ तिलो० प० ४-११२ तिलो० प० ८-६०१ जबू० प०८-३ तिलो० प० ४-२२०८ मूला० १००१ जबू० प०३-२२३ तिलो० ० प०४-१८०३ जवृ० प० ४-४१ तिलो० प०४-२२८६ तिलो० प० ४-२०७४ जबू० प० ६-१०६ जबू० प० ६-७४ जबू० प० ६-१५६ तिलो० प० ४-१२३ जबृ० प० १-१७ तिलो० प० ४-११६ तिलो० प० - १४० तिलो० ० प० ४-१४७ श्रगप ० १-३६ शिव्या० भ० १५ दव्वस० णय० १० धम्मर० ६४ गो० क० ३७० गो० जी० २८७ तिलां० प० ४- १५४० कम्मप० ६६ सिद्धत० १२ गो० क० ६०७ जंबृ० प० ४-४४ जंबू० प०८-८० छेदपिं० ७४ तिलो० प० ४-२३६७ भ० आर० १५४३ भ० श्ररा० १७१८ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ पुरातन-जैनवाक्य-सूची णावागरुडगइंदा तिलो० ५० ३-७६णिउदं च उमीदिइदं तिलो० ५०४-२६५ णावा गरुडिभमयरं तिलो० सा० २३३ / णिक्कत्ता णिग्गुणो अंगप० २-१६ णावा जह सच्छिद्दा भावस०५४८ णिकमिदृणं वचदि तिलो० ५० ४-२११६ णाविय-कुलाल-तेलिय- छेदपि० २२१ णिक्कम्मा अट्टगुणा दव्वसं०११ णासइ धणु तसु घरतणार सावय० दो० ६२ णिक्कसायस्स दंतस्स: मूला. १०४ णासग्गेि अभिंतरह जोगसा०६० णिक्कसायस्स दांतस्म णियमसा० १०५ णासग्गे करजुअल रिदृस० १६५ शिक्कता गिरयादो तिलो. प०२-२८१ णासग्गे थणमज्झे रिट्टस०१८ णिक्कता भवरणादो तिलो०प०३-१६५ णासदि बुद्वी जिव्भा- भ० श्रारा० १६४४ शिक्कूडं सविसम मूला० ६७१ णासदि मदी अदिएणे भ० श्रारा० १७२६ शिक्खवणपवेसादिसु भ० धारा० १५० णासदि विग्धं भेददि तिलो० प०१-३० शिक्खित्तसत्थदंडा । मूला० ८०३ णामविणिग्गउ सास परम०प० २-१६२ मिक्खत्त विदियमत्तं ४ मूला० १०३७ णासंति एकसमये तिलो. प०४-१६०० णिक्खत्त विदियमेत्त x गो० जी० ३८ णासंतो वि ण णहो दवस० गय० ३१७ णिक्खेव-राय-पमाणं दवस० गय०२८१ णामा-जोई-जीहा णाणमा०५२ णिक्खेव-णय-पमाण रयणमा० १६२ णासापहारदोसेण वसु० सा० १३० णिपखेव-गाय-पमाणा दवस० गाय० १६७ रणाम्मेज अगीदत्थो भ० श्रारा० ४२६ णिक्खेवणं च गहणं मूला०३०१ णासेदि परहाणिय लद्विसा० ५२१ णिक्खेवमदित्थावण लद्विमा०५६ णासेदूण कसायं भ० श्रारा० १३६४ |णिक्खेवे एय? + पचस०१-१८२ णासो अत्थस्स खो भ. थारा १८४ णिक्खेवे एयत्थे + गो० जी० ७३२ णाहल-पुलिंद-बब्बर- तिलो० प० ४-२२८७ | गिक्खेवो णिवत्ती म० श्रारा०८१३ णाहल-पुलिंद-बब्बर जंवृ० ५० ७-१०६ णिग्गड अवरेण शिवो जवू० प०७-१४६ णाहं कस्स वि तणो णाणसा० ४३ / णिग्गच्छंते चक्की तिलो. प० ४-१३४४ णाहं कोहो माणो णियमसा० ८१ | णिग्गच्छि य सा गच्छदि तिलो. प०४-२०६६ णाहं पारयभावो णियमसा० ७८ णिग्गहिदिदियटारा भ० श्रारा०३१३ णाहं देहो । मणो तिलो० प०६-३० णिग्गंथ-अज्जियाओ कल्लाणा०३१ णाहं देहो ए मणो पारा० मा० १०१ णिग्गंथमहरिसीणं मुला० ७७२ णाहं देहो पा मणो पवयणमा०२-६८ णिग्गंथमोहमुक्का मोक्खपा० ८० णाहं पोग्गलमइओ+ तिलो० ५० १-३२ णिग्गथं दूसित्ता भावस. १५६ णाहं पोग्गलमइओ + पवयणसा०२-७० णिग्गंथं पव्वइदो पवयणसा०३-६६ णाहं बालो वुड्ढो णियमसा० ७१ णिग्गंथ पव्वयणं भ. श्रारा० ४३ णाहं मग्गपठाणो णियमसा० ७७ णिग्गंथं पव्वयण भावसं० १५२ णाहं रागो दोसो णियमसा०० | णिग्गंथा णिस्संगा बोधपा० ४६ णाहं होमि परेसिं * पवयणसा००- णिग्गंथो जिणवसहो बोधपा० १३४ णाहं होमि परेसिं * तिलो. प०६-३४ णियमसा० ४४ णाहं होमि परेसिं - पवयणमा०३-४ | णिच्च-णिमित्ता किरिया अंगप०२-११३ णाहं होमि परेसिं तिलो० ५० १-२८ / णिच्चयगयेण भणिदो पचत्थि० १६१ णाहं होमि परेसिं तिलो. प. १-३६ पिच्चल-पलंभ-णिम्मत- तिलो० सा०,३६८ णाहो तिलोयसामी ॥ श्रयप०१-१० णिच्चल संपय कस्स घरि सुप्प दो० ६५ णिउणं विउल सुद्धं ...भ० पारा १६ | णिच्चं कुमारियाओ। जबू, प०.६-१३५ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी १४३ णिचं गुण-गुणिभेये दवस० णय० ४७ /णिज्जियदोसं देवं कत्ति अगु० ३१७ गिच्च च अलमत्ता मूला० ८६२ | णिज्जियसासो शिप्फद-+ दन्वस० णय० ३८६ पिच्च चिय एदाणं तिलो० ५० ४-४२६ णिज्जियमासो पिप्पंद-+ पाहु० दो० ००३ गिच्च तेलोकचक्काहिवसयग्गमिया णियप्पा०५ | णिज्जुत्ती पिज्जुत्ती मूला० ६८६ णिन्च दिवा य रत्ति भ. थारा० ८६८ णिज्जूदं पि य पासिय भ० श्रारा० ४४३ णिकचं पञ्चक्रवाण समग०३८६ णिहवगो तटाणे लन्डिसा० १११ णिच्च पलायमाणो वसु० सा०६६ गिट्ठवण भणिय मुत्ते छेदस०३६ णिच्चं पि अमझत्थे म. प्राररा० १४०४ चरणा मूला० ८८५ पिच्चं मणोभिरामं जवृ० १० ११-१६६ गिट्टवियघाइकम्म तिलो. प० ६-७५ पिच्चं मणोभिरामा जयू०प०३-१७० गिट्टर कक्कस-वयणाई वसु० मा० २२६ पिच्चं मणोहिरामा जवृ० प०५-७६ णिहर-बयणु सुणेवि जिय परम० प० २-१८४ णिच्चं विमलसरूवा तिलो. प०८-२१३ गिगएणट्टरायढोसा तिलो०प०१-८१ णिच्चाणिचं दव्वं भावस०७१ गिएकहा खिल्लोहा बोधपा० ५० णिन्चिदरधादु सत्त य ।' या० श्रगु० ३५ णित्ताहदमणाणि य पचस०५-२८१ णिच्चिदरधादु सत्त य में मूला० २०६ णिद्दड्ढअटकामा सीलपा० ३५ णिच्चिदरधादु सत्त य * मूला० ११०४ गिदं जिणाहि णिचं - भ० श्रारा० १४३६ णिच्चिदरधादु सत्त य. गो० जी० मह णिदं जिणेहि पिच - मुला० १७२ णिच्चिदरधादु मत्त य कल्लाणा० १४ णिहंडो णिहदो णियममा० ४३ णिच्चज्जोव विमल तिलो० ५० ५-१६० णिहाजयो य दढमा- भ. श्रारा० २४१ शिच्चु गिरजणु णाणमउ परम० ५० १-१७ गिद्दाणिद्दा पयला मृला. १२२५ णिन्चु गिरामउ पाणमउ पाहु. दो० ५७ . णिद्दा तमस्म मरिमो भ. श्रारा० १४४७ णिचे दव्वे गमणट्टाणं दव्वस० णय० ४६ णिद्दा तहा विसायो वसु० सा. ६ णिच्चेल-पाणिपत्तं सुत्तपा० १० गिद्दा पचला य दुवे म. श्रारा० २१०२ णिन्चो णाणवकासो पचन्थि०८० णिद्दा पयला य तहा पचस०३-२२ पिच्चो सुक्खमहावो श्रारा० मा० १०४ गिद्दा पयला य तहा। पचम०४-३१५ णिच्छ लोय-प्रमाणु मुणि जोगसा० २४ विदा पयला य तहा पचस० ३-४० णिच्छय-एण जीवो या० अणु०८० गिद्दापयले गट्टे गो० जी० ५५ णिच्छय-णयस्स एवं __ समय० ८३ णिद्दा य णीचगोदं कमायपा० १३४ (१) णिच्छय-णयस्स एव मोक्खपा० ८३ णिहावंचरणबहुलो + पचस० १-१४६ णिच्छयदो इत्थीणं पवयणसा०३-२४२०७(ज.)। णिहावंचणबहुलो + गो० जी० ५१० पिच्छयदो खलु मोक्खो दधस. णय० ३७६ णिहिटो जिणसमये बा० अणु० १८ णिच्छय-ववहार-पया दव्वस० गय० १८२ णिद्देसवण्णपरिणामपिच्छय-ववहार-सरूव रयणसा० १२८ णिदेसस्स मरूवं तिलो. ५० ४-२ पिच्छय-सज्झसख्वं दव्वस० गय० ३२७ णिद्देसं सामित्तं वसु. सा०४६ णिच्छित्ती वत्थूण दव्यस० गय० १७६ गिद्धरामणुयह क्8डा सावय. दो०११४ णिच्छिदसुत्तत्थपदो पवयणसा० ३-६८ गिद्धणिद्धा ण बज्झति गो० जी० ६११ णिज्जरियसबकम्मो मूला० ७४६ णिद्धत्तणेण दुगुणो पवयणसा०२-७४ णिज्जवया आयरिया भ० श्रारा० ७२० गिद्धत्तं लुक्ग्वत्तं गो० जी०६०८ णिज्जावगो य गाणं मूला. १८ भ. श्रारा० ५०२ णिज्जावया य दोण्णि वि भ० श्रारा० ६७३ गिद्धस्स गिद्धेण दुगहिण्ण गो० जी० ६१४ गो० जी० ४६० Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ पुरातन-जैनवाक्य-सूची गिद्धं कगाइवहले प्रायः ति० १०-१५ णियखेत्ते केवलिदुग- गो. जी. २३५ णिद्धतकरणयसण्णिह- जवू० प० ४-१८३ | णियगच्छादो णिग्गय- छेदपिं० २४४ गिद्धं मधुरं पल्हा भ० श्रारा० १५१४ णियगंधवासियदिसं तिलो० सा० ५६६ णिद्ध महुरगभीर भ० श्रारा. २८० णियघरि सुक्खई पंच दिणु सुप्प० दो० ५५ गिद्ध महुर हिदयं भ० श्रारा०४७५ रिट्टस० ७३ गिद्ध महुरं हिदयं भ० श्रारा० ४७६ णियछाया गयणयले रिट्टस०६१ गिद्धं महुर हिदयं भ० श्रारा०६५३ धम्मर० ११२ णिद्धादो गिद्धेण [य] दवस० गय०२७ |णियजलपवाहपटिदं तिलो० सा० ५६४ णिद्धा वा लुक्खा वा पवयणसा० २-७३ गिगयजलपवाहपडिदै तिलो० ५० ५-२३८ गिद्विदरगुणा अहिया गो० जी० ६१८ | णियजलभरउवरिगद * तिलो. सा. ५६५ णिद्धिदरवरगुणाणू गो० जी० ६१७ णियजलभर उवरिगदं । तिलो० ५० ५-२३६ णिद्धिदरे सम-विसमा गो० जी० ६१५ णियजोग्गसुद पडिदा तिलो०प०४-५०६ णिद्धिदरोलीमज्झे गो० जी० ६१२ तिलो. प०४-१८१२ गिद्धो कगाइबहुले श्राय० ति०१४-५ णियडीदो कालादो अंगप० २-२५ णिधगमणमेयभवे भ० श्रारा० १६४० णियणयराणि णिविट्ठा तिलो० ५० ५-२२६ णिधणगमो एयभवे भ० श्रारा० १६१४ | णियणामलिहिणा(ठा)ण तिलो०५०४-१३५१ णिप्पएणमिव पजंपदि दन्वस० णय० २०६ / णियणामकं मझ तिलो. प० ६-६, णिप्पएणमिव पयंपदि गयच० ३५ गियणामंफिट इसुणातिलो. १०४-१३४६ णिपएणं त खादिसु श्राय० ति० ११-४ : णियणाहिकमलमझे णाणसां० १६ णिप्पत्तकंटइल्लं भ० श्रारा. ५५५ तिलो० ५०६-७८ णिप्पादित्ता सगणं भ० श्रारा० २०३२ णियणियइंदयसेढी तिलो. १००-१६० णिभरभत्तिपसत्ता तिलो० प०४-१२१ णियणियोहिवखेत्तं तिलो० ५०३-१८२ णिभूसणायुधबर तिलो०प०१-५ णियणियखोणियदेसं तिलो०प०८-६८८ णिभूसणो वि सोहइ धम्मर० १२३ णियरिणयचरमिंदयधय- तिलो० ५० १-१६३ णिमिणं चि य तित्थयर x पचस०४-२६६ णियणियचरमिंदयपय तिलो०५०२-७३ णिमिणं चि य तित्थयरंx पचसं०५-८६ णियरिणयचंदपमाण तिलो. ५० ७-५५५ णिम्मत्त-जोइमत्ता तिलो० ५०७-२० । णियरिणयजिउदएण तिलो. प० ४-६१७ णिम्ममो गिरहंकारो मूला० १०३ णियणियजिणेसठाणं । तिलो. प०४-७३० हिम्मल-झारा-परिट्ठया जोगसा० . णियणियगाडीइगो श्राय० ति०१६-१६ णिम्मलदप्पणसरिसा तिलो० ५० ४-३२० /णियरिणदिसट्ठियारणं पाय० ति० २५-३ णिम्मलपडि(फलि)हविणिम्मिय-तिलो०प०४-८५१/ णियणियदीउवहीणं तिलो० ५०५-५० णिम्मलफलिहरु जेम जिय - परम०प० २-१७६ | णियणियपढमखिदीए विलो० ५० ४-७५६ णिम्मलमणिमयपीढं जबू० १०६-६१ / णियणियपढमखिदीण तिलो० प० ४-७६५ णिम्मलवरबुद्धीरणं जव० ५० ४-२१४ |णियणियपढमविदीण तिलो. प० ४-८१२ हिम्मलु शिक्कलु सुद्ध जिणु जोगसा० ६ णियणियपढमपहाण तिलो० ५० ७-५६८ गिम्मागराजयामा तिलो. प० ८-६२६ णियरिणयपरिणामाणं कत्ति० अणु० २१७ णिम्मालियसुमणा विय मूला० ७७४ | णियरिणयपरिवारसमं तिलो० प० ७-५६ णिम्मूलखंधसाहा पचस० १-११२ णियणियपरिहिपमाणे तिलो० प० ७-५६३ हिम्मूलखंधसाहुव- गो० जी० ५०७ / णियणियभवणाठिदाणं तिलो० प० ३-१७० णियादिमपीढाणं तिलो० ५० ४-८८३ | णियणियरवीण श्रद्धं तिलो० ५० ७-५७३ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E निलो० प० ७-११४ यियिरासिपमाखं यियिवल्लिखिदाणं तिलो० प० ४-८२४ रियरिणयविभूदिजोग्गं यियिससी श्रद्ध रिणयनच्चुवलद्ध विणा ण्यिताराणं सखा दिव्वखेत्तकाले यिसाभिरामा गियदेहरिस्तं पिच्छिण यि - परम-पाप-संजणिय गिय-पह - परिहिपमाणे यिभावरणाणिमित्त यिभावं स विमुचइ यिभासाए जंपइ रिय-मण- पडिवोहत्थं यि मणिसे सालो रियम - विहूराह पिट्टणी रियम यिमस्स फलं णियम मोक्डवायो aियमा कम्मपरिव यिमा मिच्छाट्ठी यिमा लदा - समाणो प्राकृतपथानुक्रमणी मालदा - समादो यि जुत्तस्स पुणो यमेण श्रयिमेण य तिलो० १० ५–१०१ | णिरयार-देव-गई तिलो० प० ७-५५२ गिरयकडियम्मि पत्तो रयणसा० ६० रियगइ- अमर-पंचितिलो० प० ७ - ४६६ गिरय-गदि श्रउणीचं अंगप० २-५३ | गिरय-गदि श्राउबधरणजंबू० १० ११ - २६२ | गिरयगदियाणुपुच्विं मोक्खपा० ६ |रियगदीए सहिदा य० ८५ | गिरयचरो रात्थि हरी तिलो० प० ७-५७० गिरयणिवासक्खिदिपरिशियमसा० १८६ | गिरयतिरिक्खगदीसु य शियमसा० ६७ | गिरयतिक्खिदु वियलं भावस० ६० गिरयतिरिक्खसुराज्यणाणसा० ६१ | गिरयतिरियाउ ढोरिण वि णियमणि।णिम्मलि पाणिग्रहॅ परम०१०१ - १२२ | गिरयदुगाहारजुयलद्रव्वस० णय० २५२ | गिरयदुयस्स श्रसरणी सावय० दो० ११५ | गिरयदुयं पचिंदिय furमसा० १८४ गिरयद्वय पंचिंदिय शियमसा० ४ | णिरयपदरस्स आउ समय० १२० गिरयबिलाप होदि हु कसायपा० ६८ (४५) णिरयं गया पहिरिवो कसायपा० ७६ (२३) णिरयं सासणसम्मो कसायपा० ७७ (२४) रिया इगिविगला सछेदस० २२ | णिरयाउगदेवाउगतिलो० प० ४ - ६८ १ | गिरयाग देवाउगमिसा० ३ | गिरयाउज हरणादिसु सम्मइ० ३ - २८ | गिरयाउस्स य उदए + परम० प०२-२८ गिरयाउस्सय उदए + सम्मइ० १-२८ | गिरयाऊ गिरयदुय वसु० मा० ७६ |रियाऊ तिरियाऊ भावपा० १०३ | रिणारया किल्हा कप्पा छेदपिं० ३२ णिरयाणुपुव्वि उदयो ढव्वस० य० २८५ | गिरयादिजुदट्ठाणे श्रा० ति० २३ - ६ | रियादिणामबधा रयणसा० ६ | रियादिसु पर्या डिट्टिदिपचस० ५ - ४१५ | गिरयादी गदीगं धम्मर० ६६ |रियाढो खिस्सरिदो रिया पुरा पहं तिलो० प० २-३५२ | गिरयायुरस अट्टिा 1 मूला० ७२० यिमेण य जं कज्ज़ मेण सदहंतो यि कहियउ एहु मइँ यियवयरिगज्जसच्चा यि पिय वहिरि सित्तीए महाजस यि समयजादिकुलधम्मरियसमयं पिय मिच्छा पियसामि - सोम - पावा यि सुद्धपरत्तो गिरए नीसुगितीस गिरए सहाच दुक्ख free हमे free त्थि मोक्ख गिरएस पत्थि सोक्ख गिरएस वेदशाओ つ १४५ तिलो० प० ४-६११ भ० थारा० १५६२ पचस० ४-७ भ० श्रारा० १५६६ कसायपा० ४२ गो० क० ३१६ तिलो० प० २-४ भ० श्रारा० २०६१ तिलो० प०२-२७८ तिलो० सा० २०४ तिलो० प०२-२ भ० श्रारा १५६१ गो० क० ३३८ गो० क० ३३५ गो० क० ३८४ पचसं० ४-३६३ (क) पचसं० ४-४३६ पचसं० ४-२६० पचस० ५-२४ १०१ तिलो० प०२-२०२ तिलो० प० २ तिलो० सा० ८३३ गो० क० २६२ तिलो० सा० ३३१ पचस० ४-३६२ पचस० ४-५०६ वा० श्रणु० २८ पचसं० ५-१६ पचस ०५-२८८ पचम० ४-३४८ मूला० १२३० गो० जी० ४६५ पचसं० ३-३१ गो० क० ५५२ गो० क० ७१२ गो० क० ३४४ गो० क० ७६ तिलो० सा० २०३ गो० क० 1 Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ पुरातन-जैनवाक्य-सूची णिरया हवंति हेट्ठा बा० अणु० ४० णिव्यियही पुरिमंडल- छेदपिं० २०३ णिरये इयरगदीसुर भावति० ४६ णिबुदिगमणे रामत्तणे मूला० १९८७ हिरये ण विणा तिर्ण हैं गो० क० ५२३ । णिव्वेगतियं भावइ बा० अणु० ७८ णिरयेव होदि देवे गो. क. १११ णिव्वेद(य) समावएणो समय० ३१८ णिरये वा इगिणउदी गो० क. ६२३ णिसधकुमारी गया जंवृ० प० ६-१३३ णिरयेहि णिग्गदाणं मूला० ११६१ णिसधगिरिस्स दु मूल जंचू० ५० ३-२२६ हिरवेक्खे एयते ___ दव्वस० णय० ६६ } णिसधगिरिस्सुत्तरदो जवृ० १० ११-६७ णिरुवक्कमस्स कम्मरस भ० श्रारा० १७३४ णिसधस्सुच्छेहसमा जवृ० १० ११-४. णिरुवममचलमखोहा बोधपा० १३ णिसधादो गंतूणं जवू. प०६-८६ णिरुवमरुवा पिट्ठिय- तिलो० ५० 8-१६ णिसहकुरुसूरसुलमा- तिलो० ५० ४-२०८६ णिरुवमलावएणजुदा तिलो० ५० ४-४७६ णिसहदहो य पढमो जंवू० ५० ६-२ बिरुवमलावरणतणू तिलो० ५० ४-२३४४ णिसहधराहरउवरि तिलो. प० ४-२०६३ णिरुवमलावरणाओ तिलो० प०८-३२१ णिसहवणवेदिपाले तिलो. प० ४-२१३८ णिरुवमवड्दततवा तिलो. प०४-१०५४ | णिसहवरवेदिवारण- तिलो० प०४-२१४२ णिरुवहदजटरकोमल- जंबू० प० ११-२२१ । णिसहसमाणुच्छेहो तिलो० प०४-२५३१ गिलो कलीए अलियस्स भ० श्रारा० ६८२ णिसहम्स य उत्तरदो जंबू० ५०७-२ शिल्लक्खणु इत्थी वा- पाहु० दो० ६६ णिसहस्सुत्तरपासे तिलो. १०४-२१४४ गिल्लूरह मणवच्छो भारा० सा० ६८ णिसहस्सुत्तरभागे तिलो. प० ४-१७७२ णिवडंतमलिलपउरा जब०प०३-१७१ णिसहावसाण जीवा तिलो० सा० ७७६ णिवदिविहूणं खेत्तं ४ मूला० ६५१ णिसहुवरि गंतव्वं तिलो. सा. ३६१ णिवदिविहूणं खेत्तं x भ० श्रारा० २६५ हिसिञ्ण णमो अरह- वसु० सा० ४७१ णिवसंति बह्मलोयरसते तिलो० सा० ५३४ । णि सिउरण पंचवरणा णाणसा०२४ णिवत्तअत्थकिरिया दन्वस० णय० २०५ णिसिदित्तं अप्पाणं भ० श्रारा० ६४६ गिबत्तिअपज्जत्ते भावति०५७ णिसुरांतो थोत्तसए भावस० ४१४ णिव्वत्तिसुहमजेहूं गो० क० २३४ हिस्सरिदूणं एसो विलो०प०४-२४३ णिव्ववएण तदो से भ० धारा० ४६८ णिस्सल्लस्लेव पुणो भ० धारा० १२१४ णिव्वाधादेणेदा कसायपा० १६ णिस्सल्लो कदसुद्धी भ. श्रारा० ७२१ णिव्वाणगदे वीरे तिलो०प०४-१५०१ हिस्ससइ रुयइ गायड वसु० सा० ११३ णिव्वाणठाण जाणि वि णिन्वा० भ० २६ णिस्संका णिवकंखा वसु० सा० ४८ णिव्वाणमेव सिद्धा णियमसा० १८२ हिस्संकापहुदिगुणा कत्ति० अणु० ४२४ शिवाणसाधए जोगे मूला० ११२ हिस्संकिद णिक्कंखिद * मूला० २०५ णिव्वाणस्स य सारो भ० श्रारा० १३ णिस्तंकिय णिक्कंखिय चारितपा० ७ णिव्वाणे वीरजिणे तिलो. प०४-१४७२ हिस्संकियसंवेगा वसु० सा० ३२१ णिव्वाणे वीरजिणे तिलो. ५० ४-१४६७ णिस्तंकियसंवेगा वसु० सा०३४१ णिवावइत्त संसा- भ० धारा० २१४४ हिस्संगो चेव मदा भ. श्रारा० ११७५ णिवित्तदव्वकिरिया णयच० ३३ हिस्संगो णिम्मोहो भावस० ६१८ णिव्विदिगिच्छो रायो ३५ वसु० सा०५३ हिस्संगो णिरारंभो - मूला० १००० णिबिदिगिच्छो राया * भावस० २८५ णिस्संधी य अपोल्लो भ. श्रारा० ६४४ णिव्वियडिआदिया जे छेदपिं० २२८ | हिस्सेणीकट्ठादिहि णिव्वियडी पुरिमंडल छेदपिं० ५ णिस्सेदत्तं णिम्मल- तिलो०प० ४-८६४ मूला० ४४२ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग तिलो० प० ४ - १४३५ रिसेयसमट्टगया णिस्से सकम्म क्खवणेक्कहेतुं तिलो० प०३ - २२८ | कत्ति० अ० १६६ णिस्सेसकम्मणासे रिसेसम्म मु रिसेसम्ममोक्खो रिसे सखी मोहो * रिसे सखी मोहो णिस्सेसदे सिदमिण णिस्सेसदोसरहि णिस्से समोहखीणे सिमोहविये रिसे सवाहिरणासण णिस्सेससहावा रिसेससहावा יי रिसाण पहुत्त वाणमगो प्राकृत पद्यानुक्रमणी हिए राए से हिसिंगे मुझ दिघणघादिकम्मो futurer at रिद्दिलावय च खंध शिंदणगरहणजुत्ता खिदाए पसंसार सिंदामि टिणिज्जं शिंदा-वंचरण-दूरो गंदा -विसाद हो दिय (६) सथुय (द) वयणाविकंजीर विसरसणीचत्तणं व जो उच्चणीच ठाणं णीच णीचं ठाणीचं x णीच पि कुटि कम्म णीचुच्च कदर णीचोपपाददेवा णीचो व गरो बहुगं णीचो वि होइ उच्चो णीयलओ व सुतंवे गोवि कुद्धो णीयंता सिग्घगदी णीय पिविमयहेदुं मूला० ७७१ णियमसा० ७ भावस० ६६१ कत्ति० अणु० ४८३ तिलो० प० ४-३२५ भावस० ३४६ वसु० सा० ४५ गो० जी० ६२ | गलि कुरुद्दह (चंद्र) एरा पचसं० १ - २५ | गीलगिरिस्स दु हेट्ठा गीलगिरी सिहो पिव गील-सिद्द-पासे गील- सिहां-पासे गील- रिगसहारण भागे गील- सिहादु गत्ता गील- णिस हे सुरद्दि गीलद्दि - सिह पव्वदगीलसमीवे सीदागीलस्स दु दक्खिणदो गीलाचल - दक्खिणदो गीलाचल - दक्खिदो गीलाचल - दक्खिणदो गीला पीया कि हा भावस० ३०४ गीलुक्सस्संसमुदा aafio २८६ | गीलुत्तरकुरुचंदा मोक्खपा० ७२ | गीलुप्पलकुसुमकरो चारा० सा० १७ यच० २४ दव्वस० णय० १६६ तिलो० प० ४ - १०२८ यिप्पा० २ तासा० ६५ भावसं० २४६ पवयणसा० २–१०५ | | गीया प्रत्था देहा णीया करति विग्धं | या सत्तू पुरिसरस णीया-गयम्मि चंदे गीलकुमारी गामा मूला० ५५ गीलुप्पलगोसासारयणसा० १०२ | णीलुप्पलणीसासाजबू० प० १३ - ८७ | गीलुप्पलसच्छाया समय० ३७३ | गीलेण वज्जिदारिण अगप० २ - १३ गीलो गीलव्भासो भ० श्रारा० १२३४ | णीसरिऊण वराश्र णीसेहियं हि सत्थ ग्रीहारइ तेसु अट्ठिएस उद्धार (?) अहवा ऊण किंचि रत्ति गेच्छइ थावरजीव भ० श्रारा० ६०१ भ० श्रारा० १२२८ | भ० श्रारा० १४६३ | भ० श्रारा० १३७१ तिलो० च्छति जइ वि ताओ १० सा० ३८७ | ऐत्तस्सजणचुरणं भ० प्रा० ६०८ | ऐत्त । इदसणाणि य १४७ भ० श्रारा० १७५० भ० श्रारा० १७६४ भ० प्रा० १७६५ थाय० ति० १६-२२ सवृ० प० ६-३८ तिलो० प० ४-२१२४ जवू० प० ७-८ तिलो० प०४ - २३२५ तिलो० प० ४-२०२५ तिलो० प० ४-२०१६ मूला० ३७४ | णीसरिऊं (ओ) सो तत्थ वि भ० श्रारा० १२० | गीसरिदूण या गंगा भ० श्रारा० ६०६ | णीसेस कम्मणा से गो० क० ६३५ | तिलो० प० ६ - ८० जबू० प० ७-१६ तिलो० सा० ६५४ तिलो० सा० ६६४ तिलो० प०४-२०११ तिलो० सा० ६३६ जबू० प० ६-१३ तिलो० प० ४-२१२१ तिलो० प०४-२२८८ तिलो० प० ४-२२६० रिहस० ८० गो० जी० ५२४ तिलो० सा० ६५७ तिलो० प० ५-६२ जबू० प० ३-७६ जबू० प० ४-२२४ जबू० प० २-१८१ तिलो० प० ८ - २०४ तिलो० सा० ३६४ धम्मर० ४५ धम्मर० ३३ जवू० प० ३-१७३ श्राग० सा० ८७ श्रगप० ३-३४ छेदपिं० १३२ वसु० सा० १०६ वसु० सा० २८६ धम्मर० १११ वसु० सा० ११७ मूला० ४६० पचस० १-११ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ पुरातन-जैनवाक्य-सूची णेत्तण णिययगेहं वसु० सा० २२६ णोइंदिएमु विरदो + णेमी मल्ली वीरो तिलो० ५० ४-६६६ पोहं दिएर विरदो+ णेयपमारणं णाणं कल्लाणा० ३७ | रणोदियावरणवऐयं खु जत्थ णाणं दवस० गय० ३१६ णोडदिय त्ति सपणा गेयं जीवमजीवंx गायच०५७ णोइदियपणिधाणं । णेयं जीवमनीx दव्वस० गय० २२७ णोइदियपणिधाण । णयं गाणं उहयं दब्वम० गय०५१ णोइंदियसुदणाणाणेयाइय-वइसेसिय ज०प० -१६७ णो उप्पजदि जीवो णेया णदोण तीरा जंबू. ५०१-१८० यो उवयार कीरइ - ऐया तेरेकारस जवृ० प.19-१४५ णेयाभावे विल्लि जिम परम० ५० १-४७ णो कप्पदि विरदाणंx णेया विभंगरिया जबू० ५० १-६३ यो फापदि विरदाणं ४ गेरइय-तिरिय-मणुत्रा परिय० ५५ पोकम्म-कम्मरहिओ गेरइय-निरिय-माणुस- कम्मप. ६७ णोकम्म-कम्मरहियं गरइय-देव माणुम मूला० ५४६ णोकम्म-कम्महागे गरइया खलु मंढा गो० जी०१३ गोकम्म-कम्महारो गेरइयाण सरीरं. वसु० मा० १५३ णोकम्म-सम्महारो गरइयाण तण्हा धम्मर० ६६ णोकम्मुगलसचं गरइयादिगदीण कत्ति० अणु० ७० णो खइयभावठाणा रदिदिसाविभागे जवृ० ५० ६-६१ णो खलु महावठाणा गेरयियाणं गमणं गो० ० ५३८ । यो ठिदिवघटाणा ऐवज दिएण' जिण्हु सावय. दो० १८७ णो ठिदिबंधट्टाणा णेव य जीवहाणा समय० ५५ । णो पूया जिरगचलणे णेवित्थी ण य पुरिसो पचसं० १-१०७ णो बंहा(भा) कुण्ड जय णेवित्थी व पुमं कम्मप०६५ रणो ववहारेण विणा णेवित्थी व पुमं गो० जी० २७४ णो वंदेज अविरदं णेहं फगाइबहुले श्रायः ति० १२-४ णो सहहंति सोक्खं णेहोउप्पिदगत्तस्स मूला० २३६ णो संति सुकलेस्से णोश्रागमभावो पुण गो० क. ६६ णो सीलं णेव खमा णोआगमभावो पुण गो० ० ८६ । रहवणं फाऊण पुणों पोआगमं पि तिविह दन्वस० गय० २७५ रहाण-विलेवण-भूसणणो इ8 भणियव्वं दवस० गय० २७६ रहाणाश्रो चिय सुद्धिं णो इत्थि पुणपुमो णियप्पा० ५ | रहाणादिवजणेण य णो इत्थी ण णउंसो कल्लाणा० ४६ रहाणे दंतग्घसणे णोदिएसु विरो+ भावस० २६१ | रहारूण गवसदाइ पंचम 1-18 गो० जी० २६ गो. जी ६५६ गो० जी० ४५३ भ० भारा. ११८(क) मुला० ३०० तिलो. प. ४-६७३ वत्तिक घणु० २३६ गायच०७० दवस. गाय०२४० मूला० १६० मूला. १५२ तरचसा० २५ गियममा० १०७ भावस० ११० भावस. . भावस० ११३ गोजी. ३७६ णियमसा० ४१ णियमसा० ३१ गियमसा० ४० समय० ५४ कल्लागा.01 भावस०२५३ दवस० गय० २६५ मूला० ५६२ पवयणसा० १-६१ भावति. १०७ क्लाणा १६ भावसं० ४४२ कत्ति० अणु० ३५८ भावस०२२ मूला० ३१ छेदपि० १२६ भ. श्रारा. १०२८ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी १४६ तइए समए गिरहह भावसं० ३०१ | तक्खिदिबहुमज्झणं तिलो. प० ४-१७३५ तइकप्पाई जाव दु पंचसं० ४-३४६ तक्खेत्ते बहुमज्झे । तिलो. प०४-१७४३ तइय-फसाय-चक्क - पचस०३-२० | तगिरिउरिमभागे तिलो०प०४-१७०७ तइय-कसाय-चउक्कं पंचस० ४-३१२ तग्गिरिउरिमभागे तिलो० ५० ५-१४४ तइय-फसाय-चउक्क पचस० ४-४६६ तग्गिारणो उच्छेहो तिलो०प०५-२४० तइय-चउक्कय-रहिया पचस०४-३८२ तग्गिरिणो उच्छेहो तिलो०५०४-२७४६ तउ करि दहविहु धम्मु करि पाहु. दो० २०८ | तग्गिरिदारं पविसिय । तिलो० प०४-१३६१ तक्कहियधम्मि लग्गा भावस. १६३ ग्गिरिदो पासेसुं तिलो. प०४-१७५४ तक्कंपेणं इंदा तिलो. प० ४-७०५ तग्गिरिमझपदेसं तिलो० ५०४-२११८ तक्कारणेण एरिह तिलो. प. ४-४२५ तिलो०प०४-१३६५ तक्कालतदाकालस भ० श्रारा० १७७७ तग्गिरिवरस्स होति हु तिलो० ५० ५-१२८ तकालपढमभाए तिलो०प०४-१५६२ तिलो०प०४-१३२२ तकालमुग्गयाओ श्राय० ति० १५-१ | तग्गुणए य परिणदो दव्वस० णय. तकालमुहुत्तगुणं श्राय० ति० २०-२ | तग्गुणगारा कमसो गोक०८६७ तक्कालाम्म सुसीमप्प- तिलो. प० ७-४३६ | तग्गुणसेढी अहिया लद्धिसा० ३६५ तक्कालवजमाणे लद्धिसा०६४ । तच्चरिमम्मि णगणं तिलो० ५० ४-१६०२ तत्कालमावण चिय भ. श्रारा० १९६१ तच्चरिमे ठिदिवधो लद्धिसा० ४१ तकालादिम्मि गरा तिलो०प०४-४०३ तच्चरिमे पंबंधो ल द्धिसा० २६० तक्कालिगेव सव्वे पवयणसा० १-३७ तच्च-रुई सम्मत्तं मोक्खपा० ३८ तक्काले कप्पदुमा तिलो० ५० ४-४५४ तञ्च-वियारण-सीलो रयणसा०६६ तक्काले ठिदिसतं लद्धिसा० ४१५ तच्च(स्स) सुहम्मवरसभं ज. प. ११-२३० तक्काले तित्थयरा तिलो. प०४-१५७६ तचं कहिज्जमाणं कत्ति० अणु० २८० तकाले ते मणुवा तिलो० ५० ४-४०५ | तच्चं तह परमट्ठ दवस० गय०४ तक्काले तेयंगा तिलो. प०४-४३ | तच्च पि हेयमियरं द वस० गय० २६१ तक्काले भोगणरा तिलो० प० ४-४५८ | तचं बहुभेयगयं तञ्चसा०२ तक्काले मोहणियं लद्धिसा० ३३१ तच्चं विस्सवियप्पं * णयच० ५ तक्काले वेयणियं ४ लद्धिसा० २३५ तञ्चं विस्सवियप्पं * दव्वस० णय. १७६ तकाले वेयणियंx लद्धिसा० ४२३ तच्चाणं बहुभेयं अगप० २-१०४ तक्कूडब्भतरए तिलो० ५० ५-१६२ तच्चाणे(एणे)सणकाले दवस. णय० २६७ तक्कूडभतरए तिलो० ५० ५-१६५ तच्चिय दीवं वासो(सं) तिलो० प० ४-२६०६ तक्कूडव्भतरए तिलो० ५० ५-१७१ तच्चूलियासु भेया अंगप०३-१ तक्कूडभंतरए तिलो० ५० ५-१७८ तिलो०प०८-६५६ तक्खय-वढि-पमाणं + तिलो० ५० १-१७७ तज्जोगो सामएण गो० जी०२६२ तक्खय-वढि-पमाणं + तिलो० प० १-१६४ तज्माणजायक्म्म भावस० ६०४ तक्खय-चढि-पमाणं तिलो. प. १-२२४ तट्ठाणादो दो दो (१) तिलो० ५० ३-१७८ तक्खय-वढि-पमाण तिलो० ५० १-२५७८ तहाणे एक्कारस गो० क० ५१४ तक्खित्ते बहुमज्मे तिलो. प०४-१७०२ | तट्ठाणे ठिदिसंतो लद्धिसा०१८ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० तडदो गत्ता तेत्तियasat वार- महमं तडिदविदुतुल्ल तरणचारी-मंसासीतरुहरिदछेद तरण - पत्त-कट्ट - छारिय तर मंसामिविहंगा तर कुट्टी कुल (म) भंगं तदादिसहिया तपंचस्स यासो तणु-मरण-वयणे सुरणो तर रक्खपदी तगुरक्खा अट्ठारस तरपुराण सुराणं तर रक्खा तिप्परिसा तणु-वय- रोहणेहिं तर वंज (?) महारणसिया तत्रादपचवले तणुवाद हल संखं तवाद वहलस खं तवादस् य बहले सिहरे वेदी तण्यराण बाहिर तरणयरीए बाहिर तणामा पुवादी तरणामा वेरुलिय तणामासीदुत्तरतलिया मज्झे तव्वित्ति पुणे तो कसायभागो ता श्रतखुत्तो तरहा-छुहादि-परिदा हा दिए सहरिणज्जेसुतत्तवल्लिहिं छूढा तत्तक्काले दिस्सं तत्तमया तप्परही तत्तस्स अग्गपिंड तत्ताईं भूसा इं तत्तातत्तु मुवि मणि तत्तियम हुप्पा पुरातन जैनवाक्य-सूची ते लोका तत्तो यट्टिम्स य सा० ६० | तत्तो श्रणुद्दिमाए छेदपिं० १० ३४ | तत्तो श्रद्धद्धखया तत्तो भव्वजोगं मूला० ८०१ भ० श्रारा० ५५६ | तत्तो श्रमि पयोदा छेदस०१८ | तत्तो अवरविसाए रयणसा० ४८ तत्तो वर दिसाए तिलो० प०८-२६३ । तत्तो श्रवर दिसाए तत्तो श्रवरदिमाग तिलो० सा० ६०६ तिलो० सा० ६१० भावस० ६३७ श्रारा० मा० ७६ तिलो० प० ८-३३० | तिलो० प० १-२२१ तिलो० प० ८-२३६ | तत्तो आगतृण तिलो० प० ३-६४ | तत्तो आपहूदी | धारा० मा० ७२ | तत्तो इंद्रदिसाए तिलो० १०४ - १३७४ तत्तो उड्ढं गंतुं तिलो० प० ६- १४ तत्तो उदय सदस् य तिलो० प० ६-७ तत्तो उवरिमखडा तिलो० प० ६-८ | तत्तो उवरिमदेवा तिलो० प०६-१५ | तत्तो उवरिमभागे तिलो० सा० ६३६ । तत्तो उवरि उवसमतिलो० प० ६-६४ । तत्तो उवरिं भव्वा तिलो० प०५-२२७ । तत्तो उववरणम तिलो. मा० ६६२ | तत्तो एगारणवसगतिलो० प०२-१६ तत्तो फक्की जाटो तिलो० सा० ६६६ | तत्तो कमसो बहवा तिलो० प० ७-७५ | तत्तो कमेण वढदि भावति० ६८ तत्तो कम्म यस्सिगिगो० क० २०४ | तत्तो कुमार कालो भ० श्रारा० १६०५ तत्तो वीरवरक्खो भ० रा० ७७८ | तत्तो चउत्थउववरणभ० श्रारा० ३६२ | तत्तो चउत्थवेदी जवृ० प० ११-१६१ तत्तो चउत्थसाला लद्धिसा० १३८ | तत्तो छज्जुगलागि तिलो० प० ४-१८०२ तिलो० प० ४-१५२५ तत्तो अवरडिमा तत्तो अवरदिमाए तत्तो अमंलोगं धम्मर० ५४ परम० प० २-४३ श्रारा० सा० ८१ न तत्तो छट्ठी भूमी ततो जुम्माण लिए तत्तो को विभणिश्रो ग ततो ततो गा दु तिलो० प० ४-१०-१ लहिमा० ३३८ तिलो० प०८-१७७ जवृ० प०३-१५२ विसा० ३३ तिलो० प० ४- १५५८ जं० प०८-१३७ जनृ० प०८-१३६ संवृ० प० ६-१६ जंवृ० प० ६-४ जंवृ० प० ६-७६ जयृ० प० ६-७७ तिलो० मा० ८० तिलो० प० ४- १३१४ तिलौ० प० ८-१०१ जंवृ० प० -४२ जंबू० ए० १६-३२६ लद्विमा० १० गो० क० ६६२ तिलो० प०८-६८० तिलो० प० १-१६२ गो० जी० १४ तिलो० प०८-६७२ तिलो० प० ४-१३१३ गो० जी० १६१ तिलो० प० ४- १५०७ तिलो० प०४-१६०७ गो० क० ६६४ गो० जी० ३६६ तिलो० ५० ४-५८३ तिलो० प० ८-१५ तिलो० प० ४-८० १ तिलो० प० ४-८३८ तिलो० प० ४-८४६ तिलो० प० ८-११६ तिलो० प० ४-८२६ तिलो. सा० ४६० दसणमा० ४७ जंबू ० ०८-६ तिलो० प०४-१५३६ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी १५१ -- ततो णपुसगित्थी म० श्रारा० २०६७ तत्तो पच्छिमभागे तत्तोऽणतरसमए भ० श्रारा० २१०३ तत्तो पडिवजगया। तत्तो णिस्सरमाण वसु० सा० १४८ तत्तो पढमे पीढा तत्तो रणीमरिउण कत्ति० अणु० ४० तत्तो पढमो अहिओ तत्तो णीसरिञ्ण कत्ति० अणु० २८६ तत्तो पदेयवड्ढी तत्तोऽणुभयहाणे लद्विसा० १६४ तत्तो तविदो(सीटोA)तवणो तिलो०२०-४३ | तत्तो परंण गन्छ। तत्तो तव्वणवेदिं तिलो० ५० ५-१३१६ तत्तो परंतु गेवेज्ज तत्तो तव्वणवेदि तिलो. प० ४-१३२३ तत्तो पर तु णियमा तत्तो तसि(वि)दो तवणो जबू० ५० ११-१५१ तत्तो पर तु णियमा तत्तो तागुत्ताणं गो० जी० ६३८ तत्तो परंतु णियमा तत्तो ति-यरणविहिणा तद्विमा० २०४ | तत्तो पर तु णियमा तत्तो दक्खिणभरहस्सद्ध तिलो० सा० ५६६ तत्तो पर विचित्ता तत्तो दस उप्पइया जबू०प० २-४२ तत्तो परं विचित्ता तत्तो दहाउ पुरदो तिलो० प० ४-१६१५ तत्तो पर वियारणह तत्तो दहादु पुरदो जबू० प०५-५८ तत्तो पलाय(यि) उण तत्तोऽदित्थावणग लद्धिमा० ६२ तत्तो पलायमाणो तत्तो दु असखेज्जा जवू० प० ११-२०१ तत्तो पल्लसलायच्छेतत्तो दु असंखेजा जबू० ५० ११-२०३ तत्तो पविसदि तुरिम तत्तो दुक्खे पथे म० श्रारा० १३६ तत्तो पविसदि रम्मो तत्तो दुगुणं ताओ तिलो० प०८-३१५ तत्तो पंच-जिणेसु तत्तो दुगुणं दुगुण तिलो. ५००-२३७ तत्तो पुवदिसाए तत्तो दुगुणा दुगुणा जबू० प०३-१५१ | तत्तो पुव्वाहिमुहा तत्तो दु दक्विणटिस जबू० प०८-८५ तत्तो पुव्वेण पुणो तत्तो दु पभादो विय जबू०प०११-३१० तत्तो पुरेण पुणो नत्तो दु पव्यनढो जवृ० प०६-१७८ | तत्तो पुवेणं तह तत्तो दु पुणो गंतुं जंवू० ५० ११-२०३ तत्तो बहुजोयणयं तत्तो दुममंठादो जवृ० ५० ५-५२ तत्तो वे-कोसुणो तत्तो दु विमाणादो जबू० ५० ११-२२४ तत्तो भवणखिदीयो तत्तो दु वेदियादो जबू०प०६-३ | तत्तो मास बुब्बुदतत्तो दु वेदियादो जवू०प०६-५ तत्तो य अद्धरज्जू तत्तो दुसए तीदे दसणसा० ४० तत्तो य पुणो अरुण तत्तो दु संकमादो जबू० ५० ७-१३२ तत्तो य वरिस-लक्ख तत्तो दुस्सम-सुसमो तिलो. प० ४-१५७४ तत्तो य सुहमसंजमतत्तो दो इद(ह)रज्जू तिलो० ५० १-१५५ तत्तोरणवित्थारो तत्तो देववणादो जबू०प०८-88 तत्तोरालियदेहो तत्तो देववणादो जवृ. ५०६-८७ तत्तो लातवकप्पप्पतत्तो दो वे वासो तिलो०प० ४-१५१३ | तत्तोवरिम्मि भागे तत्तो धयभूमीए तिलो० प. ४-८१६ तत्तो वरिस-सहस्सा तत्तो पच्छिमभागे तिलो० ५०४-२११२ / तत्तो ववसायपुर जबू०प०१-१३ लद्विसा० १६३ तिलो० प०४-८६३ लद्धिसा० ६४ तिलो० प० ५-३ ५ तिलो०१०४-१६२१ भावस० ६८६ मृला. १९८० मूला० ११४३ मृला.११७४ मूला० ११७६ मूला० १९७८ जवृ० ५० ५-६४. जवृ० ५० ५-६५ जब० ५० ५-६७ वसु० सा० १५१ वसु० सा० १५४ गो० ० ४३२ तिलो० प० ४-१५६४ तिलो०प०४-१९५३ तिलो. प०४-१२४ जब० प. ८-७४ रिलो. प० ४-१३१७ जव० ५०८-15 जब० प०६-१२ जव०प०८-३१ तिलो० सा०५०४ तिलो० प० ४-७१५ तिलो. प० ४-३६ भ. श्रारा० १००८ तिलो. प० १-१६१ जब० ५० १५-२०६ जब. प. ४-५७६ लद्धिस . १६५ तिलो० सा० ६०२ मूला० १२४३ गो० जी० ४३५ जबू० ५० ८-१०० तिलो. १०४-180 तिलो० ५०३-२१८ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ पुरातन-जैनवाक्य-सूची तत्तो ववसायपुरं तत्तो वि असंखेज्जा तत्तो विचित्तरूवा या तत्तो विदिया भूमी तत्तो विदिया साला तत्तो वि पुणो गंतुं तत्तो विभंगणामा तत्तो विसेसअधिया तत्तो विसोकयं वीदतत्तो वि हंसगभं तत्तो वेदोदो पुण तत्तो संखिज्जगुणा तत्तो संखेजगुणो तत्तो सीदो तवणो तत्तो सीदोदाए तत्तो सुणिण्णो खलु तत्तो सुहुमं गच्छदि तत्तो सेणाहिवई तत्तो सोमणसादो तत्तो सोमणसादो तत्तो हरिसेण सुरा तत्तो हं तणुजोए तत्य अणोवमसोभो तत्थ अवाओवाय नत्थ अविचारभत्तपतत्थ असंखेजगुणं तत्थ इमं इगिवीस तत्थ इम छव्वीसं * तत्थ इमं छब्बीस * तत्थ इमं तेवीसंx तत्थ इमं तेवीसंx तत्थ इम पणुवीस तत्थ इम पणुवीसं तत्थ गुणसेढिकरणं तत्थ चुया पुण सता तत्थ च्चिय कुंथुजिणो तत्थ चिय दिवाए तत्थ जरामरणभय तत्य ण कप्पइ वासो तिलो. प. ८-५७८ | तत्थ ण बंधइ आउं भावस०२०० जंब. प०११-२०४ तत्थ णिदाणं तिविह भ. श्रारा० १२१५ तिलो० ५० ४-१६१६ तत्थणुहवंति जीवा मूला० ७१५ तिलो०प०४-१८६८ तत्थतणऽविरदसम्मो गो० क. ५३६ तिलो. १०४-२१६८ तत्थ दु खत्तियवसो जय० प० ७-५६ तिलो० ५०४-८०० तत्थ दु णस्थि समारणं जंबू प० ५१-३६२ जब० प०११-२०७ तत्थ दु णिट्टिदकम्मा जबू० ५० ११-३६१ जव० प०-१५४ तत्थ दु देवारएणो जय० प०८-७८ मुला० १२१ तत्थ दु महाणुभावो जब० ५० ११-३०० तिलो० प० ४-१२१ तत्थ पढमं णिरुद्धं भ. श्रारा० २०१२ तिलो. सा० ७०३ तत्थ पम्मि विमाणे जय० प०११-२२५ जबू० ५० १०-३८ | तत्थ पम्मि विमाणे जव०प०११-२५१ मूला० १२१३ तत्थ पयाणि बुहेण य अंगप००-५८ गो० जी० ६३६ | तत्थ पयाणि य]पंच य अगप०१-७२ (देखो 'तत्तो तविदों') | तत्थ भवं सामइयं अंगप०३-१३ तिलो० ५० ४-२१०७ । तत्थ भवे किं सरण कति. अणु० २३ अगप० २-६२ | तत्थ भवे जीवाणं समय०६१ लद्धिसा० ५७५ तत्थ य आयसरूवं शायति०१-३ तिलो० प० ४-१३२८ तत्थ य कालमणंतं भ. श्रारा० ४६८ जंबू० ५० ४-१२८ तत्थ य गंगा पवहइ जव० प०८-१२३ जवू०प० ६-१० तत्थ य तत्ते तत्ते श्राय० ति० १-३७ तिलो. प०८-५८६ तत्थ य तीसट्ठाणा + पंचस०५-७७ पारा० सा०६७ तत्थ य तीसं ठाणं + पचस०४-२८४ जब० ५० १६-३२४ तत्थ य तोरणदारे तिलो०प० ४-१६६५ भ० श्रारा० ६६६ तत्थ य दिसाविभागे तिलो. प० ४-१६५६ भ० श्रारा० २०११ तत्थ य पडिवादगया* लद्धिसा० १६७ लद्धिसा० १४१ | तत्थ य पडिवायगया* लद्धिसा. १८४ पचस०५-१५७ तत्थ य पढम तीसंx पचसं०४-२६४ पचस०४-२७३ तत्थ य पढमं तीसं x पचस० ५-५७ पचसं० ५-६६ तत्थ य पसत्त्थसोहे तिलो० ५० ४-१३४२ पंचस०४-२८१ तत्थलि-उपरिम-भागे तिलो० सा० ६४ पंचस० ५-७४ तत्थ वि अणंतकालं वसु० सा० २०६ पचस० ५-१६८ तत्थ वि असंखकालं कत्ति० अणु० २८५ पंचस०४-२६१ तत्थ विक्खंभमज्झे जब० ५० ११-२१४ लद्धिसा. ६४१ तत्थ वि गयस्स जाय भावस० १४२ भावस०५४२ तत्थ वि दहप्पयारा वसु० सा० २५० तिलो. प०४-५४१ | तत्थ वि दुक्खमणतं वसु० सा०६२ तिलो. प०५-२०३ तत्थ वि पडति उवरि धम्मर० ३१ मूला० ७०६ तत्थ वि पडंति उवरिं मूला० १५५ । तत्थ वि पविटमित्ता(त्तो) वसु० सा० १६२ वसु० सा० १५२ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ fc त तत्थ विपव्ययसिहरे तत्थ वि पावइ दुक्खं तत्थ वि बहुपारं तत्थ वि विजय पहुदिसु तत्थ विविविहतरूण तत्थ विविवि भए तत्थ वि साहुक्का रं तत्थ वि सुहाइ भुत्तु तत्थ समभूमिभागे तत्थंतिमच्छिदिस्स य तत्थाणिलखेत्तफल तत्थादि - अंत-श्राऊ तत्थावरणजभावा तथासत्थं एदि हु तत्थासत्था खारयतत्थासत्थो णारय तत्थिविसं ठाण तत्थिगिवीस ठाणा (पं) तत्थुदयुदवास मरा तत्थुपण विरलिय तत्थुपणं संत तत्थुवत्थिदणराणं तत्थेव मूलभंगा तत्थेव य गणिकाणं तत्थेव सव्वकालं तत्थेव सुक्का तत्थेव हि दो भावा तत्थे सारणदिसाए तत्थोवसमियसम्मत्ततदणंतरमग्गाईं तदपज्जत्ती हवे तदि तुरिए काले तदिए पुरणव्वसू-मघ भुवि को दादो तदिदु कालसम तदिय-कसाय- चउक्कं तदिय-कसायुदयेण य यो अंतगदो तदियगमायाचरिमे प्राकृतपद्यानुक्रमणी धम्मर० ३४ | तदिय-चदु-पंचमेसुं तदिय पण सत्त दुख दो तदियपदितवणो तदियम्म कालसमये तदियस्स मारणच रिमे तदियं श्रसहस्सा धम्मर० ४१ वसु० सा० २६७ तिलो० प० ५ - १८० तिलो० प० २-३३२ भावसं ० ४२२ भ० श्रारा० १५२६ |तदियं संतवण भावसं० ५६७ तदियं व तुरिमभूमी तिलो० प० ४ - १४६ | गो० क० ६३४ तिलो० सा० १३५ तदियाए पुढवीए तदियाश्रो वेदीश्रो तदियादो श्रद्धा तढ़िया सत्तसु किट्टीसु तदिया साला अज्जुरणतदियेक्कवज्ज रिणमिण तदियेक्कं मरणुवगदी गो० क० ६०० गो० क० ५३३ | तदियो सणामसिद्धो पचसं ० ५- १८० तद्दक्खिणदारेणं पंचस० ५ - १८ | तक्खणदारेण तिलो० सा० ७८२ गो० क० ८२५ गो० क० २३४ तिलो० सा० ६०७ तिलो० सा० ३६ तद्दक्खिरण साहाए तद्दक्खिणुत्तरेसु तह कमल रिण के दे तदृहदक्खिणतोरण गो० क० ८२२ | तद्ददक्खिणतोरण तिलो० सा० २८६ दक्खिणदारे तिलो० प० ५ - २८४ | तद्दह उमस्सोवरि वसु० सा० ५२४ तद्दहपच्छिमतोरणभावसं ० ६५३ तपतीणमादिमतिलो० प० ८ - ४०६ | तराणं पविलिय भ० रा० ३१ तद्दिवसे राहे तिलो० प० ७–२११ | तद्दिवसे खज्जतं भावति० ७० वि धम्मर० २१ तिलो० प० ४ - १५५२ तिलो० सा० ८१३ | तद्दीवं जिणभवण तिलो० प० ७-४६२ | तद्दीवं परिवेढदि तिलो० प० १ - २५२ | तद्दीवे पुव्वावर भ० ० ५२० | तद्दे अज्जाखण्डं जबू० १० २ - १६३ तद्देवी पच्छा पचस० ३-३६ |तद्देहमगुलस्स असखगो० जी० ४६८ |तद्भणु पट्टस्सद्धं गो० जी० ३६ त चेव सुहममरणवचिलद्धिसा० ५५७ तध रोसेण सयं पुव्व १५३ तिलो० प० ४-१६१६ तिलो० प० ५-५५ तिलो० प० ७-२८४ जंबू० १० २-१२१ विसा० ५५४ तिलो० प०८-२२६ भ० श्रारा० ८२८ तिलो० प०४-२१७१ मूला० १०५७ तिलो० प० ४-८१५ तिलो० प० ४-१४२५ कसायपा० १६७ (१४४) तिलो० प० ४-८२५ गो० क० २७१ गो० क० २७२ गो० क० ५६४ तिलो० प० ४-२३४६ तिलो० ० प० ४-२३६१ तिलो० प० ४-२११८ तिलो० प० ७-१० तिलो० प० ४-२३४३ तिलो० प०४-२३४५ तिलो० प० ४-२३६० तिलो० प० ४-५७३३ तिलो० प० ४-१७२६ तिलो० प०४-२३६८ तिलो० सा० ७६० तिलो० प० ४-१३२० तिलो० प० ४-६८४ तिलो० प०४-१०८८ तिलो० प० ४- १३१ तिलो० प० ४-२५३८ तिलो० प० ४-२५२६ तिलो० प० ४-२५७४ तिलो० प०४-१५५१ तिलो० सा० ५२५ गो० जी० १८३ तिलो० प० ७-४३० भ० श्रारा० २११८ भ० आरा० १३६३ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ तप्पढमट्ठदिसंत पढमपदेस चि तम्मायावेदा तम्मि कदकम्मरणास तमि जवे विदफलं तम्मि जवे विंदफल तम्मि दु देवारणे तमि सम्म मज् तम्मि पदे आधारे तमिव गायन्त्रा तमिव पुत्रादिसु तम्मि वणे वरतोरणतम्मि वरपीढसिहरे तम्मिसमभूमिभागे तम्मि सहस्स सोधिय तिलो० सा० १००४ तिलो० प० ४–१६२६ | तम्मिस्ससुद्ध से से तिलो० सा० ६७३ | तम्मिस्से पुरणजुदा तिलो० सा० ५१७ | तम्मूले एकेका तिलो० सा० ८५५ | तम्मूले पलियकगतिलो० सा० ६२१ मू तिलो० प० ४ - २५१२ | तम्मेत्तवासजुत्ता तिलो० प० ४-३३७ तम्मेत्तं पविचं म्हाणो जीव तम कंडe frरुद्धो तमगो भमगो य सग तम-भम-झसयं वाविल(अंध) तिलो०प०२ - ४५ | तम्हा अहमवि णिच्चं तिलो० प० २-५१ जबू० प० ११-१५४ तम्हा अम्भसउ सया तिलो० प० ८- ६५७ तिलो० सा० ६६२ तिलो० सा० ८६६ तिलो० सा० ६६७ तिलो० प० १-१३६ तिलो० प० ४-७६२ तिलो० सा० ५५७ तिलो० प० ७-८७ तिलो० प० ७-४२५ तिलो० प० ४-४६३ तिलो० प० ४-४६३ तिलो० प० ४-४४७ तिलो० प० ४-४४३ तिलो० प० ४-४५२ तिलो० प० ४-४५६ तिलो० प०४-१८३७ तिलो० प० ७-५७ तम्हा हिगयसुत्तेतम्हा इत्थीपज्जय तम्हा इह-पर-लोए तम्दा इंदियसुक्ख तुम्हा कम्मं कत्ता तम्हा कम्मासवकारणाि तम्हा कलेवरकुडी तम्हा कवलाहारो तम्हा खवणातम्हा गरिणा उपीलए तम्हा चव्विभागो तम्हा चढयवेज्झस्स तम्हा चेट्टिदुकामो *हा चेट्टिदुकामो तन्हा जहि लिंगे म्हाजिर मग्गादो तम्हा जिव रुई तप्पतीसं पह विवेदिदारे तपसेवतो परदो गतू परिवारा कमसो तापव्यदस्स उवरि तप्पारग्गुवयरणं उडेविड तपायारुदयतियं तपासादा (दे) विसदि तपुरदा जिणभवणं तफलिहवी हिमझे तव्त्रावरणणगाणं तन्त्राहि पुण्वादिसु भदो तस्स सुतो भवदी सोमो तन्भूमिजोगभोगं तम्भोगभूमिजादा तम्मज्झबद्दलमट्ठ तममममाला तम्मज्झिमतियभागे तम्म तम्म मुहमेकं तम्मझे रम्माई तम रूपमयं तम्मज्झे वरकूडा तमसोघेजु तम्म उचएस दो तमतिदिवसे चउरस्सो तमाक तमतिदिवदे तमतिदिवदे पुरातन जैनवाक्य-सूची तम्मणुवे सग्गगदे तम्मदिर बहुम तमंदिरमकेसुं लद्धिसा० ३८७ तिलो० प० ४-१४७३ तिलो० प० १-२३४ तिलो० प० ४ - १३१८ अंगप० ३-५२ तिलो० प० ८-४२८ तिलो० प० ८-३२० तिलो० प० ४-२२३ वसु० सा० ४१० | तिलो० सा० ८५३ तिलो० सा० २८५ तिलो० प० ४-२०६ te त लन्हिसा० ३६८ तिलो० प० ४-१४७४ तिलो० प० १-२३६ तिलो० प० १-२५३ जबू० प० ६-८६ जबू० प० ६-५८ तिलो० प० ४-६७३ जबू० प० ८-८ निलो० प० ४-१६४१ तिलो० प०४-२००३ जबू० प०५-५३ जंबू० प० २-४८ तिलो० प० ४-२६६७ तिलो० प० १-२११ गो० क० ३१२ तिलो० प० ८-४०५ तिलो० सा० २५४ तिलो० प० ४- १७६६ तिलो० १० ५-६६ तिलो० प० ७-२२६ सम्मइ० २-३८ तच्चसा० १६ मूला० ७६१ सम्मइ० ३-६५ भावस० ६८ भ० श्ररा० ८२१ भावस० १७५ पचस्थि० ६८ मूला० ७३८ भ० श्रारा० १६७७ भावस० ११५ भ० श्रारा० ४७३ भ० श्र|रा० ४८१ सम्मइ० २-१७ मूला० ८५ मूला० ३३० भ० श्रारा० १२०४ समय ० ४११ पचयणसा० १-६० भ० श्रार1० ४७० Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी १५५ - तम्हा ण उच्चणीचत्त- भ० श्रारा० १२३५ तम्हा सो उड्ढहणो भ० पारा० ७६५ तम्हा रण कोइ कस्सइ भ० श्रारा० १७६२ | तम्हा सो सालंब भावस० ३८८ तम्हा ण को वि जीवो समय०३३७ तम्हा हं णियसत्तीएं वसु० सा० ४८० तम्हा ण को वि जीवो समय० ३३६ तम्हा हु कसायग्गी भ० श्रारा० २६७ तम्हा ण मे त्ति णिचा समय०३२७ तम्हा हु सव्वधम्मा चम्मर० १४ तम्हा ण होइ कत्ता भावस० २२१ तम्हि समभूमिभागे तिलो. प० ४-२०३ तम्हा ण होइ कत्ता भावस० २३४ तयदसकोडी य पयं 'सुदख० ४६ तम्हाणाणं जीवो पवयणसा०१-३६ तय वितयं घण सुसिरं वसु० सा० २५३ तम्हा णाणीहिं सया श्रारा० सा०३८ तरुओ वि भूसणगा तिलो० ५० ४-३४४ तम्हा णाणुवोगो भ० श्रारा० ७६६ तरुगिरिभंगेहिं णरा तिलो. प०४-१५४४ तम्हा णिव्विसिदव्यं भ० श्रारा० ४५४ तरुणउ बूढउ बालु हउँ * पाहु० दो० ३२ . तम्हा णिन्वुदिकामो तिलो०प०१-४० तरुणउ बूढउ रूयडउ परम० प० १-८२ तम्हा णिव्वुदिकामो पपस्थि०१६६ तरुण-रवि-तेय-णिवहा जवू० ५० ५-१७ तम्हा णिव्वुदिकामो पचत्थि० १७२ तरुणस्स वि वेरग्गं भ० श्रारा० १०८३ तम्हा णीया पुरिसस्स भ० पारा० १७६७ तरुणि-मण-णयण-हारी वसु० सा० ३४८ तम्हा तडिव्यचवलं णाणसा०८ तरुणेहिं सह वसंतो भ० श्रारा० ५०७६ तम्हा तस्स णमाइं पवयणसा०२-०क्षे १(ज०) तरुणो तरुणीए सह मूला. १७६ तम्दा तह जाणित्ता पवयणसा० २-१०८ | तरुणा वामा दुट्ठा श्राय० ति०१-३६ तम्हा तं पडिरूवं पवयणसा०३-२४क्षे १४(ज०) तरुणो वि बुड्ढ़सीलो भ० धारा० १०७६ तम्हा तिविहं वोसरि- भ. श्रारा० ४६० तम्हा तिविहेण तुमx तरुमूलजोगभग्ग छेदपिं० १३१ मूला० ३३५ तम्हा तिविहेण तुमx छेदपिं० १२६ तरुमूलथिरादावणभ० श्रारा० ११६० छेदपिं० १३४ तम्हा थूलदिचारा छेदर्पि० ३५५ तरुमूलभोवासयतम्हा दसरण गाणं तलि अहिरणि वरिघण-वस्णु परम०प०२-११४ श्रारा० सा० १० तम्हा दु(उ) जो विसुद्धो तल्लीनमधुगविमलं गो० जी० १५७ समय० ४०७ तम्हा दु कुसीलेहि य समय०१४७ तवउल(तंबूल?)तिलयणिवहं जबू० ५०८-८६ तम्हा दुत्थि कोई पचयणसा०२-२८ तवचरण-मंत-ततं अगप०३-७ तम्हा धम्माधम्मा पंचस्थि० १५ तर्वाणजमो णिसहो जबू० ५० ३-२४ तम्हा पडिचरियाण भ० श्रारा०५२१ / तवणिन्जणिभो सेलो जबू० प० १-११ तम्हा पव्वज्जादी भ० श्रारा०५३० तवणिन्नरयणणामा तिलो० प०४-२७६५ तम्हा पुढविसमारंभो मूला० १००८ तव-णियम-जोग-जुत्तो जवृ० ५० १३-१६३ तम्हा सतूलमुलं भ० अरा० ५४६ तव तणुअं मि सरीरयह पाहु० दो० १०२ तम्हा समं गुणादो पवयणसा०३-७० तवणो अणंतणाणी जबू० ५० १३-६१ तम्हा सम्मादिट्ठी भावस. ४२४ | तव दावणु वय भियमडा (?) पाहु० दो० ११३ तम्हा सयमेव सुओ भावस०८० तवपरिसहाण भेया दव्वस० गय० ३३४ तम्हा सव्वपयत्ते मूला० ५८६ तवभावणाए पचें भ. श्रारा. १८८ तम्हा सव्वपयारं श्राय० ति०२१-३ तवभावणा य सुदमत्त- म० श्रारा० १८० तम्हा सव्वे वि गया सम्मइ०१-२१ छेदपिं० २४३ तम्हा सव्वे सगे भ० श्रारा० ११७६ भ० श्रारा० १४ तम्हा सा पल्लवणा भ० श्रारा० १००२ तवयरणं वयधरणं भावस०६ त Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ पुरातन-जैनवाक्य-सूची ति तवरहियं जणाणं मोग्यपा० ५६ | तसर्वघेण हि संहदि गो० क. १२७ तवरिद्धीए कहिद तिलो० ५० ४-१०४८ | तसवादर पजत्तं फम्मप० १०० तव-वय-गुणेहिं सुद्धा बोधपा० ५८तसमणवचिोगला- पंचम०४-३५६ तव-वय-गुणहिं सुद्धो योधपा. १८ तसमिम्मे तागि गुणों गो० २०५१० तव-विणय-सील-कलिया जबू० ५० ११-३५६ । तसरामिपुढविण्यादी- गो० जी० २०४ तवसजमप्पसिद्धो पवयणमा०१-७६ ५(ज०) तसरेणू रथरे तिलो० ५० १-१०५ तवसंजमम्मि अण्णे भ० 'प्रारा० ५८ | तमऽसंजम बज्जित्ता श्राप ति० ५३ तवसा चेव ण मोक्खो भ० पारा० १८५४ / तसऽसंजमहीणऽजमा सिद्धत.. तवसा विणा ण मोक्खो म० श्रारा. १८५६ | तमहीणो समारी गो० जी० १०५ तवसिद्धे णयसिद्धे सिन्दभ० ६ तमिदो वकतवों तिली. सा० १५५ , तवसुत्तसत्तए गत्त मूला० १४६ ! तस्म अवाप्रोपायवि- भ० श्रारा० ४६२ तवसुदवदवं चेदा दव्यसं० १७ । तस्मगिदिमाभाए तिलो. प०४-१६५३ तवेण धीरा विधुणंति पा मूला० ६०१ तस्मग्गे इगि-वामो तिलो. मा० ४११ तगड्ढीए चरिमो गो० जी० १०५ तस्स चडावंति पुणों धम्मर०५७ तव्यदिरितं दुविह गो. क० ६३ तस्स ण कम्पनि भत्तप- म. श्रारा० ०६ तव्यणमझे चूलिय- तिलो० ५० ४-१८४६ तस्स रागरस्स गया जं० प०३-२६ तव्वणमझे चूलिय- तिलो० ५० ४-१८५३ तस्स रणगरस्न गया जवृ०प००-१३ तन्वादरुद्धखेत्तं तिलो० सा० १३३ तस्म णगम्स हु मिहरे जंवृ० ५० ३-२१५ तबासरस्स आदी तिलो० सा० ८६१ तस्न णमाई लोगो पवयणमा०१-५२२ (ज०) तविदिय कप्पारणम- गो० जी० ४५३ तस्म ण सुज्झइ चरिय मूला० ६१७ तव्विवरीदं मोस : मूला० ३१४ तम्म गिमित्तं रइयं जंप०१३-१५७ तविवरीदं मोसं. भ० थारा १५६४ तस्म णिरुद्धं भणिद भ० थारा० २०१३ तबिवरीदं सव्वं भ० श्रारा०८३४ तस्स तला अइरिता तिलो० प०४-२५४ तसकाइएसु णेया पचसं०५-१६३ तस्म दु पीढस्सुवरि जंव०प०५ -४६ तसकाइया असंखा मूला० १२०६ तस्स दु पीढस्सुवरि जबू०प०६-६३ तसघादं जो ण करदि कत्ति० अणु० ३३२ तस्स दु मज्झे अवरं जबू० प०६-६२ तसचउ वएणचउक+ पंचसं०४-२८५ तस्स दु मझे णेया जबू०प०४-१३ तसचउ वएणचटक्क + पंचसं० ५-७८ तस्स दु संतढाणा पंचसं०५-२७६ तसचउ वएणच उकं पचसं०४-२६५ तस्स देसस्स णेया जंबू०प०८-१२५ तसचउ वरणच उकंx पचसं० ५-८८ तस्स देसस्स या जंबू० ५० १-१६ तसचउ पसत्थमेव य- पचसं०३-२४ | तस्स देसस्स गया जंबू० प०६-६६ तसचउ पसत्थमेव य - पचसं० ४-३१७ तस्स देसस्स मज्झे जवृ० प० ६-४६ तसचदुजुगाण मज्झे गो० जी० ७१ तस्सद्धं वित्यारो तिलो०प०४-१५० तसजीवाण ओघे गो० जी० ७२१ । तस्स पढमप्पएसे तिलो० ५० ४-१५३४ तसजीवाणं लोगो जंबू० ५० ४-१४ | तस्स पढमप्पएसे तिलो. प०४-१५६६ तसणालीबहुमज्झे तिलो० ५० ४-६ | तस्स पढमप्पएसे तिलो. प०४-१५६८ तसथावरं च बादर कम्मप०१८ | तस्स पदिएणामेरं . भ. पारा० १५१३ तसथावरादिजुयलं पचसं० ४-४११ | तस्स पमाणं दोषिण य तिलो० ५० ७-२८१ तसथावरा य दुविहा मूला० २२७ | तस्स पसाएण मए तसपंचक्खे सव्वे पंचसं०४-८४ | तस्स फलमुदयमागय .', . वसु० सा० ५४६ वसु० सा० १४४ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी १५७ ए तस्स फलं जगपदरो तिलो० सा० १३१ । तस्स विजयस्स मज्झे जबू० ५०८-१० तस्स फलेणित्थी वा वसु० सा० ३६५ तस्स वि य लोगपाला जंबू० ५० ११-३११ तस्स बहुदेसमझे जब० प० ११-२२८ तस्स हु उवरि होदि य जबू० प० ६-१५३ तस्स बहुमझदेसे ____जबू०प० ६-६० जब० प०३-१५७ तस्स बहुमज्झदेसे तिलो. ५०४-२१५१ | तस्साइ लहुबाहुँ तिलो० ५० १-२३३ तस्स बहुमज्झदेसे तिलो०प०४-१८६३ लद्धिसा० ४३४ तस्स बहुमज्झदेसे जवू० प०४-१६ | तस्सिस्साण सुद्धी छेदपि० २५६ तस्म बहुमज्झदेसे जंवू०प०६-१५० तस्सिस्साणं सोही * छेदपिं० २४७ तस्स बहुमज्झदेसे वसु० सा० ३६६ तस्सिं अज्जाखंडे तिलो० प०४-२७७ तस्स बहुमज्झभागे तिलो० ५० ४-२३४६ | तस्सिं असोय-देओ तिलो० ५० ५-२३६ तस्सभंतररुदो तिलो० ५० ४-२२६ तसि काले छन्विह- तिलो० प०४-३३४ तस्समयबद्धवग्गण गो० जी० २४७ तस्सिं काले मणुवा तिलो०प०४३६७ तस्म मुहग्गढवयणं णियमसा० ८ | तस्सि काले होदि हु तिलो. प०४-४६५ तस्सम्मत्तद्धाए लद्विसा० ३४५ | तस्सिं कुवेरणामा तिलो० प०४-१८५० तस्स य अंगोवंग पचसं० ५-१४० तिलो. प०५-२०४ तस्स य अंगोवंगं* पचस०.५-१६१ तस्सि जबूदीवे तिलो० प० ४-६० तस्स य उत्तरजीवा तिलो०प०४-१६२३ तस्सि जिणिंदपडिमा तिलो० प० ४-१५६ तस्स य उदयट्ठाणा पचसं०५-३६६ तस्सिं णिलए णिवसइ तिलो० प० ४-२५८ तस्स य एक्कम्हि दए तिलो० ५० १-१४४ तस्सिंदयस्स उत्तर- तिलो० प०८-३४. तस्स य करह पणाम बोधपा० १७ तस्सिदयस्स उत्तर- तिलो० ५० ८-३४२ तस्स य गुणगणकलिदो जवू० प० १३-१६२ तस्सिंदयस्स उत्तर- तिलो. प०८-३४८ तस्स य चूलियमाण तिलो. प० ४-१६२५ | | तस्सिं दीवे परिही तिलो. प. ४-५० तस्स य जवखेत्ताण सिलो० ५० १-२६५ | तस्मिं देवारपणे तिलो. प०४-२३१५ तस्स य थलस्स उवरि तिलो० ५० ५-१८७ / तस्सिं पासादवरे तिलो० ५० ४-१६६३ तस्स य दीवस्सद्ध जवू० प० ११-५८ | तस्सि पासादवरे तिलो. प०४-१९६५ तस्स य पढमपएसे तिलो० प०४-१२७५ तस्सिं पि सुसमदुस्सम- तिलो० ५० ४-१६१४ तस्स य पुरदो पुरदो तिलो० प०४-१८६६ | तस्सि वाहिरभागे तिलो० प०४-२७३२ तस्स य वत्तसुभवणे तिलो० ५०४-२३५६ तस्सिं सजादाणं तिलो० प० ४-३६८ तस्स य सहलो जम्मो कत्ति. अणु० ११३ तस्सिं सजादाण तिलो. प०४-४०६ तस्स य सतट्ठाणा पचस०५-३६६ तस्सुच्छेहो दडा तिलो० ५० ४-४४४ तस्स य सतट्ठाणा पचस०५-४०६ तस्सुच्छेहो दंडा तिलो. प. ४-४४८ तस्स य सतहाणा पचस० ५-४१२ तिलो० प० ४-४५३ तस्स य सामागीया तिलो०प०५-२१४ | तस्सुच्छेहो दंडा तिलो० ५० ४-४६० तस्स य सिस्सा गुणव दसणसा० ३. | तस्सुत्तरदारेणं तिलो० ५० १-२३५१ तस्म रतस्स पुणो धम्मर० ४३ तस्सुप्पएणो पुत्तो भावस० २१४ तस्स वणस्स दु मज्झे जवू०प०४-४८ तस्सुवदेसवसेण तिलो०प०४-१३२५ तस्स वयणं पमाणं जवृ० ५० १३-१३७ गो० जी०१०४ तस्स वरपउमकलिया। जबू० प० ३-७६ | तस्सुवरि सिद्धाणलय वसु० सा० ४६३ तस्स वि उत्तममज्झिम- श्राय० ति० २३-४ तस्सुवरि सुक्कलेस्सा पचस०५-३६८ तस्स विजयस्स ऐया जबू०प० ८-११६ । तस्सुवरि पासादो तिलो० सा० २८६ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची तस्सूजीए परिही तिलो. प० ४-२८३० | तह णाणिस्स दु पुवं समय०१० तस्सेव अपज्जत्ते पचस०५-३२४ समय०२२१ तस्लेव कारणाणं कत्ति० श्रणु० १३५ । तह णाणी वि हु जइया समय. २२३ तस्सेव य उच्चत्तं जबू० प० ६-८५ तह णिययवायसुविणिच्छिया सम्मइ० १-२३ तस्सेव य वरसिस्सो* जबू० ५० १३-१५५ तह णीलवंतपउरो जवृ० प० ६-२२ तस्सेव य वरसिस्सो जवृ० प० १३-१५६ तह णोकसायछक्क पचस०३-३८ जंबू०प०१३-१६० तह ते चेव य रूवा जबू०प० १२-६० तस्सेव सतकम्मा पघस०५-४०१ तह दक्खिणे वि णेया जबृ० ५० ६-१६३ तस्सेव होति उदया' पचसं० ५-४०३ । तह दंसणउवओगो णियमसा० १३ तस्सोरालियमिस्से पंचसं०५-३५३ तह दाणलाहभोगुव क्म्मप०१०३ तस्सोलसमणुहि कुला- तिलो. सा० ८७२ तह दिवसियरादियपक्खिय- मूला० ६६५ तस्सोवरि सिदपक्खे तिलो० ५० ४-२४४४ तह पुण्णभदसीदा तिलो. ५०४-२०५६ तह अहदिग्गइंदा तिलो०प०४-२३६३ तह पुवफग्गुणीए रिट्ठस० २४६ तह अट्ठवीसबंधे पचस० ५-२२७ तह पुडरीकिणी वा- तिलो० ५० ५-१५८ तह अण्णाणी जीवा भ० श्रारा० १७८४ तह बारहवासे पुण णदी० पट्टा० ० तह अद्धमडलीओ तिलो० सा० ६८५ तह भाविदसामएणो भ० श्रारा० २३ तह अद्ध णाराय कम्मप० ७६ | तह मणुय-मणुसणीयो पसं० ४-३४० (ख) तह अप्पणो कुलस्स य भ० श्रारा० १५२५ / तह मरड एकओ चेव भ० श्रारा० १७४६ तह अप्पं भोगसुहं भ० थरा० १२५६ तह मिच्छत्तकडुगिदे भ. श्रारा० ७३४ तह अवबालुकाओ तिलो० प० २-१३ तह मुझंतो खवगो भ. श्रारा० १५०४ तह आयरिश्रो वि अणुज्ज- भ० श्रारा० ४८० | तह य अवायमदिस्स दु जंबू०प० ६३-६० तह आवडिदप्पडिकूल- भ० श्रारा० १५२१ तह य असएणी सएणी गो० क० २३६ तह उवसमसुहुमकसाए पचस०५-२८४ तह य उबटुं कमलं तिलो० प०८-६३ तह खाणेसु वि उदयं पचस० ५-४११ तह य जयती रुचकुंतमा तिलो० ५० ५-१७६ तह चंडो मणहत्थी मूला० ८७५ तह य तदीयं तीसं पंचस०४-२६६ तह चेव अपयडी पचस० ३-४६ तह य तदीय तीस पंचसं० ५-६२ तह चेव णोकसाया भ० श्रारा० २६८ तह य पभजणणामो तिलो० प० ३-१६ तह चेव देसकुलजा- भ० श्रारा०४३१ तह य तिविट्ठ-दुविट्ठा तिलो० प० ४-५१७ तह चेव पवयणं सव्य- भ० श्रारा० ४६३ तह य महाहिमवंतो जवू० प० ३-१६ तह चेव भद्दसाले जबू०प०४-७४ तह य विसाखाइरिओ जव० ५० १-१४ तह चेव मञ्चवग्घपरद्धो भ. श्रारा० १०६४ तिलो० प०४-१२४ तह चेव य तदेहे भ. श्रारा० १५६४ तह य सुभदा भद्दा तिलो. प०६-५३ तह चेव सयं पुव्वं भ० श्रारा. १६२७ तह य सुवरणादीणं छेदस० ८६ तह जाण अहिंसाए भ० श्रारा० ७८८ तह वि ण सा वभहच्चा भावस. २४८ तह जीवे कम्माण समय०५६ तह वि य चोरा चारभ- भ० श्रारा० ११५२ तह जोइज्जइ सणं __ रिट्ठस० १७२ | तह वि य सच्चे दत्ते समय० २६४ * यह गाथा स्याद्वाद महाविद्यालय बनारस और ऐ० म. श्रारा० १०५ पन्नालालसरस्वती भवन बम्बईकी प्रतियोंमें नहीं है। तहविह भअगचक्के रिट्ठस० २२३ सेठ माणिकचन्द बम्बई और भण्डारकर प्रो० रि० तह सयण सोधणं पि य मूला० ६६७ इ० पूनाकी प्रतियोंमें पाई जाती है। | तह सव्वविज्जसामी जब० ५० १३-१०० Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी १५६ a. तह सव्वे रणयवाया सम्मइ० १-२५ / तं तस्स तम्मि देसे कत्ति० अणु० ३२२ तह संजमगुणभरिदं भ० श्रारा० ५०४ तं तारिससीदुण्हं वसु० सा० १४० तह ससारसमुद्दे भावसं० ११० | त तिएिणवारवग्गिद- तिलो० सा०५० भावस०५८२ तह सामरणं किच्चा भ० श्रारा० १२८० | त व्वं जाइसमं । तह सिद्ध णिसध हारिद जवू० ५० ३-४२ तं दहपउमस्सोवरि तिलो० ५० ४-१७६० तह सिद्धसिहरिणामा जवू० ५० ३-४५ | त दुम्भेय पउत्त भावस० ६४२ तह सुप्पबुद्धपहुदी तिलो० ५० ८-१०५ | तं देवदेवदेवं पवयणसा०१-७६२०६(ज०) तह सुहुमसुहुमजेहें गो० क. २३८ | त ण खु खमं पमादा भ० श्रारा० ४६६ तह सूरस्स य बिंद रिट्ठस० ४६ | तं पक्खं जाणेहि य (उत्तरार्ध)* रिट्ठस० १६७ तह सो लद्धसहावो पवयणसा० १-१६ / तं पढिदुमसभाये मूला० २७८ तह होइ सेट्ठरासी जबू०प०७-२५ | तं परियाणहि दवु तुहुँ परम०प०१-२७ तहा च वत्तणीयातं अगप०२-६६ | तं पंचभेय उत्त भावस० ३३१ तहिं तरणामदु-वाणा तिलो० सा० ६०६ तं पायडु जिणवरवयणु सावय० दो० ६ तहिं च उदीहिगिवासक्खंधा तिलो० सा० १००० | त पि अ अणुपट्टावण- छेदपिं० २६३ तहिं सव्वे सुद्धसला गो० जी० २६६ तं पि य अगम्मखेत्तं तिलो० ५० ७-६ तहिं सेसदेवणारयगो० जी०२६८ भावस० १६ तहिं होइ रायधाणी जब० प०८-२८ त पुण अट्ठविहं वा ४ गो० क०७ त अपत्त आगमि भणिउ सावय० दो० ८३ | तं पुण ठाढविहं वा x कम्मप०७ तं उजाण सीयलछायं तिलो० ५० ४-८८ भावस० १०८ त उवरि भणिस्सामो तिलो० सा० १३ | त पुण चउगोउरजुद तिलो सा०६८ तं एयत्तविहत्त समय० ५ / त पुरण णिरुद्धजोगो भ० श्रारा० १८८६ त एवं जाणतो भ० आरा० ५४५ ' तं पुण सपरगणट्ठिय- छेदपिं० २८१ तं कर्यातप्पडिरामि तिलो० सा०४३ | तं फुड दुविहं भणिय भावसं० ३७४ तं किं ते विस्सरियं वसु० सा० १६० तं धंतो चउरो पंचसं०४-२५१ तं खलु जीवणिवद्धं समय० १३६ तं वाहिरे असोय तिलो. प०३-३१ त गुणदो अधिगदरं पवयणसा०१-६८क्षे (ज) तबोल-कुसुम-लेवण णाणसा० ११ त चिय पचसयाइ तिलो० ५० १-१०८ तबोलोसहु जलु मुइवि साबय० दो० ३७ त चेव गुणविसुद्ध चारित्तपा०८ तं मणि थभग्गठियं तिलो० सा० १००६ तं चेव थिरेसु सुह श्राय० ति०५-३ तं मिच्छत्तं जमसदहणं + भ० श्रारा० ५६ ० तं चेव य यंधुदय पचसं०५-२४३ | त मिच्छत जमसद्दहणं + पचस० १-७ तं चोदसपविहत्तं तिलो० ५० ७-१२५ | त रासिं पुव्व वा तिलो० सा० ४५ तं जाण जोगउदय समय० १३४ तं रुदायामहिं तिलो०प०४-१६०० त जाण विरूवगयं तिलो० सा० ८३ तं स्वसहिदमादी तिलो० सा० ६५ त जीवाए चाव तिलो०प०४-१८४ तं लइ गुरूवएसो ढाढसी० ३३ तंणत्थि जंण लम्भइ भ. श्रारा० १४७२ | त लहिऊण णिमित्त भावस. १४३ तणत्थि जंण लभइ धम्मर०६ तं वग्गे पदरंगुल- तिलो० ५० १-१३२ त गरदुगुच्चहीण लद्विसा० २३ | तं वरणदि अप्पवल श्रगप० २५० तणा(तरणा)मा किरणामिद- तिलो०प० ४-११२ * पूर्वार्ध उपलब्ध न होनेसे उत्तरार्द्धवा प्रथम चरण त णिच्छये ण जुज्जदि समय० २६ | दिया है । आगे भी जहाँ 'उत्तगध' लिखा है वहाँ त णियणाणु जि होइ ण वि परम० ५० २-७६ । ऐसा ही जानना । Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची तं वत्थु मोत्तव्यं भ० श्रारा० २६२ ताण विदीणं हेट्ठा तिलो० प० २-१८ तं वयण सोऊणं भावस० १४७ ताण जुगलाण देहा तिलो० प०४-३८३ तं विजउत्तरभागे तिलो०प०४-२३५३ ताण गयराणि अंजण- तिलो० ५० ६-६० तं विवरीओ बंधइ भावपा० ११६ ताण दहाणं होंति हु जव०प० ६-४४ त विविह-रइद-मंगल- जं० प० ६-१०२ ताण दुवारुच्छेहो तिलो० प० ४-३१ तं वीहीदो लंघिय तिलो. प०७-२०८ ताण पवेसो वि तहा वसु० सा० ३८ तवेदीए दारे तिलो०प०४-१३५६ ताणभंतरभागे तिलो. प० ४-७६३ तं वेदीदो गच्छिय तिलो० ५०८-४२४ ताणभंतरभागे तिलो. प० ४-७४६ त सम्भावणिवद्धं पवयणसा०२-३२ | ताणभंतरभागे तिलो. १०४-७६५ तं सम्मत्त उत्तं भावसं० २७२ / ताण भवणाण पुरदो तिलो. प० ४-१६१८ तं सव्वट्ठवरिटुं पवयणसा० १-१८क्षे० १ (ज०) ताण य पचक्खाणा तिलो० प० २-२७४ त सिरिया(हि सिरी)सिरिदेवी तिलो०५०४-१६७० छेदर्पि० २७ तं सुगहियसरणासो __ आरा० सा. ६५ ताण सरियाण गहिर । तिलो० प०४-१३३६ तं सुद्धसलागाहिद गो० जी० २६७ | ताणं उदप्पहुदी तिलो०प०४-१७५७ तं सुरचउक्कहीणं लद्धिसा० २२ ताण उवदेसेण य तिलो० प०४-२१३५ त सुविगिम्मलकोमल- जबू० ५० ११-१६५ ताण कणयमयाणं तिलो०प०४-८७७ त सोढुमक्खमो तं तिलो० सा०८५४ ताणं कप्पदुमाणं जंवू. ५० ५-७० त सोधिदूण तत्तो तिलो०१०१-२७५ ताण गुहाण रुंद तिलो० ५०४-२७५० । । त सो बंधणमुक्को भ० श्रारा० २१२७ ताणं गेवेज्जाण तिलो० प०८-१६७ तं होदि सयगालं मूला० ४७७ ताणं च मेरुपासे तिलो०प०४-२०२६ ता अच्छउ जिय पिसुणमइ सावय० दो० १५० ताणं णयर-तलाणं तिलो. ५०-६० ताई उवसमखइया तिलो० प० २-१८ ताणं णयर-तलाण तिलो०प० ७-६७ ताई चिय केवलिणो तिलो० ५० ४-११५३ ताणं णयर-तलाण तिलो. प०७-१०२ ताइ चिय पतेक तिलो. प० ४-११६६ ताणं णयर-तलारिण तिलो० ५० ७-१०५ ता उज्जलु ता दिदु कुलिणु सुप्प० दो० ४१ | ताणं णयर-तलाणिं तिलो. प० ७-६४ ताए अधापवत्तद्धाए लद्धिसा० ४३ ताण दक्खिणतोरण- तिलो. प० ४-२२६६ ताए गह-रिक्खाणं जंब० ५० १२-३५ ताणं दिणयरमडल- तिलो० प० ४-८४ ता एरिहं विस्सासं तेलो० ५० ४-४४२ | ताणं दोपासेसं तिलो०प०४-२५३४ ° ताए पुणो वि उज्झइ धम्मर० ३८ ताणं पइएणएसु तिलो० प० ८-५२२ ताओ आबाधाओ तिलो० प०७-५८६ | ताणं पि अंतरेसु तिलो० ५०४-१८८५ ताओ उत्तरअयणे तिलो. सा० ४१८ ताणं पि मज्झमागे तिलो. प०४-७६१ ताओ चउरो सग्गे तिलो. सा० ५०६ ताणं पुण ठिदिसतं लद्धिसा० ५७७ ताओ चउवीसगुणा पचस० ५-३१५ ताणं पुराणि णाणा- तिलो० प०७-१०६ ताओ तत्थ य णिरया पचस०४-३३० ताण मज्झे णिय-णिय- तिलो०प०४-७६४ ता कज्जे लहु लग्गहु ढाढसी० १६ ताणं मूले उवरिं तिलो. १०३-४१ ता किह गिण्हदि देह कत्ति० अणु० २०१ | ताण मूले उवरि तिलो. प० ४-७७६ ताडण तासण दुक्ख धम्मर. ७६ ताणं मूले उवरिं तिलो०प०४-१९३१ ताडण तासण बधण * तिलो. प० ४-६१६ तारणं रुप्पय-तवणिय- तिलो. प० ४-२०१४ ताडण तासण बंधण * भ० श्रारा० १५८२ | ताणं वरपासादा तिलो. प० ४-१६५१ ताण कमेण य छेदो छेदस० ११ । ताणं वरपासादो तिलो०प०४-२४५२ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · མ ताणं विमाणसंखा तारण सभाघरा ताणं सभाघराणं ताणं समयबद्धा ari हम्मादी ताणं ट्ठम-मज्झिम प्राकृतपद्यानुक्रमणी ता सिह जहयारं ता हु रागविवागाताणोवरि दियाई तारणावर भवराणि ताणोवरमपुरे तादे गभीरगज्जो तादे रुवगभी तादे चत्तारि जणा तादेता उदया तादे दुस्समका ता देवी हो तापविमदियिमा तादे हे (ए) सा चसुहा ता देहो ता पाणा तावे बहुविहओसहिता रसजलवाहा ता भुजिज्जउ लच्छी ताम कुतित्थ परिभमइ ताम कुतित्थ परिभमइ तामच्छउ तउमडयहॅ ताम गज्जइ अप्पा तामिस्सगुहगमुत्तरतारणमल्लो पा तारंतरं जहुरण + तारतरं जहरणं + ताराकित्तियादिसु तारा रविचंद तारा- गहू- रिक्खाण तारा-य जलि चिंवियर तारिस पत्थरी तारिसपरिणामट्टिय - x तारिसपरिणामट्टिय - x तारिसयममेज्झमयं तारिसिया होइ छुहा तिलो० प०८-३०२ तारुणं तडि-तरलं ता सिऊण प ताव खिदिपरि हिदीए ताम मे कार्टु तावरण जादि गाणं ताव सुहं लोया भावसं ० ४६७ | तावे खग्गपुरीए भ० श्रारा० २१५२ | तावे सह- गिरिदे तिलो० प०४-२ तावे तग्गरिमझिम तावे तग्गिरिवासी तावे मुहुत्तमधियं ता सव्वत्थ चिकित्ती ता संपवियप्पा ता सतिरणा पउत्तं तासिमपज्जत्तीणं तासिमपज्जत्तीगं तासिमस खेज्जगुरणा तासं पुण पुच्छाओ ता सुयसायरमहणं ताली दिढ दिइ ता हुमका जोगे तासुं अज्जाखंडे ० अ० १२ ताहे अणुद्दिसं किर जोगसा० ४१ तापुव्वफड्डय पाहु० दो० ८० ताहे सखगुणिय सावय० दो० ३१ | ताहे कोहुच्छि मोक्खपा० ६६ ताहे चरिमसवेदो तिलो० सा० ७३३ | ताहे व्यवहारो ढाढसी० २७ | ताहे मोहो थोवो तिलो० सा० ३३५ | ताहे सक्कारणाए जबू० १० १२-१८ | ताहे संखसहस्सं तिलो० प० ७ - ४६४ / ताहे संजलगाणं रिस० ५४ | ताहे संजलगाणं जबू० प० १२-३५ ताहे संजलरगाणं परम० प० १ - १०२ ताहे सजलरगाणं भ० रा० ६७८ | तिकरणबंधोमरणं पचसं० १-१६ |तिकरण मुभयो सरणं गो० जी० ५४ तिक्कायदेवदेवी भ० रा० १८१६ | तिक्कालचिविसय तिक्काले चदुपारणा धम्मर० ७० जबू० प० १-३६ ज० ० ५ - ४१ गो० जी० २४५ तिलो० प०४-८११ तिलो० प० ४- २४६० तिलो० प० ५-१४७ तिलो० प० - १३८ तिलो० प०४-१५४७ तिलो० प० ४- १५४३ तिलो० प० ४-१५२८ तिलो० प० ४ - १५६५ तिलो० प० ४ - १५६५ तिलो० प० ८- ५७४ तिलो० प० ४--१६०४ तिलो० प० ४- १५६६ भावस० ५२० निलो० प०४-१५७१ तिलो० प० ४ - १५५६ कत्ति १६१ तिलो० प० ४-६३८ भावसं० १५३ तिलो० प० ७-३६१ म० प्रा० १६० सीजपा० ४ श्राय० ति० १६-१ तिलो० प० ७-४३७ तिलो० प० ७-४४६ तिलो० प० ४- १३२९ तिलो० प० ४- १३२४ तिलो० प० ७-४३८ कत्ति ० श्रृणु ० १० ४२६ पाहु० दो० १४२ भावस० १५१ भावति० ६० भावति० ६५ पचस ० ४-५११ मुला० १७८ दव्वस० य० ३२६ पाहु० दो० ८३ वसु० सा० ५३४ तिलो० प० ४-१३७१ जबू० प० ११-३३७ लद्विसा० ४७३ ल हिसा० ४४४ लद्धिसा० ५०६ लद्धिसा० ३६० लद्धिसा० ४७२ लद्विसा० ४४३ तिलो० प० ४-७०८ लद्धिसा० ४४२ लद्धिसा० ४६० लहिसा० ४६३ लद्धिसा० ५३५ लद्धिसा० ५४७ दिसा० २१८ लद्विमा० ३८६ पचस० ४-३४४ पवयणसा० १-५१ दव्वस० ३ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ पुरातन-जैनवाक्य-सूची तिक्काले ज सत्तं दवस० गय० ३६ / तिरिणसयाणिं पण्णा तिलो० ५० ४-११५६ तिगईसु सएिणजुयलं सिद्वत. ४ | तिरिण-सया तेसट्ठी क्ल्लाणा०११ तिगुणा सत्तगुणा वा गो० जी० १६२ । तिएिण-सहस्सा छस्सय तिलो. प०७-५६६ तिगुणिय-पंचसयाइं तिलो. प०४-११२० | तिरिण-सहस्सा छस्सय तिलो० प० २-१७३ तिगुणियवासं परिही तिलो. सा० ३११ तिरिण-सहस्सा णव-सय तिलो० प० २-१७६ तिगुणियवासा परिही तिलो. प० ५-२४६ तिरिण-सहस्सा ति-सया तिलो० ५० ४-१९४३ तिग्गिंछादो दक्षिण- तिलो० ५० ४-१७६८ तिरिण-सहस्सा ति-सया तिलो०प०४-२४३० तिकणवबारसगुणिदा- छेदपिं० १८ | तिरिण-सहस्सा ति-सया तिलो० ५०४-२०१० तिहाणे सुण्णाणिं तिलो. प० ३-८२ / तिएिण-सहस्सा दु-सया तिलो. प० २-१७६ तिहाणे सुरणारिणं तिलो० प० ३-८६ तिरिण-सहस्सा दु-सया तिलो० प० ४-१९८३ तिणकट्ठण व अग्गी मुला०८० तिरिण सुपासे चंदप्पह- तिलो०प० ४-५०१० तिणकारिसिट्ठपागग्गि- गो० जी० २७५ | तिषणेगे एगेगं ५ गो० क. ५०६ तिणहंचउचउदुगणव- श्रगप०१-५२ तिएणगे एगेगंx पचस०५-३० तिरिण च्चिय लक्खाणि तिनो प०८-२२४ / तिषणेव उत्तराओ तिलो० ५० ७-५९६ तिरिण णया भूदत्था दव्वस० णय० २६५ । तिषणेव उत्तराओ तिलो० प०७-५२५ तिरिण तदा भूवासो तिलो. प० १-२५८ तिएणेव गाउआई मूला० १०७३ तिरिण दस अट्ठ ठाणा- पचसं०४-२३८ तिएणेव दु बावीसे गो० क० ५९६ तिएिण दस अट्ठ ठाणा- गो० क० ४५८ । तिषणेव य कोडीओ जबू० ५०४-१५६ तिएिण दु वाससहस्सा मूला० ११०७ तिषणेव य परिसाण जबू० प०६-१३८ तिएिण-परिसेहि सहिया जंवू० ५० ८-६२ तिण्णेव वरदुवारा जंबू० प०६-१८२ तिरिण-पलिदोवमाऊ जबू. ५०६-१७० तिएणेव सयसहस्सा जबू० ५० ११-६८ तिरिण पालदोवमाणिं तिलो० प० ३-१५१ . तिरणेव सहस्सद्धं जबू० प०३-२१० तिएिण-महएणवउवमा तिलो० ५०८-४६४ तिषणेव सहस्साई पचस० ५-३८२ तिरिण य अंगोवंग पंचसं० ३-६१ ' तिषणेव हवे कोसा जबू० प०८-६४ तिरिण य अंगोवंगं पचसं० ४-४४८ । तिषणेव होति वंसा जवृ० प० ७-६० तिरिण य चउरो तह दुग सायपा० ५२ तिषणेवाज्य(ग)सहुमं पचस० ४-४५८ तिषिण य दुवे य सोलस मूला० १२२७ तिरह खलु कायाण मूला० ११६४ तिरिण य परिसा तिरिण य जंवू०प०११-३०२ | तिरहं खलु पढमाणं + भावस० ३४१ तिरिण य वसंजलीओ भ० श्रारा० १०३४ । तिण्हं खलु पढमाण + पंचस०४-३८५ तिरिण य सत्त य चदु दुग पचस० ४-४०८ तिरह खलु पढमाणं + मूला० १२३७ तिरिण व पंच व सत्त व मूला० १६४ , तिरह घादीणं ठिदि लद्धिसा० ५६५ तिरिण वि उत्तरसरिसा श्राय० ति०१७-११ तिरह दोण्हं दोपहर पंचसं० ५-१८८ तिरिण वि उप्पायाई सम्मइ० ३-३५ : तिराहं दोण्हं दोण्हं. गो० जी०५३३ ति एण वि परिसा कहिया जवू० ५० ४-१५५ तिरहं दोण्हं होण्हं * मूला० ११३६ तिरिण-सदा एक्कारा ' जबू० प०१-६६ तिण्हं सुहसंजोगो मूला० १०१८ तिरिणसयजोयणाणं गो० जी० १५६ तित्तं कडुव कसाय कम्मप० ६२ तिएिणसयजोयणाण तिलो० सा० २५० तित्तादिविविहमपण तिलो. प० ४-६०७२ तिएिणसयसट्ठिविरहिद- गो० जी० १६६ तित्तियपयमेत्ता हु अगप० ३-४ तिरिणसया छत्तीसा कल्लाणा०५ ' तित्तियमेत्तो लोहो धम्मर०६८ तिएिणसया छत्तीसा गो० जी० १२२ तित्तीए असंतीए भ० श्रारा० ११४५ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी १६३ तित्थइ देउलि देउ जिणु जोगसा० ४५ | तित्थयराण कोधो भ० धारा० ३०८ तित्थ तित्थ भमतयह पाहु दो० १६२ | वित्थयराण पडिणी मूला० ६६ तित्थइ तित्थ भमंतयहँ पाहु. दो० १७८ तिलो. प०८-६४३ तित्थयराणं समए तित्थ तित्थ भमेहि वढ पाहु० दो० १६३ तित्थयरा तम्गुरो तिलो० ५० ४-१४७१ तित्थइँ तित्थु भमताह परम०प०२-८५ तित्थयरादीणमवण्ण छेदपिं० १५८ तित्थएणदराउदुगं गो० क. ३७४ तित्थयराहारजुयल पंचसं०४-३७५ तित्यद्धसयलचक्को तिलो० सा० ६८१ तित्थयराहारदुअं पचस०३-५४ तित्थपयट्ठणकालस- तिलो० प० ४-१२७३ तित्थयराहारदुआं पचम०३-७३ तित्थयर-केवलि-समण- दव्वस० णय० ३१५ तित्थयराहारदुधे पचसं०३-७६ तित्थयरमागधराण छेदपिं० २७६ तित्थयराहारदुओं पचस०४-३७२ वित्थयर-गणहराइ भावपा० १२६ तित्थयराहारदुध पंचसं०४-३७८ तित्थयर-गणहराणं सुदख० १५ तित्थयराहारदुयं ४ पंचस०४-३०० तित्थयर-चक्कधर-वा- भ० श्रारा० ६६६ / तित्थयराहारद्वयं x पचस० ५-६३ तित्थयर-चक्कवट्टी- जवू० प० ६-६५ तित्थयराहाररहिय पचस०५-१५६ तित्थयर-चक्कवट्टीसुदख० ३१ तित्थयराहारविरहि पचसं०५-४७२ तित्थयर-पक्कि-बल-हरि तिलो० ५० ४-५१०) तित्थयरुदंक पोट्ठिल तिलो० सा० ८७४ तित्थयर-णराउजुया पचस०४-३५३ तित्थयरूणा मिच्छा पंचसं०४-३४२ तित्थयरणामकम्म तिलो०प०४-१५८२ तित्थयरेदरसिद्ध सिद्धभ० २ तित्थयरत्त पत्ता मावस० ६७५ तित्थयरो चदुणाणी भ० श्रारा० ३०२ तित्थयर देवणिरया- पचस० ५-४७६ | तित्थहि देवलि देउ ण वि जोगसा० ४२ तित्थयरपरमदेवा जबू० प०७-६१ तित्थाऊ चुलसीदी तिलो० सा० ८०५ तित्थयरपरमदेवा जवू. प०८-३७ पचस्थि. १११ तित्थयरपरमदेवा जबू०प०१-१६४ | तित्थाहारच उक्कं गो० क० ३७३ तित्थयर-पवयण-सुदे म. थारा० १६३७ | तित्थाहारा जुगवं गो० क. ३३३ तित्थयर-भासियत्थं भावपा०६० | तित्थाहाराणतो* गो० क० १४१ तित्थयर-माण-माया गो० क० ३२२ | तित्थाहाराणतो* कम्मप० १३७ तित्थयरमेव तीसं+ पंचसं०३-२५ तित्थाहारे सहियं गो० क० ३७७ तित्थयरमेव तीसं+ पंचस० ४-३१८ तित्थेणाहारदुग गो० क. ५२६ तित्थयरवयणसंगह सम्मइ०१-३ तिदय पण णव य खं णभ तिलो०५०४-२८७७ तित्थयरसत्तकम्म कम्मप० १५६ तिदसाऽभव्बे सम्बे सिद्धत० ३० तित्थयरसत्तणारय गो० क०७४ तिदु इगि पदिणउदि पचस०५-२०६ तित्थयर सह सजोई पचस०५-१७३ गो. क. ६०६ तित्थयरसघमहिमा तिलो०प०३-२०४ गो० ० ६८४ तित्थयरसतकम्मुवसग्गं तिलो० सा० १६५ | तिदुइगिबंधेक्युदये गोक०६७६ तित्थयरसुरणराऊ- पचसं० ४-३७६ (ख) तिदुगेक्ककोसमुदयं तिलो. सा. ७८३ तित्थयरस्स तिसंझे अगप० १-४५ । तिहार-तिकोणाओ तिलो. प० २-३९२ तित्थयर उस्सास * गो. क. ५० ति-पयारो अप्पा मुणहि परु जोगसा० ६ तित्थयरं उस्मासं: कम्मप० १२१ | ति-पयारो सो अप्पा मोक्खपा० तित्थयरं वन्जित्ता पचस० ५-१७७ तिप्परिसाणं आऊ तिलो०प०३-१५४ तित्थयराणं काले तिलो० प० ४-१५८५ | तिप्पंचदु उत्तरिय तिलो०प०७-५२८ शादी Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची तिविपचपुरणपमाणं ___ गो० जी० १७६ | तिय तिय अड णभ दो चउ तिलो०५०४-२८९२ तिभुजुदयूणहयुच्चं तिलो० सा० ५२० तिय तिय एकतिपंचा तिलो० ५० ४-३२६ निमिपूरणासहि दसणसा० ७ तिय तिय दो दो खं राम तिलो० ५० ४-२८५७ तिमिरहरा जइ दिट्ठी पवयणसा० ५-६७ तिय तिय पंचेकारा- तिलो० सा० ४४५ तिमिसगुहम्मि य कूडे तिलो० ५० ५-१६६ | तिय तिय मुहुत्तमधिया तिलो० ५० ४-४४० तिमिसगुहा रेवद वेसमणं तिलो०५०४-०३६६ | तिय दडा दो हत्था तिलो० प० २-२२२ तिय अट्ट एवतिया तिलो० ५० ७-३४८ | तिय दो छञ्चउ णाव दुग तिलो० ५०४-२६६८ तिय अट्रणवतिया तिलो. प०७-३६६ तिय दोणवाभचउचउ तिलो. प. ४-२८८ तिय अटारस सत्तरस तिलो० ५०८-१६१ । तिय पण खंदग राणव तिलो.प. ४-५ तिय इग णभ इग छच्चउ तिलो०५० ४-२८८४तियपणछवीसबधे गो० ० ७४२ तिय इग दु ति पण पणय तिलो०५०४-२६४५ तिय पण दुग अड गवयं तिलो०५० ४-२६२६ तिय इग सग णभ च उतिय तिलो०ए०४-२६०७ | तिय-परिणामा एदे भावति० ११३ तिय उणवीसं छत्तियतालं गो० क० १०४ तिय पुढवीए इंदय- तिलो०प०२-६७ तिय एक एक अट्ठा तिलो० ५० ७-४१३ | ति-यरण सव्वविसुद्धो मूला० ६८६ तिय एकंवर णव दुग तिलो० ५० ४-२३७४ | ति-यरणसव्वासय भ० श्रारा०५०६ तियकालयोगकप्प श्रगप०३-३० तिय-लक्खा छासट्टी तिली. ५० ४-२५६३ तियकाविसयरवि गो० जी० ४४० तिय-लक्खागि वासा तिलो. प०४-१४६४ तियगुणिदा सत्तहिदो तिलो. प० १-१७१ | तिय-लक्खूणं अतिम- तिलो० ५० ५-२७० तिय चउ चउ पण चउ दुग तिलो०प०४-२६८८ / तिय-चचि-चउ-मण-जोए पचस० ४-१० तिय चउ सग णभ गमण तिलो०प०४-२८६६ तिय-वासो अडमासं तिलो० ५० ४-५२३७ तिय छदो दो छएणभ तिलो० प० ४-२८६८ तिय-सय चउम्सहस्सा तिलो० ५० ४-५२३४ तियजोयगालक्खाई तिलो० ५० ७-२५५ तियसिंटचावसरिसं तिलो०प०४-१४५ तियजोयणलक्खाई तिलो० ५० ७-१७६ तियसिंदचावसरिसा जंबू० प० २-४७ तियजोयणलक्खाणिं तिलो. प० २-१५३ जब प०४-०७ तियजोयणलक्खाणिं तिलो० प० ७-१६२ तिय सुरणं पणवग्गं अगप० २-८ तियजोयणलक्खाणि तिलो० प० ७-१६६ तियहीसेढिछेद- तिलो० सा० ३५६ तियजोयणलक्खाणिं तिलो० ५० ७-१६६ ति-रदणपुरुगुणसहिदे मूला० ४२० तियजोयणलक्खाणिं तिलो० प०७-१७५ तिरधियसयणवणउदी गो० जी ६२४ तियजोयणलक्खाणं तिलो० प०७-१७८ तिरिएहिं खज्जमाणो कत्ति० अणु० ४१ तियजोयणलक्खाणिं तिलो० प० ७-२५६ तिरिणरमिच्छेयारह पसं० ४-४५७ तियजोयणलक्खाणिं तिलो० प० ७-४२४ तिरियअपुगणं वेगे गो० क० ३०६ तियजोयणलक्खाणिं तिलो० प० ७-४२६ तिलो०प०१-२७४ तियठाणेसुं सुण्णा तिलो. प० ७-४२८ तिरियगइमणुय दोरिण य पंचसं० ४-४०६ तिय गभ अड सग सग पण तिलो०प०४-२६५५ तिरियगई अटेणं गाणसा० १३ तियणभछण्णाव तिरपट्टम तिलो० सा० ७५५ तिरियगई उववरणा भावस. २८ तियणवएक्कतिछक्का तिलो० ५० ७-३६० | तिरियगईए वि तहा वसु० सा० १७६ तिय णव छक्कं णव इगि तिलो. प० ४-२६३२ / तिरियगई ओरालं पचसं० ४-४२४ तिय णव छस्सग अड लभ तिलो०प०४-२८७२ तिरियगई तेवीसं पसं०५-४१७ तिय तिगुणा विक्खंभा जवृ० प० -४६ तिरियगदि अणुपत्तो भ. श्रारा० १५८१ तिय तिरिण तिरिण पण सग तिलो०५०४-२६७४ तिरियगदि लिंगमसुहति- भावति० ११२ तिला० Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त तिरियगदीए चोइस तिरियगढी (ई) ए चोइस तिरियगदीए चोइस ' तिरियगदीए वि तहा तिरियचउक्कारणोघे तिरिय (ग) दुगुज्जोवो विय तिरियदु जाइचउक्क तिरियदुवे मरण्यदु तिरियल्लोयायारं तिरियंति कुडिलभावं + तिरियंति कुडिलभाव + तिरियाई उवसग्गे तिरिया उग- देवाउग तिरियाय च मोत् तिरियाउ तिरियजुयलं तिरियाउस्स य उदए x तिरियाउस्स य उदए x तिरियाऊ तिरियदुयं तिरिया तिरियईए तिरिया भोगखिदीए तिरिया वितेसु या तिरिये वरं घो तिरिये श्रघो तित्था तिरिये प्रोघो सुरगरतिरिये तित्थसत्त तिरियारं तीसे तिरियेयारुव्वेल्लरण तिरियेव गरे वरि हु तिलोसत्तरिणमित्तं तिलतंडुलउसरणोदयतिलपुछसंखवण्णो प्राकृतपद्यानुक्रमणी तिल्लो सन्त्रासरणं तिवलीत रंगमज्भा तिविट्ठ- दुविट्ठ-सयंभू तिवियप्प पडठाणा तित्रियप्पमगुल तं मूला० ११६६ |तिवियष्पं लक्खत्तं पचस० ४-६ |तिविह जहरणातं गो० जी० ६६६ तिविहं च होइ रहाणं भ० प्रा० ८७२ तिविहं ति यरणसुद्धं गो० जी० ७१२ |तिविहं तु भावसल्लं लद्विसा० १३ तिविहं पय जिरोहिं गो० क० ४१४ | तिविद्दं पि भावसल्ल पचस० ५- १५५ | तिविहं भांति पत्तं जंबू० प० ११ - १११ पचम० १-६१ तिविहं भरिणयं मरणं तिविहं मुह पत्तं तिविह सूइसमूहं तिविहाओ वावी गो० जी० १४७ छेदस० २७ गो० क० ३६६ | तिचिहा [य] दव्त्रपूजा पचसं० ४-३६२ |तिविहा य होइ कखा तिविद्दा सम्मत्ताराहगा तिविहाहारविवज्जरण पंचस० ५-२० पचस० ५-२६६ |तिविहेण जो विवज्जइ पचस० ४- ३५२ |तिविहे पत्तम्मि सा पचस० ४-३३२ | तिविहो एसुवओोगो तिलो० प० ४-३८० तिविहो एवगो जबू० प० २- १५८ |तिविहो दु ठाणबंधो गो० जी० ४२४ |तिविहो य होदि धम्मो गो० क० १०८ | तिव्त्रफमा गो० क० २६४ तिव्वकसा पचसं० ४- ३७६ (क) मूला० ४७३ तिलो० प० ७-१७ तिलय दिएर जिरणवरहॅ सावय० दो० १६७ तिलसरिसवबल्लाढइ तिलो० ० सा० २३ चारि० भ० १ तिलोयसत्रजीवाणं तिल्लोयविंदुसारं बहुमोह - बहुमोह - * 7 १६५ रिट्स० २२२ १० सा० ६६ छेदस० ७७ मूला० ६०२ भ० श्रारा० ५३६ थगप० १-२ भ० श्ररा० ५४३ भावस० ४६० मूला० ५६ वसु० सा० २२० तिलो० प०५-२७१ तिलो० प० ४-२४ वसु० सा० ४४६ मूला० २४६ भ० श्रारा० ४६ छेदपिं० ३४५ कत्ति० श्रणु० ४०२ कत्ति० श्रणु० ३६० समय० ६४ तिलो० पंचसं० ४-२०३ गो० क० ८०३ गो० क० ३४५ | तिव्त्रकसाओ बहुमोह - * कम्मप० १४६ गो० क० ४२१ गो० जी० ४६६ गो० क० ४१७ कत्ति० श्रणु० ४३ तिव्वतमा तिव्वतरा तिव्वतिसाए तिसिदो तिव्व मंदारभावा तिव्वं काम किले सं तिब्वेदा सव्वे गो० क० ११० वोधपा० ५५ थगप० १-६६ रयणसा० १०३ पंचस० १-१०२ मूला० ५५० तिव्यो रागो य दोसो य तिसिवि (बुभुक्खिश्रो हं तिसदेक्कारससेले तिसयदलगगणखंडे वसु०सा० १८७ तिलो० सा० ७३१ तिलो० प० ७- ५१६ अगप०२-११४ गो० जी० ६२५ तिसय भांति के ई तिसयाई पुव्वधरा धम्मर० ८६ तिलो० प० ४-११५६ पचत्थि० १३७ जबू० प० २–१५५ |तिसिदं बुभुक्खिदं वा + तिलो० सा० ८२५ |तिसिद व भुक्खिद वा + पवयणसा०३ - ६८ ते २२ (ज) पस० ५-२५० |तिसु एक्केक उद गो० क० ६६४ तिलो० प० १-१०७ तिसुतेर दस मिस्से x भास० ति० २२ समय ०६४ गो० क० ५६३ मूला० २५७ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ पुरातन-जैनवाक्य-सूची तिसु तेर दस मिस्सेx गो० जी० ७०३ तीदसमयाण संखं तिलो. प. ४-२६५७ तिसु तेरं दस मिस्से x गो. क. ४६४ तीदसमयाण संखं तिलो० प०१-५ तिसु तेरेगे दस णव पचस० ४-७१ तीदे पल्लासंखे लन्दिस ० ४२५ तिसु सागगेवमेसुं तिलो. प०४-१२४४ तीदे वधसहस्से ल द्विसा० २३६ तिस्से अंतो बाहि तिलो० सा० ८८ तीरिणिककणजुत्ता तिलो० ५० ४-१६ तिस्से दारुदओ दुग- तिलो० सा० २८७ तीरेण तेण संकिय जबू० प०७-११६ तिस्सेव य जगदीए जबू० ५० १-३० तीसहारसया खलु तिलो. प०७-५१३ तिस्से हवेज हेऊ पस० ४-४३० तीसराहमणुक्क्स्सो पचस० ४-४६३ तिहि अदिकते पक्खे छेदस० ४६ तीसराहमणुक्कस्सो, __ गो० क० २०८ तिहि तिरिण धरवि णिच्च मोक्खपा० ४४ | तीस-दस-एक्क-लक्खा तिलो० सा० ८०६ तिहि तिभागेहिं अधो जंबू० ५० १०-७ तीसमुहुत्तं दिवसं जव० ५० १३-७ तिहिदो दुगणिदरजू तिलो० ५० १-२५५ तीसमुहुत्तो दिवसो भावस०३१४ तिहिं चदुहिं पंचहि वा भ० श्रारा० ८०% तीससहस्मभहिया तिलो. प०४-१९६५ तिहिं रहियउ तिहिं गुण-सहिउ जोगसा० ७८ तिलो०प०४-१९६६ तिहुअणपुज्जो हो तञ्चमा०६७ तीससहस्मा तिरिण य तिलो. प०४-११६७ तिहयणपहाणसामि कत्ति० श्रगु० ४८६ तीसं अट्ठावीसं तिलो० ५० ३-७५ तिहुयण-वदिउ सिद्धि-गउ परम० ५० ५-१६ | तीसं इगिदालदल तिलो० ५० १-२८० तिहुयणसलिल सयल भावपा० २३ तीसं कोडाकोडी+ गो० क. १२७ तिहुयणि जीव] अस्थि णवि परम० ५० २-३ तीसं कोडाकोडी + कम्मप० १२३ तिहयणि दीसइ देउ जिणु पाहु० दो० ३६ | तीसं च सयसहस्सा जबू० प० १३-१४३ तिहुवणजिणिदगेहे तिलो० मा० १०१७ तीस चाल चउतीसं तिलो० ५०३-२१ तिहुवणतिलयं देवं कत्ति० अणु० . तीस चिय लक्खाणिं तिलो० प०२-१२४ तिहुवणमदिरमहिदे मूला० १६८ तीस चिय लक्खाणिं तिलो० प०८-४० तिहुवणमुड्ढारूढा तिलो० सा० ५५६ तीसं चेव य उदय पचस० ५-४०७ तिहुवणविम्हयजणणा तिलो० ५० ४-१०८६ तीसं चेव सहस्सा जवू०प०६-६ तिहुवणसिहरेण मही लद्धिसा० ६४५ तीसं णउदी तिसया तिलो० प०७-५६६ तीए गुच्छा गुम्मा तिलो० ५० ४-३२१ तीसता छब्बंधा पचस०५-४६२ तीए तोरणदारे तिलो०५०४-१३१६ तीसता छच्चंधा पंचस०५-४४६ तीए दिसाए चेट्टदि तिलो०प०८-४१० तीस पणवीसं च य तिलो० प० २-२७ तीए दुवारुच्छेहो तिलो० प०८-४०७ तीस पणुवीस पगण- तिलो. सा० १५१ तीए दो पासेसुं तिलो० ५०४-२०५४ तीसं बारस उदय पचस० ३-४३ तीए दो पासेसुं तिलो०प०४-२०६२ तीसं वारस उदयुच्छेद गो० क. २७६ तीए पमाणजोयण तिलो. प०४-२२६६ तीसं वासो जम्मे गो० जी० ४७२ तीए परदो चरिया तिलो० प०४-१९२२ तीसादी एगूण पचसं० ५-२३८ तीए पुण मज्झदेसे जबू० प० ११-२२६ तीसियचउण्ह पढमो लद्विसा० ३८४ तीए पुरदो दसविह- तिलो० प०४-६६२६ तीसुगतीसा वधा पचस० ५-४३४ तीए बहुमज्झदेसे तिलो. प०४-१८२० तीसुत्तरवेसयजोयणाणि तिलो० प० ७-१६५ तीए मज्झिमभागे तिलो. प०४-१८१२ तीसुदयं विगितीसे गो० क० ७८३ तीए मूलपएसे तिलो०प०४-१८ जवू० प०२-१२३ तीए रुंदायामा तिलो०प०४-८८७ । जंवू० प० २-१३६ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी १६७ तीसु वि कालेसु तहा भ० श्रारा० २१५१ ते अवर-मझ-जेट्ट तिलो० सा० १४ तीसे अट्ठ वि बंधो गो० ० ७५१ ते अंगुलाण किच्चा जबू० प० १२-८४ तीसेक्कतीसकालो पंचसं० ५-१३४ ते इदिएसु पचसु मूला० ८७२ तीसेक्कतीसकालो पंचस०५-१५१ तेउए मज्झिमसा तिलो० ५०८-६६६ तीसोवहीण विर(ग)मे तिलो० ५० ४-५६५ तेउकाइयजीवा तिलो० सा० ८४ तीहिम्मि(सु वि)कालेसु जुदा जवू० प०२-१४२ | तेउतिगूणतिरिक्खे गो० क० २८६ तुझ पादपसाएण मूला० १४६ | तेउतियाण एवं गो० जी० ५५३ तुज्झेत्थ बारसगसुद- भ० श्रारा० ५१० | तेउतिये सगुणोघ गो० क०३२७ तुट्ट बुद्धि तडित्ति जहि पाहु. दो० १८३ तेउदु असखकप्पा गो० जी० ५४१ तुदइ मोहु तडित्ति जहिंग- परम० ५० २-१६१ / तेउदुगं तेरिच्छे गो. क. ५४० तुट्टे मणवावारे पाहु० दो० २०४ / तेउटुगे मणुवदुग गो० क. ६१६ तुट्ठी मणपरिओसो श्रायः ति०३-११ । ते उ भयणोवणीया सम्मइ०३-११ तुडिदं च उसी दिहदं तिलो० ५० ४-३०० तेरस्स य सहाणे गो० जी० ५४५ तुरिहा पवयणणामा तिलो० ५० ६-४६ | तेऊ तेऊ तह तेऊ मूला० ११३५ तुरिय पवयणणामा तिलो सा० २७२ तेऊ तेऊ तेऊ पंचस०१-१८१ तुझं गुणगणसथुदि श्रा० भ० १० तेऊ तेऊ तेऊ गो० जी० ५३४ तुरएभइत्थिरयणा सिलो. प० ४-१३७६ तेऊ पउमे सुक्के गो० जी० ५०२ तुरिए पुश्चदिसाए तिलो० सा० ६४३ तेऊ पम्मा बधा पंचस०५-४५२ तुरिमस्स सत्ततेरसि- तिलो० ५० ४-१४२६ तेऊ पम्मासु तहा पचस० ४-६४ तुरिमंव पचम हि य तिलो०प०४-२१७२ तेऊ-वाउ-काए पंचस०४-५७ तुरिमे जोदिसियाणं तिलो० ५० ४-८५७ ते एयत्तमुवगदो भ० श्रारा० ५५२ तुरिमो य णंदिभूदी तिलो० ५० ४-१५८६ ते एयारह जोआ पचसं०४-७६ तुरियजुदविजुदछज्जो- तिलो० सा० ५२१ | तेश्रो वि इदधणुते. भ. श्रारा० १७२५ तुरियं पलायमाणं __ वसु० सा० १५८ तेश्रो पम्मा सुक्का भ. श्रारा० १०६ तुरियाए णारइया तिलो. प० २-१६८ ते कालगदा संता जवृ० प०११-१८२ तुरुतेल्लं पि पियंतो भ. श्रारा० १३१७ ते कालवसं पत्ता तिलो. प०४-२५०६ तुल्ल-बल-रुव-विक्कम- जवू० ५० ११-३०७ ते किंपुरिसा विएणर तिलो. प० ६-३४ तुसधम्मतवलेण य सीलपा०२४ ते कुभद्धसरिच्छा तिलो . ५०४-२४५७ तुस-मासं घोसतो भावपा० ५३ | ते को ण होदि सुयणो कल्लाणा० ४७ तुसितवावाहाण तिलो० ५०८-६२२ | ते गिरिवर अपत्ता जबू०प०३-२१२ तुह मरणे दुक्खेण भावपा० १६ | ते चउकोणेसु एक्केक्क- तिलो० ५० ५-६६ तुंगो चूलियसिहरो जबू० प० ४-१३४ | ते चिय धण्णा ते चिय परम०प०२-११७ (क्षे०) तृरगदुमा ऐया जबू०प० २-१२६ ते चिय पन्नायगया भावस. १ तूरंग-पत्त-भूसरणतिलो० सा० ७७ ते चिय वहाणा पचसं०५-२७१ तूरंगा वरतूरे भावस० ५६० ते चिय वधा संता पचस०५-४४० तूरगा वरवीणा तिलो० ५०४-३४३ ते चिय वण्णा अट्ठदल- वसु० सा० ४६७ तूसि म रूसि म कोहु करि पाहु० दो० ६३ ते चिय संता वेदे पचस०५-४३७ ते अजरमरुजममरम- मूला० ११८६ | ते चिय भणामि ह जे भावपा० १५३ ते अदिसूरा जे ते भ० श्रारा० १११२ / ते चेव लोयपाला तिलो. प० ४-१९४३ ते अप्पणो वि देवा भ० श्रारा० १६१७ ते चेव अस्थिकाया पचत्थि०६ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न १६८ पुरातन-जैनवाक्य-सूची CIDID ते चेव इंदियाणं भ० श्रारा० १३५१ | तेण परं हायदि वा लद्विसा० २१६ ते चेव चोदसपदा लद्विसा० १७ तेण पुणो वि य मिळू दमणसा० ३२ ते चेव भावस्वा दवस. णय० ११३ | तेण-भयेणारोह भ० पारा० १११ ते चेव य छत्तीसे पचसं० ५-३४२ | तेण य कय विचित्तं दंमणसा०४ ते चेव य बंधुदया पचसं०५-२३४ तेण रहस्मं भिंढत भ० धारा० ४८१ ते चेव य बंधुदया पचस०५-२३५ | तेणव दिजुत्त-दुसया तिलो० प०२-६२ ते चेवेक्कारपदा लद्धिसा० १६ | तेणवदि सत्त सत्तं गो० क. ७६४ ते चोइसपरिहीणा गो. क. ३६० ते णवसगसदरिजुदा गोक. ७५० ते छिएणणेहवंधा मूला० ८३६ | तेण वि एणत्येवं छेदपि०२७३ तेजतिय चक्खुजुयले पचसं० ४-६३ | तेण वि लोहजस्स य जवृ०प०१-१० तेजदुर्ग वएणचऊ गो. क. ४०३ तेणं सत्त[अ] मिस्सो पंचसं०३-८ तेजदुहारदुसमचउगो० क० १०० तेणार्यारएण य सो खेदपि०२७१ तेजप्पउमा सुक्के पचस०५-२०२ | ते णिकमोससारक्ख- * मूला० ३६६ तेजंगा मझदिण (१) तिलो प०४-३५१ । तं णिकमोससारक्ख-* भ. पारा० १७०३ तेजाए लेस्साए भ० धारा० १६२१ | तेरिणदं पडिणिदं चावि मूला० ६०५ तेजाकम्मसरीरं पचस०४-४३६ ते णिम्ममा सरीरे मूला० ७८४ तेजाकम्मसरीरं पचसं०४-४७२ | तेणिह सचपयारेण छेदर्पि०३१ तेजाकम्मेहि तिये गो० क. २७ तेणुत्तणवपयत्था भावस० २७८ तेजाकम्मेहि तिये * कम्मप०६६ | तेणुवइट्ठो धम्मो कत्ति० अणु० ३०४ तेजादितिए भव्वे मिद्धत०६४ तेणुवरिमपंचुदये गो० क० ७६१ तेजासरीरजेट्ट गो० जी० २५७ तेणेव होति णेया पचस०५-३३४ ते जीवतह मुहु विगणि सुप्प० दो० २८ | तेणेवं तेरतिये गोक०६८३ तेजो दिट्ठी गाणं पवयणसा० १-६८ २ ३ (ज)| ते तस्स अभयवयण तिलो० ५० ४-१३१२ तेणउदिछक्कसत्तं गो० क० ७६६ ते तारिसया मारणा भ० श्रारा० ६४१ तेणउदि-जोयणाई जबू० प० ३-१७५ तेतीसं च सहस्सा जबू० प०७-२ तेणउदि परणासा जंबू०प० ११-२३ | ते ते कम्मत्तगदा पवयणसा०२-७८ तेणउदीए बंधा गो० क. ७५४ ते ते महाणुभावा जवू०प०७-११४ तेणउदीसंतादो पंचस०५-२०८ ते तेरस बिदिएण य लद्धिसा. १८ तेण किय मयमेय दसणसा० १३ ते ते सव्वे समग पवयणसा०१-३ तेण कुसमुट्ठिधाराए भ. श्रारा० १९८३ तेत्तियफालपमाणा छेदर्पि० २४६ तेण च उग्गइदेहं दव्वस० णय. १३१ तेत्तियमेत्तारविणो तिलो० ५० ७-१४ तेण च पडिच्छिदव्वं मूला० ६१० | तेत्तियमेत्ते काले तिलो. प०४-१४६२ तेण णभिगितीसुदये गो० क. ७६३ | तेत्तियमेत्ते बंधे लद्धिसा०२३२ तेण णरा व तिरिच्छा पवयणसा०१-६२ क्षे (ज०) | तत्तियमेत्ते वधे+ लद्धिसा० २३३ तेण तम वित्थरिद तिलो० ५० ४-४३४ तेत्तियमेत्ते बधे लद्धिसा० २३४ तेण तिये तिदुत्बंधो गो० क. ६६१ तेत्तियमेत्ते बंधे लद्धिसा० ४२० तेण दुणउदे उदे गो० क० ७८२ तेत्तियमेत्ते बंधे + लद्धिसा० ४२१ तेण परं अवियाणिय भ. श्रारा०४१४ लद्धिसा. ४२२ तेण परं पुढवीसु य मूला० ११६० तेत्तीसउवहिउवमा तिलो०प०८-५१० तेण परं सठाविय भ० धारा० १९८० तिलो. प०१-१६१ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी १६६ तेत्तीसम्भहियाई तिलो० ५०४-२४३१ ते पुव्वादिदिसासं तिलो० ५० ७-८१ तेत्तीसभेदसंजुद- तिलो० ५० ५-२६८ ते पुन्वावरदीहा तिलो० सा० ६६२ तेत्तीस-वेंजणाई गो० जी० ३५१ ते पुन्युत्तरख्वा जबू० ५० १२-० तेत्तीस-सहस्साई तिलो. प०४-१७७३ ते वारस कुलसेला तिलो. ५०४-२५४८ तेत्तीस-सहस्साइ तिलो०५०४-२११३ ते मझगयं पीढं जवृ० ५० ६-१५२ तेत्तीस-सहस्साणि तिलो० ५०४-२४२६ ते मे तिहुवणमहिया भावपा० १६१ ते य सयंपहरिजल- तिलो. सा. ६२३ तेत्तीस-सहस्सागि तिलो० ५० ५-१४५३ तेयाल पयडी पचसं०४-४४१ तेत्तीम-सहस्साणि तिलो० ५०४-१४५४ तेयाला तिरिणसया भाचपा०३६ तेत्तीस-सायरोवम * पंचस०५-१०५ तेयालीस-सहस्मा जवृ०प० ६-८. तेत्तीस-सायरोवम पंचस० ५-१८७ तेरट्टचऊ देसे गो० क० ६५७ तेत्तीस-सुरप्पवरा तिलो. प०८-२२३ तेर-णवे पुचसे गो० क. ६८२ तेत्तीस लक्खाणिं तिलो० ५०२-१२१ तेरदु पुन्च वसा गो० क० ६६० तेत्तीस लकवाणिं तिलो० ५०८-३६ तेरसएक्कारसणव- तिलो. प० २-३७ तेत्तीसामरसामणियाण तिलो० ५०८-५४२ तेरमएक्कारसणव तिलो० ५०२-६३ तेदालगदे तुरियं तिलो. मा० ४२३ । तेरसरकारसणव- तिलो. ५०२-७५ तेदाल-लक्ख-जोयण तिलो. ५०८-२२ तेरस-फोडी देसे गो० जी०६४ तेदालं छत्तीसा तिलो. प० ४-६६१ तेरस चेव सहस्सा पंचस०५-३३७ तेदालं लक्खाणं तिलो. प० २-११० तेरस-जीवसमासे पंचस०५-२५६ तेदालाणाहारे सिन्दंत०६८ तेरस-जोयण-लक्खा तिलो० ५०२-१४२ तेदाला सत्त-सया जंवृ. ५०२-१०३ तेरम-जोयण-लक्खा तिलो०५०८-६३ तेदालीस-सयाणिं तिलो. ५०८-१६१ | तेरम-जोयण-लक्खा तिलो० ५०८-६४ ते दावे तेसट्ठी तिलो. प. ७-४५६ तेरस बारेयारं गो. क. ५१२ ते धणवत ण दिति धणु सुप्प० दो० ३६ | तेरस य णव य सत्त य कसायपा० ३३ ते धण्णा जे जिणवर- भ. श्रारा० १८७३ तेरस-लक्खा वासा तिलो० ५०४-१४५६ ते वएणा जे धम्म भ. श्रारा. १८६० तेरस-सय चउदाला जबू०प०४-१६६ ते धरणा ताण णमो भावपा० १२७ तेरस-सयाणि सत्तरि गो० का ५०१ नधण्णा ते पाणी भ० प्रारा० २००२ तेरस-सयाणि सयरिं पचस०५-३८४ ते धरणा लोय-तए भावसं०५६६ तेरस-सहस्सजुना तिलो०प०४-१६३७ ते धण्णा सुकयत्था मोक्रयपा० ८६ तेरस-सहस्सयाणि तिलो. प. ४-५७४, ते धीरवीरपुरिसा भावपा० १५४ तेरससु जीवमंखे पचस०५-२५१ ते पासादा सव्वे तिलो. प० ४-८२ तेरह-उवही पढमे तिलो. प०२-२०६ ते पुण उदिएणतरहा पवयणसा. १-७५ नेरह तह कोडीओ जबृ० प०४-१६१ ते पुण कारणभूदा दन्वस० णय०६ तेरह बहुप्पएसो पचस० ४-५०२ ते पुण जीवाजीवा भावस० २८५ | तेरहमे गुणठाणे वोधपा० ३२ ते पुण धम्माधम्मामूला० २३२ | तेरहमो रुचकवरो तिलो. प० ५-१४१ ते पुण सम्माइट्ठी वसु० सा० २६५ | तेरहम्म(म)जम्माश्रो रिट्ठस. २२१ ते पुणु जीवह जोडया परम० ५० १-६१ तेरह-विहस्स चरणं पारा० सा०६ ते पुणु वदउँ सिद्धनगण परम०प०१-४ तिलो. सा. १५३ ते पुणु वंदउँ सिद्ध-गण परम० ५० १-५ तेरासिएण णेया पघसं०४-३८८ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० पुरातन-जैनवाक्य-सूची तेरानियम्मि लद्वं तिलो० ५० ७-४७० ते वि य महाणुभावा ते राहुस्स विमाणा तिलो. प०७-२०३ ते वि विसेसेहिया तेरिक्खी माणुस्सिय मूला० ३५७ ते वि विहंगेण तदो तेरिच्छमंतरालं तिलो. ५० ७~११२ तेवीमहागादो तेरिच्छा हु सरित्था गो० क० ८६२ तेवीस-पुज्यलक्खा तेरिच्छियलद्धि अपज्जत्ते गो० जी०४ तेवीम-पुचलक्या तेरे णव चउ पणय पंचसं०५-२५२ तेवीस-बधगे इगिते रोया वि य सयला भावपा० ३८ । तेवीस-बधठाणे ते लद्धणाणचक्खू मूला० २८ तेवीसमादि काटुं तलोक्केण वि चित्तम्स भ० श्रारा० १३६१ तेवीस-लक्व रुंदो ते लोयंतिय-देवा तिलो. प. ८-६१५ तेवीस-महस्माइ तेलोकजीविदादो भ. श्रारा० ७८२ | तेवीस-सहमाणि तेलोकमत्थयत्थो भ० थारा० २५४० तेवीस-सुक्कलस्से तेलोकसव्यसार भ० श्रारा० १६२५ तेवीनं अडबीस तेलोकपुज्जणीए मुला० १२२ तेवीस पणवीन.. तेल्लकसायादीहिं य म० श्रारा० ६८८ तेवीसं पणुवीस तेल्लोकाडविडहणो भ० श्रारा० १११५ तवीस पणुवीमः तेवढि च सयाइ गो० २० १२३ तेवीस पणुवीस तेवगण-कोडि-देवा जवृ. ५०४-२१६ / तेवीसं लक्खाणि तेवण्णणवसयाहिय- गो० क० ४६८ तेवीसं लक्खाणि तेवएणतिसतसहिय गो० क. ५०२ । तेवीसं लकवाणिं तेवएण-सया उणवीस- तिलो०प०७-४८६ तेवीसादी बंधा तेवएण-सया णेया जबू० प० ४-१६% तेवीमा वादाला तेवएण-सहस्साई तिलो० ५० ७-३६६ ते वेदत्तयजुत्ता तेवरण-सहस्साणिं तिलो०प०४-१७१७ | तेसहि-पुव्वलक्सा तेवगणस्स-सयाणि तिलो०प० ७-४८६ | तेसट्ठि-सहस्साणिं तेवएगास्स-सयाणि तिलो०प० ७-४८७ तेसट्ठि-सहस्माणिं तेवण्णं च सहस्सा जबृ० १० ११-७१ तेसट्ठि-सहस्साणिं तेवएणं च सहस्सा जबू० प० ६-४ तेसट्ठि-सहस्साणिं तेवण्णा कोडीओ जबू०प०४-१६३ | तेसहि-सहस्साणिं तेवण्णा कोडीओ जबू० ५० ४-२४० तेसट्ठि-सहस्साणि तेवरणा चावाणिं तिलो० प० २-२५७ तेसट्ठि-सहस्साणि तेवण्णाणि य हत्था तिलो. प० २-२३८ तेसट्ठि-सहस्साणिं तेवण्णुत्तरअडसय- तिलो० ५० ७-१७७ तेसट्टि-सहस्साणि तवत्तरि सयाई गो० क. ८६८ तेसट्ठि-सहस्सा पणते चंदउँ सिरि-सिद्धगण परम० ५० १-२ | तेसट्ठी-लक्खाई ते वंदिदूण सिरसा जबू०प०१-६ तेसट्ठी-लक्खाणिं ते वि कदत्था धण्णा भ० श्रारा० ४-२००६ / तेसट्ठी-लक्खाणिं ते विकिरिया जादा तिलो० ५०८-४४२ ते सव्यसंगमुक्का ते वि पुणो वि य दुविहा कत्ति० अणु० १३० ते सव्वे उवयरणा । भ. श्रारा० २००४ गो० जी० २३ तिलो. सा. १६४ गो० ० ५६६ तिलो० ५०४-१४४६ सिलो० ५० ५-१४५० गो० क० ७६० गो० क० ७६६ पचम०५-३६७ तिली०प०८-५९ तिलो०प०४-६०० तिलो०५०४-५६ क्सायपा० ४४ सुदख. ७ गो० क० ५२१ पंचस० ४-२५३ पंचसं०५-५० पंचस०५-४०३ तिलो० ५०२-१३३ तिलो. १०२-१३२ तिलो. १० -१० गो० क० ६६६ जंवू०प० ६-१२० तिलो. प०४-२६३६ तिलो० प० ४-५८६ तिलो. प० ७-३७५ तिलो. प. ७-३७६ तिलो० ५० ७-३७७ तिलो०प०७-३५८ तिलो०प०४-३५५ तिलो० ५० ७-३५६ तिलो. १०७-३५७ तिलो. प०७-३७४ तिलो०प०७-३७३ तिलो. प० ७-३६२ तिलो. प० ३-८७ तिलो० ५०८-४२२ तिलो. १०८-२४३ मूला० ७८० तिलो. प०४-१८७७ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी १७१ ते सव्वे कप्पदुमा तिलो० ५० ४-३५३ तेसिं रसवेदमवहाणं ते सव्वे चेत्ततरू तिलो० ५० ६-२६ तेसिं वरणंति पिया ते सव्वे जिणणिलया तिलो० ५० ७-४३ तेसिं विसुद्धदंसणते सव्वे पासादा तिलो. ५० ७-५३ तेसिं विसेससोही ते सव्वे पासादा तिलो. प०५-२०६ तेसिं संतवियप्पा ते सव्वे मरिऊण . जवू० ५० ११-१८८ | तेसिं साणे संढ ते सव्वे वरजुगला तिलो० ५० ४-३८५ | तेसि हे उ(दू) भणिदा ते सव्वे वरदीवा तिलो०प०४-२४७१ | तेसिं होति समीवे ते सव्वे सरणीओ तिलो. प०८-६७३ | तेसीदिगिसत्तरि विगि ते सखातीदात्रो तिलो० ५०४-२६४२ तेसीदि-जुदसदेणं ते संखेना सव्वे तिलो० ५०८-४०२ | तेसीदि-सहस्साणिं ते सामाणिय-देवा तिलो० ५० ४-१६७१ | तेसीदि-सहस्सा तियते साविक्खा सुणया कत्ति० अणु २६६ | तेसीदि-सहस्सेसुं तेसिमणतरजम्मे तिलो० प० ३-१६७ | तेसीदि परणामा तेसिमपजत्ताण मावति० ५५ तेसीदिं लक्खाणिं तेसिमसंखेजगुणा पचसं० ४-५१२ | तेसीदी-अधिय-सय तेसिं अक्खररूवं तच्चसा० ४ तेसीदी इगिहत्तरि तेसिं अवणिय वेगुचिय- श्रास० ति० ४५ | तेसीदी लक्खाणि तेसिं असगिणघादे छेदपिं० २२ | तेसु अतीदा णंता तेसिं असदहतो भ० श्रारा० ५६६ | तेसु अदीदेसु तदा तेसिं असोयचपय- तिलो० सा० २५३ । तेसु घरेसु वि णेया तेसिं अहिमुहदाए मूला० ५७२ | तेसु जिणाणं पडिमा तेसिं आराधणणाय- # श्रारा० ७४६ तेसु ठिदपुढविजीवा तेसिं उस्सस्सेण य जबू० प. १०-१ | तेसु ठिदपुढविजीवा तेसिं कमसो वएणो तिलो० सा० २५२ तेसु णगरेसु राया तेसिं चउसु दिसासु तिलो० प० ३-२८ | तेसुत्तरवेदीयो तेसिं च समासेहि य गो० जी० ३१७ तेसु दिसाकरणाणं तेसिं च सरीराण वसु० सा० ४५० तेसु पउमेसु णेयं तेसिं चेव वदाणं * मूला० २६५ तेसु पहाणविमाणा तेसिं चेव वदाणं * म. श्रारा० ११८५ | तेसु भवणेसु णेया तेसिं जं अवसेस तिलो. प०४-१५०० तेसु मणिरयणकमला तेसिं जिणभवणाणं जवू०प०५-१२ तेसु य सतढाणा तसिं पयि(इ)ट्ठयाले वसु० सा० ३५६ | तेसु वरपउमपुप्फा तेसि पचण्हं पि य + मूला० २६६ तेसु सुरासुररूवा तेसिं पंचएहं पि य+ भ० श्रारा० ११८६ तेसि पि य समयाणं भावस० ३१२ तेसि पुणो वि य इमो समय० ११० | तेसुं जिणपडिमात्रो तेसिं[च] भएण पुणो धम्मर० ३५ तेसिं मरणे मुक्खो श्रारा० सा०६१ | तेसुं पढमम्मि वणे तेसिं मिच्छमभव्यं भावति० १०४ । तेसु पहाणरुक्खे लद्धिसा० ३०४ अगप० २-३७ पवयणसा०१-५ छेदस०८१ पंचसं०५-४२४ श्रास० ति०४१ समय० १६० धम्मर० १६० तिलो० सा०८३६ तिलो० ५० ७-२२५ तिनो० प०७-२६४ तिलो०प०७-४२६ तिलो० प०४-१२४७ जबू०प०११-२४ तिलो० ५० ४-१४२३ तिलो०प०७-२२१ तिलो० ५०४-१४४४ तिलो० ५०२-६४ कत्ति० अणु० २२१ तिलो. प०४-१४६० जबू० प०४-१२१ ज. प. ४-५२ तिलो० ५० ७-३८ तिलो०प० ७-६७ जबू० प. ६-५० तिलो. प०८-३५२ तिलो. ५० ५-१७५ जंबू०प०६-१३० तिलो. प०८-२६८ जंवू. ५०६-१३६ जबू०प०६-३१ पचस०५-२७० जबू०प०६-१२३ जबू०प०६-१७४ जबु०प०६-११ तिलो०५०८-३३३ तिलो० प०७-७३ तिलो० प० ४-३ तिलो०प०४-२१८३ तिलो० प०४-२१६५ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ पुरातन-जैनवाक्य-सूची तेसुं पासादेसु तिलो० ५० ५-२०६ | तो तम्हि जायमत्ते वसु० सा० १४. तेसुं पि दिसाकराणा तितो०प० -१६३ | तो तम्हि पत्तपडणेण वसु० सा० १५७ तेसु मणवचउच्छासतिलो०प०-६६५ भ० श्रारा०५१५ ते सुरा भयवंता भ० आरा० २००१ | तो तस्स तिगिच्छा जाण- भ० श्रारा० १४६७ तेहउँ वंदउँ सिद्धगण परम०प०१-३ छेदपि ० ३१४ तेहत्तर सहस्सा जंबृ० ५० १२-३२ | तो ते कुपीलपडिसे- भ० श्रारा० १३०२ तेहत्तरी सहस्सा तिलो० प० ४-१७३८ | तो तेण तवेण तदा जबू० ५० १०-६१ तेहि विणा णेरइया पचस०४-३२५ तो ते सीलदरिहा भ० श्रारा० १३०६ तेहिं अतीताणागयसम्मइ०१-४६ तो दंसणचरणाधा भ. श्रारा० ५६४ तेहिं असंखेजगुणा मूला० १२७ तो देसघादिकरणा लद्धिसा० २३६ तेहिं असखेजगुणा गो० क० २५६ तो देसंतरगमणं छेदपिं० १४३ तेहिंतो गंतूण जबू० ५० ५-६२ | तो पच्छिममि काले भ० श्रारा० १७६ तेहिंतो एंतगुणा मूला. १२०८ | तो पडिकमणपुरोग छेदपि० ७० तेहितो सेसजणा तिलो० सा० ८६७ तो पडिचरिया खवयस्स भ० आरा० १६०५ तेहिं विणा बंधाओ पचसं० ४-३३७ तो पाणएण परिभा- भ० श्रारा० ७०२ ने होणाहियरहिया तिलो. सा० ५३६ तो पुण्णचंदसुहचदा तिलो. सा० ८७६ ते हुति चदुवियप्पा दवस. णय० १११ तो भट्टबोधिलाभो भ० श्रारा० ४६७ ते होति चक्कवट्टी जंबू० प० ७-६७ तो भावणादियंत भ० श्रारा० १२६१ ते होंति णिव्वियारा मूला० ८५६ तो मंदरहेमवदं तिलो. प० ६५२ तें कज्जें जिय पई भणिउ सावय० दो० ११२ तो माणिपुण्णभद्दा तिलो० सा० २७४ तें कम्मक्खउ मग्गि जिय सावय० दो० २१० तोरणउच्छेहादी तिलो०प०४-२६५ ते (तं)कहियधम्मि लग्गा भावसं० १६३ तिलो०प०४-७४५ तें सम्मत्तु महारयणु सावय० दो० २०८ तोरणकंक्णजुत्ता तिलो० प०४-६६ तो अंधरा विचित्ता तिलो. प० ४-१६७५ तोरणकंकणहत्था जबू० प०३-३६ तो आयरियउवमाय- भ०श्रारा० ७१० तो उदय पंचवरणा तोरणजुददारुवरि तिलो० सा० ८६३ तिलो० सा० ३६५ तोरणदारा उरिम- तिलो० ५० ४-२३१२ तो उप्पीलेदव्वा भ० श्रारा० १७७ जंबू०प०८-१६० तो खवगवयणकमलं तोरणदारायाम भ. श्रारा० १४७७ तो खंडियसव्वंगो तोरणदारेसु तहा __ जंबू० ५० ७-१०१ वसु० सा० १४२ तो खिल्लविल्लजोएण तोरणवेदीजुत्ता तिलो० ५० ४-२१७६ वसु० सा० १७८ तो गद्दतोय-तुसिदा तिलो० सा० ५३६ तोरणसयसंजुत्ता जंबू० ५० ५-६६ तो चंदसूरणागा- तिलो. सा. ६६६ तो रयणवंत सव्वा- तिलो० सा० १५४ तो चित्तविमलवाहण तिलो. सा० ८७८ तो(तित्थ)रिसिसमुदायद्विद- छेदपि० २६६ तो जाणिऊण रत्तं भ० श्रारा० १७१ तो रोयसोयभरिओ वसु० सा० १८८ तोडिवि सयल-वियप्पडा पाहु० दो० :३३ तो वासयअज्झयणे गो० जी० ३५६ तो णचा सुत्तविदू भ. श्रारा० ६२६ तो वि महापातकदोस- छेदपिं० ३०६ तो णियभवणपइट्ठो छेदपिं० ३१७ | तो वेदणावसट्टो भ० श्रारा० १५०२ तो णेरिदि-जल विस्सो तिलो० सा० ४३५ तो वेयड्ढकुमारं तिलो. सा० ७३४ तो तत्थ लोगपाला जबू०प० ११-२५१ | तो सत्तमम्मि मासे भ० श्रारा० १०१७ तो तम्हि चेव समए वसु० सा० ५३६ / तो संखठाणगमणे तिलो० सा०६७ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी १७३ - - तो साधुमत्थपथं भ० श्रारा० १२६७ | थावरसंखपिपीलियतो सा विभग-सरिया जंबू०प० -४६ / थावरसुहममपज्जत्तं तो सिद्ध महाहिमवं तिलो० सा० ७२४ | थावरसुहुमं च तहा तो सिद्धं सोमणस तिलो० सा० ७३६ | थावरसुहुमं च तहा x तो से तवसा सुद्धी छेदपि० २४६ | थिर अथिर च सुहासुहतो सो अविग्गहाए भ० श्रारा० २१३१ थिर-अथिरा-अजाए तो सो एव भणियो भ. श्रारा० ५४६ थिर-अथिराणज्जाणं तो सो खवयो त अणु- भ० श्रारा० १५८० | थिर आई तुरियंते तो सो खीएकसाओ भ० श्रारा० २०६६ | थिरोग्गयासवासी तो सो तियालगोयर- वसु० सा० ५२६ | थिरकज्जाई थिराया तो सो बधणमुक्को भ० श्रारा० २१२७ थिरजुम्मस्स थिराथिरतो सो वेदयमाणो भ० श्रारा० २१०७ थिरजोगाण भगे तो सो हीलगभीरू भ० श्रारा० ४६० | थिरठाठिए सेसे थिर-दव-कुमार-सीया थिरधरियसीलमाला थिरभोगावणिमझ थक्के मणसकप्पे तञ्चसा० २६ थिरमथिर सुभगसुभं थगथगइकम्महीणो रिस० २२ | थिरसुहजसादेज्ज थडगे थणगे चेव य जवृ० १० ११-१४६ | थिरसुहजससाददुर्ग थद्ध लोअणजुअल रिस० २० | थिरहिदय-महाहिदया थविरकापो वि कहियो भावस० १२४ थी-अणुवसमे पढमे थविरोणारयसुद्वो श्रायः ति० १-१० थी-श्रद्धा संखेजभागे थंभाण मज्मभूमी तिलो. प० ४-१८६१ | थी-उदयस्स य एव थभाण मूलभागा तिलो०५०४-७७७ थी-उपसमिदाणंतरथंभाण उच्छेहो तिलो०५०४-२४८ थीणति-थी-पुरिसूणा थभुच्छेहो पुवावर- तिलो० ५० १-२०० थीणनियं इत्थी वि य + थाईण य जाईण य पाय. ति. १५-५ थीणतियं इत्थी वि य + थामापहारपासत्थदाए भ० श्रारा० ५६६ थीणतिय चेव तहा थावरकायप्पहुदी गो० जी० ६८४ | थीणतियं चेव तहा थावरकायप्पहुदी गो० जी० ६८५ | थीणतियं णिरयदुयं थावरकायप्पहुदी गो० जी० ६८६ थीणुदयेणुहविदे। थावरकायप्पहुदी गो० जी० ६६१ थीणुदयेणुहविदे* थावरकायप्पहुदी गो० जी० ६६३ थी-पढमहिदिमेत्ता थावरकायप्पहुदी गो० जी० ६६७ थी-पुरिसवेयगेसु य थावरदुगसाहारण गो. क. २६५ | थी-पुरिसोदयचडिदे थावरफलेसु चेदा दव्वस० णय. १५७ थी-प-मंढ-सरीर थावरमथिरं असुहं। पचस० ४-२८२ थी-यद्धासंखेज्जदिथावरमथिरं असुहं * पचस० ५-७५ थी-राज-चोर-भत्त-कहाथावरलोयपमाणं तिलो० ५० ५-२ | थुइ-णिंदासु समाणो थावर वेयालीसा ढाढसी०४ थुन्वंतो देइ धरणं गो० जी० १७४ क्म्मप० १०१ पचस०३-१६ पघसं०४-३०७ पचस०५-६६ छेदस० ७३ छेदपि० २६१ श्रायः ति० १५-८ श्राय० ति०१-६ श्राय० ति०२२-४ गो० क.८३ छेदस० ५६ श्रायः ति० २३-३ श्रायः ति०१-४० तिलो०प०१-५ तिलो० सा० ७१८ पघस०५-१८१ पचस०४-३६८ गो० क० १७७ तिलो० ५० ५-१३३ लद्धिसा० ३२४ लन्द्विसा० ४४१ लद्धिसा० ३५८ लद्विसा० २५७ गो० क. २६० पचस०४-३९८ पचस०३-१७ पचस०३-३७ पचस०३-५ पचस० ५-४८७ गो० क० २३ क्म्मप०४६ लद्धिसा. ६०३ पचस० ५-१६७ गो० क. ३८८ गो० क. ७६ लद्धिसा० २५६ णियमसा०६७ तिलो. प०८-६४६ तिलो०प० २-३०१ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ पुरातन-जैनवाक्य-सूची TIT थूणाओ तिरिण देहम्मि भ० श्रारा० १०३२ | दक्खिण-उत्तरदो पुण कति. अणु० ११६ थूलफलं ववहारं तिलो० सा० १८ | दक्षिण-उत्तरदो पुण जबू० प०४-१७ थूलसुहुमादिचारं तिलो० प० ४-२५०३ / दक्षिण-उत्तर-भाए तिलो. ५०४-२५३० थूलसुहुमादिचार जंबू० ५० १०-६७ दक्षिण-उत्तर-भागेसु जबू०प०११-३ थूले तसकायवहे चारित्तपा० २३ दक्खिण-उत्तर-वावी- तिलो० सा० ६३१ थूल सोलसपहुदी गो० क० ७६० दक्खिणदिससेढीए तिलो प० ४-११५ थूहादो पुत्र दिसो जवू० ५० ५-४४ दक्खिणदिसाए अरुणा तिलो. प० ८-६३६ थूहो जिणविवचिदो तिलो. सा. ६६६ दक्खिणदिसाए णंदो तिलो० ५० ४-२७७४ थेयाई (तयादी) अवराहे समय० ३०१ दक्खिणदिसाए णियइ रिट्ठस० १२३ थेरस्त वि तवसिस्स वि भ० श्रारा०३३१ दक्खिणदिसाए दूरं जबू० ५० ११-३०४ थेरं चिरपव्वइयं मूला० १८१ | दक्खिणदिसाए पलिय तिलो० ५० ५-१५० थेरा वा तरुणा वा भ० श्रारा० १०७० दक्खिणदिसाए भरहो तिलो. प० ४-६७ थेरो वहुस्सुदो पञ्चई भ० श्रारा० १०६८ तिलो०प०८-६१७ थोऊण जिणवरिंद जबू०प०४-२६६. दक्खिणदिसाविभागे तिलो०प०४-१६५४ थोणा(ला)इदूण पुव्वं भ० श्रारा० ४६० तिलो. प०४-२३१८ थोतेहि मंगलेहि य वसु० सा० ४१५ दक्खिणदिसाविभागे ज० प०४-११८ थोदूण थुदिसएहिं तिलो० प०८-५८२ दक्खिणदिसाविभागे जबू०प०६-३५ थोदूण थुदिसएहिं तिलो० ५० ४-८७२ | दक्षिणदिसाविभागे जबू० प० ३-६५ थोलाइदूण पुव्व भ० श्रारा० १५१६ दक्खिणदिसासु भरहो तिलो० सा० ५६४ थोवाइयस्स कुलजस्स भ० श्रारा० १५२२ दक्खिणदिसेण णेया जबू० प० -८२ थोवम्हि सिक्खिदे जिणइ मूला० ८६७ दक्खिणदिसेण णेया जब० प० १०-३१ थोवा तिरिया पंचिंदिया मुला० १२० दक्खिणदिसेण तुगो जंब० प०८-५ थोवा तिसु संखगुणा गो० जी० २८० दक्खिणदेसे विझे दसणसा० ४५ थोवा दु तमतमाए मूला० १२०६ दक्षिण-पच्छिम-कोणे जव० प० ३-६६ थोवा विमाणवासी मूला० १२१६ दक्षिण-पच्छिम-भागे जब० प० ४-१३८ थोस्सामि गुणधराणं जोगिभ०१ दक्खिणपीढे सक्को तिलो० प० ४-१८२७ थोस्सामि हं जिणवरे थोस्सा. १ दक्खिणपुवदिसाए जब० प० ४-१३७ दक्खिणपुवदिसाए __ जब० प० ३-६२ दक्खिणपुवदिसाए जब० प० ६-१६२ दक्षिणमरहस्सद्धं तिलो० ५०४-२६४ . दइवमेव परं मण्णे गो० क०८६३ दक्खिणभरहे जीवा तिलो सा० ७६६ दइवा सिझदि अत्थो अगप० २-३१ दक्खिणभरहे णेया जबू० प० २-६६ दक(ग)णामो होदि गिरी तिलो०प० ४-२४६६ दक्षिणमुह आवत्ता तिलो० ५० ४-१३८५ दक्खा-दाडिम-कदली- तिलो० प० ५-१११ | दक्षिणमुहं बलित्ता तिलो० सा० ५८३ दक्षिण-अयणं आदी तिलो० प० ७-५०१ जबू०प०६-१०४ दक्षिण-अयणे पंचसु तिलो० सा० ४१५ | दक्षिणमुहेण तत्तो तिलो० प० ४-५३३ दक्षिण-इंदस्स जहा जबू० प० ४-२६६ दक्षिणवरसेढीए दक्षिण-इंदा चमरो तिलो० ५० ३-१७ दट्ट विहिंसणीय दक्खिण-उत्तर-इंदा तिलो० प्र० ३-३ | दळूण अण्णदेवे । धम्मर दक्खिण-उत्तर-देवी तिलो० सा० ५२४ , दळूण अण्णदोसं भ० श्रारा० ३७२ जबू०प०२-३६ भ. श्रारा०१००५ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ट दो सणमज्झे दद्दू हू इच्छि दहूर चितिदूरण य दहू जिदपुरं दद्दू पारया णी टट्टू थूलखध - टट्टू थूलखधं देवठाणं + दहूण देठाणं + परकत्तं दहूण परकत्तं मयसिलिवं महद्धी दहूण मुक्कसं दहूण य उप्पत्ति ढणय मयत्तं रिसभसेल पडिचिवं x डिवि x ढ़ हवेज्ज तो सो दढलिएसु [य] मरण दढसजम मुद्दाए सुप्पो सूल हो पण - सरिस-मुहा दप्परगतलस मपट्टा दप्पणतलसारिच्छा दप्पणसममणिभूमी दप्पपमादाणाभोग दमणं च हत्थिपादस्स करि जीवहॅ पालियउ दय जि मूल धम्मंघिवहु भावो वि य धम्मो दयाविहीन धम्मा रवि पट्टा दलगाढवासमर गय दलितांतर safe afraid विद दवियदि गच्छदि ताई दवियं जं उपज्जइ प्राकृतपद्यानुक्रमणी भ० श्रारा० १३७६ | दव्य जागs जहठियाँ जाहि ताऍं छह दव्बई सयलहॅ वरि ठियहॅ दक्खराण सखा तिलो० प०८-२८० | दव्त्रगपढमे सेसे वसु० सा० १६३ | दव्त्रगुणखेत्तपज्जय यच० ६१ | दव्त्रगुरणपज्जएहिं दव्वस० ० २३१ | दव्वगुणपज्जया यच० ६२ | दव्त्रगुरणपज्जयाणं * दव्वस० य० २३२ | दव्वगुरणपज्जयाणं * दव्वगुणस्स य श्रादा भ० श्रारा० ६२४ वसु० सा० ८१ मिसा० २६ छेदपिं० ४८ जंबू० प० ७- १४७ दव्वट्टियवत्तव्व णयच० ५६ | दव्वट्ठियवत्तव्यं दव्वस० णय० २२५ छेदपिं० १७२ रिस० १६६ बोधपा० १६ वसु० सा० ११२ दव्वगुरगाण सहावा ढव्वस० ण्य० १६ तिलो० प० २-३१६ | दुव्व चयारि वि इयर जिय परम० प० २-२३ सु० सा० १६१ | दव्वट्ठिएण सव्वं पचयणसा० २-२ सम्मइ० १-६ सु० सा० ६५ | दव्वडिओ त्ति तम्हा धम्मर० १६१ | दट्टिश्रो वि होण दसपा० ३४ दव्वट्ठियणयपयडी सम्मइ० ०-२ सम्मइ० १-४ सम्मइ० ११० दव्वट्ठियवत्तव्व दव्वट्टियरस आया दस जो चे दव्त्रतियं वरिम दव्वत्थतरभूया दव्वत्थ दहभेयं x दव्वत्थं दहभेय x दव्यथिए जीवा दव्यत्थि य दव्व + भ० भा० ७७३ तिलो० प० ४- २४६७ जंव० प० १३-१०४ तिलो० प० ४-६०७ तिलो० सा० ७८८ म० प्रा० ६१२ | दव्वत्यिएसु (य) दव्व + भ० प्रा० १५६४ | दव्वत्थिकाय छप्पर सुप्प० दो० ३७ दव्वपयासमविचा मावय० दो० ४० | दव्वपरिवहरूवो कत्ति० श्रणु० ४१४ पाहु० दो० १४७ जंबू० प० ११-१६४ तिलो० ० सा० ६४७ तिलो० सा० ३५५ दव्वस० य० ३५ पचरिथ० ६ समय० ३०८ १७५ दव्वबलं गुणपज्जयदव्यसहावपयास roaiगहमिरणं मुणिदव्वसिदि भावसर्दि दव्वसुयादो सम्म दव्वस्त ठिई जम्म - विगमा दव्वं प्रांतपज्जय अयं परम० ५०२-१५ परम० प० २-१६ परम० प० २-२० श्राय० ति० १७-६ हिसा० २६० मूला० ५१ रयणसा० १४७ शियममा० १४५ रायच० ११ दव्वस० य० २२३ समय० १०४ सम्मइ० १-०६ सम्मइ० ३-०७ सम्मइ० १-११ सम्मइ० १-५२ गो० क० २४४ सम्मइ० ३-२४ गायच० १३ दव्यम० णय० १८५ णियमसा० १६ णयच० १६ दव्वस ० गाय० १८६ ग्यासा० ६४ भ० श्रारा० ६८६ ढव्वस० २१ श्रगप० २-५१ दव्वस० णय० ४२१ ढव्वस० ५८ भ० श्रारा० १७३ दव्वम० गाय ० २६६ सम्मइ० ३-२३ पचयणसा० १-४६ सुख० ४१ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ पुरातन-जैनवाक्य-सूची दस चउदस अटारस दव्यं असखगुणियकमेण दव्य खित्तं कालं दव्वं खु होड दुविहं दव्वं खेत्त कालं दव्वं खेत्तं काल दव्यं खेत्त कालं दव्यं खेत्त कालं दव्य खेत्तं काल दव्वं खेत्तं कालं दव्वं खेत फालं दव्यं छक्कमकालं दव्वं जहा परिणयं दम जावमजीवं दव्य ठारणं च फुडं दव्वं ठिदि गुणहाणी दव्वंतरसंजोगाहि दव्यं पल्लवविउयं दव्यं पढमे समये दव्वं विविहसहावं दव्वं विस्पसहाव दव्य समयपबद्ध दव्यं सल्लक्खणिय दव्च सहावसिद्धं दव्वाइं अणेयाइ दव्याण पज्जयाणं दव्वाणं खुपएसा * दव्याण खु पएसा* दव्वाणं खुपए(ये)सा दव्वाण च पएसो दव्वाणं सहभूदा दव्वाणि गुणा तेसिं दव्वादिएसु मूढो दव्वादिभेदभिएण दबादिवदिक्कमणं दव्वा विस्ससहावा दव्वुजोवो जोवो दव्वे उवभुज्जंते दव्वे कम्म दुविहं • दवे खेत्ते काले . दवे खेत्ते काले लद्विसा० १७२ / दवे खेत्ते काले मूला० २६ सम्मइ० ३-६० व्वे खेत्ते काले जंब० ५० १३-५० दव्वस० णय० २७४ दव्वे खेत्ते काले दव्यस० णय० १४६ भ० श्रारा०४५० दव्वेण य दव्वस्स य वसु० सा० ४४८ श्रंगप० २-५७ - दव्वेंण विणा ण गुणा पचन्यि० १३ गो० जी० ३७५ दव्वेण सयलणग्गा भावपा०६७ गो० जी० ४४६ ।। दव्वे धम्माधम्मे सुदख० १२ मूला० ४६० | दव्वे वा सल्ले वा श्राय० ति० १८-३१ मुला० ८६३ दस अट्ठारस दसय : पचसं०४-१६ मूला० १००५ दस अट्ठारस दसयं" गो० क० ७६२ गो० जी० ६१६ | दसअधियछस्सयाई तिलो. प०४-१४४ सम्मइ०३-४ | दस केवलदुग वज्जिय सिद्धत० ३४ पघयणसा० २-३५ | दसगयणपंचकेसव- तिलो० मा० ८४५ श्राय० ति० १८-१६ दसगादिउदयठाणा- पसं० ५-४२ गो० क० ६२२ दसगुणपएणत्तरिसय- तिलो० सा० ३५३ सम्मइ०३-३८ दसगुण परणं पएण तिलो० सा० ६१४ सम्मइ०१-१२ दमगुदये अडवीसतिसने गो० क० ६८५ लद्धिसा० ५६६ दसघण केवलणाणी तिलो० ५० ४-११५७ दन्वस० णय० २७० सुदभ० ७ दव्वस० गय०५६ / दस चउरिगि सत्तरसं गो० क.०६३ गोक. १२४ दस चेव कला णेया जंवृ० प० ३-२० पंचस्थि० १० | दस चोदसट्ट अट्ठारसयं गो. जी. ३४३ पवयणसा० २-६ दस-चोदस-पुवित्तं तिलो० ५० ४-६६६ भ० श्रारा० १८८० दसजोयणउच्छेहो तिलो० प० ४-२२१ कत्ति० अणु० २४५ | दसजोयणउदयाओ जंब० ५० ५-५६ णयच० ४७ | दसजोयण-उब्बिद्धो जव० प०३-१५६ दवस. णय २२० तिलो० ५०८-६८ दवस. णय०२० तिलो० प०४-२६१८ दवस० णय० १०२ दसजोयणलक्खाणं तिलो० प० २-१४६ दवस० णय०११ । दसजोयणाणि उवरि तिलो० प० ४-१०६ पवयणसा० १-१७ दसजोयणारिण गहिरो तिलो० ५० ४-१६५७ पवयणसा०१-८३ तिलो० प०४-१४० अंगप०३-१६ तिलो०प०४-१६६ मूला० १७१ | दसजोयणावगाढा जबू• प० ६-२७ दवस० णय० १ | दसणउदिसहस्साणि तिलो० प० २-२०४ मूला० ५५५ | दस णव अह य सत्त य गो० क० ४७५ समय० १६४ | दस णव अड सत्तुदया पचस०५-३३६ | दसणवणवादि चउतिय गो० क. ४८० मूला० ७०४ । | दसणवपएणरसाइंx गो० क. ५१६ मूला० १७५ | दसणवपण्णरसाइंx पचसं०५-४६ जादा गो० क०५४ । Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी १७७ दस-गव-परणारसाई पंचस० ५-२६४ दसविहमव्वंभमिणं मूला०६६८ अंगप०२-८१ सिद्धत०५ दसविहसच्च जणवद दस तसकाए सरणी दसतालमाणलक्खा- तिलो० सा० ६८६ | दसविहसच्चे वयणे : पचस०१-११ दस-दस-जोयणभागा जबू० प० २-३८ | दसविहसच्चे वयणे :- गो० जी० २१६ दस दस दो सुपरीसह भावपा० ६२ / दसविंदं भूवासो तिलो० प० ४-१९८० दस दस पणोत्ति परणं तिलो. सा० ६६३ / दस वीसं एक्कारस गोक०४६८ दसदसभजिदा पचसु तिलो. सा० ८०८ दससु कुलेसुं पुह पुह तिलो० प० ३-१३ दस दडा दो हत्था तिलो. प० २-२३४ दससुरणपंचकेसव- तिलो० प० ४-१४१५ दसदेवसहस्साणिं तिलो० ५० ५-२१८ दस सरिण असएगीए सिद्धत० ४२ दस दो य भावणाओ मूला० ७६३ | दस सरणीण पाणा ४ पचसं०१-४८ दस दो य सहस्साई जबू० ५० ११-२७३ | दस सरणीणं पाणा ४ गो० जी० १३० दसपारण सत्तपाणातिलो. प०४-२६३७ | दससागरोवमाणं जवृ०प०१३-४२ दसपाणा पज्जत्ती बोधपा० ३८ | दससु च वस्सस्सतो क्सायपा० २०८(१५५) दसपुत्रधरा सोहम्म- तिलो० ५० ८-५५६ | दस सुहमे वि य दुसु णव सिद्धत७७ दसपुबलक्खसमधिय- तिलो० ५०४-५५७ / दह उगणीस य सत्त य पदी० पट्टा०६ दसपुव्वलक्खसमधिय- तिलो० प० ४-५५८ | दह-कुड-णग-रणदीण य जंबू० प. ३-७० दसपुघलक्खसजुद- तिलो० ५० ४-५५५ दह-गह-पंकवदीओ तिलो० ५० ४-२२१३ दसपुबलक्वसजुद- तिलो० ५० ४-५५६ / दहदो गतूणग्गे तिलो० सा० ६६० दसपुबलक्खसजुद- तिलो० ५० ४-५५६ दहपंचयपुवावर- तिलो. प० ४-२३६१ दसपुव्वाणं वेदा श्रगप० ३-४५ / दहभेया पुण जीवा अगप०१-२८ दस वट्ठाणाणि पचस०४-२४२ दहभेया वि य छेदे अगप०३-३६ दसवावीमसहस्सा तिलो० सा० ७५३ । दहमज्झे अरविंदय तिलो० सा० ५७० दस बावीसे णवइगि- पचतं० ५-३८ | दहमज्झे अरविदय- तिलो० प०४-१६६५ दसमंते चउसीदी तिलो. ५० ४-१२१० दहमुहरायस्स सुआ णिव्वा० भ०१० दसमसचउत्थमये तिलो० प०२-२०६ दहलक्खणसजुत्तो - भावसं० ३७२ दसमे अणुराहाम्रो तिलो० ५० ७-४६३ दह्वरिसाणि तयद्धं रिट्ठस० ११५ दसयचऊ पढमतियं गो० क०६६२ दहविह-ठिदिकप्पे वा भ० श्रारा० ४२० दसयसहस्सा णउदी तिलो. प० ४-१७८० दहविह-धम्मजुदाणं कत्ति० अणु० ४१६ दसयसहस्सा तिसया तिलो. प०४-१९८४ दहविहु जिणवर-भासियउ पाहु० दो० २०८ दसयादिसु बंधसा गो० क. ६६५ दहसहसा सुर-णिरये दव्वस० णय. ८६ दसवरिससहरमाऊ तिलो. प०३-११६ दह-सेल-दुमादीणं तिलो० प०३-२३ दसवरिससहस्सादो तिलो० सा० २६३ दहि-खीर-सप्पि-संभव मावस०४७४ दमवस्ससहस्साणि य जबू० ५० १३-१० दहिगुडमिव वामिस्सं + पचसं०१-१० दसवाससहस्साऊ तिलो० प० ६-६२ दहिगुडमिव वामिस्स + गो० जी० २२ दसवाससहस्साऊ तिलो० ५०३-१६२ दहि-दुद्ध-सप्पि-मिस्सेहि वसु० सा० ४३४ दसवाससहस्साऊ तिलो० प०३-१६६ | दंड-कसा-लट्ठिसदाणि भ० श्रारा० १५६३ दसवाससहस्साणिं तिलो. प० ६-८५ दंडण-मुंडण-ताडण- भ० श्रारा० १५६२ दसवाससहस्साणिं तिलो. प० ४-२६२ दडत्तयसल्लत्तय रयणसा० १०५ दसविधपाणाभावो भ० श्रारा० २१३६ दडदुगे ओरालं पचस०१-१६॥ दसविहपाणाहारो भावपा० १३२ । दडपमाणंगुलए तिलो०प०१-१२५ रिट्ठस० र Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ पुरातन-जैनवाक्य-सूची छद दंडयणयर सयलं दंडंति एक्कपव्यं दडं दुद्धिय चेलं दडा तिणि सहस्सा दडो जउ(मु)पावकेण दतवण-एहाण-भंगे दंताणि इ दियाणि य दतहिं चव्विदं वीलणदंतेदिया महरिसी दंभं परपरिवाद दसण-अरणंतणाण दसण-अणंतणाणे दंसण-आइदुनं दुसु दसणावरण पुरण * दसणावरणं पुण* दसणकारणभूदं दसरा-चरण-पभट्टे दसण-चरण-विवरणे दंसण-चरण-विसुद्धी दमण-चरणो एसो दसण-चरित्त-मोह दंसण-णाण-चरित्तमउ दसण-पाण-चरित्तं दंसण-णाण-चरितं दसण-पाण-चरित्तं दंसण-पाण-चरितं दंसरा-णाण-चरितं दसण-णाण-चरित्त दसण-णाण-चरितं दसरा-पाण-चरित्तं दसण-णाण-चरितं दमण-णाण-चरित्तं दंसण-पाण-चरितं दसण-पाण-चरितं दंसण-णाण-चरितं दसण-णाण-चरित्तं दसण-णाण-चरितं दसण-णाण-चरित्तादसण-णाप-चरित्तादसण-पाण-चरित्ता भावपा० ४६ | दसण-गाण-चरित्ताधम्मर० ६३ । दसण-गाण-चरित्ते भावसं०८६ | दंसण-णाण-चरित्ते तिलो. प०४-७७१ | दसण-णाण-चरित्ते भ० पारा० १५५४ दसण-पाण-चरित्ते छेदस० ५२ | दसरा-पाण-चरित्ते भ० श्रारा० २३८ । दसरा-पाण-चरित्ते भ० श्रारा० १०१५ | दसण-णाण-चरित्ते मूला. ८८१ दसण-णाण-चरित्ते मूला० १५७ दसरा-पाण-चरित्ते बोधपा० १२ दंसरा-णाण-चरित्ते बोधपा० २६ दसण-णाण-चरित्ते पचसं०४-७० दसण-वाण-चरित्ते भावसं०३३२ दसण-गाण-चरित्ते कम्मप०२१ दसण-गाण-चरित्ते दव्वस० णय० ३२४ सण-णाण-चरित्ते मूला० २६२ दसण-णाण-चरित्ते मूला० २६१ दसण-पाण-चरित्ते मूला० २०० दसण-पाणदिचारे मूला० २६६ दसण-पाण-पहाणे दव्वस० गय० २१६ दसण-णाण-पहाणो परम० प०२-२४ दसण-पाण-विहूणा चारित्तपा० ३६ दसण-पाण-समग्ग दव्वस० गय० २८४ दसण-णाण-समग्गं * दव्वस० गय० २८३ दसण-गाण-समग्गं * अंगप० १-६३ दसण-पाण-समग्गो अंगप० १-७६ इंसण-गाणाइतिय तञ्चसा० ४५ दंसण-गाणाइतियं कत्ति० अणु० ३० | दसण-गाणाणि तहा भ. श्रारा० १७४६ दसण-पाणावरणक्खए भ० श्रारा १६६७ दसण-पायावरणं भ० धारा० १६६ दसण-गावावरणं समय० ३६६ दसणणाणुवदेसो समय० १७२ दसणणाणे तवसंजमे समय० ३६७ दसणणाणे विणो समय० ३६८ दसणपुव्वं पाण कत्ति० अणु० ३० देसणपुव्व पाण समय० १६ दसणपुन्वु हवेइ फुड दध्वस० णय०६ दंसणभट्ठा भट्ठा - श्रारा० सा० ८० | दसणभट्ठा भट्ठा पंचस्थि० १६४ लिंगपा०८ लिंगपा० ११ लिंगपा०२० दसणपा० २३ पवयणसा० ३-४२ क्ल्लाणा०२६ वसु० सा० ३२० .मूला० ४१६ मूला० १६६ मूला० ५६० मूला० ५८४ मुला० ५६४ मूला०५६६ मूला०६७८ कत्ति० अणु० ४५५ भ० श्रारा १६३४ भ० श्रारा० ५४८ भ. श्रारा० ४८७ दवसं०५२ तच्चसा० १७ भ० श्रारा० १६६४ दन्वस० ५४ पचस्थि० ११२ तिलो० ५०६-२३ भ० अारा० २१०८ - पचस० ४-३२ पंचस० ४-३७ पंचस्थि० ५२ सम्मइ. २-६ भावपा० १४७ दव्वस० गाय० ८३ पवयणसा०३-४८ भ० श्रारा० ३२० मूला० ३६४ दवस० ४४ सम्मइ०२-२२ परम. १०२-३५ दसणपा० ३ बा० अणु० १६ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दंसणभट्ठो भट्टो - भट्ठो भ सभूमिहि बाहिर उ दसरणमवि चक्खुजुद समाराहंतेदसमूलो धम्म दंसणमोग्गहमेत्तं दसणमोहक्खवणा- x दसरण मोहक्खवरणा-x दंसणमोहक्खवरणा- x दसरणमोहक्खवणासमोहस्सुद दसणमोहस्सुवसामगो + दसरणमोहस्सुवसामगो + दसरण मोहस्सुवसामरणाए मोहति दसरा मोहुदयादो दंसणमोहुत्रसमण दसरा मोहवसमदो दसणमोहूणा दसरा मोहे विदे दमोहे विदे दुसणमोहे गट्टे दसरण - रहिय- कुपत्ति जइ दसरा - रहिय जि त करहिं दसण-वय- सामाइय - - प्राकृतपद्यानुक्रमणी भ० थारा० ७३८ | दंससुद्धो सुद्धो भ० श्रारा० ७३६ | दसरणसोधी ठिदिकरणसावय० दो० ५७ दस जं पिच्छियइ बुह परि० ४२ | सात सुहु दरुणु णाणु चरित्तु त दंमणपा० २ | दंसणु गाणु चरित्तु तसु दंस-मगो य मक्खिय भ० श्रारा० ४ सम्मइ०२-२१ कसायपा० १०६ (५३) पचस० १ २०२ गो० जी० ६४७ लद्धिसा० ११० दंसंति जत्थ प्रत्या दंसेइ मोक्खमग्गं दंसेहि य मस एहि य दाऊण जहा अत्यं दाऊण पुज्जदव्व दाउण मुहपड धवल पंचस० १-१६६ क्सायपा० ६१ (३८) पचसं० ६ - २०४ | दाणचरण विहि जे करहिं कसायपा० ५ | दाच्च विहि जो करइ भावति० ८ | दारणसमयम्मि एव गो० जी० ६४८ | दारणस्साहार फलं दिसा० २०५ | दाणं च जहाजोगं गो० जी० ६४६ | दापंतरायखइए लद्धिसा० १६२ पूजा मुक्ख गो० जी० ६४५ क्षे० १ पूजा सीलं लद्धिमा० १६४ दाणं भोयरणमेत्तं तिलो० प० १-७३ | दारणादिकुमदि कुसुद सावय० दो० ८१ दारणादिचऊ भव्वमसावय० दो० ५५ | दाणादियं च दंसणचारित्तपा० २१ दाणिं लब्भइ भोउ पर aruti दालिदं पचस० १-१३६ दा गो० जी० ४७६ बा० अणु० ६६ दा कुपत्तहँ दोसss दिउ मुणिवरहॅ वसु० सा० ४ दार श्रगप ० १ - ४६ ण धम्मु ण चागु ग ढाणे धरणं रमण भावति० ५ | दाणे लोहे भोए तिलो० सा० ६२३ दादू कुलिंगी कम्म० १५५ | दादूण केइ दा दादूपं पिंडग्गं दामेट्ठी हरिदामा ढायगपुरदो कि दायारेण पुरणो विय साचय० दो० ५६ दव्वस० णय० ३२८ | दायारो उवसंतो रयणसा० १२५ | दायारो वि य पत्तं दसरण-वय-सामाईय सरण-वय-सामाइय दंसण-वय-सामाइय दुसरण -वय-सामाइय " दसण-वय-मामाइय दसरवर क्यदो विराहिया जे दसण विसुद्धविरणयं दसणसंसुद्धाणं पत्रयणसा० २ - १०८ ते ०५ (ज०) सरण-सुद-तवचररणम- भ० प्रा० १८६६ दसणसुद्धा पुरिसा पवयणसा० १ - ८२ ते ०७ (ज० ) दस सुद्धि सुद्ध दस सुद्धिविसुद्धो दूसरणसुद्धो धम्मज्झाण ၇၄င် भोक्खपा० ३६ भ० धारा० १४२ जोगसा० ८४ परम० प० २-११ सावय० दो० २२४ परम० प० २-४० पंचस० १-७२ कत्ति० श्रणु० १२१ वोधपा० १४ भ० श्रारा० २५१ भ० श्रारा० १२७६ भावस० ४४० चसु० सा० ४२० सावय० दो० १९७ सावय० दो० २०६ वसु० सा० २३२ भावस० ४६३ वसु० सी० ३५८ जबू० प० १३-१३३, रयणसा० ११ रयणसा० १० रयणसा० ११ भावति ७६ भावति० ४० भावति ८६ परम० प० २-७२ रयणसा० २६ सावय० दो० ८६ परम० प० २ - १६८ रयणसा० १२ श्राय० ति० २१-१ वसु० सा० ५२७ तिलो प०४-३७३ तिलो० प० ४-३७१ तिलो० प०४-१५१० तिलो० सा० ४६६ मूला० ४५५ भावस० ५१५ भावसं ० ४६५ भावसं० ४६४ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० पुरातन-जैनवाक्य-सूची दारगुहुच्छयवामा तिलो० सा० ५९२ | दिणपडिम-चीरचरिया- वसु० सा० ३१२ दारम्मि वइजयंते तिलो०प०४-१३१४ दिणयरकरणियराहय- जंबू० प०३-१८८ दारवदीए णेमी तिलो. प०४-६४२ दिपायरणयरतलादो तिलो० ५० ७-२७३ दारसरिच्छुस्सेहा तिलो० ५० ४-१८५८ दिणयरमयूहचुंबिय- जंबू० ५० ४-११३ दारस्स उवरि देसे - तिलो० प० ४-७७ दिपारयणिजाणणट्ट तिलो० ५०७-२४५ दारंतरपरिमाणं जव० प० १-४६ | दिवइपहसूचिचए(चीए) तिलो०प० ७-२४४ दाराणि मुणेयवा जंबू० ५० ५-१३ | दिणवइपहसूचिचए(चीए) तिलो०प०७-२३७ दारिदं अढित्तं भ० श्रारा० १८०८ | दिवइपहंतराणि तिलो० प०४-२४३ दारियदुषणयदणुयं दवस. य४१८ | दिप-वरिस-मास-पहरेहिं श्राय०ति०४-१६ दारुणहुदासजाला तिलो० प०२-३३१ दिए।इ सुपत्तदाणं रयणसा०१६ दारे व दारवालो म० श्रारा० १८४२ दिएण' वत्थ सुअज्जियह सावय० दो० २०३ दारोवरिमतलेसुं तिलो० ५०८-३५३ दिएणच्छेदेणवहिद- गो० जी० २९४ दारोवरिमपएसे तिलो. प०४-४५ दिएणच्छेदेणवहिद गो० जी० ४२० दारोवरिमपुराणं तिलो० ५० ४-७४ | दिपंत-रयणदीवा तिलो० ५० ३-५० दासं व मणं अवसं भ० श्रारा० १४१ | दिपंत-रयणदीवा तिलो. प०४-२७ दासी-दासेहिं तहा जवृ० प०३-१११ दिप्पंत-रयणदीवा तिलो० प०४-४६ दाहोपसमण तण्हा मूला० ५५६ दिप्पंत-रयणदीवा तिलो० ५० ७-४४ दिक्खाकालाईयं भावपा० १०८ दिपंत-रयणदीवा तिलो० ५०८-२११ दिक्खागहणाणुकम- दन्वस० णय० ३३७ दिप्पंत-रयणदीवा तिलो० प० -३६८ दिक्खोववासमादि तिलो० ५० ४-१०४६ दियसगट्ठियमसणं भावपा० ४० दिज्जइ धणु दुत्थिय-जण] सुप्प० दो० २२ दिवसप्पडि अट्ठसयं तिलो. प०४-२४३६ दिजदि अपंतभागे लद्धिसा० ५२६ दिवसयरविंबरुंदं तिलो०प०७-२२४ दिजदि तवो वि संठाणा- छेदपि० २६० दिवसिय-रादिय-गोयर छेदपिं० १८४ दिट्ठपरमट्ठसारा मूला ८०७ दिवसिय-रादिय-पक्खिय छेदपिं० २०१ दिट्ठमदिट्ट चावि य मूला० ६०६ दिवसिय-रादिय-पक्खिय मूला १७५ दिलृ पि ण सम्भावं म० श्रारा० १०६ दिवसेण जोयणसयं भ० श्रारा० ५६ दिटुं व अदिट्ट वा भ० श्रारा० ५७५ - दिवसे पक्खे मासे मूला० ४३३ दिट्ठा अणादिमिच्छा- भ० श्रारा० १७ दिवसो पक्खो मासो गो० जी० ५७५ दिट्ठाणुभूदसुद विसयाणं भ० श्रारा० १०६७ दिव्वक्वेत्तेहिं जुदो जवू० प०६-१२८ दिट्ठा पगढ़ वत्थु पवयणसा० ३-६१ दिव्वच्छराहि य समं धम्मर० १७६ दिट्ठा सुरणासुरणे कसायपा० ५५ दिव्वतिलयं च भूमी- तिलो०प०४-१२२ दिट्ठिप्पवादमंगं अंगप०१-७१ दिव्यपुर रयणणिहिं तिलो० ५० ४-१३६१ दिट्ठीइ चप्पिाए रिट्ठस० ३५ दिव्यफलपुप्फहत्था तिलो० सा० १७५ दिट्ठी जहेव (सय पि) गाणं समय० ३२० दिव्ववरदेहजुत्तं तिलो०५०८-२६७ दिट्ठीणं तिरिण सया अंगप० १-७३ दिव्वविमाणसभाए जबू० प०११-२३१ दिढे विमलसहावे तच्चसा० ४२ | दिव्वं अमयाहारं तिलो० प०६-८७ दिट्ठ वि सलिलजोए प्रायः ति० १६-२७ / दिव्वाणि विमाणाणि य धम्मर० १५८ दिढचित्तो जो कुचदि कत्ति० अणु० ३२६ दिव्वामलदेहधरा जबू० प०३-११५ दिगदिमाणं उदयो तिलो० सा० ३६५ : दिव्वामलदेहधरा जवृ०प०४-२२० दि८. ... श्राय० ति० १-१४ । दिव्वामलमउडधरा जवृ० प० २-१५४ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी १८१ दिव्यामोयसुगंधा जबू०प०३-२०७ दीवा लवणसमुद्दे तिलो. प० ४-२४७६ दिव्यामोयसुगधा जबू० ५० ५-२६ | दीवे कहि पि मणुया भावस०५३७ दिव्यामोयसुगधा ज० प०६-१२६ दीवेसु णगिदेसु तिलो. प. ३-२३८ दिव्युत्तरणसरित्थ(च्छं) रयणसा० १२० | दीवेसु तेसु णेया जबृ० प० १०-३६ दिवे भागे अच्छरसानो भ० श्रारा० १६०० | | दीवेसु सायरेसु य वसु० सा० ५०६ दिव्येहि य धूवेहि य जव० ५० ५-११७ | दीवहिं णिय-पहोह-जिय- वसु० सा० ४३६ दिसिफरिवरसेलाण जबू प०६-१८ | दीवहिं दीवियामस- वसु० सा० ४८७ दिसिदाह उक्कपडणं मूला० २७४ दीवोदहिपरिमाण जबू० ५० १२-५५ दिसि-विदिसतम्भाए तिलो० ५० ५-१६६ / दीवोदहिसेलाणं जबू० ५० १३-३१ दिसि-विदिसाणं मिलिदा तिलो० ५०२-५५ / दीवोदहिसेलाणं तिलो. प०१-१११ दिसिगयवरणामाणं जबू० ५० ११-७७ ! दावावहाण एवं जबू० ५० १२-५० दिसिगयवरेसु असु जवू० ५० १-७१ दीवोवहीण रूवा जबू० ५० १२-५३ दिसि-विदिमअंतरेसुं तिलो० ५०४-१००३ दोव्वंति जदो णिचं गो० जी० १५० दिसि-विदिसहिं परिमाणु करि सावय० दो० ६६ | दीसइ अवरो भरिओ श्राय० ति० -७ दिसि-विदिस तद्दीवा जवृ० १० १०-४६ दीसइ जल व मयतण्डिया भ० श्रारा० १२५७ दिसिविदिसतरगा हिम- तिलो० सा० ६१३ | | दीसेइ जत्थ रूवं रिट्टस०६८ दिसिविदि सिपञ्चखाणं भावसं० ३५४ | दीहकालमयं जंतू मूला० ५०७ दिमिविदिसिमाण पढम चारित्तपा० २४ दीहत्तमेककोसो तिलो. प०४-१५२ दीवहिचारखित्ते तिलो० सा० ३६६ | दीहत्तरंदमाणं(णे) तिलो. प०४-८४५ दीओ सयभुरमणो तिलो० प०५-२३८ | दीहत्तं बाहल्ल तिलो० प० है-१० दीणत्त-रोस-चिंता- भ० श्रारा० १५६१ / दीहत्ते विचियादे (१) तिलो. प०४-२०४५ दीणाणाहा कूरा तिलो० ५० ४-१५१७ / दीहेण छिदिदस्स य तिलो० ५०८-६०६ दीपकभिंगारमुहा तिलो. प०४-२७२१ | दुअ(ग)तीस चउर पुवे पचस ० ?-१२ दीव दिएण जिणवरहें सावय० दो० १८८ | दुइयं च वुत्तलिंग सुत्तपा० २१ दीवजगदीए पासे तिलो० प० ४-२४७ दु-कला बेकोसाहिय ज्बू० प०८-१७६ दीवज्जोई कुणइ , वसु० सा० ३१६ | दुक्कियक्म्मवसादो कत्ति० अणु०६३ टीवद्धपढमवलये तिलो. सा. ३५० दुक्खइँ पावइँ असुचि य: परम ० ५०२-१५० दीवम्मि पोक्खरद्धे तिलो० ५० ४-२७६० दुक्खक्खयकम्मक्खय- भ. पारा० १२२५ दीवयसिहा दु एगा रिहस० ४८ दुक्खतिघादीणोघं में गो० क० १२८ दीवसमुद्दे दिएणे तिलो० सा० ३० दुक्खतिघादीणोघं में क्म्मप० १२४ दीवसिहापजलंतो रिट्ठस०५६ दुक्खभयमीणपउरे मूला० ७२७ दीवस्स पढमवलए जबू० ५० १२-४८ दुक्खयरविसयजोए कत्ति० अणु० ४७१ दीवस्त समुहस्स य जंबू०प०१०-११ दुक्ख-वह-सोग-तावा क्म्सप० १४६ दीवस्म हु विक्खंभो जबु०प०६-८४ दुक्खस्स पडिगरेतो भ० श्रारा० १७६५ दीवगदुमा णेया जवू० प० २-१३२ दुक्खहॅ कारणि जे विसय परम प० १-८४ दीवंगदुमा माहा- तिलो. प. ४-३४६ दुक्ख] कारणु मुरिणवि जिय परम० प० २- २७ दीवं मयंभूरमण जंबू० प० ।-८८ दुक्रवह कारण मुणिवि मणि परम०प०२-१२३ दीवारण समुदाण य जवू०प०२-१६८ दुक्ख उप्पादिता भ. श्रारा. १२७१ दीवादी अवियंति [य] अंगप०१-३० दुक्खं गिद्धीघस्थस्मा- भ० श्रारा० १६६३ दीवायण माणवको तिलो. प० ४-१५८४ ! दुक्ख च भाविद होदि भ० भाग० २३६ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ पुरातन-जैनवाक्य-सूची lih दुक्ख णिंदा चिंता दव्वस० णय० ३५० | दुग सग चदुरिगिदसयं आम ति० २१ दुक्खं दुजसबहुलं तिलो० प० ४-६७१ । दुगसत्तचउक्काई तिलो० ५० ७-३३ दुक्ख लाहं चत्ता रिदृस. २२६ दुगसत्तदसं चउदस तिलो०८-४५८ दुक्खाइ अणेयाइँ श्रारा० सा० ४२ दुगुण परीतासंखे- तिलो० सा० १०६ दुक्खा य वेदणामा तिलो. प० २-४६ | दुगुणम्मि भइसाले तिलो० ५० ४-२६१३ दुक्खिदसुहिदे जीवे समय० २६६ / दुगुणम्मि भदसाले तिलो. प० ४-२०२८ दुक्खिदसुहिदे सत्ते समय० २६० दुगुणम्मि भहसाले तिलो. प० ४-२०१८ दुक्खु वि सुक्खु वि बहु-विहउ परम०प०१-६४ | दुगुणं हि टु विक्खंभो जवृ० ५० १०-६) दुक्खु वि सुक्खु सहतु जिय परम० प० २-३६ | दुगुणाए सूजी(च)ए तिलो० ५० ४-२७६० दुक्खे णजइ अप्पा मोरखपा० ६५ | दुगुणि च्चिय सुजी(ची) तिलो०प० ४-२५९६ दुक्खे णज्जदि णाणं सीलपा० ३ दुगुणियसगसगवासे तिलो० ५० ५-२५७ दुक्खेण णतखुत्तो भ. श्रारा० १७८६ दुगुणियसगसगवासे तिलो० प०५-२५६ दुक्खेण देवमाणुस- भ. श्रारा० १२७६ दुगुणिसु कदिजुद जीवा- तिलो० सा० ७६३ दुक्खेण लभदि माणुस्स- भ० श्रारा० ७८१ दुगुणिसुहिधणुवग्गो तिलो० सा० ७६५ दुक्खेण लहइ जीवा भ० श्रारा० ४६३ दुग्गदिदुस्सरसहदि गो० क० ३१० दुक्खेण लहइ वित्तं भावसं० ५६१ दुग्गमणादावदुगं गो० क. ४०५ दु-ख-णव-णव-चउ-तिय-णव-तिलो०प०४-२३७५ दुग्गमदुल्लहलामा मूला० ७२२ दुख पंच एक सग व तिलो. प० ४-२८५० दुग्गधं वीभत्थ(च्छ) बा० अणु० ४४ दुगअट्ठएक्कच उणव- तिलो. प. ७-३३७ दुग्गाडवीहिजुत्तो तिलो. १०४-२२३३ दुगअट्ठगयणणवयं तिलो० ५० ४-२७३४ दुचउसगदागिणसगपण- तिलो० ५० ५-२६५३ दुग-अट्ठ-छ-दुग-छक्का तिलो० ५० ७-३३५ | दचयहदं संकलिद तिलो. प० २-८६ दुगइगतितियणवया तिलो. प०७-२६ दुजुदाणिं दुसयाणि तिलो० ५० १-२६२ दुग एक चउ टु चउणभ तिलो० प०४-२८६५ | दुजणवयणचडक्क भावपा० १०५ दुग घउ अट्ठाई तिलो० ५० ४-२५५६ दुजणवयण चडपड दुगचउरट्ठडसगइगि तिलो० सा० ६२८ दुजरणसंसग्गीए भ० श्रारा० ३४४ दुगचदुअणेयपाया भ. श्रारा० १७३७ दुजणसंसग्गीए भ० भारा० ३४६ दुगछक्कअछक्का तिलो. प०७-२५० दुज्जणु सुहियउ होउ जगि सावय० दो० २ दुगछक्कतिरिणवग्गे___ गो० क० ३८३ | दुट्ठट्टकम्मरहियं मोक्खपा० १८ दुग छक्क सत्त अटुं दुट्ठा चवला अदिदुज्जया भ० श्रारा० १३१६ दुगछत्तियदुगसत्ता तिलो. प० ७-३१६ दुढे गुणवते वि य दसणसा. १६ दग-छ-दग-अट्र-पंचा तिलो. ५० ७-३३० रिण य एय एय वसु०मा० २५ दुगणभएक्किगिअडचउ- तिलो०५० ४-२८८० । दणि सय विंसत्तर: सावय. दो० २२२ दुगणभणवक्क पंचा तिलो. प० ७-३८६ दुतडाए सिहरम्मि य तिलो. प० ४-२४४७ दग तिग शुभ छ दुग णभ भावति० ३५ | दुतबादो जलमज्झे तिलो० ५०४-२४०५ दुग तिग तिय तिय तिरिण य तिलो०प०७-५५८ | दुतडादो सत्तसयं तिलो. सा० १०४ दुगतिगभवा हु अवरं गो० जी० ४५६ / दुतडे पण पण कचण- तिलो० सा० ६५६ दुगद्गअडतियसुरणं अगप०१-३६ दुतिआउ-तित्त्थ-हारचउक्कूणा लद्धिसा० ३१ कत्ति० अगु० १७० गवेकरसं गो. क. ३६५ दुगदुगदुगणवतियपण- तिलो०५०४-०६४० दुद्धरतवस्स भग्गा भावस. १३३ दुगवारपाहुडादो गो० जी० ३४१ । दुपदेसादी खंधा पवयासा०२-७५ मूला०८६७ गो० क०३७६ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ hter प्राकृतपद्यानुक्रमणी १८३ दुप्पहुदिख्ववज्जिद- तिलो० सा० ५६ | दुविहा य होइ गणणा शाय. ति० २२-२ दुभगदुस्सरणिमिणं पघस० ५-६४ दुविहा य होति जीवा मूला० २०४ दुभगदुस्सरमजस पचस०४-३६६ | दुविहो खलु पडिवादो कसायपा० ११७(६४) दुभगदुस्सरमजसं पचस० ४-४५३ दुविहो जिणेहि कहियो भावस. ११६ दुव्भगदुस्सरमसुभं पंचस०३-७८ दुविहो तह परमप्पा णाणमा० ३२ दुन्भावअसुचिसूदग- तिलो० सा० ६२४ दुविहो धम्मावाओ सम्मइ० ३-४३ दुमणिस्स एक्कअयणे तिलो० ५० ७-५२६ | दुविहो य तवाचारो मूला० ३४५ दुरदे यच्चावाश्रो श्रायः ति०८-२० | दुविहो य विउस्सग्गो मूला० ४.६ दुरधिगर्माण उणपरमट्ठ- पंचस० ५-५०२ दुविहो सामाचारो मूला० १२४ दुरय-हरि-हय-वहम्मि य रिट्ठस० २१३ दुविहो हवेदि हेदू तिलो० ५० १-३५ दुलहम्मि मणुअलोए रिट्ठस० १२ दुविहि अरणाविट्ठी जवृ० प०२-२०३ दुल्लहलाहं लभ्रूण मूला० ७५६ दुसमसुसमावसाणे सुदख० ६४ दुल्लहु लहि मणुयत्तणउ सावय० दो० २२१ । दव्वस० णय० ४२२ दुल्लहु लहिवि णरत्तयणु सावय० दो० २२० । दु-सय-चउसटि-जोयण- तिलो. प० ४-७५२ दुविध तं पि अणीहा भ० श्रारा० २०१६ । दु-सय-जुद-सग-सहस्सा तिलो० प० ४-११२४ दुविधा तसा य उत्ता . मूला० २१८ दु-सया अट्ठत्तीसं तिलो०प०४-१७६ दुविधो य होदि कालो जंवू० ५० १३-२ | दुसहस्सजोयगाणिं तिलो०प०४-२०१८ दुविह-तवे उज्जमण भावस० १२६ दुमहस्सजोयपाणिं तिलो०प०४-२५५३ दुबिह-परिणामवादं भ० श्रारा. १७७१ दुसहस्सजोयगाणि तिलो०प०४-२८२४ दुविह आसवमग्ग दवस. णय०१५१ | दसहस्सजोयणाधिय- तिलो. प००-१६५ दुविहं खु वेयणीयं कम्मप० ५२ दुमहस्समउडरद्धा तिलो० ५० १-४६ दुविहं च तत्थ णटुं पाय. ति०१८-२ दुसहस्सं सत्तसयं तिलो०प०४-२६०६ दुविहं चरित्तमोह कम्मप० ५५ दुसहस्सा वागाउदी तिलो. प०४-२१२५ दुविहं च होइ तित्थ मूला० ५५८ दुसु तेरे दस तेरस पचस० ५-३२२ दुविह तत्थ भविस्स श्राय. ति०२१-४ तिलो० सा०४८ दुविहं त पुण भणियं भावसं० २६४ दुसु दुसु चदु दुसु दुसु चउ तिलो० सा० ५४३ दुविह तु भत्तपञ्चक्खा- भ. श्रारा० ६५ दुसु दुस तिच उक्केसु य तिलो० सा० ५२६ दुविह तु होइ सुमिण रिट्ठस. ११२ दुसु दुसु तिचक्केसु य मिलो० ५० ५२७ दुविह पि अपज्जत्त गो० जी० ७०६ दुसु दुस् तिचरक्वेसु य * तिलो. मा० ५२६ दुविह पि एयरूव रिट्टस. ११४ दुसु दुसु तिचक्के सु य * तिलो० प० ८-५५८ दुविहं पि गथचाय दसणपा० १४ दुसु दुसु देसे दोसु वि गो० ० ८३५ दुविह पि मोक्खहे उं दव्वमं० ४७ दुसु दुसु पणइगिवीस श्रास. ति० २३ दुविह संजमचरणं चारित्तपा० २० दुस्समकालादीए जबृ० प० २-१८३ दुविहा अजीवकाया वसु० सा० १६ दुस्समकाले णेश्रो जव०प०२-११० दुविहा किरियारिद्धी तिलो. प०४-१०३१ दुस्समदुसुमे काले जवृ० प००-१८५ दु वहा चर-अचगो तिलो. प० ७-४६५ दुस्ममसुमम दुम्सम- तिलो० प. ४-३१६ दुविहा चरित्तलद्धी लद्धिसा. १६६ दुस्समसुसमे काले तिलो. प० ४-१६१७ दुविहाणमपुण्णाण कत्ति० अ० १४१ | दुस्समसुसमो तदिओ तिलो०५०४-१५५४ दुचिहा पुण जिणवयणे भ० धारा० ३ दुस्सहस्वमग्गजई कत्ति अणु० ४४८ दुविहा पुण पदभगा गो० ० ८४४ । दुस्सहपरीमहेहिं य , भ. अरा० ३०१ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ पुरातन-जैनवाक्य-सूची दुदुभगोरत्तणिभो तिलो० ५० ५-१६ | देवद-पासंदृटुं मूला० ४२५ दुदु हन्मुइग-मद्दल- तिलो० ५० ६-१४ | देवदुध पणमरीरं पंचस०३-६० दूअक्ख राइ दूह(?) __ रिटस० १६२ | देवदुयं पंचिंदिय । पचस०४-२६४ दूओ बभण विग्यो भ० श्रारा० ११३, देवदुयं पंपिंटिय। पचसं०५-२० दूयस्त परहयाल रिस० २४१ देवमणुस्सादीहि पचस. १-३७ दूराव किट्टिपढम ला दिसा. १५८ | देवर्यापयणिमित्तं धम्मर०२५ रदूण य ज गहणं जबू० ५० १३-६ देवयपियरणिमित्त धम्मर० १४३ दूरण साधुमत्थ भ० धारा० १३०६ । देवरिसिणामधेया सिलो. प०८-६४४ दूरे ता अगत्तं ___सम्मइ० ३-१ देवलि पाहणु तिथि जलु पाहु. दो० ६६ देइ जिणिदहें जो फलइँ सावय० दो० १६० देववरोदधिदीवा तिलो० ५०५-२३ देउ ण दउल णवि सिलए परम०प०१-१२३क्षे०१ देवस्सियणियमादिसु मृला. २८ देउ पिरजणु इउँ भणड परम० प० २-७३ | देव: सत्यहँ मुणिवरहें परम० ५०२-६३ देउलु देउ वि सत्थु गुरु परम० प० २-१३० परम०प०२-६२ देखताह वि मूढ वढ पाहु० दो० १६६ देवा-अजसफित्ती पचस०३-६६ देवकुरुखेतजादा तिलो० ५० ५-२०६६ पंचमं०४-४२३ देवकुरु पउम तवण तिलो० सा० ७४० देवागं पमत्तो+ गो० क. १३६ देवकुरुम्मि[यविदिमे जंवृ०५०६-१७ देवागं पमत्तो+ क्म्म प० १३० देवकुरुवएणणाहिं तिलो. प० ४-०१६१ देवाउगं पमत्तो + पचस०४-४२७ देवगइमह गयाषी पचसं० ५-४६१ ! देवाग पमत्तो+ पचस०४-४५६ देवगई पयडोओ पसं० ४-३५० देवास्स य उदए ४ पचस०५-२२ देवगीदो पत्ता तिलो०प०८-६८१ देवाउस्स य उदए ४ पंचम०५-२६७ देव-गुरु-धम्म-गुण-चारित्तं रयणसा० ४६ देवास्स य एवं पंचस०४-४३२ देव-गुरुम्मि य भत्तो मोक्खपा० ५२ देवा चरिणकाया पस्थि. 15 देव-गुरु-मत्थभत्तो दवस० गय०३१० देवा चरिणकाया जंबू० ५० ५-६. देवगुरुसमयकज्जेहि छेदपिं० १०६ देवाण गुणविहूई भावपा. देवगुरुसमयभत्ता रयणमा०६ | देवाण णारयाणं कत्ति० अणु० १६५ देवगुरूण णिमित्त कत्ति० अगु० ४०६ देवाण भवणिवहो जबू० प० - १२६ देवगुरूणं भत्ता मोक्खपा० ८२ देवाण होइ देहो भावस०४५ देवचउकं वज्ज गो० क०२१४ देवाणं अवहारा गो० जी० ६३४ देवचउक्काहारदु गो० क० ४०० देवाणं देवगढी देवञ्चणाविहाग भावस. ६२६ देवाणं पि य सुक्ख कत्ति. अणु०६६ देवच्छंदस्स पुरो तिलो. प०४-१८८० देवाण सव्वाणं श्राय०ति०८-१६ देवच्छेदसमायो जवृ. ५० ४-७ देवा पुण एइंदिय - गो. क० ३८ देवजुदेकट्ठाणे गो० क. १७१ देवा पुरण एइंदिय कम्मप० १३४ देवट्ठवीस परदे गो० क० ५७० देवा य भोगभूमा देवठ्ठवीसबंधे गो० क० ५७३ देवारर एचदुरण जवृ० प०७-६ देवतसवण्णअगुरुचउकं लद्विसा०२१ देवाररणम्मि तहा जंबू०प०-६ देव तुहारी चिंत महु पाहु. दो० १८२ | देवारगणं अण्णं तिलो०प०४-२३२२ देवत्तमाणुसत्तो भ० श्रारा० १५८८ | देवा विज्जाहरया तिलो. प० ४ -१५५५ देवद-जदि-गुरुपूजासु पवयणसा. १-६६ । देवा विणारइया वि कत्ति० अणु० १२ भावति०७१ मूला० ११२६ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी १८५ देवासुरमहिदाओ तिलो० ५० ५-२३, देवेहिं सादिरेगो देवासुरा मणुस्सा कलाणा० ३२ | देवेहि सादिरेया देवासुरिंदमहिदे जवू० ५० १-१ देवेहिं सादिरेया देवासुरिंदमहियं जवू० ५० १३-८० | देवो वेगुव्वे देवासुरिंदमहिया जबू० ५० ७-६२ | देवो पुरिसो एक्को देवाहारे सत्थं गो० क० ६०२ देवो माणी संतो देविय-माणुसभोगे भ० श्रारा० १२१६ | देवो वि धम्मचत्तो देविंदचक्कवट्टी भ० श्रारा० १२६५ | देसकुलजम्मरूवं देविंदचक्कवट्टी भ० श्रारा० १६५५ | देस-कुल-जाइ-सुद्धा देविंदचक्कवट्टो भ० श्रारा० २१४८ | देस-कुल-जाइ-सुद्धो देविंदचक्कहरमंडलीय- वसु० सा० ३३४ देस-कुल-रूवमारोग्गदेविंदप्पहुदीण तिलो०प०३-१८ | देसगुणे देसजमो देविद-राय-गहवइ- __ भ० श्रारा० ८७६ | देसजमे सुहलेस्सतिवेददेवीश्रो तिरिण मया तिलो० ५०३-१०३ | देसणरे तिरिये तियदेवीण विरिण परिसा जवू०प०६-१३७ देसतियेसु वि एवं देवीण परिवारा तिलो० प० ७-७७ | देस त्ति य सव्व त्ति य देवी तस्स पसिद्धा तिलो० प० ४-४४६ | देसत्थरज्जदुग्गं देवी-देव-समाज सिलो० ५०८-५७२ | देसम्मि तम्मि णयरी देवा-देवसमूह तिलो. प०३-२१३ | देसम्मि तम्मि णेया देवी-देव-समूहा तिलो० ५०४-११८२ | देसम्मि तम्मि मज्झे देवी-देव-सरिच्छा तिलो. प० ४-३८५ | देसम्मि तम्मि मज्झे देवाधारिणि (धरणी) णामा तिलो०प०४-४६३ | देसम्मि तम्मि होइ य देवीपासादुदया तिलो० सा० ५१४ | देसम्मि तिलयभूदा देवीपुरउदयादो तिलो० प०८-४१५ | देसम्मि होइ एयरी देवी-भवणुच्छेहा तिलो० ५०८-४१३ देसम्मि होइ एयरी देवीहि पहिंदेहि विलो० ५०-३७७ | देसवई देसत्थो + देवुत्तरकुरुखेत्त जबू० प०६-१७६ | देमवई देसत्थो+ देवे अणण्णभावो पचस०१-१६५ देसविरदादि उवरिमदेवे थुवइ तियाले(ल) भावस० ३५५ देसविरदे पमत्ते देवे वहिऊण गुणा भावस०४८ | देसविरये च भगा देवे वा वेगुन्वे गो. क. ११८ देसस्स तस्स गया देवेसु णारयेसु य मूला० १११४ देसस्स तस्स णेया देवेसु देव-मणुए . लद्धिसा० १४६ देसस्स तस्स णेया देवेसु देव-मणुवे । गो. क. ५६२ देसस्स तस्स णेया देवेसु य इदत्त जबू० प. ११-३५८ देसस्स तस्स णेया देवेसु य णिरया पचस० ५-४८० देसस्स तस्स णेया देवेसु लोगपाला जबू० ५० ११-३०६ | देसस्स तस्स गेया देवेसु सुसमसुसमो जबृ०५० २-१७२ | देसस्स तस्स दिट्ठा देवे हारोरालिय श्रास. ति० ३२ | देसस्स तस्स मज्झे देवेहि भेभीसिदो वि हु भ० श्रारा० १६६ | देसस्स मज्झभागे गो० जी० ६६२ गो० जी० २६० गो० जी० २७८ गो. क. ३१४ श्रगप०२-२१ भ. श्रारा० १५६४ कत्ति० अणु०४६३ मूला. ७५६ श्रा० भ०१ वसु० सा० ३८८ भ० श्रारा० १८६६ भावति०३७ भावति ११ गो० क० ६४८ गो० क० ३८२ मूला० ४३८ दवस. एय० २४५ जबू०प०८-४६ जंवू० प०८-१६६ जबू०प०६-२७ जबू०प०१-१५६ जबू०प०८-१६० जंवू० प०८-७३ जबू०प०८-३६ जंवू०प०८-६० णयच० ७२ दवस. णय. २४२ तिलो० प० २-२७५ गो० जी० १३ पंचस०५-२०० चवू० प०८-१३५ जबू० प०८-१४४ जवू०प०१-३४ जब० प०१-१० जब० प०६-१२१ जब० प०६-१३० जव० ५०६-१३६ जब० प०६-१७ जंबू० ५० ७-३८ जय० ५०८-११२ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ पुरातन-जैनवाक्य-सूची देसस्स मज्झमागे जंब० ५०८-१८ देहस्स य णिव्यत्ती मूला० १०५० देमस्म रायधाणी जव० प० ६-४१ / देहस्स लाघा गेह म. पारा० २४४ देरच रज दुग्गं णयच०७४ देहस्स मुक्कसोणिय भ० श्रारा० १००४ देसं भोच्चा हा हा भ० श्रारा० ६६३ देहस्सुच्चत्त मज्झिमासु वसु० सा० २५४ देसा दुभिक्खीदी- तिलो. सा. ६८० परम०प०२-१ देसामासियसुत्तं भ० श्रारा० ५:२३ देहह उभउ जरमरणु परम० ५० १-७० देसावरणगणोएण्व्भत्थं गो० क० १६८ देहहँ पेक्खिवि जरमणु, परम० ५० 1-01 देसावहि इब्भेयं सुटसं० ६३ | देहहिं उभर जरमरणु पाहु. दो० ३४ देसावहि परमावहि भावसं० २६० देहहो पिक्खिवि जरमरणु, पाहु० दो० ३३ देसावहिवरदव्यं गो० जी० ४१२ देहं तेयविहीणं रिटम० ३३ देमेक्कदेसविरदो भ० प्रारा० २०७० देहादि उ जे परि कहिया (य) जोगमा० १० देसे तदियकसाया गो० क० २६७ / देहादिउ जे परि कहिया(य) जोगसा." देसे तदियकसाया गो० क० ३०० देहादिउ जो परु मुणइ . जोगसा० ४८ देसे पुह पुह गामा निलो० सा० ६७० देहादिचत्तसंगो भावपा० ४४ देसे सहस्स सत्त य पसं० ५-३६३ देहादिसंगरहिओ भावपा०५६ देसो त्ति हवे सम्म .. गो० के० १८१ | देहादिसु अणुरत्ता रयणमा० १०६ देसो त्ति हवे सम्म क्म्मप० १४३ । देहादी फस्संता गो. क. ३४० देसो समये समये लद्धिमा० १७४ | देहादी फासंता + गो० क.१० देसोहिअवरदच गो० जी० ३६३ देहादी फास्ता + क्म्म प० ११६ देमोहिमज्मभेदे गो० जी० ३६४ | देहा-देवलि जो बसड परम० ५० ३३ देसोहिस्स य अवरं गो० जी० ३७३ देहा-देवलि जो वसइ पाहु० दो० ५३ देसोही परमोही अंगप० २-७० देहा-देवलि देउ जिणु जोगसा० ४३ देहअवट्ठिढकेवल- तिलो. प० १-२३ । देहा-देवलि मिउ वसड पाहु. दो० १८६ देह कलत्तं पुत्तं रयणसा० १३७ | देहा-देहहि जो बसड परम० प० १-२६ देह गलंतह सवु गलइ पाहु. दो० १०३ / देहादो वदिरित्तो बा० अणु०४६ देहजुदो सो भुत्ता दवस० णय० १२३ देहा य हुंति दुविहा दवस. णय. १२२ देह-तव-णियम-संजम- घसु० सा० ३४२ / देहायारपएसा दव्वस० गय००४ देहतियबंधपरमो- भ० श्रारा० ०१२३ देहा वा दविणा वा पवयणसा० ०-१०१, देहत्थो भाइजड भावस०६०१ देहि दाण चउ कि पि करि सावय० दो० १२१ देहत्थो देहादो तिलो० ५० १-४१ | देहि वसंतु विणवि मुणिउ परम० प० २-१६५ देहपमाणो णिच्चो कल्लाणा० ३६ देहि वसतु वि हरि-हर वि परम० ५० १-४२ देहमहेली एह वढ पाहु० दो० ६४ देहि वसंते जेण पर परम०प०१-४४ देहमिलिदो वि जीवो कत्ति० अणु० १८५ देहीणं पज्जायाx रायच०३१ देहमिलिटो वि पिच्छदि कत्ति० अणु० १८६ देहीणं पज्जायाx दवस. य. २०३ देहमिलियं पि जीवं कत्ति० अणु० ३६६ देहीति दीणकलुगा जंब० ५० २-१६६ देहम्मि मच्छलिंगं भ० श्रारा० १०३३ देहीति दीणकलुसं देह-विभिएणउ णाणमउ परम० प० ३-१४ | देहुदो चापाण तिलो० सा० ८२६ देह-विभेय जो कुएइ परम० प० २-१०२ | देह वि जित्थु ए अप्पणउ परम० प० २-१४५ देहसुहे पडिबद्धो तञ्चसा० ४७ | देहे अविणाभावी गोक०३४ देहस्स बीयणिप्पत्ति- भ० श्रारा० ५००३ } देहे अविणाभावी मूला०८11 कम्मर० १०४ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द देहे धादिमहिदे देहे विक्खा देहे वसतु विविविइ देोयेण सहियो + देोदये सहियो + देह पाणावं देहो बाहिरगो देहो य मरणो वाणी x देव्व मरणो वाणी x सुरति गह दो उग गया भगवया दो वरं वज्जित्ता दो उवरि वज्जित्ता दो को चक्की कोड लक्खा दो को वित्था प्राकृतपद्यानुक्रमणी भ० रा० १२४६ | दोणि पयो खिहिउवमा मुला० ८०६ | दोरिण य सत्त य चोदसपरम० ५० १ - ३४ | दोणि वि इसुगाराणं गो० ० ३ | दोणि वि मिलिदे कप्पं कम्मप० ३ | दोरिण वियप्पा होति हु भावस० ११७ दोणि सदा पणवण्णा श्रारा० मा० ३३ | दो रिण सया डहत्तरि पवयणसा० २-६६ दोणि सया गायन्त्रा तिलो० प० ६-३१ दाणि सयाणि अट्ठातिलो० प० १ - १२४ दोणि सया देवी सम्मइ० ३ -१० दोरिण सया पण्णासा पचस० ५-४३२ | दोणि सया वीसजुदा पचस० ५-४५५ दोरिण सहस्सा चउसय तिलो० प० ४ - १२८८ दो रिण सहस्सा ति-सया तिलो० प० ८ - २६५ दोणि सहस्सा दुसया तिलो० प० ४- १७२ | दोण्ड वि गयाण भणियं तिलो० प० ४-१७ | दोएहूं इसुगाराणं तिलो० प० ३ - २६ | दोह इसुगाराण | गाढ दो कोसा उच्छे हो दो कोमा उच् दो गुद्धिस्य दो-गुणहाणि-प्रमाण तिलो० प० ४ - १५६६ | दोह इसुगाराण दोह इ ( उ ) सुगाराण दोह इ ( उ ) सुगाराण दोहं इ ( उ ) सुगाराणं गो० जी० ६१३ | गो० क० ६२८ दोच उअडचउसगछज्ज्ञोयरण- तिलो०प०४ - २६६४ दो चाणं मिलि तिलो० मा० ४०१ दो चेव मूलिम (य) गया: दो चेव य मूलरणया * दो वेव सहस्सा दोच्छायाहॅ गियच्छइ दो चक्कं ढोकच उक्कं dhacarरसभाग दोजगारण अंतरदो मामगिरीण दोजोयण - लक्खाणि दोद तु जधाजाद दो दोमुहाभिधा मुि मुहंता ater far लक्खाणि दोणि तो पचखुतिसु care गिरिराया णयच० ११ दो तिह च दव्वस० य० १८३ दोहं तिरहं छह पचस० ५ - ३८६ | ढोह दोह छक्क रिस० ७६ | दोह पच य छचेव *गो० क० ७१० दोहं पंच य छचेव * पचस० ५-४१४ | दोहं पितरालं तिलो० प० १-२८१ दोरह भासताण जवृ० प० ६- १८ | दोयहं मेरुण तहा जबू० प० ६- १४ |दोरहं वाससहस्सा तिलो० प० ४ - २५६२ दो तिरिण वि सालाओ मूला० ६०१ दो-ती-वहि-रुंद दो तीस चत्तारिय तिलो० प० ४-१३३८ |दोत्तिगपभवदुउत्तर जबू० प० - १२० दो दंडा दो हत्था जब० प० ६-१४५ दो दियहा य दिट्ट (द्ध) तिलो० प० ७-६०० दो दो भरहेरावद सिद्धत० ७२ | दो दोस विप्पमुक्के भट्ठ ति तिलो०प०४-२८६६ २८७ तिलो० प०८ - ४६३ गो० क० ७६० क्षे २ तिलो० प० ४-२७८२ तिलो० प० ४-३६५ तिलो० प० १-१० तिलो० प० ४- १५०२ तिलो० प० ४ - १२७२ ज० प० १-५६ तिलो० प०२-२६७ तिलो० प० ३-१०४ तिलो० प०४-२००६ तिलो० १०४ - १४८७ तिलो० प० ४ - ११०६ तिलो० प० ४ - १११२ तिलो० प० ४ - २२१५ समय० १४३ तिलो० प० ४-२५३६ तिलो० प० ४-२५५१ तिलो० प० ४-२५५७ तिलो० प० ४-२७०४ तिलो० प० ४-२७६३ तिलो० प० ४-२७६७ जबू० प० ११-७५ लहिसा० ३५० छेदापं० २०३ तिलो० प०८-६६८ • पचसं० ४-६८ गो० जी० ७०४ तिलो० प० ४-२०७५ छेदपिं० ८७ जबू० प० ११-२६ जबू० प० ११-२५३ भ० श्रारा० ६३७ तिलो० प० ४-१३३६ पंचस० ४-३१४ गो० जी० ६१६ तिलो० प०२-२२१ रिट्स ० ६३ तिलो० प० ४-२४४७ जोगिभ० ३ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ पुरातन-जैनवाक्य-सूची दो दो महस्समेत्ता तिलो० ५० ७-८८ दो दो चउ चउ-कप्पे तिलो. सा. ४८१ दो हो चंदरविं पडि तिलो. सा. ३७४ धइवदसुरेण जुत्ता जवू० प०४-२२७ दो दो तिय इग तिय णव तिलो०५०४-२८४२ धणदा वि व दाणेणं तिलो. प० ४-२२७८ दो दोवग्गं वारस तिलो० सा० ३४६ धणु दिंतु: सुप्पहु भणइ सुप्प० दो० २० दो होसुं पासेसुं तिलो. ५० ४-८१३ धण-धरण जय-पराजय अगप० ५-५८ दोधणुसहसुत्तुगा __वसु० मा० २६० धण-धएण-दुपय-चउपय- । धम्मर० १४७ दोपक्खखेत्तमेतं तिलो. प० १-५४० धण-धएण-रयणणिवहो जवू०प०८-१०३ दोपक्खेहि मासो तिलो. प०४-२८६ | धण-धएण-वत्थदाणं बोधपा०४६ दो पण चउ इगि तिय दुग तिलो०५० ४-२६६३ धण-धरण संपरिउडो जवू० प०८-४२ दोपंचंबरइगिदुग- तिलो० ५० ४-२६११ धण-ध जवृ०प०१०-७६ दो पासेसु य दविवरण- तिलो० ५० ४-२७६२ धण-धरणाइसमिद्धे रयणसा०३० दो पासेसुं दक्षिण- तिलो० ५० ४-२५५० धणवधुविप्पहीणो धम्मर ८५ दो भेद च परोक्ख तिलो० प०१-३६ | धणवता सुप्पहु भणड सुप्प० दो०४ दो मिस्स कम्म खित्तय श्रास० ति० १३ | धणसंजुयाण भरिया श्रायः ति० १३-३ दोमेच्छाणं खडा जंबू० प० ७-१०६ धणिदं पि संजमंतो भ० धारा०६० दोरुहसुएणछक्का तिलो. प० ४-१४४१ धणु तणुतुंगो तित्थे तिलो० सा० ८०४ दो रुद्दा सत्तमए तिलो. प० ४-१४६६ | धणु दीणहें गुण मजु(ज)णहें सुप्प० दो० ३८ दो लक्खाणि सहस्सा तिलो. प० २-६२ धणु पट्ट बाहुचूली जबू०प० २-२१ दो लक्खा परणारस- तिलो. ५० ४-२८२२ धणु-फलिह-सत्ति-तोमर- जबृ० ५० ४-२४७ दो लक्खेंहिं विभाजिद- तिलो० ५० ५-२६४ धणुवीमहदसयकढी गो० जी० १६७ दो सगणभ इगि ढग चउ तिलो०५०४-२८१ धएपडढगामणिवहो ज०प०६-११० दो सग रणव चउ छद्दो तिलो. प०४-२६८० धरणस्स संगहो वा पचस०३-३ दो सग दुग तिगणव णभ तिलो०प०४-२८७३ धण्णा ते भयवंत वुह जोगसा० ६४ दोसब्भावं जम्हा दव्वस० णय० ३८ धण्णा ते भयवता श्रारा० सा०६१ दोससहिय पि देवं कत्ति० घणु०३१८ धण्णा ते भयवंता भावपा० ११५ दोससिणक्खत्ताणं तिलो० प० ७-४७५ धरणा हु ते मणुस्सा । भ० श्रारा० २६६ दोसंण करेदि सयं कत्ति० अणु० ४४६ धरणोसि तुमं सुज्जस श्रारा० सा. ६२ दोमा छुहाइ भणिया भावसं० २७३ | धरणोसि तुमं सुविहिद भ० श्रारा०५१३ दोसु गदीसु अ भज्जाणि कसायपा० १८३(१३०)| धत्ति पि संजमंतो भ० श्रारा० ८७० दो सुण्णो एक्काजणो तिलो० ५० ४-५२८७ धम्मकहाकहणेण य मूला० २६४ दोसुत्तरेसु मूलं पाय० ति० ५-११ धम्मगुणमग्गणाहय गो० जी० १३६ दोसु थिरेसु णराणं आय. ति०५-४ | धम्मच्छि अधम्मच्छी समय०२११२०१४(ज०) कत्ति० घणु० ३५९ धम्मजिणिंदं पणमिय जंबू० प०६-१ दोसुं पि विदेहेसुं तिलो. १०४-२२०२ । धम्मज्माणभासं रयणसा०६६ भ. श्रारा० १७६६ धम्मज्माणं झायदि णाणसा० ३१ दो हत्यमेक्ककोसो तिलो. प०४-१५० धम्मझाणं भणियं भावस. ३६६ दोहत्थं वीसंगुलि तिजो०५०२-२३० धम्मणिमित्तं घरु घरणि सुप्प० दो० २६ दोहि वि णहि णीअं सम्मइ० ३-४६ धम्मत्थिकायमरसं पचत्यि० ८३ धम्मदयापरिचत्तो तिलो०प०२-०१६ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध धम्मफलं मग्गंता धम्ममरणुत्तरमेयं धम्ममधम्म दव्वं धम्मम्म पिवासो धम्मम्मिय अणुरत्तो धम्मम्म सति कुंथुसु चम्वरं वेसण धम्मणि जीवो धम्मविणो सोक्ख धम्मसरूवे परिणवड चम्मस्स लक्खणं से महॅ अत्थ कामहॅ वि धरो थि धम्मच दुपारं धम्मं मुदि जीवो धम्मं पससिदू धम्मं सुक्कं च दुवे धम्मं सुकं च दुवे धम्मादीसह चम्माटो चलमाणं चम्माधम्मणिबद्धा धम्माधम्म च तहा धमाधम्मा कालो धम्माधम्मागामा बम्माधम्मागासा धम्माधम्मागासा धम्माधम्मागासा बम्माधम्मागासा * चम्माधम्मागामाणि बम्माधम्मागुरुलघु मधमादी धम्माधम्मिगिजीवग माम्मुवि एक्कु जिउ बम्माभावेण दु लोगग्गे माभावे पर धम्मा य तहा लोए धम्मरकुंथू कुरुवंसजादा धम्मावासयजोगे धम्मिल्लाणं चयण मी धम्मसहावो प्राकृत पद्यानुक्रमणी जनू० प० १०-६० मूला० ७७८ कति० श्र० २१२ भावपा० ७१ रि० ६ तिलो० प० ४-१०६४ तिलो० प० ८- ६५ कत्ति० अ० ४३४ | | भ० धारा० १६३६ कत्ति० श्रणु० ४२५ तिलो० सा० ५५२ धम्मु कर जइ होइ धणु धम्मु करंत होउ धरणु पढियो धम्मु धम्मु ण संचिउ त धम्मु विसुद्धउ तं जि पर धम्मे यग्गमणो धम्मेण कुलं विउल धम्मेण परिणदप्पा arrao ६ सावय० दो० ११ भ० भा० १७०६ परम० प० २-३ मावय० दो० १०० | धम्मेण परिणदप्पा धम्मेण होइ लिंग धम्मेण होदि पुज्जो धम्मेण होति ताओ धमें इक्कु वि बहु भइ धम्में जं जं अहिलस धम्मे जाह जंति गर धम्मे विणु जे सुक्खडा मूला० ६७४ | धम्मे सुहु पावेण दुहु मूला • ६७६ | धम्में हरिहलिचकवर ० १६० | धम्मो जिहिं भरिओ कत्ति० अणु० ४११ | धम्मो गाणं रण हवड तिलो० प० १-१३४ धम्मो तिलोयबंधू धम्मो तिमरणमाणो दसं० २० | धम्मोदएण जीवो ०६६ | धम्मो व्याविसुद्धो मासं० ३०५ | धम्मो वत्थुसहावो समय० २६६ मूला० ७१३ तिलो० सा० ५ उप्र सहित्था धयरिगवहाणं पुरढो धयदंडानं अतर वसु० सा० ३१ भ० श्रारा० ३६ तिलो० सा० ७० धयदुरग वा धयधूमसारखरविमगो० जी० ५६८ ! धयधूमसिंहमंडलतिलो० सा० ४२ धयधूमसीहमंडल धूममसिह (?) परम० प० २-२४ भ० भाग० २१३४ | धयधूमाणं मंडल - तासा० ७० धयविजयवइजयंती सागरे धम्मर० ११ तिलो० प० ४ - ५४६ धयसीहव महायवर - मूला० ३२१ | धरणादे अधिय वसु० सा० ३०२ | धरणादे अधिय दव्वस० या० २५६ |धरणादे श्रधिय १८६ ग किड परम० प०२-१३३ सावय० दो० ११३ कत्ति० प्र० ४७७ धम्मर० ४ सावय० दो० सावय० दो० ६६ जोगमा० ४७ · पवयणसा० १-११ तिलो० प० ६-५६ लिंगपा० २ भ० श्रारा० १८५६ जंबू० प० ३-१६१ सावय० दो० १०३ सावय० दो० ९६५ सावय० दो० १०२ भावय० दो० १५२ सावय० दो० १०१ सावय० दो० १६६ धम्मर० ३६ समय० ३६८ धम्मर० ३ धम्मर० २० भावस० ३१८ बोधपा० २५ कत्ति० अणु० ४७६ श्राय० ति० १-२१ जवृ० प० ५-५५ तिलो० प०४-८२२ श्राय० ति० २०-३ श्राय० ति० १-२४ जब ० प० ६-१४२ प्राय० ति० १-५ श्राय० ति० १-१५ थाय० ति० १-१७ जबू० प० ५-७७ श्राय० ति० -१० जबू० प० ६-१४० विलो० प० ३-११६ तिलो० प० ३-११६ तिलो० प०३-१७१ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० पुरातन-जैनवाक्य-सूची ल्ला वणितले विक्खभो जंव० प० ११-२१ धादगिसंडस्स तहा जवू०प०११-३४ धरणिधरा उत्तुगा तिलो० प०४-३२७ धादगिसंडे दीवे जवृ०प०11धरणिधरा विएणेया जब प०२-१३७ धादगिसंडो दीवो जबू०प०११-४३ धरणिदे अधियाणिं तिलो. प० ३-१४८ धादीदूदणिमित्ते मूला० ४४५ धरणीपीठे णेया जब० प० ४-२४ धादुगदं जह कण्य भ० श्रारा० १८५३ धरणी वि पंचवरणा तिलो. ५० ४-३२८ धादुमयंगा वि तहा तिलो०प०४-३८० धरणो वि पुंचवरणा जव० प० २-१३८ । धादो हवेज अण्णो म. थारा० ५८७ धरिऊण उड्ढजंघ वसु० मा० १६७ धारणगहणसमत्था मूता० २३२ धरिऊण दिणमुहुत्तं तिलो. प. ७-३४४ धारंधयारगुविल मूला०८६५ धरिऊरण लिंगरूवं जंबू० ५० १०-७२ | धारंधसार(यार)गहिले धम्मर 10 धरिऊण वत्थमेत्तं वसु० सा० २७१ । धारेत्थ सव्वसमकदि- तिलो. सा० ५३ धरिदं जस्स ण सक्क पचस्थि० १६८ धावदि गिरिणदिसोदं भ. श्रारा १७३ वरिय उ बाहिरिलिंग रयणसा० ६८ धावदि पिंडणिमित्तं लिंगपा० १३ धवअट्ठावीस चिय श्राय. ति० १७-१६ धावति सत्थहत्त्था भावस० ५७४ धवलभकूडसरिसा जव०प०१-४२ धिइणासो मइणासो रिट्रस०३६ धवलहरपुडरीसुं जयू० प० ६-१०८ धित्तेसिमिदियाणं । मृला ७३३ धवलससिणिम्मलेहिं जबू० प०६-१०६ जवू०प०१५-३५३ धवलादबत्तचामर- जय० ५०५-२६ धिदिखेडएहि इदिय- भ० श्रारा० १४०० धवलादवत्तजुत्ता तिलो. प० ४-१८२३ धिदिधणिदबद्धक्च्छो भ० श्रारा० २०३ धवला महस्समुग्गय तिलो. सा. १०८ धिदिधणियवद्धच्छा भ. श्रारा० १५३८ धवलु वि सुरमउडंकियउ सावय० दो० १७४ | धिदिदेवीए समाणो तिलो० प० ४-२३३३ धंधइ पडियउ सयल जगि जोगसा० ५२ धिदिधदिणिच्छिदमदी मूला० ८७७ धंधइ पडियउ सयलु जगु * परम० प० २-५२१ । धिदिबलकरमादहिदं भ० श्रारा० ५०५ धंध पडियउ सयलु जगु* पाहु० दो०७ / धिदिवम्मिएहिं उवसम- भ० पारा० १४०५ धाउचउक्कस्स पुणो णियमसा० २५ | धिद्धी मोहस्म सदा मूला० ७३० धाउम्मि दिहपुवे श्राय. ति० ५-१५ धिभवद लोगधम्म मूला० ७१८ धाउविहीणत्तादो तिलो. प०-२-१३५ धीरत्तणमाहप्प म. पारा० १६४५ धादइगगारत्तदु तिलो० सा० १३५ धीरपुरिसचिण्हाई भ. श्रारा० ५६८ धादइतरूण ताण तिलो० प० ४-२५६६ धीरपुरिसपएणतं भ. श्रारा० १६७६ धादइ-पुक्खरदीवा तिलो० सा० ६३४ धीरपुरिसेहि ज आ म.'श्रारा० १४८४ धादइमंडदिसासुं तिलो० प० ४-२४८८ धीरेण वि मरिदव्वं मूला० १०० धादइसंडपवरिणद- तिलो०प०४-२७६१ धीरो वइरागपरो 'मूला. ८६४ धादइसटपवरिणद- तिलो० ५०४-२८०६ धुदकोसुंभयवत्थं गो० जी० ५६ वादइसंडप्पहुदि तिलो० प०५-२७५ | धुवअधुवरूवेण य गो० जी० ४०१ धादइसडप्पहुदि तिलो० प०५-२७६ | धुववड्ढीवड्दतो गोक०२५३ धाद इसडे दीवे तिलो०प०४-२५७१ धुवसिद्धी तित्थयरो मोक्खपा० ६० धादइसंडे दीवे तिलो०प०४-२७८३ धुवहारकम्मवग्गण गो० जी० ३८४ धादइसडो दीओ तिलो०प०४-२५२५ धुवहारस्स पमाणं गो० जी० ३८७ धादइसंडो दीवो जबू० प० ५१-२ धुव्वंतचारुचामर जबू०प०५-१११ धादगिपुक्खरमेस जवृ० प०११-१८ धुव्वंतधयवडाया तिलो०प०३-६० Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी १६१ धुव्वंतधयवडाया तिलो. ५० ४-१६५३ | धूलिगक्ट्ठाणे गो० जी० २६३ धुव्वतधयवडाया तिलो०५०४-१८१० । धूली णेहुत्तप्पिदगत्ते भ. श्रारा० १८२३ धुवंतधयवहाय । तिलो० ५०८-३६७ । धूलीसाला-गोउर- तिलो. प०४-७४० धुव्वतधयवडाया तिलो० प०८-४४३ धूलीसाला-गोउर- तिलो. ५०४-७४२ धुव्वतधयवडाया जबू० प० ४-७६ धूलीसालाण पुढं तिलो० ५०४-७४४ धुव्वतधयवडाया जबू० प० ४-६४ धूवउ खेवइ जिणवरहें सावय० दो० १८६ धुन्चंतधयवहाया जवू०प०६-२० धूवघडा णवणिहिणो तिलो० ५०४-८५६ धुव्वंतधयवडाया जबू० प० ६-१४ धूवघडा विष्णेया जबू०५०५-१६ धुव्वतधयवडाया जबू०प०६-१३१ धूवण-वमण-विरेयण मूला० ८३८ धुव्वतधयवडाया जवू०प०७-५५ । धूवेण सिसिरयरधवल- वसु० सा० ४८८ धुवंतधयवडाया जबू०प०८-३० धूवेहिं सुगंधेहि तिलो० ५०३-२२६ धुव्वतधयवहाया जवू०प०८-१३६ धुव्वतधयवडाया जव० ५० १-१६३ न देख। रण धुव्वंतधयवडाया जब० प०१०-१०० धुवंतधयवडाया जबू०प०११-६२ [प्राकृत भाषा में "नो ण सर्वत्र" (२-४२) धुव्वंतधयवडाया जब०प०११-८३ | इस प्राकृतप्रकाश-ब्याकरणके सूत्रानुसार सर्वत्र 'न' धुव्वंतधयवडाया जब० ५० ११-१२६ का 'ण' होता है, परन्तु श्राचार्य हेमचन्द्र के 'बादी' धूमप्पहाए हेहिम- तिलो० ५० १-१५६ | सूत्र (१-२२६) के अनुसार श्रादि के 'न' को विकधूमम्मि थोवथोव श्राय० ति० १६-४ ल्पसे 'ण' होता है और यह नियम उन शब्दों से धूमलयथेरसुक्क श्राय. ति० १-२ | सम्बन्ध रखता है जो 'सस्कृतभव' है-देशी प्राकृतम धूमस्स य सारण खरो रिटम० २१६ तो वे 'न' को असभव बतलाते हैं, जैसा कि 'देशीधूमंतं पजलत रिट्ठस० ८० | नाममाला' (५-६३) की टीका से प्रकट है। इसीसे धूम दळूण तहा जब० ५० १३-७८ 'ण' के स्थान पर विकल्परूपसे 'न' के प्रयाग भी धूमायंतं पिच्छा रिट्ठस० ५५ | कुछ ग्रन्थप्रतियों में पाये जाते है, जिन्हें 'ण' मे ही धूमुक्कपडणपहुदी तिलो. प० ४-६१० लेलिया गया है । उन्हे पुन: 'न' मे देने से व्यर्थकी धूमो धूलीवज्जं तिलो० प० ४-१५४८ क्लेवर-वृद्धि होगी यह समझ कर ही 'न' के प्रकरण वूमो मयालयाणं रिटस. २०७ / में उनकी पुनरावृत्ति नहीं की गई है। अत पाठको धूमो सीहधयाण रिट्टम० २१७ | को चाहिये कि जो वाक्य किसी ग्रन्थप्रतिमे 'न' से धूयमायरिबाहिरिण अण्णा भावस० १८५ । प्रारम्भ हुआ मिले उसे वे 'ण' के प्रकरणमे देखें ।] प पइडीपमाळमाया पवयणसा०३-२४२०८(ज०) पउमद्दहाउ उत्तरपउमदहादिपसिद्धा जब० ५० १३-१४६ पटमहहाउ दुगुणो तिलो०प०४-२०५ पउमद्दहादु उत्तरपउमदहादो पन्छिम- तिलो. प० ४--२५२ पउमहादु चउगुण- पउमदहादो पणुसय- तिलो०प०४-२४६ पउमपहपउमराजा पउमदहे पुबमुहा तिलो० ५० ४-१६८६ पउमप्पभो ति णामो पउमदहपउमोवरि तिलो० प० ४-१६७६ ! पउमप्पह-वसपुज्जा तिलो० प० ४-१७११ तिलो० ५० ४-१७२५ तिलो०प०४-१६६३ तिलो० प० ४-१७५६ तिलो० ५०४-१५६६ जब० प०३-२२३ तिलो. सा. ८४७ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ पुरातन-जैनवाक्य-सूची पउम महापउमो(य) तिगिंछो तिलो० सा० ५६७ / पक्खीणुज्जाहारो । भावसं० ११२ पउमम्मि चदणामो तिलो० ५० ४-१६७७ , पगडीए सुदणाणा- तिलो० ५० ४-१०१५ पउमविमाणारूढो तिलो० ५० ५-६५ पगढा असओ जम्हा मूला० ४८४ पउमस्स सिहरि जस्स य जव०प० ३-१४५ । तिलो० प०४-१०॥ पउम चउसीदिहद तिलो. प. ४-२६७ पगदीए मोहणिज्जा कसायपा० २२ (१) पउमा दु महादेवी जब० प० ११-२६० पगदे हिस्सेसं गाहुगं भ० पारा० ५०१ पउमा-पउमसिरीओ तिलो० प०३-१४ पगलंतदाणणिज्मर- जव० ५०३-२४॥ पउमावइ त्ति णामा जव० ५० ८-११२ पगलतदाणगडा जब ५० ३-१०२ पउमा सिवा य सुलसा जव० ५० १५-२५६ पगलतरुधिरधारो भ० पारा० ११७६ पाणिपत्त व जहा मूला० ३२७ पगुणो वणो ससल्ल भ० भारा० ५१७ पउमिणिपत्त व जहा भ. श्रारा० १२.१ पचयधणस्साणयणे गो० क००४ पउमेसु सामलासु य जंव० प०३-१३८ पचयस्स य संकलण गो० क० १३. पउमात्तरो य णालो जब० प०४-७४ पचलिदसण्णा केई तिलो०प०३-१६८ पउमा पुडरियक्खो तिलो० ५० ५-४० पञ्चइणो मणुयाऊ पचस० ४-४४४ पउमा य महापउमा जब० प० ३-६८ पञ्चक्खं च परोक्ख अगप०१-६२ पउरसेण विणा त्थि अगप० २-३० पञ्चक्खाओ पञ्चक्खाणं मूला० ६३३ पउर आरोयत्त भावस० १७० पञ्चक्वाण णिजुत्ती मूला० ६४० पक्कामयासयत्था भ० प्रारा० १०३१ पञ्चक्खाणणिवत्ती सुदख०४६ पक्के फलम्हि पडिदे __समय० १६८ पञ्चक्खारणपडिक्कमणु- भ. श्रारा०६८० पक्कसुअामेसु अपवयणसा०३-२६२०१८(ज) पञ्चक्खाणं उत्तर । मूला० ६३६ पक्कहि रसड्ढसमुज्जलेहिं भावस० ४७७ पञ्चक्खाणं खामण भ० भारा०७० पक्खं खघाइ वाम श्राय० ति०८-१५ पञ्चक्खाणं णवमं अगप०२-१५ पक्ख धणिट्ठरिक्खे रिस० २४१ पञ्चक्खाणं विज्जाणु सुदभ०६ पक्ख पडि एककं छेदपिं० ११२ पञ्चक्खाणी संसयवयणी अंगप०२-८४ पक्ख पुणव्वसुमि य रिट्ठस० २४५ पञ्चक्खाणुदयादो गो० जी०३० पक्ख वाससहस्स तिलो० सा० ५४४ पञ्चक्खाणे विजा गो० जी० ३४५ पक्खालिऊण देहं रिट्ठस. ४३ पञ्चक्खियाण्णपाणे छेदपि. १६३ पक्खालिऊण देह रिट्ठस०७० पञ्चक्खे तह सयलो जव० ५० १३-४८ पक्खालिऊण पत्तं वसु० सा० ३०४ पञ्चयभूदा दोसा मूला०६८ पग्वालिऊण वयण वसु० सा० २८२ पञ्चयवंतो रागा पक्खालित्ता देहं रिट्टस. १३७ पच्चय-सत्तावरणा प्रास. ति०१६ पक्खालियकरचरणा रिट्ठस. १५४ पञ्चंति मूलपयडी पंचसं०४-५४३ पक्वालियफरजुअल रिट्ठस. १६३ पञ्चाहरितु विमये हिं भ. भारा. १७०७ पक्खालियणियदेही रिट्टस. १८१ पञ्चुग्गमणं किच्चा पक्खित्ते पत्तेयं पंचस० ५-११३ | पञ्चप्पएणम्मि वि पज सम्मइ. ३-६ पक्खिय अहमिय वा छेदपिं० १५० पचुप्पएणं भावं सम्मइ०३-३ पक्खियचाउम्मासिय- भ० भाग० ५६० पञ्चूमे उद्वित्ता वसु० सा० २८० पक्खियचाउम्मासियछेदपि ११ पच्छण्णए पएसे छेदपि० ३०० परवीणवादिकम्मो पवयणसा. १-१ | पच्छपणेण अधिश्चतम्मि (१) पिं० १५॥ पक्खीण उकस्म मुला० ५.१ पच्छपणे हा विणियडे प्रायः ति०१६-१२ दन्धस. णय० ३०० मूला० १६१ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी १६३ पच्छा एयम्मि गिहे वसु० सा० ३०७ पज्जत्तापज्जत्तेण कसायपा० १८६ (१३३) कसायपा. १८७ (१३४) पच्छादिजइ ज तो (त) वसु० सा० १५५ | पज्जत्तापज्जत्ते । पंचस०५-२७५ रिट्टस. २०१ पज्जत्तासरणीसु वि पछा पहाय-समए ५च्छायच्छा(ता)वेहि[पुणो तिलो०प० ४-६४० पज्जत्ति गिण्हतो कत्ति० अणु० १३६ - पच्छायडेय सिद्ध सिद्धम० ४ | पज्जत्ती देहो वि य मूला० १०४३ पच्छासथुदिदोसो मुला० ४५६ / पज्जत्तीपज्जत्ता मूला० १०४८ पच्छिम-आलियाए सायपा० २२८ (१०५) पज्जत्तीपट्ठवणं गो० जी०११६ पच्छिमउत्तरकोणे जय० ५० ६-१६६ पज्जत्तो पाणा वि य गो० जी० ७०० पच्छिम-उत्तरभागे जय० प०३-११४ पज्जत्ते दस पाणा तिलो. प०८-६६४ पच्छिम-गणिणा वि पुणो छेदर्पि० २७४ | | पज्जय गउणं किच्चा x णयच०१७ पच्छिमगा छत्ततय तिलो. सा० ६५६ | पज्जय गउणं किच्चा दबस० गय० १८९ पच्छिमदिसाए गच्छदि तिलो० ५० ४-२३७१ । पज्जयणयेण भणिया धारा० सा० १२ पच्छिमदिसाए गंतु जय० ५० ११-३०५ पज्जयमित्तं तच्च कत्ति० अणु० २२८ पच्छिमदिसाविभागे जब ५० ३-१११ पज्जय-रत्तउ जीवडर परम०प०१-७७ पच्छिमदिसाविभागे जव० ५० ६-३६ पज्जयविजुदं दवं पचस्थि०१० पच्छिमदिसेण सेला जय० ५० १०-३२ । पज्जवणयवोक्कतं सम्मइ०१-८ पच्छिमदिसे वि णेया जब० ५० ६-१६५ | पज्जवणिस्सामरणं सम्मइ० -७ पच्छिमपुव्वदिसाए जब० ५० ४-१६ पज्जाएण वि तस्स हु भावसं० २८८ पच्छिमपुवायामो जय० ५०३-६ पज्जाए दव्वगुणा + दवस० गय० २२५ पच्छिममुहेण गच्छिय तिलो० ५० ४-२३५२ पज्जायक्खरपदसंघातं गो० जी० ३१६ पच्छिममुहेण तत्तो तिलो० ५० ४-२३६६ पज्जायक्खरपदसंघायं अगप०२-६६ पजलतमहामउडा जय० प०८-१५ पज्जाय च गुणं वा भावसं० ६४५ पजलतमहामउडो जब०प०३-८८ पज्जाये दन्वगुणा + गयच० ५२ पजलतरयणदीवा जब० ५०३-५५ पट्टणमडंबपउरो जबु०प०६-७३ पजलंतरयणमाला जबू०प०६-२१ पट्टणमडंबपउरो जवू० ५० १-६३ पजलंतवरतिरीडो जबू०प०३-१७ पट्ठवणे पिट्ठवणे चसु० सा० ३७७ पजहिय सम्म देह भ० श्रारा० ११३७ पडचरिमे गहणादी लद्धिसा० १६६ पज्जत्तगबितिचपमणु- गो० क० ५३१ पडणजहएणटिदिबंध- लद्धिसा० ३६३ पज्जत्तमणुस्साणं गो० जी० १५८ पडणस्स असंग्वाणं लद्धिसा० ३७२ पज्जतयजीवाणं पचस० १-१६० पडणस्स तस्स दुगुणं नद्धिसा० ३८० पज्जत्तमरीरस्सस गो० जी० १२५ पडणाणियट्टियद्धा लद्धिसा० ३७३ पज्जत्तस्स य उदये गो० जी० १२० पडपडिहारसिमज्जा में पचसं० २-३ पज्जत्ता णियमेण पंचस०४-३३६ पडपडिहारसिमज्जा * गोक०२१ पज्जत्ताणिव्वत्तिय- तिलो. प० ४-२६३१ पडपडिहारसिमजा * कम्मप० २७ पज्जत्तापज्जत्ता समय०६७ पडपडिहारसिमजा गो० क० ६६ पज्जत्तापज्जत्ता मूला० ११६४ पडविसयपहुदिदवं गो० क० ७० पज्जत्तापज्जत्ता वसु० सा० १३ पडहत्थस्स ण तित्ती भ० श्रारा. ११४४ पज्जत्तापज्जत्ता तिलो० ५०२-२७६ | पडिइंद तायतीसा जब०प०११-२७१ पज्जत्तापज्जत्ता तिलो. ५० ४-२६३६ | पडिइंदं तिदयस्स य तिलो० ५०८-५३५ पज्जत्तापज्जता ' तिलो. प०५-३०३ । पडिइदं तिदयस्स य तिलो० प०८-५३८ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ पुरातन-जैनवाक्य-सूची - पएह पडिइंदाण चउराह निलो० ५० ३-५७३ पडिदिसयं णियसीसे तिलो० सा० २१६ पडिइंदाणं सामाणियाण तिलो. प०८-०८६ पडिदेमसयलपुग्गल मावपा०३५ पडिइंदाणं सामाणियाण तिलो. ५०८-५३२ । पडिपडिम एकेका तिलो. मा० २५४ पडिइदाणं सामाणियाण तिलो० ५०-५५२ पडिपदमणंतगुणिटा लद्विसा. १६६ पडिइंदादिचउरह तिलो० ५०३-१००। पडिपुराणजोव्वणगगणी सम्मइ०१-४३ पडिइंदादिचउराह तिलो० ५० ३-११८ ' पडिबुझिमण सुत्तुट्टियो- वसु० सा० ४६८ पडिइंदादिचउराह तिलो० ५०३-१३३ पडिबुद्धिज्ण चरण वसु० सा०२६८ पडिइंदादी देवा तिलो० ५०८-३६३ पडियोहिरो हु संतो धम्मर० १७४ पडिइंदाभिधयस्स य तिलो०प०८-३१६ भ. श्रारा० १४३० पडिइंदा सामाणिय तिलो० ५० ६-६८ पडिमाणं अग्गेसुं तिलो०प०३-५३८ पडिइंदा सामाणिय तिलो० ५० ७-६० / पडिमापडिवएणा वि हु भ० श्रारा० २०७१ पडिइंदा सामाणिय तिलो. प०८-२१५ । पडिमाममेकग्रमणेण वसु० सा० ३५४ पडिकजं जड णाम श्राय० ति० २१-१३ / पडिय मरियेक्का- गो० क० ५२ पडिकमओ पडिकमण मूला० ६१४ पडियस्म य रोइस्स य रिस० २५१ पडिकमणणामधेये णियमसा०६४ पडिस्वकायसंफा मूला० ३७१ पडिकमणणिजुत्ती पुण मूला० ६३१ पडिस्वकायसफा भ० श्रारा० १२१ पडिकमणपहुदिकिरिय णियमसा० १५२ पडिलिहियअंजलिकरो मूला० ५३६ पडिकमणं कयदोसणिरा- अंगप०३-१७ | पडिलेहणेण पडिले भ. श्रारा०६७ पडिकमणं देवसिय मुला० ६१३ पडिले हिउण सम्म मूला. १७० पडिकमणं पडिसरणं समय० ३०६ पडिवजजहएणदुर्ग लदिसा० १६६ पडिकमणं पडिसरण तिलो० ५० १-५१ पडिवडवरगणसेढी लद्धिसा० ३७४ पडिकमिदव्वं दवं मूला० ६१६ पडिवदि किण्हे पुस्से तिलो० सा० ४१७ पडिकूलमाइ काउं भावस० ५६३ पडिवययाइदिणाई • रिछस० १५७ पडिकूलो तह चलियो श्राय० ति०२-४ परिवरिसं आसाढे तिलो. सा० १७६ पडिकूविदे विसरणे भ० श्रारा० १६२३ पडिवार वासरादो तिलो. प०७-२१५ पडिखंडगपरिणामा लद्धिसा०४५ पडिवादगया मिच्छे लद्धिसा० १६२ पडिगहणमुच्चठाणं वसु० मा० २२४ पडिवाददुगवरवर लद्विसा० १८६ पडिचरये आपुच्छय भ० श्रारा० ५१८ पडिवादादीतिन्य लद्विसा० १६७ पडिचोदणासहणदाए म० श्रारा०३८४ पडिवादी देसोही गो० जी० ३७४ पडिचोदणासहणवाय- भ० श्रारा० २६५ गो० जी० ४४६ पडिजग्गाणेहि तणु- वसु० सा० ३३६ | पडिवादो च कदिविधो क्सायपा० ११६ (६३) पडिणीगमतराए + गो० क० ८०० पडिवीण णेत्तपट्टावरेहिं वसु० सा० ३६८ पडिणीगमंतराए + कम्मप० १४४ पडिसमयगपरिणामा लद्धिसा० ४४ पडिणीयमतराये+ पचस०४-२०० पडिसमयधणे वि पद गो० क. ६०५ पडिणीयाई हेऊ पचस०४-२१२ पडिसमयमसंखगुण + लद्विसा० ७५ पडितित्थं वरमुणिणो अंगप० १-४६ | पडिसमयमसंखगुण + लद्धिसा० ३६७ पडितित्थं सहिऊण हु अगप० १-५३ / पडिसमयममंखगुणं । लहिसा० ४१६ पडिदिवसमेकवीथि तिलो० सा० ३७३ | पडिसमयमसंखगुणा पडिदिवसं ज पावं भावसं०४३२ लद्धिसा० ४४४ पडिदिसगोउरसंखा तिलो० सा० ४६२ / पडिसमयं अहिगदिए। लद्विसा० ५१८ • ल द्विसा० २८२ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प पडिसमयं उक्कदि पडसमय उक्कदृदि पsिसमय दिव्वनम पडसमय परिणामो पडिसमय संखेद पडसमयं सुज्झतो पडि सेवरणादिचारे डिसेवादारे डिसेवादी हाणी पडिसेवा पडिसुगण डिसेवित्ता कोई पडुपपदीहिं पडुपडहसंखकाहलपडुपडहसंखमद्दल पढमकसायचउक्क पढमकसायचउक्क पढमकसायचउक्क पढमतईज्जा सुहया पढमतियं च य पढमं पढमतिया दव्वत्था x पढमतिया दव्वस्था x पढम-दुइज्ज-तइज्जा पढमदुगे कावोदा पढमदुगे पण परणय पढमदु माविमरणे लद्धिसा० ७४ पढमधरंतमसरणी लद्धिसा० ३६६ | पढमधरतमसरणी दिसा० ६१४ पढमपरिणददेवा कमि० श्रणु० २३८ | पढमपहमठियाण दिसा० ५२० पढमपहाटो चढ़ा कत्ति० श्रणु० ४८२ | पढमपहादो बाहिरभ० प्रा० ६१६ | पढमपहादो रविणो पढप दिवो पढम-विदियवी प्राकृतपद्यानुक्रमणी भ० श्रारा० ६२१ भ० रा० ६२३ मूला० ४१४ भ० श्रारा० ६२५ तिलो० प०३-२३३ जबु० ५०५-११४ तिलो० प० ३ - २२२ | पढमरणडसीदसो पढमकसायच उण्हं पढमकसायाणं च विसजोजक पढमक्खो तगदो + पढमक्खो तगदो + पढमगमायारि पढमगुण से ढिसी सं पढमगुणे परणवण्णं पढमच उक्के रिणत्थी - * पढमचउक्के रिणत्थी - * पढमचऊ सीदिचऊ पढमजिणो सोलससय पढमट्ठिद्धिं पढमट्ठिदिखडुक्की - पढमट्ठिदियावलिपडिपढमट्ठदिसीसादो पचस० ४-४६ पढमवलएसु चढा पचस० ५-४८१| पढमसमयकिट्टीग पचस० ५-४८५ कत्ति ० ० १०७ गो० क० ४४८ मूला० १०३८ पढमस्स संगहस्स य पढमहरी सत्तमिए पढम वरवरट्ठदिखडं पढमं असतवयणं पढमं गोमुत्ते पढमं चिय जो कज्ज लद्धिसा० ५८७ पढम चिय भावाणं सिद्ध०७३ | पढमं जिदिपूय पचस० ५- २५ |पढमंतिम वीहीदो गो० जी० ४० बद्धिसा० ५५५ पंचस० ४- २४५ पढमं एक्को वि पढमं पढमतिचउपरण पढमम्मि अधियपल्ल पढमम्मि कालसमये पढमम्मि इदयम्मि य पढमम्मि सो पत्थो तिलो० गरे० क० ७२५ तिलों० सा० ८७६ पढमं पढम खंड लद्धिसा० २७६ पढमं पदपमा‍ पढमं पुढविमसरणी लद्धिसा० १७७ लद्धिसा० लद्धिसा० २७० पढमं बीयं तइयं पढमं मिच्छादिट्ठि पढमं मुत्तसरूव पढमं व विदियकरण श्राय० ति० २२-८ गो० क० ५१० णयच० ४४ दव्वस० य० २१६ छेदपि • ० २३८ भावति० ५० सिद्धत० ४७ ० सा० ८४० पढम विलाहार पढम सरीरविसय पढमं सव्वदिचार पढमं सालंबे पढमं सीलप्रमाण पढमाइ-चउ छ - लेस्सा 1 १६५ f तिलो० प० २-२८४ तिलो० प०५-३११ तिलो० प० ५-४६ तिलो० प० ७-५८६ तिलो० प० ७-१२७ तिलो० प० ७-४१५ तिलो० प० ७-२२७ तिलो० प० ७-२७८ तिलो० प०२-१६४ तिली० प० ८-५२० जवृ० प०२-११७ तिलो० प० २-३८ थाय० ति० ४-२० तिलो० सा० ६१२ जबू० प० १२-४१ वसायपा० १७६ (१२३) लद्धिसा० ५१२ तिलो० प० ४-१४३६ लद्धिसा० ७७ भ० श्रारा० ८२४ रिट्ठस० १५५ श्राय० ति० ५-१ शाय० ति० ५-१ धम्मर० १७३ तिलो० सा० ४१२ श्राय० ति० २-५ गो० क० ६६६ गो० क० ६६ गो० जी० ३७ मूला० ११५३ भावसं० ६८६ चंगप० २-३५ दव्वस० णय० ३६५ लद्धिसा० ५० मूला० ६६६ रिट्स० १३६ मूला० १२० ढाढसी० १४ मूला० १०३६ पचस० १-१८७ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ पुरातन-जैनवाक्य-सूची - पढमाइ-जमुक्कस्स यमु० सा० १७३ (ख) , पढमुवसमसम्मत्तं भावति० १६ पढमा इंदयमढी तिलो. प० २-६६ / पढमुवसमसहिदाए गो० जी० १४४ पढमाग पुढवीए मूला० १०५५ । पढमुवसमिये सम्मे गो० क०६३ पढमाग पुढवीए वसु० सा० १७३ (क) पढमे अवरो पल्लो लद्धिमा० ११ पढमा च अणंतगुणा क्सायपा० १७२(३२२)। पढमे असखभागं लद्विसा० ६३० पढमा चउरो संता पघसं० ५-४४४ : पढमे असंखभाग लन्हिमा० ४८ पढमाण विदियाणं तिलो० ५० ४-७७० पढमे करणे पढमा लदिसा० ४६ पढमाणीयपमाणं सिलो० ५० ५-१६८५ । पढमे कुमारकाले तिलो. प० ४-५८२ पढमाणुभागखंड लद्विसा० ४७८ पढमे चरिमं सोधिय तिलो. १०८-११ पढमाणुयोगकरणा- अंगप० १-६० पढमे चरिमे समये ल द्विसा० ४६ पढमादिय(ए) उक्करमा + जव० ५० ११-१३७ । पढम चारमे समय लद्धिसा० २६४ पढमादियमुक्कस (स्सा)+ मूला० १११६ । पढमे छ8 चरिम । लद्धिसा० २२३ पढमादिया कसाया। गो० क० ४५ / पढमे छ? चरिम लद्धिसा० ४०० पढमादिया कमाया कम्मप० ११६ | पढमे जिणिदगेहं तिलो. सा० ७२२ पढमादिवितिचउक्के तिलो०प०२-२६ | पढमेण व दोवेण व भ० पारा०४३० पढमादिमंगहाम्रो लद्विसा० ४६३ पढमे तइयसरे गाइसु- आय. ति०१८-४ पढमादिसंगहाणं लद्धिसा० ५३६ पढमे दंडं कुणइ य पचसं०१-१६७ पढमादिसु दिज्जफर्म लदिसा. ४७६ | पढमे पक्खे पणगं छेदपि० १४० पढमादिसु दिस्सक्रम लद्धिसा० ४७७ पढमे विदिए जुगले तिलो. ५०८-५५७ । ढमादिमु दिस्सकम लदिसा. ५६१ तिलो०५०-५१७ पढमा दु अहतीसो तिलो० ५०८-३४१ । पढमे विदिए तासु वि पचस०५-४ पढमा दु एक्कतीसे निलो० ५०८-३३६ पढमे बिदियं तदियं मायपा० २१५(१६२) पढमादो गुणसंकम लद्विसा. पढमे बिदिये तदिये जवृ० १०२-10 पढमादोऽएमाणति पंचस० ४-६० पढमे भागम्मि गया जबू०प०३-१०३ पढमादो तुरियोत्तिय तिलो० सा० ८८२ पढमे मंगलवयण तिलो. प. १-२ पढमा परिमा ममिदा तिलो. मा. २२१ पढमे सत्त ति छक्क निली. सा०२०॥ पढमापुचजहां लद्विमा० ६६ पढमे सव्वे विदिये लविसा० २० पढमापुन्चरमादी लविसा.. पढमे मोयदि वेगे भ० भारा. १३ पढमा य मिद्धकूडा जय० ५०२-४६ । पढमो अणिनगामा तिली. ५० :पढमावेदे मंजलगाग- मदिमा० २६४ पढमो अधापवत्तो लदिसा. ३५० पढगावेदो तिविहं लदिमा० २६१ पढमो जंबूदीओ निलो०प०५-१३ पढमामणमिह बिन तिलो. मा० ११३ पढमो तेसु अदिक्कमदामोदपि ० ३२० पदमिल्लय()कन्छा जर० ५० ११-२०८ पढमो दमणघाई पमं० 1-10 (20) पडमिंटय पहुदीदो तिली०प०८-८ पढमो देवो चरिमा तिलो. मा. ४१ पढमिंटे दमगउदी. तिलो. मा. पढमो बिदिये तदिये नदिमा ४४२ पदमुगारिदगणागा गिलो. १०६-१ पढमो लोयाधागे तिन्नो प01-.. ... . पढगोवगिम्मि विदिया मिनोप. -21 'मन (क)मदिन प्रतिम नही, या पढमो विमाहरणामी निन्नी प० ५-१४ कि पार पनि में पानी श्रीर म गामा । पटमो मनमिमग विलीमा १२ निर्दिक ना भी है। पढमो मुद्धो मोलमु . . Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणा १६७ पढमो सुभद्दणामो तिलो० ५० ४-१४८८ पणतीम तीस अडदुख- तिलोसा० ८१६ पढमो हु उसहसेणो तिलो. प० ४-६६२ | पणतीससहस्सा पण- तिलो. ५० ७-३६५ पढमो हु चमरणामो तिलो० ५०३-१४ दवसं०४६ पए तीस सोल छप्पण पढिएण वि कि कीरइ भावपा० ६६ / पणतीसं दंडाए तिलो. प० २-२५३ पण अग्गहिसियाओ तिलो० प० ३-६५ पणतीसं लक्खाणि तिलो. प० २-११८ पण अड छप्पण पण दुग तिलो०प०४-२६८३ पणतीसुत्तरणवसय तिलो० ५०८-७६ पणअहियं पणसुएणं सुदख० ३० पणदसवारसणियमा छेदस० ८७ पणअहियं सुण्णदुगं सुदख० ५३ / पणदस सोलस पण पण अंगप० १-१४ पण इगि अट्ठिगि छएणव तिलो ०५० ४-२८४८ पणदालछस्सयाहिय- गो० क. २०० पण इगि चउणभ अड तिय तिलो०५०४-२६०१ | पणदाललक्खमाणुस- तिलो. सा. ६४२ पणकदिजुदपंचसया तिलो. ५०६-६ । पणदाललक्खसखा तिलो० प० ४-२७५७ पणकोसवासजुत्ता तिलो०प० २-३०६ पणदालसहस्सा चउहरि तिलो० ५० ७-१३४ पणघणकोसायामा तिलो० ५० ४-२१०५ पणदालसहस्सा जोयणाणि तिलो०प० ७-१३३ पणघणजोयणमाणं तिलो० सा० १८२ पणदालसहस्साणिं तिलो०प०७-१३७(S) पण-चउ-तिय-लक्खाइं तिलो० ५० ४-११६१ पणदालसहस्सारिण तिलो. प०७-१३८ पणचउसगट्ठतियपण- तिलो०५० ४-२६३६ पणदालसहस्साणिं तिलो. प० ७-१३६ पण चदु सुरगणं णवयं गो० क० ७६१ क्षे० १ पणदालसहस्साणिं तिलो. प०७-१४० पण छप्पण पण पंच य तिलो० ५० ४-२६८४ पणदालसहस्साणिं तिलो. प. ७-१४२ पणछस्सयवस्त पण- तिलो० सा० ८५० पणदालसहस्साणि तिलो. ५०७-२३३ पणजुगले तससहिये गो० जी० ७६ पणदालसहस्सा वेजोयण- सिलो. प० ७-१३२ पणजोयणलक्खाणि तिलो० ५०४-२६२० पणदालसहस्सा वेसयाणिं तिलो. प० ७-१४१ पणउदिसया वत्थू गो० जी० ३४६ पणदालसहस्सा सय- तिलो० प० ७-१३५ पणणउदिसया वत्थू अगप० १-११ पणदालसहस्सा सय- तिलो. प० ७-१३६ पणणउदिसहस्सा इगि- तिलो०५० ७-३४२ पणदालहदा रजू तिलो० ५० १-२२२ पण उदिसहस्सा चउ तिलो०प० ७-३०८ | पणदालं लक्खागि तिलो. प०२-१०५ पणणउदिसहस्सा तिय- तिलो०५० ७-३२५ पणदालीस-सहस्सा जबू०प०६-७८ पणणउदी तेसट्ठी जंबू० प० २-२२ पण दो छप्पण इगि अड तिलो. प० ६-४ पण णभ पण इगि व चउ तिलो०५०४-२८७८ पणदोपराग पणचदु- गो० क० ७०४ पण णव इगि सत्तरसं पचस० ३-२६ पण दो सग इग चडरो तिलो० ५० ४-२८४४ पण णव इगि सत्तरसं * गो. क. २६४ पणधीसु ारणचुद- तिलो० ५० १-२०६ पण णव इगि सत्तरसं+ पंचस० ३-५० पण पण अज्जखि डे तिलो० प०४-२६३२ पण णव इगि सत्तरसं+ । गो. क. २८१ पण पण अज्जाखंडे तिलो० ५० ५-२६६ पण राव एव पण भगा गो० क० ६४६ | पण पण चउ पण अड दुग तिलो०५० ४-२६७० पणपर्वादअधियचउदस- तिलो०५०१-२६३ पण पण सग इग खंणभ तिलो०प०४-२०१५ पणणवदी अहियसयं सुदख० ५४ | पणपएणत्तिपयाणि य अंगप० २-१४ पणणवदु अट्ठवीसा सिद्धभ० ८ पणपण्णं च सहस्सा जंबू०प०११-२५ पण णव पण णभ दो चउ तिलो०५०५-२८६३ | पणपरिधीये जिदे तिलो. सा० ३८४ पण-पाणं दसण-चउ सिद्धत० ३६ पणपरिमाणा कोसा तिलो. प० ४-८६६ पणतितितियछप्पणय तिलो० ५०६-२६४६ पण पंच पंच णव दुग तिलो० प० ४-२६०६ पण तियणव इग चउणभ तिलो० ५० ४-२८६३ । पणबंधम्मि बारस गो० क० ४८५ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ पुरातन-जैनवाक्य-सूची - पणभूमिभूसिदाश्रो तिलो० ५० ४-८३७ पणवीसभहियसयं । तिलो. प० ४-८८८ पणमह चउवीसजिणे तिलो० ५० ४-२ पणवीसभहियसय तिलो० प०४-१९६६ पणमह चउवीसजिणे तिलो० ५० ४-५१३ पणवीसभहियसयं तिलो. प०४-२०१८ पणमह चउवीसजिणे तिलो० ५० १-७७ पणवीमहियाणं तिलो० प० ४-१५६३ पणमह जिणवरवसह तिलो० प० ६-७८ पणवीससहस्माइ तिलो. ५०४-१९६६ पणमंतसुरासुरमउलि रिस० ६ पणवीससहस्साधिय- तिलो०प० २-१३५ पणमं ति मुत्तिमेगे भावम० ४६५ पणवीससहस्साधिय- तिलो० ५००-१४७ पणमामि जिण वीर सुदग्व० ३८ पणवीसनहस्साहिय- तिलो० ५०४-४७२ पणमिय वीरजिणिदं दसणसा० ४ पणवीसमहस्सहिं तिलो०प०४-२०२० पणमिय सिरसा णेमि: फम्मप०१ पणवीस असुराणं ।' मृला० १०६२ पणमिय मिरसा णेमि :- गो० क० ६ पणवीस असुराण । जवृ० १० ११-१३६ पणविय सुरेदपूजिय- श्राम ति. पणवीसं असुराणं * तिलो. सा. २४६ पणमेच्छखयरसेढिसु तिलो ५० ४-६६०५ पचप्त० ४-०५६ पणय दुय पणय पणयं पचस० -०६६ परणवीसं लक्खाणि तिलो. ५०८-२४६ परणयं च भिएणमासो छेदपिं० ३३६ परावीमाधियछम्सय- तिलो०प०४-७७२' पणयं दस सत्तधिय मूला० ११२१ पणवीसाधियबस्सय- -तिलो. प०४-८४६ पणयालसयमहस्सा भावस० ६६१ | परेवीमाधियछस्सय- तिलो०५०४-७६ पणयालीसमुहुत्ता पसं०1-००६ पगावीमाधियतिसया तिलो. ५० ४-१०६७ पणरसवासे रज्जं णं टी० पट्टा० १६ | पपावीनाहियघस्सय- तिलो० ५० ४-८७० पणरससोलसपणपण्ण सुदख०५५ पणवीसे तिगिणउदे गो० क० ७७७ पणरह वामकरम्मि य रिट्ठस० १५६ पण सग दो छत्तिय दुग तिलो० ५० १-२६६० पणलक्खेसु गदेसु निलो प०४-५७४ पणसट्टिसहस्सागि तिलो० ५०४-२०६ पणवरणहियाई तिलो० प०४-१९४६ पणसट्ठि-सहस्साणिं तिलो. ५० ४-२८६५ पणवरणवस्सलक्खा तिलो०प०४-५२६८ पणमट्ठी दोरिणमया तिलो० ५० २-६८ पणवरण पणवरणं तिलो. सा. ६१५ पण सत्त गाव य बारस छेदपिं० ३०६' पणवएणं पण्णास श्रास० ति० २० परणसत्ता वीसुदया . पचस०५-२२४ पणवरण वे उव्यिय सिद्धन.. पणमयगुणतणुवादं तिलो० मा० १४२ पणवण्णा उत्तरदो जबृ० प० ७-८१ पणसयजोयणरुदं तिलो०प०४-१६३६ पणवरपाधियछस्मय- तिलो० ५० ५-७४ पणसयजोयणरु तिलो० प०४-१९८७ पणवएगा परणासा पचस० ४-७७ पणसयदलं तदंतो तिलो० सा० ५८६ पणावराणा पण्णासा 'गो. क. ७८६ पणसय पणसय-सहिय तिलो० सा० ६०६ परगवण्णासा कोमा तिलो. प०४-७५३ पणासय पएणूणसय तिलो० सा० ८३८ पणवरिसेण्ह दुमणीण तिलो० ५० ७-५४८ पणसयपमाणगाम तिलो० १०४-१३६७ पणविग्घे विवरीय गो० क. २०६ पणसंखसहस्साणि तिलो०प०७-१६४ पणविय सुरसेणणुय भावस० १ पणर बतादाडिम जवृ० १०१-५० पणवीसजोयगाइ तिलो. प०४-२०१४ पणसंबताडदाडिम जबू०प०२-७७ पणवीसजोयगाई तिलो. ५० ४-२१८५ पासवतालदाडिम जंबृ० प०३-२०३ पणवीसजायणाणिं तिलो० ५० ६-६ पणहत्तरि चावाणि तिलो० प०४-२८ पणवीसजोयगाणि तिलो० ५० १-२०७ / पणहत्तरिपरिमाणा तिलो० ५०.२-२६१ पणवीसद्धिय रुदा तिलो. प०४-१६४५ पाणदरसभोयणे यxपिचर्म० १-५४ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प पणिदरसभोयर य x पणिधाणजोगजुत्तो मूला० २६७ परिधारणं पि.यदुविह पणिधी आरणच्चुद पणुत्रीसवियधरणुसय परवीको डिकोडी पणुवीसको डिकोडी पणिधापि यदुविह भ० श्रारा० ११६ ( १ ) | पणुवीसुत्तरपणसय मूला० २६८ | परपुत्तरिजुदतिसया तिलो० प० १-२०७ पढालपरगतीस तिलो० प० ४-८२३ | पट्टि - सदा या तिलो० १० ५-७ | पट्टि - सहस्सा रिंग जनृ० प० १–१६, परराट्ठ-सहस्सेहिय पराट्ठि च सहस्सा पोसको डिकोडी जवृ० प० ११-१८२ तिलो० प० ८-३१३ पशुवासजुदेक्कमयं परवीसजायस पीजोइ पशुचीसजोयाई पवासजोयगाण पशुवीसजोया परपुत्री सजोया पवीसजोया रंग पवीसजोद पवीससमधिरेया पवीस महिरेयहि पीसा परपुवीस सहम्साइ वीसहरसा सहस्साइ परपुत्रीस सहरसाइ पचीस सहसारिण परवीससहस्साधिय वीस सुबुद्धे परपुत्रीस उतीस पणुवीस च सहस्सा पर वीस वीस परवीमं दो सिया पर वीस लक्खाणि परवीसं लक्खाणि पर वीस लक्खा रिंग पीसाई पचय वीसा उद्धा 'परवीसावियछस्सय परवीसाधियतियमय वीसा परणामा प्राकृतपद्यानुक्रमणी गो० जी० १३७ | पशुवीसा पण्णासा वीसा विक्खंभा r जनृ० प० ७–१७ गो० जी० ४२५ तिलो० प० ४–२१७ } : ! पट्टि च सहस्सा पण्णा मारिय सोयरा पण्णत्तरि उच्छे हो परागर्त्तारि दलतुगा मूला० ११५० - पण्णत्तरि वरणा पणत्तरिसय या जयृ० प० ११-१४० तिलो० प० ३ -१७६ । पण्णत्तरिसयसहिय | तिलो० प० ४ - २१६ तिलो० प० ४ - १०८ जवू० १० ८-१५५ जबू० प० ८-११ तिलो० प० ४-११४२ पचस० ५-३८३ तिलो० प० ४-१४२२ तिलो० प० ४-२ १४ १ तिलो० प०८-१८१ तिलो० प० ४-१२६६ तिलो० प०२-१११ ' तिलो० प० ८ - १०६ १६६ जंबू०, प० ३ - १६७ जवृ० प० ४-११२ निलो० प० ४-४६४ तिलो० प०४-८६० गो जी० ३६४ जबू० प० ३-३० तिलो० प० ४-१२२१ जबू० प० १२-६० जबू० प० ११-७२ जनृ० प० १२-७० परम०प०२ - १४० क्षे० १ (वा) परणरठाणे सुररण परसह ठिदियो पारस मुहुत्ताइ पण रस लक्खवच्छर परणरसत्रासलक्खा पारससया दहा पचस० १-४३ परापरसससहराण जबू० प० ३ - ८ | परणरससहरसाइ पचस० -४२० पारससहस्सारिण तिलो० प० ४-३० परमसहस्सारिण तिलो० प० २-१६ परणरससहस्सा ि तिलो० प०८-४७ पण्णरसहदा रज्जू तिलो० प०८-१६२ परणरस छत्तिय छ - पचस० ५-४३३ | पण्णरसेसु जिंगिदा जबू० प० २-३३ | पण्णरसेहिं गुड़ि तिलो० प० ४-४६६ तिलो० प० ४-१३०० जनृ० प० ३-४७ पर सोलट्ठारस पण्णवरण भाविभूढ़े :परवरण भाविभूदे * जबृ० प०५-३ तिलो० प० ५-१८२ अगप० १-१३ जवृ० प० १-४७ सुदख० ५६ तिलो० प०५-११८ परणत्तरीसह स्मा परणत्तरीसहस्सा परणव्भद्दिय च सय परणरकसायभयदुग पर छत्तिय छष्पच पचस० ५-४६३ । पण्णर जिग् खदु तिजिणा तिलो० मा० ८४३ तिलो० प० ८-४७७ जबू० प० ११-१०३ तिलो० प० ४- १३६७ गो० क० ४०१ पचस० ४-४२२ तिलो० १०७-२८८ तिलो० प० ४-१२६२ तिलो० प० ४-६५२ तिलो० प० ४-१६७२ तिलो० प० ७-११६ • पचसं० ५-३८० तिलो० प० ४-२१ तिलो० प० ४-१७१६ तिलो० प० ८-६२७ तिलो० प० १-२२१ पचम० ४-४८४ तिलो० प० ४-१२८६ तिलो० प० ७-१/२४ गो० क० ८६५ रायच० ४५ देव्वस० णय० २१८ 2 Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० परणवरण भाविभूदे परावणिज्जा भावा परणवणिज्जा भावा पणसमणेसु चरिमो पणसवणेण जावं सहस्स बिलक्खा पाए घित्तव्वो पण धित्तव पणाए घित्तost पाधियदुमयाणि पणाधियपंचसया वियपंचसया पराधियसयदंड पारस गुणिदाणं परणारठाणेसुं पारस ठाणेसुं पारस ठाणेसुं परणार मठाणे पण्ण।रसमुगतीसं परणार सय सहस्सा परणार लक्खाई परणारस लक्खाई पारसला परणार लक्खाणि पारसे ि पणासको डिलक्स्खा पासको उदया पासको सचासा पणासच उसया रिंग पण मजुदेक्कसया परणा सजायगा इं पणास जोयराइ परणासजीयरां पणास जोया रंग पराणासवारछक्क परणासम्भहिया रिंग परणासम्भद्दियाणि पासमेकाल पण्णासवरणद्धिजुदो परणाममधिरेया C पुरातन जैनवाक्य-सूची दव्वस० गाय० २१७ परणास सहस्सा गिं गो० जी० ३३३ | परणाससहस्साि सम्मइ० २ - १६ | परणास सहसाधिय तिलो० प० ४-१४७८ पणास सहस्साधिय पणास सहस्साधिय रिट्स ० १७१ तिलो० सा० २२८ | परणास सहस्साधिय समय ० २६७ | परणासं परणुवीसं पणास लक्खाणिं समय० २६८ तिलो० सा० ३१३ तिलो० प०४-१०१६ जंबू० १० २०६१ परहस्म दूदवयरगरगट्ट - परहाणं वायर समय० २६६ पणासा अवगाहा पणासा कोदंडा पण्णासाधियछस्सय तिलो० प० ७-२७५ तिलो० प० ४-२४७६ तिलो० प० ४-२४६० पणासाधियछस्सय तिलो० प० ६-६३ | पराणासाधियदुसया छेदपिं० १६ पणासा विक्खभो तिलो० प० ८-४६७ | परासुत्तर तिसया तिलो० प० ८ - ४७२ | पासको उद तिलो० प०८-४८२ पकारं छक्कदि तिलो० प० ८-४८७ | परहक्ख रेसु तिसु जे पण्हक्खरे सुविमले पम्म थिरा भरिया गो० क० ११७ | जंबू० प० १० ८७ तिलो० प० ४-२५१८ तिलो० प० ४-२५६१ पहाय वग्गपढमक्ख तिलो० प० २-१४० तिलो० प० ४ - २८१६ | परहे कमाइबाहुले तिल्लो० प० ४-७२५ | परहे कगाइबहुले तिलो० प० ४ - ५५३ | परहे थिरायबहुले तिलो० प० ४ - १९१६ | परहोदयतिहिवेलातिलो० प० ४–१ε१३ | पति (दि) भत्तिविहीण सदी तिलो० प०८-२८६ | पत्त दाइँ दिइ तिलो० प० ८ - ३५६ पत्तइँ दिज्जइ दाणु जिय तिलो० प० ४- २४२ पत्तपडियं ण दूस तिलो० प० ४-२७१ पत्तम्मिश्र मणुत्ते तिलो० प० ४- १६७७ पत्तस्म दायगस्स य तिलो० प०४-१७८ पत्तस्सेस सहावो गो० क० ३६४ | पत्तहॅ जिउवएसियहॅ तिलो० प०२-२६८ | पत्तहॅ दिएउ थोवडर तिलो० प० ४-११४७ पत्तं यि घर-दारे पत्तं तह दायारो पत्तं विणा च दा‍ पत्ता पति तहा प तिलो० प० ४-११६४ निलो० प० ४-११७३ तिलो० प०४-२२ तिलो० ५० ४ - ५६५ तिलो० प० ४-१२६३ तिलो० प० ४-१२६४ तिलो० प०८ - ३६० तिलो० प०८-२४४ जबू० प० ३-१७ तिलो० प० २-२४१ तिलो० प० ४-५७५ तिलो० प० ४-४६५ तिलो० प० ७-२०४ जंबू० प० ७-७८ तिलो० प०६-१३ तिलो० प० ४-१८३५ गो० क० ३६४ श्रा० ति० २-२ आय० ति० २१ - ५ श्राय० ति० ११-२ श्रगप० १-५७ अगप० १- ५६ श्राय० ति० १६-६ श्राय० ति० १३-८ श्राय० ति० २०-२ आय० ति० १५-७ श्राय० ति० १६-२ रयणसा० ८१ सावय० दो० ६६ सावय० दो० ७० भावस० ६८ रिट्स० ३ भ० श्रारा० २२१ भावस० १४ सावय० दो० ८० सावय० दो० ६० वसु० सा० २२५ वसु० सा० २१६ रयणमा० ३१ धम्मर० ३० Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी २०१ पत्तिय तोडहि तडतडह पाहु० दो० १५८ पत्तेयं रयणादी तिलो० ५०२-८७ पत्तिय तोडि म जोइया पाहु० दो० १६० | पत्तेयागुरुणिमिणं पचसं०५-४६४ पत्तिय पाणिउ दत्भ तिल पाहु. दो० १५६ | पत्तेयारण पाऊ कत्ति० श्रणु० १६१ पत्तेक्कइंदयाणं तिलो० ५०३-७१ | पत्तेयाणं उवरिं गो० क० ८१६ पत्तेक्कमद्धलक्खं तिलो० ५० ३-१६० / पत्तेया वि य दुविहा कत्ति० अणु० १२८ पत्तेक्कमाउसखा तिलो०५०३-१७२ पत्तोवएससारो माणसा०६ पत्तेक्कमेक्कलक्खं तिलो० ५० ३-१४६ पत्तो सलायपुरिसो तिलो०५०४-१८ पत्तेक्कमेक्कलक्खं तिलो. प०३-१५७ पत्थतुलचुलयएगप्पहुदी तिलो० सा०१० पत्तेक्करसा वारुणि तिलो० ५० ५-३० | पत्थरमया वि दोणी भावस०५४० पत्तेक्कं अडसमये तिलो. ५० ४-२६५५ पत्थं हिदयाणिटुं भ० धारा०३५० पत्तेक्कं कोट्ठाणं तिलो० ५०४-८६४ | पत्थं हिदयाणिटुं भ० श्रारा०३५८ पत्तेक्कं चउसंखा तिलो० ५०४-७२२ पथवासपिंडहीणा तिलो. सा० ३७० पत्तेक्कं जिणमदिर- तिलो०प०४-१६६७ पदगतमवइकउत्तर? जबू० ५० १२-२० पत्तेक्वंणयरीणं तिलो. प० ४-२४५१ पददलहिदलंस(संक)लिद तिलो. प० २-८३ पत्तेक्कं तह वेदी तिलो० ५०७-७० पदमक्खरं च एक्क म. श्रारा० ३६ पत्तक्कं ते दीवा तिलो. प०४-२७२३ पदमेगेण विहीण तिलो०सा० १६४ पत्तेक्कं दाराणं तिलो. ५०८-३६८ पदमेत्ते गुणयारे तिलो. सा० २३१ पत्तेक्क दुतडाटो तिलो० ५०४-२४०० पदराहय विलबहलं तिलो० सा० १७२ पत्तेक्कं दुतडादो तिलो० प०४-२४०४ पद(ड)लहदवेकपादा-(१) तिलो० प० २-८४ पत्तेक्कं पणहत्था तिलो. प०८-६३६ । पदवग्गं चयपहिदं तिलो. प० २-७६ पत्तेक्कं पायाला तिलो० प० ४-२४२८ पदवग्ग पदहिद तिलो० ५०२-८१ 'पत्तेक्क पुन्वावर- तिलो० ५० ४-२३०३ पदिठवणासमिदी वि य मुला० ३२५ पक्कं रिक्खाणि तिलो० ५० ७-४७४ । पदिसुदिणामो कुलकर तिलो० ५०४-४२४ पत्तेक्कं रुक्खाण तिलो० ५०३-३४ | पदिसुदिमरणादु तदो तिलो०प०४२६ पत्तेक्कं सव्वाणं तिलो. प० ४-१८७४ | पप्पा इ8 विसये पवयणसा० १-६५ पत्तेक्कं सारस्सद- तिलो० ५०८-६३८ पप्फुल्लमउलियाए श्राय० ति०५-१४ पत्ते जिणिंदधम्मे रिट्ठस० ४ | पन्भट्टबोधिलाभा भ० श्रारा० १२८६ पत्तेयदेहा वरणप्फड मूला० ११६६ पन्भारकंदरेसु अ मूला० ७८६ पत्तेयपदा.मिच्छे गो० क० ८५७ | पभणइ पुरओ एयस्स वसु० सा०६० पत्नेयबुद्धतित्थयरगो० जीती ६३० | पभणेइ णिसा दिअहं रिस० ५८ पत्तेयमथिरमसुहं ४ पचसं० ४-२८० पभपच्छलादिपरदो तिलो. प० ८-१०३ पत्तेयमथिरमसुह ४ पसं० ५-७३ | पमत्तेदरेसु उदया पचस०५-३४७ पत्तेयरसा चत्तारि मूला० १०७६ पमदादिचउपहजुदी गो० जी० ४७६ पत्तेयरसा चत्तारि* जबू० प०११-६४ पम्मस्स य सट्टाणसमु- गो. जी. ५४७ पत्तेयरसा जलही तिलो० ५० ५-२६ पम्मा सुपम्मा महापम्मा तिलो० प० ४-२२०६ पत्तेय-सयं-बुद्धा सिद्धभ०७ पम्मा सुपम्मा महापम्मा * तिलो० सा० ६८६ पत्तेयसरीरजुय + पंचस०५-१४१ पम्मुक्कस्संसमुदा गो० जी०५२० पत्तेयसरीरजुयं + पंचसं० ५-१६२ | पम्हा पउमसवण्णा पचस०१-१८४ पत्तेयं पत्तेयं जबू०प०११-२०५ | पयकमलजुयलविणमिय- श्रास० ति०६२ पत्तेय पत्तेय जबू० ५० ११-२६८ | पयडहि(ह) जिणवरलिंगं भावपा०७० Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ पुरातन-जैनवाक्य-सूची पयडिट्ठिदिअणुभागाप- गो० के० ८६ परदबखेत्तकाल श्रंगप०२-१६ पयडिटिदिअणुभागप्प- दवस० ३३ परदव्यरओ बञ्झदि मोरखपा० । पयडिट्ठिदिअणुभागाप- मूला० १२२१ परदव्वहरणबुद्धी म. धारा०८७४ पयडिहिदिअणुभागाप- - णियमसा०१८ परद म० श्रारा ८६१ ययडिट्ठिदिअणुभागाप- - तिलो० ५० १-१७ परदवहरगामीलो वसु० सा० १०१ पयडिहिदिअणुभागा पत्थि०७३ परदव्य ते अक्षा पवयणमा०-५७ पयडिटिदिअणुभागो अंगप००-६१ परदव्य देहाई तजमा०३४ पयडि-पयडिहाणेसु कमायपा०२६ १र मोरसपा१६ पयडिविवधणमुर्छ, पचस० २-१ परदारम्म फलंग य धम्मर०५३ पयडी एत्थ सहावो पचम०४-५०८ दवस. एय०३१ पयडीए(इ) तणुकसाओx पचम० ३.०६ परदो अञ्चत्तपदा तिला०प०४-५६० पयहीण(इ) तणुकानाओ x गो० ० ८०६ परदोमगहालिन्छा भ. श्रारा०३४७ पयडोर(इ) तणुकमाओ ४ कम्मप० १५१ परदोसाणं गह कत्ति पूणु० ३४४ पयडीवासणगंधे मूला० १६ ' परपज्जवहिं अरिम सम्मइ०३-७ पयडी सील सहावो - गो० क० २ . परपरदुवारण्मु निलो० प० ४-१५२३ पयडी सील सहावो - कम्मप.. परपेमगाउँ णिचं भावसं०७० पयढक्कसंग्वकाहल- जय० ५०४-२८२ परभावाटो सुएगो . गयच०७ पयणं पायणमणुमा मूला० ६३० परभावाठो सुगणों दवस० गय०४०४ पयणं व पायणं वा मूला० ८३६ । परभिनदाए ज ते भ० नारा० १00 पयणं व पायणं वा मूला० ६२%परमट्टगुणेहि जुदो णाणमा० ३४ पयदम्मि समारद्ध पबयणमा० ३-१५ परमहयाहिरा जx समय० १५८ पयदा(एदा) चोहमपिडाप- कम्मप० ६५ परमवाहिरा जे ४ तिलो. प०६-५. पयलापयलुदयेण य: गो० क० २४ परमसुद्धिववहार छेदपि ० ३१६ पयलापयलुदयेण य; कम्मप० ५० । परमट्टम्हि दु अठिटो समय० १५० पयलियमाणकसाओ भावपा० ७६ । परमट्टिय विमोहिं मृला० ६४७ पयलुदयेण य जीवो। गो० क० २५ परमटेण दु आदा बा० अणु०७ पयलुदयेण य जीवो। कम्मप० ५१ . परमट्टो कालारण भावसं०३१० परकजं विदिसा श्राय० ति० ५-- परमट्टो स्खलु समओ ममय० १५१ परगणअणुपट्ठवगो छेदपिं० २७० परमहो ववहारो वसु० सा०२७ परगणवासी य पुणो भ० श्रारा० ३८७ । परमष्टिंपत्ताण भ० श्रारा० २१४७ परघाददुगं तेजदु गो० क० १७५ , परमणगढ़ तु अत्थ जंबू०प० १३-५२ परघादमंगपुण्णो गो० क. १९१ . परमणसिट्टियमढें गो० जी० ४४७ परवादुस्सासाणं + पचस०२-१० दवस० गय० १३६ परघादुस्सासाणं + पचस० ४-२३४ / परमपय-गयाणं भासओ परम० ५०२-२१४ परघाय चेव तहा A पचस० ५-१४३ । परमापय झायंतो मोक्खपा० ४८ परघाय चेव तहा A पचम० ५-१६४ । परमप्पय वड्ढमई कल्लाणा." परचक्कभीदिरहिदो तिलो० प० ४-२२४६ । परमप्पयस्स रूव परचक्कभीदिरहिदो __ जंबू० ५० ७-३५ परमप्पाणमकुव्वं परतत्तीणिरवेक्खो कत्ति० अगु० ४५६ | परमप्पाणं कुवं 'समय०६२ परतिय वहुबंधणण पर सावय. दो० ५० । परम-समाहि धरेवि मुणि परम० प० २-१६३ पवा भावस०५०७ समय०६३ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प परमसमाहि-महामरहि परमहिलं सेवते परमाउपुव्यकोटी परमाणु दिहिय परमाणुत्रादिया परमाणुश्रादिया परमाणु श्रादियाइ परमाणु एयदेमी x परमाणु यदेमी x परमाणु प्रमाण वा परमाणु प्रमाण वा परमाणु प्रमाण वा परमाणु मित्तय पहु परमाणु मित्तराय परमाणुवग्गणात्रो परमाणु सयल परमापुर रिय परमारण तस रेणू परमार यांता परमारहि श्रहिं परमाणूहिं श्ररणता परमाहिया परमावहिवरखेत्तेण्परमावहिस्स भेदा परमावहिस्स भेदा पर मिट्टी झायतो परमेट्ठिभासदत्थ परमोरालयकाय परमोरा लिय देहरसम्मोपरमो दिव्यभेदा परलो विय चोरो परलो विसरूव पर लोगरिपिवासा पर लोगम्मिय चोरो पर लोगम्मि वि दोसा परलोयम्मिश्रणत परवत्तव्ययपक्खा परवत्थू परमहिला वसन्तो परविसयहरसीलो प्राकृत पयानुक्रमणी परम० प० २-६८६ | परममयतिमिरवल भ० पा० ६२७ परसमया चयण परमंतावयकारण जवृ० प० ७-४४ जबू० प० १३-२६ | परमंपया डिं पचम० १-१४० परिगम पजाओ गो० जी० ४८४ | परिचरण कुधम्मं कम्मप० ४५ ; परिचत्ता परभाव ०५८ | परिणमदि चेटाए उच्चस० ० २२८ परिणमदि जटा पा निलो० प० ६-३६ परिणमदि जेण व्य पवयणसा० ३-३६ । परिणमनियमट्ट 7 मोक्खपा० ६६ समय० २०१ तच्चया० ५३ गो० जी० ५६५ तिलो० मा० ११ ર परिणामदि सरिणजीवो | परिणमदि सय द्रव्च परिणमटो खलु खा परिणामजुदो जाओ परिणामजोगठाया तिलो० प० २-२८ परिणामपण जबृ० प० १३–२२ तिलो० प० ४-५५ મોરલી तिलो० प० १-१०२ परिणामादी ध 1 जबृ० प० १३–१६ । परिणामि जीव मुत्तं : गो० जी० ४१८ | परिणामि जीव मुत्त: गो० जी० ३६० गो० जी० ४१३ दाइसी० १७ जवृ० प० १३-१४० 1 · सम्मइ० २-१८ कल्लाणा० ३४ तिलो० प० २-२६८ कत्ति० प्र० ४७४ | परिणाम पुव्ववयणं परिणामम्मि असु परिणामसहावादी परिणामिजीवमुत्तापरिणामियभावगयं परिणामेण विही परिणामें बंधु जि हिउ परिणामो दुट्टागो चसु० सा० १११ भावम० ६८० गप० ३-१४ | परिणामो सयमादा गो० जी० ४१५ | परिणाहेक्कारसम परिणि+कमणं केवलपरिचमं परिधिम्मि जहि चिट्टदि परिधी तस्सदु या चसु० मा० ३४५ भ० श्रारा० १६५५ भ० प्रा० ८७१ भ० श्रारा० ८५० | परिपक्क उच्छ (च्छु ) हत्थो वसु० सा० १२४ परिफ मो परिमाण च सिलोया परिमार विक चिवि परियट्टा य वाय परियम्मसुत्तपढमा ¡ २०३ जबू० ५० १-१ गो० क० ८६५ या० गु० ७४ भावसं० ५७६ सम्मइ० ३-१२ धम्मर० ६५ यिमसा० १४६ पचयणमा० २-३१ पवयणसा० २-६५ पवयणसा० १-८ पचयासा० १-४२ कत्ति० अ० ७१ पत्रयणमा० २-१२ पचयणसा० १-२१ चसु० ना० २७ गो० क० २२० छेदपिं० २८१ णियम्सा० १७२ भावपा० ५ कप्ति० श्रणु० ११० पवयणसा० २-८८ मूला. २४५ चसु० सा० २४ चसु० सा० २३ भावम० १६७ कति० श्रणु० २२७ जोगसा० १४ गो० क० ८३० पवयासा० २-३० तिलो० सा० २२ तिलो० प० १-२५ भ० श्रारा० १०३८ तिलो० सा० ३८३ जबृ० प० १-२१ तिलो० प० ५-६६ भावस० ६६६ गाणासा० ६३ भ० श्रारा० ६६५ मूला० ३६३ सुदभ० ४ 1 Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ पुरातन-जैनवाक्य-सूची परियम्मसुत्तपुच्वग सुदख० २२ पलिदोवमद्धमाऊ तिलो० ५० ४-१२५६ परियम्मं पंचविहं अंगप० २-१ | पलिदोवमद्धसमधिय तिलो० प० ४-१२५१ परियाइगमालोचिय भ० श्रारा. २०३३ लद्धिसा० १५६ परिवजिऊण पिच्छं दसणसा० ३४ | पलिदोवमसंतादो लदिसा. १६० परिवज्जिय सुहुमाणं कत्ति० अणु० १५६ | पलिदोवमस्स पादे । तिलो० ५०४-१२४५ परिवढिदो(ट्टिदा)वधाणो भ० श्रारा० २६६ | पलिदोवमं दिवढं सिलो. प०८-५३४ परिवाजगाण णियमा मूला० ११७३ पलिदोवमाउजुत्तो तिलो. प० ६-११ परिवारइढिसक्कार- ___मूला० ६८१ पलिदोवमाउजुत्तो तिलो० ५० ६-८६ परिवारवल्लभाओ तिलो० ५०८-३१४ पलिदोवमाउठिदिया जबू०प०३-३ परिवारसमाणा ते तिलो० ५०३-६८ | पलिदोवमाऊगा ते जंवू० प० २-१६६ परिवारा देवीओ तिलो० ५० ५-२१६ | पलिदोवमाणि आऊ तिलो० ५० ८-५१८ परिवेढेदि समुद्दो तिलो० ५०४-२७१५ | पलिदोवमाणि पण व तिलो० ५०८-५२४ परिसत्तयजेट्ठाऊ तिलो. ५०३-१५३ | पलिदोवमाणि पण णव तिलो० ५०८-५२७ परिस-रस-घाण-चक्खू- छेदस० ४६ पलिदोवमाणि पंच य तिलो० ५० ५३० परिसह-दवग्गि-तत्तो श्रारा० सा०४६ तिलो०प०६-१ परिसहपरचक्कभिओ श्रारा०सा० ४५ पलियाणसेज्जगदा मूला० ७६५ परिसहभडाण भीया श्रारा० सा०४४ पलियंकणिसेज्जगदो मूला० २१ परिसहसुहडेहिं जिय । श्रारा० सा०४१ पलियफासणदीहा जबू० प० ५-५७ परिसुद्धं सायारं सम्मइ०२-११ पलिहाणं दाराणं तिलो. १०४-२०५६ परिसुद्धो णयवाओ सम्मइ० ३-४६ पल्लघणं विदगुल तिलो० सा० ७८ परिहर असंतवयर्ण भ० श्रारा०८२३ तिलो. सा० परिहरइ तरुणगोट्ठी म. श्रारा० १०८४ मूला० १११८ परिहर छन्नीवणिकाय- भ० श्रारा० ७७६ तिलो. सा० ७६२ परिहर तं मिच्छत्तं भ० श्रारा० ७२५ | पल्लट्ठिदिदो उवरि लद्धिसा० १२० परिहरि कोहु खमाइ करि सावय. दो० १३१ । पल्लतियं उवहीणं गो० जी० २५१ परिहरि पुत्त वि अप्पणउ सावय० दो १४६ | पल्लतुरियादिचयपल्लंत- तिलो० सा० ८१४ परिहरिय रायदोसे धारा० सा० ७१ पल्लद्ध(ट्र)दि भागेहिं (१) तिलो० ५० ६-६४ परिहाणिवढिवज्जिय जवू. ५० ७-६३ पल्लद्धे बोलीणे तिलो० ५० ४-५६६ परिहारस्स जहरणं लद्धिसा० २०० पल्लपमाणा उहिदि तिलो० ५० ५-१६४ परिहारे आहारय सिद्धत०६०। पल्लसमऊणकाले गो० जी० ४१० परिहारे बंधतियं गो० क. ७२७ । पल्लसमुद्दे उवमं तिलो० ५० १-६३ परिहीसु ते चरंते तिलो० प० ७-४५६ | पल्लस्स दृमभाए पर जाणंतु वि परम-मुणि परम० ५० २-१०८ पल्लस्स तस्म मारणं लद्धिसा० १२१ परु पीडिव धणु संचियइ सुप्प० दो० ३० पल्लस्स पादमद्धं तिलो०प०४-१२७७ परुसवयणादिगेहिं भ० श्रारा० १५१२ पल्लस्स संखभागं तिलो०प०७-५४४ परसं कडुयं वयणं भ० श्रारा० ८३२ पल्लस्स संखभागं लद्धिसा० ३६ परु हम्मइँ धणु संचियइँ सुप्प० दो० ३१ पल्लस्स संखभाग लद्धिसा० ३६२ पलिदोवमट्टमंसे तिनो० प० ४-४२० पल्लस्स संखभाग लद्धिसा० २२६ पलिदोवमदसमंसो तिलो० ५० ४-५०१ | पल्लस्स संखभागं लद्विसा० १८० पलिदोवमद्धमाऊ तिलो० ५० ३-१५८ | पल्लस्स संखभाग लद्धिसा० ४०२ सुदख०३ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी २०५ पल्लस्स सखभाग लहिसा० ४१० पविमित्ता णीमरिदा जंवू० प० ६-४६ पल्लस्स संखभाग लदिमा० ४१६ पविमवि णिज्जणवण भावस० २१३ पल्लस्म संखभागो लद्विमा० ११४ पव्वज्ज संगचाए चारित्तपा० १५ पल्लंकश्रामणाओ तिलो. प० ६-३१ पत्रज्जहीणगहिणं लिंगपा० १८ पल्ल रसरसगुणिशं प्रायः ति०१७-१७ | पन्बजाए रद्धो भ० यारा० २०३१ पल्लाउगा महप्पा जवृ० ५० १०-४६ / पव्वज्जादी सव्व भ० धारा० ५५ पल्लाउजुदे देवे तिलो० ५० ६-८८ पधज्जादी मन्च भ० धारा० ५३५ पल्ला सत्तेक्कारम तिलो० ५०८-५२८ | पाजदो मल्लिजिणो तिलो. ५० ४-६६० पल्लासंखघणगुलगो० जी० ४६० पव्वदमित्ता माणा भ. श्रारा० १४० पल्लासखेज दिम गो० क० ६१७ पन्यद-वावी-कूडा तिलो० मा० ६३८ गल्लासंखेजदिम गो० जी०४८० पव्वदविमुद्धपरिही तिलो. १०४-२८३ पल्लासखेजदिमा गो० क० २२४ पव्वदरिच्छणामा तिलो. प०४-२००३ पल्लासखेज्जदिमा गो० जी० ६५८ पव्वेसु इत्थिसंवा पसु० सा ! पल्लासखेज्जदिमा गो० क. १५४ पसमइ रयं असेसं भावमा पल्लासंखेज्जवहिद- गो० जी० २०८ पसरइ दाणुग्योसो तितो पT-18 पल्लासंखेज्जंसा तिलो० ५०८-५४७ पसुवणधरण खेत्तिय सार है। पल्लासखेज्जाहय गो० जी० २५६ पसुमहिलसढसगं पल्लासीदिममतर- तिलो० सा० ७६७ पस्सदि ओही तत्थ असंन्वे में पल्लोवमाउस्मा भावस० ५३६ पस्मदि जाणदि य तहा '' पल्लो सायरसूई + मूला० ११२६ / परसदि तेण मरूपं द पल्लो सायरसुई + जबू०प० १३-४३ परम्भुजा तस्स हवे .... । पल्लो सायरसूई + तिलो० सा० १२ | पहदो रणहिलो २५ --- पवणदिसाए पढम तिलो० ५० ५-२०१पहरंति र तलनिक १५ पवणदिसाए होदि हु तिलो० ५० ४-१८३१ / पहरेणेवर पवणवसलियपल्लव- जबू० प०३-२०५ : पहिया म पवणंजय त्ति णामे- जबू० प० ११-२८८ पहिया जेनी : .. पवणंजयविजागरी तिलो० ए० ४-१३७ । पह जीव न : 247 पवणीसाणदिमासुं तिलो०प० ४-१६५२ पह उन्ह पवणेण पुरिणय त तिलो० ५० ५-०४३३ पाहु ? :पवयगणिण्हवयाणं भ० प्रारा०६५ पहा :पवयणपमाणलक्षण- मिद्धत : पं . ५.::. ::: पवयणपरमा भत्ती कम्मप० ११६ पंकको ५०३-११ पवयणसारख्भास रयण्मा जाने सिर पवरवरधम्मतित्थं मूला० ४७६ पोकग लिन्ग ९०५-१ पवरवरपुरिसमीहा जबू०प०८-६१ पंचम्ट्रक पवराउ वाहिणीओ तिलो. प०१-६ - नव्यं । पवलपवणाभिहय- जंवृ० १० १8-12 पंचव नियमाप्रो पविभत्तपदेसत्तं पश्यणमा..-12 पविसंति मणुवतिरिया तिलो० ५०४-१६०६ पंचक्रवा चरवा पविसंते अणिसीही मूला. पंचम्या तस्साया Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ पुरातन-जैनवाक्य-सूची - पंचक्खा वि य तिविहा कत्ति० अणु० २१६ | | पंचत्थिंकायकहणं अंगप० ५-६३ पंचक्खे चउलक्खा तिलो० ५० ५-२६६ | पंचत्थिकायछज्जीव मूला० ३६६ पंचगयणट्ठअट्ठा तिलो० प०७-२५२ | पंचदहे वि तिहीओ रिट्टस० १६६ पंचगयणेक्कदुगचउ- तिलो० ५०४-२७०५ पंचदुगअट्ठसत्ता तिलो०९०७-३२६ पंच चउक्के बारस कसायपा० ३६ पंचधगुस्सयतुगा जंवृ० ५० १-१४२ पंच चउठाणछक्का तिलों०प०७-५६५ | पचधणुस्सयतुंगा जं. प. ४-१८ पंचचउतियदुगाणिं सिलो. प०८-२८८ | पंच परा गयण दुग चउ तिलो०५०७-३८३ पंच चदु सुरण सत्त य श्रास० ति०'११ पंचपलिदोवमाई जंबु०प०११-२६६ पंच च्चिय कोदंडा तिलो० प० २-२२५ पंचबलकाउ(पुलगाउ)अंगो- तिलो०५० ४-६२१ पंचच्छसत्तजोयण- म० श्रारा० ४०१ पंच बलह ण रक्खियई पाहु० दो० ४४ पंच छ सत्त हत्थे मूला. १६५ | पंचम उगुतीदिमा छेदपि ० २३६ पंच जिणिंदे वंदति तिलो० ५० ४-१४१२ पंचमओ वि तिकूडो तिलो. ५० ४-२२०६ पंचट्ठपणसहस्सा तिलो० ५०४-११३६ / पंचमकालवसाणे . जव० प० २-१८४ पंचणमोकारमयं धम्मर० १५२ | पचमखिदिए तुरिमे तिलो०५०२-३० पंचणमोयारेहिं वसु० सा० ४५७ | पंचमखिदिणारइया तिलो० प० २-६ पंच णव दोषिण अट्ठा-5 मूला० १२२३ | पंचमखिदिपरियंत तिलो. प० २-२८५ पंच णव दोगिण अट्ठा-5 पंचसं० २-४ | पंचमचरिमे पक्खड- तिलो० सा० ५६ पंच णव दोरिण अट्ठा- * गो० क. २६ / पंचमणाणसमग्गं जंबू०प०४-२८७ पंच णव दोरिण अट्ठा- * कम्मप० १-७ | पंचमभागपमारणा तिलो० सा० १६७ पंच णव दोगिण अट्ठा-४ गो० क० २२ | पंचमयं गुणठाणं । भावसं० ३५० पंच णव दोरिण अट्ठा- x कम्मप० ३६ | पंचमयं गुणठाणं भावसं० ५६६ पंच णव दोरिण अट्ठा- + गो.क०३८ पंचसं० ४-४०१ पंच णव दोषिण अट्ठा- + कम्मप १०६ | पंचमवत्थुचउत्थप्पाहुड अंगप०२-४४ पंच णव दोरिण छवी-- पचस० २-५ | पचमसुरेण जुत्ता जंवू०प०४-२२६ पंच णव दोरिण छन्वी-- गो० क० ३५ | पंचमहव्वदगुत्तो 1" मुला० ५६० पंच णव दोरिण छन्वी-- कम्मप० १०६ / पंचमहव्वदभट्ठो छेदपि० २५४ पंचएह गिदाणं गो० क० ७२ / पंचमहव्वयालो णाणसा०.५ पंचतिचउविहाई छेदपिं० ३२४ | पंचमहन्वयजुत्ता कत्ति० अणु० १६५ पंचतितिएक्कदुगणभ- तिलो० प०४-२३७३ | पंचमहन्वयजुत्ता कल्लाणा० २६ पंचतियचउविहेहि पंचसं० १-१३५ पंचमहब्बयजुत्ता * बोधपा० ४४ पंचतियचहुविहेहि गो० जी० ४७५ | पंचमहव्वयजुत्तो मोक्खपा० ३३ पंचतियं बारसयं जबु० ५० ११-४६ पंचमहन्वयजुत्तो सुत्तपा०२० पंचत्तालसहस्सा तिलो. प०७-२३२ | पंचमहायजुत्तो भ० धारा०३५६ पंचत्तालसहस्सा तिलो. प० ७-३५० पंचमहन्वयतुंगा तिलो० ५० १-३ पंचत्तालं लक्खं तिलो० प०८-१८ पंचमहव्वयधरणं पंचत्तीस-सहस्सा तिलो. प०७-३४७ | पंचमहत्वयधारी पंचत्तीस-सहस्सा तिलो० ५००-६३२ | पंचमहन्वयमणसा बा०शणु० ६२ पंचत्तीसं लक्खा तिलो. प० ६-७४ | पंचमहव्वयरक्खा भ० पारा० ७२३ पंचत्तीसं लक्खा तिलो० प०८-३४ | पंचमहन्वयसहिदा तिलो० ५०-६५ पंचत्तीसं लक्खा तिलो० ५०८-२६४ | पंचमहन्वयसुद्धो जंवू० ५० १३-१५८ मावस० १२५ मूला०८७१ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारद पंचमि पंचम वामविहिं पचमिए छट्टीए पंचमिए पुढचीए पंचमिपदो सममए पचमु जसु कञ्चास पंच य अव्वदाइ पचय अन्वयाई पंच य. इंदिय पारणा पच य इदियपारणा पचय तिखिग् य दो छक्क प्राकृतपद्यानुक्रमणी मूला० ११४६ पंचसदा, रूणा वसु० सा० ३६२ | पचसमिदा तिगुत्ता' तिलो० प० ५ - १६५ | पंचसमिदो तिगुत्तो मुला० १०५६ | पंचसमिदो तिगुत्तो + तिलो० प० ४–१२०१ | पंचसमिदो तिगुत्तो+ पंचसयगामजुत्ता पचसयन्त उस याणि पचसयचावतुगा सावय० दो० १४ भ० श्रारा० २०७६ धम्मर० १४२ मूला० ११११ पचसयचावरुदा तिलो० प० ३ - १८६ | पचसयजोय गाई कसायपा० ११ पचसय जोया रंग पचय महव्वयाई मूला० २ | पंचसयजोयणागि पंचसयजोयणागि कम्मप० ६१ पंच य वरणस्सेद पंचय विदियावरणं पचय सरीरवरणा पंचरस पंचवरणा पचरस पंचवरणा पचरस-पंचवण्णेहिं पचस० ४-४०७ | पंचसयजोय रणाणि ' कम्मप० ७० पंचसयोयणारिण गो० जी० ४७८ | पंचसयजोया रंग मूला० ४१८ पंचसयधणुपमाणो पंचसय महियाई परम० प० १-६३ | पचसय रायसामी पचस० ४-४८६ पंच वि इंदिय ऋणु मरणु पच विइदियपारणा * , पचस० १-४६ पंच वि इदियपारणा *पंच वि इदियपारणा * तिलो० प०२-२७७ बोधपा० ३५ | पच वि इंदियपारणा * पवयणसा०२ - ५४ ३ (ज) पंच वि इंदियपारणा - गो० जी० १२६ t पंच वि इंदियमुडा मूला० १२१ पंचस० १-३६ पंच वि थावरकाया पंच - विदेहे सट्ठी तिलो० प० ४-२६३३ | पच-विदेहे सहिसमरणढ- तिलो० प०५-२०० पंचविधच दुविधेसु य गो० ० ५१७ पंचविधे हारे पंचविहलचाय पंच- वित्ते इच्छिय पचविहं चारित्तं पचविहं जे सुद्धि पचविहं जे सुद्धि पचविहं ववहार पंचविहे. अडचउएगापंचविसंसारे पंचविहो खलु भणिश्रो पचसए छत्री से पचस्था श्रायामा पंचसयाई धररिंग पंचसया उच्चत्तं पंचसया छव्वीसा पंचसयाणं वग्गो पंचसयाणि धरण 1 पंचसया तेवीस पचसया देवीओ पचसया धरण छेहा पंचसया पण्णत्तरिपचसया पुरणाधियपचसया पण्णाधियपंचसया पुव्वधरा पंचसया बावरणा भ० श्र० ४२३ भावपा० ७६, तिलो० प० ७-३४५ | वसु० सा० ३२३ भ० श्ररा० १६४ पचसया महाविज्जा भ० श्रारा० १६५ | पंचसये, पण सट्टे भ० श्रारा० ४४८ पचसयेहि जुत्ता पचस० ५-४० | पंचसहस्स जुदा गि बा० अणु० २४ पचसहस्सा अधिया, मूला० ५५४ पंचसहस्सा इगस्यदंसणसा० २८ | पंचसहस्सा चसय ( २०७ तिलो० प० ४-५७५ भ० श्र० १६३१ पचयणसा० ३-४० पचस० १-१३१ गो० जी० ४७१ जबू० प० ७–४६ तिलो० प०८-३२५ तिलो० प० ४-२२७६ तिलो० प०८-४०१ तिलो० प० १-१४६ तिलो० प० ४-२०१५ तिलो० प० ४ - २१४६ तिलो० प० ४-२२१६ तिलो० ५० ४ - २४७८ तिलो० प० ४-२५८१ तिलो० प० ७-११७ तिलो० प० ४-५८४ तिलो० प० ४- ११०६ तिलो० ५० १- ४५ जबू० प० ४-१३६ तिलो० प० २-२६६ जबू० प० ४-८१ जबृ० प० २-१० तिलो० १०४ - ६५३ तिलो० प० ७-१११ तिलो० प० ४-२१२ तिलो० प०८-३१० कत्ति० श्र० १६८ तिलो० प० ४-४८२ तिलो० प० ४-१४४२ तिलो० ५० ४-१२६० तिलो० प० ४-११५० तिलो० प० ४-७२४ श्रगप० २- १०२ दी० पट्टा० १५ तिलो० प्र०४-१६८६ तिलो० प० १८ १२६६ तिलो० प० ७ - १८७ तिलो० प० ७-२०० तिलो० प० ४-११३० Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ पुरातन-जैनवाक्य-सूची पंचसहस्सा छापिय- तिलो० ५० ७-१६६ पंचाण मेलिदाणं पंचमहस्मा जोयण- तिलो० ५०४-२८४० पचाणुब्बय जा धरह पचसहस्सा जोयण- तिलो०५०७-१६० पंचागुव्ययधारी पंचसहस्साणि दुवे तिलो०प०७-२७१ पचादिपचवधो पचसहस्साणि पुढं तिलो० ५०४-११३४ पंचादो अट्ट पचयं पंचसहस्सा तिसया तिलो० ५०४-१६२६ पचादी वहि जुदा पंचसहस्प्ता तिसया तिलो. प०७-२७२ | पंचावत्थजुषो से पचसहस्सा दसजुद- तिलो० ५० ५-१६७ पंचावत्था देहे पंचसहस्सा दुसया तिलो०प०७-५८३ पंचासा तिरिण सया पंचसहस्सा[णि] पण तिलो० ५०७-५३३ / पंचासीदिसहस्सा पचसहस्सा[]ि पण- तिलो०प०७-४४७ पचाहुट्टिगिरज्जू पंचसहस्सा बेसय गो० फ० १०४ । पंचिदिएसु ओघं पंचसहस्सेक्कसया तिलो० ५०७-२०१ पंचिंदिओ असरणी पंचसंघादणाम फम्मप० ७१ | पचिदियतिरियाणं पंचसु कल्लाणेसुं तिलो. १०३-१२२ | पंचिंदियतिरिएसुं पचसु चअप वोसा कसायपा० ३५ | पंचिांदयसजुत्तं पंचसु ठाणेसु जिणे(णो) जंवू० ५० १३-६४ | पंचिंदियसंजुत्त * पंचसु थावरकाए पघसं० ५-६ पंचिंदिया असएणी पंचसु थावरकाए पचस०४-२५ पंचसु थावरकाए पचसं०५-४२८ पंचत्तरसत्तसया पंचसु पज्जत्तेसु य पसं०५-२६३ पंचवरसहियाई पंचसु भरहेसु तहा जबू० प० २-२०२ पंचुंबरसहियाई पंचसु महबएसु य छेदपिं० १८५ पंचुंवरहं सिवित्ति जसु पंचसु महत्वदेसु य मोक्खपा० ७५ | पचुंबरादि खायदि पंचसु मेरुसु तहा वसु० सा० ५०८ | पंचेक्फारसबावीसपंचसु वरिसे सु] एदे(गदे) तिलो०५० ७-५३७ / पंचेक्कारसवावीसपचसु वरिसेसु गदे तिलो० प० ७-५३३ / पंचेदे पुरिसवरा पचहें पायकु वसि करहु परम० प० २-१४० | पंचेव अणुव्व(व)याई पंचहाचारपंचगिसंसाया पचगु० भ० ३ | पचेव अस्थिकाया पंचहिं बाहिरु पोहडउ पाहु० दो० ४५ पंचेव अस्थिकाया पंचाइल्ला संता पंचसं० ५-४६५ पंचेव उदयठाया पंचाचारसमग्गा णियमसा० ७३ | पंचेव जोयगासदा पंचाचारसमग्गो जंबू० ५० १३-१५६ | पचेव जोयणसया पचाणउदिसहस्सं तिलो० ५० ७-४११ पंचेव जोयणसया पंचाणउदिसहस्सं तिलो० ५० ७-६१० पंचेव जोयणसया पचाउदिसहस्सा तिलो० ५० ७-३०७ | पंचे। जोयणसया पंचाणदिसहस्सा जंब० ५० १०-४ पंचेवणुब्बयाई पंचापाउदिसहस्सा तिलो० ५० ७-४१२ | पंचेव मूलभावा पंचाणउदिसहस्सा जंबू०प०१०-२४ । पंचेव य रासीओ पंचाउदीभागं जंव० ५० १०-२६ | पंचव सहस्साई तिलो० ५० ४-१४८२ सावय० दो०१ कत्ति० अणु० ३३० गो० क.६५८ तिलो. प० २-६१ मूला. १९२० दव्वस० गय०१० दग्यस० गय०११ जवृ०प०३-१ तिलो०प०४-१२९६ विलो. सा. १३७ गो० क. १११ पंचस०४-४३१ पचसं०५-१३१ पंचसं०-१५४ पचप्स. -२६३ पचस०५-६ छेदस०१० तिलो. १०१-२६० तिलो० सा० ३०२ वसु० सा० २०१ वसु० सा." सावय० दो०. छेदपि० ३३३ गो० क. २०० गो० क. २८३ जंवू० ५० १-१३ वसु० सा० २०६ भ० श्रारा० १७१३ मूला० ५४ पंचस० ५-१०७ जंबू० प०२-३७ जंवू. ५०४-१२५ जनू०प०६-५६ जबू०प०६-६ जंबू०प०११-२२ चारित्तपा० २२ भावति० २८ जंबू०प०१२-८८ तिलो०प०७-११३ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी २०६ पंचव सहस्साणिं तिलो. प०७-१६५ | पाए चलस्स उवरि आय. ति० १२-२ पचेन होति णाणा गो० जी० २६६ पाएसु जो विससो प्राय० ति०७-७ पदिए तसे तह सिद्धत० ५३ पाओदयं पवित्तं वसु० सा० २२७ प.दिएसु तसकाइएसु भावति० ८० | पात्रो(वो)दयेण अत्थो भ० श्रारा० १७३, पंचेंदियजीवाणं श्रास० ति० ३८ पात्रा (चो)दयेण सुट्ट वि भ० धारा० १७३२ पदियणाखाण कत्ति० अणु० २५६ पाओपहदसभावो लिंगपा० . पंचेंदियप्पयारो भ. श्रारा०६३५ पात्रो लोओ चित्रं छेदपिं० ३१८ पचेंदियसंवरणं चारित्तपा०२८ | पाओवगमणमरणस्स भ. श्रारा० २०६३ पंचेंदियारण लोगो जबू० प०४-१५ | पाखडीलिगेसु व समय०४१३ पचेदिया दु सेसा मूला० ११३० पागादु भायणाओ मूला० ४३० पंजरमुक्को सउणो भ० श्रारा०।३२० | पाचीणाभिमुहो वा भ० धारा० २०३५ पडिदपंडिदमरणं भ० श्रारा० २६ पाचीणोदीचिमुहो भ. श्रारा० ५५० पडिदपंडिदमरण भ० श्रारा० २८ पाचीणोदीचिमुहो भ० श्रारा० ५६. पंडिदपंडिदमरणे भ० श्रारा० २७ / पाडयरिणयंसगभिक्खा म. श्रारा० २११ पडियपंडिय पंडिया पाहु० दो० ८५ पारलअसोयवरणा जंबू० प० ३-६२ पंडुकवणस्स मज्झे जंबू० प० ४-१३० पाडलजपिप्पल- तिलो० प०४-१५ पंडुकसिला वि णेया जबू० ५० ४-१३६ पाडलिपुत्ते धूदा भ० श्रारा० २०७४ पंडुगजिणगेहाणं तिलो० ५० ४-२०८६ पाडलिपुत्ते पचा- भ० धारा० १३५६ पंडुगवणस्स मज्झे तिलो. प०४-१८४१ | पाडित्ता भूमीए धम्मर०५० पंडुगवणस्स मज्झे तिलो० ५० ४-१८४५ | पाडुन्भवदि य अएणो पवयणसा०२-११ पंडुगवणस्स हेट्टी तिलो० प० ४-१६३५ पाडेक्कणयपहगयं सम्म०३-६, पंडुगसोमणसाणिं तिलो०प०४-२५८२ | पाडेदं परसू वा भ० भारा०६८ पडुत्थ(?)सालिपउरो जबू०प०८-७० पाणगमसिंभलं परिपूर्य भ० श्रारा. १४६ पडुवणपुराहिंतो तिलो० प०४-१९४२ पाणचक्कपउत्तो भावसं० २८० पडुवरणपुराहितो तिलो० प०४-२००२ पाणदपडलं च तहा ___ जंयू०प० ११-३३३ पडुवान्भतरए तिलो० प०४-१८१६ पाणवधादीसु रदो* गो० क०८१० पडुवणे अइरम्मा तिलो० प०४-१८०१ पाणवधादीसु रदो* कम्मप०१६० पंडुसिलाय समाणा तिलो. प०४-१८३३ | पाणवहाईसु रओं * पंचस०४-२१० पंडुसिला-सारिच्छा तिलो०प०४-१८३१ | पाणं इंदो वि तहा जंबू०प०५-१०६ पंडुसुत्रा तिरिया जणा णिवा० भ०७ | पाणगतूरियंगा तिलो. प०४-८२७ पंडूकंबलणामा तिलो०प०४-१८२८ पाणगा तुरगा तिलो. प०४-३४. पंथं छडिय सो जादि भ० थारा० १२६६ पाणं मधुरसुसादं तिलो० प०४-३४२ पंथादिचारपमुहाछेदपि० १८० पाणाइवायविरई वसु० सा० २०७ पंथे पहियजणाण कत्ति० अणु०८ पाणादिवादविरदे मूला० १०३२ पंथे मुस्संतं पस्सिदूण समय०५८ पाणाबाधं जीवो पवयणसा० २-५७ पाउ करहि सुहु अहिलसहि मावय० दो० १६० | पाणावायं पुव्वं अंगप०२-१०७ पाउ वि अप्पहिं परिणवइ पाहु० दो० ७८ | पाणिदलर्धारदगंडो भ० धारा ८८७ पाउसकालणदीयोव्व(उव) भ० पारा०६५४ | पाणिवधमुसावादा- भ० श्रारा० २०८० पाऊरण खाणसलिल चारित्तपा० ४० पाणिवह मुसावाए मूला० ६५६ पाऊण गाणसलिलं भावपा० ६३ । पाणिवहमुसावाद(दा) मूला० २८८ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० पुरातन-जैनवाक्य-सूची पाणिवह मुसावादं मूला० ७८० पायारतभागे, पाणिवह मुसावाद मूला० १०२४ पायाराणं उवरि पाणिवहेहि महाजस भावपा० १३३ पायालतले णेया पाणिविमुत्ता लंगलि भावस० ३०० पायालपीढवसहरहपाणीए जंतुवहो मूला० ४६७ पायालाम्म य इट्टा पाणेहिं चदुहिं जीवदि " पचत्थि० ३० पायालस्स विभागे पाणेहिं चदुहिं जीवदि पवयणसा० २-१५ पायालंते णियणिय- पाणो वि पाडिहेरं म० श्रारा० ८२२ पायालाण गेया पादट्ठाणे सुगणं तिलो०प०४-५२ पाये रुद्धविमुक्के पादालस्स दिसाए तिलो०प० ४-२४५८ पायोपगमएमरणं पादालाणं परिदा(दो) तिलो०प०४-२४३३ पारदरियट्टणयं पादुक्कारो दुविहो मूला० ४३४ पारद्धा जा किरिया * पादूणं जोयणयं तिलो. प० ४-५१ पारद्धा जा किरिया * पादे कंटयमादि भ. श्रारा० २०५७ | पारद्धिउ परणिग्विणउ पादोसणियमरहिए छेदस० २१ पारसियभिल्लबब्बरपादोसिय अधिकरणिय भ० श्रारा०८०७ पारं अंचदि परदेसपादोसियवेरत्तिय मूला० २७० | पारंपज्जाएग दु पापविसोतिअपरिणा मूला०३७६ पारावइमोराणं पापविसोत्तियपरिणा- भन्श्रारा० १२५ पालकरज्जं सहि पास्सागमदारं । भ० श्रारा०८४६ पावइ आईउखघाइएसु पामिच्छे परियट्रे मूला० ४२३ पावइ दोसं मायाए पायच्छित्तं आलो मूला० ६३० | पावजुए चलवेरिणि पायच्छित्त कमसो 'छेदपिं० १२१ । पावजुए पडिकूले पायच्छित्तं छेदो छेदपि०३ पावजुयदिट्ठमझे पायच्छित्तं ति तवो मूला० ३६१ पाव५ोगा मणवचिपायच्छित्तं दिएणं छेदपि० २११ पावपयोगासवदारपायच्छित्तं दिएणं छेदपिं० २१२ पावहि दुक्खु महंतु तुहुँ पायच्छित्तं विणयं मूला० ३६० | पावं करेदि जीवो पायच्छित्तं सोही छेदस०२ पाव खवड असेसं पायति पज्जलंतं .. धम्मर० ५७ पावंति केइ दुक्खं पायारगोउरट्टल- तिलो० सा० ७०६ | पावंति केइ धम्मादो पायारग्गोउरदा- जंबू. प०११-२४८ पाति भावसवणा पायारदेउलाण य श्राय० ति०१०-१५ / पावं मलं ति भएणइ पायारपरिउडाणि य जवृ० प०८- | पावं पयइ असेसं पायारपरिगदाइ तिलो०प०४-२५ पायारवलहिगोउर- तिलो. प. ४-१६५२ | पावारंभणिवित्ती पायारवलहिगोउर जंवृ०प०३-१६ पायारसंपरिउडा जबू० प० ३-६३ / पाविय धणो वि वज्जिय पायारसंपरिउडा जय० प०८-६, पावेण अधोलोयं । पायारमंपरिउडो जंबू० ५०७-३६ पावेणा जणो एसो तिलो. सा०८१५ तिलो० सा० ८८७ जंबू०प०४-२३ जबू० प०११-२०६ जबू० प०६-१२२ जबू० ५० १०-६ तिलो०,५०४-२४४५ जबू० ५० १०-३१ श्राय. ति. 19-0 भ० आरा०२४ अगप०३-८ -णयच.३० दवस० गय० २०० सावय.दो०४६ धम्मर.. छेदपि०२२ बा० अणु०५६ तिलो० ५०८-२५१ तिलो०प०४-१५०१ प्रायः ति० ६-१५ भ० पारा० १३८१ प्रायः ति०१६-३ प्रायः ति० -६ प्रायः ति० १८-२३ भ. श्रारा १८३३ म० श्रारा. १८३६ परम० प० २-११६ भ० धारा० १७४७ भावपा० १०६ धम्मर धम्मर०३ भावपा०६८ तिलो०प०१-१० भावपा० १११ णिवा० भ०१३ रयणसा०० तिलो०प०३-२२० आय० ति०८-1 जंबू० ५०११-१00 ,कत्ति० प्रशु०१७ - Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी २११ प पावेण तिरियजम्मे भावस. ५० पासादो मणितोरण- पावेण तेण जरमरण- वसु० सा० ६१ पासित्तु कोइ तादी पावेण तेण दुक्खं वसु० सा० ६३ पावेण तेण बहुसो वसु, सा० ७८ | पासिदियसुदणाणापावेण सह सदेह भावस०४२६ पासुक्कस्सखिदीदो पावेण सह सरीरं भावस०४३१ पावेण णिरयविले तिलो० ५० २-३१३ पासुगमग्गेण दिवा पावेत्तो वि सुहं जइ श्राय० ति०७-१ पासे उववादगिहं पावें णारउ तिरिउ जिउ परम०प० २-६३ / पामे पंच च्छहिदा पावोदये गरए कत्ति० अणु० ३४ / पासेहि जं च गाढं पासजिणिदं परामिय जवृ० ५० १३-१ पासो दु उग्गवंसो पासजिणे चउमासा तिलो० ५०४-६७७ | पासो व बंधिदु जे पासजिणे पण-दंडा तिलो० ५० ४-८७४ | पाहाणधादुअजणपासजिणे पणवीसं तिलो०प०४-८८१ पाहाणम्मि सुवरणं पासजिणे'पणवीसा तिलो०प०४-८५३ | पाहुडिहं पुण दुविहं पासत्थभावणाओ भावपा०१४ पाहुणवत्थव्वाणं पासत्थसदसहस्सादो भ० धारा०३५४ पाहुणविणउवचारो पासस्थादी चउरो छेदपिं० २५५ पाड़क-पांड(डोकबल- पासत्थादीपणयं भ० श्रारा० ३३६ पिउ-पुत्त-शत्तु-भव्वयपासत्थादीहिं समं छेदपिं० २४८ पिच्छइ अण्णच वएणं पासत्थो पासत्थस्स भ० भाग० ६०१ पिच्छह गरयं पत्तो पासत्थो य कुसीलो मूला० ५६३ पिच्छह दिव्वे भोए पीसभुजा तस्स हवे तिलो० ५० ४-१६६६ पिच्छहु अरुहुद्देवो पासम्मि थभरुदा तिलो० ५०४-८२१ | पिच्छं मोत्तूण मुणी पासम्मि पचकोसा तिलो० ५०४-७२० पिच्छिय परमहिलाओ पासम्मि मेरुगिरिणो तिलो. प०४-२०१७ | पिच्छे ण हु सम्मत्त पासरसगंधवगणव्व- तिलो० ५०४-२७८ पिच्छे संथरणे [सु य] पासरसवरणावररणि- तिलो० ५०४-८४ पिट्ठक-गज-मित्त-पहा पासस्स समवसरणे णिव्वा० भ० १६ | पित्तंतमत्तफेफसपासंडसमयचत्तो तिलो. ५० ४-२२५१ पियदसणो पभासो पासंडा तभत्ता छेदस० १६ | पियधम्मवज्जभीरू पासंडी तिषिण सया भावपा० १४० पियधम्मा दढधम्मा पासंडीलिगाणि व समय० ४०८ | पियधम्मो दिढधम्मो पासडेहिं य सद्ध मूला० ४२६ । | पिय-विप्पयोगदुक्खं पासं तह अहिणंदण णिव्वा० भ० २० । रिय-हिय-महुर-पलावो पासादवलहिगोउर- जबू० प० २-५५ पिल्लेदूण रडत । पासादवासतोरण अंगप० २-10 | पिरणा सढा चंडा पासादाणं मज्झे तिलो. ५० ८-३७३ | पिहिदं लंछिदयं वा पामादा णायव्वा जबू० १० ६-१८१ | पिंगल सिही य ढिंको पासादावारेसुं तिलो० प० ४-२६ । पिंडत्थं च पयस्थ तिलो० ५० ५-१८१ भ० श्रारा० ६६१ भ० धारा०१०८१ - तिलो०प०४-१८७ तिलो०प०४-४८८ णियमसा० ६५ णियमसा०६१ तिलो० सा० ५२३ तिलो. ५० ४-७६८ भ० श्रारा० १५७६ तिलो. सा० ८५६ भ० श्रारा०६८६ भ० थारा० १०४६ माणसा० ३६ मूला० ४३२ मुला० १४२ मूला० १४० तिलो. सा. ६३३ सम्मइ०३-१७ रिट्ठस. १४२ ,पारा० सा० ६३ वसु० सा० २०२ ढाढसी० २३ छेदपि० ८० ' भावस०' ५७५ ढाढसी०२८ रयणसा० १११ तिलो० सा० ४६६ भावपा० ३६ तिलो० ५० ४-२६०० भ० श्रारा० १४५ भ० श्रारा० ६४७ मूला० १८३ भ. श्रारा० १५८१ जब० प० १३-६७ भ० श्रारा०४७६ जंब० प०११-१५६ मूला०४४१ , रिट्ठस० १७५ ' 'रिट्रस. १७ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ पित्थ च पयत्थ पिंडदा पंचेव पिंडं उवहिंसेज्जं x पिंडं सेज्जं उवधि x fust उवधि सेज्जा सि थराच्छीरं पीओ लोढय सरिसो पीढत्तरस कमसो पीढस्स चउदिसासुं पीढस्स चउदिसासुं * पीढस्स च उदिसासु पीढस्सुवरिं चित्तं पीढं मेरु कपि पीढाण उवरि मात्थंभा पीढा परि पीढाणं वित्थारं पुग्गलकम्मं को हो पुग्गलकम्म मिच्छं पुग्गलकम्मं रागो पुग्गलकम्माटीणं पुग्गलदव्वं मो (मुत्तं पिंडोवधि सेज्जाए पुग्गल भेदविभिरणं पिंडोवधि से जाओ पिंडोवधि सेज्जाओ पिंडो वुच्च दे पुग्गल मज्झत्यो य (त्थेचं) पुग्गलविवाइदेहो - मूला० ११६ भावसं० ६२० | पुग्गलसीमेहि विदो पीऊमणिज्झरणिं जिणचंद - तिलो०प०४-६३८ | पुग्गलु अणु जि अणु जिउ जोगसा० ४५ जबू० प० १३-११ पुग्गल छव्त्रिमुत्तु वढ पुग्गलु जीवहॅ सहु गरिणय पीढाणीए दोरणं पीढाणीयस्स तहा पीढोवरि बहुम पीढोरम्म भागे पीढो सच्चइपुत्तो पीत्थ सिंदुवदरगा पीदिमरणा दमरणा पीदिकर श्राच्वं पीढ़ी भए य सोगे पीयारुकसिणसिया पीति जहा इक्खू पीलिज्जते केई पुक्खरगहणे काले पुक्खरवर उदधीदो पुखरवरद्धदी पुरातन जैनवाक्य-सूची पुक्खरिणीपदी पुग्गलकम्मणिमित्तं वसु० सा० ४५८ गो० क० ८५८ f भ० श्रारा० २८६ मूला० १०७ भ० श्रारा० २६२ भ० श्रारा० ६०६ छेदपिं० १६० तिलो० प० ४ -७६६ | पुच्छिय पलायमाणं | पुज्जराविहि च विश्वा पुज्जाउवरणाइय पुज्जो वि खरो अवमापुट्टट्ठी चवीसं | तिजो० प० ४-१८६६ तिलो० प० ४-१६०१ तिलो० प० ४ - १६०६ जंबू० बू० प० १-४३ भावसं ० ४३७ पुढं सुइ सद्दं तिलो० प० ४ -७७३ पुट्ठिमसु जइ छडियउ तिलो० प० ४-८६७ | पुट्ठीए होति अट्टी तिलो० प०४-७६ | पुट्टो विययियेहि तिलो० प० ८- २७६ | पुढवि-जल-तेउ-वाऊ | जबू० १० ११ - २८४ तिलो० प० ४ - १८६७ तिलो० प० ४- १६०२ तिलो० प० ४- १४३८ भ० प्रा० १०५५ जबू० प० ११ - २६४ तिलो० प०८ - १७ पुढवि दग ते वाऊपुढवि - दगागरण-पत्रणे पुढवि - दगागणि मारुदपुढवि दगागणि मारुदपुढवि - दगागरण - मारुयपुढविप्पहु दिवराप्फटपुढविंदयमेगू पुढवाच | भ० श्रारा० १४४१ प्रा० ति०४ - १८ | पुढवीश्राऊते उधम्मर० ४७ पुढवी आऊऊतिलो० प० २-३२३ | पुढवी आऊ तेऊ गो० जी० ३१२ पुढवी आऊ तेऊ जंबू ० प० १२ - २१ |पुढवी आऊ य तहा तिलो० प० ४-२८०७ पुढवादिच उह तिलो० सा० ३२२ | पुढवीकायिगजीवा पुक्खर सयभुरमरणा पुक्खरसिंधु (धू) भयधरणं (ख) तिलो० सा० ३६० | पुढवीजल ग्गिवाऊ तिलो० प० ४-३२४ | पुढवीजलग्गिवारसमय ०८६ क्षे० ७ (ज०) पुढवी जलं च छाया : भावपा० १८ श्राय० ति० १ | समय० १२३ समय० समय० १६६ दव्वस०८ यिमसा० ३७ जबू० प० १३- ८१ दव्वस० य० १३० गो० जी० २१५ परम० प० २-१६ सावय० दो० २०५ तिलो० १० २-३२२ कत्ति० श्रणु० ३७६ भावस० ४२७ भ० श्रारा० १३७२ तिलो० प०४-१५७५ प पंचस० १-६८ सावय० दो० ४१ निलो० प० ४-३३१ वसु० सा० ३०० दव्वस० ११ मुला० ४१६ भ० श्रारा० ६०८ गो० जी० १२४ मूला० १०१६ मूला० १०२७ तिलो० प० ५-३०६ तिलो० सा० १६५ तिलो० प० १-२६५ गो० क० ५३४ गो० जी० १८१ मूला० २०१ भ० श्रारा० २०६६ मूला ४७२ गो० जी० १६६ मूला० १००७ कत्ति ० ० १२४ कल्लाग० १६ गो० जी० ६०१ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी २१३ पुढवी जलं च छाया * वसु० सा० १६ पुण्णस्स कारणं फुड भावस० ४२५ पुढवी जल च छाया दव्वस० णय० ३१ पुण्णस्स फारणाई भावसं० ३६५ पुढवीतोयसरीरा कत्ति० अणु० १४८ पुरणस्सासवभूदा मूला० २३५ पुढवी पउमवदी इगि- तिलो. सा. ६५३ पुरणं पि जो समिच्छादि कत्ति० अणु० ४०६ पुढची पिंडसमाणा समय० १६६ पुरण पुन्वायरिया भावसं० ३६६ पुढवी य उदगमगणी पचस्थि० ११० | पुण्णं पूदपवित्ता तिलो० ५० १-८ पुढवी य बालुगा सक्करा मूताः २०६ पुण्ण बंधदि जीवो कत्ति० अणु० ४१२ पुढवी य सक्करा बा पचस०१-७७ पुरणाग-णाग-चंपय- जब० ५० १-३५ पुढवीय समारंभं मूला० ८०२ | पुरणाग-णाग-चंपय- जब० ५०२-६७ पुढवीयादीपंचसु गो० क० ७१७ पुण्णाग-णाग-पूगी- तिलो० सा० ५८० पुढवीवईण चरियं जब० प०४-२१० पुरणाग-तिलय-वरणा जबू०प०३-६१ पुढवीसंजमजुत्ते मूला० १०२२ पुण्णाणं पुज्जेहि य भावस. ४७२ पुढवीसाणं चरिय तिलो० ५०८-२६१ पुण्णापुरणपहक्ग्या तिलो. प०५-४५ पुढवीसिलामो वा भ० श्रारा०६४० पुराणाय-णाय-कुजय- तिलो० प०४-७६८ पुण जोयावह भूमी रिट्ठस. १५२ पुराणाय-णाय-चंपय- तिलो०५०४-१५७ पुणरवि काउंणेच्छदि कत्ति० अणु० ४५२ पुराणाय-णाय-पउरं जब० ५०८-७० पुणरवि गोसवजएणे भावस० ५३ पुण्णा वि अपुरणा वि य कत्ति० अणु० १२३ पुणरवि किरणे पच्छिम- तिलो० सा० ३५४ पुण्णा सइमणवत्था तिलो. सा. २६ पुणरवि तत्तो गतु जंब० ५० १०-४८ पएणासए ण पूरणं कत्ति० अणु० ४११ पुणरवि तमेव धम्म भावसं० ४ १६ | परिणदरं विगिविगले गो० क० ११३ पुणरवि तहव त ससार भ० श्रारा० १६५२ परिणमए हेट्ठादो तिलो. प० ४-२४३६ पुणरवि दसजोगहदा पचस० ५-३४१ | पुण्णिमदिवसे लवणे जब० ५० १०-१८ पुणरवि देसो ति गुणो गोक०८३८ पुरिणं पावइ सग्ग जिउ जोगसा० ३२ पुणरवि धरंति भीमा धम्मर०४४ पुण्णु पाउ जसु मणि ण समु सावय० दो० २११ पुणरवि पणमियमत्थो धम्मर० १६८ | पण्णु वि पाउवि कालु णह* परम० प० १-६२ पुणरवि मदिपरिभोग + लद्धिसा० २३८ पुण्णु वि पाउ वि कालु णहु * पाहु० दो० २६ पुणरवि मदिपरिभोग + लद्धिसा० ४२६ / पराणेकारसजोगे गो० क० ३५२ पुणरवि विउविऊणं जबू० ५० ७-१३६ पुण्ण्ण किं पि कज्जं ढाढसी० ३२ पुण वीसजोयणाण मूला० ११५० पुण्णेण कुलं विउल भावस. ५८६ पुणु पुणु पपविवि पंचगुरु परम० ५० १-११ पुण्णेण समं सव्वे गो० क. १२८ पुणो वि जवेह गुणं रिट्ठस० २०२ परणेण होइ विहानो तिलो० १० १-५४ पुराणजहएणं तत्तो गो० जी० १०० परणेण होड विहओ पाहु० दो० १३८ पुण्णजुदस्स वि दीसइ कत्ति० अणु० ४६ परणेण होइ विहवो + परम० प० २-६० पुण्णतसजोगठाणं गो० क० २४७ परणेसु सरिण सव्वे पचस०१-४६ पुरणदिणे अमवासे तिलो. सा. ६०० पुराणोदएण कस्सड भ. श्रारा० १७३३ पुण्णफला अरहता पवयणसा०१-४५ पुत्तकलत्तणिमित्त बा० अण. २० पुण्णवलेणुववज्जइ भावसं०५८७ पुत्तकलत्तविदूरो रयणसा० ३३ पुण्णम्मि य पवमासे तिलो० ५० ४-३७५ पुत्तत्थमाउसत्थं भावस० ७६ पुण्णरासिण्हवणाइय' साधय. दो० २०७ पुत्ताइबंधुवग्गंx णयच० ७३ पुण्णवसिट्टजलप्पह- तिलो० ५० ३-१५ | पत्ताइवंधुवग्गं x दवस. य० २४३ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन - जैनवाक्य-सूची पुत्ते कलत्ते सजणम्मि मित्ते तिलो० १० २ - ३६६ | पुरिस वधमुवदि पुत्तो वि भाजाओ कत्ति० श्रणु० ६४ पुरिसादी पुच्छि पूध पुध वामिस्सो वा छेदपिं० २०४ | पुरिसादो लोहगयं फक्खयेहिं भरिदा जंबू० प० १३ – ११६ | पुरिसायारपमाणु जिय जंबू० प० ११–३४५ | पुरिसायारो पा पिं० ३४३ | पुरिसा वरमउड छेदपिं० ३५१ पुरिसिच्छियाहिलासी छेदपिं० २६८ रिसिच्छिसंढवेदो वसु० सा० २२८ | पुरिसित्थीवेदजुद तिलो० प० ४ - १३१ | पुरिसित्थीवेदजुदा तिलो० ० ४ - २३१ | पुरिसेण वि सहियाए तिलो० प० ४-५२३ | पुरिसे दुरवस जबू० प० ८ - १०७ | पुरिसे सव्वे जोगा वसु० सा० २१० | पुरिसो जह को वि [य] इह तिलो० सा० ८०२ | पुरिसोदएण चडिदस्सित्थीतिलो० सा० २८८ | पुरिसोदयेण चाडदे तिलो० सा० १००७ पूरिसोदयेण चडिदे तिलो० प० ४ - १६१२ | पुरिसो मक्कडिसरिसो तिलो० सा० १००२ परिसो वि जो ससुत्तो छेदपिं० २६७ | पुरुगुरणभोगे सेदे * मूला० ६३० | पुरुगुणभोगे सेदे तिलो० प० ८- ६७ | पुरुगुणभोगे सेदे सम्मइ० १-४ | पुरुमहमुदारुरालं + भ० रा० १२२४ | पुरुमहमुदारुरालं + भ० श्रारा० १२२६ | पुरुसा पुरुसुत्तमसप्पुरुसतिलो० सा० २७६ | पुरुसा पुरुसुत्तमसप्पुरुस -- सम्मइ० १-३२ पुत्रकदकम्मसड x पचस० ४-४०६ | पुव्वकदकम्मसड X भ० श्रारा० १०८० पुव्यकद (य) कम्म सडणं x द्धिसा० २६३ | पुव्वकदमक भ० श्रारा० ६४४ | पुत्रकदमज्झपाव भ० श्रारा० १६१० | पुञ्चग (क ) दपावगुरुगो भ० रा० १७६६ | पुव्वज्जिदाहि सुचरिदलद्धिसा० ४५६ | पुन्वठियं (य) खवइ कम्मं द्विसा० २६१ २१४ पुष्फ॰पइण्णएसु य पफवदि पुष्कवदिए पुष्पवदी जदि गारी पुदी जदि विरदी पफजलिं खिवित्ता पुष्पिदकमल व रोहिं पुष्पिदपकजपीढा पुप्फुत्तराभिधारणा पुफ्फुल्लकमल कुत्र लय पुरगाम पट्टणा इसु दूरगामवट्टणादी परदो गतूण बहि पुरदो पासाददुगं पुरदो महाहाणं पुरदो सुरकीडामणिपुरि (र) दो धारिदऽचेलयपूरिमचरिमा दु जम्हा पुरिमावलीपवदिपुरिसज्जायं तु पडुच पुरिसत्तादिरिदाण परिसत्तादीणि पुणो पुरिसपिया क पुरसम्म पुरिससद्दो पुरिसस वास पुरिस पत्थ पुरिसस्स उत्तणवकं पुरिसस दुचीसंभ परिसरस पावकम्मोपुरिसस्स पुणो साधू परिसरस य पढमदि पुरिसरस य पढमठिदी पुरिसं को कोह परिसं चउसंजलणं - पुरिसं चउसंजलणं. पुरिसं चदुसंजलणं * पुरिसं चदुसंजल पुण्वहस्स तिजोगो पचस० ४-४८६ | पुव्वहे वरण्हे पंचस० ३-२६ | पुव्त्ररहे मज्झरहे पचस० ४-३२० | पुत्रदिसाए चूलियपचसं० ४-४६३ | पुत्रदिसाए जसरसदिगो० क० १०१ | पुवटिसाए पढमं प भ० श्रारा० ६७७ लद्धिमा० २६८ द्विसा० २६६ जोगसा० ६४ मोक्खपा० ८४ तिलो० प०४-३५८ समय० ३३६ गो० जी० २७० तिलो० तिलो० प०८-६६७ १० प० ४-४१४ सीलपा० २६ लद्धिसा० ३२२ पचस० ४-४६ समय० २२४ लद्धिसा० ६०२ गो० क० ४८४ गो० क० ५१३ भ० श्रारा० १३६६ सुत्तपा० ४ पंचसं० १-१०६ गो० जी० २७२ कम्मप० ६४ पचस० १-६३ गो० जी० २२६ तिलो० प० ६-३६ तिलो० सा० २५६ मूला० २४५ भ० श्रारा० १८४७ भावसं० ३४४ भ० श्रारा० १६२६ भ० श्रारा० १४२४ तिलो० प० ४-६१६ तिलो० प०८-३७६ रयणसा० ५६ लद्धिसा० ६४६ तिलो० प० ५-१०२ कत्ति० श्रणु० ३४४ तिलो० प० ४-१८३४ तिलो० प० ४ -२७७३ तिलो० प०५-२०० Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणा २१५ - पवदिसाए विजय तिलो. ५० ४-४२ / पव्वं जहुत्तचारी छेदपि० २४५ पध्वदिमाए विसिहोतिलो० ५० ५-१३२ | पव्व जिणेहि भणियं रयणमा०२ पव्वदिसेण य विजयं जवृ० ५० १-३६ पचं जो पचे दिय रयणसा०८० तिलो०प०४-१०१६ पुव्वंतं अवरतं अंगप०२-४२ पुचधरा तीसाधिय- तिलो० ५० ४-१११५ पच्चं ता वरणेसिं भ० श्रारा०६४ पुत्रवरा पगणाधिय- तिलो० ५० ४-११०३ पध्वं ति-यरणविहिणा लद्विसा० ११२ पव्वपदिरणं पाच्छित्त छेदपिं० २१३ | पुवं दाणं दाऊण वसु० सा० १८५ पुचपमाणकदाणं कत्ति० अणु० ३६७ | पव्वपंचणियट्टी गो० क० ८४२ पत्रपरिणामजुत्तं - कत्ति० अणु० २२२ | | पव्वं पिव वणसंडा तिलो०५०४-२१०३ पव्वपरिणामजुत्त · कत्ति० अगु० २३० पुव्वं पुव्वं ण उद जय० प० १३-१३ पचपरिणदकोत्थुह- तिलो० ५० ४-२४७० पुत्रं वद्धणराऊ तिलो० ५०४-३६८ पव्यमणिदेण विधिणा भ० श्रारा० २०६१ | पुव्यं वद्वसुराऊ तिलो० ५००-३४७ पव्वभवे अणिदाणा तिलो. ५० ४-१५८८ पव्वं व गुहामझे तिलो. प०४-१३६२ पवभवे ज कम्म वसु० सा० १६५ | पव्व व ण चउवीसं गो० क० ७४३ पव्वमकारिदजोग्गो म० श्रारा० १६१ तिलो०प०१-१२६ पुव्वमभाविदजोग्गो भ० श्रारा० २४ पुव्वं मयमुवमुत्त * भ. श्रारा० .४२५ तिलो०प०४-१६३४ पुव्वं सयमुवभुत्तं . भ० श्रारा. १६२६ पवम्मि पंचमम्मि दु कसायपा० १ पुव्व सेवइ मिच्छा रयणसा०७३ पञ्चरदिकेलिदाई मूला० ८५२ | पुवाइदिसचउक्के श्राय० ति०१-१६ भ० श्रारा० २००८ पुवाए कापवासी तिलो. प० ५-१०० पञ्चबरिणदखिदीण तिलो० ५० १-२१५ | पवाए गंधमादण- तिलो० ५०४-२१६० पुव्ववरजीवमेसे तिलो० सा० ७७८ पुबाए तिमिसगुहा तिलो० प० ४-१७६ पुचवरविदेते तिलो० सा० ६७२ पुव्वाण एक्कलक्खं तिलो. प० ४-६४१ पुनविदेहस्सते तिलो०प०४-२१६६ पुयाण फड़याणं लद्विसा० ४६५ पुव्वविदेह व कमो तिलो०प०४-२२६६ पुव्वाणं कोडितिभा- गो० क० १५८ पुचविदेहे णेया जवू० प०८-१६२ पव्वाणं वत्थुसम सुदभ०१० पुवस्स दु परिमाणं जबू० ५० १३-१२ तिलो०प०४-२७६७ पव्वस्सिं चित्तणगो तिलो० ५० ५-२१२२ पुवादिचउदिसासुं तिलो. प० ५-१२१ पव्व आइरिएहिं तिलो०प०१-१६ पुवादिम्हि अपव्वा लद्विसा० ५०१ पव्वं ओलग्गसभा तिलो. प०८-३६४ लद्विसा० ६२८ पुव्व कएण णेया जबू०प०४-१८० | पुव्वादिसु ते कमसो तिलो. प०८-४२६ पुव्वं कदारियम्मो मूला०८३ | पुव्वादिसु पुह अड अड तिलो० सा० ६४७ पव्वं कारिदजोगो भ० श्रारा० १६३ पुवादिसुंअरज्जा तिलो० ५० ५-७६ पुव्वं कयधम्मेण य जवू० प० ६-७६ पत्रापुवप्फड्डय पचस० १-२३ पुव्वंग-तय-जुदाइ तिलो० प०४-१२४६ पुव्वापुव्वप्फट्टय लद्धिसा० ५०७ पुव्वगभहियाणिं तिलो० प०४-१२४८ पुवापुचप्पड्डय गो. जी. ५८ पुव्यगविउलविडवं जय० ५० १३-१७१ पव्वाभिमुहा णेया जवू०प०३-१३७ पुव्वं चउसीदिहदं तिलो० प० ४-२६४ | पव्वाभिमुहा सव्वा जबू०प०४-१४३ पुव्वं चेव य विणओ मूला० ५७६ | पुव्वाभोगियमग्गेण भ० श्रारा० १६८१ पुव्व जल-थल-माया गो० जी० ३६१ । पुवायरियकमागय रिस० १६ रमाण Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ पुरातन-जैनवाक्य-सूची पुवायरियकयाई दंसणसा० ४६ पुव्युत्तसयलदव्वं पुवायरियकयाणि य छेदस. १२ पुन्चुत्ता छत्तीसा पुवायरियणिबद्धा भ० श्रारा० २१६६ पुवुत्ता जे उदया पुव्वावरायामों तिलो. ५०-६०७ पुव्वुत्ता जे भावा पुवावरदिव्भाए तिलो० ५०२-२५ पुवुत्ताणपणदरे पुवावरदिव्भायं तिलो. प० ५-१३६ पुवुत्ताणि तणाणि य पुवावरदो दाहा तिलो. प०४-१०१ पुवुत्ता वि य तीसा पुवावरपणिधीए तिलो०प०४-२७२८ पव्वुत्तामवभेया पुवावरभाएसुं तिलो. प० ४-१५४ पुव्वेण तदो गंतुं पुवावरभाएसु तिलो० ५० ४-२१०१ पुत्वेण तदो गंतुं पुव्वावरभाएसुं तिलो. प०४-२१२६ पुत्वेण तदो गतुं पुवावरभागेसु तिलो०प०४-२१६७ पुव्वेण तदो गर्नु पुव्वावर-विच्चालं तिलो० प० ७-६ पुव्वेण तदो गतुं पुवावर-वित्थिरणा जव०प०६-१२१ पुवेण तदो गंतुं पुव्वावरायदाण जब० प०१-५६ पुव्वेण पुव्वावरायदाणं जब० ५० १-६१ पव्वेण पुवावरेण जोयण- तिलो. प०४-२२१८ पुवावरेण णेया जबू० ५० ४-१० पव्वेण पुचावरेण तीए तिलो. प०८-६५२ पुवावरेण दीहा जबू० प०२-५ पुत्वावरेण दीहा जंबू० प० ३-५ पुवेण तदो पुवावरेण परिही तिलो० सा० १२१ पव्वेण तदो गंतुं पुवावरेण लोगो जब० प०४-४ एव्वेण तदो गंतुं पुवावरेण सिहरिप्प ०५०४-२४८६ पुवेण तदो गंतुं पुव्वावरेसु जोयण- तिलो० प० ४-१८१७ पुव्वेण तदो गंतुं पुव्वाहिमुहा तत्तो तिलो. प०४-१३४७ वेण तदो गंतुं पुन्विल्लबंधजेट्ठा लद्धिसा० ५१६ पुत्वेण तदो गंतुं पुस्विल्लयरासीण तिलो० प० २-१६१ पुव्वेण तदो गंतुं पुन्विल्लवेदिश्रद्धं तिलो. प. ५-१६७ पुव्वेण तदो गंतुं पुव्विल्लाइरिएहिं तिलो०प०१-२८ पुत्वेण तदो गंतु पुन्विल्लेसु वि मिलिदे गो० क० ४७६ पव्वेण तदो गंतुं पुव्वी पच्छा संथुदि मूला०४४६ पुव्वेण दु पायालं पुव्वुत्तणवविहाणं वसु० सा० २६७ पव्वेण मालवंतो पुवुत्ततवगुणाणं भ० श्रारा० १४५६ प्रवेण होइ तत्तो पुव्वुत्तरदक्षिण दिस तिलो० सा० ५१६ पुव्वेण हो [३] तिमिसा पुव्वुत्तरदक्षिणपच्छिमासु वसु० सा० २१३ | पव्वेण होति णेया पुव्वुत्तरदिन्भाए तिलो० ५०८-६१६ | पुत्वे विमलं कूलं पुव्वुत्तरदिभाए तिलो. प०८-६३५ | पुव्वोदिदकूडाणं पुव्वुत्तवेइमज्झे वसु० सा०४०५ पुवुत्तसगदभावा णियमसा० ५० | पुस्सट्ठारहदियहे णियमसा०१६७ पंचस. १-३६ पचस०५-४३ भावस०६१५ भ० श्रारा० १५७ भ० श्रारा० २०३६ पंचस०१-३७ बा० अणु०६० जब० प०८-१५ जब० ५०८-२२ जंब० ५०८-३३ जबू० प०८-४७ जंवू०प०८-५४ जंव०प०६-६७ जब० प०६-६१ जंब० प० ६-८ जंबू प०६-१०१ जंवू०प०६-१०६ जवू० प०१-११५ जंबू०प० १-११८ जंबू० प० ६-१२३ जबू० प०६-१२६ जंबू० प०६-१३३ जंबू० प०६-१३५ जंबू०प० ६-१४४ जबू०प०६-१४६ जंबू०प० १-१५२ जंबू० ५० १-१६८ जंबू०प०१-१६६ जंबू०प० 8-१७३ जबूः प०६-१७७ जंब० ५० १०-३ जबू०प०६-२ जब० ५०८-७६ जब० ५०२जब० प०१०-३० तिलो० सा० ६५७ तिलो० ५० ५-१५४ तिलो० ५० ५-१५० रिस० २३२ तिलो दा Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी २१७ पुस्सस्स किएहचोइसि- विलो० ५० ४-६८६ पूजारंभं जो कारवेदि छेदपि० १५५ पुस्मस्मा पुण्णिमाए तिलो० ५० ५-६८१ | पूजारिहो दु जम्हा धम्मर० १३४ पुस्सस्स पुरिणमाए तिलो०प०४-६६० पूयण पज्जलग वा मूला०४७० पुस्सस्स सक्कचोद्दसि- तिलो. प०५-६७६ पूयफलेण तिलोके रयणसा० १४ पुस्से सिददसमीए तिलो. प०४-१८८ | पूयादिसु वयसहियं भावपा०८१ पुस्से सुक्केयारसि- तिलो० ५० ४-६६१ पृयावमाणरूविरूवं भ० थारा० १२३७ पुस्सो असिलेसाओ तिलो. प०७-४८८ पूयावयणं हिदभा-* मूला०३७७ पुहई सलिल च सुहं णाणसा० ५८ पूयावयण हिदभा-* भ. श्रारा० १२३ पुह खुल्लयदारेसुं तिलो०प०४-१८८७ | | पूरति गलति जदो तिलो० ५० १-६E पुह चउवीस-सहस्सा तिलो०५०४-२१७७ पेक्खागिहा य पुरदो जव० प०५-३७ पुह पुह कसायकालो गो० जी० २६५ | पेच्छइ जाणइ अणुचरइ परम० प० २-१३ पुह पुह चारक्खेत्ते तिलो०५०७-५५४ | पेच्छदि ण हि इह लोगं पवयणसा०३-२४२ ६(ज) पुह पुह ताणं परिही तिलो. प० ७-६२ | पेच्छह मोहविडंबण वसु० सा० १२३ पुह पुह दुतडाहितो तिलो. ५० ४-२४०६ | पेच्छंते बालाणं तिलो० ५० ४-४६२ पुह पुह दुतडाहितो तिलो० ५० ४-२४४० | पेज्जदो(हो)सविहत्ती कसायपा०३ पुह पुह पइएणयाणं तिलो. ५०८-२८५ पेज्जदो(दो)सविहत्ती __ क्सायपा० १३ (१) पुह पुह पोढतयस्स य तिलो० प० ४-१८२२ पेज्जं वा दोसो चा क्सायपा० २१ (३) पुह पुह पोक्खरिणीणं तिलो० ५० ४-२१८७ पेलिज्जते उवही तिलो०प०४-२४३८ पुह पुह वीससहस्सा तिजो० ५० ४-२१७६ पेसुण्ण-हास-कक्कस- णियमसा० ६२ पुह पुह मूलम्मि मुहे तिलो० प०४-२४१० पेसुएण-हास-फक्कस मूला० १२ पुह पुह ससिबिवारिणं तिलो. प०७-२१७ पोक्खरदीवद्धसं तिलो० प० ४-२७८४ पुह पुह सेसिंदाणं तिलो० ५०३-६६ पोक्खरमेघा सलिलं तिलो० ५० ४-१५५६ पंकोधोदयचलियस्से- लद्धिसा० ३४६ | पोक्खरवरउदधीए जंबू० ५० १२-२२ कोहस्स य उदये लद्धिसा० ३६१ / पोक्खरवस्वहिपहुदि तिलो० ५० ७-६१४ पुंडरियदहाहितो तिलो० ५०४-२३५० पोक्खरवरो त्ति दीओ तिलो० प०४-२७४१ पुंडुच्छवाडपउरो जबू० ५०८-११५ | पोक्खरवरो त्ति दीओ तिलो० ५० ५-१४ पुंबधद्धा अंतो गो. क. २०५ | पोक्खरवरो दु दीओ जवू० प०११-१७ पंवेदं वेदंता सिद्धभ० ६ | पोक्खरिणिवाविदीही जबू०प०२-१३६ वेदित्थिविगुत्रिय- श्रास० ति० ३५ पोक्खरिणिवाविपरा जबू०प०३-६५ पवेदे थीसंढं श्रास० ति० ४३ / पोक्खरिणिवाविपउरा जब० प०८-७६ पुवेदे संढित्थिी भावति. १० पोखरिणिवाविपउरा जंव० प०६-११ पवेदो देवाणं भावति० ७४ | पोक्खरिणिवाविपउरा जव० ५० १२-४ पुंवेदो मिच्छत्त पंचस० ३-७१ पोक्खरिणिवाविपउरे । जंबू प० १३-१६७ पुंसलिघरि जो भुजइ लिंगपा० २१ पोक्खरिणिवाविपउरो जब० प०८-२४ पुसजलणिदराणं लद्धिसा० ३२१ । | पोक्रवरिणिवाविपरो जबू० प०८-१७३ पुसद्वणित्थिजुदा गो० क० २६६ | पोक्खरिणिवाविवप्पिणि- जंब० प० ४-६० पूग-फल-रत्त-चंदण- जबू० ५०२-७६ | पोकरिणीणं मज्झे तिलो० ५०४-१९४७ पूजाए अवसाणे तिलो. प०३-२२७ | पोक्खरिणीरमणिज्जं तिलो०प०४-२००६ पूजादिसु णिरवेक्खो कत्ति० अणु० ४४६ | पोक्खरिणीरम्मे हिं तिलो०प०५-२०७ पूजादिसु णिरवेक्खो कत्ति० श्रणु० ४६० तिलो. प०८-४१८ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ पुरातन-जैनवाक्य-सूची पोक्खरिणीवावीहि तिलो० ५० ४-२२४५ | फरसिंदिउ मा लालि जिय सावय० दो० १२३ पोखरिणीवावीहिं तिलो० प०४-२२७४ फल-कंद-मूल-चीय मुला० २५ पोग्गलअइरुक्खाटो तिलो० सा० ८६२ फल-फुल्ल-छल्लि-वल्ली क्ल्लाणा १८ पोग्गलजीवणिवद्धो पवयणसा० २-३६ / फलभारणमिदसाली- तिलो० ५० ४-०८ पोग्गलदव्चम्हि अणू गो० जी०५६२ फलभारणमियसाली- जंबू०प०१३-१०८ पोग्गलदव्वं उच्चड णियमसा० २६ फलमुत्तिमं धयगया श्रायः ति०२२-६ पोग्गलदव्वं सद्दत्त समय० ३७४ | फलमूलदलप्पहदि तिलो० प० ४-१५६१ पोग्गलदव्वाणं पुण गो० जी०५८४ | फलमेयस्सा भोत्तण वसु० सा० ३७८ पोलियइँ मणिमोत्तिय सावय० दो० १३० फलहोडीबरगामे । णिव्वाभ.१४ पोट्टहें लग्गिवि पावमइ सावय० दो० १०६ । फलिह प्पवाल-मरगय- तिलो. प०४-२२७३ पोतजरायुजअडज- गो० जी० ८४ फलिहमणिभित्तिणिवहा जंबू० ५० ५-२५ पोत्थयजिणपडिमाफोडणम्मि छेदपि ० १६७ फलिहमणिभवणणिवहा जंबू० प० ६-५० पोत्थय दिएण ण मुणिवरहें सावय० दो० १५६ फलिह रजदं व कुमुदं तिलो० सा० ६५० पोत्थयपिच्छकमंडलु- छेदपि ० १७७ फलिहसिलापरिघडियं जबू० प० १३-१२६ पोत्था पढणिं मोक्खु कहें, पाहु० दो० १४६ | फलिहो व दुगदीणं भ. श्रारा० १४६८ पोथइकमंडलाई णियमसा० ६४ फाडंति आरडता जंबू० प०११-१६६ पोथिलिहावणथं छेदपि ६४ फालिज्जते केई तिलो० प०२-३२५ पोराणफम्मखमणं मूला० ३६३ फासरसगधरूवे गो० जी० १६५ पोराण(णि)यकम्मरयं मूला०२८७ फासरसरूवगंधा तञ्चला० २१ पोराणिया तदा ते तिलो० सा० १८३ फासं अट्ठवियप्पं क्म्मप० ६३ पोसह उवओ(हे) पक्खे मूला०६१५ फासित्ता जंगहरणं जबू०प०१३-६७ फासिदिएण गोवे भ० श्रारा० १३५६ फासुगदाणं फासुग मूला. ६३६ फासुयजलेण हाइय भावस० ४२६ फासुयभूमिपएसे मूला० ३२ फरगुणकसणचउद्दसि- तिलो० प० ४-६५४ फासुयमग्गेण दिवा मूला० ११ फग्गुणकसिणे सत्तमि- तिलो० प०४-६८३ फासे रसे य गंधे मूला० १०६६ फग्गुणकिण्हचउत्थी- तिलो. प०४-११८८ फासेहिं तं चरितं म० श्रारा० ५२२ फग्गुणकिएहसवणमे तिलो० प०४-७६ फासेहिं पुग्गलाणं पवयणसा० २-५ फगुणकिरहे छट्ठी- तिलो० ५०४-६६६ फास्गे ण हवइ णाणं समय० ३६६ फग्गुणकिण्हे वारसि- तिलो० प०४-६६४ फासो रसो य गधो पवयणसा०१-५६ फग्गुणकिएहे वारसि- तिलो० प० ४-५२०३ फिडिदा संती बोधी भ० श्रारा० १८७२ फग्गुणकिण्हेयारसि- तिलो० प० ४-६७८ फुल्लतकुमुदकुवलय- तिलो० ५० ४-७६७४ फग्गुणचाउम्मासिय- छेदपि० ११६ फुल्लंतकुंदकुवलय- तिलो. प०८-२४६ फग्गुणदहदियहाई रिस० २३३ फुल्लिय-मउलिय-कलिया श्राय० ति० १-२८ फग्गुणबहुलच्छट्ठी- तिलो० प०४-११८६ फुल्लिय मित्तो भरियो आय० ति० ६-३ फग्गुणवहुले पंचमि- तिलो० ५०४-११६४ फड़यगे एक्केके गो० क० २२५ फझ्यसंखाहि गुणं गो० क. २२६ फणिगरुडसेसयाणं तिलो० सा०२४५ जिय Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · इस त्रिगमगं बइसरणश्रत्थिरगमरण बइसरणश्रत्थिरगमणं चच्चर वेला दक्खुज (?) दु दि मं जे चतरथे बज्झभतर मुहिं बत्तीसट्ठावीसं बत्तीसट्ठावीसं बत्तीसट्ठावीसं बत्तीसट्ठावीस बत्तीसवराणं बत्तीसपुत्रलक्खा बत्तीसवार सेक्क बत्तीस वेसहस्सा बत्तीसभेद तिरियाणं बत्तीस मट्ठावीस बत्तीसलक्खजोयणबत्तीसवरमुहारिण य बत्तीससदसहस्सा बत्तीस सय सहस्सा बत्तीससहरसा इं बत्तीससहस्सा बत्तीस सहरसा वत्तीस सहरसागि बत्तीससहस्सा गि बत्तीस सहरसारिण बत्तीसं अदाल बत्तीस सादे बत्तीस किरकवला ब बत्तीस च सहस्सा बत्तीसं चिय लक्खा बत्तीस तीस दस चत्तीसं देवेंदा बत्तीसं लक्खाणि बत्तीसा अमरिंदा बत्तीसा किर कवला प्राकृतपद्यानुक्रमणी बत्तीसा खलु बलया बत्तीसा चालीसा बत्तीसोदय भंगा वद्धउ तिहुव परिभमइ बद्धस्स बंधणे व बद्ध चित्र कर अलं तिलो० ५० ४-३०६ तिलो० प० ४-३६६ तिलो० प० ४-४०७ तिलो० प० ८-३८८ दव्वस० ३२ भावस० १०१ मूला० ४० तिलो० १० २ - २२ तिलो० प०८-१४६ | तिलो० प० ८ - १७६ तिलो० सा० ४५६ | जंबू० ५० ११-३२ | बम्हादी चत्तारो तिलो० प० ४-५६१ म्हाभिधाकप्पे चद्धाउगा मणुस्सा बद्ध उगा सुट्टी बद्धारं पडिभरिण बद्धारण च सहाव बम्महदपुर घाइ (?) बम्हपकुव्व (ज्ज) णामा ब्रम्हस्मि होदि सेठी बम्हाछक्के पम्मा तिलो० प० ४-१४२० बम्हा-विरहु-महेसरतिलो० सा० २३५ | बम्हदम्मि सहस्सा तिलो० प०५-३१० बहिदयम्मि पडले तिलो० सा० १४६ | बम्हदयादिदुदयं (१) तिलो० प०८-३८ | बहिदलंतविंदे जबृ० प० ४-२५१ बहिदादिचक्के जबू० प० १२-२३ |बहिदे चालीस जंबू० प० ११ - २१६ | बहिदे दुसहस्सा जंबू० प० ११ - २६७ बहुत्तरस्स दक्खिणजबू० प० ३-६० | बम्हुत्तरहे वरिं जबू० प० ७-४५ | बम्हुत्तराभिधारणा तिलो० प० ४ - २१७५ तिलो० प० ४-१८८१ तिलो० प०८-३११ बम्हे सीदिसहस्सा बलगोविंदसिहामणिबलरामा अच्चिणिया गो० जी० ६२७ बलदेवचक्कवट्टीपचसं० ५- ३५० | वलदेववासुदेवा भ० श्रारा० २११ | बलदेववासुदेवा जबू० प० ११-१२२ बलदेव-हरिगणाणं तिलो० प० ८-३७ वलदेवाण हरीण तिलो० प० ३-७६ | बलदेवा विजयाचल जबू० प० ११ - २३८ तिलो० प०२-१२२ बलभद्दरणामकूडे बलभद्दरणाम कूडे भावस० ४५२ | चलभद्दरणामकूडो मूला० ३५० वलयाए बलयाए २१६ जंबू० प० १२-३७ जबू० प० ६- १३६ पंचस० ५-३४३ पाहु० दो० १६० भ० प्रा० १७५३ रिस० ३६ जंबू० प० ६–१७३ वसु० सा० २४६ तिलो० प० ८-५४० तिलो० प० ६-६४ जंब० प० ४-२६१ तिलो० प० ४-११७६ तिलो० प०८-६६१ भावति० ७३ तितो० प०८ - २०७ तिलो० प०८-३३७ जबू० प० ६-१६६ तिलो० प०८-२२१ तिलो० प०८-५०० तिलो० प०८-१४२ तिलो० प० ८-४१४ तिलो० प० ८-४३८ तिलो० प०८-२२६ तिलो० प०८-३१२ तिलो० प० ८-३४३ तिलो० ५०१-२०६ तिलो० प० ८-४६६ तिलो० प०८-१८ तिलो० सा० १ ० प०८-३०६ तिलो० मूला० २५० जवू० प० ७-६८ तिलो० प० ४-२२८४ जवृ० प० ४-२११ तिलो० प० ८-२६२ तिलो० सा० ८२७ तिलो० सा० ६२४ तिलो० प० ४-१६७६ तिलो० प० ४-१६६५ जंबू० प० १२-२' 1 Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० पुरातन-जैनवाक्य-सूची बलरिद्धी तिविहायो तिलो० ५० ४-१०५६ | बहुतोरणदारजुदा तिलो. प०४-१७०६ बलविक्कममाहापं जंवू० ५० ७-१४३ बहुदिन्वगामसहिदा तिलो. ५०४-१३४ बलवीरियमासेज य मूला० ६६७ बहुदुक्खभ यणं कम्म- रयणसा० ११८ बलसोक्खणाणदंसण भावपा० १४८ बहुदुक्खावत्ताए भर धारा० १७६० बलि किउ माणुस-जम्मडा परम० प० २-१४७ बहुदेवदेविणिवहा जबू०प०६-१४६ बलि-गंध-पुप्फ-अक्खय- जब० ५० ५-८२ | बहुदेवदेविपउरा जबू०प०१२-११० बलितिलएहि जुवरेहिं(?) य वसु० सा० ४२१ बहुदेवदेविपुण्णा जवृ० प०४-१७६ बलिधूवदीवणिवहा जंबू० प०६-१८६ बहुदेवदेविपुण्णो जबू०प०८-१ बलियसरियम्मि पाए श्रायति० ६-७ | बहुदेवदेविसहिदा तिलो० प० ४-६६६ वलिया हुंति कसाया ढाढसी०६ बहुपरिवारहिं जुदा तिलो० प०४-१६५० बहलतिभागपमाणा तिलो० ५० ६-११ | बहुपरिवारहिं जुदो तिलो०प०४-१७१० बहलत्ते तिसयाणं तिलो० ५० ३-२६ बहुपरिसाडणमुज्मि मूला० ४७५ वहिणिग्गएण उत्तं भावस० १६२ बहुपावफम्मकरणा भ० श्रारा० १३०५ बहिरत्थे फुरियमणो मोवपा०८ बहु बहुविहाखिप्पेसु य जवू० प० १३-७१ बहिरभंतरकिरिया दन्वमं० ४६ बहु बहुविहं च खिप्पा म गो० जी०३०६ बहिरमंतरगंथविमुक्को रयणसा० १५२ बहु बहुविहं च खिप्पा अगप० ३-६४ बहिरभंतरगंथा तसा.. बहुभवणसंपरिउडा जंबू०प०६-१४५ बहिरन्तरतवसा भावसं०५०८ बहुभव्वजणसमिद्धी जंव०प०-६२ बहिरंतरगंथचुवा(आ) भावसं० १२३ बहुभागे समभागो गो० क० १६५ वहिरंतरप्पभेयं रयणसा० १४८ बहुभागे समभागो गो० क० २०० बहिरंधकाणमूया जबू०प०२-१६३ बहुभागे समभागो गो० जी० १७८ बहिरा अंधा काणातिलो० प०४-५५३७ बहुभा(भ)वणसंपरिउडो जब० ५० ६-१७२ बहुअच्छरपरिपरिया जव० प० ७-१०७ बहुभूमीभूसणया तिलो० प० ४-८५० बहुअच्छरेहिं जुत्ता जंब० प० ११-१३२ बहुभूमीमूसरणया तिलो०प०१-३० बहुआरंभपरिग्गहधम्मर० १६ बहुभूसणेहि देहं धम्मर० १७१ वहुकव्वडेहिं रम्मो जब० प०१-११६ बहुयइँ पढियइँ मृढ पर पाहु. दो०६७ बहुकुसुमरेणुपिंजर- जंबू० प० ३-१४ । बहुयंघयारसीयं आय. ति०१६-७ बहुगदरं बहुगदर कसायपा० ६१ (5) बहुयाण एगसहे सम्मइ. ३-४० बहुगं पि सुदमधीदं मूला० ६३३ । बहुरयणदीवणिवहो जब० ५०८-२० बहुगाण संवेगे भ. श्रारा० २४३ वहुलट्ठमीपदोसे तिलो० ५० ४-१२०४ बहुगुणसहस्सभरिया भ० श्रारा १४६४ / बहुवएणणपासादा तिलो. सा०६११ बहुगे बहुविहभेदे जंबू० प०१३-७५ गो० जी०३१० बहुछिदं णिवडतं रिट्ठस० ५३ | बहुवरणा वट्टवय्यड(१) आय. ति०१-४२ बहुजम्मसहस्सविसा- भ० श्रारा० १७६२ बहुवारे गुरुमासो छेदपिं० १५७ बहुजादिजूहिकुजय- जंबू० प०३-२०६ बहुवारेसु य छेदो छेदस० १२ बहुठिदिखडे तीदे लद्धिसा० ५६८ वहुवारेसु य पणगं छेदपि०१२ बहुणगीयसाला धम्मर० ६१ बहुवारेसु य पणगं छेदपिं० १५६ बहुतसरमणीयाई तिलो०प०४-२३२१ बहुतससमरिणदं जं कत्ति० अणु० ३२८ | बहुविजयपसत्थीहिं। तिलो०प०४-१३५० बहुतिव्वदुक्खसलिलं भ० श्रारा० १७६६ | बहुविविहपुप्फमाला भ० भारा० १०६५ जब० ५० ४-५६ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी २२१ बहुविविहभवणणिवहो जब० प० ३-२१७ | बधंतं चेवुदयं पंचस०५-२३६ बहुविविहसोहविरइय- जब० ५० ११-३२६ | बंधंत चेवुदयं पंचसं० ५-२४१ बहुविहववाहिं तिलो० ५०४-१०५० | बंधतं चेवुदयं पंचस० २३७ बहुविहजालापहदा जब० ५० ११-१७० बंधंति अप्पमत्ता पंचस०४-३८३ (क) बहुविहदेवीहिं जुदा तिलो० प० ५-१३५ बंधंति जसं एयं * पचसं०४-३०२ बहुविहपडिमट्ठाई जोगिभ० ११ | बंधीत जसं एयं * पचसं०५-६५ बहुविहपरिवारजुदा तिलो० ५० ३-१३२ / बंधति य वेयति य पंचसं०४-२२६ बहुविहबहुप्पयारा* पंचसं० १-१४१ बधतो मुच्चतो भ० आरा० १७६७ बहुविहबहुप्पयारा * गो० जी० ४८५ | बधाणं च सहावं . समय. २६३ बहुविहबहुप्पयारा * कम्मप० ४६ | बंधा तियपणछएणव गो० क. ७०६ बहुविहमणिकिरणाहय- जबू० प०३-२३८ बंधादेगं मिच्छ कम्मप०५३ बहुविमिसाभिहाण अंगप०२-७६ | बधा संता ते चिय पंचस०५-४४२ बहुविहरइकरणेहिं तिलो० ५० ५-२२४ बंधित्तो पजंक कत्ति० अणु० ३५५ बहुविहरसवत्तेहिं तिलो० ५० ५-१०८ | बधुक्कट्टणकरणं गो० क. ४३७ बहुविहविगुल्वणाहि तिलो० प० ८-५६० बधुक्कट्टणकरणं गो० क० ४४४ बहुविहविदाणएहिं तिलो०प०४-१८६२ बंधुदये सत्तपद गो० क० ६७३ जुत्ता तिलो०प०४-२२४८ | बधुवभोगणिमित्ते समय०२१७ बहुवेयणाउलाए धम्मर०८० | बंधु वि मोक्खु वि सयलु जिय परम०प०३-६५ वहुसत्थअत्थजाणे बोधपा०१ बधे अधापवत्तो गो० क. ४१६ बहुसालभजियाहिं तिलो०प०४-१६४४ | बधे च मोक्खदेऊ दव्वस० गय०२३६ वहुसो य गिरिसरित्था जवू० प० ६-१११ वघेण विणा पढमो + पचस० ५-१६ बहुसो वि जुद्धभावणाए म० श्रारा० १६७ पचस०५-२६५ वहुसो वि मेहुण जो छेदपि० ५१ | बंधेण होइ उदो- कसायपा० १४३ (६०) बहुसो वि लद्धविजडे भ० श्रारा० १२३१ | बंधेण होइ उदओx कसायपा० १४४ (६१) बहुहावभावविन्भम- वसु० सा० ४१४ । बघेण होदि उदओ लद्धिसा० ४५० बंध-उदया उदीरण पंचस० ४-५ | बघेण होदि उदओx लद्धिसा० ४३८ बंधण-छेदण-मारण- णियमसा० ६८ लद्धिसा० ४२४ बधण-णिवधण-पक्कम- अंगप०२-४५ बंधे वि मुक्खहेऊ गयच. ६६ वधणपहुदिसमरिणय- गो० ० ८२ बंधे संकामिज्जदि गोक०४१० बंधणभारारोवण वसु० सा० १८० बंधो अणाईणिहणो दव्चस० गय० १२५ बधणमुक्को पुणरेव भ० श्रारा० १३२६ बंधो(?) णिरओ सतो(१) लिंगपा० १६ वधतियं अडवीसदु गो. क. ७२१ बधोदएहिं णियमा ऽ कसायपा० १४८ (६५) बंधदि मुंचदि जीवो कत्ति० अणु० ६७ | बंधोदएहि णियमा ऽ लद्धिसा०४५२ बधद्दन्वाणतिमलद्धिसा० ५२६ बंधोदयकम्मंसा गो० क.६३० वधपदे उदयसा गो० क० ६६० बंधोदयकम्मसा पचस०५-८ बंधपदेसग्गलणं चा० अणु० ६६ बधो व संक्मो वा कसायपा० १४२ (मह) वधम्मि अपूरते सम्मइ०१-२० धो व संकमो वा कसायपा० २२३ (१७०) वध-वध-जादणाओ भ० श्रारा० ८६७ / बंधो व सकमो वा कसायपा० २१६ (१६६) वधविहाणसमासो पंचसं० ४-५१५ | बंधो व संकमो वा कसायपा० १४७ (६४) वंधहें मोक्खह हेउ णिउ परम० ५० २-१३ । बधो समयपवद्धो गो० जो० ६४४ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ बंभ - खत्तिय - महिला बभण-खत्तिय-वइसा बंभघादे अट्ठय बंभरण-वरण- महिलाओ बंभ- सुद्दित्थीओ भयारि सत्तमु भणिउ बंभसहावाऽभिरणा हॅव बसंता बंभा भोत्तरिया बंभारंभपरिग्गहfast क भे तवे वि बंभेवं बंभुत्तरभोकरे विजय (i) बाचदुअट्ठासीदिय वाढति भाणिदू बाणउदिउत्तराणि बाउदि एगउदी बाणउदिजुत्त दुसया बाणउदि उडिसी बाणउदि उदित्तं बाण उदि उदित्तं बाणउदिउदिसत्ता बाणउदिणउदिसंता बाणउदिउदिसंता बाणउदिर उदिसंता वारणउदिणउदिसंता बाणउदिलक्खसहस्सा बाणउदिसहस्सारिण बाउदी धा बाणउदी उदिचऊ बाणउदी उदिचऊ बाउदी पंचसय बाणजुदरुंदवग्गे विवा बाणासराणि छ चिय बादर ऊऊ बादरणिव्वत्तिवरं बादरतेऊवाऊ पुरातन जैनवाक्य-सूची छेदपिं० ३४४ वादरपज्जत्तिजुदा छेदस० १७ पढमे किट्टी छेदपिं० ३० | बादरपढमे पढमं छेददि० ३४६ | बादरपुरणा तेऊ छेदपिं० ३४७ सावय० दो० १५ दव्वस० गय० ५३ | बादरमालोचेंतो परम० प० २-६६ बादरलद्धिपुरणा जंबू० प० ११-३४७ | बादरलोभादिठिदी कल्लाणा० २२ | बादरसंजलगुढ़ये जंबू० प० ५-६८ वादरसंजलदये मूला० ११४० वादरसुहुमगदाणं मूला० १०६५ बादरहमा सिं जंबू० प० ११-३३२ | बादरसुहुमुदये य भावसं० २०३ | बादरसुहमे इंदियपचसं० ५-२३६ | वादरसुहमेइंदियभ० आर० ३७६ | वादरसुहुमेक्कद रं तिलो० प० ७-१६२ बादालमट्टघण इगिपचस०५-२१७ | बादाललक्खजोयणतिलो० प० २-७४ | बादाललक्खसोलसपंचस० ५-४१८ वादालसदसहस्सा बादरवादर बादर वादरमण वचि उस्सास गो० क० ७३६ बादालसहस्स पद गो० क० ७६२ | बादालसहस्सं पुह गो० क० ६२६ | बादालसहस्साईं पंचसं० ५-२२६ | बादालसहस्सागि पंचसं० ५-२२६ | बादालहरिदलो पचसं० १-२४२ बादालं तु पसत्था पंच० ५-४२६ | बादानं परणुवीसं सुखं० १८ तिलो० प० ६-७५ गो० क० ७५५ गो० क० ७०७ | बादालं बेरिण सया बादालं सोलसकदिवादालीस - सहस्सा बादालीस - सहस्सा बादालीसं चंदा गो० क० ७४६ बायरजसकित्ती व य बायरजसकिती विय जंबू० प०८-१७२ तिलो० प० ४-१८१ विलो० प० ७-४२३ | बायरपज्जत्तेसु वि तिलो० प० २ - २२७ बायरमरणवचजोगे गो० जी० ४६६ | बायरसुहुमेक्कयरं गो० क० २३५ बायरसुहुमेगिंदियगो० जी० २३२ | बायालतेरसुत्तर कत्ति० व १० श्रणु० १४० लद्धिसा० ३१२ दिसा० ४०६ गो० जी० २५८ गो० जी० ६०२ लदिसा० ६२४ भ० आरा० ५७७ कत्ति० श्र० १४६ लदिसा० २६२ गो० जी० ४६५ गो० जी० ४६६ पंचत्थि० ७६ गो० जी० १७६ गो० जी० १८२ गो० जी० ७२ गो० जी० ०१८ पंचस० ५-७० तिलो० सा० २७ तिलो० प०८-२३ तिलो० प०८-२४ जबू० प० ११-६६ अंगप० १ - २३ तिलो० सा० ७४८ तिलो० प० ४- २४६६ तिलो० प० ४- २४५५ तिलो० प० १-९८२ गो० क० १६४ गो० क० ६५० गो० क० ८५३ तिलो० सा० २० जबू० प० ६-८३ जंबू० प० १०-२७ जबू० प० १२-१०६ पंचसं० ३-४५ पचस० ३-६५ पचस० ५-२७२ बसु० सा० २३३ पंचसं० ४-२७७ पंचसं० १-३४ पचस० ५-२६१ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२३ प्राकृतपद्यानुक्रमणी बायालं पि पसत्था पचसं०४-४४६ / बारस य वेयणीए * गो० क० १३६ बारचउतिदुगमेक गो० क० ८३६ | बारस य वेयणीए * कम्मप० १३१ बारहछवीसं गो० क० ८५० | बारस य सयसहस्सा जबू० प०४-१५३ बारस अचक्खुअवहिसु सिद्धत० २६ | वारसवएहिं जुत्तो कत्ति० अणु० ३६६ वारस अट्ट य चउरो छेदर्पि० ११६ बारसवच्छरसमधिय- तिलो० ५० ४-६४२ वारस अणुवेक्खाओ बा० घणु० ८७ वारसवरिसाणेवं छेदपि०२६८ बारस अणुवेक्खाओ कत्ति० अणु० ४८८ वारसवास वियक्खे कत्ति. अणु० १६३ वारसअभहियसय तिलो० ५० ४-२०३५ वारसवाससहस्सा मूला० ११०५ बारसअंगवियाणं वोधपा० ६२ | बारसवासाणि वि संव- भ० श्रारा० ११५ वारसकप्पा केई तितो० ५०८-११५ | बारसवासा वेईदियाण- मूला० ११०८ वारसकोडाकोडी __ जंवू० ५० ११-१३ | बारसविधम्हि य तवे x मूला० ६७० वारस चक्खुदुगे णव सिद्धत० १८ | बारसविधम्हि वि तवे x मूला०४०६ बारसचदुसहियदहा जवृ०प०१-६७ वारसविहकप्पाणं तिलो० प०८-२१४ बारस चेव सहस्सा जबू० प० ११-१६ वारसविहतवजुत्ता दसणपा० ३६ वारस चोदस सोलस तिलो० सा० ४६८ वारसविहतवयरणं भाधपा० ७८ वारसछच्चदुतिरह छेदपि०१७ | बारसविहम्दि य तवे x भ० श्रारा० १०७ वारसजुददुसएहिं तिलो. प०४-२६२२ | वारसविहेण तवसा कत्ति० अ० १०२ वारसजुददुसएहिं तिलो० प०४-२८३६ बारसवेदिसमग्गं __ जंबू० ५० ५-४५ बारसजुदसत्तसया तिलो० ५० ७-१४७ बारससयतेसीदी गो० क० ४८७ बारसजोयणलक्खा तिलो० ५०२-१४३ | बारससयपणुवीसं तिलो०प०४-२५८ बारसजोयणलक्खा तिलो० ५० २-१४४ । बारससयाणि पराणा- तिलो० ५० ४-१२६५. बारसजोयण सखो कत्ति० अनु० १६७ बारस सरासणाणि तिलो. प० २-२६० बारस णव छत्तिरिण य कसायपा० १६३(११०) बारस सरासणाणिं तिलो०प०२-२३६ वारसदितिभागा तिलो. प०८-५४४ बारस सरासणाणिं तिलो० प०२-२३७ वारसदिणेसु जलपह- तिलो. प० ३-११२ वारससहस्सजोयण- तिलो०प०५-२२६ बारसदेवसहस्सा तिलो० ५० ५-२१७ बारससहस्सजोयण तिलो. प. ६-८ वारसपएणट्ठाई पंचस०५-३०८ बारससहस्सजोयण- तिलो०५०८-४३३ बारसभगे वि गुणे पंचसं० ५-३५४ बारससहस्सणवसय- तिलो०प०८-४८ बारसभेो भणियो कत्ति० अणु० ४३६ बारससहस्सपावसय- तिलो० प०८-७८ बारसमम्मि य तिरिया तिलो०प०४-८६१ बारससहरसपणसय- तिलो०प०४-२५६६ बारममुहुत्तयाणिं तिलो० प०३-११५ | बारससहस्सवेसय- तिलो० ५० ६-२३ बारसमुहुत्तयाणिं तिलो०प०७-२८३ बारससहस्समेत्ता तिलो०१०४-२२७२ बारसमुहुत्तयाणिं तिलो०प०७-२८५ बारसहदगिलक्खं तिलो. प०४-५६४ वारसमुहुत्तयाणिं तिलो०प०७-२८७ वारसग जिणक्खादं मूला०५११ बारसमुहुत्त सायं पचसं० ४-४०५ बारहअगंगीजा(गगिविज्जा) वसु० सा० ३६१ बारस य दोणमेहा जबू० प०७-५८ बारहजोयण गंतुं जंबू०प०७-११७ वारस य बारसीओ वसु० सा० ३७० बारहजोयण णेया जबू०प०७-४० बारस य वेदणीए * 'मूला० १२३६ | बारहजोयणदीहा जंवू०प०५-४६ वारस य वेयणीए * पचस० ४-४०३ | वारह-जोयण-दीहा जबू०प०८-२६ बारस य वेयणीए भावसं० ३४३ | वारह-जोयण-मज्झे छेदर्पि०१४४ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ पुरातन-जैनवाक्य-सूची - वारह-जोयण-मूले जंबू० प० ४-१३१ वावरण छत्तीसं सुदखं० २६ वारह-जोयण-वित्थड- तिलो० सा० १००१ वावरणं छत्तीसं श्रगप०२-19 बारह-बरचक्कधरा जवू० ५०२-१७८ वावरणा कोडीओ जवू०प०४-२३६ वारहविहतवयरणे श्रारा० सा०७ | वावण्णा तिरिण सया तिलो० प०७-५६५ बारहसहस्सतुंगो जंबू० ५० १०-४१ वावत्तरि अप्पदग गो० क० ५७५ वारहसहस्सरच्छा जबू० प० ८-१२ वावत्तरि तिसयाणिं तिलो० प०७-३६८ वारहसहस्सरच्छा जंबू० प०८-११७ बावत्तरितिसहस्सा गो० क० ६०० वारहसहस्सरच्छेहिं जंबु०प०६-१६० चावत्तरि पयडीओ वसु० सा० ५३५ बारुत्तरसयकोडी गो० जी० ३४६ वावत्तरि पयडीओ पचस०५-४६५ बारेक्कारमणंतं लद्विसा० ५०२ वावत्तरि वादालं तिलो० सा० ३३० वालगुरुवुड्ढसेहे श्रा० भ० ३ वावत्तरि सहस्सा जबू०प०१०-३६ वालग्गकोडिमत्तं सुत्तपा० १७ वावत्तरी दुचरिमे पचस०३-५३ बालग्गिवग्घमहिसगय- म० श्रारा० २०१८ वावीसजुदसहस्सा तिलो० प०८-१६६ बालत्तणसूरत्तण छेदपिं० ३५३ |वावीस जोयणसया जबू०प०७-२० वालत्तणं पि गुरुगं तिलो० ५० ४-६२५ वावीस जोयणसया जंबू०प०८-१७६ वालत्तणे कदं सव्व- म० श्रारा० १०२५ वावीस तिसयजोयण- तिलो० ५०-६० वालत्तणे वि जीवो वसु० सा० १८४ वावीसपएणरसगे कसायपा०३१ बालमरणाणि बहुसो मूला० ७३ | बावीसबध चदुतिदु गो० क० ६८६ बालमरणाणि साहू भ० श्रारा० १६६ वावीसमेक्कवीसं गो० क० ४६३ वालरवीसमतेया तिलो० ५०४-३३६ | वावीसमेक्कवीसं गो० क०४६४ वाला कढिणा णिद्धा- आय. ति० १-३८ वावीसमेक्कवीसं भावपा० १४२ बालादिएहिं जइया भ० श्रारा० २०२२ वावीसमेक्कवीसं पंचसं०४-२४३ बालादिधादि(द)पायच्छित्तं छेदपिं० ३५ वावीसमेक्कवीसं पचस०५-२३ वालिच्छी(त्थी)गोघादे छेदपिं० २५ | बावीसयादिवधे गोक०६६१ वालुगपुप्फगणामा तिलो० ५०८-४३७ वावीससतसहस्सा कत्ति० अणु० १६२ बाले वुड्ढे सीहे भ० श्रारा० १९७५ वावीस सत्त तिरिण य* मूला० २२१ बालो अमेझलित्तो भ० श्रारा० १०६६ बावीस सत्त तिषिण य* गो० जी० ११३ बालो पि पियरचत्तो कत्ति० श्रणु० ४६ वावीससदा ऐया जवू० ५० १३-१५१ वालो यं वुडढो यं वसु० सा० ३२४ बावीससया ओही . तिलो. प०४-११४६ वालो वा वुड्ढो वा पवयणसा०३-३० वावीससहस्साई जंवृ० १०६-१७० बालो विहिंसणिज्जाणि म. प्रारा० १०२२ वावीससहरसाणिं तिलो.प. ७-५८४ वावडिं च सहस्सा जंबू० ५० ४-१२४ वावीससहस्साणिं तिलो०प०४-२००० बावरणउवहिउवमा तिलो. प० २-२११ वावीससहस्साणिं तिलो. प०४-२००८ वावरण देसविरदे पचस०५-३४५ तिलो० सा० ३८५ वावरणसमभिरेया जंबू०प० ३-४ बावीस होंति गेहा बावरणसया णेया जंबू० ५० १-६२ बावीसं च सहस्सा वावरणसया तीसा जबू० प०३-१० वावीसं च सहस्सा बावरणसया पणसीदि- तिलो. प० ७-४८२ | वावीसं च सहस्सा वावराणसया बाणउदि- तिलो० ५०७-४८५ | बावीस तित्थयरा बावरणं चेव सया पंचसं० ५-३७४ । वावीसं दस य चऊ जबू० ५० ४-१९६ जवू० प० ४-४२ जबू० प०७-१४ तिलो० सा० ६० मूजा० ५३३ गो० क० ६५५ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ and बावीसं परतारन बावीस लक्तर मो०-३३६ सादरकर यावीमा पूर पंच -११: हर हर २-३१ साहेनन् रि यावीसादिनु पंन्न --१ तो.. :बावीसा सतनया जो २०२-३६ वावीसुत्तरद्वन्मययावीमे अहवीले यावीसेण रिद्धे चासहि-जुनागिन नितो. १०-१ यासहि-जोयर राई २०४वासहि-जोयगाई विनी. ५०१-१६ बाहिर-तिरेर वामहि-जोक्रा दिली. ९० बाहिरहा -२२५ वासहि-जोयणालि तिलो प०५-६ बाहिरहदुशदिन यासहि-जोरणालि विनो००२-८३ बाहिरहद पते रिलो -२६ वामट्टि-जोयरापि विनः २०४-०५, बाहिरणहादसतियो चिसो ०४-११३ वामट्टि मुहुत्ताचि तिलो० ५०-८३ बाहिरसहादुरस्तिो हो.. T-११ याटि-वास केवलि रंटी० पट्टा० ३ बाहिरपाईि जहा ०१-१२ बामहि वेयीये पंचम० -५३ । बाहिरपाणेहि बहा * गोली १२८ चासहिसहरमा रणवतिलो० ५००-20 बाहिरनागाहिता । तिलो ए०८-१६॥ वासही कोदंबा निलो ५०२-१६ बाहिरमो रविणे तिलो ९०-२६ वासट्ठी वामाणि तिलो. प०४-१०६ । बाहिरममा भतर तिलो ५०३-६० वासट्टी सेढिगया तिलो ५०८-५ बाहिरमभन्मतर तिलो ९०८-१६ वासट्टी सेढिगया तिलो० मा० ४७३ । बाहिरराजीहितो तिलो प०८-६१ चामीदिसहत्साणि निला. ५०७-३०३ : । बाहिरलिंगेण जुदो मोरूपा० ६१ चामीदिसहस्साणि तिलो० ५००-१०५ सावा." बाहिरसयणतावरणयासीदिं दो उवरि पंचमं० ५-५३६ बाहिरसंगचामो भावपा०८० चासीदि लक्खागि तिलो० प० २-३ बाहिरसंगविमुको मोररूपा० वासीदि वजित्ता पंचसं०५-२२० बाहिरसगा खेत्तं भ० रा. ११६४ वासीटिं वजिता गो क० ६२४ तिलो० सा० ३१६ बाहिरसूईवगं गो० क० ७७३ चासीदे इगिचपण वाहिरसूईनम्गो तिलो. १०७-२३२४ बासूपवासूअवरद्वितीयो गो० का १४८ तिलो० प०५-३६ बाहिरसूईवग्गो वतु० सा० २६३ वाहचरिकलसहिया तिलो. सा० २१ वाहत्तरि छच्च सया बाहिरसुईवलयं जंबू० ५० ४-१६५ जबू० ५० १०-८८ वाहत्तरि-जुद-दु-सहस्सा । बाहिरसूचीवग्गे तिलो० ५० ५-१६ तिलो०५०४-२८२ वाहतरि-पयडीओ बाहिरहेदू कहिदो लद्धिसा० ६४४ बाहरि वादालं तिलरे०प०५-१ भ० सारा०६६८ | चाहिं असद्दवडियं हिमा० भ०२७ वाहत्तरि बादालं तिलो० ५० ५-२८२ | बाहुबलिं तह वंदमि ___ गो० क० ३६२ वाहत्तरि-लक्खाणि तिलो० ५० ३-५३ | बिगुणणव चारि अटुं तिलो. सा० ४२२ तिलो० ५० ७-४०३ बिगुरगणवपव्वतीदे वाहत्तरि सहस्सा तिलो० ५० ७-३०१ विगुणियछच्चसट्ठीवाहत्तरी सहस्सा तिलो० प० २-२३ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ पुरातन जैनवाक्य-सूची विगुणियतिमाससमधिय- तिलो० ५० ४-६४६ / विदियपणुवीसठाणं ।। पंचस०५-७१ विगुणियबीससहस्सा तिलो. ५० ४-११७४ विदियपहट्टिदसूरे तिलो०प०७-२८२ बिगुणियसद्विसहस्सं तिलो. प०८-२२० । विदियपीढाण उदो तिलो. प० ४-७६७ बिगुणियसहिसहस्सा तिलो० ५०८-२४५ विदियम्मि कालसमये जबू०प०२-१६ बिगुणे सगिट्टइसुपे तिलो० सा० ४२७ विदियम्मि फलिहभित्ती तिलो० ५० ५-१६ विरिण वि असुहे उमाणे कत्ति० अणु० ४७५ विदियस्स माणचरिमे लद्धिसा. ५५३ बिरिण वि जेण सहतु मुणि परम० प० २-३७ / विदियस्स वि पणठाणे गो० क० ३८० बिरिण वि दोस हवंति तसु परस० ५० २-४४ विदियस्स वीसजुत्तं तिलो० ५० ४-२०३४ बिगिण सयइँ असिआउसा सावय० दो० २१६ विदियं अट्ठावीसंx पचस०४-३०१ बितिएइंदियजीवे पचसं० ४-२४ विदियं अट्ठावीसंx पचस०५-१४ बितिचउपंचेंदियभेयदो वसु० सा० १४ विदियं चदुमणुसोरा- पचस०४-३८३ बितिचउरिदियसुहुमं पचस० ४-३६६ विदियं विदिय खडे गो० क. ६५७ बितिचउरिदियसुहुमं पंचस० ४-४६८ / विदियं व तदियकरणं __लद्धिसा० ३ बितिचपपुण्णजहराणं * तिलो० ५० ५-३१७ / विदिय व तदियभूमी तिलो०प० ४-२१६६ बितिचपपुएणजहएणं * गो० जी० ६६ / विदियाए पुढवीए मूला० १०५६ बितिचपमाणमसंखे- गो. जी. १७७ / विदियाओ वेदीओ तिलो. प०४-७६७ बिदिए मिच्छपाणा सिद्धत०६६ विदियादिसु इच्छंतो तिलो. प० २-१०७ बिदिओ दु जो पमाणो जंबू० ५० १३-५३ | विदियादिसु चउठाणा लद्धिसा० ५११ बिदिश्रो हु जो पमाणो जंबू० ५० १३-७७ विदियादिसु छसु पुढविसु । गो० क० २६३ बिदियकरणस्स पढमे लद्धिसा० १६१ विदियादिसु छसु पुढविसु भावति० ५१ बिदियकरणादिमादो लद्धिसा० ६२ विदियादिसु समयेसु अ लद्विसा० ५६७ चिदियकरणादिमादो लद्धिसा० १५२ बिदियादिसु समयेसु वि लद्धिसा० ४७४ बिदियकरणादिसमया लद्धिसा० ५२ विदियादिसु समयेसु हि लहिसा० २६५ बिदियकरणादिसमये लद्धिसा० २१६ | विदियादीकच्छाणं जंवू०प० ४-२४४ बिदियकरणादु जाव य लद्धिसा० १०५ | विदियादीणं दुगुणा तिलो. प० ६-७२ विदियकसाएहिं विणा पचस० ४-३३५ विदियादो पुण पढमा कसायपा० १७० (११७) बिदियकसाएहिं विणा पचस० ४-३४० (क) | विदियादो पुण पढमा कसायपा० १७१ (११८) बिदियकसायचउकं + पचसं० ३-१६ | विदियावरणे णव बंध गोक० ६३१ बिदियकसायचउक् + पचसं० ४-३११ | बिदियावलिस्स पढमे लखिसा० १३१ बिदियगमायाचरिमे लद्धिसा० ५५६ बिदियुवसमसम्मत्तं गो० जी० ६६५ बिदियगुणे अणथीणति- गो० क०६६ बिदियुवसमसम्मत्त गो० जी० ७२६ बिदियगुणे णिरयगदि श्रास. ति० २७ बिदिये तुरिये पणगे गो० क० ३७१ बिदियगुणे णिरयगदी भावति०८८ विदिये पढम कुंड तिलो. सा० ३१ बिदियट्ठिदिस्स दव्यं लद्धिसा० २१० विदिये वारे पुण्णं तिलो० सा० ३२ बिदियट्ठिदिस्स दव्वं लद्धिसा० २१३ बिदिये बिगिपणगयदे गो० क० ४६६ बिदियतिभागो किट्टी लद्धिसा० ४८८ बिदिये विदियणिसेगे गो० क० १६२ बिदियद्धापरिसेसे लद्धिसा० २६१ बियतियचउक्कमासे बिदियद्धासंखन्ना लद्धिसा० २८८ बिहि तिहिं चरहिं पंचहि * पचस० १-६६ बिदियद्धे लोभावर लद्धिसा० २८० | बिहि तिहिं चदहिं पंचहिं** गो० जी० १६७ बिदियपणवीसठाणं पचस० ४-२७८ | बिबाण समुद्दिट्टा जंवृ० ५० १२-७५ मूला० २६ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी २२७ चीनआए ससिविवं रिस० ६५ वे-कोसा बासठ्ठी जंबू०प०६-२२ चीइंदियपबत्तजहरण- गो० क. २५१ | वे कोसा वासट्ठी जबू० प०८-१८१ वीएण विणा सस्सं भ० श्रारा० ७५० | वे-कोसा विक्खभा जबू०प०८-१२ चीएसु णस्थि जीवो दसणसा० २६ चे-कोसा, वित्थिरणो तिलो०प०४-२५२ चीएसु वं पियग्धं आय. ति०१७-६ वे-कोसुच्छेहादि तिलो०प०५-१६६ चीनी भावो गेहे भावस०५७६ । बे-फोसेहि यपाचिय तिलो० ५०४-१७१२ चीजे जोणीभूदे गो० जी० १८६ बे-कोसेहिं यपाविय तिलो०प०५-१७४६ वीभच्छं विच्छुइयं मूला० ८४६ गाउअ-अवगाह नवू० ५० १०-४५ चीभत्थभीमदरसण- भ० पारा० २०४५ चे-गाउद-उबिद्धा जबू०प०१-५२ चीयम्ह (वियडमिह) सरिस गंठी तिलो०प०७-१८ वे-गाउद-उव्विद्धा जबू०प०२-७६ बीहेदव्वं णिच्चं मुला० ६६२ वे-गाउद-उन्विद्धर जंबू०प०४-१२६ वोहेदव्वं णिच्चं मूला० ६६० बे-गाउय-अवगाहो जंवू० ए०६-१५ बुन्मइ सत्थ वउ चरइ परम०५० २-८२, वे-गाउय-उत्तंगा जबू०प० 8-१७६ बुज्झदि सासएमेयं पवयणसा० ३-७५ वेगाउय-उचिद्धा जबू० प०७-१६ बुज्झहवा जिणवयणं णयच०८ वे-गाउय उम्विद्धा जबू० प०५-२४ बुज्महु वुज्झहु जिणु भणइ पाहु० दरे० ४० बे-गाउय-वित्थिरणा जव० ५०२-७५ बुझतह परमत्थु जिय परम० प० २-६४ | वेगाऊ-विस्थिण्णा तिलो०प०४-१७१ बुडतएसु णावा छेदपिं० ८६ वे-चउ-चउ-दु-सहस्सा बंबू० ५०३-२३४ चुढति(डइ)पलालहरं ढाढसी०१ वे-चदु-बारह-संखा जबू० प०१२-१४ बुद्ध ज वोहंवो योधपा०८ वे-चंदा इह दीवे जंवू०प० १२-१०१ बुद्धिपरोक्खपमाणो जंबू० ५० १३-५४१ वे-चदा वे-सूरा जबू०प० १२-१०६ बुद्धिल्ल गगदेवो ___ जंबू० ५० १-१५ वे चेव सदा णेया जवू० प०३-२१ बुद्धिविकिरियकिरिया तिलो०प० ४-६६६ / वे छडिवि वे-गुण-सहिउ जोगसा० ७७ वुद्धी तवो चि लद्धी वसु० सा० ५१२ वे छंडेविण पंथडा पाहु० दो० १८८ बुद्धी ववसाओ विय समय० २७१ वे-जोयण अवगाढा जचू०प०१०--88 बुद्धी वियस्खणाणं तिलो० प० ४-६७८ वे-जोयण-उच्चाणि य जबू०प०५-४० बुद्धी सुहाणुबंधी पंचसं० १-१६३ वे-जोयण उप्पइओ जवू० प०६-१५५ बुहजणमणोहिराम धम्मर०२ वे-जोयण लक्खाणि तिलो० ५०२-१५४ बुह-सुक्क-बिहप्पइणो तिलो० ५० ७-१५ बेरिण जुगा दसवरिसा तिलो०५० ४-२६१ बूईफलतिदुयामल- वसु० सा० ४४१ वे ते चउ पच वि णवह जोगसा० ७६ बे-अट्ठरस-सहस्सा सिलो० प० ४-१११६ वे-दंड सहस्सेहि य जंबू० ५० १३-३४ बे-इंदियरस एवं पंचस०५-१३३ / बे-धणु-सहस्स-तुंगा जबू० ५० १०-८१ बे-इंदियादिभासा __ मूला० ११२७ बे-धगु-सहस्स-तुगो जबु०प०३-१५८ वे-कोस-समहिरेया जबू० प०७-२२ चे-पंचहें हियउ मुणहि जोगसा०८० बे-कोस-समहिरेया जंबू० प० -१५६ वे-पंथेहि ण गम्मइ पाहु. दो० २६३ वे-कोस-समहिरेया जबू०प०१०-१४ | वे भंजेविणु एक्कु किउ पाहु० दो० १७४ वे-कोसा उबिद्धा तिलो० १०४-८८ बेयादि बिउत्तरिया तिलो० सा० ५५ वे-कोसाणिं तुंगो(गा) तिलो० ५० ४-१९२५ वे-रिक्कू(किक्खू हि दडो तिलो० ५० ५-११५ वे-कोसा वासट्ठी जबू०प०३-१६३ वेख्वतदियपचम- तिलो० सा० २४ वे-कोसा बासट्ठी जंवू० ५०३-१७६ । वेरूवताडिदाई तिलो०प०४-११२८ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ पुरातन-जैनवाक्य-सूची भ वेरूववगधारा तिलो० सा० ६६ / भत्तपइण्णा-इगिणि गो० ० ५६ बेख्वविंदधारा तिलो० सा० ७७ / भत्तपइएणा-इंगिणि मूला० ३४६ बे-लक्खा परणारस- तिलो. ५० ४-२०१८ भत्त खेत्त काल म०पारा० २२५ वे सत्त दस य चोइस मूला० १११६ / भत्त देवी चंदप्पह गो० जी० २२२ वे सत्त दस य चोदस* जंबू०प० ११-३५३ / भत्तं राया सम्मदि अंगप०२- बे-सद-छप्पएणंगुल- गो० जी० ५४० / भत्तादीणं भत्ती भ. श्रारा०६६ बे-सद-छप्पएणंगुल- तिलो. सा० ३०२ | भत्ति-च्छि-राय-चोरकहाप्रो बा० अणु० ५३ वे-सद-छप्परणाई तिलो० प० ४-१६०२ भत्ति-स्थि-(च्छि)राय-जणवद- भ० श्रारा० ६५१ वे-सय-छप्पण्णाणि य पचसं०५-३३५ भत्तीए पासत्तमणा जिणिंद- तिलो०५०४-१३६ बे-सागरोवमाई जंवू० ५० १७-२५२ भत्तीए जिणवराण मूला० ५६६ वे-सायरोवमाई जवृ० ५० १५-२०० भत्तीए पिच्छमाणस्स वसु० सा० ४६६ वे-हत्थेहि य किंक्खू(रिक्कू) जवृ० ५० १३-३३ भत्तीए पुज्जमाणो कत्ति० अगु० ३२० वोधीय जीवव्यामूला० ७६२ भत्तीए मए कधिदं मूला० मा वोह-णिमित्ते सत्थु किल परम०प० २-८४ भत्ती तवोधिम्हि य भ० अारा० ५१७(२) बाहिविवजिउ जीव तुहुँ , पाहु० दो० २५ / भत्ती तवोधिम्हि य* मूला० ३७१ भत्ती तुट्ठी य खमा भावस. ४६६ भत्ती यूया वरजणणं भ. श्रारा०४७ भत्तेण व पाणेण व भ० श्रारा०५६३ भउमजुओ दियहेहिं श्रायः ति० ४-२३ । भत्ते पाणे गामंतरे मूला० ६६० भगवं अणुग्गहो मे - भ० श्रारा० ३७७ भत्ते पाणे गामंतरे मूला० ६६३ भच्छ(त्थ)हणाण कालो तिलो० ५० ४-१५०६ भत्ते वा खमणे वा पवयणसा० ३-१५ भजिदम्मि सेढिवग्गे तिलो० प० ७-११ | भत्ते वा पीणे वा भ० धारा० ३६५ भजिदूणं जं लद्धं तिलो०प०७-५६३ | भत्तो अरित्तहत्थो श्रायः ति०२३-१२ भजिदूणं जं लद्धं तिलो० प० ७-५७७ / भदस्स लक्खणं पुण भावस० ३६५ भज्जस्सद्धच्छेदा तिलो० सा० १०६ भई मिच्छदसण सम्मइ०३-६६ भज्जा भगिणी मादा भ० श्रारा० १३३ तिलो. १०-१२ भणइ अणिच्चा सुद्धा+ णयच० ३२ ममइ जगे जसकित्ती वसु० सा० ३४४ भरण + दन्वस० णय० २०४ भमइ णग्गउ भमइ गग्गउ- भावस० २५४ गइ परम०प०२-४८ भमिदे मणवावारे गाणसा०४६ पवयणसा० २-१० भयणीए विधम्मिजंतीए म० श्रारा० २०१ भणिदो य अधोलोगो जबू० ५० ११-१०६ भयजुत्ताण णराणं तिलो० ५० ४-४६१ भणियं देवयकहिअं रिट्ठस. १८५ भयरणा वि हु भइयव्वा सम्मइ० ३-२७ भणियं सुयं वियक्कं भावसं० ६४५ भयदुगरहियं पढमं गो० क० ७६४ भणिया जीवाजीवा दवस० णय० १५० भयमरइदुगुंछा वि य पसं० ४-३६३ भणिया जे विव्भावा दव्वस० गय० ७७ भयमागच्छसु संसारादो म. पारा० १४४२ भएणइ खीणावरणे सम्मइ०२-६ भयरहिया णिंदूणा पचस० ५-३७ भएणइ जह चउणाणी सम्मइ०२-१५ भयलज्जाल कत्ति० अणु० ४१७ भएणइ विसमपरिणयं सम्मइ०३-२२ भयवसणमलविवज्जिय रयणसा०५ भएणइ संबंधवसा सम्मइ०३-२० भयसहियं च जुगुच्छा गोक०४७७ भत्तपइएणाइविही गो० क० ६० | भयसोगमरदिरदिगं सायपा० १३२ (७६) भरणा द Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी २२६ भरह इरावद पण पण भरह-इरावद-वस्सा भरह-इरावद-सरिदा भरहखिदीए गणिदं भरहखिदीबहुमज्झे भरहदु वसहदुकाले भरहद्धखंडणाहा भरहम्मि अद्धमासं भरहम्मि होदि एक्को भरहवरविदेहेरावदभरहवसुधरपहुदि भरहवसुधरपहुदि भरहस्स इसुपमाणो भरहस्स चावपटुं भरहस्स जहा दिट्ठा भरहस्स दु विक्खंभो भरहस्स मूलरुंद भरहस्स य विक्खभो भरहस्सते जीवा भरहादिसु कूडेस भरहादिसु विजयाणं भरहादी णिसहंता भरहादीविजयाणं भरहावणिरंदादो भरहावणीए वाणो भरहे कूडे भरहो भरहे केत्तम्मि इमे भरहे खेत्ते जाद भरहे छलक्खपुवा भरहे तित्थयराणं भरहे दुस्समकाले भरहे पणकदिमचल भरहेरावदभूगदभरहेरावदमणुया भरहेरादवमज्झे भरहे रेवद एको भरहेसु रेवदेसु य भरहो सगरो मघवो भरहो सगरो मघवो भरिऊण तंडुलाणं तिलो० सा० ८८३ / भरिए सुहसामिजुये आय. ति० १७-२ तिलो० सा० ६२६ | भरिएसु होति भरिया श्रायः ति०१०-११ तिलो. सा. ७४७ भरियम्मि जाण सामं श्राय. ति०८-५ तिलो० ५० ४-२६१८ भरियस्स उवरि भरियं श्राय० ति० ३-४ तिलो० ५०४-१०७ | भरियं रित्तं सरियं श्राय० ति० ३-५ तिलो० सा० ८१६ भरियं रित्तं सरियं श्राय० ति० ३-७ जबू०५०२-१८० भरिये सुहगहजुत्ते श्राय० ति०६-५ गो० जी० ४०५ / भल्लक्किए तिरत्तं भ० श्रारा० १५३६ तिलो०५० ४-१०२ / भल्लाण विणासंति गुण पाहु० दो० १४८ तिलो० सा० ६३४ । भल्लाह वि णासंति गुणः परम०प० २-११० तिलो० प० ४-२७१३ भवगुणपच्चयविहियं अगप० २-६६ तिलो०५०४-२६२१ भवणखिदिप्पणिधीस तिलो० ५० ४-८४२ तिलो० ५० ४-१७७४ भवतिकप्पित्थीणं श्रास० ति० ३३ तिलो. प०४-१६२ भवणतियाणमधोधो गो० जी० ४२८ जंबू०प० २-१०७ / भवतियाणं एवं गो० क० ५४३ यबू०ए०२-१८ भवतिसोहम्मदुगे ___ भावति०७२ तिलो० ५०४-२८०३ भवणवइवाणवितर- जंबू. ५०४-२७० तिलो० सा०६०४ भवणवइवाणतिर- जं० १०५-११० तिलो० सा० ७७१ भवणवइवाणवितर- जबू० ५० १०-८५ तिलो०प०४-१६४ | भवणवइवाणवितर- जबू० ५० ११-१६० तिलो० ५०४-२८०१ भवणवितरजोइस तिलो० सा०२ तिलो० प०४-२३७६ भवणसुराणं अवरे तिलो०१०३-१८४ तिलो० ५० ४-२५६६ भवणं भवणपुराणि य तिलो० सा० २६७ तिलो० प०४-१९७५ भवणं वेदी कूडा तिलो० ५० ३-४ तिलो० ५० ४-१७३६ भवणाणं विदिसासु तिलो. प० ४-२१८४ तिलो. प० ४-१६७ भवणाणि जिणिं दाणं जंवू० प०६-६० तिलो० ५० ४-३१२ भवणाणि ताणि होति हु जबू० ५० ३-११८ तिलो०प०४-१८२५ । जबू० प०३-१२१ तिलो० प०४-१३६६ | भवणाणि विणायव्वाजबू०प०३-१२३ दसणसा०२ भवणा भवणपुराणि तिलो०प०३-२२ मोक्खपा० ७६ भवणा भवणपुराणि तिलो० प०६-६ तिलो. सा० ५८६ भवणावासादी तिलो. सा० ३०१ तिलो० ५०८-३६६ भवणुच्छेहपमाण तिलो० ५०८-४५५ मूला० १२१४ भवणेसु अवरपुवे जंबू० प०५-१४ जंब० प० २-३२ भवणेसु तेसु णेया जबू०प०३-१२४ जंबू०प०३-१६५ | भवणेसु सत्तकोडी । तिलो. सा. २०८ तिलो० सा० ७७६ भवणेसु समुप्पण्णा तिलो० ५०३-२३६ तिलो० ५०४-५१४ भवणोवरि कूडम्मि य तिलो० ५० ४-२२६ तिलो० प०४-१२७६ भव-तणु-भोय-विरत्त-मणु परम० ५० १-३२ रिट्ठस० ६१ / भवपच्चइगो ओही गो० जी०३७२ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची २३० - मूला० १६५ भवपच्चइगो सुरणिरयाणं गो० जी० ३७० भाणु-ससि-जदु-पसिद्धा जंवू० प०८-11 तिलो० ५०४-६२४ भवसयदसणहेर्दू तिलो० ५० ५-३५० भायणअंगा कंचणभवसायरे अणंते भावपा० २० | भायणदुमा वि णेया जंबू० प०२-१३० भविश्रो सम्मदसणसम्म०३-४४ | भारक्कंतो पुरिसो म. पारा० ११७८ भवि भवि दसणु मलरहिउ पाहु० दो० २१० भारं णरो वहतो। भ.प्रारा० १७१३ भवियति भवियकाले गो० क० ६२ | भावइ अणुव्वयाई भावसं०४८८ भविया ज अल्लीणा छेदस०६४ | भावचउक्कं चत्तं रायच०१ भवियाण बोहणत्थ धम्मर० १६३ भावणणिवासखेत्तं तिलो० ५०३-२ भविया सिद्धी जेसिक पंचस० १-१५६ भावणलोयस्साऊ तिलो० ५०३-६ भविया सिद्धी जेसिं* गो० जी०५५६ | भावणवितरजोइस अंगप०३-३२ भव्वकुमुदेक्कचंदं तिलो० ५० ५-१ भावणविंतरजोइसिय तिलो० ५० १-६३ भन्वगुणादो भव्या दव्वस० गाय० ६२ भावणवेंतरजोइस तिलो० ५० ५-३०७ भव्वजणवोहणत्थं चारित्तपा० ३७ | भावणवेंतरजोइस- तिलो०५०५-७८ भव्वजणमोक्खजणणं तिलो० ५० ३-१ भावणवेंतरजोइसिय तिलो०प०1-1 भव्यजणमोक्खजणणं तिलो० ५०-७० | भावणसुरफरणाओ। तिलो० ५० ५-१५ भव्वजणाणंदयरं तिलो० प० १-८७ | भावरहिएण स-उरिस भावपा.. भव्वत्तणस्त जाग्गा गो० जी०५५७ भावरहियो ग सिज्मर भावपा." भव्वाण जेण एसा तिलो० ५० १-५४ भावपा०४३ भावविमुत्तो मुत्तो भव्बामव्वह जो चरणुपरम०प०T.K.M.२-७४(१)/ भावविरदो दु विरदो भव्वामव्वा एव हि तिलो. प०३-१६१ भावपा०३ | भावविसुद्धिणिमित्तं भव्वाभव्या छस्मम्मत्ता तिलो० ५० ४-४१७ भावसमणा हु समणा भावपा. भव्वा समत्ता वि य गो० जी० ७२५ । भावसमणो य धीरो विदराणपणदर गो० क.८५६ भावसमणो वि पावर भावपा.१२५ भविदरुवसमवेदग__ गो० क० ३२८ भावपा.. भावसहिदो य मुरिणणो सावय० दो० १६१ भव्वुच्छाहणि पावहरि तिलो. प०-७६ भावसुदं पज्जाए भव्वे सव्वमभव्वे गो० क० ५५० पचत्यि० ११ भावस्स पत्थि रणासो भव्वे सव्वमभवे गो० क० ७३२ | भावह अणुन्बयाई भावपा० ११ भन्यो पदिश्रो सरणी पसं० १-१५८ भावहि अणुवेक्खाओ भंगम्मि वरिसफालिय- छेदपिं० १३१ / भावहि पढमं तचं भंगविहीणो य भवो पवयणसा० १-१७ भावहि(ह) पंचपयारं भगा एक्केक्का पुण गोक.३८० भावा खइयो उवसम भंजसु इंदियसेणं भावपा० ८८ भावा जीवादीया *ते सम्म गाणं म. श्रारा० १४८१ भावाणं सहहणं गो०जी० ४८२ भभा-मिदंग-मद्दल जय० प०२-६५ भावाण सामएणविसेसभंभा-मु(मि)यंग-मद्दल- तिलो. १०३-२५ | भावाणुरागपेमा भंभा-मु(मि)यंग-मद्दल- तिलो० ५० ४-१६३६ भावा णेयसहावा भाउ विसुद्धउ अप्पणउ परम० ५०२-६८ भावादो छल्लेस्सा भागभजिदम्मि लद्धं तिलो. प०४-१०५ | भावाभावहि संजुवउ परम० ५० भागमसंखेन्जदिम मूला० १०६६ भागी वच्छलपहावणा वसु० सा० ३८७ । भावुग्गमो य दुविहो मूला० १००२ भावस० ४८ भावपा०२ भावपा० ६५ भावति०२१ पचस्थि० १६ पारा० सा० भ० श्रारा० ७३७ दवस. एय० ५७ गो० जी०५५४ परम०प०१-१३ परम०प० 1-5 भावि पणविवि पंच-गुरु मूला.१३५ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणा २३१ भावुज्जोवो णाणं मूला० ५५३ | भिएणड जेहिंण जाणियउ पाहु० दो० १२८ भावेइ छेदपिडं छेदपि०३६१ / भिएणउ वत्थु जि जेम जिय परम०प०२-१८१ भावे केवलणाणं भगप० १-३५ / भिएणपयाडम्मि लोए भ० धारा० १७५६ भावेण अणुवजुत्तो मूला० ६२४ | भिएणमुहुत्तो णरतिरिया' गो० फ० १४० भावेण कुणड पावं भावसं०५ | भिएणमुहुत्तो रणरतिरिया मे फम्मप० १३८ भावेण जेण जीवो पवयणसा०२-८४ पघस०१-१७ भावेण तेण पुणरवि* भावसं०३२७ | भिएणसमट्टियेहिं दु+ गो० जी० ५२ भावेण तेण पुणरवि * कम्मप. २४ | भिएणं सरेहिं पिच्छ रिट्टस० ५७ भावेण सपजुत्तो मूला० १२५ | भिगिणंदणीलकेसं जंबू० ५०२-११२ भावेगण होइ गग्गो भावपा० ५५ | भिएिणंदणीलकेसा तिलो०५० ४-३३६ भावेण होइ णग्गो भावपा० ७३ | भिरिंणंदणीलमरगय- तिलो० प. ४-१८७० भावेण होइ लिंगी भावपा० ४८ | भिएिणंदणीलवर। तिलो० ५०-२५३ भावे दसणणाणं सुदखं० १३ भित्तीओ विविहायो तिलो० ५० ५-१८६० भावे सगविसयत्थे भ. पारा०२१४२ | भित्तूण रायदोसे प्राग० सा. ६ भावे सरायमादी दवस० गय०११३ | भिंगा भिंगणिभा तह जय० प०४-१०६ भावे सरायमादी गायच०२१ भिंगा भिंगणिहक्खा तिलो. प०१-१९६० भावेसुं तियलेस्सा तिलो. प० २-२८१ | भिंगारकलसदप्पण- जय०प०२-६२ भावेह भावसुद्धं भावपा० ६० | भिंगारकलसदप्पण- जब० प०३-१३६ भावेह भावसुद्ध चारित्तपा० ५४ | भिगारकलसदप्पण- जय० प० ४-१५ भावेति भावणरदा मूला ८०८ भिंगारकलसदापरण- अंग प०६-१३२ भावो कम्मणिमित्तो पंचस्थि०६० भिंगारकलसदप्पण- तिलो० ५० १-१२ भावो जदि कम्मको पंचयि० ५६ भिंगारकलसदप्पण- तिलो० ५० ३-४६ भावो दवणिमित्तं दन्वस० गाय०२ | भिंगारकलसदप्पण तिलो० ५०३-२२३ भावो य पढमलिग भावपा०२ भिंगारकलसदप्पण- तिलो० ५०४-११६ भावो रागादिजुदो समय० १६७ भिंगारकलसदप्पण- तिलो. प०४-१६. भावो वि दिव्वसिवसुक्ख- भावपा०७४ भिंगारफलसदप्पण तिलो. प०४-७३६ भासइ पसरणहिदो तिलो० ५० ५-११२७ भिंगारकलसदप्पण- सिलो० ५०४-१६६. भासमणवग्गणादो गो० जी० ६०० भिंगारफलसटप्पण तिलो०प०४-१८६७ भासंताण मज्झे भिंगारकलसदप्पण- तिलो. प०४-१८७८ भासंति तस्स बुद्धी तिलो. प. ४-१०१७ भिंगारकलसदप्पण- - तिलो०प०६-१३ भामं विणयव्हूिण मूला० ८५३ । भिंगारकलसदप्पण- तिलो. प०८-५८५ भामा अमञ्चमोसा मुला०५६७ | भिगारकलसदप्पण- तिलो. सा. १८६ भासाणुवित्तिछदा मूला० ५८२ | भिंगारकलसदप्पण- तिलो० ५०४-१८८३ भासामणजोआणं पसं. ४-७३ | भीएहि तस्स पूजा(या) भावस० १५८ भिउडी-तिवलिय-चयणो भ० श्रारा० १३६१ | भीदीए कंपमाणो तिलो० प० २-३१४ भिउपुहविसीहियाणं आय० ति० ५६-२८ भीदो व अभीदोवा भ० भारा० १६०६ भिक्खं चर वस रणे मूला० ८६५ | भीम महभीम भीप्पू तिलो० प० ६-४४ भिक्ख वक्कं हिययं मूला० १००४ | भीम-महभीम-रुद्दा x तिलो० ५० ४-१४६७ भिक्ख सरीरजोग्गं मूला० ६४३ | भीम-महभीम-रुद्दा x तिलो० सा० ८३४ भिक्खाचरियाए पुण मूला० ४६३ | भीम महभीम विग्यविणायक तिलो० सा० २६७ दस०३६ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ पुरातन-जैनवाक्य-सूची - Huultezzaht 111 भीमावलि जितसत्त * तिलो० ५० ४-१४३७ | भूदा(या)णुकंपवदजोग-* पचसं० ४-२०१ भीमावलि जिदसत्त * तिलो० सा० ८३६ भूदाणुकंपवदजोग-* गो० क०८०१ भीमावलि जियसत्त * तिलो०प० ४-५१६ भूदाणुकंपवदजोग-* कम्मप०१५६ भीमो य महाभीमो तिलो. सा० २६८ | भूदा य भूदकंता तिजो० १०६-५५ भीसणणरयगईए भावपा०८ | भूविंदाय सरूवो तिलो०५०६-१७ भुक्खसमा ण हु वाही भावस० ५१८ भूदीकम्मंज(म्मज)गुलि- अगप०२-१०८ मुक्खाए सतत्तो धम्मर० ३७ भूदेसु दयावरणो जोगिम०६ भुक्खाकयमरणभयं भावस० ५२३ भूधरणगिंदणामो जंब० ५०२-१६४ भुजकोडिकदिसमासो तिलो० सा० १२२ भूधरपमाणदीहा जंव० प०३-१५ मुजकोडीवेदेसु तिलो०प०१-२१७ भूपव्वदमादीया णियमसा० २२ भुजकोडीसेढिचऊ- तिलो० ५० १-२३५ भू-बादर-तेवीसं गो० क. ५६५ मुजगा भुजंगसालो + तिलो०प० ६-३८ भू-बादर-पज्जर गोक० ५२४ भुजगा भुजंगसाली + तिलो० सा० २६१ भू-भद्दसाल साणुग तिलो० सा० ६०० भुजगारप्पदराणं गो० क. १७१ | भूमझग्गोवासो तिलो० सा० २८८ भुजगारा अप्पदग गो० क० ५५४ भूमिसमरुंदलहुओ भ० भारा० ६४३ भुजगारा अप्पदरा गो० क. ५८० भूमहिलाकण्णा(णया)ई- रयणसा० ७६ भुजगारे अप्पदरे गो० क. ५८१ भूमितणुरुक्खपव्वद- जब० प० २-१६७ भुजपडिभुमिलिदद्धं तिलो० ५० १-१८१ भूमिय मुहं बिसोधिय तिलो०५० ४-२०३१ भुत्तो अयोगुलोसइ(?) रयणसा० १२२ भूमिय मुहं विसोहिय तिलो० ५० १-१०६ भुवणत्तयस्स तासो तिलो० प०४-७०४ भूमीए चेटुंतो तिलो. प०४-१०२६ तिलो०प०४-६६८ भूमीए मुहं सोहिय तिलो० ५० १-१६३ भुजंतस्स वि विविहे समय० २२० भूमीए मुहं सोहिय तिलो० ५० १-२२३ भुजंतु वि णिय-कम्मु-फलु परम० प० २-७६ भूमीए मुहं सोहिय तिलो०प०४-२४०१ भुजतु वि णिय-फम्मु-फ्लु परम०प०२-८० भूमीए समं कीला- भ० श्रारा० १५४५ भजंतो कम्मफलं तञ्चसा०५१ भूमीदो दसभागो तिलो० सा०६७ भजतो कम्मफ्लं तञ्चसा० ५२ भूमीदो पंच-सया तिलो०प०४-१७८६ भुजंतो वि सुभोया- भ० श्रारा० १३५८ भूमीय(ए)दिणं सोधिय तिलो० प०७-२८० भुजित्ता चिरकाल धम्मर० १७६ भूमी[य]समं देह धम्मर०६० भुजित्ता मणुलोए धम्मर० १८० भूमीसयणं लोचो भावसं० १४६ भुजेइ जहालाहं रयणसा० ११५ | भूयत्थेणाभिगदा + समय०१३ भुजेदि प्पियणामा तिलो. प० ५-३६ भूयत्थेणाहिगदा + भुजेइ पाणिपत्तम्मि वसु० सा० ३०३ | भूयवलिपुप्फयंता दंसणसा०४४ भू-आउ-तेउ-वाऊ गो० जी० ७३ / भूयबलि पुप्फयंतो भू-आउ-तेउ-वाऊगो० जी० ७२० । भूसण दुमा वि णेया जंब०प०२-१२० भूदं तु चुद चइदं गो० क०५६ भूसणसालं पविसिय तिलो०५०८-५७० भूदा इमे सरुवा तिलो. प०६-४६ ।। भेए लक्खणणियरे अगप०२-४१ भूदाण रक्खसाणं तिलो० सा० २६० भेए सदि संबंधंx भूदाणं तु सुरुवा तिलो० सा० २६६ भेए(दे)सदि संबंधं ४ भूदाणंदो धरणा- तिलो० सा० २१० भेदुवयारं णिच्छयभूदाणि तेत्तियाणिं तिलो० ५० ६-३३ | भेदुवयारे जइया मूना० २०३ सुदख०८६ दवस० गय० १६५ गयच०२३ दवस० गय०२३८ दव्वस० गाय०३७४ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमरपर - भेदुवयारो णियमा यच० ६८ भोयणवलेण साहू कत्ति० अणु० ३६१ भेदे छादालसयं + गो० क० ३७ / भोयणु मउणे जो करइ सावय. दो० १४३ भेदे छादालसयं+ कम्मप०१०८ भेदेण अवत्तव्या यो० क.४७५ भेयगया जा उत्चा प्रारा०सा.१६ भेरी पडहा रम्मा तिलो. प०५-१३८६ भेरी-मद्दल-घंटा- तिलो० ५० ५-७४ मइणाणं सुइणाणं माक्सं० २६ भोअण-सयरागिहे वा रिट्ठस० ६२ मइधणुहं जस्स थिरं योधपा० २३ भोगखिदिए ण होति हु तिलो० प० ४-४०६ मइसुअरणाणाई पसं०४-२१ भोगजसरतिरियाणं तिलो० ५० ४-३७४ मइसुअण्णाणाई एस०४-३६ भोगजतिरिइत्थीरण भाववि० ५६ मइसुप्रअण्णाणेसुं पघस०४-१५ भोगणिदाणेण य सामगणं भ० धारा० १२४२ मइसुप्रअण्णाणेसुं पचस०४-४७ भोगभुमा देवाउं ___ गो० क० ६४० मइसुअण्णाणेसुं पचस०४-८७ भोगमहीए सव्वे तिलो० ५० ४-३६४ मइसुअोहिदुगेसुं पंचस०४-८८ भोगरदीए पासो भ० श्रारा० १२७० मई-सुइ-अण्णाणेसुं पसं०५-४३६ भोगहें करहिं पमाणु जिय सावय० दो० ६५ | मइ-सुइ-उवहिविहंगा । भावस० २६. भोगंतरायखीणे जंबू० ५० १३-१३४ मड-सुइ-श्रोहि-मणेहि य पचसं०१-१७६ भोगं व सुरे परचउ- गरे० क०३०४ ! मड-सुइ-ओहीणाणं भावसं० ६३५ भोगा चिंतेदव्या भ० धारा० १२४१ मइ सुइ अोही मणपन्नयं कलाणा०२० भोगाणं परिसंखा भ० श्रारा० २०६२ दन्वस० गय० १७. भोगा पुरागमिच्छे तिलो. प० ४-४१६ | मइ-सुय-प्रोहिदुगाई पंचसं० ४-२२ भोगा पुराणागसम्मे गो० जी० ५३० सम्मह०२-२० भोगा-भोगवदीयो तिलो. प० ६-१२ मउडधरेसुं चरिमो तिलो० प० ४-१४७६ म० श्रारा० १६४२ मउडं कुंडलहारा तिलो. ५० ४-३५६ भोगेसु देवमाणुस्सगेसु म० श्रारा० १६८७ मउयत्तणु जिय मणि धरहि साचय. दो० १३२ भोगे सुरट्ठवीसं गोक०५६७ मउलियवयणं वियसइ रिट्ठस० २१ भोगोपभोगसुक्खं भ० श्रारा० १२४८ मक्कडयतंतुपत्ती- तिलो० ५० ४-१०४३ भो जिभिदियलुद्धय वसु० सा० ८२ मक्खि सिलिम्मे पहिलो(या) रयणसा० ६३ भोत्ता हु होइ जइया दवस० गय० १२८ | मग्ग गुरुउवएसिय सावय. दोन भोत्तु अणिच्छमाणं वसु० सा० १५६ मग्गण उवजोगा चि य गो. जी. ७०२ भोत्तूण गोयरम्गे मूला० ८२७ मगण-गुण-ठाणइ कहिया जोगसा० १० भोत्तरी सिमिसमेत्तं तिलो० ५० ४-६१५ मग्गणगुणठाणेहिं य दव्यसं० १३ भोत्तूण दिवसोक्खं जव०प०६-१७५ मग्गप्पभावण? पचस्थि० १७३ भोत्तूण मणुयभोयं जव० ५० ११-५५ मग्गप्पभावणट्ठ तिलो० ५० 8-८० भोत्तूण मणुयसोक्खं वसु० सा० ५१० मग्गसिरचोदसीए तिलो० ५० ४-५४२ भोमिदंक मझे तिलो० सा० २८४ | मग्गसिरपुरिणमाए तिलो० प०४-६४५ भोमिंदाण पइएणय- तिलो० ५० ६-७६ मगसिरबहुलदसमी- तिलो. ५० ४-६६३ भोयणदाणेण सोक्ख कत्ति० अणु० ३६२ तिलो०प०४-६६७ भोयणदाणे दिएणे कत्ति० अणु० ३६३ मग्गसिरसुद्धदसमी- तिलो०प०४-६६० भोयणदुमा वि णेया जबू० प० २-१३१ | मम्गिणि-जक्खि-सुलोया तिलो० ५०४-११७६ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ पुरातन-जैनवाक्य-सूची रा मरगुज्जोदुपयोगा-* भ० भारा० ११६१ | मज्झिमसेण मुदा गो० जी० ५२, मग्गुब्लोवुपोगा मूला० ३०२ मज्झिमउदयपमाणं तिलो०५० ४-२१४० मग्गेक्कमहत्ताणिं तिलो० ५० ७-४३६ ममिमउवरिमभागे तिलो० ५० ४-४८ मग्गो मगगफलं ति य ४ णियमसा० २ मज्झिमकसायअडउवसमे भावति० ० मगगो ममाफलं ति य ४ मूला० २०२ मन्मिमगेवज्जेसु य जंवू० ५० ११-३३५ मपर्व सणक्कुमारो तिलो. सा०८२४ मज्झिमचउजुगलाणं तिलो. सा० १५४ मघवीए णारइया तिलो० ५०२-२०० मज्झिमचउमणवयणे गो०जी० ६७८ मच्छमुहा अभिकरणा तिलो० ५०४-२०२४ मज्झिमचउमणवाणे भावति० मच्छमुहा कालमुहा तिलो. १०४-२४८ मज्झिमजगस्स उवरिम- तिलो०प०१-१५८ मच्छाण पुन्चकोडी मूला० १११० मज्झिमजगस्स हेडिम- तिलो० ५० १-१५४ मच्छुच्चत्तं मणोदुर्ल्ड मूला. ६०० मज्झिमजहणुक्कस्सा दवस. णय०३४१ मच्छो वि सालिसिस्थो मावपा० ८६ मझिमदव्वं खत्तं गो० जी० ४५८ मज्जरणमंडणघादी मूला० ४४७ मज्झिमयणमवहरिदे लदिसा०७२ मज्जणयगंधपुप्फो- म० श्रारा० २०६७ / मज्झिमपक्खेसु पुणो छेदपिं० १४० मज्जवरतूरभूमण- जंवू०५०३-२३० मज्झिमपत्ते मझिम भावसं० ५०० मज्जंगतूरभूमण- __ वसु० मा० २५१ । मज्मिमपदक्खरवहिद- गो०जी० ३५४ मजंगदुमा णेया जंबू० ५०२-१२५ / मज्झिमपरिधिचउत्थ तिलो० सा० १०२ मज्जंगा तूरंगा जं० ५०२-१२४ तिलो०प०-२३३ मज्जण वज्जणिज्ज दसणसा० १ मज्मिमपरिमाण व(वि)हू जंबु० ५० ३-१२ मज्जंपिवता पिसिदं लसंता तिलो. प० २-३६२ मज्झिमपामादाणं तिलो० ५० ४-३२ मज्जारपदय(प)माणं छेदपिं० १२ / मज्झिम बहभागुढ़या लद्धिसा० ६३८ मज्जारपहुदिवरणं कत्ति० श्रगु० ३४७ । मज्झिमयम्मि विमाणे जवू० ५० ११-२९६ मनारमुहा य तहा मिलो० ५० ४-२७२७ / मज्झिमया दिढवुद्धी मूला० ६२६ मज्जाररसिदसरिसो- म. पारा० २८३ / मज्झिम(ज्झेसु)रजदरचिदा तिलो०प०४-२४५६ मज्जार-साण-रज्जू धम्मर० १४१ | मज्झिमवयवामाहर- प्रायः ति०१-४१ मज्जारसारणसूयर- तिलो० सा० १७८ | ममिमवयसुरराओ प्रायः ति० ३-१३ मज्जु मंसु महु परिहरइ सावय० दो० ७० / मज्मिमविसोहिसहिदा तिलो० प० ३-१६३ मज्जु मंसु महु परिहरहि सावय० दो० २२ मज्झिमसुरेण जुत्ता जबू० ५०४-२२५ मज्जु मुक्कु मुक्क: मयह सावय० दो० ४३ / मज्झिमहेट्ठिमणामो तिलो० ५० -१२२ मज्जेण रणरो अवसो वसु० सा० ७० जवू० प०१०- मज्जे धम्मो मंसे धम्मो भावस. १८४ मझिल्ले मणवचिए पचस०४-२६ मज्मएहतिक्वसूरं म० श्रारा० ११०५ मज्झे अरिहं देवं भावस० ४५० ममत्थो मीमेहि प्रायः ति००-४ | मज्झे चत्तारि हवे जबू०प०२-५३ मज्झम्मि तहा च्छिई रिट्टस० ५२ | मज्झे चेदि रायं(१) तिलो० ५० ५-१८६ मज्मम्मि दु णायचा जबू० प० १०-२५ | मज्झे जीवा बहुगा गो. क. २४४ मज्मम्मि पंच रज्जू तिलो० ५० १-१४१ / मज्झे थोवसलागा गो० के० १४६ मज्झसहावं गाणं दवस० गय० ४०६ जबू०प०३-७३ मज्मसहावं गाणं णयच० ८३ मज्झे दीओ जलदो तिलो० सा० १८७ मझते एक्को चिय आय. ति० २-६ मज्झे मज्झे तेसिं जबू०प०४-१६४ मज्म परिग्गहो जइ समय० २०८ | मझे सिहरे य पुणो जबू०प०४-११ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी २३५ मज्झे सिहासणयं विलो. सा० ६३६ / मणवयणकायकयकारिया- वसु० सा० २६६ मज्झेसु तूरणिवहा जबू० प०४-१८६ मणवयणकायगुत्तिदियस्स मुला०७४३ मज्मोघदेववेसो थाय० ति०-११ | मणवयणकायजोगे मूला. १७६ मज्मो ससामिजुत्तो प्राय० ति० १४-३ मणवयणकायजोगेहि भ० धारा० ७१२ मट्टियजलप्पमाणं छेदस०७१ मणवयणकायजोया कचि० अणु० ८८ मण-करहो थावंतो पारा० सा० ६२ मणवयणकायजोया सच्चसा०३१ मणकेवलेसु सएगी सिद्धत०८ मणवयणकायदवा बोषपा० ५ मणगच्छ] मणमोहणहें सावय० दो० १२७ मणवयणकायदाणग- गो० ० ८८८ मणगुत्ते मुणिवसहे मूला० १०२१ मणवयणकायदुप्परिणामो छेदपि० १८२ मणचक्खूविसयाणं जंबू० ५० १३-६८ मणवयणकायमच्छर- . णाणसा० ४४ मणजोग(गि)कायजोगी जवू० ५० ११-२५७ मणवयणकायमंगुल मूला० १०२५ मणणरवइणो मरणे श्रारा० सा० ६० मणवयणकायरोहे तच्चसा० ३२ मणणरवइ सुहुभुजइ पारा० सा० ५६ मरणवयणकायवक्को * पंचसं०४-२०८ मणदव्यवग्गणाणम- गो० जी० ४५१ मणवयणकायवक्को * गो० क०८०८ मणदबवग्गणाव गो. जी ३८५ मणवयणकायवक्को * कम्मप०१५४ मणदेहदुक्खवित्तासिदाण भ० श्रारा० १४६६ मणवयणकायसुद्धी माक्स० ५२८ मणपज्जयविण्णाणं कत्ति० अणु० २५७ मणवयणदेहदाणग अगर०२-२८ मणपज्जयं तु दुविह श्रगप०२-७५ मणवयरणाण पउत्ती+ गो० जी० २१६ मणपन्जवकेवलदुग सिद्धंत०१० मणवयणाण पउत्ती + प्रास. ति०७ मणपज्जवणाणतो सम्मइ० २-३ मणवयणाणं मूलणि- गो० जी० २२६ मणपज्जवणाणं दसणं सम्मइ०२-२६ मणवेगा-कालीप्रो तिलो० ५० ४-६३६ मणपज्जवपरिहारो* पचस०१-१६४ मणसहियाणं झारणं भावस० ६८४ मणपज्जवपरिहारो* गो० जी० ७२८ मणसहियाणं वयणं गो० जी० २२० मणपज्जव च णाणं गो० जी० ४४४ मणसाए दुक्खवेमिय समय० २६७ २०२०(ज०) मणपज्जवं च दुविहं गो० जी० ४३८ मण्सा गुणपरिणामो म० श्रारा० ७५४ मणपज्जवं च दुविहं भावस० २६३ मणसा वाया कारण पंचसं०१-८८ मणपज्जे केवलदुवे पंचसं० ४-८६ मणसुद्धिहाणिवयभंगि- छेदपि० ३२६ मणपज्जे मणुवगदो भावति० ६५ मणहरजालकवाडा तिलो. प०३-६१ मणपज्जे सढित्थी श्रास. ति०४८ मणहरविसयविजोगे। कत्ति० अणु० ४७२ मणपवणगमणचंचल- जवृ० प० ४-१८७ मणिकरणयपुप्फसोहिय- तिलो. सा. ६६० मणपवणगमणदत्था जवू०प०१२-१० मणिकंचणघरणिवहा जंवू० प०८-१४५ मण बभचेर वचि बंभचेर मूला० ६६४ मणिकचणघरणिवहो जबू०प०१-२३ मणमित्ते वावारे श्रारा० सा० ७० मणिकंचणपरिणामा जबु०प०३-२१६ मणरसणच उक्तित्थी मिद्धत० ५१ | मणिकंचणपासादा जंवृ० प०६-६६ मणरोहेण य रुद्ध ढाढसी० ७ मणिकूडं रज्जुत्तम- तिलो. सा. ६५६ मणरोहेण य सवणे ढाढसी० ६ मणिगणफुरंतदंडा जबू० प०४-२३७ मणवचकायपउत्ती मूला० ३३१ | मणिगिहकंठाभरणा तिलो. प० ४-१३० मणवयकायहिं दय करहिं बावय० दो० ६० | मणितोरणरमणिज्ज । तिलो. प. ४-२२० मणवयणकायइंदिय- दवस० णय० ११२ | मणितोरणरयणुब्भव- तिलो. सा. ६३० मणवयणकायइदिय- कत्ति० अणु० १३६ | मणितोरणेहिं जुत्ता जबू० प०८-३२ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ पुरातन-जैनवाक्य-सूची छेदपिं० २१० मणिबंधचरणबाहुपसारणं मणिभवरणचारणालयमणिमयजिरणपडिमाओ तिलो० प०४ -८०५ जंय० ५० ४ ८३ मणिमय पायारजुदा मणिमयपासादजुदो मणिमय सोहा (वा) गाओ तिलो० प०४-२१८६ मणिमंडिया या मरिण मंतो सह- रक्खा मरिणरयण करण्यरुप्पयमणिरयगधाडलेवा मणिरभवविहा मणिरयाभित्तिचित्तं मणिरयणभित्तिचित्तामणिरयणमंडिएहि यमणिरयहेमजाला (ण) व बघुसा मणिसालहंजि (?) गयवरमणिसोवा मरणोहरays a मत्राणं सुश्मयं मसुरारिंदा इंदिहि विच्छाइयइ मणुओराल दुवज्र्जं मणु जाणइ उवएसडउ म मिलियर परमेसरहो मणु मिलियउ परमेसरहॅ मरणुयगइ सह गयाओ म गई पंचिदियx माई पंचिदियx मयगई जुत्ता मरणय- पाइंद- सुर-धरिय छत्तत्तया पंचगु० भ० १ तिरियास तिरिया पु मयत्त दुल्लहु लहिवि यत् वियजीवा मयय उच्चलिय मयदुयं ओरालिय मयदुयं पंचिदिय मयभवे पंचिंदिय मण्या य अपज्जत्ता माउस्स य उदए x मरणुयाउस्स य उदए x जबू० प० ६-३५ | मरण्यापुव्विसहिया जंबू० १० १-७१ जबू० प० ३ - १७४ | मरणुवाइयपज्जा + दा० श्र० ८ | मरणुवाइयपज्जाओ + मणुवे श्रघो थावरमणुवेसिदर गदीतियमरणुवेसु प वेगुन्दु मणुवो र होदि देवो वसु० सा० ३६० ढाढसी० १३ जंबू० प० १- २० जंबू ० प० ११ - ११३ पंचस मरणुयादो गेरइया मरणुवगईए एवं | | जंबू प० ६–१०१ जय० प० ३ - १०६ | जंबू० प० ११-३१७ गो० क० ७१८ जंबू० प०३-१८४ मरणुस व्व दव्वभावित्थी तिलो० प० ४–७१६ | मणुसाउगं च वेदे कत्ति० अणु ० २६१ | मरणु सिणिए त्थीसहिदा कत्ति० श्रणु० ८५ |मर सिणि पमत्तविरदे पवयणसा० १-६३ | मणुसुत्तरधरणिधरं जोगसा० १३ | मणुसुत्तरम्मि सेले गो० क० १६६ | मणुसुत्तरसमवासो पाहु० दो० ४६ | मणुसुत्तरसेला दो पाहु० दो० ४६ सुत्तरा परदो परम०प०१ - १२३.२ मगुसुत्तरादु परदो ० ५-५०० माणुसगइ सव्वभंगा मणुसगढ़ीए थोवा मणुसत्तणेण राट्ठो मणुस दुगइत्थिवेयं मरण सुत्तरुदयभूमुहपचस० १-४७१ | मरणुसुत्तरोत्ति मरणुसा पचसं० २-४६८ | मणुसोघ वा भोगे पंचस० २- १५३ | मणुमोत्तरादु अंता महॅ विरयविवज्जियहँ सावय० दो० १३८ | मत्तो गयो व्य रिंगचं म पंचसं० १-५८ पचसं० ५-२१ पंचसं० ५-२६० पचसं० २-४६१ कत्ति० श्रणु० १५३ घम्मर० ८६ दव्वस० राय० २११ मायस० ३६ गो० क० २६८ भावति० ६१ श्रास० ति० ३१ पवयणसा० २-२१ पचसं० ५-१७८ मूला० १२०७ पचत्यि० १७ पचस० ४-३६१ भावति० ६४ भ० श्रारा० २१२२ गो० क० ३०१ गो० जी० ७१४ तिलो० प० ४-२७२ जबू० प० ११- ६१ तिलो० प० ५-१३० तिलो० सा० ३४६ जबू० प० १२-१५ तिलो० प० ७-६१३ तिलो० सा० ६३८ तिलो० सा० ३२३ गो० क० ३०२ जबू० प० २-१७३ पचसं० ४-४३३ भावस० १७ पचसं० १-६२ गो० जी० १४८ मस्सतेरिच्छभव म्हि पुव्वे तिलो०प०३-२१४ माइ जलेण सुद्धि पंच० ३-३५ | मांति जदो खिच्चं * सावय० दो० २१६ मरणति जदो पिच्वं * वसु० सा० १८२ | मत्तकरिकुभसरिसो पचसं ० ५ - २१० | मत्तकरिकुभसिहरो पंचसं० ४-४५५ मत्तगयगमगलीला पंचस०५-२१४ | मत्तंड दिगगदीए बोधपा० ३६ | मत्तंडमंडलाणं जंबू ० प० - १५० जबृ० प० ६-१०० जबू० प० ७-११२ तिलो० प० ७-४५५ तिलो० प० ७-२७७ भ० श्रारा० ६५६ · Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ मत्थयसूचीए जधा मदमाणमा रहदो मदमाणमायलोहविमदिश्रावरणखओवस मदिरा राई मदिसुदश्रोहिमणेहिं य मदिसुद ही मरणपज्जयं मदिदोही मरणपज्जयं मदिसुदरणाबले दु मद्दल तिवलीहिं तहा मद्दलमुइंगपडह पहुमद्दलमुयंगभेरी मद्दवप्रज्जव जुत्ता मधिदू कुह अगि मधुमेव पिच्छदि जहा ममत्ति परिवज्जामि ममत्ति परिवज्जामि ममत्ति परिवज्जामि मम पुत्त मम भज्जा मयको हलोहग मगधूमम्मि स मयत हादो उदयं मयतरिया उदयत्ति मयमरणमायणो मयमायकोहरहि मयमूढमरणादण मयमोहमाणसहि मयरद्धयमह (य) महणो म राय दोस मोहो मयरायदोसरहि प्राकृतपद्यानुक्रमणी तिलो० प० ६-३८ भ० श्रारा० २१०१ | मरगयरय विरिणम्मियमरगयवरण समुज्जलमरवाई यिमसा० ११२ गो० जी० १६४ | मरणभयभीरुआणं तिलो० प० ४ - ४१५ | मरणभयभीरुयाणं गो० जी० ६७३ | मरणभयमिह उवगदे दव्वस० य० २३ | मरणं पत्थेइ रणे + मरणं पत्थेइ रणे + मरगयदंडत्तुगा मरगयपायारजुदा मरगयपायारजुदो मरगयपासादजुदा मरगयमणिसरिसतणू मरगय मुखालवणा मरगयरयणविणिग्गय कम्मप० ४२ रयणसा० ३ जंबू० प० ४-२८३ तिलो० प० ७-४६ तिलो० प०५-११३ तिलो० प० ४- ३३८ तिलो० प०४-१५७२ भ० श्रारा० १२७४ मरणूणम्मि पियट्टीमरणे विराधिदम्मि य मरणे विराधिदे देवमरदि श्रसंखेज्जदिमं मरदि सयं वा पुव्वं मरदु व जियदु व जीवो यिमसा० ६ | मरुदेवे तिदिवगदे भावपा० ५७ | मलमुत्तघड व्व चिरं मूला० ४५ मलरहियो कलचत्तो वा० श्रणु० ३१ || मलरहिओ गाणम भावसं ० ५५२ | मलसत्तर (रि य) जिरणुत्ता रिट्स० २११ मलिगो देहो चि मल्लव महसोमणसो भ० श्रारा० ५८६ मल्लस्स गेहपाणं रिट्ठस० ६६ | मल्लंगदुमा रोया मोक्खपा० ४५ भ० श्रारा० ७२६ मर इदि भणिदे जीओ तिलो० प० ४- १०७६ मरग (दरण) चोरमायाणिसहि सुप्प० दो० ४२ मरगयकंचरणविदुम | | मरणाणि सत्तरस देखिदाणि मल्लिजिगिदं परणमिय मल्लिजिणे छद्दिवसा रयणसा० ७ वमो गाणसा० ३० | मल्लिदुमज्झे सुदखं० ६० मल्लीगामो सुप्पहवरदत्ता बोधपा० ६ मसरि-पूरण रिसिणो बोधपा० ४० | मसुरंघुबिंदु सूई मसुरिय कुसग्गबिदू महअबला तिविट्ठो जबू० प० ६-६१ महकप्प गायव्वं जंवृ० प० १३ - ११४ | महकप्पं पुंडरियं जंबू० १० ८ - १६१ जवू० प०८ - १३५ महका अतिका महकायो छातिकायो मगध भुजग पीदिक जबू० प०६-१७१ तिलो० प० ८-२५० | महतमहेट्ठिमयं ते जबू० प० २-५७ | महदामेट्ठि मिदगदी जबू० प० ३-२४० महदारस्स दुपा २३७ जबृ प० ४-१७४ जबू० प०४-१८४ तिलो० प० ७-५१ मूला० ६३६ धम्मर० ४३ मूला० ६६७ पंचस० १-१४६ गो० जी० ५१३ भ० श्रारा० २५ गो० क० ६६ तिलो० प०३-२०१ मूला० ६१ गो० जी० ५४३ भ० श्रारा० १०५७ पवयणसा० ३-१७ तिलो० प० ४-४८८ रयणसा० १४२ मोक्खपा० ६ तच्चसा० २६ कल्लाणा० १७ भावसं० २० तिलो० सा० ६६३ भ० श्रारा० १८६५ जंबू० प० २- १३४ जंबू० प०११-१ तिलो० प० ४ - ६७६ तिलो० सा० ८१७ तिलो० प० ४-६६४ भावस० १६१ गो० जी० २०० मूला० १०८६ तिलो० सा० ८८० श्रंगप० ३-२६ सुदख० ६२ तिलो० प० ६-३६ तिलो० सा० २६२ तिलो० सा० २६२ तिलो० प० १-१५७ तिलो० सा० ४६७ तिलो० सा० ६६१ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 . २३८ पुरातन-जैनवाक्य-सूची महपउमदहाउ णदी तिलो० प०४-१७४४ | महुमज्जाहाराणं तिलो० प० २-३४० महपउमो सुरदेओ+ तिलो० ५० ४-१५७७ महुयर सुरतरुमंजरिहिं पाहु० दो० ११२ महपउमो सुरदेवो + तिलो० सा०८७३ तिलो. सा. ६६३ महपुडरीयणामो तिलो० ५० ४-२३५८ । महुरमणोहरवक्का जंबू०प०४-२२२ महपूजासु जिणाणं तिलो० सा० ५५४ महुराए अहिच्छित्ते णिव्वा० भ० २२ महमंडलियो णामो तिलो० ५० १-४७ | महुरा महुरालावा तिलो० ५०६-५१ महमंडलियाणं अद्ध- तिलो०प०१-४१ | महुरेहिं मणहरेहिं य जंबू० ५०३-१०८ महवीरभासियत्थो तिलो०प०१-७६ जंबू०प०५-८० महव्वयाणि पंचेव अगप० १-१८ महुलित्तखग्गसरिस * भावस० ३३४ महसुक्कइदो तह तिलो० प०८-१४३ महुलित्तखग्गसरिसं* कम्मप०३० महसुक्कणामपडले तिलो०प०८-५०१ महुलित्तं असिधारं भ प्रारा० १३५२ महसुक्कम्मि य सेढी तिलो. प०-६६२ महुलित्तं असिधारं भ० श्रारा० १६६५ महसुक्कसुराहिवई ___ जंबू० प०५-१०२ मंगल-कारण-हेदू तिलो०प०१-७ महसुक्किदयउत्तर- तिलो० ५०८-३४५ मगल-पज्जाएहिं तिलो०प०१-२० महिमवरिमजीवा तिलो. सा० ७७४ मंगलपहुदिच्छक्कं तिलो० ५० १-२५ महहिमवतणगस्स दु जंब० प०३-२२८ मंडलखेतपमाणं तिलो. प०७-४६० महहिमवतं रुंदं तिलो० ५० ४-२५५५ मंताभिओगकोदुग- म० श्रारा० १८२ महिमवते दोसुं तिलो० ५०४-१७२१ मंतीणं अमराणं तिलो० ५० ४-१३१२ महासाहू महासाहू कल्लाणा०५० मंतीणं उवरोधे तिलो० प० ४-१३०७ महिलाकुलसवासं भ० श्रारा० १३८ मंतु ण तंतु ण घेउ ण धारणु पाहु० दो० २०६ महिलारण जे दासा भ० श्रारा १६३ | मंदकसायं धम्म कत्ति० अणु० ४७० महिलादिभोगसेवी भ० श्रारा० १२५६ | मंदकसायेण जुदा तिलो० ५० ४-४१६ महिलादी परिवारा तिलो. प०८-६४१ मंदरअखिलदिसादो तिलो० प० ४-२०१३ महिला पुरिसमवण्णाए भ० श्रारा० ६५७ मंदरईसाणदिसा- तिलो. प०४-२१६२ महिलालोयणपुव्वरइसरण-* चारित्तपा० ३४ मंदरउत्तरभागे तिलो ५०४-२१८६ महिलालोयण पुव्वरदिसरणं * मूला० ३४० मंदरकुलवक्खारिसु- तिलो० सा० ५६२ महिलालोयण पुव्वरदिसरणं *मनारा०१२१० मंदरगिरिदो गच्छिय तिलो० ५० ४-२०५३ भ० श्रारा० १११३ मंदरगिरिदो गच्छिय तिलो. प० ४-२०६१ महिला विग्घा धम्मस्स भ० श्रारा १८५ मंदरगिरिपहुदीणं तिलो. प०४-२८२६ महिलावेसविलंबी म० श्रारा०६३२ मंदरगिरिमज्झादो तिलो. सा० ३६७ महिलासु णात्थ वीसंभ- भ० आरा० ६४३ । मंदरगिरिमझादो तिजो० ५० ७-२६३ महिस य मडय च तहा रिस० १७८ मंदरगिरिमूलादो तिलो० ५० ५-६ महिहि भमंतह ते णर य सुप्प० दो० ६६ | मंदरगिरिंदउत्तर तिलो०प०४-२५८७ मह आसायउ थोडउ वि सावय० दो० २३ | मंदरगिरिंदगाइरिदि तिलो०प०४-२१४५ महुकरिसज्जियमहुं भ० श्रारा० ७८० मंदरगिरिददक्षिण तिलो. प०४-२१३६ महुपिंगो पाम मुणी भावपा० ४५ मंदरणामो सेलो तिलो० प०४-२५७३ महुमज्जमंसजूवाकल्लाणा० १२ जब० प०११-६८ महुमज्जमंसविरई भावसं० ३५६ । | मंदरतलमज्मादो जंब० ५० ११-१०० महुमन्नमंससेवी वसु० सा० ६६ , मंदरतलमज्झादो महु मज्ज मंसं वा छेदपिं० ३३२ | मंदरपच्छिमभागे तिलो० ५०४-२१०६ जब० प०११-१०२ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी २३६ - मंदादि)रपंतिप्पमुहे तिलो० ५० ४-१०५२ माघस्स य अमवासे तिलो. १०४-६८७ मदरमहागिरीणं जंबू०प० ४-७१ माघस्स सिदचउत्थी- तिलो०५०४-६५५ मदरमहाचलाणं जब० प० ६-६७ माघस्स सुक्कणवमी- तिलो. प० ४-६४४ मदरमहाचलो हि दु जंब० ५० ४-२१ | माघस्स सुक्कपक्खे तिलो० प०४-५२६ मदरमहाणगाणं जव प०४-१३२ [माघस्स सुक्कविदिये] तिलो० ५०४-६८० मंदरवणेसु णेया जय० ५० ५-६७ माघस्सिदएक्कारसि- तिलो० ५०४-६६५ मंदरविक्खभूणं जब० ५०६-१३ | माघादी होति उडू तिलो० ५० ४-२६० मंदरसरिसम्मि जगे तिलो० ५० १-२२८ माघे सत्तमि किरहे तिलो० सा०४१६ मदरसेलस्स वणे जंब० ५० ११-६४ मा चिट्ठह मा जंपह दव्यम०५६ मंदरसलाहिवई तिलो०प०४-१९८२ माण। इछिय परमहिल सावय. दो० ६३ मंदारकुंदकुवलय- जव० ५० १३-१२३ माणतिय फोहदिये लद्धिसा० ५४५ मदारचूदचंपय तिलो० सा० ६०८ मारणतियाणुदयमहो लदिसा. ६०१ मंदा हुांत कसाया भ० श्रारा० १६१२ माणदुग सजलणग लद्धिसा० २७२ मंदिरगिरिपढमवणे जव० प०५-५ | मारणद्धा कोधद्धा क्सायपा० १७ मंदो वुद्धिविहीणो* पचसं० १-१४५ माणमददप्पथभो कसायपा० ८०(३४) मदो वुद्धिविहीणो* गो० जी० ५०६ मास महमाणसिया तिलो० ५०४-६३७ मं पुणु पुराणा' भल्ला . परम० प० २-५७ माणस्स भजणत्थ भ० श्राग० १७२७ मसहिसुक्कसोणिय भावपा० ४२ माणस्स य पढठिदी लद्धिमा० २७१ मंसटि सिंभ-बस-रुधि(हि)र- मूला० ७२४ माणस्स य पढमठिदी लन्द्विसा० २७३ मसस्स गस्थि जीवो दसणसा०८ माण दुविहं लोगिग तिलो० सा०६ मंसं अमेज्मसरिस वसु० सा० ८५ | माणं मि चारणक्खा(क्खो) तिलो०५०४-१९६२ मसासणेश लुद्धो वसु० सा० १२७ माणादि-तियाणुदये लद्धिसा० ३५६ मंसासणेण वट्ट (ड्ढ)इ वसु० सा० ८६ / माणादि-तिये एवं श्राम ति०४६ मंसासिणो ण पत्त भावस० ३१ माणादाणहियकमा लद्धिसा० ४८३ मंसाहारफलेण य धम्मर०५८ | माणी कुलजो सूरो वसु० सा० ११ मंसाहाररदाण तिलो प० २-३३६ मारणीचारणगंधव- तिलो० सा० ६१६ मंसेण पियरवग्गो भावस.२६ माणी वि अमरिस्म वि भ० श्रारा० १११ मा कासि त पमाद भ. श्रारा० ७३५ माणी विस्सो सव्वस्स भ. श्रारा० १३७७ मा कुपासि तुमं बुद्धिं भ. श्रारा०८५३ माणुएणयस्म पुरिसदुमस्स भ० श्रारा० ६३६ मागधणामो देवो जव० प०७-१०३ । माणुल्लासयमिच्छा तिलो. ५०४-७८० मागधदीवसमारणं तिलो० ५० ४-२४७१ | माणुसग्वित्तपमाण तिलो० सा० ४७२ मागधदेवस्स तदो तिलो० प०४-१३०१ माणुमखित्तस्स बहि कत्ति. अणु०१४३ मागधवरतणुवेहि य तिलो० ५० ४-२२५२ माणुमखेत्तपमाणं तिलो. सा० १६६ मागधवरतणुवेहि य जब० ५०८-५६ | माणुमखेत्तपमाणं जबू०प०११-३४४ मागहतिदेवदीवत्तिदयं तिलो० सा० ११२ | माणुसखेत्तहिद्धा जब० प० १२-१६ माघस्म किण्हचोदसि- तिलो० ५० ४-११८३ | माणुसखेत्ते सासणो । तिलो. प०७-६०७ माघस्स किएहपक्खे तिलो. प० ७-५३४ | माणुसगदितज्जादि भ० श्रारा० २१२१ माघस्स किरहबारसि- तिलो० प०४-६५२ | माणुसजगबहुमज्झे तिलो० प० ४-११ माघस्स वारसीए तिलो० ५० ४-५२८ | माणुमतिरिया य तहा मूला० ११७० माघस्स बारसीए तिलो.५० ४-५३४ | माणुसभवे वि अत्था भ० श्रारा० ८७३ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० पुरातन-जैनवाक्य-सूची माणुसमंसपसत्तो भ० श्रारा० १३५७ | माया पियर कुडंबो कल्लाणा माणुसलोयपमाणो तिलो०प०६-१७ | माया पोसेइ सुयं भ० श्रारा० १७६० माणुस्सा दुवियप्पा __णियमसा० १६ | माया मिल्लहि थोडिय वि सावय० दो० १३३ माणेण जाइकुलरूव- भ० अारा० १२१७ माया य सादिजोगो कसायपा० ८८ (३५) माणेण तेण राया जबू० प० ७-१४६ | मायारूवमहेंदज्जाल अगप०३-५ माणे लदासमाणे कसायपा० ७१(२२) | मायालोहे रदिपुवा गो० जी०६ माणोदएण चडिदो लद्धिसा० ३५३ | मायावहिणिसुआओ धम्मर० १४६ माणोदयचडपडिदो लद्धिसा० ३५५ | माया व होइ विस्सस्स भ० श्रारा०८४० माणो य माय लोहो दव्वस० गय०३६४ तिलो०प०८-३८७ माद(दु)सुदादिसजोणी छेदस० ८४ | माया वि होइ भज्जा भ. श्रारा. १७६१ भ० श्रारा० १०६५ मायावेल्लि असेसा भावपा० १५६ मादाए वि य वेसो भ० श्रारा० ८४६ मायासल्लस्सालोयरणा- भ० श्रारा० १२५ मादापिदरसहोदर बा० अणु० २१ मारणसीलो कुरणदि हु भ० धारा०७६५ मादा पिदा कलत्त तिलो. प० ४-६३६ मारिमि जोवावेमि य समय० २६१ मादा य होदि धूदा मूला० ७१६ मारिवि चूरिवि जीवडा परम० प० २-१२६ मादुपिदुपुत्तदारेसु भ० श्रारा० ११४७ मारिवि जीवह लक्खडा परम०प०२-१२५ मादुपिदुपुत्तमित्तकलत्त- रयणसा० १६ मारेदि एवमवि जो भ० श्रारा० ७६६ मादुपिदुसयणसबधिको मूला० ७०० मालइकयंबकरपया वसु० सा० ४३१ मादुसुदादीहिं सजोणियाहिं। छेदपिं० ३४१ | मासचउक्कं लोचो छेदपिं० १०५ मादुसुदाभगिणी वि य मूला०८ मासत्तिदयाहिय चउ तिलो०प०४-६४८ मा मुक्क पुण्णदेऊं भावसं० ३६४ मासपुधत्तं वासा लदिसा०५५८ मा मुज्मह मा रज्जह दन्वस०४८ मासम्मि सत्तमे तस्स भ० श्रारा०१०१० मा मुट्टा पसु गरुवडा पाहु० दो० ३३१ मासं पडि उववासो छेदस० ६७ माय-तिगादो लोभस्सादि- लद्धिसा० १७२ मासेण पंच पुलगा __ भ० श्रारा० १००६ मायदुगं संजलणग लद्धिसा० २७६ माहउ-सरणु सिलीमुहट सावय० दो० १७३ मायंगकुंभसरिसो जबू० प० ६-३८ माहप्प वरचरणं श्रगप०१-५० मायंगरामपुत्तो अंगप० १-५१ माहप्पेण जिणाणं तिलो० प०४-६०५ मायं चिय अणियट्टी- पंचसं० ३-५८ माहवचंदुद्धरिया तिलो० सा०३६४ मायाए अभत्तीए श्राय० ति० २३-१३ २३-१३ | माहिंदउवरिमेत्तं(मंते) । तिलो०प०१-२०४ मायाए तं सव्वं भावस० ४४६ । | माहिदे सेढिगया तिलो०प०-१६३ मायाए पढमठिदी लद्धिसा० २७५ | मा होइ वासगणणा मायाए पढमठिदी लद्धिसा० २७७ | मिच्छक्खपंचकाया पचस०४-११७ मायाए मित्तभेदे भ० श्रारा० १३८५ मिच्छक्खपंचकाया पचसं०४-१२४ मायाए वहिणीए मूला० ६६२ मिच्छक्खपचकाया पचस० ४-१२५ माया करेदि णीचा- भ० श्रारा० १३८६ मिच्छक्खपंचकाया पंचस०४-१३१ मायागहणे बहुदोस- भ० श्रारा० १११० | मिच्छक्खपंचकाया पचसं०४-१३२ मायाचारविवन्जिद- तिलो०प०३-२३२ | मिच्छक्खपंचकाया पंचसं०४-१३६ मायादोसा मायाए भ०. श्रारा० १४५५ | मिच्छक्खं चउकाया पंचसं०४-१५ माया धूदा भज्जा भ० श्रारा. १२६ मिच्छक्खं चउकाया पंचस०४-११६ माया-पमाय-पउरा भावसं० ६३ | मिच्छक्खं चउकाया पंचस०-11 मूला० ६६५ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स मिच्छुक्खं चउकाया मिच्छुक्खं चकाया मिच्छुक्खं चकायो मिच्छचउक्क छक्क मिच्छर उस वेय मिच्छ उसयवेय * मिच्छ्रणउंसयवेयं * मिच्छ्रणथीगांत सुरचर मिच्छतिगऽयदचउक्क मिच्छतियसोलसाणं मिच्छतियं चउ सम्मग मिच्छति विचक्के मिच्छतिये मिस्सपदा मिच्छत्तख विकाया मिच्छत्खतिकाया मिच्छत्तक्खतिकाया मिच्छत्तक्खतिकाया मिच्छत्तक्खतिकाया मिच्छत्तक्खतिकाया मिच्छत्तक्ख दुकाया मिक्त्तक्ख दुकाया मिच्छत्तक्ख दुकाया मिच्छत्तक्ख दुकाया मिच्छत्तक्खदुकाया मिच्छत्तक्ख दुकाया मिच्छत्तक्खं का मिच्छत्तक्खं का मिच्छत्तक्ख का मिच्छत्तक्ख का मिच्छत्खं का मिच्छत्तक्खं का मिच्छत्तद्वदिट्ठी मिच्छत्तर उदयादो मिच्छत्तरणको हाई मिच्छत्तणको हाई I भाकृतपद्यानुक्रमणा पचसं ०४ - १२६ | मिच्छत्तपहुदिभावा मिच्छत्तभावणाए पंचस० ४- १२७ पचसं० ४ - १३३ | मिच्छत्तमविरदी तह गो० क० ५०३ | मिच्छत्तमिस्ससम्मसपंचस० ३ - १५ | मिच्छत्तमोहरणादो पवस० ४-३०६ | मिच्छत्तमो हिदमदी पचस० ४-३२६ | मिच्छत्तरसपत्तो लद्धिसा० २५ मिच्छचवेदणीए भावति० २६ मिच्छत्तवेदरणीयं गो० क० ४४७ | मिच्छत्त वेदणीयं दव्वस० य० ३६६ | मिच्छत्तनेदरागागो० क० ८२१ | मिच्छत्त वेदरागागो० क० ८४६ | मिच्छत्त सलदोसा पचस० ४ - १०६ | मिच्छत्तसह विद्ध पचसं० ४ - १२८ मिच्छत्तस्स य उत्ता पचस० ४-११२ | मिच्छत्तस्स यचमणं पचस० ४-११३ | मिच्छत्तस्मुदएण य पचसं० ४- १२० पचम० ४ - १२१ पवस० ४ १०३ पचस० ४-१०७ पंच० ४- ११४ मिच्छता मिच्छत्तं अण्णा मिच्छत्त प्ररणाणं मिच्छतं अण्णाण मिच्छत्तं विरमणं पंचस ० ४ - ११५ मिच्छत्तं विरमरणं पचसं० ४-१२२ | मिच्छत अविरमणं' - पचसं ० ४ - १०८ मिच्छत्त अविरमणं - पंचसं० ४ - ११६ |मिच्छत्त विरमण x पनसं० ४ - १०६ मिच्छत्त अविरमरणं x पंचसं० ४- ११० मिच्छत्त आयावं मिच्छत जइ पयडी पचरा० ४-१०२ पचस० ४-१०४ मिच्छत्त पुरण दुविह पंचस० ४ - १०५ | मिच्छत्तं पुरा दुविहं भावपा० १३७ | मिच्छत्त वेदंतो + भावति० ४ मिच्छत्त वेदतो + पंचस ० ५-३० मिच्छन्तं वेदंतो + पचस० ५- ३०२ | मिच्छत्तं वेदंतो + भावपा० ११५ मिच्छत्ता अविरमरणं | मिच्छत्ताई चउ पण कसायपा० ६७ (४४) मिच्छत्तारणरणदरं मूला० ६१७ मिच्छत्ता विरइकसायकत्ति० अणु० १६३ | मिच्छत्ताविरदिपमाद मिच्छत्त तह कसाया मिच्छत्ततिमिरताणं ( रत्ता ? ) तिलो०प०४ - २४६८ मिच्छत्तपच्चये खलु मिच्छत्तपडिक्कमणं मिच्छत्त परिणदप्पा २४१ शियमसा० ६० तिलो० प० ४-५०५ सिद्धत० ४८ लद्विसा० ६० भ० श्रारा० ७२७ भ० थारा० १७६८ भावसं० १३ कलायपा० १०७ (५४) मूला० ५६५ कसायपा० ६५ (४२) मूला० ४०० भ० थारा० १११८ भ० थारा० १२८७ भ० श्रारा० ७३१ गो० क० ६३३ भ० श्रारा० ७२२ भावस० १२ गो० क० ६५ दव्त्रस० य० ३०१ तिलो० प० ६-५७ मोक्खपा० २८ समय ० १६४ बा० धरणु० ४७ गो० क० ७८६ श्रास० ति० २ भ० श्रारा० १८२५ मूला० २३७ पंचस० ३-३२ समय० ३२८ समय० ८७ दव्वस० णय० ३०२ पचस० १-६ गो० जी० १७ 'लद्धिसा० १०८ भ० श्रारा० ४१ दव्वस० य० ८१ पचस० ४-८३ गो० क० ७६५ चसु० सा० ३६ दव्वस० ३० Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ पुरातन-जैनवाक्य-सूची मिच्छत्ताविरदीहिं य * मूला० २४१ | मिच्छाइट्ठी देवा तिलो० ५०८-५८८ मिच्छत्ताविरदीहिं य * मूला० ७४२ मिच्छाइट्ठी पावा गो० जी० ६२२ मिच्छत्तासवदारं- भ० श्रारा० १६३५ | मिच्छाइट्ठी भव्या तिलो० ५० ४-६३० मिच्छत्तासवदारं x मूला०२३६ मिच्छाइपमत्तता पचसं० ५-२८६ मिच्छत्तेणाच्छएणो भावस० १६६ मिच्छाइसजोयंता पचसं० ४-६७ मिच्छत्तेणो(णा)च्छण्णो मुला० ७०३ मिच्छाइसु अड चउ चउ पंचस० ५-३१० मिच्छत्ते णरु मोहियउ सावय० दो० १३६ मिच्छाई खीवंता पचसं० ४-६६ मिच्छद्गयदचउक्के गो० क० ३३ मिच्छाई चत्तारि य पंचस० ४-५५(१०) मिच्छदुगविरदठाणे श्रास० ति० १० मिच्छाई देसंता पंचस०५-२६२ मिच्छदुगे अयदे तह सिद्धत० ४६ मिच्छा कोहचउकं - पंचस०५-२६ मिच्छदुगे मिस्सतिए गो० क० ४६१ मिच्छा कोहचउकंx पंचस०५-३०० मिच्छदुगे मिस्सतिये गो० क० २४ मिच्छाणाणेसु रो मोक्सपा." मिच्छमणंतं मिस्सं गो० क० २६२ मिच्छा तित्थयरूणा * पचसं०-४-३४७ मिच्छमपुरणं छेदो गो० क० २६१ मिच्छा तित्थयरूणा * पत्रसं०४-३५१ मिच्छमभव्वं वेदगभावति० १०६ मिच्छादसणविरदि मूला १२१६ मिच्छम्मि छिराणपयडी पचसं० ४-३३८ मिच्छादसणणाणचरित्तं णियमसा०६१ मिच्छम्मि पंच भंगा पचसं०५-१५ मिच्छादसणमग्गे चारित्तपा० १६ मिच्छम्मि पंच भंगा पचस०५-२६४ मिच्छा-दसण-मोहियउ(प्रो) जोगसा.. मिच्छम्मि य बावीसा - पचस०४-२४४ मिच्छादसणरत्ता मूला०६६ मिच्छम्मि य बावीसा - पंचसं०५-२४ मिच्छादसणसल्लं म. श्रारा० ५३८ मिच्छम्मि सासणम्मि य+ पचस० ५-१२ मिच्छादिअपुव्वंता पचस०५-३६० मिच्छम्मि सासणम्मि य + पसं० ५-२८२ | मिच्छादिअप्पमत्त पचसं०५-३६७ मिच्छरुचिम्हि य भावा भावति० १०८ | मिच्छादिउ जो परिहरणु जोगसा० १०२ मिच्छस्स चरमफालि लद्धिसा० १२६ मिच्छादिगोदभंगा गो० क० ६३८ मिच्छस्स ठाणभंगा गो० क. ५६८ मिच्छादिटिप्पभई पचस०४-२१८ मिच्छस्स य मिच्छो त्ति य गो० क० ४४६ मिच्छादिट्ठिप्पहुर्दि पचसं० ५-३७५ मिच्छस्संतिमणवयं गो० क० १६८ मिच्छादिहिस्सोदय- पचस० ५-३२३ मिच्छतिमठिदिखंडो लद्धिसा. १५७ मिच्छादिट्ठी जो सो मोक्खपा०६५ मिच्छधयारहियगिहरयणसा० ५३ मिच्छादिट्ठी पुरणं भावस० ४०० मिच्छं मिस्न सगुणे गो० क०४७६ मिच्छादिट्ठी पुरिसो मावसं० ४६६ मिच्छाइअपुवंता पचस०५-२६७ मिच्छादिट्ठी भद्दा वसु० सा० २४५ मिच्छाइचउक्केयारपचस०४-१६ मिच्छादिट्ठीभंगा पचस०५-३६६ मिच्छाइट्ठिट्ठाणे भावति० २ मिच्छादिट्ठीभंगा पचसं०५-३७६ मिच्छाइटिप्पहुदि गो० क० ८६६ मिच्छादिट्ठी महारभ- पचस०४-२०४ मिच्छाइ(दि)ट्ठी जीवो पसं० १-१७० मिच्छादिट्ठी सासामिच्छाइ(दि)ट्ठी जीवो पचसं० १- मिच्छादिठाणभगा गो० क.८४० मिच्छाइट्ठी जीवो गो० जी० १८ | मिच्छादियदेसंता पचसं०५-३५६ मिच्छाइट्ठी जीवो गो० जी० ६५५ | मिच्छादीणं दुति दुसु गो० क.८६४ मिच्छाइट्ठी जीवो लद्धिसा० १०६ | मिच्छादुवसंतो त्ति य गो० क० ४६२ मिच्छाइट्ठी णियमा + कसायपा० १०४(५१) | मिच्छादो सहिट्ठी कत्ति० अणु० १०६ मूला. १९६५ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म मिच्लापुदुगादिसु मिच्छाम इमयमाहासवमच्छा सरागभूदो मिच्छा सराग भूयो मिच्छासंजम हुंवि हु मिच्छासादा दोणि य मिच्छा सावय सासरणमिच्छा सासरण गवय मिच्छा सासरा मिस्सो मिच्छा सासरण मिरसो मिच्छा सासरण मिस्सो मिच्छा सासरण मिस्सो मिच्छाहारदुगूणा मिच्छदिछकाया मिच्छदियछक्काया मिच्छदिछक्काया मिच्छदिछक्काया मिच्छदियछक्काया मिच्छदियछक्काया मिच्छु feari मिच्छूणि गिवोससय मिच्छे अहृदयपदा मिच्छे खलु द मिच्छे खलु मिच्छत मिच्छे खावदे सम्मदुमिच्छे उपच मिच्छे चोदसजीवा मिच्छे परमिच्छत्तं मिच्छे परणमिच्छत्तं मिच्छे परिणामपदा मिन्छे वो छिरा मिच्छे मिच्छ्रमभव्व मिच्छे मिच्छादावं मिच्छे मिच्छाभावो मिच्छे वग्गसलायप्पमिच्छे वोच्छिणेहिं मिच्छे सम्मिस्सारण मिच्छे सासरण अयदे मिच्छे सासर सम्मे मिच्छे सोलस परणुवी प्राकृत पद्यानुक्रमरणा कम्मप० ८७ मिच्छे हारदु सासरण रयणसा० २१ | मिन्छोदयेण जीवो दच्वस० णय० २६७ | मिच्छोदयेण मिच्छत्त- + मिच्छोदयंण मिच्छत्त + मिच्छो देसचरितं मिच्छो देसचरिः दव्वस० य० २६२ पचस० ४-७४ पचस० ९-२०३ पचस० ४-५६ गो० जी० ६२३ | मिच्छो सासण मिस्सो पंचसं० ४–२४१ | मिच्छो सासण मिस्सो पंचसं० १-४ मिच्छो हु महारंभो x भावस० १० | मिच्छो हु महारंभी x पचप० ४ - २४ | मित्त उसी रोहि मित्तस्स विफजवसा मित्ता पिएल लाई मित्ताविसेसफलया मित्ते सुयादीसु य मित्सुहजु पचस० ४ - १३२ | मित्ते सुहजुयदिट्ठे पचसं० ४-१३३ | मित्तेहिं ण्यिगभवं पचस० ४ - १३४ | मित्तो सुहगह जुत्तो लद्धिसा० १२४ मिदुमज्जव सपरणा पचस० ४-६५ पचसं० ४- १२३ पंचम० ४ - १३५ | पचसं० ४-१२१ गो० क० ४२७ | मियमयरुप्पूरायरु गो० क० ८४७ गो० जी० ११ मिल्लहु मिल्लहु मोक्क्लउ मिस्सतियकम्मररणा श्रास० ति० ६ लद्धिसा० १५६ सिद्धत० ७१ | मिस्सदुगाहारदुग गो० जी० ६६८ | मिस्सस्स वि बत्तीसा था० ति० १५ | मिस्सदुकम्म इच्छदि मिस्सदुगचरिमफाली गो० क० ७६० क्षे० ३ मिस्लं उदेइ मिस्से मिस्संमि ऊतीसं गो० क० ८८४ मिस्संमितिगाणं पचसं० ४- ३३६ | मिस्सा आहारस्स य भावति० ३६ | मिस्साविरद मस्सद्वाणे गो० क० २६५ | मिस्माविरदे उच्च दव्वस ० णय० १२६ मिस्साहारस्सयया गो० क० ६२५ | पंचसं० ४- ३५५ गो० क० ४१२ गो० क० ४६५ | मिस्सूण मत्तंते गो० जी० ६८० मिस्से पुराणसग इगि मिस्तुच्छिट्ठे समए मिस्सुदये सम्मिस्सं मिस्सुदये सम्मिस्सं पचसं० ३-११ | मिस्से पुग्वजुगले २४३ शास० ति० १२ वा० धरणु० ३२ गो० जी० १५ यास० ति० ३ अदिस ० ६६८ लद्धिसा० १६६ गो० जी० ६ गो० जी० ६६४ गो० क० ८०४ कम्मप० १४६ प्राय० ति० ३-६ श्राय० ति० १४-१ श्राय० ति० १८-२२ श्राय० ति० २३-७ भ० श्रारा० १६८६ याय० ति० ६-८ आय० ति १६-२ श्राय० ति० ८-३ श्राय० ति० १४-२ जंबू० प० २ - १४३ जंबू० प० ३-२४२ पाहु० दो० ४८ प्रास० ति० २५ श्रास० ति० ४४ लद्धिसा० १२८ सिद्धत० २५ पंचसं० ० ५-३४४ पचस० ३-३० पचस० २-४०० गो० क० ५८६ गो० क० ५६० (क्षे०) गो० क० ५३७ गो० क० १०७ गो० क० ३२८ क्षे० १ लद्धिसा० १२५ गो० जी० ३०१ लद्धिसा० १०७ गो० क० ४५६ सिद्धत० ६ गो० क० ६२६ " Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ पुरातन-जैनवाक्य-सूची मिस्से दस सरणीए सिन्द्वंत. ३१ | मुत्ता गिराववेक्खा मूला० ७६७ मिस्से पुण्णालाओ गो० जी० ७१७ मुत्ताहारं णेमिस- तिलो० सा० ७०६ मिस्सो त्ति वाहिरप्पा रयणसा० १४६ मुत्तिविहूणउ गाणमउ परम० प०२-15 मिहिरो महंधयारं रयणसा०५२ मुत्ते खंधविहावो दन्वस० गय० ७८ तिलो०प०४-५४३ मुत्ते परिणामादो दन्दस० णय० २६ मिहिलापुरीए जादो तिलो. प० ४-५४५ | मुत्तो एयपदेसी । दव्वस० णय० १०० मीणालि-मेस-कुभे प्रायः ति० १७-१३ मुत्तो फामदि मुत्तं परिय० १३४ मीमसइ जो पुब्ब* पचसं० १-१७४ मुत्तो स्वादिगुणो पवयणसा०२-८१ मीमांसदि जो पुन्य * गो० जी० ६६१ मुरजायारं उड्द तिलो० प० १-१६६ मुक्क सुणह-मजर-पमुह सावय० दो० ४७ मुरयं पततपक्खी तिलो० ५० ५-४६८ मुक्कह कूडतुलाइयहँ सावयदो. मुरवदले सत्तमही तिलो० सा० १४४ मुक्का मेरुगिरिंदं तिलो० ५० ४-२०८८ मुरवायारो जलही तिलो० सा० १०॥ मुक्को वि गरो कलिणा भ० श्रारा० १३२७ | | मुवउ ममाणि ठवेवि लहु सुप्प० दो० १० मुक्खट्टी जिदणिद्दो मूला० ६५१ मुसलाई लंगलाई तिलो० ५० ४-१४३३ मुक्खस्स वि होदि मदी भ० पारा० १७३० । मुहजीहं चित्र किएहं रिट्ठस. २८ मुक्खं धम्मज्झाणं ____ भावसं ० ३७१ मुहणयणदतधोयण मुला०८३७ मुक्खु ण पावहि जीव तुहुँ परम०प० २-१२४ मुहतलसमासपद्धं जंबू०प०१५-105 मुक्खो विणासरूवो तञ्चसा० ४८ मुहभूमिविसेसेण य जवृ०प०३-२१२ मुच्छारंभविमुकं पवयणसा० ३-६ मुहभूमिविसेसेण य जबू०१०१०-२१ मुज्झदि वा रजदि वापवयणसा० ३-४३ मुहभूमीण विमेसे। तिलो० ५० ४-१७६४ मुट्ठिपमाणं हरिदाछेदपि० १३ | मुहभूमीण विसस तिलो० सा० ११४ मुणिऊरण एतदद्वं पंचत्थि० १०४ | मुहभूविसेसमद्धिय तिलो० प०४-१७६१ मुणिऊरण गुरुवकज्ज वसु० सा० २६१ मुहभूसमासमद्धिय तिलो० ५० १-१६१ मुणि-कर-णिक्खित्ताणिं तिलो० प० ४-१०८० मुहमंडवेहि रम्मो तिलो. प० ४-१८ मुणि-तिउणा दिसि गया श्राय० ति० ३७-१२ . मुहमंडवस्स पुरदो तिलो०प०४-१८६१ मुणिदपरमत्थसारं जबु० ५० ११-३६५ मुहमंडवाण तिराहें जवृ० ५० ५-३४ मुणि-पाणि-संठियाणिं तिलो० ५० ४-१००२ मुहमूले वेहो वि य जंवू० ५० १०-१३ मुणिपुंगवो सुभद्दो सुदख० ७६ मुह वि लिहिवि सुत्तउ सुणह सावय० दो० ४२ मुणिभोयणेण दव्यं भावसं० ५६७ | मुंडियमुंडिय मुंडिया पाहु० दो० १३५ मुणि वयणइ मायहि मण सावय० दो० १०८ मुंडु मुंडाइवि सि(दि)क्ख धरि पाहु०दो०१५३ मुणिवरविंदहँ हरि-हरहँ, परम० ५० १-११० मूगं च ददुरं चावि मुगिसंखा पंचगुणा माणसा० २३ मूढत्तयसल्लत्तय रयणसा० १५० मुत्तपुरीसे रेदे | मूढा जोवइ देवल पाहु० दो० १८० तिलो०प०४-१०७० मूढा देवलि देउ णवि जोगसा० ४४ मुत्तममुत्तं दव्यं णियमसा० १६६ / मुढा देह म रजिया पाहु० दो० १०७ मुत्तं आढयमेत्तं भ. श्रारा० १०३५ मूढा सयलु वि कारिमउ परम०प० २-१२८ मुत्तं इह मईयाणं ४ णयच० ५४ | मूढा सयलु वि कारिमउ* पाहु० दो० १३ मुत्तं इह महणाणंx दव्वस०-णय० २२६ । मुढा सयल विकारिमउ पाहु० दो०५२ मुत्ता इंदियगेझा पषयणसा० २-३६ | मृद वियक्खणु भु परु परम० ५० ५-१३ मुत्ता जीवं कायं वसु० सा० ३४ | मूढो वि य सुदहेढुं दव्वस० गय० ३४४. मूला० ६०७ छेदस० ८२ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी २४५ - मूल-उणाली-भिस-लहसुण- सावय० दो० ३४ | मुले कंदे छल्ली गो० जी० १८७ मूलरिवदी बोलीणो छेदपि० २६२ | मूले दिट्ठम्मि पुणो आय. ति० १८-६ मूलगपीठणिसरणा तिलो० सा० १००२ मूले दिढे उडिए श्राय. ति० ५-१६ मूलगुणउत्तरगुणे मूला० ५० मूले बारस मज्झे निलो० प० ४-१६ मूलगुण छिण य मोक्खपा० १८ | मूले बारह जोयण जंबू० ५० १-२७ मूलगुणं संठाणं छेदपिं०४ मूले वारह जोयण जबू० ५० १०-१८ मूलगुणा इय एत्तड सावय० दो० ५३ मूले मज्झे उवरिं तिलो. प० ४-२२२ मूलगुणा वि य दुविहा छेदस०७ | मूले मज्झे उवरिं तिलो०प०४-२२५ मूलगुणेसु विसुद्ध मूला० १ । मूले मज्झे उवरि जबू०प०४-२५ मूलग्गपोरबीजा* मूला० २१३ / मूले सयमेयं खलु जंबू०प० ६-४६ मूलग्गपोरबीजा * गो० जी० १८५ मूले सहस्समेयं जबू० प०६-१७ मूलग्गपोरवीया * पंचस० १-८१ | मूलेसु य वदणेसु य जबू० प० १०-५ मूलट्ठिदिअजहएणो पचस०४-४१४ | मूलेसु होति वीसा जबू०प०२-२४ मूलणिमेण पज्जव सम्मइ०१-५ | मूलोघं पवेदे गो० क० ३२० मूलधणे पक्खित्ते जंबू० ५० १२-८, मूलोवरिभाएसुं तिलो० प०४-१७०५ मूलपयडीसु एव पचस० ५-७ मूलोवरिम्मि भागे तिलो०प०५-१४३ मूलप्फलमच्छादी तिलो प०४-१५३५ | मूलोवरि सो कूडो तिलो. प० ४-१९८१ मूलम्मि उवरिभागे तिलो० ५० ४-२५४६ मेघकरा मेघवदी जबू० प०४-१०६ मूलम्मि चउदिसासुं तिलो० ५० ६-३० मेघप्पहेण सुमई तिलो०प०४-५२६ मूलम्मि चउच्चीस रिट्ठस० २५८ मेघमुहणामदेवो जबू० प० ७-१३४ मूलम्मि य उवरिम्मि य तिलो० ५० ५-५६ मेघहिमफेणउक्का- भ० श्रारा० १०६० मूलम्मि य सिहरम्मि य तिलो. १० ४-२७७० मेघाए णारइया तिलो०प०२-११७ मूलम्मि रुंदपरिही तिलो०प०८- मेच्छमहिं पहिरे(दे)हिं तिलो० ५० ४-१३४४ मूलसरीरमछडिय ___ गो० जी० ६६७ मेरुकुलसेसभूमी अगप० ३-३ मूलसिहराण रुदं तिलो० ५० ४-२७६६ मेरुगिरिपुव्वदक्षिण- तिलो० ५० ४-२१३४ मूल छित्ता समणो मूला० ६१८ मेरुगिरिभूमिवासं तिलो० सा० ७५६ मूल मज्झेण गुण जबू० प०११-११० मेरुणरलोयबाहिर- तिलो. सा. ६३६ मूलहि दु विक्खभोजबू० १० ११-२० मेरुतलस्स य रुंदं तिलो. प०४-२५७६ मूलादो उवरितले . तिलो० प०८-४०० मेरुतलस्स य रुद तिलो. प० ४-२५७६ मूलु छडि जो डालि चडि पाहु० दो० १०६ मेरुतलादु दिवड्ढ तिलो. सा. ४५८ मूलुण्हपहा अग्गी + गो० क० ३३ मेरुतलादो उवरि तिलो० ५० १-२७८ मुलुण्हपहा अग्गी + कम्मप०६७ मेरुतलादो उवरिं तिलो०प०८-११८ मूलुत्तरगुणधारी छेदपिं० २१ मेरुप्पदाहिणेणं तिलो. प०४-१८२६ मुलुत्तर तह इयरा दव्वस० णय०८० मेरुबहुमज्झभागं तिलो. प. ४-२०६८ मूलुत्तरपयडीओ बा० अणु० ८५ मेरुमहीधरपासे तिलो०प०४-२००१ मूलुत्तरपयडीण गो० क.६७ मेरुव्व णिप्पकंपा भ० श्रारा० १५३६ मूलुत्तरपयडीण गो० क० ६८ मेरुसमलोहपिंड तिलो० प० २-३२ मूलुत्तरपयडीणं गो० क. ६२७ तिलो० प० २-३३ मूलुत्तरसमणगुणा दव्वस० गय० ३३२ तिलो०प०१-२२५ मूलुत्तरुत्तरुत्तर रयणसा० १३३ । मेरुस्स य इह परिधी जबू०प०४-३४ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ • पुरातन-जेनवाक्य-सूचा मेरुस्स हिट्ठभाये कत्ति० अणु० १२० । मात्तणं वहिविसयं दव्वस० णय० ३८१ मेरुवमाणदेहा तिलो. प० ४-१०२५ | मोत्तणं मिच्छतियं दवस. य०३३६ मेरू विदेहमझे तिलो. सा. ६०६ मोत्तण मेरुगिरि । तिलो० प०४-२५४५ मेल्लिवि सयलअवक्खडी परम०प०१-११५ | मारसुझकोकिलाणं तिलो०प०४-२००७ मेसास्समहिसखरकर छेदपि० ३३ | मोहक्खयेण सम्म वसु० सा० ५३८ मेहमुहा विन्नमुहा जबू० ५० १०-५७ ल द्विसा० २३१ मेहलकलावमणिगण- जंबू० प०३-१८६ मोहगपल्लासंहिदि-४ लदिसा० ४१६ मेहंकर मेहवदी तिलो० सा० ६२७ / मोहग्गिणादिमहदा भ० श्रारा० ३११ मेहावरुद्धगयणं जंबू० ५० ७-१३७ / मोहग्गिणा महंते मूला० १०६ मेहावि-णरा एएण वसु० सा० ३५२ | मोहणकम्मरसुदया समय० ६८ मेहावीणं एसा वसु० सा० २४४ | मोहणिकम्मरस खये जंबू० ५० १३-१३१ मेहुणमडणोलग- तिलो० प० ४-३५ / मोहमयगारवेहि य भावपा० १२० मेहुणसएणारूढो भावस० ३६० | मोहरजअंतराये । दवस० गय० २७२ मोक्खगइगमणकारण- रयणसा. १४६ | मोहविवागवसादो कत्ति० श्रगु०६ मोक्खगया जे पुरिसा या० अणु० ८६ | मोहस्स असखेजा लद्धिसा० ३२७ मोक्खणिमित्तं दुक्ख रयणसा० ६६ मोहस्स पल्लबंधे ल द्विसा० ३३० मोक्खपहे अप्पाणं णियमसा० १३६ मोहस्स य ठिदिबंधो लदिसा० ३३६ मोक्खपहे अप्पाणं समय० ४१२ मोहस्स य बंधोदय गो० क० ६५२ मोक्खं असदहतो समय० २७४ | मोहस्स सत्तरी खलु मूला० १२३८ मोक्खं गयपुरिसाणं णियमसा० १३५ मोहस्स सत्तरी खलु भावस०३४२ मोक्खाभिलासिणो संज- भ. श्रारा. १६३६ / मोहस्स सत्तरी खलु पंचस०४-३८६ मोक्खाभिलासिणो संज- भ० पारा० १६१३ | मोहस्सावरणाणं मूला० १२४२ मोक्खु जि साहिउ जिणवरहिं परम०प०२-११८ मोहं वीसिय तीसिय लद्धिसा०३३२ मोक्खु ण पावहि जीव तुहॅ पाहु०दो० ११ मोहाऊणं हीणा पचस० ४-२१५ मोक्खु म चिंतहि जोइया परम० प० २-१८८ मोहु ण छिज्जइ अप्पा रयणसा० ६७ मोग्गिलगिरिम्मि य सुको- म० श्रारा० १५४० मोहु णु छिज्जउ दुबलउ सावय० दो० १३५ मोणं परिच्चइत्ता __ जंबू० ५० १०-७६ मोह विलिन्नइ मणु मरइ परम०५०२-१६३ मोणाभिग्गहरिणरदो भ० श्रारा० २०५६ | मोहु विलिज्जइ मणु मरइ पाहु० दो० १४ मोत्तूण अट्टरुदं णियमसा० मोहेइ मोहणीयं + भावसं० ३३३ मोत्तूण अणायारं णियमसा० ८५, मोहेइ मोहणीय + कम्मप०३१ मोत्तूण असुहभावं बा०'श्रणु० ५४॥ मोहेण व रागेण व पवयणसा०५-८४ मोत्तूण कुडिलभाव बा० श्रा० ७३ मोहे मिच्छत्तादी गो० क. २०२ मोत्तूण जिणक्खाद मूला० ७२६ मोहे सता सव्वा पचस०५-३३ मोत्तूण णिच्छयटुं समय० १५६ मोहोदयेण जीवो भ० भारा०४० मोत्तूण वत्थमेत्तं वसु० सा० २६१ मोहोदयेण जीवो भ० श्रारा०१००१ मोत्तूण रागदोसे भ० श्रारा० ४५१ मोहो रागो दोसो पचत्यि०१३ मोत्तूण वयणरयणं णियमसा० ८३ मोहो व दोसभावो दव्वस० गाय०३०८ मोत्तूण सयलजप्पम णियससा०६५ मोत्तूण सल्लभाव णियमसा०८७ मोत्तूणं बहिचिंता दव्वस० णय. ३५७ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणा य,र २४७ यमक मेघगिरि वा तिलो० ५०४-२०६७ | रत्तवडचरगतावस मूला० २५१ याजकनामेनानन- गो० जी० ३६३ | रत्तवडचरगतावस मूला० २५६ रत्त णाऊण णरं वसु० सा० ८६ रत्ताणदिसजुत्तो जबू० प०८-४३ रत्ताणदिसंजुत्तो जबु०प०६-१३८ रइओ तिलगदेसे सुदख० ८६ | रत्ताणदीपजुत्तो जबू०प०६-१५८ रइओ दसणसारो दसणसा० ५० रत्ताणामेण णदी तिलो० प०४-२३६७ रइजिभो य दप्पो धम्मर० ११६ ! रत्ता मत्ता कंतासत्ता भावसं० १८३ रइयं बहुसत्थत्थं रिट्ठस० २५५ | रत्ता-रत्तोदाओ जंवू० ५० ६-६४ रक्खसइदा भीमो तिलो. प० ६-४५ रत्ता-रत्तोदामो तिलो. प०४-२२६३ रक्खति गोगवाइ भावस० ५७३ | रत्ता-रत्तोदाओ तिलो० ५०४-२३०२ रक्खतो वि ण रक्खइ ढाढसी०८ | रत्ता-रत्तोदाश्रो जंबू० प० ७-६७ रक्खा भएसु सुतवो भ० श्रारा० १४७१ रत्ता रत्तोदा वि य जवू० ५० ७-६१ रक्खाहि बंभचेरं भ. श्रारा०८७७ रत्तारत्तोदाहिं तिलो. प०४-२२६२ रजदणगे दोरिण गुहा तिलो० ५० ४-१७५ रत्तारत्तोदेहि य जबू०प०७-७२ रजसेदाणमगहणं * मूला० ६१० रत्तारत्तोदेहि य जबू०७-१०४ रजसेदाणमगहणं ** भ० पारा०६८ | रत्तारत्तोदेहि य जंबू०प०८-८ रज्जन्भंसं वसणं वसु० सा० १२५ जवू० प०८-१६ रज्ज खेत्तं अधिवदि- भ० श्रारा०५१७ जबू०प०८-६६ रज्जं पहाणहीणं रयणसा० ८३ | रत्तिगिलाणभत्ते छेदस० २६ रज्जुकदी गुणिदव्या तिलो०प०६-५ रत्तिदिणाणं भेदो तिलो०प०४-३३२ रज्जुकदी गुणिदव्वा तिलो०प०७-५ रत्तिदिवं पडिकमणं बा० श्रणु० ८८ रज्जु घणद्धं णवहद- तिलो० प० १-१६० रत्तिं एगम्मि दुमे भ० श्रारा० १७२० रज्जुघणा ठाणदुगे तिलो० ५० १-२१२ रत्तिंचरसउणाणं मूला० ७६१ रज्जुघणा सत्त च्चिय तिलो० ५० १-१८६ रत्तिंजागिज पुणो वसु० सा० ४२२ रज्जुतयस्सोसरणे तिलो० सा० ११६ रति रत्तिं रुक्खे भ० श्रारा० १७५७ रज्जुदुगहाणिठाणे तिलो. सा. ११६ रत्तीए ससिबिंचं तिलो० प० ४-४७१ रज्जुस्स सत्तभागो तिलो० ५० १-१८४ रत्तें वत्थे जेम बुहु परम०प०२-१७८ रज्जूए अद्धण तिलो० ५०८-१३३ रत्तो बंधदि कम्म समय० १५० रज्जूए सत्तभागं तिलो. प०१-१९७६ पवयणसा०२-८७ रज्जूच्छेदविसेसा जंबू० ५० १२-६२ | रत्तो वा दुट्ठो वा भ० श्रारा ८०२ (२०) रज्जूदलिदे मंदर तिलो० सा०३५२ रदणाउला सवग्धा व भ० श्रारा० ६७५ तितो. ५०१-२३६ रदण-सक्करा-बालुय- ज० प० ११-११३ रणभूमीए कवचं भ० श्रारा० १८६३ रदिअरदिहरिसभयउस्सुग- भ० श्रारा० ७७६ रणे तव करतो धम्मर० १०३ भावस० २३७ रतिपियजेट्ठा इंदा तिलो० सा० २५८ | रमणीयकव्वडजुदो जबू० प०८-१४० रतिपियजेट्ठा ताणं तिलो० ५० ६-३५ । रमणीयगामपउरो जबू०प०८-१४१ मं Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ मि सो सत्तम रम्मकभोगखिदीए रम्म भोगखिदीए रम्म भोगखिदीए रम्मकविजओ रम्मो रम्माए सुधम्माए राधारपदी रम्मायारा गंगा रम्मारमणीयाओ रम्मुज्जाणेहिं जुदा कलसेहिं तेहिं य रयणकवाडवरावर यखचिदाणि तारिण रहाणं छंडइ रयरणत्तयकरणत्तय रयणत्तयजुत्ताणं रयणत्तयपढमाए रयणत्तयमाराहं रयणत्तयमेव गणं रयणन्तय-सजुत्त जिउ रयणत्तय-सजुत्ता रणसंजुत्त रयणत्तयसिद्धीए पुरातन-जैनवाक्य-सूची | रयणप्पहाए ओयणपहा तिहाररणपहावणीए रयणमए जगदीए रयणमयथंभजो जिद श्राय० ति० ४-२१ तिलो० प० ४-२३३४ तिलो० प० ४ - २३३८ तिलो० प० ४ - २३४७ तिलो० १०४ - २३३३ तिलो० प०८-४०८ | रयणमयपडलियाए तिलो० प०८-५६४ | रयणमयपीठसोहं तिलो० प० ४-२३३ | रयणमयभवणणिव हो तिलो० प० ५–७= | रयणभयवरदुवारो तिलो० प० ४ - १३६ | रयणमयवि उलपीढ़ रयणमयवेदिविहा जवू० प० ४-२७६ तिलो० सा० ७१६ | रयणमयवेदिरिणवहा तिलो० प० ४-८६२ | रयणमय वेदिरिणवहा भावसं० ८६ रयणसा० १५१ रयणमया पल्लागा रयणमया पल्ला गा रयणमया पामादा ० गु० ४५६ वसु० सा० ४६८ रयणमया बहुविहसो ? मोखा० ३४ | रयणमिह इंदणीलं रयणसा० १६३ रयणं चउपपहे पिव जोगसा० ८३ | रयणं च संखरया रयणाकरेक्कचमा यिमसा० ७४ कत्ति० गु० १६१ रयणाण आयरे भावति० १४ रयणाण महारयणं रयणसा० ६५ | रयणादिछट्टमतं मोक्खपा० ३६ रयणादिणारयाणं रयत्तस्स वे रयणत्तयं पि जोई रयणन्तयं वट्टइ रयणन्तये वि लद्धे रयणत्ते (त्तए) अलद्धे यदी दियर दहिउ रयणपुरे धम्मजिणो रयणप्पणी रयणप्पहचरमिंदययहपदी सुं रहपंकडू रयणप्पहपुढवी यह पुढवीए पपुढवीए पुढी पुढची दो रयणप्पह सक्कर पह कत्ति० दव्वस० ४० रयणायररयणपुरा कत्ति० श्रृणु० २६६ | रयणायरेहि जुत्तो भावपा० ३० | रयरणाहरणविहूसियजोगसा० ५७ यरिणदिणं ससिसूरा रयरिणविरामे समायतिलो० प० ४-५३६ तिलो० प० २ -१०८ | रयणिसमयहि ठिच्चा तिलो० प० २ - १६८ | रयणीय पढमजामे तिलो० प० २-८२ रयणुव्व जलहिपडियं तिलो० सा० २२२ | रविश्रयणे एक्क्के तिलो० सा० २०२ रविकत वेदविहा तिलो० प० ६-७ | रविखडादो वारस - तिलो० प० २-२१७ रविचदवादवे उत्रियाणतिलो० प० ३-७ | रविचंदं तह तारा तिलो० सा० १५२ | रविचंदा गहणं वसु० सा० १७२ | रविचंदारण पिच्छइ 1 र मूला० ११५२ तिलो० सा० १४६ तिलो० प०२-२०१ जवृ० प० ५- ३१ तिलो० प०४-२०० तिलो० प० ४- १३११ जवृ० प० ५-६८ जबृ० प० ६-५३ जंवृ० प० ३-१५६ जंबू० प० ५-४२ जंवृ० प० २-४३ जवृ० प० ४-६१ जवृ० प० ६-३० तिलो० प०८-२५६ जंवृ० प० ४ - १६० जंबू० प० १-४४ जंबू० प० ६ १०३ पचयणसा० १-३० कत्ति ० ० २६० तिलो० प० ५- १७४ तिलो० प० ३-१४४ तिलो० प० ४- १३५ कत्ति० ० ३२५ तिलो० प० २ - १५६ तिलो० प०२-२८८ तिलो० प० ४- १२५ जवू० प०६-२५ जबू० प० ४-१८५ भावस० ५६१ छेदपि ० ५७ वसु० सा० २८५ रिट्स० १८३ कति श्र० २६७ तिलो० प० ७-५०० जबू० प० ६-६७ तिलो० सा० ४०५ भ० श्रारा० १७३८ रिट्स० ४७ रिहस० १२४ रिहस० ५१ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी २४६ रविविबा सिग्धगदी तिलो० ५०७-२६६ / रागेण य दोसेण य भ. श्रारा० १९६२ रविमंडल व्ब वट्टा तिलो० ५० ४-७१४ रागेण व दोसेण व णियमसा० ५७ रविमंडल व्व वट्टो जबू० ५० १-२० मूला० ५८ रविमेरुचंदसायरभावसं० ६६६ | रागेण व दोसेण व मूला० ६४३ रविरिक्खगमणखडे तिलो० ५० ७-५१२ रागो(ग) फरेदि णिच्चं लिंगपा० १७ रवि-ससि अंतर डहरं जवू० ५० १२-१०० रागो जस्स पसत्थो पचस्थि० १३५ रवि-ससि-गह-पहुदीणं तिलो० ५० ५-१००१ रागो दोसो मोहो जबू०प०१३-४६ रवि ससि जदु त्ति णामा जवू० ५० ४-१५२ रागो दोसो मोहो बा० अणु० ५२ रसइडिसादगारव- जंवू० ५० १०-६६ रागो दोसो मोहो भ. श्रारा० ६२० रसखडफडयाओ लदिसा० ४६२ रागो दोसो मोहो मूला० ७२८ रसगदपदेसगुणहाणिलखिसा० ८१ रागो दोसो मोहो मुला० ८७८ रसठिदिखडाणेव लद्धिसा० ४८४ रागो दोसो मोहो मूला० ८८० रसठिदिखंडुक्कीरण- लद्धिसा. १५३ रागो दोसो मोहो समय० १७७ रसपीदय व कडयं भ० श्रारा० ५८३ रागो दोसो मोहो समय० ३७१ रसवंवझवसाणट्ठा गो० क.१६३ रागो पसत्थभूदो पवयणसा०३-५५ रसरुहिरमसमेट्ठि-* घा० अणु० ४५ | रागो लोभो मोहो भ० श्रारा० ११२१ रसरुहिरमंसमेददि-* रयणसा० ११७ रागो हवे मारणे भ. श्रारा० ११७० रससंतं आगहिदं लद्धिसा० ४६१ राजीणं विश्वाले तिलो०प०८-६१३ रंगगदणडो व इमो भ० भारा० १७७४ रादिणिए उणरादिणि- मूला० ३८५ रंगंततुरगेहि य जंवू० १० ३-१०५ | रादि णियमे सुत्तो छेदस० २३ रंगतवरतुरगा जवू०प०२-१६० रादो(दी)दिया व सुविणं- छेदपिं० ७५ रगावलिं च मज्झे वसु० सा० ४०६ रादो दु पमजित्ता मूला ३२३ रंजेदि असुहकुणपे मूला० ७२६ रामसुआ वेरिण जणा णिव्वा० म०६ रंडा मुडा चडी भावसं. १८२ रामस्स जामदग्गिस्स भ० धारा० १३६३ राइणिय अराइणीएसु म० श्रारा० १२७ राम-हणू सुग्गीवो णिवा० भ०८ राईभोयणविरो कत्ति० अणु० ३०६ रामा-सुग्गीवहिं तिलो. प० ४-५३३ राएँ रंगिए हिय वडए परम० ५०१-१२० रायगिहे णिस्सको+ भावस० २८० राप्रो हं भिच्चो हं कत्ति० अणु. १८७ रायगिहे णिस्संको+ वसु० सा० ५२ रागजमं तु पमत्ते गो० क० ८२६ । रायगिहे मुणिसुन्धय- तिलो. प० ४-५४४ रागदोसो णिरोहित्ता मूला० ५२३ रायजुवतंतराए तिलो० सा० २२४ रागहोसकसाये य मूला० १०४ | रायतयल्लहिं छहरसहि पाहु. दो० १३२ रागद्दोसविरहियं जवू०प०१३-६४ परम०प०२-१०० रागद्दोसाभिहदा भ. श्रारा०५४२ उच्चसा०२० रागविवागसतण्हा- भ० श्रारा० ११८३ मूला १४ रागा(या)इभावकम्मा + णयच०८० रायम्हि य दोसम्हि य* समय: रागादिभावकम्मा + दवस० णय० ४०३ रायम्हि य दोसम्हि य * रागादिसंगमुक्को विलो० ५० १-६२ राय-रोस वे परिहरिवि रागादोहिं असच्चं मूला० ६ | राय-रोस वे परिहरिवि * 100 रागादीहिं असच्चं धम्मर० १४४ रायगणबहुमज्झे दियो ५०५-१८८ रागी बंधइ कम्म मूला० २४७ । रायंगणबहुमज्झे rit. १०८-३६६ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० पुरातन-जैनवाक्य-सूची रायगणबहुमज्झे तिलो. प० ७-४२ रित्ताहिमुहे धूमे श्रायः ति० १-२० रायंगणवाहिरए निलो० प० ७-६२ रिद्धीए कारणं ताव आय० ति०१७-१ रायंगणबाहिरए तिलो० प०७-७६ रिद्धी हु कामख्वा तिलो० ५० ४-१०२३ रायंगणभूमीए तिलो प०८-३५७ रिसभ(ह)मरे। य जुत्ता जवृ० ५० ४-२२३ रायंगणस्त वाहिर तिलो. प० ५-२२३ / रिसभगिरिरुपपव्वद- जवू०प०६-१४६ रायंगणस्स मज्झे तिलो. प० ७-७१ रिसभणगा चरतीसा जवू० ५० १-७ रायाइदोसरहिया ढाढसी० २६ रिसहाइवीरअतह सुदख०१ रायाइमलजुदाणं रयणसा० १०४ रिसहादीण चिण्हं तिलो० ५० ४-६०३ रायाईहिं विमुक्कं যামা ২৭ रिसहेसरस्स भरहो तिलो० ५० ४-१२८३ रायाचोरादीहिं य मूला० ४४३ रिसिकरचरणादीणं तिलो० ५० ४-१०६६ रायाण होइ कित्ती श्राय० ति० १५-१ रिसि दिय वरवदणसयण(असण) सुप्प०दो० ४६ गयादिकुडुबीणं भ० श्रारा० १६११ रिसिपाणितलणिखित्तं तिलो. प० ४-१०८४ रायादिमहड्ढियया- भ० श्रारा० १६७६ रिसिसघ छडित्ता जबू०प० १०-६६ रायादिया विभावा तच्चसा०१८ रिसि-सावय-वालाणं छेदस० १५ रायादीपरिहारे णिययसा० १३७ रिमिसावयमूलुत्तर छेदपि०२ रायाधिरायवसहा तिलो०प०४-२२८५ | रुक्ग्वमइंदा य खरो थाय० ति०२१-१ रायाधिरायवसहा जवृ० प० ७-६६ रुक्खम्मि होइ सलिलं थाय० ति० १६-३ रायापराधकारी छेदपि० २७७ रुक्ख सयम्मि ससिणो श्रायः ति० १६-१७ राया वि होइ दासो भ० श्रारा० १८०१ रुक्खाण चउदिसासु तिलो० ५० ५-१६०७ राया हु णिग्गदो त्ति य समय० ४७ / रुक्खो दु सीहवसहे रिटम० ००६ रासीण य आयाण य श्राय० ति०४-१० | रुचक मदरसोकं तिलो० सा० ४८५ राहुअरिट्ठविमाणध तिलो० सा० ३४० रुचग रुचिरंक फलिहं तिलो० सा० ४६५ राहुअरिट्ठविमाणा तिलो० सा० ३३६ रुजगरजगाह हिमव तिलो. सा. ६४६ राहूण पुरतलाणं तिलो० प० ७-२०६ | रुजगवरणामदीयो तिलो० ५० ५-१६ रिउतियभूयं अयणं भावसं०३१५ रुणरुणरुणंतछप्पय- तिलो. प०४-६२३ रिउपूरदाए वड्ढइ (उत्तरार्ध *) रिटस० २१६ रुद्दक्ख रुहदरिसिण- तिलो० सा० २७८ रिक्खगमणादु अधियं तिलो० ५० ७-४६७ रुद्दट्टवजण पि य धम्मर० १५३ रिक्वाइ कित्तियाई प्राय० ति० १६-१४ रुद्ददुग छस्मरणा तिलो. सा.८४६ रिक्खाण मुहुत्तगदी तिलो० प० ४-४७६ रुद्द कसायसहिय भावस०३६१ रिगवेदसामवेदा मूला० २५८ रुद्दा य कामदेवा जबू, प०२-१८२ रिट्ठसुरसमिदिवम्हं तिलो. सा० ४६७ रुदावइ अइदा तिलो० ५० ४-१४६८ रिट्ठाए परि(णि)धीए तिलो० प०७-२६६ रुदो परासरो मच्चाई- भ० श्रारा० ११०१ रिट्ठाणं णयरतला तिलो. प०७-२७४ दव्वस० गय०३८२ रिट्ठादी चत्तारो तिलो० ५०८-२४१ रुद्धविमुक्को चलियो श्रायति०२-३२ रिण पुच्छाए सीहो प्राय० ति० २३-५ रुद्धविमुक्को पायो श्राय० ति०२-१३ रिणमगोवंगतसं गो० क० ३०७ | | रुद्धासवस्स एवं मूला० ७४४ रिणमोयण व्य मण्णइ कत्ति० अणु ० ११० रुद्धेसु फसायेसु अ मूला० ७३६ रित्तस्स उवरि भरिय प्रायः ति० ३-६ रुद्धेसु णत्थि गमणं रिट्ठस० २१४ * पूर्वार्ध उपलब्ध न होने से उत्तरार्धका प्रथम चरण | रुद्धो रुद्धगहीओ। श्राय० ति० २-३३ दिया गया है। । रुद्धो रुद्धविमुक्को - श्रायः ति०२-३ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणा २५१ रुधिरं अंक फलिहं जबू० १० ११-२०८ रुवं णाण ण हवइ समय० ३६२ रुप्पगिरिस्स गुहाए तिलो० ५० ४-२३६ । रूवं पक्खित्ते पुण ज० प०१२-७४ रुप्पयसुवरणकसाइ- वसु० सा० ४३५ | रूव पि भणइ दव्वं + रायच०५६ सम्मिगिरिंदस्सोवरि तिलो. प० ४-२३४२ / रूव पि भणइ दव्वं + दव्वस० णय० २२६ रुहिर वस पूअ तह घय रिट्टस. १२६ | रुव सुभ च असुभं भ० श्रारा० १४१७ रुहिरादिपूयमस मूला० २७६ रुवाइय जे उत्ता दव्वस० गय०३३ रुहिरामिसचम्मट्ठिसुर सावय. दो० ३३ रूवाणि कटकम्मा- भ० श्रारा० १०५६ रुदद्ध इसुहीण तिलो० ५० ४-१८० रूवादिएहिं रहिदो पवयणसा०२-२ रुंद मूलम्मि सद तिलो० ५०४-२०६३ | रूवि पयगा सहि मय परम० प० २-११२ रुंदावगाढतोरण- तिलो. प० ४-१६६४ | रूविदियसुदणाणा तिलो०प०४-६६४ रुदावगाढपहुदि तिलो०प०४-२१२० गो०जी०११० रुदावगाढपहुदी तिलो प०४-२०७२ ल्वूणअट्ठ विरलिय जबू०प०४-१६८ रुदेण पढमपीढा तिलो. प. ४-८६५ जबू० प०१२-१७ रुधिय छिदसहस्से दव्वस० गय० १५५ | रुवणे अट्ठाणे जवू० ५० ४-२१६ रूआइपजवा जे सम्मइ १-४८ रूवेणोणा सढी तिलो० ५० ४-२६२३ रू उक्कासखिदीदो तिलो० ५० ४-६६५ रूवे पिडे पयत्थे ण कलपरिचये णिव्या० भ० ८ रूऊपएणोण्णभत्थ- गो० क० ६२६ रूसइ णिंदइ अराणे * पचस० १-१४७ रूऊणद्धाणद्धे गो० क० ६३० रूसइ गिदइ अण्णे * गो० जी० ५११ रूऊणवरे अवरुस्सु गो० जी० १०७ रूसइ तूसइ णिच्च तच्चसा० ३५ रूपसलावारस- तिलो० सा० ३१७ रूसउ तूसउ लोश्रो दसणसा० ५१ रूग्णाहियपदमिद- तिलो० सा० ३०६ रे जिय गुणकरि सहुहिं (१) सुप्प० दो० ३२ रूण इट्टपह तिलो० ५० ७-२२८ रे जिय तहु किं पि कार सुप्प० दो० १२ रूऊण इट्ठपह तिलो०प०७-२३८ | रे जिय तुअ सुप्पह भणइ सुप्प० दो० ८ रूऊण क छगुणं तिलो० प० ७-५२६ | रे जिय पुव्व ण धम्मु किउ सावय०दो० १५४ रूऊणं कोडिपयं श्रगप० २-७७ | रे जिय सुणि सुप्पहु भणइ सुप्प० दो० ५० रूऊपाउट्टिगुण तिलो० सा० ४१६ | रे जीवाणतभवे कल्लाणा० २ रूप्पगिरिस्स गुहाए तिलो० ५० ४-२३६ रेद पस्सदि जदि तो छेदपिं० ५८ रूप्पगिरिहीणभरहव्या- तिलो. सा० ७६७ | रे मूढा सुप्पहु भणइ सुप्प० दो०५३ रूप्पसुवरणयवज्जय- तिलो० सा० ३०६ रेवाणईए(इ) तीरे णि व्वा० भ० ११ रूवगया पुण हरिकरि- अगप० ३-६ | रे हियडा सुप्पहु भणइ सुप्प० दो० ७१ रूवत्थ पुण दुविहं भावस० ६२४ रोगजरापारहीणा तिलो०प० ४-३६ रूवत्थं सुद्धत्थ बोधपा० ६० रोगजरापरिहीणा जबू०प०२-१५३ स्व-रस-गध-फासा दव्वस० गय० ३० । | रोगजरापरिहीणा तिलो. प० ३-५२७ रूव-रस-गंध-फासा दवस० गय० १११ तिलो०प०४-१०७४ रूव-रस-व-फासा सम्मइ० ३-८ | रोगं कंखेज जहा भ. श्रारा० १२४६ ख्वविहीणेण तहा जबू०प० १२-५८ रोगं सडण पडणं तच्चसा० ४६ स्वसिरिगविदाणं __सीलपा० १५ रोगाण आयदण मूला० ८४३ रूवहियडवीससया गो० क० ८४१ रोगाण कोडीओ रिट्ठस. ७ रूवहियपुढविसख तिलो. सा. १७१ | रोगाण पडिगारा तिलो. प०८-२०२ रुवहु उप्परि रइ म करि- सावय० दो० १२६ । रोगाणं पडिगारो भ० श्रारा० १७७२ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ पुरातन-जैनवाक्य-सूची रोगादंकादीहिं य भ० भारा० ३६१ लक्खविहीणं रुंदं तिलो० प०५-२६५ रोगादंके सुविहिद भ० श्रारा० १५१५ लक्खस्स पादमाण तिलो. प० ४-५६६ रोगादिवेदणाओ भ० श्रारा० १७४८ | लक्खं चालसहस्सा तिलो० ५०४-२१७१ रोगा विविहा वाधाओ भ० श्रारा० १५८५ | लक्ख छच्चसयाणिं तिलो० ५० ७-१६० रोगेण वा छुधाए पवयणसा०३-५२ | लक्खं दसं पमाणं तिलो० ५०८-६७ रोगो दारिदं वा भ० श्रारा० १५५ लक्खं पंचसयाणिं तिलो० प० ७-११४ रोदण राहावण भोयण मूला० १६३ | लक्खं पंचसहस्सा तिलो. प०४-१२३६ रोमहदं छक्केसज- तिलो० ला० १०४ लक्खाणि अट्ठजोयण- तिलो० १० २-१४८ रोयगहियस्स कोई रिट्ठस० १६० / लक्खाणि एक्करणउदी तिलो० ५०८-२४० रोयाण य वाहीण य प्राय० ति०८-२ | लक्खाणि तिरिण सावय- तिलो०प० ४-१106 रोरुगए जेट्ठाऊ तिलो० ५० २-२०५ | लक्खाणि तिरिण सोलस-तिलो. प०४-१२१८ रोवंतह सुप्पहु भणइ सुप्प० दो०५८ लक्वाणि पंच जोयण- तिलो० ५० २-१५१ रोवंतह सुप्पहु भणइ सुप्प० दो० ५६ | लक्खाणि बारसं चिय तिलो० ५०८-६५ रोवंतह धाहाक्खेण सुप्प० दो ११ लक्खा य अहवीसा जवू० ५० ११-११ रोवंति य विलवंति य जंबू०प०११-१६० लक्खूण इहरुंदं तिलो० ५० ५-२६० रोसाइट्ठो गीलो भ० श्रारा० १३६० लक्खेण भजिदअंतिम- तिलो० ५० ५-२६२ रोसेण महाधम्मो भ. श्रारा० १४२३ लक्खेण भजिदसगसग- तिलो० ५० ५-२६१ तिलो०प०४-१४६ लक्खेणोणं रंदं तिलो० ५० ५-२४२ रोहीए रुंदादी तिलो० प० ४-१७३४ लग्गंति मक्खियाओ रिट्ठस० १३८ रोहीए समा बारस- तिलो० ५० ४-२३१० | लघुकरणं इच्छंतो गो० क०५७० रोही-रोहिदतोरण- जंवू० प०३-१७६ लच्छि वंछेइ गरो कत्ति० अणु० ४२० रोहेडम्मि सत्तीए भ० श्रारा० १५४६ लच्छीसंसत्तमणो कत्ति० अणु०१६ लज्जं तदो विहंसं भ. पारा० ३४० लज्जं तदो विहंसं भ.भारा०१०६६ लज्जाए गारवेण व भ० भारा०४६० लइओ चरित्तभारो सुदख०६ लज्जाए चत्ता मयणेण मत्ता तिलो०५० २-३६५ लउलीलवंगपउरा ___ जंवू० ५० ३-१२ लज्जा कुलक्कम छडिऊण वसु० सा० ११६ लक्खण-छंद-विवज्जियर परम० ५० २-२१० लज्जा तहाभिमाणं वसु० सा० १०५ लक्खणजुत्ता संपुषण- तिलो० प०३-१२६ लद्धक्खरपज्जायं अगप०२-६८ लक्खणदो णियलक्खं दव्वस० गय० ३६६ लद्धं अलद्धपुवं मूला. १६ लक्खणदो णियलक्खे दवस० णय०३४८ लद्धं जइ चरमतणू लक्खणदो तं गेएहसु दव्वस० गय० ३८१ लद्धं तिवारवग्गिद- तिलो० सा० ५१ लक्खणदो तं गेएहसु दवस० णय०३६० लद्धा जोयणसखा तिलो० ५० २-१६२ लक्खणदो तं गेएहसु दवस० गय०३६१ लद्धिअपुण्यतिरिक्खे प्रास. ति०३० लक्खणदो तं गेएहसु दवस० गय० ३१२ | लद्धिअपुरणतिरिक्खे लक्खण-बंजणकलिया जवृ० प०६-११३ | लद्धिअपुण्णमगुस्से लक्खरण-वंजणजुत्ता तिलो०प०५-२१० गो० जी० १२६ लक्खतियं वाणउदी तिलो. सा० ७४६ | लद्धिअपुरणे पुरणं लक्खद्धं हीणकदो(दे) तिलो०प०५-२५५ गोक० २५० लक्खमिह भरिणयमादा दव्यस० णय० ३८८ । लद्धी य संजमासंजमस्स क्सायपा०६ भावस० ४२३ भावति०५० __ भावति०६३ कसि. अणु० १३८ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी २५३ लद्धी य संजमासंजमस्स कसायपा० १११(१८) लवणोवहिबहुमज्झे तिलो० ५० ५-२४४६ लक्ष्ण इमं सुदणिहि मूना० ८७० लवणोवहिबहुमज्झे तिलो. ५० ४-२५१५ लद्धण चेयपाए(णं सो) धम्मर० २४ लवणो वारुणितोओ जबू० ५० ११-६५ लद्धण वे पिमित्तं दवस० णय० १५२ ल-व-र-य-ह-पचवण्णे आय. ति० २५-२ लद्धृण दुविहहेउ दवस० गय० ३१३ लहइ स भव्वो मोक्खं तञ्चसा० ३३ लद्धरण य सम्मत्तं ___ म. प्रारा० ५३ 1 लहिण देससंजम भावसं०५९६ लभृण वि तेलोकं भ० श्रारा० ७४३ लहिऊण संपया जो भावस० ५५७ लद्धृणं उबदेसं तिलो० ५०४-४६७ लहिऊण सुक्कझाणं भावसं० ४८६ लद्धृण णिहि एक्को णियमसा० १५६ । लहुमेव तं सुदियहं रिट्ठस. ६४ लद्धे ण होति तुट्ठा मूला०८१६ लहुरिय(ग) रिणं तु भणियं मूला० ४३६ लद्धेसु वि एदेसु अ मूला० ७१७ लहुसर-कगाइ-हुले प्राय० ति० १६-५ लद्धसु वि तेसु पुणो म० श्रारा. १८७० लहुसर-कगाइवरणा श्राय० ति०१-४६ लयदारुट्ठिसिलासम भगप० २-६४ लंघता जक्काले तिलो०प०७-४५१ लवजलधिस्स जगदी तिलो० प०४-२५१७ लघितो अहिणा म० श्रारा० १३२३ लवणदुगंतसमुद्दे तिलो० सा० ३२१ लतवइंदयदक्षिण- तिलो० प०८-३४४ लवणप्पहुदिचउक्के तिलो० प० ७-५६० / लंबससकरणमणुया जंवू० प०११-५२ लवणम्मि बारसुत्तरसय- तिलो० ५०७-५६७ लवंतकरणचामर- जबू० ५०४-२०५ लवण व्व सलिलजोए पारा० सा०८४ | लंबंतकुसुमदामा तिलो. ५०४-१६३८ लबणसमुदस्स तहा जव० प०१०-१७ | लंवतकुसुमदामो जवू० प०२-६३ लवणंबुरासिवासं तिलो० ५०७-४१७ लंबंतकुसुमदामो तिलो० प०४-१८६१ लवणंबुहि कालोदय- तिलो० सा० ३०० लवंतकुसुमदामो वसु० सा० ३६१ लवणंबुहिसुहुमफले तिलो० सा० १०३ लंबंतकुसुममाला जबू०प०८-८. लवणं व इणं(एस)भणियंश दन्वस०णय० ४१४ लंबंतकुसुममाला जंवू० प०६-१८४ लवणं व एस भणियंर णयच० ८६ | लवंतचम्मगोटं नवृ० १० ११-१६३ लवणं वारुणितियमिदि तिलो० सा० ३१६ लंबंतरयणकिंकिणि- तिलो० प०-२५५ लवणादिचउक्काणं तिलो. प०७-२६२ / लंबंतरयणघंटा जबू० प०४-२०५ लवणादिचउक्काणं तिलो. प० ७-५७६ / लवंतरयणदामो तिलो. प०४-१५४ लवणादीणं रुंदं तिलो. प०४-२५५६ लंबंतरयणपउरा जबू०प०३-१८२ लवणादीणं रुंदं तिलो० ५० ५-३४ लंबंतरयणमाला तिलो. प०६-१६ लवणादीणं वासं तिलो. सा. ३१० लाभतरायफम्म तिलो० ५०४-१०८७ लवणे अडयालीसा भावसं० ५३४ / लायएणरूवजोव्वण- जबू०प०३-१८७ लवणे कालसमुद्दे मूला. १०८१ | लायएणरूवजन्त्रिण जबू०प०४-८७ लवणे कालसमुद्दे जवू०प० ११-१८० लावएणसीलकुसला सीलपा० ३६ लवणे दिसविदिसंतर- तिलो० सा० ८६६ / लावाविजइ (?) जइ सा छेदपि. २६६ लवणे दुप्पडिदेक तिलो० सा० ३५८ | लाहहँ कित्तिहि कारणिण परम० प० २-६२ लवणोए कालोए कत्ति० अणु० १४४ लाहं गमणागमणं आय.ति०२-२८ लवणो य कालसलिलो जंबू. प. ११-११ लाहाइसु मुणिएसुं श्रायः ति०२४-१ लवणोदे कालोदे तिलो० ५० ५-३१ लाहालाहे सरिसो तच्चसा० ११ लवणोवहि-दीवेसु य जबू० ५० १०-८३ | लाहो सहजोणिगए रिट्ठस० २१५ लवणोवहिबहुमज्झे तिलो० ५० ४-२४०६ / लिहिदूणं णियणामं तिलो० ५० ४-१३५३ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " पुरातन-जैनवाक्य-सूची - वग्धादी भूमिचरा तिलो० ५०४-३६१ वज्जिदणीलमरगय- तिलो० ५०४-२१८१ वग्यादीया एदे म० श्रारा० १५३ वज्जेदि वंभचारी म. आरा०६४ वग्यो सुखेज मदर्य म. पारा० १२५८ वज्जेह अप्पमत्ता भ० भारा०३३० तिलो प०१-१५६ वज्जेहि चयणकप्पं म.भारा० २६५ वच्चंति मुहत्तेणं तिलो० ५० ७-४८१ वझो य णिज्जमाणे भ० पारा० १०६२ वच्छल्लं विणए य चारित्तपा० १० वटलवणरोचगोनग- तिलो. सा. ६८ वच्छासुवच्छा महावच्छा* तिलो०प०४-२२०५ वट्ट जु छोडिवि मउलियउ पाहु० दो० ११५ वच्छा सुवच्छा महावच्छा* तिलो. सा० ६८८ वट्टडिया अणुलग्गय] पाहु० दो० ४७ वजघणभित्तिभागा तिलो० सा० १७७ वट्टणकालो समओ भावस०३११ वज्जणमणगुण्णादगिह- भ० पारा० १२०६ वदि जो सो समयो णियमसा० १४३ वज्जभवणो य पामो जंबु. ५० ४-६० | वट्टयरयणेण पुणो जंब० ५०७-१३० वजमयदतपंती तिलो. प० ४-१८७१ | वटुंतं कगपहुदिसु आय०ति०७-१० क्जमयमहादीवे जबू० ५०३-१५५ वटुंति अपरिदंता भ.पारा०७१६ वज्जमयमूलभागा तिलो० सा० २८६ वट्टादिसरूवाणं तिलो० ५० ६-२१ वज्जमया श्रवणेहा जंबू० ५० ३-३८ | वट्टादीण पुराणं तिलो. सा. ३०० वज्जमहग्गिबलेणं तिलो. प०४-१५५० वट्टा सव्वे कूडा तिलो. सा० ०२३ क्जमुहदो जणित्ता तिलो० सा० ५८२ वट्टीण मज्मचंदे जब० ५० १२-५० वज्जयणं जिणभवणं गो० क० ६७० वट्टेसु य खंडेसु य सीलपा० २५ वज्जविसेसेण रहिदा कम्मप०६० वडवाए उप्परको भावसं० १६१ वज्जततूरणिवहा जंबू० प० ४-१७८ | वडवाणीवरणयरे । णिन्वा० भ० १२ वजंततूरणिवहा जंवू०प०६-१८५ वडवामुहपहुदीर्ण तिलो. सा० ६०५ वज्जं तप्पह कणयं तिलो. सा. १४५ वडवामुहपुवाए तिलो०प०४-२४६४ वजंति कडकडेहि य जव०प०११-१५६ वड्ढदि बोही संसग्गेण मूला०६१४ वज्जतेसुं मद्दल- तिलो. प०८-५८४ | वड्ढम्मि अंतराए छेदपि० ३३५ वज्जं पुंसंजलपति गो० क. ४२८ | वड्दतओ विहारो म० श्रारा० २८१ वज्ज वज्जपहक्खं तिलो० ५० ५-१२२ वडूढंतरायगे संजादे छेदपिं०६६ वज्जाउहो महप्पा वसु० सा० १६७ वड्दंतरायजादे छेदस०४१ वज्जिदमंसाहारा तिलो० प०४-३६५ वड्ढी दु होदि हाणी कसायपा० १६० (१०७) वज्जिय जंबूसामलि- तिलो० ५०४-२७६१ / वडढी वावीससया तिलो० ५०४-२४३५ वज्जिय तेदालीसं मूला० १२३६ वणदाह किसिमसिकदे मूला० ३२१ वज्जिय सयल-वियप्पइँ जोगसा० १७ | वणपासादसमाया तिलो० ५०४-२१८ वज्जियसयल वियप्पो कत्ति. अणु. ४८० वणवेइयपरियरिया वज्जिदणीलमरगय- जबू०प० २-६४ वणवेदिएहिं जुत्ता जंब० प०६-२८ वज्जिदणीलमरगय- जबू० ५०३-१८५ वणवेदिएहिं जुत्ता जंब० ५० १-४३ वज्जिदणीलमरगय- जंब० प० ४-४० वणवेदिएहिं जुत्ता जंब० प०१-१५ वज्जिदणीलमरगय- जंवू०प०५-२१ वणवेदिएहिं जुत्ता जब० ५० ११-५० वज्जिदणीलमरगय- जबू० ५०८-७३/ | वणवेदिएहिं जुत्ता वज्जिदणीलमरगय- जंबू० प० -११८ वणवेदिएहिं जुत्तो वज्जिदणीलमरगय- जंबू० ५० १३-१२० | वणवेदिएहि जुत्तो वजिदणीलमरगय- तिलो० ५० ४-१६५५ | वणवेदिएहिं जुत्तो जबू० ५० ३-११ जब० ५० १२-३ जबू०प०८-१७ जब० प०८-२३ नव०प० :-१२ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५७ प्राकृतपद्यानुक्रमणी वणवेदिएहिं जुत्तो जबू० प. ८-१७१ / वराणेदि तप्फलमवि अगप०३-२६ वणवेदिएहिं जुत्तो जंब० ५० १-१२ वरणेसु तीसु एको पवयणसा०३-२४क्षे०१५(ज) वणवेदिएहिं जुत्तो जब०प०६-५४ | वरुणो णाणं ण हवइ । समय० ३६३ वणवेदिएहि जुत्तो जव० ५० १-१३४ | वएणोदयसंपादित(य)- गो० जी० ५३५ वणवेदियपरिखित्ता जव० प० २-१०५ वगणोदयेण जणिदो गो० जी० ४६३ वणवेदियपरिखित्ता जब० ५०२-१६६ वण्ही-अरुणा देवा तिलो०प०८-६२४ वणवेदिविप्फुरंता जव० प०६-१४४ वत्तणगुणजुत्ता भावस० ३०६ वणवेदीजुत्ताओ जबू० प० ४-११७ वत्तहेदू कालो गो० जी० ५६७ वणवेदीपरिखित्ता जव० प० २-१३ वत्ता कत्ता च मुणी भ० श्रारा० ५०० वणवेदीपरिखित्ता जव०प० २-१८ वत्तारा बहुभेया अगप०२-८० वणवेदीपरिखित्ता जव० ५०४-७७ वत्तावत्तपमाए * पचस० १-१४ वणवेदीपरिखित्ता जंब . प०४-२४३ वत्तावत्तपमाए * भावस. ६०१ वणवेदीपरिखित्ते जव०प०४-८२ वत्तावत्तपमादे* गो० जी० ३३ वणसडवत्थवाहा तिलो० ५० ४-१२६ वत्तियमाणेण तहा जव. प. १३-८४ वणसडसंपरिउडो जवू० प०८-६५ वत्थक्खडं दुद्दिय- पवयणसा०३-२०२०४(ज) वणसडसपरिउडो जव० प० ६-३७ वत्थस्स सेदभावो समय० १५७ वणसंडणामजुत्तो तिलो. प०५-८५ समय० १५८ वत्थरस सेदभावो वरणसडेसुं दिव्या तिलो० प०४-२५३५ समय० १५६ वत्थस्स सेदभावो वरणसंडेहि य रम्मो जव०प०८-३६ वत्थगदुमा णेया जंब प०२-१३३ वणसडेहिं सहिया जव० ५० १-१४२ | वत्थंगा णित्त(च)पड- तिलो. प. ४-३४५ वणि देवलि तित्थइँ भमहिं पाहु० दो० १८७ | वत्थंगा वरवत्थे भावस० ५८६ वरणचउक्कमसत्थ गो० क. १७० वत्थाजिणवक्केण य मूला० ३० वरणरणउलो विजो भ० श्रारा० ११३२ वत्यादियसम्माणं वसु० सा० ४०६ वरुण रस गध एक दन्वस० णय० १०१ वस्थित्थिभूसणाणं धम्मर० १५१ वरपरसगंधजुत्तं __ भ. थारा० ५६६ वत्थीहिं अवदवणता- भ. श्रारा० १४६६ वरगारसगंधपासं तिलो. प०८-५६८ वत्थुणिमित्त भावोx गो० जो० ६७१ वरणारसगंधफासं पंचस. ४-४१० ॥ वत्थुणिमित्तो भावोx पंचस० १-१७८ वरगारमगंधफासा पचत्थि० ५१ परम०प०२-१८० पघयणसा० २-४० वरणरसगधफासा रयणसा० ७८ वत्थुसमग्गो गाणी वरणरसगंधफासा णियमसा० ४५ वत्थुसमग्गो मूढो रयणसा० ७७ वरुणरसगधफासा पचसः २-६ गो० जी०३११ वत्थुस्स पदेसादो वएणरसगधफासा* कम्मप० १०५ वत्थु पडुच्च जं पुण समय० २६५ वरणरसगधफासा पचस०२-७ वत्थूण असगहणं दव्वस० गय०३६५ वरणरसगंधफासेहि वसु० सा० ४७६ वत्थूण ज सहाव दव्वस० णय० ३२५ वएणरसगंवफासे तिलो० ५० १-१०० वत्थू पमाणविसय दव्वस० गय० १७१ वरणरसगधफासे तिलो. ५०३-२०६ | वत्थू हवेइ तचं दव्वस० णय० ५४ वरण रस पच गंधा दव्वस०५ वद-णियमाणि धरता समय० १५३ वरणविहूणउ णाणमउ पाहु० दो० ३८ | वददसणा दु भट्ठे छेदस० ६३ वरिणज्जइ गइभेया अगप० २-११० | वदभडभरिदमारुहिद- भ० श्रारा० १२८६ वरिणदसुराण णयरी- तिलो. ५० ४-२४५४ | व(ब)दरक्खामलयप्पम- तिलो० सा० ७८६ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ वदसमिदिकसायाणं वदसमिदिकसायाणं * वदसमिदिपालणाए -समिदि-सील - संजमवदसमिदिदियरोधो वदसमिदिदियरोहो वदमिदीगुत्ती वदसमितीगुती ओ वदसीलगुणा जम्हा विदो तं देसं जाणं लाहो वध-बंध-रोध-धणहरण समय० २७३ दव्वसं० ३५ | वरकरिणय दुक्कोसा मूला० १००३ | वरकप्परुक्खणिवहा वरकप्प रुक्खरम्मा मूला० २५५ वर कमलकुमुद कुवलयभ० श्रारा० ७६६ | वरकमलगभगोरो वप्पा सुवप्पा महावप्पा + तिलो० प० ४-२२०७ वरकमलसालिएहि य तिलो० सा० ६६० | वरकलम सालितंडुलभ० श्रारा० १०१६ | वरकंचरण कयसोहा भ० श्रारा० १०१३ | वरका समुदा भ० श्रारा० १०१८ | वरकुटुबीयबुद्धी रयणसा० १३० वरकुंडकुडदीवा चारित्तपा० ३१ वरकेसरिरूढो भ० श्रारा० १४७८ | वरकोमलपल्लागा जंबू० प० ३ - २१३ वरगामयरवो भ० श्रारा० ६१२ वरगामरणयरपट्टणरिट्ठस० ३२ | वरचक्कवायरूढो श्रंगप० २-३४ arati at णियमसा० १५३ | वरचंदसूरगहणं भावसं० २५ | वरचामरभामंडलवरचामरभामंडलवरचित्तकम्मपरा वप्पा सुत्रप्पा महावप्पा + afai अमरिसं वा वमिदा अमेझम मियं व श्रमे वयगुण सीलपरीसह जयं वयगुत्ती मागुत्ती aruकमलेहिं गणिअभिवयणखिदिरहिय उच्छयवयणपडिवत्तिकुसलत्तणं वयम्मि गासियाए वहा जावदिया वयमयं पडिकमणं वययिमसीलजुत्ता वयणियम सील संजम - वय एक रुहिरं वयहिं हिंय x वयहिं विदूहिं वि x वयणोच्चारणकिरियं वय-तव-संजम - मूलगुण वय -तव- सीलममग्गो argकुरुदेहि ariगकारण होइ वयमुह-बम्ह (ग्व) मुक्खा araraघूगका गहि पुरातन-जैनवाक्य-सूची पंचस० १-१२७ | वयसम्मत्तविशुद्धे गो० जी० ४६४ वयससुभासुभ परिणामबा० अणु० ७६ | वरअट्ठपाडिहारे हि यिमसा० ११३ वरवर मज्झिमाणि पवयणसा० ३-८ | वरइंददिगुरुणो दव्वस० णय० ३३३ | वरइंदीवरवण्णा वरकरणयरयणमरगय वयवग्यतरच्छसिगाल वयसमिदिगुत्तिजुत्ता वयसमिदिगुत्तियादी पवयणसा० २-४७ खाणसा० ५१ रिट्स० २६ पचमं० १- १६१ वर जिय पाव सुंदर हॅ गो० जी० ६४६ वरणगर - खेड - कव्वडमसा० १२२ | वरादितडेसु गिरि य जोगसा० २६ | वरदिगामेहि जुदा वसु० सा० २२२ वर दिया गायव्वा भावसं० १८६ | वसु० सा० २१४ वरणालियेहि रो वर यि दंसण हिमुहउ तिलो०१०४ - २७२६ वरतुरयसमारूढो तिलो० सा० १८२ वर तोरण जुत्ताओ तिलो० प० २ - ३११ | चरतोरणदारागं श्रा० भ० ४ वरतोरणसंद्धरणो सुदखं० ६ । वरतोरणस्स उवरि व बोधपा० २६ छेदपिं० ३२६ वसु० सा० ४७३ तिलो० प० ७-११० गो० क० ३६६ जंबू ० प०३-२०० जब० प० १- ४० जंब० ५० ६-१२४ जब० प० २-४४ तिलो० प० ४ - १४१ जंबू ० प० ५-७६ a जब ० प०८-६४ जबू० ० प०६-१७ वसु० सा० ४३० तिलो० प०८-२८३ गो० जी० ५२५ जोगिभ० १८ जंब० प० ३-१६२ तिलो० प०५-८६ जंबू ० ४ - १६६ जंबू ० ० ६-३३ जंबू० प० ६-१४५ जंबू ० प० ५-१०१ तिलो० प० ५-१० थंगप० २-१०६ तिलो० प० ४- १६६२ जबू० प० ३-१४० ज० प० ३-५६ परम० प० २-१६ जबू० प० ८ - १०७ जब० प० १७० जबू० प०८-१२० जब० प०८-१८६ जंब० प० ४-४६ परम० प०२-१८ जब० प० ५-६६ जंबू ० ० ७-६६ जब० प० ६-१४३ जब ० ० ८-६६ तिलो० प० ४-२५० Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ tto व वरतोरणेस या वरतोरणेहिं जुत्ता वरदत्तो य वरगो वरदह सिदादवत्ता वरदहसिवादवत्ता arrat विदे वरदेवि देवपरा वरपउमरायकेसर वरपउमरायपायारवरपउमरायमणिमय वरपउमरायमणिमय वर: उमरायमर गय वरपउमरायचंधूयवरपट्टण विराय वरपड भेरिमद्दलवरपडहभेरिमद्दल वर पंचवण्णजुत्ता वर पाडिहेर इसयवरबहुलपरिमलाभो - वरभदसालमज्झे वरभवणजाणवाहा वरभवणजाणवाहा वरभूहरसंकासा वरमउडकुंडलधरा वरमउडकुडलधरो वर मडकुडलहरो वरमज्झजहण्णाणं वरमज्झिमवर भोगज वरमज्झिमवराणं वरमणिविभूसिय च वरमुरवदुदुहीओ वररयणकं चणम वररय कचणमया चररयरणकंचाए वररयकेदुतोरण वररयणदंडमंडरण वररयपदंडहत्था वररयणमज्डधारी वररयणमोडधारी वररयणविरइदारिण प्राकृतपद्यानुक्रमणी जबू० १० ८-५२ | वररयणायरपउरो जब ० प० ७-१०४ वरवज्जकरणयमरगय णिव्वा० भ० ४ वरवज्जकवाडजुदा जबू० प० ३-३३ वरवज्जकवाडजुदा तिलो०प०४-६६ | वरवज्जकवाडजुदो तिलो० सा० ७६४ वरवज्जकवाडाणं जबू० प० ४ - २०६ | वरवज्जणीलमरगयवरवज्जमया वेदी - ११३ | वरवज्जरयणमूलो व० प० १३ - १०७ जबू० प० जबू० प० ४ - १७५ वरवज्जरयदमरगयजबू० प० ६-१०७ वरवज्जरिसहवइरयजबू० ० ८-७५ |वरवज्जविविहमंगलतिलो० प०८-२५२ | वरवट्टचीणखोमाइयाइँ जबू० प० १-४३ वरवण्णगंधरसफासा जबू० प० ४ - ५८ | वरवयतवेहिं सग्गो जबू० प० ५-६६ | वरवस समारूढो वरवारएहिं समं (मं) बरवारणमा रूढो वरविरहं छम्मासं वरविविहकुसुम माला जबू ० प० १०-६२ जबू० प० ४- २१५ वसु० सा० २५७ तिलो० प० ४ - २१२८ | बा० अणु ० ३ | वरवेदिएहि जुत्ता धम्मर० ५ | वरवेदिएहिं जुत्ता जंबू० प० ३-६४ | वरवेदिएहि जुत्ता जबू० प० ६ - २३ | वरवेदिएहि जुत्ता जंबू ० ० ३ - ६३ | वरवेदिएहि जुत्ता जबू० प० ११-२२३ वरवेदिएहिं जुत्तो तिलो० सा०८८६ वरवेदिएहिं मणिमयतिलो० प० १-२८६ | वरवेदियपरिखित्ते तिलो० ० सा० ६७६ बरवेदिया विचित्ता जबू० १० ११ - ३३० | वरवेदियाहिं जुत्ता धम्मर० १६२ | बरवेदियाहिं रम्मा तिलो० प० ४-२५७ | वरवेदीक डिसुत्ता तिलो० प० ४ - २७४ | वरवेदीक डिसुत्ता तिलो० प०३-२३५ वरवेदी परिखित्ते तिलो० प० ४-७६० वरसति कालमेहा तिलो० प० ४-८४७ वरसालत्रप्पपउरो तिलो० प०८-३६१ चरसालयप्पपउरो तिलो० प० १-४२ वर सिद्धरु परम्मगतिलो० प०३-१२८ वरसिय चाउम्मा सिय तिलो० प० ४-३७ | वरसीहसमारूढो २५६ जब ० १० प० ६-४० जंबू० प० ६-६८ तिलो० प० ४-४४ जबू० प० २-६१ तिलो० प० ४- १५५ तिलो० प० ४-२३५ जबू० प० ८ - १६१ जबू० प० ११-४२ जब० प० ८-११० जबू० प० ६-१४० जवू० प० ७-१११ वसु० सा० ५०३ वसु० सा० २५६ मुला० १०५३ मोक्खपा० २५ जबू० प० ५-६३ छेदपिं० ३१५ तिलो० प०५-८५ तिलो० सा० ५३० विलो० प० ३- २२५ जबू० प० ५-६१ जंब० प० ६-११८ जबू० प० ८-११२ अबू० प० ६--६० जबू० प० ६-६४६ जबू० प० ६-६ जव० प० ६-५६ जंब० प० ३ - १६० जबू० प० ६-१५ तिलो० प० ४-१७६६ तिलो० प० ४-१६१७ तिलो० प० ४-६३ तिलो० प० ४-६७ तिलो० प० ४-२२८ तिलो० स० ६७६ जंबू ० प०८ जबू० प० ८-३५ जबू० ० प० ३-४४ छेदपिं० ११८ जबू० प० ५-६५ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २६० पुरातन-जैनवाक्य-सूची वरसुरहिगंधसलिला जंब० प० ६-२६ चवहारेण दुादा (एवं) समय०१८ वरसूचिअंगुलेहि य जबू० ५० १३-२५ ववहारेण दु एदे समय० ५६ वरं गणपवेसादो मूला० १८३ ववहारेण य लग्गा ढाढसी०३० वरिससहस्लेख पुरा भावसं० १३१ ववहारेण य सारो श्रारा० सा०३ तिलो०प०४-१५५६ ववहारेणुवदिस्सइ समय०७ वरिसंति दोणमेघा तिलो. प० ४-२२४६ ववहारेय रोमं तिलो. सा. ५०० वरिसाए तिरिण लक्खा तिलो० ५० ४-१४६३ ववहारो पुरण कालो गो० जी० ५७६ वरिसादीप सलाया तिलो० ५०४-१०४ / ववहारो पुण कालो गो० जी० ५८६ वरिसादु दुगुण-वड्डी(अद्दी) तिलो०५० ४-१०६ ववहारो पुण तिविहो गो०जी०५७७ वरिसे महाविदेहे तिलो. प० ४-१७७८ समय० ११ वरिसे वरिसे चउविह- तिलो० ५० ५-६३ | ववहारो य वियप्पो गो. जो० ५७१ वरिसे संखेज्जगुणा तिलो० प०४-२६२६ वव्यगवगमोयमसारगल्ल- तिलो० ५०२-१४ वरुणो त्ति लोयपालो तिलो. प० ४-१८४६ तिलो०प०-३८८ वरुणो वरुणादिपहो तिलो० सा० ६६३ वचरिचिलादि-दासी जंव० ५० ११-२३ वरु विसु विसहरु वरु जलणु पाहु० दो० २० । वसईमझगदक्खिरण- तिलो० सा० ६६४ वलयगजदंतपिच्छ- (१) छेदपिं० ६८ वसा ताव छडि जिय सावय० दो० ५२ वलया मुहेण णेया जबू० ५० १०-२६ वसदीए पलिविदाए भ० श्रारा० १५५७ वलयोवमपीढेसुं तिलो० ५० ४-८६८ वसधि(द)सु अप्पडिवद्धा मूला० ७८८ वल्लहु अवगुण दावइ जेत्तिउ सुप्प० दो० ६६ | वसधीसु य उवधीसु य भ० श्रारा० १५३ वल्लीतरुगुच्छलदुभ- तिलो० प० ४-३५१ वसभाणीयस्स तहिं जव० ५० १६-२८७ ववगद-पण-वएण-रसो पचत्यि० २४ बस-मज-मंस-सोणिय- मूला० ८४५ वरदेसा संठापा पचत्यि० ४६ वस-रुहिर-पूयमज्झे जब० प०११-६६२ ववहारणयचरित्ते णियमसा० ५५ वसह-करि-काग-रासह रिस० ७८ ववहारणयो भासदि समय० २७ वसहगये बहुसलिला श्रायः ति० १०-२० ववहारभासिएण उ समय०३२४ वसहगये सलिलभयं आय० ति० १०-१३ ववहारमयाणंतो भ० श्रारा० ४५२ वसहतुरगमरहगज- तिलो० ५०८-२३५ ववहाररोमरासिं तिलो० ५० १-१२६ वसहतुरंगमरहगय- जंव. प०४-१५६ ववहारसोहणाए मूला० ६४६ वसहाणीयादीणं तिलो० प०८-२७६ ववहारस्स दरीसण समय०४६ वसहिट्टकामधरणिम्मा- तिलो० सा० ५३८ ववहारस्स दु आदा समय०८५ वसहिय दुवारमूले छेदपिं० २१५ ववहार रिउसुत्त णयच०१४ वसहीए गभगिहे तिलो०प०४-०६३ ववहारं रिउसुत्तं * दवस० णय. १८६ वसहेसु दामयट्ठी तिलो० ए० --२७४ ववहारादो वंधो णयच० ७७ वसहो धय-धूमगो रिट्टस० २९० ववहारा सुहृदुक्खं दव्वयं० ६ बसियरण आइट्टो भावसं० ४५६ ववहारिओ पुण गओ समय० ४१४ | वसियव्वं कुच्छीए ववहारुद्धारद्धा+ तिलो० ५० १-६४ | विसुम्मि वि विहरता। ववहारुद्धारद्धा + जंबू० प० १३-३६ | वसुमित्त-अग्गिमित्ता ववहारुद्धारद्धा + तिलो० सा० ६३ वस विसया रस वेया श्राय० ति० १-२१ ववहारुवजोग्गाणं तिलो० सा० ११ | वस्ससदसहस्साई ववहारे जं रोम जंबू प० १३-३६ | वस्ससदं दसगुणिदं धम्मर०६२ मूला० ७१ तिलो० प० ४-१५०५ स्तिसदसहस्साई कसायपा० १३१ (७८) जंब०प०१३-६ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी २६१ वस्ससदे वस्ससदे जंक० ५० १३-३८ वंसी(स)जराहुगसरसी फसायपा० ७२ (१९) वस्ससदे वस्ससदे तिलो० सा० ६६ | वसीमूलं मेसस्स पसं. १-११४ वस्ससयं आवाहा पघसं० ४-३८७ / वंसीवीणावची जव०प०४-२२६ वरसं चे-अयणं पुरण जव० ५० १३-८ से महाविदेहे जंच० ५०३-१६६ वस्सा कोडि-सहस्सा तिलो. सा०८१० वाइयपित्तयसिभिय- भ० श्रारा० १०५३ वस्साणं वत्तीसा ____लद्धिसा० २५३ वाउदिसे रत्तसिला जव० प०४-१४७ वस्साटो धरणिधरो जव० प०२-११ चाउ(दुभामो उकलि पचस० १-८० वहबंधणासछेदो धम्मर० १० वाऊ णामेणा तहिं जव० ५० ११-२०० वका अहवइ अद्धा रिट्टस०८८ चाऊ पदातिसधे तिलो०५०८-२७५ वंकेण जह सताओ भावसं० ३० वाऊ पित्तं सिंभं रिट्टस. ११ वजणपज्जायस्स उ सम्मइ०१-३४ वाखितपराहुत तु मला० ५६७ वंजणपरिणाइविरहा चसु० सा० २८ चाचाए दुक्खवेमिय समय० २६७ २०१६ (ज) चंजयमंगं च सर मूला० ४४६ । वागर-गद्दह-साण-गय- रयणसा० ४५ चंदइ गोजोणि सया भावस०४६ चाणियसुहित्थीओ छेदपि. ३५० डिकमत परम० प०२-६६ वातादिदोसचत्तो तिलो०प०४-१०११ वंदणमंसणेहि पवयणसा० ३-४७ वाताढिप्पगिदीश्रो तिलो. ५०४-१००४ बंदणणिज्जुत्ती पुण मूला० ६११ वादबरुद्धक्खत्ते तिलो० ५० १-२८२ वंदयाशियमविरहिदे छेदस०४७ वादविवादा जे करहिं पाहु० दो० २१७ चंदणभत्तीमित्तेप भ० धारा० ७५२ वादं सीदं उगह मूला० ८६६ बंदभिसेयणचण-* तिलो० ५० ३-४७ वादी चत्तारि जगगा भ० श्रारा० ६६६ वंदणभिसेयपच्चण- तिलो. सा० १००६ वादुम्मामो उक्कलि मूला० २१२ चंदणमालारम्मा तिलो. प. ८-४४४ वादुन्भामो व मरणो भ० थारा० १३४ वंदणु पिंदणु पडिफमणु परम० ५० २-६४ वादो वि मंदमदो जव० प० १३-१०५ बंदणु शिंदणु पडिकमणु परम० प० २-६५ | वापणनरनोनानं गो० जी०३१६ बंदहु वंदहु जिणु भणइ पाहु० दो० ४१ वामदिसाई यारं भावसं० ४६४ चदामि तवसमण्णा दसणपा० २८ वामभूयमि चउरो रिट्टस० २२५ वदित्तु जिणवराणं मूला० ७६७ वामिय किय अरु दाहिणिय पाहु० दो० १८१ वंदित्तु देवदेव मूला० ८१२ वामे चउदस दुसु दस गो० क० ८५१ चंदित्त सव्वसिद्धे समय०१ वामे दुसु दुसु दुसु तिसु गो० क० ८३७ वदे अतयहदस सुदभ० ३ वायकफपित्तरहियो रिट्ठस० १०८ वंदे चउत्थभत्तादिजोगिभ० १० बायणकहाणुपेहण वसु० सा० २८४ वस-तदगे अणिच्छा तिलो० सा० १६० वायणपडिच्छणाए मूला० १३३ वमत्थलवरणियडे णिवा भ० १७ वायणपरियट्टणपुच्छ- भ० थारा २०५२ वसधरविरहिदं खलु जंब० ५० १३-१४ वायदि चिकिरियाए तिलो० ५०४-६०६ बसधरा वसधरो जव० ५० ११-६ वायरणछदवइसेसिय सीलपा०१६ वंसधरा वंसधरो जबू० ५० ११-६७ वायस्सगिद्धकका धम्मर०६२ वसहरमाणुसुत्तर जव० ५० ३-४६ वायंता जयघटा- तिलो. प०३-२१२ वसहरविरहिय खलु जंव० ५० ११-६६ वार्यात किन्भिससुरा तिलो०प०८-५७१ वंसाए णारइया तिलो० ५०२-१६६ वायाए अकहता भ० प्रारा० ३३६ वंसाणं वेदीओ जबू०प०१-६० | वायाए ज कहणं भ० श्रारा० ३६५ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ पुरातन जैनवाक्य-सूची वायामनाम मुणिणो छेदस० ३० / वासारणुयग्ग(गगय ?)संपत्त- यमु० सा० ४२८ वारणदंतसरिच्छा तिनो० ५० ४-२००६ वासा तेरमलग्या तिलो० ५०४-१४६० वारवदी य असेसा भ० श्रारा० १३७४ | वामादिकयपमारणं कत्ति० अणु. ३६८ वाराणसीए पुहवी- तिलो०प०४-५३१ / वामायामोगाढं तिलो. मा० ५६८ वारिउ तिमिरु जिणेसरहें सावय० दो० १७२ वामारते दिवसे छेदम०३३ वारि एक्कम्मि जम्मे सीलपा० २० वामा मोलसलक्या तिलो० ५० १-१४५० वारुणि आसासमा तिलो० सा० ६५५ / वासा मोलमलकरमा तिलो० ५० ४-१४५८ वारुणिदीवादीए जय० ५० १२-२५ वासा हि दुगुणउदो तिलो. प ५-२३३ वारुणिदीवे णेया जय० ५० १२-३८ वासिगि कमले संख मुहुदो तिलो०मा० ३२६ वारुणियर खीरचरो मूला० १०८० वामिढदियतरहिं तिलो० ५० ५-१६० वारुणिवरजलधीए जय० ५० १२-२६ वासुदयमुजं रज्जू तिलो. मा० १३८ वारुणिवरजलहिपहू तिलो० ५० ५-४२ वासुदवा दीहत्त तिलो. सा. ८६० वारुणिवरादिवरिम- सिलो. १०-२६६वामो विभगफत्ती दीप तिलो०५०४-२२१७ वालेसुं दाढीसुं तिलो० प० २-२१० वामो जीयालम्बो तिलो० ५०२-१२६ वाल्लसु य दादीसु य: मूला० ११५६ वानो तिगुणों परिही तिलो० सा० १७ वावारविप्पमुक्का गियमसा०७४ वासो पणावपाकोसा तिलो. १०४-१६०३ वावीकूवसराणं श्राय. ति० 10-18 वासो चि माणुमुत्तर- तिलो. १०५-१६ वावीण बाहिरेसु तिलो. ५० ५-६७ वाहणवत्यप्पहुदी तिलो०प०४-१८१२ वावीणं पुयादिसु तिलो० सा० १७२ / वाहणवत्यविभृसणा- तिलो० ५०४-८४८ वावीणं बहुमज्झे तिलो०प०४-११५४ वाहपवत्थाभरणा तिलो०प०४-१८४६ वावीणं बहुमज्झे तिलो० ५० ५-६५ वाहभये पलादो म. पारा० १३१६ वावीहि विमलजलसी- जबू० १० ११-३५५ / वाहिगहियस्स मरण श्रायः ति० २-२४ वासकदी दसगुरिगदा तिलो० ५० ४- वाहिजइ गुरुभारं धम्मर० ७५ वासतए अडमासे तिलो० ५०४-१५३३ वाहि-पिहाणं देहो तिलो० ५० ६३७ वासदिणमास वारस- तिलो० सा०३२१ | वाहि-परिकार हेढुं छेदपिं० १९ वासदिणमास वारस- निलो० ५० ५-२८१ वहीणे वाहिभय श्राय.ति०३-११ वासद्धकदी तिगुणा तिलो० सा० २६ वाहि व्च दुप्पसमा भ० थारा०७१ वासद्धधणं दलिय तिलो. सा. ११ विउम्मि मेलवासे तिलो०प०४-२७१४ वासपुधत्ते खइया गो० जी० ६५६ / विःणा पंचसहस्सा तिलो० ५०४-१११४ वासरसरूवचन्भू(समु)णि-तिलो० प० ३-२३७ | विउलगिरितुगसिहरे जवू० प०१-६ वामवतिरीडचुंबिय ०७-१५२ | विउलगिरिपव्यए (मत्थए) इंद- वसु० सा० ३ वाससदमेक्कमाऊ तिलो० प० ४-५८१ विउलमदीओ बारस तिलो० प० ४-१९०२ वाससदसहस्सागि जव० ५० १३-१० विउलमदीणं वारस- तिलो. प० ४-१०६६ वाससयं तह कालो सुदख० ७२ | विउलमदी य सहस्मा तिलो. प०४-१९६१ वाससहस्से सेसे तिलो० प० २-१५६७ विउलमदी वि य छद्धा गो० जी० ४३६ वासस्स पढममामे तिलो० ५० १-६६ विउलसिलाविचाले तिलो. प०२-३३० वासाओ वीसलक्खा तिलो०५०४-१४५६ विकहाइविप्पमुक्को रयणसा० १०० वासाण दो सहस्सा तिलो० ५० ४-६५७ विरहाइसु रुहट्टज्माणेसु रयणसा० ६३ वासाणं लक्खा छह तिलो० प०४-१४६१ विकहा तह य कसाया * भावस०६०२ वासापि गव सुपासे तिलो० प० ४-६७५ / विकहा तहा कसाया * पंचस०१-१५ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी २६३ विकहा तहा कसाया * गो० जी० ३४ विग्यविणासे पावर भावस० ६६७ विकहाविसोत्तियाणि मूला० ८५७ | विच्चे(च्चा)लायासं तह तिलो० ५०-६०१ विकिरियाजणिदाई विलो० प०८-४४६ | विच्छिण्णकम्मवधे छेदपिं०१ विक्खंभइच्छरहिदं जब० ५०६-८५ विच्छिएणंगोवंगो- भ० श्रारा० १५७८ विक्खंभइच्छरहियं जबू० प०७-२३ विच्चियसहस्सवेयण- तिलो० सा० १६१ विक्खभद्धकदीओ तिलो० प० ४-७० विजओ दु समुट्ठिो जव० प०७-१५१ विक्खंभं पव्वदाणं जबू० प० २-२५ विजो विदेहणामो तिलो० ५० ४-२५२० विक्खंभवग्गदसगुण-* जव० ५०४-३३ विजओ हेरएणवदो तिलो० ५० ४-२३४८ विक्खंभवग्गदहगुण- तिलो. मा०६६ विजयकुलद्दी दुगुणा तिलो० सा० ६०३ विक्खंभस्स य वग्गो तिलो० ५० ४-२६१५ | विजयगयदंतसरिया तिलो० ५० ४-२२१६ विक्खभं आयामं जब० ५० ७-७ विजयडढकुमारो पुण्ण- तिलो० ५० ५-१४८ विक्खंभं दीवकदी जब० ५० १०-६२ विजयड्ढगिरि गुहाए तिलो० ५० ४-२३७ विक्खंभं चदुभागे ण(१) ज५० ५० १-२४ | तिलो० प०४-११० विक्खंभादो सोधिय तिलो० ५० ४-२२२६ विजयपडाएहिं पारो वसु० सा० ४१२ विक्खभायाम इगि- तिलो०प०५-२७३ विजयपुरम्मि विचित्ता तिलो०प०४-७६ विक्खभायामेण य जबू० ५० २-५२ विनयम्मि तम्मि मझे जव० प०८-१०६ विक्खभायामेण य जव० ५० १२-५ विजयं च वइजयत तिलो० ५० ५-१५६ विक्खंभायामेण य जव० प०४-८४ विजयं च वइजयंत वसु० सा० ४६२ विक्खंभायामेण य जव. २०४-११ विजयं च वइजयंतं जय० ५० ११-३४० विक्खंभायामेण य जव० ५० ४-६३ विजयं च वईजयंतं तिलो० सा० ८८२ विक्खभायामेण य जबू० प० ४-१०२ विजयंत वइजयंत तिलो० ५०८-१०० विक्खभायामेण य जव० प०७-१४० विजयंत वइजयंत तिलो० ५० ८-१२५ विक्खंभायामेण य । जव०प०८-१५७ विजयंत वइजयंता जब प. १-४२८ विक्खभायामेहि या जंब० ५० ३-६७ विजयत वेजयत तिलो० प० ४-४१ विक्खभायामेहिं तिलो. प० ४-१६६३ | विजय नि पुचदारो तिलो० प० ४-७३३ विक्खंभा वि य णेया जव० प०७-१०० | विजयं ति वईजयंती तिलो० ५० ५-७७ विक्खभुच्छेहादी जबू०प०३-१२६ | विजयं पडि वेयड्ढो तिलो० सा० ६६१ विक्खभेणभत्थ जबू० ५० १-२३ | विजया च वइजयती तिलो० सा० ७१५ विक्खंभे पक्खित्ते जव० प०५-११ | विजया च वडजयती जब० प०७-७६ विक्खभो य सहस्मा जबू० ५० ७-३ | विजयाणं विश्खभे जब० ५० ७-७५ विक्खाददागहणं __ छेदपिं० ६७ विजयादिदुवाराणं तिलो० प०४-७३ विक्खेवणी अणुरदस्म भ० श्रारा० ६५८ | विजयादिवासरग्गो तिलो० प०४-२६२१ विगलिंगाल विधूमं मूला० १८३ | विजयादिसु उववरणा अंगह० १-५४ विगमस्स वि एस विही सम्मइ०३-३४ विजयादीण आदिम- तिलो० ५० ४-२८४१ विगयसिरो कडिहत्थो दव्वस० गय० १४५ विजयादीणं णामा तिलो० प० ४-२४४६ विग्गहकम्मसरीरे गो० ० ५८३ विजयादीणं वासं तिलो० प०४-२८३५ विग्गहगइमावरणा* पंचस० १-१७७ । विजया य वइजयता तिलो० ५०४-७८३ विग्गहगइमावण्णा पचस० १-१६१ विजया य वइजयंती । तिलो० प० ४-२२६८ विग्गहगईहिं एए पचस० ५-१२४ | विजया य वइजयती तिलो० सा० ६४६ विग्गदिमावरणा* गो० जी० ६६५ विजया वक्खाराणं तिलो० प०४-२६०८ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ विजयावक्खाणं विजया विजयाण तहा विजया विजयाण तहा : विजयो अचल सुधम्मो + विजयो चलो सुधम्मो + विजय दुवैजयंत विजयो विदेहामो विजला वि वायगाडी विजिदच उघाइकम्मे विज्जदि केवलणा विज्जदि जेसि गम विज्ज्ञाचरणमहत्वढविज्ञाचोज्ज्ज- रिणमित्तं विज्जा जहा पिसाय विज्जाणुवादपढणे विज्जारवादपुव्व विज्जाणुवादपु विज्जामंते (ता) चोज्जं - विज्जार हमारूढो विज्जावच्च सघे विज्ञावच्चु राग पहाॅ कियउ विज्जावच्चे विरहियउ विज्जा विभत्तिवंतस्स विज्जा साधिदसिद्धा विज्जाहरकुसुमाउहविज्जाहरणयरवरा विज्जाहर सेढीए विज्जाहरसेला विज्जाहराण गयरा विज्जाहराण तसि विज्जाहराण सुंदरि - बिज्जाहरा य बलदे - विज्जुपहणामगिरिणो विज्जुप्पहपुत्रादिसा विज्जुप से लादो विज्जुप्पहस्स उवरिं विज्जुपहस्सगिरिणो विज्जू व चंचलं फेर विज्जू व चंचलाई विज्जो सहमंतबल पुरातन जैनवाक्य-सूची तिलो० ५० ४-२७८५ तिलो० प० ४-२५४२ तिलो० प० ४ - ११६ तिलो०प० ४ - १४०६ तिलो० सा० ४५७ तिलो० प० ४-१३ तिलो० सा० ६३२ | विज्झायदि सूरग्गी विट्ठापुराणो भिरणो विराएण विपीएस्स बिएण विप्पहूणस्स वि एण समीउज्जलविराएण सुदमधीदं वि तहाणुभामा श्रा० ति० १६ - २५ | वियो पुरा पंचविहो विभत्तिविहीणो मोक्खदारं श्रास० ति० २४ विण विओ मोक्खद्दारं भ० श्रारा० ७६१ विओ वेवच्चं विषययगे सिरिदत्तो विण्यसिरि विषयमाला तिलो० सा० ८४१ विणयं पचपयारं अंगप० २-४६ |विण्याढो इह मोक्खं अंगप० २ - १०१ विषयो पचपयारो छेटस० ६४ | चियो मास धम्मो समय० २३६ |विणाराणि सुगन्भादव्वस० णय० ३३५ | शिरणादे कमसो सावय० दो० १५७ वितिचउपचक्खाणं सावय० दो० १३६ वितिचउरक्खा जीवा वित्ति-गिवित्तिहि परममुरिण परम० प० २-५२ अंगप० ३ - २१ श्रंगप० २ - ११२ छेदपिं० १२ कत्ति० ० १७४ कत्ति० गु० १४२ , ज० प० १०-२२ श्रगप० २-६ तिलो० प० ४-२६११ जंब० प० ३-५० मूला० २५२ तिलो० प०५- २०८ तिलो० प० ४-५८८ ण्यिममा० १८१ पचत्थि मह मूला० ६७६ पिं० १६२ o | भ० श्रारा० ७४८ मूला० ४५७ जवू० प० ४ - २०६ तिलो० ० ४ १२६ तिलो० प० ४ - २१३५ | | | जबू० प० ११-७६ भ० श्रारा० १८१२ विभावादो वंधो भ० श्रारा० १७१७ | विमलजिगिढ़ पणमिय भ० श्रारा० १७३६ | विमलजिणे चालीसं भ० श्रारा० ८८ भ० श्रारा० १०१३ मूला० ३८५ भ० श्रारा० १२८ वसु० सा० ३३२ मूला० २८६ मूला० ६३६ भ० श्रारा० ११२ रयणमा० ७५ मूला० ३८६१ भ० श्रारा० १२६ चसु० सा० ३१६ सुदख० ७७ तिलो० प०८-३१६ वित्थार दससहरसा वित्थार मट्ठा ( सटा ) वित्थारादो सोधसु वित्थायामेण य विदिच्छा वियदुविहा जबू० प० २-४ विदुमवरणा केई तिलो० प० ४ - २२५७ | विदुमसमाणदेहा जंबू ० ० ४ - ११६ | विद्वत्यो य अडिदो भ० श्रारा० १७४३ | विद्धा वम्मा मुट्ठिइस तिलो० प० ४ - २०४६ विधिणा कदरस सस्सस्स तिलो० प० ४ - २१३७ |विधुणिधिरागवरविणमणिजंबू० प० ६- १४ विष्फुरिदकिरणमंडलतिलो० १० ४ - २०४३ | विष्फुरिदपंचवरणा तिलो० प० ४-३२१ तिलो० प० ४ - २०६७ | विबुध - वइ-मउड मणिगण - जबू० प० १३ - १७६ दव्वस० णय० ६४ भावपा० १०२ भावस० ७४ कत्ति० गु० ४५४ व भ० श्रारा० ६४२ पाहु० दो० १४७ भ० श्रारा० ७५१ तिलो० सा० २१ तिलो० प०५-१३६ जबू० प०८-१ तिलो० प० ४- १२११ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणा २६५ विमलटुगे वच्छादी- तिलो० सा० ७४२ | विरलिदरासिच्छेदा तिलो० सा० १०८ विमलपहक्खो विमलो तिलो० प ०५-४३ विरलिदरासीदो पुण तिलो० सा० ११० विमलपहविमलमज्झिम- तिलो. प०८-८ विलिदरासीदो पुण तिलो० सा० १११ विमलयरगुणसमिद्धं श्रारा० सा० १ विरलो अज्जदि पुराण कत्ति० श्रगु० ४८ विमलविहूसियदेहो श्राय० ति० २५-५ विरहेण रुवइ विलवह भावस० २२७ विमलस्स तीसलक्खा तिलो. प० ४-५६८ विरियस्स य णोकम्म गो० क० ८५ विमला णिच्चालोका तिलो० ५० ५-१७७ विरियतरायखीणं जंय० प० १३-१३५ विमला-हेदुं वंकेण - भ० 'पारा० १८०६ | विरियंतरायमलसत्त- भ० श्रारा० १४५४ विमले गोदमगोत्ते तिलो० ५० १-७८ विरियेण तहा खाइय- तिलो० ५० १-७३ विम्हयकररूवाहिं तिलो० प० ४-१८५६ विलवंतहुँ सुप्पहु भणइ सुप्प० दो० ७२ वियडाए अवियडाए भ. धारा० २२६ विलसंतधयवडाया जंव० ५० ११-२३४ वियडितणकट्टचालण छेदपिं० १०१ विवरं पंचमसमए पघसं० १-१६८ वियडि तिण कट्ट वा छेदपिं० २०८ विवरीए फुडबंधो दव्वस०णय० ३४० वियलचउक्के छह कम्मप० ८८ विवरीयमयं फिच्चा दसणसा० १७ वियला वितिच उरक्त्वा तिलो० ५० ५-२७६ विवरीयमूढभावा वोधपा०५३ वियलिदिए असीदी भावपा०२१ विवरीयमोहिणाण पचस० १-१२० वियलिदिए असीदी फ्लाणा०६ | विवरीयमोहिणाण गो० जी० ३०४ वियलिदिएसु जायदि कति० अणु० २८६ | | विवरीयं पडिकूलो आय० ति० २-१ वियलिंदिपसु तीसु वि पघस० ५-४२५ | विवरीय पडिहएणदि लद्धिसा० ३08 वियलिंदिएमु ते च्चिय पचसं०५-२७३ | विवरीयाभिणिसचि- णियमसा० ५१ वियलिदिय णिरयाऊ पचस० ४-३७१ विवरीयाभिणिवेसं णियमसा० १३६ वियलिंदिय पंचिंदिय ____ ढाढसी० २ | विवरीयेणप्पदरा गो० क० ५६६ वियलिंदियसामरणे पचस० ५-१२० विविगुणइढिजुत्तं ४ पचस० १-१५ वियलिंदियाण घादे छेदपिं० ३२१ | षिविहगुणाइढिजुत्तं - गो० जी० २३१ वियसियकमलायारो तिलो. प० ४-२०६ विविहतवरयणभूसा तिलो० सा० ५५५ विरए खोवसमए पचस० ५-३०५ तिलो०प०१-५३ विरदाणमुत्तमलहरणस्स छेदपिं० ३०४ विविहरतिकरणभाविद- तिलो० ५० ३-२३, विरदाणं पि महन्वय- छेदपि. ३२२ | विविहरसोसहिभरिदा तिलो० प० ४-१५६० विरदाविरदे जाणे पंचसं०५-४०४ विविह्वणसंडमंडण- तिलो० ५० ४-८०२ विरदीओ वसुपुज्जे तिलो ०५० ४-११६६ विविहवररयणसाहा तिलो० प० ३-३५ विरदीय अविरदीए कसायपा० ८३(३०) विविहवररयणसाहा तिलो० प० ४-१६०५ विरदी सव्वसावज्जे णियमसा० १२५ विविहवियप्पं लोयं तिलो० प० १-३२ विरदो व सावओ वा छेदपि० २६ | विविहंकुरुचेंच इया तिलो० प० ३-३६ विरदो सव्वसावज्ज मूला० ५२४ विविहाइं गच्चणाई तिलो० प०५-११४ विरयाविरए जाणसु पचस० ५-३७८ विविहाओ जायणाओ भ० श्रारा० ११६६ विरयाविरए णियमा पचस० ५-३२७ विविहाहिं एसणाहिं म० श्रारा० २४८ विरयाविरए भगा पचसं० ५-३७१ विश्वोगतिक्खदतो भ० श्रारा० १११४ विरला जाणहिं तत्त बुह ___ जोगसा० ६६ / विसए विसएहिं जुदा जब० प०१३-५७ विरला णिसुगहि तच्चं कत्ति० अणु० २७६ | विसएसु पधावंता मूला० ८७३ विरलिज्जमाणरासिं तिलो० सा० १०७ | विसएसु मोहिदाणं सीलपा० १३ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ पुरातन-जैनवाक्य-सूची विसएहिं से ण कर्ज भ० श्रारा० २१५४ विससाणसाणखुरिसुणि- आय० ति० १-१६ विसकोट्ठा(वसहेट्ठा) कामधरा तिलो०प०८-६२१ | विसाहणामो पढमो सुदख० ७३ विसजंतकूडपंजर-* पचस० १-११८ विसुद्धलेस्साहिं सुराउबंधं तिलो. प० ३-२४२ विसजंतकूडपजर- * गो० जी० ३०२ / विस्समिदो तद्दिवसं मूला० १६५ विसमपय-वमिद-णिहद- छेदपिं० ६३ | विस्साणं लोयाणं तिलो० ५० १-२४ विसयकसाएहिं जुदो मोक्खपा० ४६ / विस्सासकरं रूवं भ० श्रारा० ८४ विसयकसाओगाढो पवयणसा० २-६६ | विहगाहिवमारूढो तिलो० ५० ५-६४ विसयकसाय चएवि वढ पाहु० दो० १६८ | विहडावइ ण हु संघडइ सावय० दो० १५१ विसयकसाय वसपणिवहु सावय० दो० १४४ / विहयहिपा य पंचास- श्राय. ति०४-३ विसयकसायविणिग्गह- वा० अणु० ७७ | विहरदि जाव जिणिंदो दसणपा० ३५ विसयकसाय वि णिहलिवि परम०प०२-११२ | विहलो जो वाचारो कत्ति० अणु ३४६ विसयकसाय: रंजियउ पाहु० दो० २०१ | विहिणा गहिऊण विहिं। वसु० सा० ३६३ विसय-कसायहि मण-सलिलु परम० प० २-१५६ । विहिं तिहिं चहुहिं पंचहिं पसं० १-८६ विसय-कसायहिं रंगियहिं परम० ५० १-६२ | | विजणसुद्धं सुत्तं मूला० २५५ विसयकसायासत्ता तिलो० ५० ४-६२२ / वितरणिलयतियाणि य तिलो० सा० २६४ विसयमहापंकाउल- भ० श्रारा० १४६७ | वि(वि)ति परे एदेसु व छेदपिं० २२० विसयम्मि तम्मि मज्झे जबू० ५० ६-६७ | विदफलं संमेलिय तिलो० ५० १-२०२ विसयवणरमणलोला भ० श्रारा० १४१२ विंदावलिलोगाणमसंखं । गो० जी० २०६ विसयविरत्तो मुंचइ रयणसा० १३४ तिलो०प०१-१७३ विसयविरत्तो समणो भावपा० ७७ |विंसदिजमगणगा पुण जबू० ५० १३-१४७ विसयसमुदं जोव्वण- भ० श्रारा० १११६ / विंसदि परिहारे संढित्थी- श्रास० ति०५१ विसय-सुहइँ बे दिवहडा x परम० ५० २-१३८ । वीणावेणुझुणीओ तिलो० प०८-५६१ विसयसुहं सेविज्जइ प्राय० ति० ११-१ | वीणावेणुप्पमुह तिलो० प०८-२५६ विसय-सुहा दुइ दिवहडा x पाहु० दो० १७ | वीयणसयलुट्ठ(द्धी)ए तिलो० सा० ४४२ विसयह उप्परि परममुणि परम० प० २-५० वीरजिणतित्थकालो तिलो. सा० ८१२ विसया चिंति म जीव तुहुँ पाहु० दो० २०० । वीरजिणे सिद्धिगदे तिलो० प० ४-१४६४ विसयाडवीए उम्मग- भ० श्रारा० १८६१ वीरमदीए सूलगद भ० श्रारा० १५१ विसयाडवीए मज्झे भ० श्रारा० १२६२ | वीरमहकमलणिग्गय- गो० जी० ७२७ विसयाणं विसईणं अगप० २-६१ वीरंगजा भधाणो तिलो. प० ४-१५१६ विसयाणं विसईण गो० जी० ३०७ वीरं विसयविरत्तं* णयच०१ विसयामिसारगाढं भ० श्रारा० १७६१ वीरं विसयविर * दव्वस० णय० ३६५ विसयामिसेहिं पुण्णो तिलो० प० ४-६३२ वीरं विसालणयणं सीलपा०१ विसयालंबणरहिरो आरा० सा०६७ वीरासणमादीयं भ० श्रारा० २०१० विसयासत्तउ जीव तुहु परम० प० २-१४१ वीरासणं च दंडा भ० श्रारा० २२५ विसयासत्तो विमदी तिलो० ५० २-२६७ | वीरियजुदमदिखउवस गो० जी० १३० विसयासत्तो वि सया कत्ति० अणु० ३१४ | वीरियमणंतरायं भ० श्रारा० २१०६ विसया सेवइ जो वि परु पाहु० दो०१६४ | वीरिंदणंदिवच्छे लद्धिसा० ६४८ विसया सेवहि जीव तुहुँ पाहु० दो० १२० | वीरो जरमरणरिवू विसवेयणरत्तक्खय-+ गो० क० ५७ | वीवाहजादगादिसु विसवेयणरत्तक्खय-+ भावपा० २५ | वीवाहजादगादिसु प्राय०ति० २३-६ मूला० १०६ श्राय० ति० ३-१० Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ dr वं वीवाह ज्वाहिय वीसकदी पुन्धरा वीरहं विज्झादं वीसत्थदाए पुरिसो वीस दस चेव लक्खा वीस दिवक्खाराणं वीस दिवच्छरसमधियवीसदु चउवीसचऊ वीस पल तिरिग मोदय वीसविहंत सिं वीससहस्स-जुदाई वीससहस्स- तिलक्खा वीससहसम्भहिया वीससहस्सं तिसदा चीससहस्सा वस्सा वीसस्स दंडसहि वीसहदवासलक्खच्भवीस हियस या वीसं इगिच उati ari asaari वीसं तु जिवरिंदा वीसं बुरासिव मा वीसं लक्खं पु वीस वीसं पाहुडवीस वीसं पाहुड वीसादिसु बधसा वसादी भगा वीसा सत्तसदारिणय वीसाहियको ससयं साहियसको सा वीसुत्तरछच्चसया वीसुत्तरवा ससदे वीसुत्तरसत्या वीसुतराणि होति हु वीदये बंधो हि सूण साि वीही दोपासेसुं बुढो तरुण सीलो ases सुत्तसोहा' प्राकृतपद्यानुक्रमणी श्राय० ति० २-१२ | वेउव्वजुयलहीणा तिलो० प० ४-११५४ वेउव्वरणमाहारयगो० क० ४२३ | वेउव्वरणाए रामो भ० श्रारा० १०८७ | वे उमिस्क तिलो० प० ४ - १४४५ वेउव्वमिस्सजोयं तिलो० सा० ६७१ | वेउव्वाहार दुगे तिलो० प० ४ - ६४५ | वेडव्विदुगूरालियगो० क० ५६७ | वेउव्वियकाय दुगे भ० प्रा० ८०६ | वेडव्वियदुगहारयवेवे मरणपन्जव - वेवे सुरभंगो वेण वताए वेश्रो फिल सिद्धंतो अंगप० २-६७ तिलो० प० ४ - १०६ १ तिलो० प०८-१६४ तिलो० ५० ४-५७३ तिलो० प० ४-१४६१ वेगपद छग्गुणं इगितिलो० प० ४–१४०२ | वेगपदं चयगुणिदं तिलो० प० २ - २४५ | वेगाद्विगुणं तेतिलो० प० ४ - ५६७ | वेगुव्वअट्ठरहिदे जबू० प० ३ - १३१ | वेगुव्व-छ परण- सहदिगो० क० ५६२ | वेगुव्त्रतेजथिरसुहगो० क० ७५६ वेगुव्वं पज्जत्ते णिव्वा० भ० २ वेगुव्वं वा मिस्से तिलो० प०८-५०४ वेगुव्वं वा मिस्से सुदखं० ५ | वेगुव्वाहारदुगं अंगप० १-६ वेगुव्त्रिछस्सहस्सा गो० जी० ३४२ | वेगुव्वियआहारय गो० क० ७४६ वेगुव्त्रिय उत्तत्थं गो० क० ६०३ |वेगुव्वियदुगरहिया वेगुव्वियवरसंच वेगुव्त्रियं सरीरं वेगुव्विसगसहस्सा वेगुव्वे गो सति हु वेगुव्वे तम्मिस्से वेगेण वहइ सरिया वेगेणं पुणु गच्छइ गो० क० ७४७ वेज्जादुरभेसज्जातिलो० प० ७-११८ | वेज्जावश्चकरो पुण मूला० ४३७ | वेज्जावश्चणिमित्तं तिलो० प० ४ -७२६ |वेनावच्च विहीणं भ० रा० १०७७ वेनावच्चस्स गुणा जबू० प० २-४ | वेढेइ विसयहेदुं # जबू० प० २ - ३५ तिलो० प० ४-८५२ | तिलो० प० ४-८८० गो० क० ६०४ तिलो० प० ४ - १४६८ तिलो० प०४ - १८२ तिलो० प०८-१८२ | २६७ पंचस० ४-८२ भ० श्रारा० २०५८ जंबू० ११-२६५ पचसं० ५-३३३ पंचस० ४- १३८ पचसं० ४-१२ सिद्धत० ५६ पंचस० ५-१६६ सिद्धत० २८ पंचसं० ४-२७ पचसं० ४-३६० धम्मर० ४० भावस० ५०६ तिलो० सा० ४२८ तिलो० सा० १६३ तिलो० सा० ४२० गो० क० ३६६ गो० क० ३३१ गो० क० २६१ गो० जी० ६८१ भावति० ८४ गो० क० ३१५ श्रस० ति० २६ तिलो० प० ४- ११४० गो० जी० २४१ गो० जी० २३३ सिद्धत० २२ गो० जी० २५६ मूला० १०५४ तिलो० प० ४-११३८ • भावति० ८३ गो० क० ७२० जंबू० प० ७-१२८ जबृ० प० ७-१२४ मूला० ६४१ भ० श्रारा० ३२१ पवयणसा० ३-१३ मूला० ६५६ भ० श्ररा० १४६६ भ० श्रारा० ६ 98 Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ पुरातन-जैनवाक्य-सूची - वेढेदि तस्स जगदी तिलो० ५० ४-१५ / वेदादाहारोत्ति य गो० ० ३५४ वेढेदि विसयहेदूं * तिलो० ५० ४-६२६ / वेदालगिरी भीमा तिलो० सा० १८६ वेणइयमिच्छदिट्ठी भावस० ७३ वेदाहया कसाया पंघसं०५-४१ वेणइयं णादव्वं अगप० ३२० वेदिकडिसुत्तणिवहा जंबू०प०३-३४ वेणइय मिच्छत्त भावसं० ८४ / वेदिनादिद्विदिए लद्धिसा० ५४६ वेणुदुगे पंचदलं तिलो० ५०३-१४५ वेदीए उच्छेहो तिलो०प०४-२००४ वेणुवमूलोरभय-x गो० जा० २८५ | वेदीओ तेत्तियाओ तिलो. प०४-२३८८ वेणुवमूलोरव्भय-x कम्मप० ५६ वेदीणभंतरए तिलो० ५०३-४२ वेत्त-लदा-गहियकरा जंबू० प०११-२८२ | वेदीण रुंद दंडा . तिलो० ४-७२७ वेदकसाये सव्वं गो० क. ७२२ | वेदीण बहुमज्झे तिलो० ५० ३-४० वेदगकालो किट्टिय कसायपा० १८१(१२८) वेदीणं विच्चाले तिलो० ५००-४२१ वेदगखाइयसम्म भावति० ६६ / वेदीदो गंतूणं जवू० ५० १०-४० वेदगजोगो मिच्छो लद्धिसा. १८८ वेदीदो गंतूणं जंबू० प० १०-४७ वेदगजोग्गे काले गो० के० ६१४ वेदी-दोपासेसु तिलो. १०४-२२ वेदगसरागचरियं भावति० २६ वेदी पढमं विदियं तिलो० १०४-७१३ वेदड्ढकुमारसुरो तिलो० ५० ४-१६८ | वेदी वणुभयपासे तिलो. सा० ६१३ वेदवगिरीमूलं जंबू० ५०७-१२१ | वेदी वा बेउद्धं (?) जंवू०प०११-७४ वेड्ढगिरी वि तहा जबू० ५० -१४३ / वेदे च वेदणीये कसायपा० १३४(८२) वेदड्ढगुहाण तहा जंबू० प. ७-१२ वे-पंथेहिं ण गम्मइ पाहु० दो० २१३ वेदडूढणगो पवरो जं० प०७-७६ वेभंगचक्खुदंसण सिद्धत० ३६ वेदड्ढपव्यदेण य जबू०प०८-२७ वेभंगमणाहारे भावति० ११४ वेदड्ढपबदेण य जंबू०प०१-१११ वेभंगे बावण्णा प्रायः ति०४७ वेदडूढमज्झमागे जंबू०प० ७-६४ वे भंजेविणु एक्कु किउ पाहु० दो० १७४ वेदड्ढरिसभपव्वद- जबू० प०६-१२६ वेमाणिए दु एदे जवू० ५० ११-२१६ वेदड्ढवरगुहेसु य जबू०प०२-१५ भ० श्रारा० २०६६ वेदडूढसेलमूले जवू० १० ७-८४ / वेमाणिो थलगदो भ० श्रारा० २००० वेदडूढो वि य सेलो जबू० प०६-१०५ वेयड्ढउत्तरदिसा- तिलो० ५०४-१३५७ वेदणी(णि)ए गोदम्मि व पंचसं० ५-१७ | वेयडूढ-जंबु-सामलि- तिलो० सा० ६२ वेदतिए कोहतिए सिद्धत० १५ वेयड्ढ़ते जीवा तिलो० सा० ७७० वेदतिय कोहमाण गो० क. २६६ वेयण कसाय वेउव्विोx पचस० १-१६६ वेदयखइए भव्त्रा पंचस०४-३८० वेयणकसायवेगुध्वियो ४ गो० जी० ६६६ वेदयखइए सव्वे पंचसं० ४-५२ वेयणवेजावच्चे वेदयसम्मे केवलपंचसं० ४-३८ वेयरिणयगोदघादी * गोक०४६ वेदलमीसिउ दहिमहिउ सावय० दो० ३६ वेयणियगोदघादी * कम्मप० १२० वेदस्सुदीरणाए गो० जी० २७१ यणियगोयघाई पंचसं०४-४८७ वेदस्सुदीरणाए पंचस०१-१०१ वयणियाउयमोहे पंचस०४-२२० वेदंतो कम्मफलं समय० ३८७ | वेयणियाउयवज्जे पसं०४-२१६ वेदंतो कम्मफलं समय० ३८८ वेयणिये अङ-भंगा गो० क० ६११ वेदंतो कम्मफलं समय० ३८६ | वेयसण-जव-कुसंभय- श्रायः ति०१०-६ वेदादाहारोत्ति य गो० जी० ७२३ / वेयहिं सत्यहिं इंदियहिं परम० १० १-२३ मूला० ४७६ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स वेरग्गपरो साहू वेरुलिय- सुमगभा वेरुलियजलहिदीवा वेलियदंडरिणवा वेरुलिया उरा वेरुलियफलिहमरगय वेलियमय पढसं doलियर जसोका वेरुलियरयरिणम्मिय वेरुलियरयणदडा dear बंध वेरुलियरयरणरणाला वेरुलियरुचकरुचिरं वेरुलियवज्जमरगय वेरुलियवज्जमरगय वेरुलियाविमरणा वेरुलिर्याविमलाला वेरुलियाविमलदंड वेरुलियवेदिविहा चेरुलियवेदिरिणवहा वेलंधरदेवाण वेलधरभुजगविमा वेलंधरवंतरया वेलबणामकूडे वेलुरियफला विद्दुमवेलो (द) यपष्फुल्लियवेसणसेवणमंत वेसमणरणामकूडो वेममणणामदेवो f सहि लग्गइ धरिणयधणु वैजण अत्थश्रवग्गहवॅतर अप्पमहडूदियवेंत रजो इसियाण चैतरणिवासखेचं तरदेवा सवे तरदेवा बहुओ वात परे तिदुतिदुछचउवोच्छामि लयलईए चोदु गिलादि (मि) देहं वोलिय बंधावलिय प्राकृतपद्यानुक्रमणी मोक्खा० १०१ वोलाए सायर तिलो० प० ४ - २०६३ | वोलेज्ज चंकमंतो तिलो० प०५-२४ बोसट्टचत्त देहो वो सहरयणमाला वोसरदि बाहुजुगलो जबू० प० ४- २३३ जबू० प० ६ - ५६ जबू० प० ५-७३ तिलो० प० ४-७६६ तिलो० प० ८-३६६ जबू० प० ४-१७२ जंबू० प० १३ - ११३ जंबू ० ५० १३ - १२२ जबू० प० ६–१२५ - सइउठिया पसिद्धी तिलो० प०८-१३ जंबू० प० ६-१२२ नवृ० प० १३ – ११५ | स जब० प० ८- १३० ू सावय० दो० ४४ स इदाणि कत्ता संसइ पच्चक्ख-परोक्खे समादिमूल वग्गे जबू० प० ३-७४ सइ सुम्हि समक्खे जबू० प० ६-३२ | सई ठाणाओ भुल्ल जबू० प० १३-१२६ । सहाॅ मिलिया सहाॅ विहडिया जब्० प० ६-१३१ | सउरीपुरम्मि जादो जबू० प० ६-१४१ सक-रिव-वास-जुदारणं जबू० प० १-३२ सक्कदिगिंदे सोमे तिलो० सा० ६०३ | सक्कदुगम्मिय वाहणत्रिलो० प० ४–२४६१ |सक्कदुगम्मि सहस्सा तिलरे० प० ४–२७७६ | सक्कदुगे चत्तारो तिलो० सा० १०१२ । सक्कदुगे तिरिण सया श्राय० ति० १–२३ | सक्कर पहुदिसु एवं अंगप० ३-२ सक्कर हुदीरये तिलो० प० ४ - १६५८ | सक्कर- वालुव (अ)- पंका सक्करस मदिरादो सक्करस लोयपालो (ला) गो० जी० ३०६ सहविज्जद टुं तिलो० ० सा० २२१ सक्काई इंदत्तं तिलो० सा० २२५ |सक्कादीण वि पक्खं तिलो० प० ६-२ | सक्कादो से सुं तिलो० प०४-२३२६ सक्कारं उत्रकारं तिलो० ५० ४-२३८५ |सक्कारो सकारो ( मारणो ) छेदपिं० ७६ सक्का वसी छेत्तु 1 त्रिलो० प० १-१० सक्रिय जीव- पुग्गल भ० श्रारा० २७१ | सक्की साख गिहाणं लद्धिसा० ६३ सक्कीसारखा पढमं विलो० प० ४-२६३ भ० श्रास० १७४४ भ० श्रारा० २०६८ ० प० २०७१ मूला० ६५० जब ० २६६ गो० क० ८६३ पवयणसा० २-६४ छेदस० १६ ० सा० ७२ छेदस० २० भावस० ५८३ पाहु० दो० ७३ तिलो० प० ४-५४६ तिलो० प० ४- १४६६ तिलो० प०८-५३२ तिलो० प० ८-२७८ तिलो० प० ८-३०८ तिलो० प०८-३६२ तिलो० प० ८-३५८ प्रास० ति० २८ भावति ० विलो० ० ४७ तिलो० प० २-२१ तिलो० प० ८-४०६ तिलो० प० ४ - १६६४ भ० श्रारा० ६६७ भावस० ६३६ तिलो० प० ४-१०२१ तिलो० प० ८-५१३ भ० श्रारा० ६४८ भ० श्रारा० ८८० भ० श्रारा० ४३४ वसु० सा० ३३ तिलो० ०५०८-३६७ मूला० ११४८ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० पुरातन-जैनवाक्य-सूची स सक्कीसाणा पढम * गो० जी० ४२६ / सग मणपज्जे केवलपाणे सिद्धत०१६ सक्कीसाणा पढमा तिलो० ५०८-६८४ संगमाणेहिं विभत्ते गो०जी०११ सकुलिकण्णा करणप्पा- तिलो० ५०४-२४८३ सगमाणेहि विहत्ते मूला० १०३६ सको जंबूदीव गो० जी० २२३ सगयं तं रूवत्थं मावसं० ६२५ सक्को वि महड्ढीओ जंव० ५० ११--२३६ | सग-रविदलविवृणा तिलो० सा० ३७३ सक्को सहग्गमहिसी मूला० ११८३ सगरूवसहजसिद्धा करलाणा०४१ सक्कोसा इगतीसा जंबू० ५० ३-५१ सगवएणजीवहिसा पचस०१-१२८ सक्खापञ्चक्खपरंप- तिलो०५०१-३६ / सगवएणोवहिउवमा तिलो. प०२-२१२ सक्खि -कद-राय-हीलण- भ. श्रारा० १६३६ सगवान कोमारो तिलो. ५०४-१४६५ सक्खी-कद-रायासादणे भ० श्रारा० १६३८ सगवीसगुणिदलोश्रो तिलो० ५० १-१६८ सग अड चउ दुग तिय णभ तिलो०५० ४-२८६२ सगवीसचउक्कुदये गो० क० ७६५ सगइगिणवणवसगदुग- तिलो. ५० ४-०६७३ सगवीस कोडीयो तिलो. ५०-३६६ सगचउणहणवएका तिलो० ५० ७-५५४ गोक०७४ सगचउदोणभणवपण- तिलो० ५० ४-२६६६ सग सग अड इगि चउ चउ तिलो०५०४-२८८७ सगचउ पुव्वं वंसा गो० क० ६६३ । सगसगवहारेहि गो० जी० ६४० सगछक्केके (गि)गिदुग- तिलो० ५० ४-२७०० सगसगअसंखभागो गो० जी० २०६ सग छण्णव णभ सग तिय तिलो०५०४-२६०२ सगसगखेत्तगयस्स य गो० क. १८ सगजुगलम्हि तसस्स य गो० जी० ७७ सगसगखेत्तपदेससला- गो० जी० ४३३ सगजोगपञ्चया खलु श्रास. ति० ५५ सगसगगढीणमाऊ गो० क० ६४१ सगजोयणलक्खाणिं तिलो. प० २-१४६ सगसगचरिमिंदयधय- तिलो० सा० ४७१ सगडाणं [च] जुगाणं जबू०प०१३-३० सग सग छप्पण णभ पण तिलो०प० ४-२६११ सगडालएण वि तधा भ० श्रारा० २०७६ सगसगजोइगणद्धं तिलो. सा० ३४८ भ० श्रारा० ११०० सगसगपरिधि परिधिग- तिलो० सा० ३५१ सगणत्थे कालगदे भ० श्रारा० १६६५ सगसगपुढविगयाणं तिलो० ५०२-१०३ सग णभ तिय दुगणव एव तिलो०प०४-२८५४ सगसगफड्यएहिं लद्धिसा०४६६ सगणवतियछञ्चउदुग- तिलो० ५० ४-२६८६ सगसगभगेहि य ते पचस०५-३५७ सगणवसगसगपणपण- तिलो० ५०४-२६४६ सगसगमज्मिमसूई तिलो. प०५-२७२ सगणे आणाकोवो भ० श्रारा० ३८५ सगसगवड्ढिसमाणे तिलो० ५० ५-२५१ सगणे व परगणे वा म० श्रारा० ३६६ सगसगवड्ढी णियणिय- तिलो० सा० ६३३ सगतियपणसगपंचा तिलो० प०७-३४३ सगसगवासपमाणं तिलो० ५० ५-२५६ सगतीस तिलो०प०८-४५ सगसगसलायगुर्राणदं तिलो० ५०४-२८०० सगतीसलकग्वजोयण- तिलो० ५०८-३० सगसगसंखेज्जूणा तिलो० सा० ४७६ सगतीसं देसे तह सिद्धत० ७५ सगसगसादिविहीणे गो. क. १६० तिलो०प०२-११६ सगसगहाणिविहीणे तिलो० सा० ६१५ सग दो णभ तिय णव पण तिलो०प०४-२६६० सगसट्ठी सगतीसं तिलो. ५० ४--१४१८ सगपज्जत्तीपुरणे गो. क. २२१ | सगसत्तदचउदगपण- तिलो० प-४-२६३३ सगपणचउजोयणयं तिलो. प० १-२७१ सगसत्तीए महिला- वसु० सा० २१७ सग पण णभ दुग अड चउ तिलो०प०४-२८७६ सगसंखसहस्साणि तिलो० ५० ५-११२२ सग-पर-समय विदण्हू प्रा० भ० २ . सगसंभवधुवबंधे गो० क. ४६६ सगपचचउसमाणा तिलो० ५० १-२७२ | सगसीदि दुसु दसूणं तिलो० सा० १२५ सग Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स सगसदी सत्तत्तरि हत्या सट्टा सगुणम्मि जणे सगुणो सगुणा श्रद्धावा सग्गं तवेण सव्व सग्गे हवेहि (इ) दुग्गं सचिप मसिवसियामा सचिवा' चवंति सामिय सच्चइ सुदोय एदे सच्चपवादं छटुं सच्चम्मितवो सचम्मि सचवणं हिंसा सच्चं अवगददोसं सचं सचमोसं सच्च सच्चमोसं सचं वदंति रिस सच्चारणुभयं वयणं सच्चित्त पुढविचाऊ बा० प्र० ६ तिलो० सा० ५१० तिलो० प० ४-११२२ विलो० प० ४-५२० अंगप०२-०८ भ० थारा० ८४२ मूला० ०७६ भ० श्रारा० ८४१ मूला० ३०० म० आर० ११६२ भ० धारा० ८३७ गो० क० ०६० क्षे० ७ मूला० ४६५ भावपा० १०० कत्ति० ० ३७६ मूला० १७ भ० धारा० ११६२ मूला० ४६६ भ० श्रारा० २०४६ भ० श्रारा० ८४३ भ० श्रारा० ८३६ सच्चेयणपञ्चक्खं कत्ति० श्र० १८२ सच्छजलपूरिवाहि तिलो० प० ४- १५८ सच्छंद्रगडागदसयरणसीहिं वियपयारिण मूला० १५० गो० क० तिलो० प०८-४४५ सच्चाइ भाजणाई सच्छेण दुक्खवेमिय समय० २६७ ०२१ (ज) सजणे य परजणे वा वसु० सा० ६४ सज्जादिजीवस सड्ढा वढियाए मूला० १८ |सडूढावदिविजडावदिसावय० दो० १४० सडूढावं विजडावं भ० रा० २०५४ |सडूढावं विजडावं मूला० ७६४ सरिकाचिदमणिकाचिदछेदस० २५ सण-राहु-जुओ एवं जबू० प० १०-६८ | सद्धबद्ध प्राकृत पद्यानुक्रमणी तिलो० प० ४ - १४१७ | सज्झायणियम महिदे शाय० ति० १८ - १३ सज्झायणियम सहिदे भ० आर० ३६७ | सज्झाय देवचंद - सज्झाय भावणाए सचित्तभत्तपाणं सच्चित्तं पत्तफल सच्चित्ताचित्ताणं सच्चित्ता पुरण गंथा सच्चित्रण व पिहि 'सच्चित्ते साहरिदो सच्चेण जगे होदि पमाणं सच्चेण देवदा सज्झाएँ गाणहॅ पसरु समायकाय पहिले हरणा सज्झायमाणजुत्ता सज्झायरियमवंदरण सम्झायरिणयमवंदण पचस० ३-६ मोक्खपा० २३ | सज्झायरहियकाले सभायं कुवंतो + सज्झायं कुवंतो + सज्झाय कुव्वंतो + सज्झाये पट्टवणे सट्टासमुग्धादे सट्टा श्रवजिदसट्टा तावदियं मट्ठाणे विश्वालं सट्टा विश्वाल मट्ठाणो यथरा सट्ठिजुद तिसयाणि सजुदं तिसयाणि सद्विजुद तिसयाणि जुदा तिसयागि सट्ठिसहस्मजुदाणि समस्मभयं सद्विसहस्सा गवसयसट्टि महस्सा तिसयन्भहिया सहिदपढमपरिहिं सट्ठि चेत्र सहस्सा सट्ठि तसं दस दस सट्ठि साहसी सीि | सट्टी जुदमेक्कसया सट्टी तमप्पा सट्ठी ती दस तिय सट्ठी पंचसयागि सट्टीसत्तसहि २७१ समय० ३७३ छेदस० २४ चेदपिं० २६६ भ० भारा० ११० छेदस० ४२ मूला० ४१० मूला० ६६६ भ० धारा० १०४ सुला० २७१ गो० जी० ५४२ लद्धिसा० ६१८ द्धिसा० ३४२ तिलो० प०२-१८७ तिलो प० २- १६४ श्राय० ति० २-१६ तिलो० प००-१२० तिलो० प० ७-१४४ तिलो० प० ७-२२२ तिलो० प० ०-२३४ तिलो० प०८-१६३ तिलो० प०८-३७८ तिलो० प० ४-१२१६ तिलो०प०४ - ११७१ तिलो० सा० ३८६ जबू० प० ६-५ तिलो० प०४ - १३६६ भ० आर० १३८१ जंबू० प० ११ - ८१ तिलो० प०३-१०५ तिलो० प० २-७६ तिलो० प० ४- १२६४ तिलो० प०८-२६० तिलो० सा० १४० भ० धारा० ३१६ तिलो० प० ४-२२११ तिलो० सा० ६६८ तिलो० सा० ७१६ अगप० २-४७ श्राय० ति० ४-२५ जंबू० प० ३-८७ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ पुरातन-जैनवाक्य-सूची सरणद्धवद्धकवया जंबु० ५० ११-२४३ सरणी वि तहा सेसे गो० क० ५४६ सराइभेयभिएणं दव्वस० णय० ३१८ | सरणीसु अमरणीसु य कसायपा० ८२(२६) सरणाओ कसाए वि य भ० नारा० २६८ | सरणी मएिणप्पहुदी गो० जी० ६६६ सराणायो य तिलेस्सा पचत्यि० १४० सरणो हुवेदि नव्वे तिलो० ५० ५-२६४० सरणा-गारव-पेसुण्ण- म० श्रारा० ११२६ / सतिपचमच उदिवसे । तिलो. सा. ४०१ सरणाणतिग अविरद- गो० जी० ६८७ सत्तअपजत्तेसु य पचसं० ५-२६२ सरणा-णदीसु अढा म० श्रारा० १३०३ / सत्तअपज्जत्तेसुं पचस०५-२६७ सरणाणपंचयादी ___ गो० क० ३२४ | सत्तफरणाणि अंतर लद्विमा० ४३३ सण्णाणरयणदीओ तिलो. १०३-२४३ | सत्तकरणाणि अतर- लद्विसा० २४६ सरणाणरासिपंचय- गो० जी० ४६३ / सत्तक्खरं च मतं माणमा०२५ सण्णाणं चउमेयं णियमसा० १२ | सत्तखण्वसत्तेक्का तिलो० प० ४-२७६१ सरणाणे चरिमपर्ण गो० क० ५४० सत्तगुणे ऊरणकं तिलो० ५०-५३० सरणासणकाले पुण छेदपि १४६ | सत्तग्गहिदिबंधो लदिसा०६१ सरणासेण मरतयह सावय० दो० ७५ । सत्तघणहरिदलोयं तिलो. प० १-१७६ सरणाहिं गारवेहिं अ मूला० ७३४ ) सत्त च्चिय भूमीअो तिलो० ५० २-२४ सरिणअपज्जत्तेसुं पंचसं० ४-४२ सत्त च्चिय लक्खाणि तिलो० ५०-१७२ सरिण असएिणचउक्के गो० २० १४६ सत्तछट्टचक्का तिलो. प०७-३८७ सरिणअसएिणसु दोरिण य सिद्धत. ११ सत्तच्छ पंच च तिय तिलो. ५०-३२७ सरिणअसरिणसु बारस सिद्धत० २० सत्तट्ट छक्कठारणा पचसं ३-४ सरिणअसणगी आहा- पचसं० ४-३८३(ख) मत्तट्टणवदमादि(णि)य तिलो० प०८-३६६ सरिणअसरणी जीवा तिलो० ५०३-२०० सत्तहणवदमादिय- तिलो०प०८-२१० सरिणअसएगीण तहा मूला० ११७१ सत्तहणवदसादिय तिलो० ४-८३ सरिणअसरणी होति हु तिलो० प०५-३०६ सत्तहणवदसादिय- तिलो० ५०३-५७ सरिणम्मि मणुस्सम्मि य गो००६०१ सत्तट्ठ एव य पणरस पचस०५-४०२ सरिणम्मि सणिणदुविहो पचस० ४-१६ सत्तट्ठप्पहुदीओ तिलो०प०७-१६ सरिणम्मि सबबंधा पचस० ५-४६३ सत्तट्टप्पहुदीहिं तिलो. १०४-१७०६ सरिणम्मि सव्ववधो गो० क. ७०४ सत्तट्ठवंध अट्ठो पचसं ५-५ सरिण-वि-सुहमणि पुण्णे लद्धिसा० ६२५ सत्तहमभूमीया जंवू० ५० ३-६० । सएिणस्स अोघभंगो पंचस०५-२०४ सत्तहाणे रज्जू तिलो० प०१-२५६ सारणस्स बार सोदे गो० जी० १६८ सत्ताढिगयणखडे . तिलो. प० ७-५२१ सरिणस्स मगुस्सस्स य गो० क. ५३६ सत्त णभ णव य छक्का तिलो० ५० ७-३३६ सरिणस्स हु हेद्वादो गो० क. १५० सत्तणवअट्ठसगणव तिलो. ४-२५६७ सरिणस्स होति सयला श्रास० ति० १६ सत्त णव छक्क पण णम तिलो. प०७-३६४ सरिणस्सुववादवरं गो० क० २३७ मत्तएहं उवसमदो गो० जी० २६ सरणीोघे मिच्छे गो० जी० ७१६ सत्तरहं उवसमदो भावति०६ सरणी छस्संहडणो* गो० क०३१ सत्तरहं गुणसंकम गो० क० ४२२ सरणी छस्लहडणो* कम्मप०५ सत्तएहं पढमट्ठिदि- लद्धिसा० ४४६ तिलो०प०४-४१८ सत्तएहं पढमहिदि लद्धिसा० ४४५ सरणी पज्जत्तस्स य पंचसं०५-२५६ सत्तरहं पयडीणं लद्धिसा० १६३ सएणी य भवणदेवा तिलो० ५०३-१६२ / सत्तण्हं पयडीणं लदिसा० १६५ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · स सत्तरहं पयडीए सत्तरह पयडी सत्तरहं पुढवीणं सत्तरहं विसरणारां सत्तरह संकामग सत्त तया कालेज्जसत्त तलाविण्या सत्ततिगं आसाणे सत्ततिछदहत्थंगुलारिण सत्ततियट्ठचउरणव सत्तत्तरि चैत्र सया सत्तत्तरि-जुद-छ-सया सत्तत्तरि-लक्खाणि सत्तत्तरि-सविसेसा सत्तर-तं सतत्तरं सहस्सा सत्तत्तरं सहरसा सत्तत्तरी सहस्सा सत्तत्ती लक्खा सत्तदिरा कत्तिया सत्त दिरणाई यिच्छइ सत्त दिरणा छम्मासा सत्तदुदु छक्क पंचति सत्तपदे अट्ठम सत्तपदे देवी सत्तपदे बघुया सत्तपदे वल्लभिया सत्त- पत्था व सदो सत्तप्पयार रेहा प्राकृतपद्यानुक्रमणी लद्धिसा० ६०१ सत्तमखिदिजीवाणं ० ३०८ | सत्तमजम्मावीणं सत्तमरणारहितो गो० जी० ७११ कत्ति० सत्त भए अट्ठ भए रुत्तभय-अडमदेहिं सत्तम खाकगदे सत्तमखिदिरणारया सत्तमखिदिपणिधिम्हि य सत्तमखिदिबहुमन्झे * सत्तमखिदिबहुमज्मे सत्तमखिदिम्मिको सं सत्तमखिदीय बहले वसु० सा० १३४ लद्धिसा० ४५४ भ० श्रारा० १०३० | जबू० प० २-८३ गो० क० ३७२ तिलो० प०२ - २१६ तिलो० प० ७-३२४ | पचस० ५-३५६ तिलो० प० ८-४१ तिलो० प० ४-१२६५ तिलो० प० ७-१८८ तिलो० प० ७- १५२ तिलो० प० ७-४०४ | सत्तरसट्ठट्ठीणिदु तिलो० प० ८-३३ | सत्तरसधिया (य) सदं खलु तिलो० प० ७-३०२ तिलो० प०८-३१ सत्तमयस्स सहस्सा सत्तमयं गुणठाणं सत्तमिए पुढवीए सत्तमि- तेरसि-दिवसम्मि सत्तमि- तेरसि-दिवसे सत्त य छक्कं पराग सत्तय सरासरणा सत्तय सरासरणां सत्तर-धरणुक्क या सन्तरस उदद्यभगा सत्तर सए ( ये ) क्कवीसारिण सत्तरस - जोयणागि रिट्स० २४४ रिट्स० ५० गो० जी० १४३ तिलो० प० ४-२५८६ सत्त दु वास- सहस्ला मूला० ११०६ सत्तपदारणाणीए (णीयाणि) तिलो० प०८ - २६८ | तिलो० सा० ५०६ तिलो० सा० २०८ सत्तरसं दसगुरिद सत्तरसं बंधतो सत्तरसं बाणउदी गो० क० ६६६ सत्तरसं लक्ग्वाि तिलो० सा० ५१३ | सत्तरसादि अडादी अगप० २-२४ सत्तर सुहुमसरागे मानसं ० ४५३ | सत्तर से अडचदुवीसे मूला० ५२ | सत्तर सेकग्गस तिलो० प० ४ - १४६३ | सत्तर सेक्कारखचदु सत्तर सपचतित्था सत्तरस मुहुत्ताह सत्तर स- सदसहस्सा सत्तरस-सय सहस्सा सत्तरस सुहुमसराए सत्तरसं चावाणि सत्तरसं वय तियं 4 तिलो० प० ४-४५६ सत्तरस्क्कारखचदुतिलो० प०२-२०१ सत्तरि श्रव्भ हिय-सयं तिलो० सा० १२५ सत्तरिचउसदजुत्ता तिलो० प० २-२ | सत्तरि-जुद - अट्ठसया तिलो० सा० १५० | सत्तरि-सय- खित्तभवा गो० जी० ४२३ | सत्तरि-सय-गयराणि य तिलो० प० २ - १६३ | सत्तरि-सय-यसहगिरी २७३ तिलो० प०२-२१४ तिलो० सा० ६४ कत्ति० अ० १५६ तिलो० प०८-२३० भावस० ६४१ मूला० १०६१ वसु० सा० २८१ कत्ति० श्रणु० ३७३ कसायपा० ५४ तिलो० प० ४-६२ तिलो० प० २-२२८ जंबू० प० ११-२५४ पचस० ५-३३६ जवृ० प० ११-५६ तिलो० प० ७-२५८ तिलो० प० ७-५०८ पचस० ५-४७४ गो० क० १५१ तिलो० प० ७-२८६ जंबू० प० ११-६५ तिलो० प०४-२३८३ पंचस० ४-४६८ तिलो० प० २-२४३ गो० क० ६५६ गो० क ८५४ पचस० ५-२५० तिलो० सा० ७५० तिलो० प०२-१३८ गो० क० ६७१ गो० क० २१२ गो० क० ६८१ गो० क० १०३ गो० क० २७६ गो० क० २८२ तिलो० प० ४-२३६५ गंदी० पट्टा० १८ तिलो० प० ८-७७ कल्लाणा० २३ तिलो० सा० ७१९ तिलो० सा० ७१० Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ पुरातन-जैनवाक्य-सूची सत्तरिसहस्सइगिसय- तिलो० प० ४-१२१७ सत्ताणि अणीयाणि य तिलो० ५०८-२५४ सत्तरिसहस्सजोयण- तिलो० प० ४-७१ सत्ताणीयपहूणं तिलो० ५०-३२८ सत्तरिसहस्सणवसय- तिलो० प०८-२० सत्ताणीयाण सु(घ)रा तिलो० प० ४-१६८३ सत्तरिसहस्सणवसय तिलो० प०८-८० सत्ताणीयाणि तहा जबू०प०६-७० सत्तरिसहस्सलक्खा अगप०१-४५ सत्ताणीयाणि तहा जबू० प०६-१४ सत्त वि तच्चाणि मए वसु० सा० ४७ / सत्ताणीयाणि तहा जंबू० प० ११-१३१ सत्त वि रुक्खा परुसा जंबू०प०११-१७६ सत्ताणीयाहिवई तिलो०प०८-२७३ सच विसच विकच्छा जब०प०११-२८५ | सत्ताणीया होति हु तिलो० प०३-७७ स । वि सिखासणाणिं तिलो. प०२-२२६ सत्तादि दस दुमिच्छे पचसं०५-३०४ सत्तविहरिद्धिपत्ता जंवू० प० ७-६३ / सत्तादी अटुंता गो० जी० ६३२ सत्तसए तेवराणे दसणसा०३८ सत्ताधिया(य) सप्पुरिसा मूला० ८६१ । सत्तसयकुभासेट्टि(हि)य जबू० ५० १३-१२४ | सत्ता बाण उदितियं गो० क० ७१४ सत्तसयचावतुंगो तिलो. प० ४-४५७ । सत्तारसी एगूणवीसिमा छेदपिं० २४१ सत्तसयणउदिकोडी- जबू० ५० १-२५ तिलो०प०४-२०१७ सत्तसयसुणयदुरणय- अगप०२-४० | सत्तारसेक्कवीसा कसायपा०३० सत्तसया इक्कहिया तिलो. प०७-१७२ सत्तावरण-सहस्ला. तिलो. प०४-१७१८ सत्तसयाणिं व य तिलो० ५०४-११४१ । सत्तावरणं च सया जबू०प०११-६६ सत्तसया परणासा तिलो० प०४-२०७५ सत्तावरणा चोदस- तिलो०प०८-१६२ सत्तसया पण्णासा जंबू० प० ६-८८ सत्तावीसदिमा वि य छेदपिं० २४, सत्त-सर-महुर-गीयं तिलो. प०५-२२२ सत्तावीस-सहस्सा तिलो० ५०७-२६५ . सत्तसहस्सणदीहि य जबु० प०८-१३८ । सत्तावीस-सहस्सा तिलो. प०८-६३० सत्तसहस्साणि धणू तिलो० ५०४-६७ सत्तावीस-सहस्सा जबू०प०१-७६ सत्तसहस्साणि पुढं तिलो. ५०४-११२५ | सत्तावीस-सहस्सा जबू० ५० १०-१५ सत्तसु णरयावासे भावपा. सत्तावीसहियसयं गो० क० ४७१ सत्तसु पुराणेसु हवे* सिद्धत. ४४ सत्तावीसं च सदा जंबू०प०३-३१ सत्तासु पुरणेसु हवे * सिद्धत. ७० सत्तावीसं दंडा तिलो०प०२-२४६ सत्तसु य अणीएसुं तिलो० प०४-२१७८ सत्तावीसं.लक्ख तिजो० ५०८-४४ सत्त-हिद-दुगुण-लोगो तिलो० ५० १-२३२ सत्तावीस लक्खा तिलो०प०२-१२७ सत्त-हिद-वारसंसा तिलो प० १-२३६ सत्तावीस(सा) लक्खा तिलो० ५० ४-१४४६ सत्तंगरज्जवणिहि- रयणसा० २० सत्तावीस लक्खा तिलो०प०४-१४४८ सत्तं जो ण हु मरणइ दन्वस० णय० ४६ | सत्तावीस लक्खा तिलो०प०८-१७० सत्तं तिणउदिपहुदीगो० क०७४८ सत्तावीसं सुहुमे पचसं० ५-४८५ सत्तं दुणउदिणउदी- गो० क० ७५२ / सत्तावीसा लक्खा. तिलो० ५०४-१४४० सत्तंबुरासि-उवमा तिलो० प०८-४६७ | सत्ता सव्वपयत्था सत्त समयपबद्ध गोक० ६४३ सत्तासंबद्धदे पवयणसा० १-६५ सत्ता अमुक्खरूवे * गयच० २६ सत्तासीदिचदुस्सद तिलो० सा० १३६ सत्ता अमुक्खरूवे. * “दवस. णय० २०१ सत्तासीदिसहस्सा तिलो०प०७-३०४ सत्ताई (तस्साइ) लहुबाहू तिलो० ५० १-२४८ | सत्तासीदिसहस्सा तिलो० ५०७-४०६ सत्ताणउदीजोयण- तिलो० ५० २-१६३ | सत्तासीदीजोयण जबू० प०-५० सत्ताणउदी हत्या तिलो०प०२-२४७ तिलो०५०२-२६२ पचत्यि० ॥ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणा २७५ सत्ताहियवीसाए पंचस०३-७५ | सत्थं णाणं ण हवइ समय० ३६० सत्ताहियवीसेहि तिलो० ५० १-१६७ सत्थ बहलं लेवड भ० श्रारा० ७०० सत्तीए भत्तीए भ० श्रारा० ३०४ सत्थाई विरइयाइ, भावसं० १५५ सत्तीकोदड-गदा- तिलो० प०४-१४३१ सत्थाणमसत्थाणंx लद्धिसा० ३८ सत्तीदो चागतवा कम्मप० १५६ सत्थाणमसत्थाणंx लद्धिसा० ३६१ सत्ती य लदादारू+ गो. क. १८० सत्थाणं धुधियाणम गो० क. १७६ सत्ती य लदादारू + कम्मप० १४२ सत्थादिमज्मअवसाणएसु तिलो० ५० १-३१ सत्तुदये अडवीसे गो० क० ६८७ सत्थिअ- पदावत्तप्पमुहा तिलो० ५० ४-३४८ सत्तु वि महुर उवसमइ सावय० दो० १४२ सत्थु पढंतु वि होइ जडु परम० प० २-१३ सत्त वि मित्तु वि अप्पु परु परम० प० २-१०४ सत्येण सुतिक्खेण य जवू. प०१३-१८ सत्तुरसासो थोओ भावस० ३१३ सत्येण सुतिक्खेणं तिलो० प० १-६६ सत्तुस्सासो थोवं तिलो०प०४-२८७ सत्थो सुहासणत्थो श्राय० ति० २३-१५ सत्तूमित्ते व समा बोधपा० ४७ सदणउदिसीदिसत्तरि- तिलो० प० ८-३६५ सत्तू वि मित्तभावं वसु० स० ३३६ सद-तेवीसव्वासे ण दी० पट्टा० १२ सत्त वि होदि मित्तो कत्ति० श्रणु०५७ तिलो०प० ७-५०३ सत्तेक्कु पंच इक्का कत्ति० अणु० ११८ सदभिस भरणी अदा तिलो० ५० ७-५१८ सत्तेताल धुवा वि य गो० क० ४०४ सदभिस भरणी अद्दा तिलो. ५० ७-५२३ सत्तेतालसहस्सा मूला० १०६७ सदभिस भरणी अद्दा * भ० श्रारा० १९८६ सत्ते बधुदया चदु गो० क० ७५३ सदभिम भरणी अद्दा * तिलो० सा० ३६६ सत्ते य(व)अहोलोए वसु० सा० १७१ सदमुग्विद्धं हिमवं तिलो० प० ४-१६२२ सत्तेयारस तेवीस- तिलो. प०८-५२५ सदरविमाणाहिवई जबू० ५० ५-१०३ सत्तेव अपज्जत्ता* पंचस० ५-२६५ सदरसहस्साराणद- तिलो० ५०८-१२८ सत्तेव अपज्जत्ता* गो० क. ७०५ सदरिं सहस्स लक्खं सुदखं० १६ सत्तेव महामेघा जंवू०प०७-५७ सदरीसहस्म धवलो सुदख० ८८ सत्तेव य प्राणीया x तिलो० सा० ४६५ सदलविसद समातिय तिलो० सा० ८११ सत्तेव य आणीया x तिलो० सा० २३० सदलि(रि)-सय-राजधाणी जबू० ५० १३-१५० सत्तेव य बलभद्दा णिन्वा० म० ३ . सटवट्ठिय सहावे पवयणसा०२-७ सत्तेव सत्तमीओ वसु० सा० ३६६ सद-वासट्ठि-गसेसु णदी. पहा.७ सत्तेव सहस्साई पचसं० ५-३८५ तिलो. सा. ६६६ सत्तेत्र हुति भगा दव्वस० णय० २५३ | सदसिव सखो मक्कडि गो० जी० ६६ सत्तेव होति लक्खा जबू०प० ६-४२ सद सुय-केवलवाणी णदी० पट्टा०६ सत्तो जतू य माणी य अगप० २-८७ सदा आयारविद्दण्हू मूला० १०६ सत्तो वि ण चेव हदो म० श्रारा० १४२२ सदि आगे सदि बले भ० श्रारा०२४६ सत्थगदी तसदसय गो० क० ४२० सदिमलंभतस्स वि कादव्वं भ० श्रारा० १५०६ सत्यग्गहणं विसभक्षण मूला० ७४ सदिमतो धिदिमतो भ० श्रारा० १६४३ सत्यत्तादाहारं गो० क० ६१३ सद्दत्थ पच्चयादो णयच० ६३ सत्थ पढतह ते वि जड जोगसा० ५३ सदमिसिण दुंदुहि रडइ सावय० दो० १७५ सत्थन्भासेण पुणो कत्ति० अणु० ३७५ सहरसरूवगधे + म० श्रारा० ११७-१ सस्थविरुद्ध किं पिय श्रगप० ३-५३ | सदरसरूवगधे + मूला० २६६ सत्थसएण वियाणियह सावय. दो० ३०५ | सद्दवदीणं पास भ० श्रारा०६८५ गा०६ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ पुरातन-जैनवाक्य-सूची सद्दवियारो हो बोधपा० ६१ | स(त)पिंडअट्टलक्खेसु तिलो० ५० ४-२८२७ सहव्वरओ सवणो मोक्खपा० १४ | सप्पबहुलम्मि रण्णे भ० श्रारा० ११६६ सहव्वं सच्च गुणो पवयणसा०२-१५ सप्पंडयाणमुवरि छेदपिं० ४० सद्दव्वादिचउच्के + णयच०२५ सप्पिं मुक्की कंचुलिय पाहु० दो० १५ सहव्वादिचउक्के + दवस० गय० १६७ रयणसा० २६ सदहाइ सस्सहावं श्रारा० सा०६ तिलो. सा. २६० सदहणासदहण ४ पचस०१-१६६ सबलचरित्ता कूरा तिलो० ५०८-५५५ सदहणासदहणंx गो. जी. ६५४ | सम्भंतमसम्भंतो जवू १०११-१४७ सदहदि य पत्तेदि यs भाषपा० ८२ सम्भावमणो सच्चो गो० जी० २१७ सद्दादि य पत्तेदि यs समय० २७५ सम्भावसभावाणं पंचयि० २३ सदाउलिय बहुजण श्रंगप०३-३७ सम्भावं खु विहावं दवस. य०१८ सद्दारूढो अत्थो * गयच०४२ सभावासम्भावा वसु० सा० ३८३ सद्दारूढो अत्यो * दव्वस० णय० २१४ सम्भावाऽसम्भावे सम्मइ०१-४० सदावदि गंडावदि जवू० ५०३-१०८ सम्भावे आइहो सम्मा० १-३६ सहेण मओ रूवेण भ० श्रारा० १३५३ भावसं० २६१ सहे रूवे गंधे म. धारा०५२३ | सम्भावो सञ्चमणो पंचस० - सद्दे रूवे गंधे भ० श्रारा० ५४१३ | सम्भावो हि सहावो पवयणसा०२-१ सद्देसु जाण णाम दवस० गय० २८० सन्भूदमसत्भूदं ५ दवस० गय० १८७ सदो खधप्पभवो पंचस्थि० ७६ सम्भूयमसम्भूयं : गयच०१५ सदो गाणं ण हवइ समय०३६१ | समऊ(यू)पदोरिणावलि- लद्धिसा० ४५८ सद्दो बंधो सुहुमो दवसं० १६ | समऊ(यू)णेक्कमुहत्तं तिलो० ५० ४-२८८ सदो हवेह दुविहो रिट्ठस. १८० | समए समए भिरणा लद्धिसा० ३६ सद्धाण-णाण-चरणं दव्वस० गय० ३७१ समो णिमिसो कट्ठा पंचयि० २५ सद्धाण-णाण-घरणं दव्वस० णय० ३७८ समओ दु अप्पदेसो पवयणसा०२-४६ सद्धा तच्चे दंसण दव्वस० गय० ३२० अंगप०१-३३ सद्धा भगती तुट्ठी वसु० सा० २२३ / समओ हु वट्टमाणो गो० जी० ५७८ सधणो वि होदि णिधणो कत्ति० अणु० ५६ / समकदिसल विकदीए तिलो० सा०६३ सपएस पंच कालं वसु० सा० ३० | समखंडं सविसेसं लद्धिसा० ४६६ सपडिक्कमणं मासिय छेदस० ५७ ।। समचउरवज्जरिसहं गो० ० ४२ सपडिक्कमणुववासदिवसे छेदपि०१६ ! समचउरस णिग्गोहं कम्मप०७२ सपडिक्कमणो धम्मो मूला० ५२६ । समचउरस-णिग्गोहा सपदेसेहिं समग्गो पवयणसा०२-१३ समचउरस वेउब्विय पंचसं०३-२३ सपदेसो सो अप्पा पवयणसा० २-८६ समचउरससंठाणो सपदेसो सो अप्पा पवयणसा० २-६६ | समचउरसं ठिदीणं तिलो०प०६-६३ सपयत्थं तित्थयरं पंचत्थि. १७० समचउरस्सा दिव्वा जबू० प०१७-२१३ सपरणिमित्तपउंजिदछेदापि ५ समचउरं ओरालिय पंचस०५-१७४ सपरं बाधासहियं पवयणसा० १-७६ / समचउरं पत्तेयं पंचसं०५-१८३ सपराजंगमदेहा बोधपा० १० समचउरं वेउव्विय पंचसं० ४-३१६ सपरावेक्खं लिंगं मोक्खपा०६३ | तिलो.सा. ३० सपरिग्गहस्स अब्बंभ- भ० पारा० १२४५ | समयमुहुग्गदमहें पचस्थि०२ मूला० १०६० वसु० सा० ४६७ + Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी २७७ समण गणिं गुणड्ढं पवयणसा०३-३ | समाहियतिभागजोयणा- जंबू०प० १०-१६ समण वंदेज्ज मेधावी मूला० ५६५ | समहियदिवड्ढकोसा जंवू०प०७-८६ समणा अमणा णेया दन्चस० १२ समहियदिवड्ढकोसा जवू० ५०८-१८३ समगाणं ठिदिकप्पो भ० श्रारा० १६६७ समहियसोलसजोयण- जवृ० १०५-२० समणा सराय इयरा दन्वस० गय० ३४६ समिदकदो घदपुण्णो भ० श्रारा० १००६ समणा सुद्धवजुत्ता पवयणसा. ३-४५ समिदा पचसु समिदीसु भ० श्रारा० २६७ समणे णिच्चलभूये तञ्चसा० ७ भ० श्रारा०१८४१ समणो त्ति संजदो त्ति य मूला० ८८६ समिदिदियखिदिसयणे छेदस० ५४ समणो मे त्ति य पढमं मूला०६८ समिदीसु य गुत्तीसु य भ० श्रारा०१६ समताल कसतालं जंबू०प०४-२५६ समिदीसु य गुत्तीसु य भ० श्रारा० १९५३ समदा तह ममत्थं दवस० णय० ३५४ समुदाएण विहारो भावसं० १२६ समदा थो य चंदण मूला० २२ सम्म गुण मिच्छ दोसो मोक्खपा०६६ समदा सामाचारो मूला० १२३ सम्मगु पेच्छड जम्हा दव्वस० णय० ३६८ समधाऊ वि रा गिरहइ रिट्टस. १३३ सम्मन्निऊण सयमवि। रिट्टस० १४४ समभूमिय लेट्ठिच्चा रिट्टस० ६७ सम्मरणाणे णियमेण सम्मइ० २-३३ समयजुददोरिणपल्लं तिलो० ५० ५-२८६ सम्मत्त अभिगदमणो जबू०प०१३-१६१ समयजुदपल्लमेक्कं . तिलो. प०५-२८८ सम्मत्तगहणहेदू तिलो० ५० ५-४ समयजुदपुचकोटी विलो०प०५-२८७ | सम्मत्तगुणणिमित्तंx पचस०३-१४ समयहिदिगो बधो * गो० क. २७४ सम्मत्तगुराणिमित्त ४ पचस०४-३०४ समयट्ठिदिगो बंधो * लखिसा० ६१३ सम्मत्तगुणणिमित्तं ४ पचस० ४-४८३ समयत्तयसखावलि गो० जी० २६४ सम्मत्तगुणपहारणो कत्ति. अणु० ३२६ समयपबद्धपमाणं गो० क. ६४२ सम्मत्तचरणसुद्धा चारित्तपा. समयपरमत्थवित्थरसम्मइ०१-२ सम्मत्तचरिमखंडे लद्धिसा० १४० समयं पडि एकक तिलो० ५० १-१२७ सम्मत्तणाणअजब- तिलो. प०८-५५८ समयावलि उस्सासो दव्वस० णय० १३८ सम्मत्तणाणचरणे णियमसा० १३४ समयावलिउस्सासा तिलो. प०४-२८४ सम्मत्तणागजुत्तं पचत्थि० १०६ समयावलिभेदेण दु णियमसा० ३१ सम्मत्त णाण दसण * चसु० सा० ५३७ , समयूणा च पविट्ठा कसायपा० २३१(१७८) सम्मत्त गाण दसरा * भावसं०६४ समरे विसखरकरिगो आय. ति० १५-६ सम्मत्त गाव दंसण * धम्मर० १६२ समवट्ठवासवग्गे तिलो० ५० १-११७ | सम्मत्तणाणदंसा सीलपा०३४ समवत्ती समवाओ पचत्थि० १० सम्मत्तणाणदसणा दसणपा०६ समवसरणपरियरियो सुदख०७ सम्मत्तणाणरहिओ मोक्खपा० ७४ समवाओ पचण्हं पंचस्थि०३ / सम्मत्तणाणसंजम मूला० ५१६ समवायंग अडकदिअंगप० १-२६ । सम्मत्तदेसघादिस्सु गो० जी० २५ समवित्थारो उवरिं तिलो० ५०४-१७८७ | सम्मत्त देसविरयी कसायपा० १४(२) समविसमट्ठाणाणि य गो० क० ६२५ सम्मत्तदेससयलचरित्त-+ गो० जी० २८२ समवेदं खलु दव्वं पवयणसा०२-१० सम्मत्तदेससयलचरित्त-+ कम्मप० ६१ समसत्तुबंधुवग्गो पवयणसा० ३-४१ सम्मत्तदेससयम पंचसं०१-११० समसतोसजलेण य कत्ति० अणु० ३६७ | सम्मत्तपडिणिबद्ध समय०१६१ समसुद्धभूपएसे रिहस० ७२ | सम्मत्तपढमलंभस्सा- कसायपा० १०१(४८) Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ सम्मत्तपढमलंभो सम्मत्तपढमलंभो सम्मत्तपयडिपढमट्ठिदीसु सम्मत्तपयडिमिच्छतं सम्मत्तमिच्छ परिणामे सम्मत्तरयणजुत्ता सम्मत्तरयणपव्वद सम्मत्तरय । पञ्चय- + सम्मत्तरयणपव्त्रय- + सम्मत्तरयणभट्ठा सम्मत्तरयल भे सम्मत्तरयणसारं सम्मत्तरयहणा सम्मत्तदिचित्तो सम्मत्तविरहियाणं सम्मत्त सलिलपवहो सम्मत्त सलिलपत्रहो * सम्मत्तसजमादि सम्मत्तसुदवएहिं य सम्मत्तस्स रिणमित्तं सम्मत्तस्स पहाण सम्मत्तस्य लंभे सम्म तहिमुहमिच्छो सम्मत्तं जो भार्यादि सम्मत्तं देसजमं सम्मत्तं देसजमं सम्मत्त देवयं x सम्मत्तं सा x सम्मतं सा सम्मत्तं सरणा सम्मत्तं सद्द सम्मत्तं सयलजमं सम्मत्तादिमलं भस्सा सम्मत्तादीचारा सम्मत्तादो गाणं सम्मत्तादो समन्तादोई सम्मत्पत्ति वा सम्मत्तप्पत्ती सम्मत्तपत्ती पुरातन जनवाक्य-सूची कसायपा० १००(१७) | सम्मत्तूणुव्येल्ल - पचस० १-१७१ सम्मत्ते सुदे य लद्धिसा० २११ सम्मत् वियलद्धे दमणसा० ४१ सम्मत्ते सत्त दिणा गो० जी० २४ हिं तिलो० प० ३-५४ तिलो० प० २-३५५ पंचस० १-६ सम्मत्ते सम्मत्ते विणु वयवि गय सम्मत्तं सावयवयहॅ सम्मदिरणामो कुलकर गो० जी० २० सम्म दसग्गपवेसे दंसणग० ४ | सम्मदुचरिमे चरिमे सम्मद्दस गाणं धम्मर० १४१ रयणसा० ४ सम्म सा तिलो० प० ४-२५०० सम्म सरणा तिलो० प० २-३५८ सम्म मातुंचं दसणपा० ५ | सम्मद्दसणमिणमो घम्मर० १४० सम्मर्द्दमरता दंसणपा० ७ सम्मर्द्दसारयणं श्रंगप० ३ - ३३ | सम्मद्दंसणरयणं भावस० ३१८ | सम्मदंसणरयणं यिमसा० ५३ | सम्मद्दंसणसुद्धं वसु० सा० १४ | सम्मदंसणसुद्धा भ० श्रारा० ७४२ | सम्मदंसणसुद्धा द्धिसा० ६ | सम्मद्दंसणसुद्धा मोक्खपा० ७७ | सम्मदंसणसुद्धिमुज्जलयरं गो० क० ६१८ | सम्म ससुद्धो तिलो० प० २-३५६ | सम्मद्दंसणसुद्धो कत्ति० अ० १५ | सम्म सणसुद्धो मोक्खपा० १०५ | सम्मद्दसणहीरगा बा० अणु० १३ | सम्मद सरिण परसइ मिसा०५४ सम्महंस रिण पस्सदि भ० श्राग० ४४ पंचथ० १०७ | सम्मद्दिट्ठी जीवा तिलो० प० २-३५७ सम्मलितरुणो अंकुरपचसं० १ - १७२ | सम्मलिदुमस्स बारस सम्मलिरुक्खाय थलं दंसणपा० १५ सम्म विसरणं मूला० १०३ | सम्मविसोही तवगुणरयणसा० ६६ | सम्मविहीणुव्वेल्ले लद्धिसा० १७० सम्मस्स असंखाणं गो० जी० ६६ सम्मस्स संखेज्जा लद्धिसा० २१५ सम्मं दस्स परिस्सवस्स गो० क० ४२६ मूला० २३४ ० श्रणु० २६५ पचसं० १- २०५ कत्ति ० स 4 वसु० सा० ४२ सावय० दो० २०६ सावय० दो० १६४ तिलो० प० ४-४३३ तिलो० प० ४-४३८ , लद्धिमा० १५५ समय० १४४ दव्वस० ३६ मूला० ११८५ भ० श्रारा० १८६५ सम्मइ० ३-६२ मूला० ७० तिलो० सा० ८५६ तिलो० प० ४-२५१३ जवू० प० १०-८६ रयणसा० १६० तिलो० प० ४-२१६४ विलो० प० ४-२१६६ जंबू० प० ८-६७ तिलो० प०८-६६६ जबू० प० १३-१६५ कत्ति ० ० ३०५ जबू० प० ६-७८ जब ० ० प० १०-६२ बोधपा० ४ १ चारितपा० १७ समय० २२८ तिलो० प० ४-२१५६ तिलो० प० ४- २१६५ तिलो० प० ४-२१४८ रयणसा० ४७ रयणसा० ३८ गो० क० ४२४ लद्धिसा० १२२ लखिसा० २०७ भ० श्रारा० १४७३ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी २७६ . नर सम्म खवएणालो भ० थारा० ६२२ सम्मा वा मिच्छा वि य दव्वस० णय० ३३० सम्मं चेव य भावे जोगिभ०२ सम्मुग्घाईकिरिया भावस. ६७६ सम्म णाणं वेरग्ग रयणसा० १६५ सम्मुच्छणा मणुस्सा कत्ति० अणु० १३३ सम्म मिच्छं मिस्स गो० क० ४११ सम्मुच्छिमजीवाणं तिलो०प० २६४ सम्मं मे सव्वभूदेसु * णियमसा० १०४ सम्मुच्छिमा य मणुया मूला० १२१५ सम्मं मे सव्वभूदेसु * मूला० ४२ सम्मुच्छिमा(या) हु मणुया कत्ति० अणु० १५१ सम्मं मे सव्वभूदेसु * मूला० ११० | सम्मुदये-चलमलिगम- लद्धिसा० १०५ सम्म विदिद-प्रदत्था पवयणपा०३-७३ । सम्मूहदि रक्खेदि य लिंगपा० ५ सम्म सुदिमलहंतो भ० भारा० ४३३ सम्मे घादेऊणं तिलो० सा० ५३३ सम्माइगुणविसेस रयणसा० १२६ सम्मेलिय वासडिं तिलो. १०७-१६६ साइट्ठी कालं पचस०५७ सम्मेव तित्थवधो गो० क. ६२ सम्माइट्ठी-जीवडह जोगसा० ८८ सम्मो वा मिच्छो वा गो० क. १७६ सम्माइट्ठी जीवो+ पंचस० १-१२ सम्मोहरणाए कालं म० श्रारा० १६६ सम्माइट्ठी जीवो + गो० जी० २७ सम्मोहसुराण तहा जंवू० प०८-८४ सम्माइट्ठी जीवो कत्ति० अणु० ३२७ सयअट्ठोत्तरजविरं रिट्ठस० १५० सम्माइट्ठी पाणी रयणसा० १४३ सयअडयालपईणं मूला० १२३५ सम्माइट्ठी शिरतिरि- पचस०४-१७५ सयउज्जलसीदोदा तिलो० प०४-२०४४ सम्माइट्ठी देवा तिलो०प०३-१६६ | सयकदिरूऊपद्धं विलो० प० २-१६६ सम्माइट्ठी देवा तिलो० ५०८-२८७ सयकोडी बारुत्तर अंगप०१-१२ सम्माइट्ठी मिच्छो पचस०४-४७४ सयजोयणउबिद्धा जबू०प०४-७५ सम्माइट्ठी सद्दहदि कसायपा० १०३(५०) सयडं जाणं जुग्ग मूला० ३०४ सम्माइट्ठी सावय मोक्खपा०६४ सयपस्स जपस्स पिओ भ० श्रारा० १३७६ सम्माण विणय(विणा) रूई रयणसा० ८४ सयणस्म पढमतइए श्राय० ति०५-७ सम्मादिट्ठिजणोघे जंबू० ५० १३-१६८ सयणस्स परियणस्स य मूला० ६६८ सम्मादिहिस्स वि अवि-४ मूला० ६४० सयणं कहति चोरं आय० ति० १८-१५ सम्मादिट्ठिस्न वि अवि-४ भ० श्रारा० ७ सयणं मित्तं आसय- भ० श्रारा०८६६ सम्मादिट्ठी जीवो भ. श्रारा० ३२ सयणाणि आसपाणिं तिलो० ५०३-२३६ भ० श्रारा० १८२८ सयपाणि आसणाणि तिलो० ५० ४-१८३६ सम्मादिट्ठी-पुराण 1 भावस० ४०४ सयणागि आसपाणिं तिलो० ५० ५-२११ सम्माट्ठिी पुरिसो भावस० ५०२ / सेयणासपमुहाणिं तिलो०प०४-२१६२ सम्मादिठिदिमीणे लद्धिसा० २१४ सयणे जणे य सयपा भ० श्राग०८८५ सम्मामिच्छत्तेयं पंचसं० ३-३४ सयणे जाण धयाइसु प्रायः ति० १८-१६ सम्मामिच्छाइट्ठी पचसं०४-३७० सयभिस भरणी अदा श्राय० ति०१७-१० सम्मामिच्छाइट्ठी कसायपा० १०५(१२) । सयमेव अप्पणो सो भ० श्रारा० २०४२ सम्मामिच्छाइट्ठी कसायपा० ६८(४५) लयमेव कम्मगलणं दव्यस० णय० १५७ सम्मामिच्छुदएण य भावस० १६८ सयमेव जहादिच्चो पवयणसा० १-६८ सम्मामिच्छदयेण य गो० जी० २१ | सयमेव वंतमलणं भ. श्रारा० १३२४ सम्मामिच्छे जाणसु- पंचस० ५-३७७ | सयलकुहियाण पिंडं कत्ति० अणु० ८३ सम्मामिच्छे जाणे पचसं० ५-३७० सयलघरगतिमिरदलणं जंबू० प० १३-१२७ सम्मामिच्छे भंगा पचसं० ५-३६२ , सयलचरित्त तिविहं लद्धिसा. १८७ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० पुरातन-जैनवाक्य-सूची जंत्र०प० मयलजणबोहणत्थं योधपा० २ मर-सलिले थिरभूए तश्चमा०११ सयलह-विसह-जोओ कत्ति० अणु०५० सरसीए चंदिगा म. धारा-150 मयलदिमाउ णियच्छइ रिस० १३२ सरसूलसव्वलहिं य रिटम० ८३ सयल-पयत्थहँ जं गहणु परम० ५० २-३४ मरिश्रो विमाणविसम्बर- प्रायः ति० २-२६ सयलभवणेक्कणाहो तिलो० सा० ६८६ । मरिदा सुवएणरूप्पय- तिलो. सा. ५७१ मयलरसरूपगंधेहिं गो० क. ११ सरिपन्यताण मज्झे जंबू०प०७-५१ सयल-वियप्पहूँ जो विलउ परम० ५०२-१६० सरिमुखदमगुणविउला जबू०प०३-१५४ सयल-वियप्पहें तुट्राहे परम० ५० २-१६५ मरियायो जेत्तियायो तिलो० ५० १-१८४ सयलवियप्पे थक्के तवमा०६१ मरियाण सरियानो तिलो० ५० १-२०१६ सयल वि सग मिल्लिया परम० ५० २-१६६ । मरिसं जहएणपाऊ अगप० १-३४ सयलससिसोमवयणं पसं०४- सरिसायद-गजदंता तिलो० सा० ७५६ सयलसुरासुरमहिया तिलो० ५० ५-२२८१ | सरिसायामेणुवरि गो० क.०३१ सयलह कम्म] दोसह वि परम० ५०२-१६८ | सरिसासरिस दवे गोक०५३ सयलगेक्कंगेक्क गोक०८८ सरिसो जो परिणामो कत्ति० अगु० २४१ सयलं जंबूढीव सलिलणिवुढो व्व णगे भ० धारा० ६१४ सयलं पि इम भणियं छेदपिं० ३११ सलिलम्मि तम्मि उवरि जबू० ५० ७-१३६ सयल पि सुदं जााइ तिलो० ५० ४-१०६२ मलिलादीणि अमझ भ० धारा० १८१८ सयलं मुणेह खधं वसु० सा० १७ सलिलावरि उदो तिलो० ५० ४-२०७ सयलागमपारगया तिलो० ५० ४-६६ सलिले वि य भूमीए तिलो० ५० ४--१०२७ सयलारा दवाण कत्ति० घणु० २१३ सल्लम्मि दिट्टपुत्वे श्राय० ति०१८-३० सयलावबोहसहियं जबू प०६-१६२ सल्लविसकंटएहिं भ० थारा० १२६८ सयलिंदमंदिराण तिलो० ५०८-४०४ / सल्लं उद्धरिदुमणो भ० श्रारा० ४०८ सयलिंदवल्लभारणं तिलो. प० -३१८ सल्लेहणस्स पक्खे छेदर्पि० १५० सयलिदाण पडिंदा तिलो० ५० ७-६१ | सल्लेहणं करतो भ. श्रारा० २७२ सयलीकरणु ण जाणियउ पाहु० दो० १८४ | मल्लेहणं करतो भ० धारा० १७२ सयलुद्धिणिभा वस्सा तिलो० सा० ६२७ / सल्लेहणं पयामेन्ज भ०,धारा० ४२५ सयलु वि को वि तडप्फडइ पाहु० दो० ८८ सल्लेहण सुणित्ता म. श्रारा०६८० सयलेहिं णाणेहिं तिलो. प० ४-२६३६ सल्लेहगाए मूलं भ० अारा०६८ तिलो० प०१-१३६ सल्लेहणा दिसा खामया भ० श्रारा०६८ सयवग्गं एक्कसय तिलो० ५० ४-१७५२ सल्लेहणा-परिस्सममिमं भ० श्रारा० १६७५ सयवत्तिमल्लिसाला- तिलो० ५०४-१८१४ सल्लेहणा य दुविहा भ० श्रारा० २०६ सयवंतगा य चंपय तिलो० ५० ५-१०७ सल्लेहणा विसुद्धा भ० भारा० १६७४ सरए णिम्मल सलिलं जब० ५० १३-१०६ सल्लेहणा सरीरे भ० श्रारा० २५० सरगदिदु जसादेज गो० क० २६७ सल्लेहणा सरीरे श्रारा० सा० ३५ सरजा गंगासिंधू तिलो० सा० ५७८ सल्लेहिया कसाया पारा० सा० ३६ सर-जुयलमपज्जत पचसं० ५-१६२ | सवणादिअट्ठभागि तिलो०प०७-४७१ सरजूए गधमित्तो भ० श्रारा० १३५५ ) सवसा सत्तं तित्थं बोधपा०४३ सरवासे वि पडते * भ. श्रारा० १२०२ सविचारभतपच्चक्खा- म० भारा० ६६ सरवासेहि(वि)पडते * मूला० ३२८ | सविचारभत्तवोसरणमेव भ० भारा० २०१० ५२ तिलो० ५० ४-१७८२ । सविदा चंदा य जदू' ज० ५० ११-२७२ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी २८१ सविपागा अविपागा वसु० सा० ४३ | सव्वण्हूणाम हरी धम्मर० १३० सवियप्पणिव्यियप्प सम्मइ० १-३५ सव्वण्हू वि य णेया धम्मर०६६ सविसग्गविंदुऊऐ- श्राय० ति० ६-५६ | सम्वत्तो वि विमुत्तो भ. श्रारा० ३३५ सव्व अचेयण जाणि जिय जोगसा० ३६ सव्वत्थ अत्थि खंधा दवस० गय० १४३ सबइँ कुसुम छडियइँ सावय० दो० २५ | सव्वत्थ अस्थि जीवो पस्थि० ३४ सव्वगओ जइ विण्हू भावस० ४० | 'सव्वत्थ अप्पवसिओ भ० आरा० ११७७ सबगो जइ विण्हू भावस०४५ सव्वत्थ इत्थिवग्गम्मि भ० श्रारा० ३३४ सबगो जदि जीवो कत्ति० अणु० १७७ | सव्वत्थकप्पणीयं अगप० २-४३ सव्वगदत्ता सव्यग नसु० सा० ३७ सव्वत्थ णिवुणबुद्धी वसु० सा० १२८ सधगदो जिणवसहो पवयणसा० १-२६ सम्वत्थ णिव्विसेसो भ० आरा० १६८६ सव्वगुण-खीराकम्मा • सीलपा० ३६ सव्वत्थ दवपन्जय भ० श्रारा० १७० सव्वगुणसमग्गाणं भ० धारा० १००० सव्वत्थ पज्जयादो दव्वस० णय० २३३ सव्वगुणेहि अघोरं तिलो० ५० ४-१०५८ सव्वत्थपुर सत्तुजय तिलो०प०४-१२० सव्वग्गविमुक्को भ. श्रारा० ११८२ कत्ति० श्रा०६१ सव्वजगजीवहिदए भ. श्रारा० ३८१ सव्वत्थ होइ लहुगो भ० श्रारा० ११७६ सव्वजगस्स हिदकरो मूला० ७५० सव्वदहाणं मणिमय- भ० श्रारा०४-७८७ सन्नजयजीवहिदए भ० श्रारा० ३८० सबदिसा पूरेता जबु० प० ४-१६१ सव्वजहएण आऊ कत्ति० श्रणु. १६४ सबदुक्खप्पहीणाणं मूला० ३७ सव्वजहएणो देहो । कत्ति० अणु० १७३ सव्वपरहाणे य __गो० क. १७६ सव्वट्ठविमाणादो जबू० प० ११-३५६ सव्वपरियाइयस्स य भ० श्रारा० ६३२ सव्वट्ठसिद्धिइंदय- तिलो०प०८-६५१ सव्वपरिहीसु बाहिर- तिलो० प०७-४५३ सव्वट्ठसिद्धिठाणा तिलो. प० ४-५२१ सव्वपरिहीसु रत्तिं तिलो० ५० ७-३६६ सव्वट्ठसिद्धिणामे तिलो० प०८-१२६ सव्वभंतरमुक्ख तिलो० प०५-१६४ सव्वट्ठसिद्धिणामे तिलो० प०८-५५८ | सव्वभरहाण णेया जबू० प० २-१०८ सव्वट्ठसिद्धिवासी तिलो०प०८-६७५ सव्वमपज्जत्ताणं मूला० ११६३ सव्वट्ठादो य चुदा मूला० ११८२ सबमरूवी दव्वं गो० जी० ५६१ सव्वहिदीणमुक्कस्सो * पचस०४-४१६ सव्वमिदं उवदेसं __ मूला०६३ सट्ठिदीणमुकस्सओ * गो० क. १३४ | सम्मि इत्थिवग्गम्मि भ० पारा० ११०३ सव्वहिदीणमुकरसओ ** कम्मप० १३० | सबम्मि लोखित्ते भ० श्रारा० १७७६(३०) सव्वट्ठोत्ति सुदिट्ठी तिलो० सा०५४६ सव्वम्हि लोयखेत्ते बा० अणु० २६ सव्वणईणं णेया जवू०प०३-२०२ गियमसा० १३८ सव्वणयसमूहम्मि वि सम्मइ० १-१६ | सव्वविदेहेसु तहा जबू० प० २-११४ समणिरयभवणेसुं कसायपा० ६२(३६) सव्वविदेहेसु तहा कम्मप० ८१ सव्वएणवएणगधाणियप्पा० ७ सव्ववियप्पहँ तुट्ट] पाहु० दो० ११० सव्वण्हुणाणदिट्ठो समय० २४ | सव्वविरओ वि भावहि भावपा०६५ सव्वण्हुमुहविरिणग्गय- जंबू० ५० १३-३ | सव्व नमाधाणेण य भ० श्रारा० १६३२ सव्वण्हुवयणवज्जिय धम्मर० ८७ | | सव्वसमासेणवहिद- गो० जी० २६६ सव्वण्हु सव्वदंसी चारित्तपा० १ | सव्वसमासो णियमा गो० जी० ३२६ सवण्हुसाधपत्थं जबू० प०१३-४५ सव्व गो० क० ६२७ सव्वण्हु सव्वजिणं जबू० प० १-७ | सव्वसुयं अक्खरयं सुदख० ५६ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ पुरातन-जैनवाक्य-सूची सव्वसुराणं ओघे गो० जी० ७१६ सव्वाओ किट्टीए कसायपा० १६८(११५) सव्वस्स कम्मणो जो दव्वस० ३७ सव्वाओ दु ठिदीओ * गो० क० १५४ सव्वस्स तस्स परिही तिलो०प० ४-१७०३ सव्वाओ मगहराओ तिलो. प० ४-१३७० सव्वस्स तस्स रुदो तिलो० ५० ५-१४२ सव्वाअो वएणणालो तिलो० ५०४-२२५६ सव्वस्स दायगाण भ. श्रारा० ३८३ सव्वाओ वि ठिदीओ* पंचस० ४-४१८ सव्वस्स मोहणीयस्स कसायपा० १३६(८३) सव्याओ वि रासीओ श्राय० ति० ४-६ सव्वस्सेक्क रूवं गो० क० ४३० | सव्वाओ(ग) वेदीयं । जंवू० ५० १-६५ सव्वस्से ((त्थे)ण ण तित्ता भावस० २४ | सव्वागासमवंत तिलो० सा०३ सव्वहिं रायहिं छहरसहिं पाहु. दो० १०१ सव्यागासस्स तहा जंबू०प०४-२ सव्वहिं रायहिं छहि रसहिं परम० प० २-१७२ | सव्वाण इंदयाणं तिलो० प०८-८२ सव्वं आहारविधि भ० श्रारा० २०३६ सव्वाण गिरिवराणं जंब० प०४-७२ सव्वं आहारविहिं मूला० १११ सव्वाण दिगिंदाणं तिलो० प०८-१६ सव्वं आहारविहिं मूला० ११३ सव्वाण पज्जयाण कत्ति० अणु० २४४ सव्वं कालो जणयदि अगप० २-१६ | सव्वाण पयत्थाणं तिलो०प०४-२८१ सव्वं केवलकप्पं मूला० ५६४ सव्वाण पव्वदाण जब० १० ११-३५ सव्वगअंगसभव गो० जी०४४१ सव्वाण पारणदिणे तिलो०प०४-६७१ सव्वंगबल जस्स य श्राय० ति० २१-११ सव्वाण भूहराणं जब० प०३-२२५ सव्वंगसुंदरीओ जबू० ५० ५-८३ सव्वाण मउडबद्धा तिलो०प०४-१३८६ सव्वगसुंदरी सा जंबू० ५० ११-२६१ सव्वाण यणीयाणं जब०प०४-१७० सव्वंगं पेच्छंतो वा. अणु०८० सव्वाण विदेहाणं जब० ५०७-७० सव्व च लोयणालिं * तिलो० प०८-६८६ सव्वाण सहावाणं दव्वस० णय० २४७ सव्वं च लोयणालि * तिलो० सा० ५२८ | सव्वाण सुरिंदाणं तिलो०प०८-२६४ सव्यं च लोयणालिं * गो० जी० ४३१ सव्वाणं कलसारणं जब० ५० १३-२६ सव्व चायं काऊ श्रारा० सा०५४ सव्वाणं च णगाणं जव० ५०३-२२४ सव्य जइ सधगयं दवस० गय० ५० सवाणं चरिमाणं जब० प०४-२१३ सव्वं जाणादि जम्हा कत्ति० अणु० २५५ सव्वाणं दव्वाणं कत्ति० अणु० २१४ सव्वं तिगेग सव्वं गो० क. ३६० सव्वाणं दवाणं कत्ति० अणु० २१६ सव्व तित्थाहारुभऊणं गो० क० ६१० सव्वाण दवाणं कत्ति० अणु ०२१८ सव्व तिवीसछक्क सव्वाण दवाणं कत्ति० अणु०२३६ सव्वं पाणारंभ + सव्वाणं देवाणं जब०प०३-२५ मूला०४१ सव्वं पाणारंभं + सव्वाणं वाहिरए तिलो०प०४-७३० मूला० १०६ सव्वं पि अणेयंत सव्वाणि अणीयागि तिलो०प०८-२६६ कत्ति० अणु० २६२ सव्वं पि संकमाणो सव्वाणि अणीयाणिं तिलो०प०८-२७० भ० श्रारा० ११४८ सव्वं पि हु सुदणाणं | सव्वाणि जोयणाणि य जब० ५० १२-६६ मूला० १०५ सव्वं पि होदि परये सव्वाणि वरघराणि य जव० ५०३-१२२ कत्ति० अणु० ३८ गो० क०५०५ सव्वापन्जत्ताणं सव्वं भोच्चा धिद्धी म० श्रारा० ६६४ सन्वं समल पढम सव्वाबाधविजुत्तो पवयणसा०२-१०६ सव्वं सहावदो खलु सव्वाभिघडं चदुधा अंगप० २-२३ | सव्वायरेण जागह। कत्ति० अणु०७६ सव्वं सुहासुहफलं श्रायः ति० २०-१ सव्वायासमणतं "कत्ति० अणु० ११५ सव्वाउबंधभंगे गो० क० ६४७ । सव्वारभणियत्ता गो० क०७१६ गो. क. ६७० मूला० ४४० मूला० ७२ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स सव्वावयवे पुरो सव्वावरणविमुक्कं सव्वावरणं दव्वं सव्वावरणं दव्वं सवावरणीय पु सव्वावरणीया साहस को सव्वावास - जुत्त सव्चा विवेदिसहिया सव्वा सवणिरो सव्वासि पयही सव्वा अवस्थासु वि सव्वासु जीवरासिसु सव्वासुं परिही सुं सव्वाहार विधाणेहिं सव्वाहिमुहठियं तं सव्वुक्कस्सठिदीणं * सव्वुक्कस्सठिदीणं * सवुक्कस्सठिदीयं * सव्वक्करस जोगं nagar मोही सव्वरि वेदरणीये सव्वे हिमा खलु सव्वेणा इरिगहणा साहि सव्वेश्रणाइरिहरणा सव्वे सजदाइ (दा ति सवेरा का सव्वे श्रागमसिद्धा सवे उवरि सरिसा सव्ये कम्म विद्धा सव्वे करेइ जीवो सव्वे कलह - रिणवारणसव्वे फसायो सव्ये कुतिमेरुं सव्वे खलु कम्मफलं सव्वे गोउरारा सव्त्रे छाणजुदा सम्माि सजीव दे प्राकृतपद्यानुक्रमणी वसु० सा० ४१६ सच्चे जीवा खाणमया अंगप० २-७५ | सव्वे खारइया खलु गो० क० १६७ | सव्वे तोरणविहा गो० क० १६६ सव्वे दुसमे पुन्वे कसायपा ७६(२६) सवे दीवसमुद्दा कसायपा० १३३ (८०) सव्वेदे मे सपदि सव्वेपि पुत्रभंगा सव्वे पि पुत्रभंगा * सव्वे पुरापुरिसा सव्वे पुच्चरणबद्धा गो० जी० ४१४ मूला० ६८४ सव्वे पुचाहिमुहा सव्वे बम्हंतसुरा सव्वे वधाहारे सव्वे भावे जम्हा सव्वे भोए दिव्वे सव्वे भोगभवाणं सव्वे मंदकसाया पचस० ४-४२० गो० क० १३५ कम्मप० १३१ | सव्वे रसे पणीदे भ० श्रारा० १६२८ | सव्वे वक्खारगिरी गो० क० ६४८ | सव्वे वि कोहदोसा पंचस० ४-४६१ जबू० १० २-८६ | तिलो० प० ४-१६०६ तिलो० प० ४-१६२८ सव्वे व दोसा सव्वे विजयेत्था सव्वे वि जिगवरिंदा सव्वे विणिज्जितो सव्वै वितिरसंगा सव्वे व ते काया सव्वे वि थिरारंभा सव्वे विपचवरणा भावस० ६६२ | सव्वे वि पोग्गला खलु सव्वे व बंधारणा जबू० प० ८-१८७ मोक्खपा० ३० गो० क० ६३२ भ० श्रारा० १०११ भावस ० ४७ | तिलो० प० ७ - ३६२ भ० श्रारा० १६५७ | तिलो० प०४-८८ जंबू० प० ४-६६ ) तिलो० १०३ - १६० तिलो० प० ३-११६ पवयसा ३-३५ कत्ति० श्रणु० २०२ समय० २६८ तिलो० प० ४५५ मोक्खपा० २७ तिलो० ० प० ७-६१२ | सव्वे वि य रहता सव्वे वि य उवसग्गे सव्वे विययंते सव्वे विरइया पंचस्थि० ३६ | सन्धेविय ते भुत्ता तिलो० प० ४ - १६४३ | सव्वे वि य परिहीणा तिलो० प० ३-१८६ | सव्वे वि य परीसहा (हजया) तिलो० प० ४-१३३२ सव्वे त्रि[य]मिलिएसु य गो० क० २२८ | सव्वे विय संबधा २८३ जोगसा० ६६ तिलो० प० २-२८० जबू प० प० ४-७० तिलो० प० ४-१४४० तिलो० प०५-८ जव० प० १३-७० वा० श्ररणु० २६ मूला० १०३५ गो० जी० ३६ यिमसा० १५७ समय० १७३ तिलो० प० ४-१८२४ तिलो० प० ८-६४० पंचस० ५-४६६ समय० ३४ भावसं ० ५६३ तिलो० प० ५-२६७ भावसं ० ५४१ भ० श्रारा० २०७ तिलो० प० ४-२३०७ भ० श्रारा० १३७८ भ० श्रारा० १३६२ भ० श्रारा० १४३७ जबू० प० ४-२८१ भ० श्रारा० २०४० भ० थारा० ५२७ मूला० ११६५ श्राय ० ति० ३-१२ जंबू ० ५० ४-१६ वा० अ० २५ पचसं० ५-२७५ पवयणसा० १-८२ भ० श्रारा० १५१६ दव्वस० गाय० ५५ धम्मर० ६५ भ० श्रारा० १४१६ सीलपा० १८ चारि० भ० ८ पचसं० ५-२६० भ० श्रारा० ७६३ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ पुरातन-जैनवाक्य-सूची सव्वे वि वाहिणीसा सव्वे वि वेदिणिवहा सव्वे वि वेदिणिवहा सव्वे वि वेदिसहिदा सव्वे वि वेदिसहिया सव्वे वि वेदिसहिया सव्वे वि वेदिसहिया सव्वे वि सुरवरिंदा सव्वेसणं च विद्देसणं सव्वे समचउरस्सा सव्वे ससिणो सूरा सव्वेसमासमाण सव्वेसिं अत्थित्त सव्वेसि अमणाणं सव्वेसिं इत्थीण सव्वेसिं इंदाण सम्वेसिं इंदाणं सम्वेसिं उदयसमागदस्स सव्वेसिं एदाणं सम्वेसिं कम्माणं सव्वेसिं कूडारणं सम्वेसि खंधाणं सव्वेसिं गंथाणं सन्वेसिं जीवाणं सव्वेसिं जीवाण सम्वेसिं तिरियाणं सन्वेसि व्वाणं सव्वेसिं पज्जाया सव्वेसि पयडीणं सव्वेसि पयडीणं मव्वेसिं वत्थूणं सव्वेसिं सम्भावो सव्वेसि सामरणं सव्वेसिं सामरणं सम्वेसिं सुहमाणं सव्वेसु उबवणेसुं सम्वेसु णगेसु तहा सव्वेसु दव्वपञ्जयसम्वेसु दिगिदाण सम्वेसु भूहरेसु य तिलो० ५० ५-१० सव्वेसु मदिरेसुं तिलो. प०८-४० जबू० प० ३-१६६ | सव्वेसु य कमलेसु य जबू० प०६-४३ जंबू० ५० १२-७३ सव्वेसु य तित्थेसु य दसणसा० १% जवू० प० ३-३२ सव्वेसु य पासादेसु जंवू० प० ६-१६८ जबू० ५० १०-३४ सव्वेसु य मूलुत्तरगुणेसु भ० श्रारा० १६५६ जबू० ५० ११-३६ सव्येसु वणेसु तहा जबू० प० २-८२ जंव०प० ११-१२८ सव्वे सुवरणवरणा तिलो० सा०८१८ जबू० ५० ४-२६८ सव्वेसु वि कालवसा तिलो० प० ४-१४८५ * मूला० ४८६ | सव्वेसु वि भोगभुवे तिलो० ५० ५-३०२ तिलो० सा० ६७१ | सव्वेसु होति गेहा जबू०प०६-६६ तिलो० ५० ७-६११ सव्वेसुं इंदेसुं तिलो० ५०३-१०१ ___ भ० आरा० ७६० सव्वेसुं इदेसुं तिलो० ५०८-३२३ दव्वस० णय० १४७ | सव्वेसुं कूडेसुं तिलो० ५० ५-२२५६ मूला० ११२४ | सव्येसुंणयरेसुं तिलो०प०८-४३५ कत्ति० अणु ० ३८४ | सन्चेसुं थंभेसु तिलो०प०४-१९१३ तिलो. प० ३-१३४ सव्वेसं भोगभवे तिलो०प०४-२६३४ तिलो० ५० -५४१ सव्वेहिं जणेहि समं जंबू० ५० १०-७० __ भ० भारा० १८४६ सव्वेहिं ठिदिविसेसेहिं कसायपा० ६६(४३) जबू० प० ११-१२७ । सव्यो उवहिदबुद्धी भ० भारा० ८५८ कत्ति० अ० १०३ / सव्यो ट्ठियअणुभागे कसायपा० १५६ (१०६) तिलो० सा० ६६० । सत्वो पि य आहारो मूला० ६४५ पचत्थि० ७७ सयो पोग्गलकाओ भ० श्रारा० २०१७ णियमसा० ६० सयो पोग्गलकाओ भ० श्रारा० २०४८ भावसं० ४६० सव्वो लोयायासो कत्ति. अणु० २०६ पचत्थि०१० सव्यो वि जणो धम्म धम्मर०८ पंचसं० ५-१५२ | सव्वो वि जणो सयणो भ० श्रारा० १७५६ भावस०३०८ | सबो वि जहायासे भ० भाग० ७८६ दवस० गय० १४२ मूला० ४८ पचसं०३-१३ | सम्वोहित्ति य कमसो गो० जी० ४२२ पचस०४-३०३ | ससगी वाहपरद्धो भ० श्रारा० १७८३ कत्ति० अणु० २७५ | ससरीरा अरहंता कत्ति० अणु० १६८ दव्वस० णय० ३७३ | ससस्वचिंतणरओ कत्ति० अणु० ४६६ भ० थारा० १६३३ । ससस्वत्थो जीवो कत्ति० अणु० २३२ ० श्रारा० १६३२ ससरूवत्थो जीवो कत्ति० अणु० २३३ गो० जी० ४६७ ससख्वममुन्मासो कत्ति० अणु० ४७६ तिलो. प० ४-१७४ सससवलिकरणा वि य भावसं० ५३६ जबू० प० ६-५३ ससहरकिरणसमागम- जंवू०प० ४-१८६ भ० श्रारा० १६८४ ससहर-णयरतलादो तिलो० ५० ७-२०२ तिलो० ५०८-२६२ | ससहावं वेदंतो जंवृ० ५० ३-२२६ । ससिकंतखंडविमलेहिं तच्चसा०५६ वसु० सा० ४२६ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी सकप्प ससिकतरयणणिवहा जंवू० प० ३-१६६ | सहिदय सकरणयामो भ. श्रारा० ३७९ ससिकतरयसियरा . जबू० प० ६-६६ | सहिदा वरवावीहिं तिलो० प०४-८०८ ससिवंतवेदिणिवहा जबू० ५० ६-७५/ संकप्रमो जीवो कत्ति० अणु० १८४ ससिकतसुरकंतक्कक्के- जबृ० प०१०-१२ भ. श्रारा० ८६० ससिकतसुरकतप्पमुह- विलो० ५० ४-२०१ / संकम-उवक्कमविही कसायपा० २४ ससिकतसूरकता जबू० ५० ५-७४ । संकमण तदवट्ठ लद्धिसा० ४५३ ससिकिरणविप्फुरतं वसु० सा० ४५६ संकमणं सठ्ठाण गो० जी० ५०३ समिकुसुमहेमवरणा जव० प० २-१८ / संकमणाकराणा गो० क० ४४१ ससिणिद्धभूमिगमणे छेदपिं० १६५ | सकमणे छट्ठाणा गो० जी०५०५ ससिणिद्धेण य देयं मूला० ४६४ / संकमदि सगहाणं लद्धिसा० ५११ ससिणो परणरसारण तिलो० ५० ७-४६० । संकमदो किट्टीणं लद्धिसा० ५३० ससिधवलसुरहिकोमल- जव० प० ५-११६ / संकंतम्हि य णियमा कसायपा० १२६(७६) ससिधवलहसचडियो जव ० ५० ५-६७ / संकतीइ(य) मुहुत्तं (ते) थाय० वि० ५७-८ ससिधवलहारसएिणभ- जब० ५० ४-२८ संकाइदोमरहिओ(य) वसु० सा० ५१ ससि पोखइ रवि पज्जलइ पाहु० दो० २२० / संकाइदोसरहिये भावस. २७६ ससिबिंबस्स दिणं पडि तिलो. प०७-२१२ / संकाइय अट्ठ मय सावय० दो० २० ससिलसकासं तिलो. प० ४-६१९ / संकाकखागहिया तच्चसा०१४ ससिरयणहारसरिणभ- ज०० ५० -११४ | संका करखा य तहा छेदपिं० ३२० ससिसंखाए विहत्तं तिलो० प०७-५५६ संकामगपट्ठवगस्स कसायपा० १२५(७२) जवू०प०६-१४८ संकामगपट्टवगस्स कसायपा० ससिसूग्दीवयाई रिट्टस० ४१ संकामगपट्ठवगो कसायपा० १३०(७७) ससिसूरपयासाओ वसु० सा० २५४ सकामगपट्टवगो कसायपा० १४१(८८) ससिहारहमधवलुच्छलत-तिलो० ५० ४-१७८४ संकामगो च कोध कसायपा० १३७(८४) ससुगंधपुप्फसोहिय- 'तिलो० सा० २१८ | सकामण-अोवरण कसायपा. १८ ससुगंध सवगधो - तिलो० सा० १६५ संकामण-अोवण कसाया०१० ससुया जुबई वेसा रिट्ठस० १६० संकामण(ग)पट्ठवगस्स कसायपा० १२०(६७) ससुरासुरदेवगणा जवृ० ५०४-१५८ संकामणमोबट्टण क्सायपा० २३३(१८०) ससुगसुरदेवगणा जब० प० 8-१६१ संकामयपट्ठवगस्स कसायपा० १२४(७१) सस्सदमधउन्छेदं पचस्थि० ३७ | सकामाद उदाराद कसायपा० २२०(१६७) सस्सो य भरधगामस्स भ० भारा० १३८८ संकामे दुक्कडदि * कसायपा० १२३(१००) सहजअवत्थहि करहु लहु पाहु. दो० १७० / संकामे दुक्कडदि * लद्धिसा० ३६६ सहज खुधाइजाद् दवस. णय, १२ | संफिद मक्खिंद-णिक्खिद- मूला०४६२ सहजं माणुसजम्म भ० श्रारा० १८६३ जबू०प० १०-५४ सहजुप्पएण रूवं दसणपा० २४ / संख-पिीलिय-मक्कुरण- तिलो० ५० ४-३३० सहस त्ति सयलसायर- तिलो. प०४-१०१५ | सखपिपीलिय-मक्कुण- जंबू० प० २-१४१ सहमाणाभोइददुप्प- मूला० ३२० | संखमसंखमणतं तिलो० सा० ७६ सहसाणाभोगिददुप्प-* भ० धारा० ११६८ | संखवरपडहमणहर- जबू० प०४-१४६ सहसाणाभोगियदुप्प- भ० श्रारा० ८१४ | संखसमुद्दहिं मुक्कियए पाहु० दो० १५० सहसारउवरिमंते तिलो० ५० १-२०६ | संखसहस्सपयेहिं अंगप० १-६ सहसेहि चोइसेहि य जबू० प०८-४४ । संखाजगणरतिरिये गो० क० २८६ । Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ पुरातन-जैनवाक्य-सूची संखा तह पत्थारो संखातीदगुणाणि य संखातीदविसत्तो सखातीदसहस्सा सखातीदा समया संखातीदा सेढी संखातीदा सेयं संखादीदाऊ खलु संखादीदाऊणं संखादीदाऊणं संखावत्तयजोणी संखावत्तयजोणी संखावलिहिदपल्ला संखासखाणंता संखिनगुणा देवा सखिजमसंखिजगुणं संखित्ता वि य पवहे संखिंदुकुधवला संखिंदुकुंदवरणा संखेओ ओघो त्ति य संखेज-असंखेज्जा संखेजजोयणाणिं संखेजजोयणणि संखेजजोयणाणि संखेज्जजोयणाणिं संखेज्जजोयणाणि संखेजजोयणाणि संखेजदिमे सेसे संखेजदिमे सेसे संखेजपमे वासे सखेजमसंखेजगुणं संखेजमसंखेज्जमसंखेजमसंखेजमसखेजमसखेज संखेन्जमसंखेज्ज संखेज्जमसंखेज्जं संखेज्जमिंदयाणं संखेज्जरुंदसजुदसंखेज्जरूवसजुदसंखेज्जवासजुत्ते गो० जी० ३५ संखेज्जवासणिरए तिलो० सा० १७५ लद्धिसा० १२८ संखेजवित्थडा किर जवू० ५० १५-२४६ तिलो० ५०६-१०० संखेज्जवित्थडाणि य जवृ०प०११-२४५ तिलो०प०३-१८१ संखेज्जसदं वरिसा तिलो०प०८-५१५ गो० जी० ४०२ / संखेजसरुवाणं तिलो० प०४-१७४ तिलो० प० ३-१४३ / संखेज्जसहस्साई तिलो० ५० ४-१३०३ तिलो. १०३-२७ संखेजसहस्साणि वि गो० के० ६४६ मूला० ३१६८ संखेन्जाउवमाणा तिलो० प०४-२६४१ मूला० ११६६ संखेज्जाउवसरणी तिलो० ५० ५-३१२ मूला० १९७२ | संखेज्जाऊ जस्स य तिलो० प० ३-१६८ मृला. ११०२ संखेज्जा च मणुस्सेसु कसायपा० ११०(५७) गो० जी०, संखेज्जा वित्थारा तिलो० प० २-६६ गो० जी० ६५७ संखेज्जासंखेज्जम- तिलो० प०८-१११ दवस० णय० २८ | संखेज्जासंखेज्जा भ० पारा० ६३ कत्ति० अणु० १५८ सखेज्जासंखेज्जा गो० जी० ५८५ चारित्तपा० ११ संखेज्जासंखेज्जा णियमसा० ३५ भ० श्रारा० २८२ | सखेज्जासंखेज्जे गो. जी. १६७ जबु० १० १२-६ संखेजो विक्खंभो तिलो. प०-१८० जंबू० प० २-१७६ / संखेदुकुंदधवला जवू० ५० ४-२५० गो० जी०३ / संखेंदुकुदधवलो तिलो० ५० ४-१८५७ पचसं०१-१५५ जवू० प० ५-२ तिलो०प०४-१२१ | संखंदुकुंदवराणो जवू०प०५-१०५ तिलो. प० ६-१७ | संखो गोभी भमरा * __ मूला० २१६ तिलो० प०८-४३२ / संखो गोभी भमरा. मूला० ११६० तिलो० प०८-६०० संखो पुण वारस जो मूला० १०७१ तिलो० प०८-६०३ / संखो पुणु भणइ इयं भावसं० १७७ तिलो० ५०-६०५ | संगचाउ जे करहिं जिस सावय० दो०७५ लद्धिसा० ८४ संगचाएण फुड श्रारा० सा० ३१ पंचसं० ४-३१६ | संगजहणेण व लहुदयाए भ० श्रारा०२१२८ गो० जी०४०६ संगणिमित्त कुद्धो म० मारा० ११५३ म० श्रारा० ५२ भ० श्रारा० ११२५ सम्मइ०२-४३ भ० श्रारा० ११७३ मूला० १८१ | संगहअंतरजाणं लद्धिसा० ५३१ मूला० ११२५ | संगहगे एक्कक्के लद्धिसा० ४६५ जंवू० ५० १३-३ संगहणयेण जीवो अगप०१-२४ भ० श्रारा० १६०३ | संगहणुग्गहकुसलो मूला० १५८ तिलो. प० २-१५ | संगहिय सयलसंजम-+ पंचसं० १-१२६ तिलो० ५०२-१०० संगहिय सयलसंजम-+ गो० जी०४६६ तिलो० सा० ३५७ | संगीदसत्थछंदा अगप०२-१११ तिलो० ५० २-१०४ / सगीयणट्टसाला जंबू० प० २-६६ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स संगीय सहरिया (य) संगुणिदेहि संखज्जसंगें मज्जामिस-ग्यहॅ संगो महाभयं ज सघडण गोवंगं संघ - विरोह-कुसीला सहं दिणु ण चउविहहॅ साहिवरस मूल सवको विगतारइ संघ गुणसंघा संदिपुरिसवेदे + सहदि पुरिसवेदे + संजदअधापवत्तग सजदकमेण खत्रयस्स संजदजणस्स य जहिं संजदजराव मारणं संजदपायत्तिस संजदेण मए सम्म संजमजोगे जुत्तो संजमरणाणुत्रकरणे सजमणियमतवेण दु सजमतवगुणसीला सजमतवाणज्य जमतवेण हीणा संजमतवोधणा सजममविराधंतो सजममाराहतेण संजमरणभूमी सजमसंजुत्तस्स य सजमसाधणमेत्तं संजमसिहराढो सज महेदु पुरिसत्तसजमु सीलु सउच्चु तउ संजल चक्काणं सजलपणोकसायासजलरणोकसाया संजणोकसाया सजलपतिवेदाणं सजलणभागबहुभागद्धं सजल लोहमेयं प्राकृत पद्यानुक्रमणी जबू० प० ४-५६ | संजल सुहुमचोदस तिलो० प० ०-३४ संजलणं एयदरं सावय० दो० २६ भ० श्रारा० ११३० मूला० १२३१ रयणसा० १०८ सावय० दो० १५८ छेदपिं० २५७ | रयणसा० १२१ जबू० प० १०-६५ जबू० प० १०- ६४ संजल एयर संजलखं एयदरं सजल पुंवे सजलखाण एक्कं संजलगाय एक्क* संजलखा वेदगुणा सजाओ इह तस्स चारुचरिश्रो ढाढसी० २० सजालाऽसंढित्थी संजोगमेवेति वदति तरणा संजोगविप्पयोगा भ० श्रारा० ७१४ ' कसायपा० १३८ (८५) लद्धिसा० ४३५ लद्धिसा० ३७५ | संजोगविप्पो गेसु भ० श्रारा० ६५० | संजोग विपजोग भ० श्रारा० १५२ | संजोग विप्पजोगे भ० श्रारा० ३५५ | संजोय रणमुव करणा छेदपिं० ३०५ | संजोयणाकसाये वारि० भ० १० संजोयेरणा य दोसो मूला० २४२ | संजोयमूल जीवेण मूला० १३१ | सज्ज लिदो अट्टम मिसा० १२३ संझा तिहिं मिसमाइयइँ सठारणसहीणं मूला० १४१ संठारणसंहीणं संठारण पचेत्र य संठारण सघयण मूला० ६४८ भ० श्रारा० ६ भ० श्रारा० १८५६ संठारण संघयणं संठारण संघयणं संठारणा संघादा बोधपा० २० संठाणे संहडणे भ० श्रारा० १६२ | संठाणे संहडणे भ० श्र० १२२० | संठाविदूरा रूवं + भ० श्ररा० १२१६ | सठाविदूर रूवं + सावय० दो० ० संठियामा सिरिवच्छलद्धिसा० २६६ | संडासेहि य जीहा गो० जी० ३२ संदणुवसमे पढमे गो० जी० ४५ संढादिमवसम गे पचस० ४-८५ | संढित्थि कसाया पचस० ४ - ११७ संदुदयंतरकरणो गो० क० २०३ | संढे कोहे मागे पंच० ३ - ३६ | संतद्वाराणि पुरणो २८७ गो० क० १५३ पंचस० ४- ११३ पचस० ४-१६४ पंचस० ४-१६५ चास० ति० ४२ लदिसा० २४० लद्धिसा० ४३१ पचस० १-३१८ रिट्स ०२५८ सिद्धत० ५५ गो० क० ८६२ मूला० ७०६ भ० श्रारा० १६८१ वा० प्र० ३६ तिलो० प० ८-६४८ भ० धारा० ८११ भ० श्रारा० २०६२ मूला० ४७६ मूला० ४६ जब ० प० ११-१५२ सावय० दो० ६८ गो० ० क० १२६ कम्मन० १२५ पंचसं० ४-४५१ पचसं० ३-७७ पचस० ४-४०० पचस० ४-४७६ पथि० १२६ गो० क० ५३२ गो० क० ५६६ मूला० १०४० गो० जी० ४२ तिलो०प०८-६१ जबू० प० ११-१६८ लद्धिसा० ३२६ लद्धिसा० २५१ गो० क० ३३६ लद्धिसा० ३५६ सिद्धत० ७ पंचसं० ५ - ४१६ Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ पुरातन जैनवाक्य-सूची संतम्मि केवले दसणम्मि सम्मइ०२-८ कल्लाणा० १० संतर णिरंतरो वा पचस० ३-६८ | संपज्जदि णिवाणं पवयणसा० १-६ संतरमेदं देयं छेदपिं० २४ | संपत्तबोहिलाहो भावस०४८५ संतस्स पयडिठाणा पंचसं०५-३२ म० श्रारा० १२६६ संत इह 'जइ णास दवस. णय० ४३ संपय विलसय जिण थुणहु सुप्प० दो० ३६ संतं सगुणं कित्तिज्जतं भ० श्रारा० ३६३ संपलियंकणिसेज्जा भ० श्रारा० २२४ सताइल्ला चउरो पचसं० ५-४४६ सपहिकालवसेणं तिलो० प०७-३२ सतादिल्ला चउरो पचस०५-४३५ संपुण्णचंदवयणा जबू०प०२-१६६ सता चउरो पढमा पंचसं०५-४५६ संपुरणचंदवयणो धम्मर० १२२ संता उदाइचदु पचस०५-४५६ संपुरणचदवयो जंवृ. ५०३-११३ संताण कमेणागय- ४ गो० क० १३ | संपुरणं तु समग्गं * पचसं० १-१२६ सताण कमेणागय-x कम्मप०१३ संपुगणं तु समग्गं * गो० जी० ४५६ सता विसय जु परिहरइ परम० प० २-१३६ संपुगणं तु समग्गं कम्मप० ४५ संति अगताणता कत्ति० अणु० २२४ संबंधसजणबंधव- तिलो. प०४-१५३६ सति जदो तेणेदे संबधसयणरहिया जब० ५०२-१६५ दव्वसं०२४ संवधो एदेसि चस्म०२३ संतिदयवासपुज्जा तिलो० प०४-६०६ संवुक्कमादुवाहा पंचत्थि०११४ संति धुवं पमदाणं पवयणसा० ३-२४२० ६(ज) संभर सुविहिय जं ते भ० श्रारा० १५१७ सती दुणिरुवभोज्जा समय० १७४ संभवजिणं णमंसिय जंवू०प०३-१ सतु ण दासइ तत्तु ण वि , पाहु० दो० ६१ संभावणा य सच्चं मूला० ३१२ संते आउसि जीवइ भावसं०८१ संभिएसोदित्तं तिलो० ५० ४-६६८ सते उवसमचरियं भावति० ३३ सभूटो वि णिदाणेण भ० श्रारा० १२८१ सते वि ओहिणाणे तिलो०प०-२६३ संभूसिऊरण चदज्वएण वसु० सा०३६६ संते वि धम्मदव्वे तञ्चसा० ७१ संरंभसमारंभा भ० श्रारा० ११ संते सगणे अम्हं भ० श्रारा०३६८ सरंभो संकप्पो भ० श्रारा०८१२ संतोत्ति अट्ट सत्ता गो० क० ४५७ संलग्गा सयलधया तिलो० प० ४-८५६ सतो रोयक्कतो छेदपिं० ७१ संत्रच्छरइगसहसे रिट्ठस० २६८ संतो वि गुणा अकहिंतयस्स भ० श्रारा० ३६१ / सवच्छरतिदऊणिय- तिलो० प० ४-६५० संतो वि गुणा कत्थंतयस्स भ० श्रारा० ३६० संवच्छरमुक्कस्सं मुला० ६५६ संतो वि मट्टियाए भ. श्रारा० १०७५ तिलो. सा० ८२० संथारपदोस वा भ० श्रारा० ४४० | संवत्तयणामणिलो तिलो० सा०८६४ संथारभत्तपाणे भ० भाग० ४६६ संवरजागेहिं जुदो पस्थि० १४४ संथारमसोहंतो __छेदस० ६८ । संवरफलं तु णित्रा मूला० ७४३ संथारमसोहितस्स । 'छेदपिं० १६६ / संवलिओ मीसेहि श्रायः ति० ६-५ संथारवासयाणं मूला०.१७२ : संववहरणं किच्चा संथारसोहणेहि य वसु सा० ३४० । संवासो वि अणिच्चो भ० श्रारा० १७१६ संदेहतिमिरदलणं जबू० ५०. १३-८२ । संवाहचारुणियहो जबु०प०१-१३७ संधि कुणंति मित्ता श्राय० ति० १५-२ | संवाहदिव्वणिवहो जंबू० प० ६-१२७ संधीदो संधी पुण कसायपा० ७८ (२५) संविग्गदरे पासिय । भ० श्रारा० १४६ संपइ एव संपत्ता कल्लाणा० ५२ । संविग्गवज्जभीरुस्स भ० श्रारा० ४०० ता __मूला० ४६७ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी २८८ सविग्गस्स वि ससग्गीए भ० श्रारा० ३४१ संसारम्मि व संतो धम्मर० १०८ सविग्ग सविग्गाणं भ० श्रारा० १४४ ससारवारिरासिं तिलो० प०८-६१४ सविग्गाणं मझे भ० भारा० ३५२ ससारविसमदुग्गे भ० श्रारा० १४७० सविग्गो वि य संविग्गदरो भ० श्रारा० ३५३ ससारविसमदुग्गे मुला० ७५४ सवित्तीए वि तहा भावस० १०६ ससारसमावण्णा भ० श्रारा० ३७ संवेओ णिव्वेओ* वसु० सा० ४६ संसारसागरम्मि य * भ० श्रारा० ४४६ सवेओ णिवेओ भावस. २६३ संसारसागरे से भ. श्रारा० १०२२ सवेगजणियकरणा भ० श्रारा० ३१८ संसारसायरम्मि य * भ० थारा० ४३० संवेगजिणियहासो भ० पारा०२७६ ससारसुहविरत्तो श्रारा० सा० १८ संवेज(योणी कहाए अगप०१-६४ ससारह भय-भीयएण जोगसा० १०८ संवेयणी पुण कहा भ. श्रारा० ६५७ | ससारह भय-भीयह जोगसा० ३ सवेयणेण गहिरो दवस० णय० ३८७ संसाराडवि-णित्थर- भ० धारा० १४४४ ससग्गीए पुरिसस्स भ० श्रारा० १०१२ | संसारी पचक्खा गो. जी. १५४ संसग्गी सम्मुढो भ. श्रारा० १०६३ | संसारे रिणवसता कल्लाणा०४ ससयमिच्छादिट्ठी भावस० ८५ संसारे ससरतस्स मूला० ७४५ संसयवयणी य तहा भ० थारा० ११६६ | ससारो पचविहो कत्ति० अणु० ६६ ससयवयणी य तहा मूला० ३१६ ससिट्ठ फलिह परिखा भ० श्रारा० २२० संसयविमोहविन्भम- दवस० णय० ३०५ । संसिद्धिराधसिद्धं समय० ३०४ संसयविमोहविन्भमदवस० ४२ | संहणणस्स गुणेण य भावस० १२७ संसारकाणणे पुण श्रा० भ०७ संहणणं अइणिच्चं भावस० १३० संसारकारणाई श्रारा० सा० १५: साइ अणाइ धुवअद्भवो । पंचस०४-४३७ संसारचक्कवालम्मि- . मूला० ७६ | साइ अणाइ य धुव अद्धवो । पचस०४-२३१ संसारचक्कवाले भावसं०४०३ । | साइ अबंधा वधइ पचस०४-२२१ ससारछेदकारणवयणं वा० अणु० ५५, साई पज्जवसियं सम्मइ० २-३१ संसारएणवमहणं तिलो० प० २-३६७ साईइ सत्तदियहे रिट्ठस० २४७ संसारण्णवमहणं तिलो० ५०४-२६५८ : साई(दे)यरवेदतियं पचस०२-११ संसारएणवमहणं तिलो० ५० १-६६ | साकेते सेवंतो वसु० सा० १३३ संसारत्या दुविहा वसु० सा० १२॥ साकेदपुराधिवदी भ० श्रारा० ६४६ संसारत्थो खवओ भ० श्रारा० १४६२ । सा केव होदि रज्जू जबू०प०१२-८३ ससारदुक्खतट्ठो कत्ति० अणु ० ४४४ - सागास वि णागारु कु वि जोगसा० ६५ संसारदेहभोगा अगप०१-६५ सागारे पट्टवगो कसायपा० ६४(४१) ससारभमणगमणं __कल्लाणा० ३ सागारो उवजोगो गो० जी०७ संसारमदिक्कतो बा० अणु० ३८ सा गिरिउवरिं गच्छइ तिलो० ५० ४-१७४५ संसारमहाडाहेण म० श्रारा० १४६२ साण-किविगण-तिधि-महिण- मूला० ४५१ संसारमूलहेदु भ० श्रारा० ७२४|| साणक्कुमारजुगले तिलो० सा० ५२२ ससारम्मि अणंतं वसु० सा० १०० साणगणा एकेके तिलो० प० २-३१७ ससारम्मि अणंते भ० श्रारा० १७५५ साणम्मि नीलपडलं प्राय० ति० १६-५ ससारम्मि अणंते भ० श्रारा० १८६७ साणे तेसिं छेदो गो० क० ३१३ संसारम्मि(म्हि) अणते मूला० ७५५ | साणे थीवेदछिदी गो० क० ३१६ ससारम्मि भमंतो . रिट्ठस० २ | साणे थीसंढछिदी भावति० ६२ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० पुरातन-जैनवाक्य-सूची साणे पण इगि भंगा गो० क० ३७५ | सामएणम्मि विसेसो सम्मइ० ३-१ साणे सुराउसुरगदि- गो० क० ३२६ सामरणरासिमझे तिलो० ५०४-२६२७ सादमसादं दुविहं मूला० १२२६ मामएण विसेसा वि य दव्वस० णय० १७ साढमसादं दि(वि)ग्धं अगप०२-४६ सामएणसयलवियलवि- गो० के० ५६५ सादं तिषणेवाऊ* गो० क. ४१ सामएणं णाणाणं दवस० गय० ४०८ साद तिरणेवाऊ कम्मप०११२ मामएणं दो आयद तिलो० सा० ११५ सादासादेक्कदरं गो० ० ६३३ मामएरणं पज्जत्तम गो० जी० ७०८ सादि अण्णादि य अ य पचस० ४-४३५ सामरण पत्तेयं तिलो० सा० ११८ सादि अणादि य धुव अद्धवो पंघस० ४-२२८ सामगणं परिणामी दवस० गय० ३५३ सादि अणादि य धुव अर्धवो गो० क०६० सामरणं सेढिघणं । तिलो०प०१-२६६ सादि अणादी धुव अद्धवो गो० क० १२२ सामरणाणेरइया गो० जी० १५२ सादिकुहिदातिगंध तिलो० सा० १६२ सामरणा पंचिंदी गो० जी० १४६ सादि य जहएण संकम कसायपा० ५७ / सामरणा वि य विन्जा . वसु० सा० ३३५ सादियरं वेया व य पंचस०४-२३५ सामण्णुत्ता जे गुण- दवस० गय०६५ सादी प्रबंधवधे गो० क० १२३ सामरणेण तिपती गो० जी० ७८ सादेदर दो आऊ पचसं० ४-५०३ सामरणेण य एवं गो०जी० मा साधारणं सवीचारं भ० श्रारा० २२३ । सामएणे णियचोहे दव्वस० गाय०३५२ साधीपतियपदक्षिण- __ अंगप० ३-२३ | सामएणे विदफलं । तिलो० ५० १-२५१ साधुस्स धारणाए भ० श्रारा० ३२४ सामयिगदुगजहएणं लद्धिसा० २०१ साधु पडिलाहेदु भ० थारा० १०६१ तिलो०प०४-२१६४ साधेति ज महत्थं भ० धारा० ११८४ भ० श्रारा० १५६८ सा पुण दुविहा ऐया x वा० अणु० ६७ | सामाइए कदे सासा पुण दुविहा ऐया x कत्ति० अणु० १०४ / सामाइय चउवीसत्थव मूला० ५१६ साभाविओ वि समुदयको सम्मइ० ३-३३ / सामाइयन उवीसत्थवं गो० जी० ३६६ सामग्गिदियख्व बा० श्रणु०४ पचस० ४-६० सामग्गिदियरूवं मूला० ६६४ सामाइयछेदेसु पंचसं०४-६१ सामएणप्रवत्तव्यो गो० क० ४७० सामाइयछेदेखें पत्रस०५-४४३ सामएए दव्वस० गाय० २४४ साम सिद्धत०३८ सामएणकेवलिस्स समु- गो० क० ६०६ । सामाइयणिज्जुत्ती सामएणगम्भकदली. तिलो० ५०३-५६ सामाइयणिज्जुत्ती सामएणचित्तकदली- तिलो० ५० ४-३४ | सामाइयथुइवंदणसामरणजगसरूवं तिलो० ५० १-45 सामाइम्हि दु कदे सामएणजीवतसथा गो० क. ७५ | सामाइयस्स करणे सामएणणारयारामभावति० ५२ | सामाइयं च पढमं चारित्तपा०२५ सामरणणिरयपयडी पंचस० ४-३२८ सामाइयं जिणुत्तं सामरणतित्थकेवलि गो० क० ५२० | सामाइयं तु चारितं चारि० भ०३ सामएणतिरियपंचिंदिय- गो० क० १०६ सामाइयाइछस्सुं पंच०४-१५ सामएणदेवभंगो पंचसं० ४-३४५ सामाचारो कहिओ छेदस० ७२ सामएणपच्चया खलु समय० १०६ सामाणिएहि सहिया सामरणभूमिमाणं तिलो० ५०४-७१० | सामाणिो सुरिंदो जंबू०प०३-११२ मूला०५३२ मृला०५७ मूला० ५३७ सुदख०६१ मूला० ५३३ कत्ति० अणु० ३५२ णाणसा०१५ जवू०प०८-६३ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ } स सामाणित रक्खा सामायितर रक्खा सामाणियदेवारां सामाणि देवी सामायिपदी सामारियाणि वि तहा सामी सम्माि सायरमा इगिदुति Artist सारगो बल्ल गो सायरतरंगसहि सायरसमं तुरिये सायरसंखा एसा सायं (तं) कराररणच्चुदसाय चउपच्चइओ साय तिष्णेवाउग सायतो जयंते सायाणं च पयारे सायारणायारा सायारइयरठवरणा सायारे वट्टगो साया सायारो यारो सायासायं दो वि सारसविमारूढो सारस्सदत्र्याइच्च पहु सारस्सद श्रइच्चा सारस्सदरणामाणं. सारसरिद्वा सारभहँ एहवरणाइयहॅ सारीरादो दुक्खा सारी रियादो सालत्तयपरियरिया सालत्तयपरिवेढिय सालत्तयपीढत्तयसालत्तयबाहिरए सालविण साला विक्खंभो सालि - जव-वल्ल- तुवरीसालो कपम प्राकृतपद्यानुक्रमरणा तिलो० प०७-७८ | सालोयर विउसग्गो तिलो० प० ४-२०८३ | सावज्जकरणजोग्गं तिलो० प० ४ - २१७४ सावज्जजोगपरिवज्जहं तिलो० १० ८-३२२ | सावज्जजोग्गवयण तिलो० प० ४ - २०८४ सावज्जस किलिट्टो जवू० १०६ - १४१ | सावराकिरहे तेरसि दव्वस० एय० १६३ | सावबहुले पाडिव - तिलो० ५०२-२०७ |सावणमाघे सव्वमंतरजबू० १० २ - ११३ | सावरणसियन क्खस्स [य] मूला० ८७ सावरिणयपुरिणमाए सावदसयारपुचरिये सावधि परिचत्ते साध्यगुणेहिं जुत्ता चसु० सा० १७४ तिलो० प० ८ - १६ | सावयगुणोववेो पंच० ४-४८२ | सावयधम्महॅ सयलहॅ मि पंचस० ४-४४७ पचस० ४-३२२ तिलो० प० ४-३४७ सावयधम्मं चत्ता सावंदरा जिरणुत्ता साना हवे विरता सावित्थीए संभवदेवो तिलो० प० २-२८३ दव्वस० य० २७३ | सासरण - अयद - पमन्ते नद्धिसा० १०१ | सास ठिऽणादुगं वसु० सा० २ सासण पमत्तवज्जं भावसं० २८६ | सासरण मिस्स विहीगा पचस० ४-४७५ | सासरणमिस्से देसे जबू० १० ५-६६ | सासण मिस्से पुग्वे तिलो० सा० ५३७ सासणमम्माइट्ठी तिनो० सा० २३५ | सासणसम्माइट्ठी तिलो० १० ८- ६१६ सासरणसम्मे सत्त अ सासद - पत्थरण-लालस तिलो० प० ८-६२३ सावय० दो० २०४ सासदपदमावरणं भ० श्रारा० १५६८ | सास ( ग ) - सिवा - करटासो (?) कत्ति० अ० ६० साहम्मउव्व प्रत्थं तिलो० प० ४ ८०७ साहरणवादरेसु - तिलो० प०४ - ८३४ | साहरणासाहरणे तिलो० सा० १०१३ साहस्सिया दुमच्छा तिलो० प० ४ -७८१ साहस्सिया दु मच्छा रयणसा० ६२ | साहति जं महल्ला तिलो० प०४-८४८ साहारण पत्तेयसरीरतिलो० प० ४-४६६ | साहारणपत्तेयं तिलो० प०४-७१२ | साहारणात्तेयं * ज० प० ४-२३१ तिलो० सा० १६६ २६१ छेदपिं० १६३ मूला० ८०० मूला० २३० मूला० ३१७ भ० श्रारा० ६२४ तिलो० प० ७-५३२ तिलो० प० १-७० तिलो० १० सा० ३८१ रिट्स० २३५ तिलो० प० ४-११६३ मूला- ७६३ छेदपिं० १३८ कत्ति ० श्रणु ० १६६ वसु० सा० ३८ सावय० दो० ७८ चा० शु० ८१ श्रगप० ३-१६ भ० श्रारा० १०५८ तिलो० प० ४-५२७ गो० क० ४६६ भावति० ५३ गो० क० ५५७ तिलो० प० ५-३०१ गो० क० ३६१ पस० ५-३१२ पचस० ४-३७३ पचस० ४-३३३ पंच० ४-१८ कसायपा० ६०(३७) तिलो० प० १-८६ रिहस० १७३ सम्मइ० ३-१६ गो० जी० २१० सिद्धभ० ५ मूला० १०८३ जंबू० प० ११–६३ चारित्तपा० ३० तिलो० प०५-२७८ पचसं० ४-२८३ पचसं० ५-७६ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ पुरातन-जैनवाक्य-सूची साहारणमाहारो ४ पचसं० १-८२ | सिद्धक्खो णीलक्खो तिलो० ५० ४-२३२६ साहारणमाहारो ४ गो० जी० १६१ | सिद्धत्तणस्स जोग्गा पंचस० १-१५४ साहारणसुहुमं चि य पंचसं० ३-५६ सिद्धत्तणेण य पुणो सम्मइ०२-३६ साहारणाणि जेमि कत्ति० अणु० १२६ । | सिद्धत्थरायपियकारिणीहिं तिलो० ५० ४-५४८ साहारणा वि दुविहा कत्ति० अणु० १२५ सिद्धत्थ सत्तजय तिलो० सा० ७०४ साहारणोदयेण णिगोद- गो० जी० १६० तिलो०प०४-२७७५ साहासिहरेसु तहा जयू० ५० ६-१६० सिद्धादेहि महत्थं पचस०५-२ साहासु होति दिव्या जव० प० ६-१५७ सिद्धपुरमुवल्लीणा भ. श्रारा० १३०८ साहासु पत्ताणिं तिलो० ५० ४-२१५५ सिद्धमहाहिमवता तिलो० ५०४-१७२२ साहिय तत्तो पविसिय तिलो० ५० ४-१३५६ सिद्धवरणीलकूडा जव० ५० ३-४३ साहियपल्लं अवर तिलो० सा० ५४२ सिद्धवरसासणाणं सुदभ० १ साहियमहस्समेक गो० जी० ६५ | सिद्धसरूवं झायइ वसु० सा० २७८ साहियसहस्समेयं मूला० १०७० सिद्ध हिमवतकूडा तिलो० ५० ५-१६३० साहुस्स पत्थि लोए भ० श्रारा० ३३० सिद्ध हमवंतरणाम जंब० ५० ३-४१ साहू उत्तमपत्त जव० १०२-१४७ - सिद्धहिमवंतभरहा जव० प० ३-४० साहू जधुत्तचारी भ० श्रारा० २०८ सिद्ध जस्स सदत्य बोधपा० ७ साहेति जे महत्थं मूला० २६४ सिद्ध णिसहं च हरिवरिसं तिलो० सा० ७२५ साहोवसाहसहिरो जयू० प० ६-१५६ सिद्ध णीलं पुवविदेहं तिलो० सा०७२६ सांतरणिरतरेण य __ गो० जी० ५६४ | सिद्धंतपुराणहि वेय वढ पाहु० दो० १२६ सिकदापणासिपत्ता तिलो. प० २-३४८ | सिद्धतसार वरसुत्तगेहा सिद्धत० ७६ सिक्खह मणवसियरणं श्रारा० सा० ६४ | सिद्धत-सुणण-वक्खा छेदर्पि०२०२ सिक्ख कुरणंति ताणं तिलो. प० ४-४११ सिद्धतं छंडित्ता जंब० ५० १०-७५ सिक्खति जराउछिदि तिलो० सा०८०१ | सिद्धतिरामणंदी सिक्खंतो सुत्तत्थं __छेदपिं० १६५ | सिद्धतुदयतडुग्गय गो० क० ६६७ सिक्खाकिरिउवएसा- * पचस० १-१७३ सिद्धं दक्षिणअद्धादिम- तिलो० सा० ७३२ सिक्खाकिरियुवदेसा-* गो० जी० ६६० सिद्धं बुद्ध णिच्चं अंगप०१-१ सिक्खावय च तदियं कत्ति० अणु० ३६१ / सिद्ध मल्लवमुत्तर तिलो. सा. ७३८ सिग्धं लाहालाहे वसु० सा० ३०५ सिद्धं रुम्मी रम्मग तिलो० सा० ७२७ सिभइ तइयम्मि भवे वसु० सा० ५४, सिद्ध वक्खारक्खं तिलो० सा० ७४३ सिझति एकसमए तिलो० प० ४-२६५६ / सिद्धं सरूवरूवं भावस० ५६८ सिरहाणब्भगुव्वट्ठ भ० श्रारा० १३ | सिद्धं सिद्धत्थाणं सिरहाणु भगुन्बट्टणेहि भ० श्रारा० १०४५ | सिद्धं सिहरि य हेरगणं तिलो० सा० ७० सिदतेरसि अवरण्हे तिलो. प०४-६५७ । सिद्धं सुद्धं पणमिय गो० जी०१ सिदबारसिपुव्वण्हे तिलो० ५० ४-६४४ सिद्धाण णिवासखिदी तिलो० ५० १-२ सिदबारसिपुवण्हे तिलो० ५० ४-६४६ सिद्धाणं खलु अणंतर अंगप०२-१३ सिदसत्तमिपुव्वण्हे तिलो. प०४-११६० सिद्धाणंतिमभाग* गोक०४ सिदसत्तमापदोसे तिलो०प०४-१२०५ कम्मप०४ सिद-हरिद-कसण-सामल- जबू० ५० ४-५७ | सिद्धाणंतिमभागो गो०जी० ५६६ सिदिमारुदित्तु कारण- भ० श्रारा० १७५ | सिद्धाणं पहिमाओ तिलो०५०४-६३३ सिद्धक्खकच्छखंग तिलो० ४-२२५८ | सिद्धाणं फललाहे अंगप०२-१०३ सुदख० ६२ सम्मइ० १-१ * Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी २३३ सिद्धाण लोगो त्तिय विलो० ५० १-८६ सिरिणिचयं वेरुलियं तिलो. ५० ४-१७३२ सिद्धाणं रिद्धगई गो० जी० ७३० सिरिणिचयं वेरुलियं तिलो. प० ४-१७६७ सिद्धाणं सिद्धगई सिद्धत० २ | सिरिदेवियादरु(र)क्खा जंचू० ५०३-११७ सिद्धा णिगोदसाहिय- तिलो० सा० ४६ सिरिदेवीए होंति हु तिलो० ५० ५-१६७१ सिद्धा संति अणता कत्ति० श्रणु० १५० | सिरिदेवीतणुरक्खा तिलो० ५० ४-१६७४ सिद्धा संसारत्था __वसु० सा० ११ | सिरिदेवी सुददेवी * तिलो० सा० १८८ सिद्धिप्पासादवदस मूला० ४११ | मिरिदेवी सुददेवी तिलो० प०३-४८ सिद्धिहि केरा पंथडा ___ परम० ५०२-६६ | सिरिदेवी सुददेवी * तिलो० ५० ५-१६३० मिद्धिं गदम्मि उसके तिलो०प०११२३८ तिलो० प० ७-४८ सिद्धे जयप्रसिद्ध म. धारा० १ सिरिधम्मसेरणसुगणी अंगप० ३-४६ सिद्ध जिणिंदचदे लद्धिसा० १ मिरिपासणाहतित्थे दसणसा०६ सिद्धे णमंसिदूण य मूला० ६६१ | मिरिपुज्जपादसीसो दसरपसा० २४ सिद्धे पढिदे मते मूला० ४५८ | सिरिभद्दबाहुगणियो दसणसा० १२ सिद्धे विसुद्धणिलये गो० क० ६१३ | सिरिभ६सालवेदी- तिलो प०४-२०२७ सिद्धेसु सुद्धभगा गो० क० ८७४ | सिरिभद्दा सिहिकता जबू० ५०४-१९० सिद्धो वक्खारुड्ढाधो- तिलो० ५० ४-२३०७ सिरिभद्दा सिहिकता तिलो. प० ४-१९६२ सिद्धो सुद्धो आदा मोक्खपा० ३५ सिरिमति राम-सुसीमा तिलो० सा० ५११ सिद्धो सोमणर.क्खो तिलो० ५० ४-२०२६ | मिरिमदि तहा सुसीमा जंबू० प० :१-३१४ सिद्धो हं सुद्धो हं तञ्चसा०२८ सिरियादीदेवीण जबू० प. ३-८४ सिय अत्थि णत्थि उभयं * पंचस्थि० १४ । सिरिवच्छसंथि(सत्थि)याय जबू० ५० ११-२४० सिय अस्थि णस्थि उभय * फम्मप० १६ (०) सिरिवड्ढमाणमुहकय- अगप० ३-४२ सिय अत्थि णत्थि उहय अंगप० १-२६ / | सिरिवडूढमाणसामी णाणसा०१ सिय अत्थि णत्थि कमसो अगप० २-५४ | | सिरिविक्कमस्म काले माणसा०६२ सिय अत्यि णत्थिपमुहा अगप० २-५२ | सिरिविजयकित्तिदेशो अंगप० ३-५१ सिय प्रासिदूण अत्य[य] अगप० २-१५ सिरिविजयगुरुस्त पासे जबू०प० १३-१६४ दन्चस० गय० २६० सिरिविमलसेणगणहर- भावस० ७.१ सियलेस्साए तेरस सिद्धत० १६ सिरिवीग्णाहतित्थे दसणसा० २० सियवत्थाहविहूमो रिठस. १६६ सिरिवीरस्णसीसो दसणसा०३० सियसहसुणयदुरणय- दव्वस० णय० ४२० सिरिसयलकित्तिपट्टे अगप० ३-५० सियसहेण य पुट्ठा दवस० गय०७२ सिरिसंचयकूडो तह तिलो०प०४-१६६१ सियसद्देण विणा इह दवस० गय० ७१ तिलो. प०४-१७३० सियसावेक्खा सम्ना दवस० गय० २५० तिलो०प०४-१८७६ सिरमुहकधप्पहुदिसु तिलो० प० ४-१.०० तिलो०प०४-१५८६ सिररेहभिएणसुण्णं भावस० ४६३ सिरिहरिणीलक्कठा तिलो० ५० ४-१५६० सिरिकुभणयरणाए(मज्झे ?) रिट्ठस० २६१ सिरि हिरिधिदि कित्तितहा जबू० प० ३-७७ सिरिखंड-अगर-केसर- तिलो० ५० ४-२००५ | सिरि हिरि धिदि कित्ती विय तिलो० सा० ५७२ सिरिगिहदलमिदरगिहं तिलो० सा० ५७७ सिलपट्टिकट्ठवेत्ते कम्मप०५८ सिरिगिहसीसठियंबुज- तिलो० सा० १६० | सिलपुढविभेदधूली * गो. जो० २८३ सिरिगुरु अक्खहि मोक्खु महु परम० प० २-१ | सिलपुढविभेदधूली * कम्मप० ५० सिरिगोदमेण दिण्ण अगप० ३-४३ । सिलभेयपुढविभेया पचसं० १-११२ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ पुरातन-जैनवाक्य-सूची सिलसेलवेणुमूलक्किमि- गौ० जी० २४० सिंहासणछत्तत्तय- जबू० ५० १-४१ सिल्लारसगुरु(सिल्हगगुरुअ)मीसिय मावसं०४७६, सिंहासणट्ठियस्त हु धम्मर. १७२ सिवणामा सिवदेओ तिलो० ५० ४-२४६३ । सिंहासणमझगया जंबू० ५० ३-११६ सिवभूइणा विसहिओ पारा० सा० ४६ सिहासणमज्मगया जव० ५०८-१४ सिवमजरामरलिंगमणो भावपा० १६० । सिंहासणमझगया जंबू० ५० ११-१३५ सिव विणु सत्ति ण वावरइ पाहु० दो० ५५ सिंहासणमारूढो तिलो० ५० ५-२१३ सिवसत्तिहिं मेलावडा पाहु० दो० १२७ सिंहासणमारूढो तिलो० ५०८-३७५ सिविणे वि ण भुजइ विसयाई रयणसा० १४१ सिंहासणम्मि तस्लि तिलो० ५० १-१६५६ सिसिरयरकरविणिग्गय जंबू०प०४-११४ सिंहासणसंजुत्ता । जब० ५०४-६५ सिसिरयरहारहिमवय जंबू० प० ४-१७१ सिंहासणस्स चसु वि तिलो. प० ४-१९५८ निसुकाले य अयाणे __ भावपा० ४१ | सिंहामणस्म दोसु । तिलो. प०४-१८२१ सिसु तरुणउ परिणयवयसु सुप० दो० ३५ तिलो. प०४-१९५७ मूला० १५६ , सिहासणस्स पुग्दो तिलो० ५०४-१६५६ सिस्मो तस्स जिणागम- वसु० सा० ५४५ | सिंहासणं विसाल तिलो. प०४-१२० सिस्सो तस्स जिणिंदसासणरो वसु० सा० ५४४ | सिंहामणाण उवरि तिलो० प० ४-१८६६ सिहरम्मि तस्स रोया जवू० प० ४-१०० सिंहासणाण मन्झे तिलो० ५०४-८६१ सिहरिस्स ब(त)रच्छमुहा तिलो० ५० ४-२०३० । सिंहासणाण सोहा तिलो० ५०८-३७४ सिहरिस्सुत्तरभागे तिलो. ५० ४-२३६३ । सिंहासणादिसहिदा तिलो० ५० ३-५२ मिहरीउप्पलकूडा तिलो० ५० ४-१६६३ | सिंहासणादिसहिदा तिलो० ५०६-११ सिहरी हेरएणवदो तिलो० ५० ४-२३५५ | सिंहासणादिसहिया तिलो० सा० ६८५ सिहरेसु तेसु णेहा नंबू० प० ६-१६ सिंहासणादिमहिया तिलो. प० ४-१६३६ सिहरेसु देवणयरा जबू० प० ४-७८ सिंहासणेसु णेया जंब० प०४-२७७ सिहिकंठवएणमणिमय- जबु. ५०४-१७६ / सीडरह जलवरिसं . धम्मर० ७७ सिहिदयाण पिच्छइ रिट्ठस० १४० मीतासीतोदाणदि- तिलो० सा० ६७८ सिहिपवणदिसाहितो तिजो० ५० ७-४५० सीतोदावरतीरे तिलो. सा० ६५१ सिहिरुक्खे रुक्खाणं श्रायः ति०१०-२४ सीदलमसीदलं वा मूला० ८१४ • सिंगमुहकरणजीहा तिलो० प० ४-२१५ मीदं उएहं तण्हं * भ० श्रारा० ६१६ सिंगमुहकरणजीहा जंबू० प०३-१५० सीद उरह तरह * तिलो०प०४-६३३ सिंगारतरंगाए भ० आरा० ११११ | सीद उण्ड मिस्सं तिलो. प०४-२६४६ सिंधुवणवेदिदारं तिलो. ५०४-१३२६ सीदाउत्तरतडओ . तिलो०प०४-२२०३ सिंधू य रोहिदासा जबू० प० ३-१६२ | सीदाए उत्तरतडे तिलो०प०४-२३३१ मिभं थिरेहिं जाणह श्राय० ति०८-४ सीदाए उत्तरदो तिलो०प०४-२२६४ सिंहगयवसहगरुडसिहिं- तिलो० सा० १०१० सीदाए उत्तरदो जब० प०७-३३ सिंहगयवसहजडिलस्सा- तिलो० सा ०३४३ सीदाए उत्तरदो तिलो० प०४-२३१३ सिंहस्ससाणहयरिउ(महिस)-तिलो०प०४-२४८४ सीदाए उभएK तिलो. प०४-२१६८ सिंहस्ससाणमहिंसव- तिलो० सा० ११७ सीदाए दक्षिणए तिलो० प० ४-२१३१ सिंहाउ विउल काला तिलो० सा० ३६७ | सीदाए दक्खिणतडे तिलो० प० ४-२३२१ सिंहालकरिणदुक्खा तिलो प०७-१६ सीदाणइए वासं तिलो० प० ४-२६१६ तिहासणछत्तत्तय धम्मर० १२१ सीदाणदिए तत्तो तिलो. प०४-२१३२ सिहासण छत्तत्तय- तिलो० ५० ३-२२१ / सीदाणिलपासादो तिलो० प० ४-४७७ Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमयी सीदावरंगिणीए तिलो० ५० ५-२५३० सीलगुणरयणणिवहं जब० ए०६-१७७ सीदातरंगिणीए तिलो० ५० १-२२४१ | सीलगुणाणं संखा मूला० १०३४ सीदातगिणीजल- तिलो० ५० ४-२२४० मीलगुणालयभूदे सूला० १०१६ सीदादिचट्ठाणा गो० क० ६२२ | सीलद्वगुणद्वेदि दु भ० श्रारा० ३८२ सीदादिचउसु बंधा गो० क० ७५८ | सीलवदीओ सुच्चंति भ० श्रारा० ६६८ सीदारुंदं साधिय तिलो. प० ४ -२२२८ | सीलसहस्सट्ठारस भावपर० ११८ सीदा वि दक्खिग्गेण य जव०प० ६-५५ | सीलस्स य णाणस्ल य । सीलपा० २ सादावेइ(दि) विहारं भ० यारा० २६१ सीलं तवो चिसद्धं सीलपा. २० सीदासमीवदेसे जब० ५०८-१०० सील रक्खताण सीलपा० १२ सीदासीदोदार्ण जबू० प० ३-१८१ सील बदं गुणो वा भ० आरा० ७८९ सीदासीदोदाणं जबू० प० ४-७६ सीलादिसंजुदाण त्रिलो० प०३-१२३ सोदासीदोदाणं तिलो० ५० ४-२३०६ / सीलण वि मरिदव्यं सूलए० १०१ सीदासीदोदाणं तिलो० ५० ४-२८३३ सीलेसि संपत्तो गो. जी. ६५ सीदासीदोदाणं १० ७-१२ सीलेसिं सपत्तो लद्धिसा० ६४३ सीदीजुदमेक्कसयं तिलो० ५०७-२१६ सीसपकंपिय मुइयं मूलर० ६६६ सीदी सट्ठी तालं गो० जी० १२३ सीसमईविस्फारण सम्मइ० ३-२५ सीदी सत्तरि सट्ठी तिलो० ५० ४-१४१६ / सीसे धयो पिडाले श्राय०ति०८-१३ सीदी सत्तसयाणिं तिलो० ५०७-१६८ | सीहकरिमयरसिहिसुक- तिलो० ५०८-२१२ सीदुण्हछुहातण्हा- भ० श्रारा० ४६७ सीहगइ(य)हंसगोवइ- जबू० ५० ५-३२ सीदुराहदसमसयादि- भ० पारा० ११७१ सीहग्गिगो लाह रिट्ठस० २०६ सीदुण्हमिस्सजोणी तिलो० ५० ४-२६४७ / सीहतिमिगिलगिलिदस्स भ० पारा० १७४५ सीदुण्ड वाउपि(वि)उलं रयणसा० २३ | सीहपुरे सेयंसो तिलो० प० ४-५३५ सीदुण्हा खलु जोणी मूला० ११०१ | सीहरहुदिभएणं तिलो०प०४-४४६ सीदुण्हादववादं भ. पारा० ५१३३ / सीहमुहा प्रस्समुहा अवृ० ५० १०-५५ मीदेण पुचइरियदेवेण भ० श्रारा० १५४७ सीहम्मि[य]वाराणं (१) रिट्ठस० २१२ सीदोदाए दोसुं तिलो. ५०४-२२०० मीहस्स फमे पडिद कत्ति० अणु० २४ सीदोदाए णटीए जव० ५० ६-८४ | सीहा इव णरसीहा मूला० ७६२ सीदोदाए सरिच्छा तिलो० प० ४-२११५ सीहासणछत्तत्तय- तिलो. प० ४-४६ सीदोदादुतडेसु तिलो० प०४-२३२३ सीहासणछत्तत्तय जबू. प. ५-७१ सीदोदावाहिणिए तिलो० ५०४-२११० सीहासणछत्तत्तय जबू० ५० ६-११५ सीदोदाविक्खभं जब० प० ६-८६ | सीहामणछत्तत्तय जब० ५० 8-१८७ सीमंकर खेमभयंकर तिलो० सा० ३६६ । सीहासणभद्दासण- तिलो० प०४-१८६४ सीमकरावराजिय- तिलो. प० ७-२१ सीहासणमइरम्म तिलो०प०४-१६४६ सीमतगो दु पढमो जब० ५० ११-१४६ | सीहासणमझगओ जव०प०८-१४८ सीमतगो य पढमं तिलो० प० २-४० सीहो धयस्स उवरिं रिट्ठस० २०८ सीमंतणिरय माणुसखेत्तं ___ अगप० १-३१ | सुइ अमलो वरवएणो भावस० ४०६ सीमंतणिरयरोरव- तिलो० सा० १५४ सुइभूमियले फलए रिट्ठस. २०३ सीयाई वावीसं श्रारा० सा० ४० | सुइयाणएण अणुसहि- भ० श्रारा० १६०८ सीर(स)गहाणुव्वहणे- वसु० सा० २६३ सुफकोकिलाण जुयला जपू० प० २-१६० सीलगुणमांडदाणं सीलपा० १७ । सुकयतवसीलसंयम- जय० प० ११-३२७ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ पुरातन-जैनवाक्य-सूची सुकुमारकोमलंगा जब प० ११-१८७ सुगह इह जीवगुणसरिण- पचसं० ४-३ सुकुमारकोमलाओ जव० ५०५-८४ । सुशहाणा गदहाण य सीलपा.२६ सुकुमारपाणिपादा जंव० ५०३-८० सुरिराऊया दोहरत्थं दवस. णय० ४१७ सुकुमारपाणिपादा जव० ५० ११-१३४ सुणि दंसणु जिय जे विणु सावय० दो० २१ सुकुमारवरसरीरा जब०प०३-८२ सुरणबडअट्ठणहसग तिलो० ५० ४-८१८ सुकुलसुरुवसुलक्खरण रयणसा०२१ सुएणउँ प झायंताहँ परम० ५० २-१५६ सुक्कज्झाणं पढम भावस० ६५६ । सुराणघरगिरिगुहारक्ख- म० श्रारा० २३१ सुक्कज्माणं बीर्य भावसं० ६६३ सुरगजुयं अट्ठारं पचपं०५-३४८ सुक्कट्ठमोपदोसे तिलो. प०४-११६५ । सुष्णज्माणपइट्ठो श्रारा० सा०७७ सुक्कदसमीविसाहे 'तिलो० सा० ४१४ सुरागाभासे गिरओ णाणसा० ३१ सुक्कमहामुक्कगदो सलो० सा० ४५३ सुरगाणभइक्कणवद्ग- तिलो० ५० ५-२६३६ सुक्कमहासुक्केसु य मूला. ११४१ सुएणणभगयणपणदुग- तिलो० ५० ५-६ सुक्कमहासुक्केसु य जंबू० ५० ११-३४८ | सुएगणवसुगए।दुगणव- अंगप०२-७ सुक्कस्स समुग्धादे गो० जी०५४४ सुरणतियं दुगसुरणं सुदख० २१ सुक्कस्स हवदि कोसो जबू० ५० १२-६६ / सुएणदुगएक्कसुरणं जबू०प०३-१३५ सुक्कं तत्थ पउत्तं मावस. ६५० / सुण्णदुगं बारावढी सुदख० ३२ सुक्कं मुत्तपुरीसं छेदपि. ३३४ सुण्ण्दुगं बागवदी सुदखें० ३३ सुक्क लेस्समुवगदा __ भ० श्रारा० १६४५ सुण्णदुग वासवदी सुदख० ३४ सुक्काए मज्झिमंसा तिलो० ५०-६७० सुण्णदुगं वाणवदी सुदख० ३५ सुक्काए लेस्साए भ० श्रारा० १६१८ सुरणदुर्ग वाणवदी सुदख० ३६ सुक्काए सव्वे विय पंचस० ४-३६ सुण्णाहरे तहिढे बोधपा० ४२ सुक्किउ सचि म सचि घणु सुप्प० दो० २१ / सुषणं अयारपुरओ- वसु० सा० ४६५ सुक्के सदरचउक्कं . गो० क० १२१ सुरणं चउठाणेक्का तिलो० ५० ७-५६० सुक्कोट्ठजिब्भकंठो धम्मर० ३६ / सुरणं च विविहभेयं गाणसा०४० सुक्खाडा दुइ दिवह पाहु० दो० १०६ सुरण जहरणभोगं तिलो. ५०४-५३ सुकम्वमओ अमेको श्रारा० सा०१०३ पाहु. दो० २१२ सुगचणयमासतुवरी- प्राय० ति०१०-१० सुरणं दुगइगिठाणे गो० जी० २६४ सुग्गीवस्स य मंतं रिट्ठस० २०० सुरणं पमादरहिदे गो० के० ७६ ० क्षे० ५ सुचिए समे विचित्ते भ० पारा: २०८१ सुण्णायारणिवासो चारित्तपा० ३३ सुचिरमवि णिरदिचार भ. श्रारा० १५ / सुरणे पच्चक्खे अण्णादे ___ छेदर्पि० ४५ सुचिरमवि संकिलिटुं भ० श्रारा० १११ | सुरणो णेय असुरणो (१) कल्लाणा०४२ सुजणो वि होइ लहुरो भ० श्रारा० ३४५ / सुत्तत्थचोरियाए छेदस० ६५ सुजलंतरयणदीपो तिलो० ५० ५-२३४ । सुत्तस्थथिरीकरणं म. पारा० ५४६ सुज्झइ जीवो तवसा भावस. २१ सुत्तत्थधम्ममग्गणा णाणसा० १६ सुट्ठु कदाण वि सस्सादीणं भ० श्रारा० १४६० सुत्तत्थपयविट्ठो सुठ्ठ पवित्तं दव्वं कत्ति० अणु० ८४ सुत्तत्थभावणावा धारा० सा०५ सुट्ठु वि आवइपत्ता भ० श्रारा. १५२७ सुत्तत्थमगणाणं णाणसा० ३२ सुट्ठु वि पिओ मुहुत्तेण भ० श्रारा० १३७० सुत्तत्थमुवदिसतो छेदपिं० १६४ सुठु वि मग्गिजंतो भ० श्रारा० १२५४ सुत्तत्थं जप्पंतो मूला० २८३ सुणक्खत्तो अभयो वि य अगप० १-५५ । सुत्तत्थं जियाभणियं सुत्तपा०७ सुत्तपा०५ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स तत्थं संतो सुत्तमिव साई सुत्तम्मिजं सुदिनं तहा सुता सुत्तं श्रत्थमेणं सुत्त गणधरकधिदं सुत्तं गणहरगथिदं सुत्त जिणोदि हिजो सुत्तादोतं सम्म सुत्तादो त सम्मं सुत्तादो त सम्मं तो दोस खुद केवलं च गाणं सुदाभासं जो सुदरपारणभावणाए सुदाणं श्रत्थादो सुदारणं केवलमवि सुदपरिचिदाभूदा सुभावणाए खाणं सुदरयणपुरणकरणा सुदिपाए सहिसुद्धखर भूजलाणं x सुद्धखरभूजलाणं x सुद्धया पुण गाणं सुद्धये चरखंधं सुद्धपएसहॅ पूरिय सुद्धा अरु जिणवरहॅ सुद्धप्पा त माणो सुद्धम्मिश्रणपणे सुद्धस्स य सामरणं प्राकृतपद्यानुक्रमणी छेदस० ६६ सुद्धो जीव सहावो सम्मइ० २- ७ | सुद्धोदरा सलिलोदणसुतपा० २ | सुद्धो सुद्धादेसो सुद्धस्सामा रक्खससुद्धहॅ संजमु सील त सुद्धवियात सुबजोगेण पुणो सुद्ध सचेणु बुद्धु जिरणु सुद्धे सुद्धे य सुद्धे सम्म विरदो सुद्ध कम्यादो सुद्धो खाइयभावो वसु० सा० २८८ सम्मइ० ३-६४ मूला० २७७ भ० श्रारा० ३४ सुपइरणा जसधरया सुपइएगा य जसोहर सुपढंतु पाढयंतु य सुपरिक्खि तम्हा २६७ दव्वस० य० ११४ तिलो० प० ४ - २४६६ समय० १२ तिलो० प० ५-१५२ तिलो० सा० ६५१ ढाढसी० २६ भावम० २२३ प० ४ - २१८२ सुप्प० दो० १६ सुप्प० दो ७ सुप्प० दो० ३ सुप० दो० ५६ सुप्प० दो० १८ सुप्प० दो० २३ सुप्प० दो० २ पवयणसा० १-३४ | सुप्पहव (थ) लस्स विडला तिलो० सुत० ३ | सुप्पहु पुत्त कलत्त जिम श्रगप० ३-४० समय ० ४ भ० श्रारा० १६४ भ० श्रारा० ३३ सुप्पहु भइ मा मेलि जिय दिसा० १०६ सुप्पहु भाइ मा परिहरउ गो० जी० २८ सुप्पहु भाइ मुणी सरहु छेदपिं० ५६ | सुप्पहु भाइ रे जीव सुणि गो० जी० ३६८ | सुप्पहु भाइ र दविलास (१) रयणसा० ६८ | सुप्पहु भाइ रे धम्मियहु तिलो० प० १-५० सुप्पहु भाइ रे धम्मियहु अगप० २-६५ | सुप्पहु भाइ रे धम्मियहु सु'पहु वल्लहमरणदिणि बहुदा वसंता सुबहुस्सुदो वि श्रवमामूला० ८३३ | सुभजोगेण सुभावं भ० श्रारा० ४३६ | सुभायरे अवरहं तिलो० प० ५ - २८० | तिलो० सा० ३२८ सुभम सुभसुहयसुस्सरभ० श्र० ५ | सुभम सुभं चिय कम्मं धारा० सा०८ सुमइजिदि पर मिय जोगसा० २३ | सुमणसणामे उपतीजोगसा० २० सुमास तह सोमणसं गाणसा० ४५ | सुमास सोमणसाए छेदपिं० १६१ सुम सहिए [] वल्लहपवयणसा० ३-७४ सुमरणपुखा चिंतावेगा तिलो० प० ६-५७ | सुमरे वि पुव्वकम्मे परम० प० २-६७ सुमिरणम्मि अचंतो समय ० १८६ | सुयकेवलि पंच जणा वा० श्रणु० ६४ | सुयकेवलीहि कहिय जोगसा० २६ | सुयणो पिच्छतो वि हु छेदपिं० ७६ सुयदारणेण य लव्भइ भ० थारा० १६३८ भ० श्रारा० ७४० | सुयभत्तीए विसुद्धा दव्वस० य० ३५६ | सुयमुणिविरगमियचलणं भावति० ४४ भावस० ६६८ | सुयवृत्त ( सयवत्त) कुसुम कुवलय- वसु० सा० ४२६ सुप्प० दो० ६ सुप्प० दो० २४ सुप्प० दो० ७४ भ० श्रारा० ६१६ भ० श्रारा० १३४१ मोक्खपा० ५४ तिलो० प० ७-४४१ सुभद्दं (दो) च जसोभद्दं (दो) गंदी० पट्टा० १३ पचस० १-१७५ दव्वस० णय० ३३८ जबू० प० ४-१ तिलो० प०८-५०७ जंबू० प० ११-३३६ तिलो० प० ८-१०६ धम्मर० १८३ भ० श्रारा० १३६६ जवू० प० ११-१६६ रिट्स० १२८ दी० पट्टा० ४ दव्वस० य० ४१६ कत्ति० अ० ७७ भावस० ४६१ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ पुरातन-जैनवाक्य-सूची - सुययसूरसाणाणं रयणसा० १४०(B) सुविदिदपत्थरमुत्तो पवयणसा० -१४ सुरउवएसबलेणं तितो०प०४-१३४० जंबू०प०८-१६ सुरकोफिलमहररवं तिलो०प०४-१६४० सुविमानरयणािवहो जंयू०प००-१४० सुरखेयरगणाहरणे तिलो० ५० १-६५ | सुविमुद्धगयदोमो कत्ति० श्रगु० १७८ सुरखेयरमणुवाणं तिलो० ५० १-५० सुविहिपमुहमु रुदा तिलो० ५० ४-१४३६ सुरगिरिचदरवीणं तिलो० सा० ३७८ सुविहिय अदीदकाले भ० श्रारा० ११८६ सुरघ(पु)रकंठाभरणा जय० ५० ३-३५ सुविहियमिमं पचायणं भ. श्रारा०१२ सुरचउतित्ययरुणा पंचम० ४-३६३ (प) सुविहि च पुप्फयतं धोम्या०४ सुरणयरमंपरिउडो जंबू० ५० ६-१७६ मुम्बदमिणेमोग्नु निलो ५०४-०६४ सुरणरणारपतिरि दव्यस० गय० ८६ मुन्चयगामियामीण तिलो० ५० -१५११ सुरणरणारयतिरिया पश्यि० ११७ सुब्धयतित्थे झो दसणसा०१६ सुरणारतिरियारोहणा- तिलो०प०४-७१८ सुमणिद्धे सुमसिद्धा शाय० ति०१-१० सुरणरतिरियोरालिय- गो. क. ४०६ मुसमटुसमम्मि रणामे तिलो० ५० ४-५५२ सुरणरसम्मे पढमो गो० क. ६२० सुममदुममाइते सुदख० सुरणारएसु चत्तारि + पघसं० ४-५५ मुसमम्मि तिरिण जलही- शिलो० ५० ५-३० सुरणारएसु चत्तारि + मुला० १२०८ सुसमनुसमम्मि काले तिलो० ५० ५-३५६ सुरणिरण्सुं पंच य पचस०५-२५७ सुसमग्नुसमम्मियाले तिलो० ५० ४-२९४३ सुरणिरयविसेसणारे गो० क. ५६६ सुसमरनुसमं च सुसमं तिलो. सा० ७८० सुरणिरयाऊलोध : गो. क. १३३ सुसमसुसमाभिधाणो तिलो० प० ४-५६०० सुरणिरयाउणोघं : कम्मप. १२६ जबू०प०२-१०६ सुरणिग्याऊ तित्थ गो० ० ४०२ सुसमस्लादिम्मि गरा- तिलो० ५० ४-३६१ सुरणिरया णरतिरियं गोफ०६३६ सुसमा तिएणेच हवे जंबू०प०२-११ सुरणिरये उज्जोवो गो० क० १७३ सुसीमा कुंडला चेव तिलो० सा० ७१३ सुरणिलएसु सुरच्छर भावपा० १२ सुस्मर अपिदिदक्खा तिलो. सा. २७७ सुरतरलुद्धा जुगला तिलो० ५० ४-४५० सुस्सरजसजुयलेक्क पचस०४-२६६ सुरदावरक्खसणार- तिलो० ५० ४-१००६ सुस्सरजमजुयलेक्कं. पचस०५-७६ सुरधणु तडि व्व चवला कत्ति० श्रगु० ७ सुस्नुसया गुरुरणं भ० श्रारा०३०० सुरपुरवहिं असोयं तिलो० सा० ५०२ सुहअसुहभावजुत्ता दन्वसं० ३८ सुरवोहिया वि मिच्छा तिलो० सा० ५५३ । सुहअसुहभावरहियो दव्वस० गय०४०० सुरमिहुणगीयणचण- तिलो० ५० ४-८४० सुहासुदभावविगओ करलाणा० ४५ सुररइयदेवछंद जवू० प०२-७२ सुहअसुहवयपरयण णियमसा० १२० सुरवइतिरीटमणिकिरण- वसु० सा० १ | सुहअसुहसुहगदुत्भग कम्मप०१६ सुरसमिदीयम्हाइ तिलो० ५० ८-१५ सुहजोगेनु पचित्ती बा० अणु०६३ सुरलोयणिवासखिदी तिलो. प० -२ | सुहडो रिणा सुसत्थं रयणसा०७६ सुरसायरि जसु णिकमणि सावय० दो० १६६ | सुहदुक्खजाणणा वा पचथि० १२५ सुरसिंधूए तीर तिलो० प०४-१३०३ सुहदुक्खणिमित्तादो गो० क० १६३ सुरही लोयस्सग्गे भावस० ५२ सुहदुक्खसपोगो सम्मइ० १-१८ सुलहा लोगे श्राद?- भ० श्रारा०४८२ सुहदुक्खसुबहुसस्सं * गो०जी० २८. सुव(अ)रा सियाल सुणहा जंवू० प० २-१४० सुहदुक्ख पि सहतो तसा०५४ सुविणिम्मलवरविउला जंब० ५० ५-७५ | सुहदुक्खं बहुसस्सं * पचस०७-१०६ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी २६६ सुदुक्खं भुंजतो भावसं० ३०२ सुहिरएणपचकलसे वसु०सा० ३५७ सुहदुक्खे उवयारो मूला० १४३ सुहमाजत्ताणं फत्ति० अणु० १५७ सुहपयडीण विसोही + पंचस० ४-४४५ सुहमअपज्जत्ताणं पचम०५-२६८ सुहपयडीण विसोही + गो० फ० १६३ / सुहमफिरिएण झाण म. थारा० २१२० सुहपयडीण विमोही + फम्मप० १४१ सुहमकिरियं खु तदिय भ० श्रारा० १८७६ सुहपयहीण विसोही +पययणसा०२-६५३०४(ज) सुहमकिरिय सजोगी मूला० ४०५ सुहपयडीणं भावा पंचस० ४-४८: सुहमगलद्विजहरण गो० क० २३३ सुहपरिणामहि धम्मु वढ - पाहु० दो० ७२ | सुहमणिगोद अपज्जत्त- मूला० १०८८ सुहपरिणामे धम्मु पर- परम० १०२-७१ सुहुमणिगोदपज्जत्त- गो० क. २१५ सुहपरिणामो पुरणं पययग्णमा० २-८६ सुहमणिगोदअपज्जत्त- गो० ० ३.६ सुहपरिणामो पुरण पश्धि० १३२ सुहमणिगोयअपज्जत्त- पचस० ४-४६७ सुहमणिगोदअपजत्त-x गो. जी. ६५ सहमद्धादो अहिया लद्विसा० ५८८ सुहमणिगोदअपज्जत्त-x गी०जी० १७२ सुहममपचिट्ठसमये लहिसा० ३०० मुहमणिगोदपज्जत्त- गो० जी० ३१६ सुहमम्मि फायजोगे भ० थारा० १८८७ मुहमणिगोदअपज्जत्त- गो० जी० ३२० सुहमस्स वधघादी गो० क० ४१६ मुहमणिगोदअपज्जत्त- गो० जी० ३२१ सुहमस्म य पढमादो लद्धिसा० ६२७ सुहमणिगोदअपज्जत्त- गो० जी० ३७७ । सुहमहॅ लोहह जो विलउ जोगसा० १०३ सुहमखिवातेाभू गो० जी०६७ सुहुम च पामकम्म वसु० सा० ५३६ सुहमसुहं चिय सव्यं रिट्टस. १८४ सुहमनट्ट वि कम्मा पचम० ३-५ मुहमंतरियदधत्थो(दुरत्यो) जव० ५० १३-४५ सुहमतिमगुणमेढी लद्विसा० ६६४ सुहम व वादरं वा भ० थारा० ५७८ सुहममि सुहुमलोह पंचस०४-१६॥ सुहम व बाढरं वा भ० श्रारा० ५८२ सुहमंमि होत ठाणे पंचस०५-३६३ सुहमापजत्ताणं भावस. ६४ सुहुमाए लेस्साए भ० श्रारा० २११६ सुहमा लिंगियसते थाय० ति० ६-७ सुहमा अवायविसया वसु० सा० २६ सुहमेदरगुणगारो गो० जी० १०१ सुहुमारण किट्टीणं ल दिसा०५१० सुहमेसु संखभाग गो० जी० २०७ सुहमा वादरकाया मूला० ११६३ सुहमे सुहम अतिम- , सिद्धत० १७ सुहमा ति खधा णियमसा०२४ सुहमो अमुत्तिवंतो भावस० २६८ सहुमाहार अपुरणं पंचस०४-३४१ सुहमो सुहमकसाये गो० जी०६८ सुहमा हु संति माणा मूला० ६११ सुहलेसतिये भव्वे यास० ति०५७ सुहमे जोगविसेसे मूला० १२४१ सुहवेदं सुहगोदं दव्यस० गय० १६० | सुहमे संखसहस्से लद्धिसा० ५६१ सुहसयणग्गे देवा तिलो० सा० ५५० | सुहमे सुहमो लोहो गो० क० ७६० २०६ सुइसादा किं मज्झा म० श्रारा० १६५२ सुहसाओ किट्टीओ लद्धिसा० ५६५ सुहसामिजुओ विजय श्राय० ति० १५-४ सुहु सारउ मणुयत्ताह सावय० दो०४ सुहसामिजुत्तदिढे श्राय० ति० १०-२ सुहेण भाविदं गाणं मोक्खपा० ६२ सुहसामिजुत्तदि? श्राय. ति० १८-२७ | सुडयससग्गीए भ० श्रारा० १०७८ सुहसामिजुत्तदिट्ठो थाय० ति०८-२ | सुदरि(र)सरूवगंधप्पा- तिलो० प० ७-५५ सुहसीलदाए अलसत्त- भ० श्रारा० १४५१ / सूई जहा ससत्ता मूला० ६७१ सुहसुस्सरजुयला वि य पसं० ३-४३ | सूची विक्खभूणा जब० ५० १० ८६ सुहियउ हुवउ ण को वि इह सावय० दो० १५३ | सूजीए कदिए कदि तिलो० प० ४-२७५८ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० पुरातन जैनवाक्य-सूची सूदयडं विदियंगं अंगप० १-२० सेढिानखंजदिमे * पंचस० ४-५१० सूदी सुंडी रोगी मूला० ४६८ सेढिपदस्स असंखं लद्धिसा० ६३० सूरप्पहसूइवट्टी तिलो० ५० ७-२५७ | सेढिपदस्स असंखं लद्धिसा० ६३४ सूरप्पहभद्दमुहा तिलो० ५० ५-१३७६ मेढिपमाणायाम तिलो. प०१-१४६ सूरपुर चदपुर णिच्चु- तिलो० सा० ७०१ सेढिय सत्तमभागो तिलो०प०१-१७० सूरम्मि उग्गमते छेदपि० ७३ / सेढिय सत्तमभागो तिलो० प०१-१७५ सूरस्स य परिबारं सुदखं० २४ / सेढिस्म सत्तभागा जवू०प०१२-६५ सूरस्सायु विमाणे अंगप० २-४ | सेढीअसंखभागो तिलो. प०३-१६४ सूरंगारयभिगुसुय- थाय० ति०४-१२ निलो० प०१-१६४ सूगदो एक्खत्तं तिलो० ५० ७-५३४ तिलो० सा० १३२ सूरादो दिणरत्ती तिलो० सा० ३७६ | सेढीणं विचाले तिलो०प०८-१६८ सूरुदयत्थमणादो मूला० ४६२ सेढीणं विच्चाले • णिरया तिलो० सा० १६६ सुरेण तह य जुत्तो श्राय० ति० ४-२४ | सेढीणं विच्चाले 'विमाणा तिलो. सा० ४७५ सूरो तिक्म्वो मुस्खो भ०श्रारा० ११० | सेढीबद्धे सव्वे तिलो० प०८-१०६ सूरो तिक्खो मुक्खो भ० श्रारा० ११३६ गो० जी० १५६ सूलो इव भित्त जे भ० श्रारा० ६८७ | सेढी सूई पल्ला गो० जी० ५६६ सूवरवणग्गिसोणिद- तिलो० प० २-३२१ सेढी हवंति अंसा जंवृ० ५० १२-६८ सूवरहरिणीमहिसा तिलो. प०८-४५० सेणं अणोरयारं जंबू० ५० ७-१२६ सेो वट्टो अ पहू श्राय० ति. १-७ सेणं हिस्सरिदूणं जंबू० प०७-१३२ से काले अोव्वट्टण लद्विसा० ४५६ सेणगिहथवादि पुरहो तिलो. सा० ८२३ से काले किट्टिस्स य लद्धिसा. २६३ सेवागयपुवावर- तिलो० सा० ४४४ से काले किट्टीयो लद्विसा० १०८ सेवाण पुरजणाणं तिलो० ५०८-२१७ से काले कोहस्स य लन्द्विसा० ५३७ । सेणादेवाणं पुण तिलो० सा० २३६ से काले जोगिजिणो लद्धिसा० ६४२ | सेणामहत्तराणं तिलो० प०५-२२० से काले तदियादो लद्धिसा० ५५० सेणामहत्तराणं तिलो. सा० ६४६ से काले देसवदी लद्धिसा. १७१ सेणामहत्तरा सुज्जेट्ठा तिलो० सा० २८१ से काले माणस्स य लद्धिसा० २६६ सेणावईणमवरे तिलो. सा० ५१८ से काले माणस्स य लद्धिसा० १५१ सेणावई(णा)विधीए जं० प०७-१२२ से काले मायाए लद्धिसा० २७४ सेणावदितणुरक्खा तिलो० सा० ५०० से काले लोहस्स य लद्धिसा० २७८ सेदमलरहिददेहो जबू०प०१३-६५ से काले लोहस्स य लखिसा० ५६१ | सेदमलरेणुकद्दम- तिलो० ५० १-११ से काले सुहुमगुणं लद्धिसा० १७८ सेदरजाइमलेणं तिलो०प०१-५६ से काले सो खीरणकसाओ लद्धिसा० ५६६ सेदादवत्तचिण्हा जंवू० प० ६-५२ से जीवंतह मुहु वि गणि सुप्प० दो० २८ सेदादवत्तणिवहा जबू० ५०४-२७२ सेज्जा संथारं पाणयं च भ० श्रारा० १६६३ सेदादवत्तसिरसा सेज्जोगासणिस्सेज्जा x भ० श्रारा० ३०५ सेदो जादि सिलेसो भ० श्रारा० १०४२ सेन्जोग्गासणिसज्जा ४ मूला० ३६१ सेयजलो अंगरयं तिलो० ५०४-१०६८ सेज्जोवधिसंथारं भ० श्रारा० ४२४ | सेयं भवभयमहणी सेढिअसखेज्जदिमा गो० क० २५२ सेयंसजिणं पणमिय सेढिअसंखेज्जदिमा * गो० क०२५८ से तिलो०प०४-५६७ जबू०प०११-३६० मूला० ७५८ जबू० प०७-१ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी ३०१ सेयंसवासुपुज्जे तिलो० ५०४-५१२ | सेसाओ वएणणाओ सेयादिपणसु हरि-पण तिलो० सा० ८२६ | सेसाओ वएणणाओ सेयासेयविदण्हू + दसणपा० १६ सेयासेयविदरहू + मूला०६०४ सेसा जे वे भावा सेयो सुद्धो भावो भावस०६ सेसा जे वे भावा सेलगकिरहे सुराण गो० जी० २६२ सेसाणं इंदाणं सेलगुहाए उत्तर- तिलो०५०४-१३४१ सेसाणं उस्सेहो(हे) सेल-गुहा-कुंडाणं तिलो. प०४-२४० सेसाणं चउगइया सेलटिकट्टवेत्ते गो० जी० २८४ सेसाणं चउगइया सेलम्मि मालवते तिलो. प०४-२१७ सेसाण तु गहाणं + सेलविसुद्धो परिहीx तिलो०प०४-२६१७ सेसाणं तु गहाण + सेलविसुद्धो परिहीx तिलो. प०४-२६६५ सेसाणं दीवारणं सेलसमो अट्ठिसमो पचस०१-११३ सेसाण पज्जत्तो सेलमरोवरसरिया तिलो०प०४-२५४० सेसाणं पज्जत्तो* सेलसिलातरुपमुहा- तिलो०प०४-१०२६ | सेसाणं पयडीणं सेलाणं उच्छेहो जबू० प०३-७० सेसाण पयडीणं सेलायाम दक्खिणा- तिलो० सा० ६६६ | सेसाण पयडीणं से(सी)लेसि संपत्तो पचसं०१-३० सेसाणं मग्गाण सेवइ णियादि रक्खइ भ० श्रारा० ११३५ सेसाणं वस्साणं सेवट्टेण य गम्मइ * गो० क० २६ सेसाणं वीहीण सेवट्टेण य गम्मइ * कम्मप० ८३ सेसाणं सगुणोंचं सेवडय-भगव-वंदग छेदपिं० २८ सेसा य हुंति भव सत्त सेवदि णिवा(या)दि रक्खदि भ० श्रारा० ६१८ सेसा रुप्पता दहसेवहि चउविहलिंग मावपा. १०६ सेवंतो वि ण सेवा समय० १६७ सेसा वेंतरदेवा सेवाल पणय केणग मूला० २१५ सेसासुं साहासु सेवेज वा अकप्पं भ० श्रारा० ६७८ सेसा सोलस हेमा सेसअपज्जत्ताणं पचस०५-२६६ सेसुवयरणविणासे सेसगभागे भनिदे लद्धिसा० ७० सेसुवयरणे णटे सेसद्वारस असा गो० जी० ११८ सेसेकरसगाणिं (णं) सेसम्मि वइजयतत्तिदये तिलो० ५० ५-२३७ सेसे तित्थाहारं सेसं अद्धं किच्चा जबू०प०७-१३ सेसे पुण तित्थयरे सेसं उगुदालीसं पचस०३-४८ सेसेसु अबंधाम्म य सेसं विसेमहीणं लद्धिसा० १२६ संसेसुं कूडेसुं सेसाए एक्सट्ठी तिलो. प०८-१० सेसेसुं कूडेसु सेसाओ मज्झिमाश्रो तिलो. प. ७-४७२ सेसेसुं कूडेसुं सेसाओ वएणणाओ तिलो० प० ३-१४० | सेसेसु कूडेसु सेसाओ वएणणाओ तिलो. प. ७-१०३ | सेसेसु कूडेसुं सेसाश्रो वएणणाओ तिलो. २०७-११३ / सेसेसु कूडेसुं सेसाओ,वएणणाओ तिलो. प० ७-५७१ / सेसेसुं ठाणेसुं तिलो० ५० ७-५६४ तिलो० ५० ७-५६६ तिलो०प०७-६०४ भावस०७ भावसं० ५८० तिलो० प०३-६७ तिलो०प०४-१५७० पंचस०४-४२६ पचसं० ४-४६० मूला० ११०३ तिलो० ५० ७-६१६ तिलो. ५० ५-४८ गो. क. १४३ कम्मप० १३६ कम्मप. १६४ लद्धिसा० ५६० पंचसं०४-४३४ तिलो० ५० ५-२५६ लद्धिसा०५०४ तिलो०प० ७-१६३ __ गो० क० ३३० भ० श्रारा० ५० तिलो. सा. ५६८ तिलो०प०४-२६८ तिलो० प०६-६६ तिलो. प०४-२१६० तिलो० सा० ८४८ छेदपिं० १६६ छेदस० ७० तिलो० प०४-१४८९ . गो० क० १२५ पघयणसा०१-२ पचस०५-४८ तिलो० प०४-१६४८ तिलो. प०४-२०४० तिलो०प०४-२३२८ तिलो० ५०४-२३४१ तिलो० ५० ४-२३५७ तिलो० ५०४-२७७२ तिलो. १०४-२५१६ डा Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ पुरातन-जैनवाक्य-सूची सेसेसुं समएसुं तिलो. ५० ४-६०२ | सो णत्थि ति पएसो ४ परम० ए० १-६५ सो उण समासो चिय सम्मइ०१-३० | सो णत्थि दव्यसवणो भावस०३३ सो उम्मग्गाहिमुहो तिलो० सा०८५१ कत्ति० अणु०२२ सोऊण इमं वयणं भावस० १४० भ. बारा० २३६ सोऊण कि पि सदं वसु० सा० १२५ सो णाम वाहिरतवो+ मूला०३५८ सोऊण तच्चसारं तच्चपा. ७४ सो णिच्छदि मोत्तुं जे भ० श्रारा० १३२८ सोऊण तस्स पासे जंबू०प०१३-१४५ मो णियगच्छं किच्चा दसणसा० ४६ सोऊण तस्स वयणं + तिलो. प० ४-४२८ सो णियसुक्कुप्पाइय- तिलो० ५० ४-६३६ सोऊण तस्स वयण + तिलो० ५० ४-४३७ | सो तत्थ सुहम्मवई जंवू० प०११-२२६ सोऊणं उवदेसं तिलो० ५०४-४७२ सो तस्स विउलतमपुराण- जय० ५० ५१-२१७ सो एवं अच्छंतो अमर ३8 । सो तिव्वअसुहलेसो कत्ति० अणु० २८८ सो एव णासंतो धम्मर० ३० सो तेण पंचमत्ता- म. पारा०२१२४ सो एवं बुड्डतो धम्मर० ४२ सो तेण विडज्झतो भ० पारा० ४३८ सो एवं विलवंतो धम्मर० १३ सो तेसु समुप्पण्णो वसु० सा० १३६ सो कदसामाचारी भ. श्रारा० ६३० विलो०५०४-२०१२ सो कह सयणो भएणइ भावसं० ५६४ । सो त्तिय गवुब्बूढा भावस०५४ सो कंचणसमवएणो तिलो. प० ४-४४५ | सोदयदलवित्थिरणा - जंबू०प०३-४८ सो कंठोल्लगिदसिलो भ० श्रार।० १३२६ सो दस वि तदो दोसे भ० भारा०६०६ सो कायपडिच्चाए - जंवृ० ५० १६-२३७ | सो दायव्वो पत्ते भावसं० ५२७ सो को वि णत्थि देसो कत्ति० अणु० ६८ सोदाविणि त्ति करणया तिलो० ५० ५-१६ सोक्खं अणपेक्खित्ता भ० श्रारा० १२५० सोदिंदयसुदणाणा-* तिलो० ५० ४-१२ सोक्खं च परमसोक्खं * दव्वस० णय० ४०२ सोदिदियसुदणाणा * तिलो० ५० ४-18" सोक्ख च परमसोक्खं * णयच. ७६ सोदीरणाण दव्वं लदिसा०३०६ सोक्खं तित्थयराणं तिलो० ५० -४६ सोदुक्कस्सखिदीदो तिलो० ५०४-१३ सोक्खं वा पुण दुक्खं पवयणसा० १-२० । तिलो०प०४-१६२ सोक्खं सहावसिद्धं पवयणसा० १-७१ | सो दु पमाणो दुविहो । जबू०प०१३-४७ सोगस्स सरी वेरस्स भ० श्रारा० १८३ सोदूण उत्तमट्ठस्स भ. श्रारा० ६८५ सो घरवइ सुप्पहु भणइ सुप्प० दो० ६७ | सोदूण किंचि सई भ० भारा० ११५० सोचिदठाणासिदपरि- तिलो० सा० ६३२ | सोदूण तस्स बयणं तिलो०प०४-४८० सो चिय इक्को धम्मो कत्ति० अणु० २६५ | सोदूण देवद त्तिय जंबू० प०१३-६. सो चिय दहप्पयारो कत्ति० अणु० ३६३ तिलो. ५०-५०० सो चेव ज.दिमरण पंचस्थि. १८ | सोदूण मंति-वयणं तिलो०५०४-१५२४ सोच्चा सल्लमणत्थं भ० श्रारा० ६१७ गणाद तिलो०प०४-३१० सोच्चिय भुजइ(जिय)अंसे भाय० ति० ४-२२ | सो देवो जो अत्थं बोधमा०२४ सो जगसामी गाणी जबू०प०१३-८६ | सोधम्मीसाणाणं जंबू० ५०२-१५ सो जियइ सत्त दियहे रिट्ठस. ८४ | सोधम्मो जह सोमो जंबू० ५० ११-३२० सो जोइउ जो जोगवइ परम०प०२-१३७(२०५१ सोधस वित्थारादो तिलो०प०४-२५१ सो जोयउ जो जोगवा पाहु. दो०१६ | सो पर वुच्चइ लोउ परु परम० ५० १-११ सोणत्थि इह पएसोx पाह.दो०२३ । सो पुण दविहो भणिओ भावस० सो पत्थि त पएसो भावपा० ४७ ] सो पुण दुविहो भपिओ भावसं०३४७ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स सो पुवा गिला उभे + सो बंधी उभे + सो बंध सो दिइ लोइत्थं सो भुजइ सोहम्म सोमा सोमंसा सोम-जम वरुण वासवसोमजमा समरिद्धी सोमजमा समरिद्धी सोम वंदणी सोमणसखामगिरिणो सोमणस दुगे वज्जं सोमणस पंडुयाणं सोमणसम्भतरए सोमणसरुजगकुंडलसोमणससेलउदो (ए) सोमणमस्य वरे सोमणसस्य वासा सोमणसस्साया मं सोमणसं करिकेसर सोमणसं गामव सोमपादो सोमदु-वरुणदुगाऊ सोम भद्दा सोमादिदिगिंदा सोमा पावा दुविहा सो मूवम प्राकृत पद्यानुक्रमणी महि सो मे तिहुवणमहियो * सो मे तिहुवणमहियो सोयइ विलवइ कदइ सोयदि विलपदि परितप्पदी सोलट्टेक्किगिछक्कं सोलदलकमलमज्झे सोलसको सुच्छे सोलसगवारसठ्ठग सोलस चेत्र सहरसा सोलस चेव सहरमा सोलस चेव सहस्सा सोलस चेत्र सहस्सा छेदपिं० १०७ सोलस चेव सहस्सा भावस० ३२६ | सोलस चोदस बार स कम्मप० २६ | सोलसे छप्पर कमे सोलस जावसमासा सोलसजोयाऊणं जब० प० ६-७ जबू० प० ११ - २२० श्रा० ति० ४-८ | सोलस जोय तुंगा जबु० प० ४-६७ | सालसजोयणतुगा तिलो० प०८-३०३ सोलस जोयादीहा तिलो० १० ८-३०४ | सोलसजोदीहा धम्मर० १६६ सोलसजोयालक्खा तिलो० प० ४ - २०३७ सोलसजोयलक्खा तिलो० सा० ६२० सोलसजोयाहीणे जबू० प०४-८८ | सोलसतित्थयराणं तिलो० प० ४ - १९६६ सोलसदलमच्छ गुणं तिलो० सा० १८० | सोलसदलेसु सोलहतिलो० प० ४ - २०३० सोलस दु[य] खरभागे जबू० प० ६-८० सोलसदेविसहस्सा तिलो० प०४-१६७६ सोलस पणवीस गर्भ सोलस बावीसदिमा सोलस विदिए तदिए सोलस विसदं कमसो सोलसभोमिंदारां सोलस मिच्छत्तता सोलस य सयसहस्सा सोलसय चउवीमं श्रा० ति० ४-२ | सोलसवक्खाराण तिलो० ४ - १८०५ सोलस विहमाहार पंचसं० ३-६६ | सोलमसयचउतीसा * लद्धिसा० ६४७ सोलससयचोत्तीसा * गो० क० ३५७ सोलसस रेहि वेढहु भ० श्रारा० ११५५ | सोलससहस्सा सयभ० श्रारा०८ | सोलससहस्स धियं गो० क० ३३७ सोलससहस्स इगिसयभावसं ० ४४४ | सोलस सहस्स चउसयतिलो० प० ४ - १८६४ सोलससहस्सछस्सयसोलससहस्मरणवसयसोलससहस्स पर सय सोलमसहरसमेत्ता सोलससहरसमेत्ता तिलो० प० ४ - १६३६ तिलो० प०४ - १८०७ तिलो० प०४-२५८४ तिलो० सा० ६२२ तिलो० प० ८-३०१ तिलो० प०८-२९३ कसायपा० २८ जब० प० ६–११ जबू० १० ८-१५६ जंबू० प० ८ - १०५ जबू०० ११-१२० | सोलससहरसमेत्ता भ० श्रारा० १२२२ ३०३ जब ० प० १२-६ तिलो० प० ८-२३४ तिलो०प० ४-१४३१ पचस० १-४० जयू० प० १-४८ जबू० प० ५-४ जब ० ५० ५-३८ जबू० ५० ४-५१ जंबू० प० ५-२२ तिलो० प०२-१३६ तिलो० प०८-२६ सिलो० प० ४-६५ भ० श्रारा० २०२८ जब० प० १-२८ भावस० ४५१ जब० प० ११-११६ जव० प० ११-३१५ गो० क० ६४ छेदपिं० २३४ तिलो० प०५-१६२ गो० क० ७१८ तिलो० प० ६-५० पचस ० ४-३०१ जंबू० प० ४ - १५४ गो० क० ६२६ जंबू० प०६-१० तिलो० प० ४-३४६ गो० जी० ३३५ अगप० १-२ भावसं० ४४५ तिलो० प० ४-१७४८ तिलो० प० ४- २४५६ तिलो० प० ८-५४ तिलो० प० ७-१७१ तिलो० प० २-१३४ तिलो० प० ७-१७३ तिलो० प०८-३८८३ तिलो० प०३-१३ तिलो० प० ७-६३ तिलो० प० ७-८० Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ पुरातन-जैनवाक्य-सूची सोलससहस्समेत्तो तिलो० ५० ३-८ | सोहम्मादियउवरिम- तिलो० ५० ४–१२३० सोलससहस्सयाणिं निलो० ५०४-१७७७ | सोहम्मादिसु अट्ठसु तिलो. प०८-४४७ सोलससहरसयाणि तिलो० प० ४-१८०१ सोहम्मादिसु उवरिम भावति० ७६ सोलससहस्सयाणिं तिलो. प० ४-२२२६ सोहम्मादी अच्चुद- तिलो० प०८-५५७ सोलह अट्ठक्केकं पसं० ३-५२ सोहम्मादी अच्चुद- तिलो. प०४-८६० सोलहदलेसु सोलह भावसं०४५१ सोहम्मादी देवा तिलो. प०८-६८२ सोलं च वीस तीसं श्रगप०१-१० सोहम्मादीवारस तिलो० सा० ४८६ सोलुदय कोसवित्थड तिलो० सा० १००३ सोहम्मि दु परिसुद्ध जवू० प०७-२७ सोलेकट्ठिविसट्ठिगि तिलो० सा० ७५७ सोहम्मि सुरवरस्स दु जवू०प०४-२४५ सोचकमाणुवकम गो० जी० २६५ सोहम्मिददिगिदे तिलो० प०८-५५४ सोवएणरुप्पएहि य वसु० सा० ४३३ सोहम्मिदा णियमा तिलो०प०८-६६६ सोपरिणयं रि णियलं समय० १४६ सोहम्मिदादीण तिलो० प०८-३५६ सो वि जहणणं मज्झिम- छेदपिं० २७५ | सोहम्मिदासणदो तिलो०प०४-१६५० सो वि परीसहविजओ कत्ति० अणु० ६८ सोहम्मिदो सामी जवृ० १०३-२३१ सो विमणेण विहीणो कत्ति० अणु० २८७ | सोहम्मीसाणदुगे तिलो. ५०-६६० सो वि विणस्सदि जायदि कत्ति० अणु० २४२ । सोहम्मीसाणसणक्कुमार- तिलो० सा० ४५२ सो सरणासे उत्तो श्रारा० सा० २६ सोहम्मीसाणसणक्कुमार- तिलो०० ५००-१२० सो समणसघवज्जो दसणसा० ३७ सोहम्मीसारणसुरा जवृ० १० ११-३४६ सो सयणो सो बंधू भावसं०५६५ सोहम्मीसाणाणम ___गो० जी० ४३४ सो सल्लेहिददेहो भ० श्रारा० २०६५ | सोहम्मीसाणाणं तिलो. प०८-१३० सो सबणाणदरिसी समय०१६० सोहम्मीसाणाणं तिलो०प०-२०३ सो सगहेण इक्को कत्ति० अणु०२६८ | सोहम्मीसाणाणं जंबू० प०४-१४४ सो संजमंण गिएहदि गो० जी० २३ । सोहम्मीसाणेसु य मूला० १०६४ सो सिउ संकरु विण्हु सो जोगसा० १०५ | सोहम्मीसाणेसुं तिलो० प० -३३० सो सोत्तिो भणिन्नइ भावसं०५५ सोहम्मीसाणेसु तिलो० प०८-३३६ तिलो. सा०६६४ | सोहम्मीसाणोवरि तिलो० प०१-२०३ सोहम्मकप्पणामा तिलो० प०८-१३८ । सोहम्मे छ-मुहुत्ता तिलो० ५०८-५४३ सोहम्मकप्पपढमिंद- तिलो० प०८-५११ (सोहम्मे जायंते तिलो० सा० ८६० सोहम्मदुगविमाणं तिलो० ५०८-२०५ / सोहम्मे दलजु(मु)त्ता तिलो० ५० १-२०८ सोहम्मप्पहुदीणं तिलो. प०८-६७१ | सोहम्मो ईसाणो तिलो० सा० ६७७ सोहम्मम्मि विमाणा तिलो० ५०८-३३३ । सोहम्मो ईसाणो तिलो. १०-१२७ सोहम्म वरं पल्लं तिलो० सा० ५३२ | सोहम्मोत्ति य तावं गोक०१७४ सोहम्मसाणहारमसंखेण गो० जी० ६३५ सोहम्मो वरदेवी तिलो० सा० ५४८ सोहम्मसुरिंदस्स य तिलो० ५० ४-१४३ / सोहसु मज्झिमसूई * तिलो० प० ४-२६६३ सोहम्माइसु जायइ वसु० सा० ४६५ सोहसु मज्मिमसूई * तिलो० ५०४-२८७६ सोहम्मादासारं गो० जी० ६३६ सोहंति असोयतरू तिलो. प०४-६१६ सोहम्मादिचउके तिलो० प०८-१५८ धम्मर० १५६ सोहम्मादिचउक्के तिलो० प०८-४४० सोहेदि तस्स खंदा(धो) तिलो. ५०४-२१५३ सोहम्मादिचउक्के तिलो०.५० ४८८ सो होदि साधुसत्थाटु भ० भारा० १३१० सोहम्मादिदिगिंदा तिलो० ५०-७१ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी ३०५ हरिदाले हिंगुलए मूला० २०७ हरिधय गयधय मित्ता प्रायः ति० १-१८ हउँ गोरउ हउँ सामलउ + परम० ५०१-८० हारयादिवाज उवरि छेदस० ४५ हउँ गोरउ हउँ सामलउ + पाहु० दो० २६ हरि-रइय-समवसरणो भावसं०३७५ हउँ वरु वम्हणु ण विचइस पाह. दो० ३१ / हरि-रम्मग-वरिसेसु य जबू० प० २-११६ हउँ वरु वंभणु वइस हउँ परम० ५० १-८१ हार-रम्मय-वस्ससु य मूला० १११३ हउँ सगुणी पिउ णिग्गुणउ पाहु० दो० १०० हरिवरिसक्खेत्तफलं तिलो० प०४-२७१० हणिऊण अट्टरुद्दे थारा० सा० १०६ हरिवरिसम्मि य खेत्ते जबू० प० ३-२३३ हणिऊण पोढछेलं भावसं० ४४ | हरिवरिसो चउगुणिदो तिलो० ५० ४-२८०४ हत्य अहं देवली पाहु० दो०६४ तिलो०प०४-२७४३ हत्थपमाणे णिच्चुव- तिलो० सा०२६१ हरिवरुणसोममारुद- तिलो० ५० ४-१६७३ हत्थपहेलिदणाम निलो० प० ४-३०७ हरिवसस्स दु मज्झे जबू०प०३-२२२ हत्यपादपरिच्छिण्ण मूला० ६६३ हरिसेणो हरिकंतो तिलो० सा० २११ हत्थतरेणवाधे मूला० ६०१ हरि-हरतुल्लो वि गरो सुत्तपा०८ हत्थ मूलतियं वि य तिलो. सा. ४३६ हरि-हर-बह्माणो वि य धम्मर० १०६ हत्थिरणपुरगुरुदत्तो भ० श्रारा० १५५२ | हरि-हर-वभु वि जिणवर वि परम० ५० २-८ हत्थी अस्सो खरोट्टो वा मूला० ३०५ | हरि-हर-हिरएणगम्भा जंवृ० ५० १३-६२ हत्थुप्पलदीवाण तिलो० प०७-४६७ हरि-हरिकंतातोरण जंवू. ५० ३-१८० हम्मंति[य] उरसंता? जंबू० ५० ११-१५८ हल-मुसल-कलस-चामर- जंवू० ५० ३-२४३ हयकएपकरणचरिमे लद्धिसा० ४८५ | हाल साह काइ क्रइसा दप्पणु पाहु० दा० १२२ हयकरणाइ कमसो तिलो० ५० ४-२४६५ , हलुवारंभहें मणुयगइ सावय० दो० १६३ हय-गय-गो-दाणा भावस०५२५ हवइ चउत्थं माण भावसं० ३६२ हय-गय-गो-मणुाणं रिट्ठस० १७६ / हवइ चउत्थं ठाणं भावसं० २५६ हय-गय-रह-परवल-वाह- मूला० ६६५ | हवदि व ण हवदि बंधो पवयणसा०३-१६ हय-गय-रह-वरपवरभड सुप्प० दो० २६ | हसमाणा रोवंती रिट्ठस० ८६ हय-गय-वसहे सयडे रिट्ठस० १६१ / हसमाणीइ(य) छ-मासं रिट्ठस० ६२ हय-गय-सुणहह दारियह सावय० दो० ८२ | हसिओ सुरेहिं कुद्धो भावस०२१२ हयसे-वम्मिणी(ला)हिं तिलो० ५० ४-५४७ हस्स-भय-कोह-लोहा मूला०२६० हरडाफलपरिमाणं जंब० ५०२-१२० हस्स-रइ-भय-दुगुछा पचसं०३-७० हरमाणे परदव्व वसु० सा० १०६ हस्स-रदि-अरदि-सोयं * आस० ति०६ हरि(ऊरण) परस्स धणं वसु० सा० १०२ हस्स-रदि-अरदि-सोयं * कम्मप०६२ हरिकरिवसहखगाहिव- तिलो० ५० ३-४६ हस्सरदिउञ्चपुरिसे+ गो. क. १३२ हरिकरिवसहखगाहिव- तिलो० ५० ४-१९२३ । हस्सरदिउच्चपुरिसे+ कम्मप० १२८ हरिकंता-सारिच्छा तिलो० ५० ४-१७७१ | हस्सरदिपुरिसगोददु गोक०४०७ हरिगिरिधणुसेसद्धं तिलो० सा० ३६३ | हस्सो रज्झदि कूरो श्रगप०२-८३ हरिजीवा इगिए भगव- तिलो० सा० ७७५ | हंतूण कसाए इदियाणि भ० श्रारा० ५२४ हरिणादिय-तणचारी तिलो० ५० ४-३६२ हंतूण जीवरासिं बा० अणु०३३ हरिदतणंकुरबीजाछेदपि० १०३ हतूण य बहुपाणं मूला०६१६ हरिदालमई परिही तिलो० ५० ४-१८०० | हंतूण रागदोसे मूला०६० हरिदालसिंधुदीवा तिलो० ५० ५-२६ | हदि चिरभाविदा वि य मूला० ४८ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ पुरातन-जैनवाक्य-सूची हमबहुगमपदक्खा जंबू० प०३-८१ हिमवंतपव्यदस्स य तिलो० ५० ४-१७२३ हंसम्मि चदधवले तिलो० ५० ५-८८ हिमवंत-महाहिमव जय० प०३-२ हाएदि किण्हपक्खे तिलो० ५० ४-२४४२ | हिमवत-महाहिमवंत- तलो०प०४-१४ हाणादाणवियारविही- रयणसा० ८५ हिमवतयस्स मज्झे तिलो. प० ४-१६५६ हाणि-चयाण पमाण तिलो० प० २-२१६ हिमवंतयंतमणिमय- * तिलो० ५०४-२१३ हा मणुयभवे उप्पजिउण वसु० सा० १६२ हिंमतयंतमणिमय-* जब० ५० ३-१४८ हा मुयह मम(झ) परिहर वसु० सा० १४१ | हिमवतसरिसदीहा तिलो० ५० ४-१६२७ हारदुगं वज्जित्ता श्रास. ति० ३१ हिमवतसिहरि सेला जं० ५० ३-३ हारदु सम्म मिच्छं गो. क० ३५० हिमवंतस्स दु मूले जंब० ५०३-२२७ हारदुहीणा एवं गो० क. ३०३ हिमवंताचलमज्झे तिलो० ५०४-११५ हारविराइयवच्छा जंबू० ५० २-१६१ | हिमवं महादिहिमवं तिलो० सा० ५६५ हारविराइयवच्छा जबू० ५० ४-२७४ हियकमलिणि ससहरधवल सावय. दो० २१३ हारविराइयवच्छा जबू०प०६-७७ हियडउ कित्तिउ दसदिसि धावइ सुप्प० दो० ७० हार अधापवत्त गो० क० ४३१ हियमियपुज्ज सुत्ता- वसु० सा० ३२७ हारिउ तें धणु अप्पणउ सावय० दो० ८४ | हियमियमरणं पाणं _रयणसा० २४ हास-भय-लोभ-कोहप्प- भ० श्रारा० ८३३ | हिवडा काइँ चडफड. सुप्प० दो० १३ हास-रइ-पुरिसवेयं पंचस०४-३१७ | हिवडा काइँ चडप्फड सुप्प० दो० ४८ हास-रइ-भय-दुगुंछा पंचस० ४-४६४ | हिवडा मडवि घरु घरिणि सुप्प० दो० ४६ हासोवहासकीडा म. आरा० १०६० हिवडा संवरि धाडी सुप्प० दो० १४ हा हा कहं णि लोए(ो ?) वसु० सा० १६५ हिंगुलपयोधिदीवा तिलो०प०५-२५ हाहा-च उसीदिगुणं तिलो० प० ४-३०३ | हिंडाव(वि)जइ टिंटइ वसु० सा० १०७ हा हामा हामाधिक्कारा तिलो० सा० ७६८ | हिंसं अलियं चोज्जं भ० श्रारा० १३७३ हाहा हूहू पारद- तिलो. प० ६-४० | हिंसा असच्च मोसो दवस० गय०३०६ हाहा हूहू गारय- तिलो० सा० २६३ हिंसाइदोसजुत्तो भावस०५५३ हिअयमणोगयभावं जबू० ५० १५-२६६ हिंसाइसु कोहाइसु रयणसा० ६२ हिट्ठा(?) मज्झे उबरिं मूला० ७१४ हिंसाणंदेण जुदो कत्ति० अणु. ४७३ हिट्ठिम-मझिम-उपरिम- कत्ति० अणु० १७१ | हिंसादिउ परिहारु करि जोगसा० १०. हिट्ठिम-मज्झिम-उवरिम- तिलो. सा. ४५५ हिंसादिएहिं पंचहिं मूला० ७३६ हिदमिदपरिमिदभामा मूला० ३८३ | हिंसादिदोसमगरादि भ० श्रारा० १७७० हिदमिदमधुरालावा(ओ) तिलो० ५० ४-८६६ | हिंसादिदोसविजुदं मूला० ३१३ हिदमिटवयणं भासदि कत्ति० अणु० ३३४ | हिंसादो अविरमणं भ० श्रारा०८०१ हिदयमहाणंदाओ तिलो हिंसारहिए धम्मे * मोक्खपा० १० हिदि होदि हु दन्वमणं गो० जी० ४४२ | हिंसारहिए धम्मे * भावस० २६८ हिमइंदयम्हि होति हु तिलो० ५००-१२ | हिंसारंभो ण सुहो कत्ति० अणु० ४०५ हिमगा(गे) णीला पंका तिलो० सा १६२ | हिंसावयणं ण वयदि कत्ति० अणु० ३३३ हिमजलणसलिलगुरुयर- भावपा० २६ / हिसाविरइ अहिसा चारित्तपा० २६ हिमणगपहुदीवामो तिलो. सा० ७६८ हिंसाविरई सच्चं भावस० ३५३ हिमणिंचओ वि व गिहमय-भ० श्रारा० १७२७ हिंसाविरदी सच्चं हमवण्यागत जीवा तिलो० सा० ७७२ / हीणो जदि सो आदा पवयणसा० १-२५ हिमवद्दललल्लक्क जंब० प० ११-१५५ । हयवहिणाइ ण सक्कियउ पाहु० दो० १४६ ४-७८५ मूला०४ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपद्यानुक्रमणी ३०७ हुंकारंजलिभमुहंगुलीहिं भ० श्रारा० १६०४ | हेदु(उ)अभावे णियमा ४ समय० १६१ हुंडमसंपत्तं पि य x पचसं०४-२८१ | हेदुमभावे णियमा ४ पंचस्थि० १५० हुडमसंपत्तं पि यx पचस० ५-८२ हेदू चदुन्वियप्पो * समय० १७८ हुडं पत्तेयं पि व पचस०५-१०१ हेदू चदुव्यियप्पो * पंचत्थि. १४६ हुंडावसप्पिणिस्स य तिलो. प० ४-१२७८ हेदू पच्चयभूदा मूला० ६८५ हुंडावसप्पिणीए वसु० सा० ३८५ हेमगिरिस्स य पुवा- जबू०प०१०-५६ हुति अणियट्टिणो ते भावस. ६५१ हेमज्जुणतवणीया तिलो० सा० ५६६ हुति छयालीसं खलु सिद्धत०७४ हेममया तुगधरा तिलो. सा० ६२६ हूहूचउसीदिगुणं तिलो. प० ४-३०४ हेममया वक्खारा तिलो० सा० ६७० "हेउविसोवणीअं सम्मइ० ३-५८ हेमवदप्पहुदीणं तिलो० ५० ४-२५६८ हेऊ सुद्धे सिज्मइ दवस. णय०३६६ हेमवदभरहहिमवंत- तिलो० ५० ४-१६४६ हेट्ठिा हु चेट्टइ भावस० ६५६ हेमवदवस्सयाणं _ मूला० १११२ हेट्ठा अखसंभाग लदिसा० ५०० हेमवदवाहिणी तिलो०प०४-२३७६ हेढाकिट्टिप्पहुदिसु लद्धिसा० ५२५ हेमवदस्स य मज्झे जंवू० प०३-२१४ हेट्ठा जेसि जहएणं गो० जी० ११२ हेमवदस्स य रुंदा तिलो० प०४-१६६६ हेट्ठा दडस्संतो लदिसा० ६१७ | हेमवदंतिमजीवा तिलो० सा० ७७३ हेट्ठादो रज्जुघणा तिलो० ५० १-२४४ हेमते धिदिमंता मूला० ८६३ हेट्ठामज्झिमउवरि जंबू०प०११-१०६ हेमंते धिदमता धम्मर० १८६ हेट्ठासीसं थोवं लद्धिसा० २८४ हेमंते विहु दिवसे छेदस०३२ हेट्ठासीसे उभयं लद्धिसा० २८३ हेया कम्मे जणिया दवस० णय०७६ हेट्ठिमउक्कस्सं पुण गो० जी० ६०० हेयोपादेयविदो दवस० णय० ३५१ हेट्ठिमखडुक्क गो० क० ६५९ | हेरण्णवदभंतर तिलो. ५०४-२३६२ हेट्ठिमगेविजाण दु जबू० प० ११-३५१ हेरगणवदे खेत्ते जबू० प०३-२३२ हेहिमगेविन्नाण य जंवृ० ५० ११-३३४ | हेरण्णवदो मणिकचण- तिलो० प० ४-२३४० हेट्ठिमगेविज्जेसु य मूला० १०६७ जबू०प०११-३३१ हेट्ठिमछप्पुढवीणं गो० जी० १२७ भ० श्रारा० २१० हेट्ठिमछप्पुढवीणं गो० जी० १५३ | होइ गारो णिल्लज्जो भ० श्रारा० १६४३ हेट्ठिमणुभयवरादो लद्धिसा० ५१७ | होइ ण होइ य कज्जं प्राय० ति० २३-२ हेटिम-मझिम-उवरिम- तिलो० ५० १-५५१ / होइ वणिज्जु ण पोट्टलिहि सावय० दो० १०६ हेट्टिम-मज्झिम-उवरिम- तिलो० १० ४-५२४ | होइ विमोड पुरजय तिलो० सा० ६६८ हेट्ठिम-मज्झिम-उवरिम- तिलो० ५००-१४७ होइ सयं पि विसीलो भ. पारा० १३४ हेट्ठिम-मज्झिम-उवरिम- तिलो० ५०८-१६६ होइ सुतवो य दीवो म. पारा० १४६६ हेट्ठिम-मज्झिम-उवरिम- तिलो० ५० -६६४ होऊण खयरणाहो वसु० सा० १३१ हेट्ठिम-मज्झे उवरिं तिलो० ५०८-११६ होऊण खीणमोहो भावस०६६४ हेट्ठिमलोए लोश्रो तिलो० ५० १-१६६ होऊण चक्कवट्टी भावसं०४८४ हेट्ठिमलोयायारो तिलो० ५० १-१३७ होऊण चक्कवट्टी वसु० सा० १२६ हेट्ठिमहेट्ठिमपमुहं तिलो० ५००-१४७ | होऊण जत्थ सट्ठा दव्वस० णय० ३५६ हेछिल्लम्मि तिभागे तिलो०प० ४--२४३२ होऊण तेयसत्ता मूला० ७१७ हेडवरिमतियभागे तिलो० सा० ८१८ | होऊण दिढचरित्तो मोक्खपा० ४१ हेट्टोवरिदं मेलिद- तिलो० ५० १-१४२ | होऊण परमदेवो धम्मर० १०७ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ होऊण भणो सो - होऊण भोगभूमि होऊण महडूढी होऊण यस्सिंगो होऊण रिऊ बहुदुक्खकारो भ० प्रा० १८०५ हो सुई चेइयहज्ज दिगम हो जमलंभो पुरातन जैनवाक्य-सूची तिलो० प०४-२६३० तिलो० प०८-६८६ गो० जी० ६२६ तिलो० प०२-२७६ भ० श्रारा० १८०७ | होहइ इह दुभिक्ख जंबृ० प० २ - २०५ |होही थिरम्मि भरिए भ० रा० १८०३ | होति प्रजीवा दुविहा बा० ० ७६ होंतिणियट्टिण ते होति अणियट्टिणो ते वसु० सा० २७४ | होति श्ररिणयट्टिको ते मूला० ११५६ | होति अवज्झादिसु रणवमूला० ११५८ | होंति श्रसंखा जीवे सम्मइ० ३ - १६ | होति श्रसंखेज्जगुणा गो० जी० ३८८ होंति असंखेज्जा लद्धिसा० ४८२ होंति खवा इगिसमये तिलो० प० ८ - १०७ | होंति णपुसंयवेदा भ० श्रारा० १३३१ | होंति तिविदुविट्ठा अंगप० १-४२ | होति दहा मज्झे होंति पयहुदी होंति पइरणय पहुदी होति पढाणीया होंति परिवारतारा ति महादेव व भ० श्रा ० ६१३ होति य मिच्छादिट्ठी तिलो० प० ४ - १८६५ | होति यमोघ संधि (सत्थि ) य - तिलो०प०५ - १५३ तिलो० प० ८ - ३४६ | होति सहरसा वारस तिलो० प० ४-११६५ तिलो० प० ७-५३८ | होंति हु असंखरामया तिलो० प०४-२८६ तिलो० प० ८-३०० होति हु ईसार दिसा - तिलो०प०५-१७३ भ० श्रारा० ८४४ ति हुता वाणि समय० १७५ । होति हु वरपासादा तिलो० प०४-१४१० तिलो० प० ४ - २०१० तिलो० प० ५ - १६८ तिलो० प० ३-८१ तिलो० प० ४-१६८६ तिलो० प० ४ - १३६० | तिलो० प० ७-४७३ मूला० २१७ जबू० प० ११-८२ जब० प० २-१६२ इदि सम्मत्ता होजाहि दुगुणमहुरं होदि तिमभागो होदि असंखेज्जगुणं होदि असंखेज्जाणं होदि कसाउ (यु) म्मत्तो होदि गरिणच कििमह वप्पहोदि गिरी रुचकरो होदि दुर्गुछा दुविहा होय र तिव्वा होदि [य] दिवडूढरयणी होदि दिल्ली होदि सचक्खू विचक्खु होदि सभापुरपुरदो होदि सहस्सारुत्तर दिसाए होदि हु पढम विसु होदि हु सयं पक्खं दु सिहंडी व जडी होदू रिवभोज्जा मूला० ६५३ भ० रा० १५६५ जबू० प० ११-३२ भावस० १३० श्राय० वि० ११-६ भावस० ३०३ पचस० १-२१ गो० जी० ५७ गो० क० ६१२ तिलो० प० ७ - ४४४ दव्वसं० २५ तिलो० प०५-२८८ तिलो० प० ४-२७३ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ वाक्य-सूचीमें छपनेसे छूटे हुए वाक्य अत्थाण वंजणाण य भ० श्रारा० १८८५ , णियखेत्ते केवलिदुग- पचस० १-६६ (ख) अवरादीणं ठाणं पचस० ४-६७ (क) | तत्तो अवरदिसाए जवृ० प० ६-६६ (क) अवाघादी अंतोमुहुत्त- पचस. १-६६ (घ) | तत्थ य अरिट्ठणयरी जबू० ५०८-२० (क) अतरकरणादुवरि लद्धिसा० २५१ (क) तिय-पण-छवीसेसु वि पचपं०५-२१६ (क) श्राहारस्सुदयेण य पचसं० १-६६ (क) | ति-सहस्सा सत्तसया तिलो० प० ४-११०० इंदियचउरो काया पचल० ४-१५२ (क) ते मवे भयरहिया पचस० ५-३०३ (क) इंदियदोरिण य काया पचस० ४-१४७ (ख) | दम्मसुवरणादीयं छेदपिं० ४३ क (ख पुस्तके) इदियमेश्रो काओ पसं० ४-१४७ (क) | दसविक्खभेण गुण जवू०प० ४-३२ (क) इदियमेश्रो काओ पचस० ४-१५७ (क) | पढमक्खे अतगदे छेदपिं० २२६ क (ख, पुस्तक) उत्तमअंगम्मि हवे पसं० १-१६ (ग) | पाया जे छप्पुरिसा पंचस० १-१६१ .क) उत्तर-पच्छिम-भागे जबू० ५० ४-१३८ (क) | पुठवेण तदा गतु जबू०प०६-१०७ (क) उवणेउ मंगलं वो लद्धिसा० १५५ (स०टी०)| बलभदणामकूडा जबू० ५० ४-६८ (क) उवरयवधे संते पंचसं०५-१२ (क) | बलिगधपुप्फपउरा जबू० प० २-७२ (क) उववाद-मारणतिय- पचस० १-८६ (क) | बासहिजोयणाणि य जबू०प० ७-६६ (क) उववास-सोसियतणू जबू० प० २-१४७ (क) | भूदयवणफ्फदीसु पचसं० ४-३५५ (क) कक्केयणमणि-णिम्मिय- जवू०५० ४-१७४ (क) | मरगय-वेदी-णिवहा जचू० प० ६-१०७ (ख) कोडिसयसहस्साइ गो० जी० ११३ ख (म० टी०) मदारतारकिरणा जवू० प० ३-६१ (क) गूढसिरसधिपव्व पंचस० -८३ (क) | रयणायरेहिं रम्मो जवृ. ५०६-१०६ (क) घर सुक्खइँ सुप्पहु भणइ सुप्प० दो० ५४ विणयेणुवक्कमित्ता भ० श्रारा ४१५क(मूला०द०) चउथे पंचमकाले जंबू० ५० २-१८७ (क) | विसयासत्ता जीवा जवृ०५० ११-१५५ (क) चउवधयम्मि दुविहा पचस० ५-१२ (क) | वेमाणियणरलोए भ० श्रारा० ५१ (भाषा टी.) चउसट्ठी अट्ठमया पचप०४-३१५ (क) | सत्तत्तीससहस्सा तिलो० ५० ४-१६६७ चालीसं च सहस्मा जवू०प० ६-७३ (क) मदहया पत्तियया भ० श्रारा० ४८ क (मूला०द.) जह खेत्ताणं दिट्ठा जबृ० प० २-१०७ (क) सम्मे असखवस्मिय ल द्धिगा० १५५ क (स०टी०) जे सेसा सुक्काए भ० श्रारा. १६२० । मयजोयण-आयामा जवू०प० ४-१३८ (क) मल्लरिमल्लयस्थी - तिलो. प० २-३०५ | सव्वाणं इंदाण जंवृ०प० ४-२६७ (क) णाणं पंचविहं पि य पंचस० १-१७८ (क) सेमाणं तु गहाण जवृ० प० १२-१४ (क) णामेण अजण णाम जवृ० १० ११-३०६ (क) सोलम चेव चउक्का जवृ० ५० १२-४३ (क) नोट-पचसग्रह और जबूदीवपण्णत्तीके वाक्योंका इस सूचीमें बाद को मिली हुई श्रामेर (जयपुर) की प्राचीन (क्रमश वि० सं० १७६६, १५१८ की लिखी ) प्रतियोपर से सग्रह किया गया है, इसीसे पूर्व प्रकाशित जिस जिस वाक्यके वाद वे उपलब्ध हुए हैं उनके अनन्नर क, ख आदि जोडकर उनके स्थानका यहाँ निर्देश किया गया है। Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ षट्खण्डागम-गाथासूत्र-सूची [षट्खण्डागम ग्रन्थ प्रायः गद्य-सूत्रोंमे है, परन्तु उसमे कुछ गाथा-सूत्र भी पाये जाते है। जिन गाथा-सूत्रोंको अभी तक स्पष्ट किया जा सका है उनकी अनुक्रम-सूची निम्न प्रकार है :-] अजसो णीचागोदं वेयणा, वेयणा अणि० २ | णिद्धस्स णिद्वेण दुराहिएण वेयणा, बंधण अणि०६ अट्ठाभिणिपरिभोगे वेयणा, वेयणा अणि ० २ | णिद्धा णिद्धेण बज्झति वेयणा, बंधण अणि० ६ अस्थि अणंता जीवा वेयणा, बंधण अणि० ६ । णीचागोद अजसो वेयणा, वेयणा अणि ०२ अप्पं बादरमउगं (?) वेयणा, कम्म अणि० ४ । | तेया-कम्मइय-सरीरं वेयणा, कदि अणि०१ असुराणमसखेज्जा वेयणा, कदि अणि १ तेयासरीरलंयो वेयणा, पयडि अणि०५ वेयणा, कदि अणि० १ पज्जय-अक्खर-पद-संघाद वेयणा, पयहि प्रणि०५ आणदपाणदवासी वेयणा, कदि अणि० १ | पणुवीस-जोयणाण वेयणा, कदि अणि० १ आवलिपुधत्तं घण वेयणा, कदि अणि परमोहिअसंखेज्जा वेयणा, कदि अणि० १ ओगाहणा जहण्णा वेयणा, पयडि अणि ५ | बादर-सुहुम-णिगोदा वेयणा, बधण अणि० ६ - उक्कस्समाणुसेसु य वेयणा, पयडि अणि०५ भरहम्मि अद्धमासो वेयणा, कदि अणि०१ एगणिगोदसरीरे वेयणा, बंधण अणि०६ / सक्कीसाणा पढम यणा, कदि अणि . एयस्स अणुग्गहणं वेयणा, बंधण अणि ० ६ | समगं वक्कताणं वेयणा, बधण अणि०६ एयं खेत्तमणंतर- वेयणा, फास अणि० ३ | सम्मत्तप्पत्तीए वेयणा, वेयणा अणि० २ कालो चदुण्ण वुड्ढी वेयणा, पयडि अणि० ५ | सव्वं च लोगणालिं वेयणा,,कदि अणि १ के पणिअट्टतियअण- वेयणा, वेयणा, अणि० २ | सव्वे एदे फासा वेयणा, फास अणि ० ३ खवए य खीणमोहे वेयणा, वेयणा अणि २ | संखेज्जदिमे काले वेयणा, पयडि अणि० ५ गहिदमगहिदं च तहा(१) वेयणा, कम्म अणि० ४ संजमणदाणमोही वेयणा, वेयणा अणि०२ जत्थेक्कु मरइ जीवो वेयणा, वंधण श्रणि० ६ साद जसुच्चदेकं वेयणा, वेयणा अणि०२ णामं 8वणा दवियं वेयणा, बंधण अणि ६ | साहारणमाहारो वेयणा, बधण प्रणि०६ णिजरिदाणिज्जरिदं (?) वेयणा, कम्म अणि० ४ । Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ टीकादि-ग्रन्थोंमें उपलब्ध अन्य-प्राकृत-पद्योंकी सूची अप्प(पाद)हियं कादवं विजयो० १५४ अंप्पिदादरभावो धवला १-७-1 अभया (वहा) संमोहविवेग-धवलाश्रा०प०८४० अक्खाण रसणी कम्माण अन० टी० ४-१०॥ अभिमुहणियमिय-बोहण- धवला १-१-११५ अगुरुलहूउवधादं धघला श्रा० ५०४५१ अम्हा दोण दि भयं दिहादो- सा० टी०-८० अच्छिणिमीलणमित्तं दव्वतं० टी० ३५ अवगयणिवारणहूं धवला १-१-1 अट्ठत्तीसद्धलवा धवला १-२-३ श्रवणयणरासिगुणिदो धवला १-२-२ अट्ठविहकम्मविजुदा धवला १-१-२३ अवहारवढिरूवा धवला १-२-२ अट्ठावरणसहस्सा जयध० गा० अवहारविसेसेण य धषला १-२-१ अट्ठासीअहियारेसु धवला --२ अवहारेणोवट्टिद- धवला श्रा० १०५६८ अटेव सयसहस्सा धवला १-२-१४ अवहीयदि त्ति श्रोही धवला १-१-११२ अडदाल सीदि बारस धवला श्रा०प०६०३ असणं चयति दीहं भन०टी०४-६४ अडूढस्स अपलसस्स य धवला १-२-६ असरीरा जीवघणा धवला 9-8-१,० अणदेज्जं मिणं च मूला० द० २१२४ असहायणाणदसण- जयध० प्रा० ५० १०१८ श्रण मिच्छ मिस्स सम्म जयध० श्रा०प०१०१६ असिदिसद किरियाण स० सि०८-१ अणवज्जा कयज्जा धवला १-१-१ अह खंति मज्जवज्जव- धवला श्रा० ५० ८३६ अण्णादं पासतो जयध० गा० २० अहमिंदा जह देवा धवला १-१-४ अणिमित्तमेय केई सस्वार्थवा० ६-१ अहिसेयवंदणा अन० टी०६-१३ अणियट्टे श्रद्धाए गो० फ० जी० टी० १९० अगं सरोवजणलक्खणाणिं धवला पा०प० ५२८ अणियोगो य णियोगो घपला १-१-५ अंगोवगसरीरिदियं धवला श्रा०प० ३७४ अणुभागेहं मते धवला श्रा०प०८०८ अंणत्थ किं फलो वहा सा० टी०८-८० अणुलोह वेदंतो धघला १-१-१२३ अंतधणं गुणगुणियं गो. जी0 जी0 टी. ३५४ अणुसंखासखगुणा धवला श्रा० ५० ६२३ अंतो णत्थि सुदीणं पचस्थि० त० १४६ अणुसंखासखेज्जा धवला प्रा० ५० ६२३ श्रतोमुहुत्तपरदो धवला या १०८३८ अणुवगयपराणुग्गह- धवला श्रा०प० ३८ | अंतोमुहुत्तमेत्तं धवला श्रा०प०८३८ अणुवय-महन्वयाई सा० टी०५-२५ अण्णाणतिमिरहरणं धवला १-१-१ अण्णदो मोक्खं बोधपा० टी० ५३ श्रा अत्ता चेय अहिसा जयध० गा०१ अत्तामधुत्तिपरिभोग- धवला श्रा० ५० ११२१ पाउपबंधो थोवो भवला श्रा०प०१०१३ अत्थादो अत्यंतर- धवला १-१-११५ पाउगवसेण जीवो विजयो० २५ अत्थित्त पुण संत धवला १-१-७ आउवभागो थोवो धवला श्रा०प०६५३ अत्थित्ता णवमासे धवला श्रा० ५० ५३५ | श्रागमउवदेसाणा धवला श्रा० प०८३८ अप्पज्जत्ताण पुणो तत्वार्थवृ० टि०८-१४ आणद-पाणदकप्पे धवला प्रा०प० ४१५ अप्पपरोभयबंधण- धवला १-१-११२ विजयो० ४२१ अप्पप्पवुत्तिसचिद- धघला १-१-४ | आदाहीणं पदाहीण। चारित्रसा० पृ०७१ Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ पुरातनजैनवाक्य-मूची आदिम्हि भद्दवयणं धवला १-१-१ | उच्च उच्चतदओञ्च धवला श्रा०प० १७४ श्रादी मंगलकरणे धवला श्रा०प०५७ धवला श्रा०प०५३६ आदीवसाण-मज्झे धवला १-१-१ | उज्जुसुदस्म य वयणं धवला श्रा०प०३७५ आधारे थूलाओ पचत्थि० ता० वृ० ३१ | उत्तरगुणिदं इच्छ धवला श्रा०प०६६७ धवला श्रा०प०५३६ | उत्तरदलहयगच्छे धवला १-२-. अाभीयमासुरक्खं धवला १-१-१२५ | उत्ताणट्टियगोलग- तरवार्थवृ० श्रु०४-२ आरंभे णस्थि दया मोक्खपा० टी० १० उदए संकम उदए धवला श्रा० ५० ५५२ आलंबणाणि वायण- धवला श्रा०प० ८३७ । उप्पएणम्हि अणते धवला 1-1-1 आवलि असखसमया धवला १-२-६ उभयं यं वि भणियं पचाध्या० १-६४६ आवलियाए वग्गो धवला-२-१७ उवइ8 अट्टदलं श्रन० टी० ६-४० आसणसलिसठिईहिं मैथिली०३-२ उबजोगलक्ग्वणमणा धवला श्रा०प०८३८ प्रासापिसायगहिरो परम० टी० २-१६० उवरिमगेवजेसु य धवला श्रा०प० ४१५ आहरदि अणेण मुणी धवला १-१-५६ | उवरिल्लपचए पुण धवला श्रा०प०४५२ आहरदि सरीराणं धवला १-१-४ | उवरीदो गुणिढकमा लद्धिसा०टी०१५ आहारतेजभासा धवला श्रा०प० १२३ उपसप्पिणि अवसपिणि स० सि० २-१० आहारयमुत्तत्थं धवला १-१-५६ / उवसमममत्तद्धा धवला १-५-७ आहारसरीरिंदिय- धवला १-१ (मु. पृ. ४१७) वसंते ग्वीणे वा धवला-१-१२३ धवला श्रा०प० ११२१ उज्वेलणविभादो धवला श्रा०प० १०८ उसहमजियं च वदे धवला १-१-१ इक्कहि फुल्लहि फुल्लसउ बोधपा० टी०१० इक्व हिं फुल्लहिं माटि देइ बोधपा० टी० १० इगिवीस अट्ठ तह णव धवला १-७-१ एइंदियस्स फुमणं धवला १-१-३५ इच्छहिदायामेण य धवला श्रा० ५० ५६९ एए छच्च समारणा धवला श्रा०प० ७८६ धवला श्रा०प०६४१ एक्कम्मि कालसमए धवला १-१-१७ इच्छिदाणसेयभत्ते धवला 1-8-६,३२ एक तिय सत्त दस तह धवला १-५-४४ इच्छिसरासणु कुसुमसरु अन० टी० ४-६५ एक्कारस(स) छ सत्त य धवला १-५-१७४ इहमलागाखुत्तो धव ता ५-४-२५ / एक्कारसयं तिसु हेटिमेसु धवला १-४-५० इत्थिकहा इन्थिसंमग्गी अन० टी० ४-५७ | एक्कावणकोडीओ भावपा० टी०६० इत्थिणवसयवेदा धवला श्रा० ५० ४५१ । एकेकगुणट्ठाणे धवला १-२-१४ इत्थे(त्थी)हि पुलिसे वित्र मैथिली० ३-५ धवला श्रा०प०५४८ धवला श्रा०प० ५३५ | एक्को चेव महप्पो धवला १-१-२ इयमुजुभावमुपगदो अन० टी० ७-३६ एग पणतीस पि य तत्वार्थवृ० टि० -१५ इगाल-जाल-अच्ची धवला १-१-४२ धवला १-१-१७ एदेसिं गुणगारो धवला श्रा०प० ६२२ एमेव गओ कालो पंचस्थि० ता. वृ० १५४ उगुदालतीस सत्त य धवला श्रा० ५० १०८८ | | एयक्खेत्तोगाढं धवला श्रा०प० ७८७ उच्चारिदम्मि दुपदे धवला श्रा०प०८३३ एयदवियम्मि जो अत्थ- धवला १-१-१३६ उच्चारियमत्थपदं धवला १-१-१ | एयम्मि पएसे खलु दवस०टी० १३६ उच्चालिदम्मि पादे स० सि०७-१३ । एयं ठाणं तिगिण विय तणा धवला १-७-१ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीकादिग्रन्थोपलब्ध अन्य प्रा० पद्यसूची ३१३ श्रन० टी० ७-५५ एयादीया गणणा धवला श्रा० ५० ५५७ , कोहादिकलुसिदप्पा एवं मिच्छाइट्ठी दव्वम्म० टी० ३७६ एव सुत्तपमिद्धं धवला श्रा० ५० ३८६ एमो जयो त्ति विदिओ वि० कौ० ३-३७ ख-घ-ध-भ-साउण हत्तं खमगो य सणो वि य ओ खयउपसमियविसोही धवला श्रा०प०५६६ खविदघणघाइकम्मा ओदइया बंधयरा धवला श्रा० ५० ३७३ / खधो खधो पभणइ ओदइयो उत्समियो धवला १-७-१ खिदिवलयदीवसायर- ओरालियमुत्तत्थं धवला १-१-५६ / खीणकसायाण पुणो अोसो य हिमो धूमरि धवला १-१-४२ खीणे दमणमोहे ओहिं तहेव घे'पदु पंचस्थि० ता. वृ० ५३ खेत्तं खलु आगासं जयध० गा० १३.१४ विजयो० ४२१ धवला १,६-८,३ पचस्थि० ता० वृ० १ अन०टी०४-६० धवला श्रा० ५० ८३८ तत्वार्थवृ० टि० १-८ धवला १-१-१ धयला १-३-१ करतो गइकम्मविणिवत्ता धवला १-१-४ कत्थ वि बलियो जीवो इष्टो० टी० ३१ गणराय-मच्च तलवर- धवला १-१-१ कम्मंण होदि एयं धवला श्रा०प० १०१२ गदिलिगकसाया वि य धवला १-७-१ दवस०टी०१५३ गमइ य छदुमत्यत्त धवला श्रा० ५० ५३६ कम्मारि जिणेविणुजिणवरेहिं पचस्थिता००१ गय-गवल-सजलजलहर- धवला १-१-१ कम्मेव च फम्मभवं धवला १-१-५७ गयट्ठ-णय-कसाया धवला:-२-४५ कडसि पुणुण स्वेवसि (१) सा० टी०८-८० गहणसमयम्हि जीवो धवला १-५-४ कं पि एरं दट्टण य धवला श्रा०प० ३७५ गहियं तं सुयणाणा श्रन०टी०३-१ कायोतिकभूदिकम्मे विजयो० १६५० गंभीरवासिणो पाणा विजयो०६०६ काणि वा पुत्रवधाणि जयध० प्रा०प० ७७८ गुण इदि दवविहाण स० सि० ५-३८ कायमणे वचि गुत्तो तत्त्वार्थवा०८-२३ गुणजीवा पज्जत्ती धवला १-१ (मु० पृ० ४११) कारणकज्जविहाणं तत्वार्थवृ. टि. १-२० गुणजोगपरावत्ती धवला १-५-१६३ कारिसतणिहिवागग्गि- धवला १-१-१०२ गुत्तिपयत्थभयाइं धवला श्रा०प०५३७ कालत्तयसंजुत्तं दवस० टी० १७२ गेवजाणुवरिमया धवला १-४-५० कालो हिदिअवधरणं धवला १-१-७ धवला श्रा०प०५६२ कालो तिहा विहत्तो धवला १-२-३ गोत्तेण गोदमो विप्पो धवला १-१-१ धवला श्रा०प०८३७ किएहादिलेस्सरहिदा धवला १-१-१३७ किरहा भमरममएणा धवला १-१ (मु०पृ० ५३३) | घडिया जल व क्म्मे जयध० गा०१ किमिरायचकतणुमल- धवला १-१-१११ घादिसरीरा थूला लाटीस०५-७४ कि बहुसो मन्वं चिय धवला श्रा० ५० ८३८ कुक्खि-किमि-सिप्पि-संखा धवला १-१-३३ कुडपुर पुरवरिस्सर धवला श्रा० ५० ५३५ | चउरुत्तरतिण्णिमयं धवला १-२-१२ कुथु-पिपीलिय-मक्कुण- धवला १-१-३३ चउसठ्ठी छच्च मया धवला १-२-१४ कूडुवरि जिणगेहा लो० वि० ७-१८ | चक्खूण जं पयासदि धवला १-१-१३३ केण य बाडी वाइया योधपा० टी०६ चत्तारि वि छेत्ताई धवला १-१-८५ केवलणाणदिवायर धवला श्रा०प०४५२ धवला १-१-२१ । चदुपच्चइगो वधो Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ चरणं हितं हि जो उज्जमो चंडो सुर्यादर चंदाच हिं चागी भद्दो चोक्खो चारण-वंसो तह पंचालिज्जइ बाहेर य घवला १-१-१३७ धवला १-१-२ घवला ना० प० ८४० चित्ते धरेइ करुणं धरणि भुम्मि वि० कौ० २-8 चित्ते बद्धे बद्धो चितियमचितियं वा अन० टी ६-४१ धवला १-१-११५ मूला० द० ४५० चुल्लय पासं धरण चाद्दस पुत्रवमहोयहिचोदसवादरजुमं घवला १-१-१ घवला श्रा० प० ५८४ छक्कादी छर्कता छच्चेव महरसाई छत्तीसगुणसमग्गे पत् छ छपंचवा छम्मासावसेसे सुट्टिमासु पुढवि सुट्ठिमासु पुढवि छस्सुणवेण्णिऋटु य छादेदि सयं दो से छेत् य परिया पुरातन जैनवाक्य-सूची जस्संतियं धम्मवहं अन० टी० ४-१७८ धवला १-१-१३६ | जस्सोदएण जीवो धवला १-४-४ ज जई जिरणमयं पर्वजह जग से दीए वो जच्चिय देहावस्था जत्थ खु पढम दिए जत्थ गया सा दिट्ठी जत्थ जहा जाणेज्जो जत्थ बहुं जाणिज्जा जत्थ बहू जाज्जो जत्थिच्छसि सेसारणं जत्थेव चरइ बालो जदि पुण धम्मन्त्रासंगा जद द्धविध जयमंगल भूदा जलजंघतंतुफलफु'फ घवला १-२-१४ धवला १-४-५० दग्वस० टी० ५२ धवला १-१-१ घवला १-१-४ घवला १-१-६० न्यायकु० पृ० ८७७ घवला १-१-२६ तत्वार्थवृ० टि० 9-म घवला १-१-१०१ धवला १६-१-१२३ धवला १-१-१ धवला श्रा० प० ३७४ घवला १-१-२४ घवला १-१-४ धवला श्र० प० ८३४ जह पुराणापुरगाई धवला १ -१ ( मु०पृ० ४१७ ) जह भारवहो पुरिसो जह रोगामयसमण जह वा घरण संघाया जह वीयराय सव्वहु जह सव्वसरी रगयं, जं खव समं गाणं जं विय मोराण सिहा जं थिर मज्झत्रसारणं सामग् धवला १-१-8 धवला श्रा० प० ८३६ धवला श्रा० प० ८३४ पंचस्थि० ता० वृ० १ धवला श्री० प० ८४० 5 दव्यस० टी० २६८ धवला श्रा० प० ५८६ धवला श्र० प० ८३७ धवला १-१-४ मैथिली ० १ - २६ धवला १-१-२१ जह कंचणमग्गिगयं जह गेहइ परियडूढं जह चिरसंघिय मिंधण ज 1 जा श्रारुहइ दोल जाइजरामरणभया जाओ हरइ कलत्तं जागइ कज्जमकज्जं जागतिकालसहिए जाणदि पसंद भुंजदि जादी होइ विज्जा जारि परिणामो जाव ण छदुमत्यादो जिदेवदाए जिणदेसियाइ लक्खा - जिग पुनहि जिवरु थुगहि श्रन० टी० १-१ जिरणवयणमयागंतो घवला १-२-१५ | जिण - साहु-गुण क्त्रित्तण धवला श्र० प० ८३८ धवला श्रा० प० ८३७ जियमोहिधग्जलरणो मैथिली ०३ - १ | जीयदु मरदु व जीवा श्रन० टी० ६ - २३ | जीवा चोइसभेया धवला १-१-१ धवला श्रा० प० ६१७ धवला १-१-१२३ धवला १-२-११ घवला १-१-१ अन० टी० ४-१०६ जीवा जिवर जो मुराइ परम० टी० २ - ११७ जीवाजीवबिद्धा जीवो कत्ता य वत्ता य धवला श्र० १० ६६४ जे श्रहिया अवहारे जेऊर अवहारे धवला १-२-२ धवला १-१-२ धवला श्र० १० ११७ श्रन० टी० ६-४६ जेणिच्छी हु लघुसिगा जे बंधयरा भावा धवला श्र० प० ३७४ जे सच्चं पायवाय धवला १-२-१ धवला १-२-१ विजयो० ४२१ धवला श्रा० प० ३७३ सिद्धिवि० टी० पृ० १३३ जयध० गा० १ धवला श्रा० १० ५२६ जेसि श्राउसमाई धक्ला १-१-६० श्रन० टी० ४-११४ धवला १-१-१३६ धवला १-१-४ धवला १-१-३३ धवला श्रा० प० १२६ धवला १,६ - १, ६ जयध० श्र० १० १०१६ अन० टी० -४५ धवला श्र० १० ८३८ भावपा० टी०८ अन० टी० ७-५५ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A जेसि संति जोगा जेहि दुलक्खिज्जते जोगा पयडि-पएसा जो व सच्चमोसो जो त-हाउ विरदो जो सकलयर रज्जं एज्जो रिवज्जो भाणिस्स लक्खणं से भाणोवरमे विमुखी ठावियो यरियं ठिदिघा देहं मंते धवला १-१-४६ हितग्धादरिणमितो हितस तणिमितो धवला १-१-८ स० [सि० ८-३० गाऊण श्रब्भवेज्जय धवला १-१-५२ गागणारण च तहा गाणमयक्रणहारं धवला १-१-१४ पवयण० ता० वृ० ३-२ गाणं अव्विदिरितं भ रण बलाउसाह मह परमेसरं तं ग उदुत्तर-सत्तसया कसायसमुत्ते हि वि हासेसपमा त्थि एहि विहूर धवला श्रा० प० ८३८ धवला श्रा० प० ८३७ गाणंतरा यदसयं गाणंतराय दंसणारण पयासयं तवो धवला श्र० १० ८३८ गाणं सच्छे भावे 5 टीकाप्रन्थोपलब्ध अन्यप्रा० पद्यसूची रणय कुरणइ पक्खवायं यदि ति यो भरिओ य पत्तियइ परं सो राय परिणमइ सयं सो य मरइ व संजमणय सच्छ मोस जुत्तो यहिंसामेत्ते य रमंति जदो णिच्चं गलया बाहू प्र तहा रणवकम्मारणादा (या)णं वोडमसुद्ध कोसिया पणवीसा एव चेव सयसहस्सा वणवदी दोणिसया णमो य इक्खयाणं रवि इंदियकरण जुदा सिरहातो तम्हा हमंड विश्राविलस विजयो० ४२१ धवला श्रा० प०८०७ पवयण० ता० वृ० १-२० णिच्चरिणगोदपज्जन्तअन० टी० २-६५ | रिणच्चं चिर्य जुवइ-पसुधवला १-१-१३६ |पिच्छयदो खलु मोक्खो पिच्छयमालवंता धवला १-१-१३६ पिच्छयववहारगया धवला १-१-१ जयध० गा० १ स० सि०७-१३ विजयो ० ४२१ धवला ३-७-१ धवला श्री० प० ८३८ णियम ० १६६ गाणं यरिणमित्तं पंचस्थि० ता० वृ० टी० ४३ धवला आ० प० ४५१ धवला श्री० प० ४२१ जयध० गा० १ शियम० ता० वृ० ६५ धवला प्रा० प० ३८० खारणावरच उक्कं गाणी कम्मरम कावयस्थगाणे fच्चभासो खामजिला जिणणामा सामवरणा दवियं मंठवणं दव्वं खामिणि धम्मुवयारो जयध० गा० १ धवला श्रा० प० ८३७ बोधपा० टी० २८ धवला १-२-२ अन० टी०८-३७ धवला १-७-१ पचत्थि० ता० वृ० १ धवना १-१-१६ | णिग्गमण पवेसम्हि य धवला १-१-१ | णिञ्चचदुग्र्गादि गोद- गो० जी०, जी०टी० १६७ सुदभ० टी० ६ स० सि० ४-१२ धवला श्रा० प० ८४० ३१५ ● धवला १-१-२ | हियविविकम्मा धवला १-१-३२ | रइयदेवतित्थय विजयो० ६०६ | वित्थी व पुमं वि० कौ० ५ - ४३ | गो इंदिएस विरदो धवला० श्र० १० ८३७ दव्वस० टी० ३३६ पचस्थि० ता० वृ० १७२ श्रालाप ० ४ धवला १-१-१ | खिद्दा (सिंदा) वचरण बहुलो धवला १-१-१३६ धवला १-५- १७ गिद्दा सुहपडिवोहा धवला १-१-४६ | सिद्धद्ध - मोह तरुणो मूला० द० २०६४ जयध० गा० १ | रिम्मूलखंधसाहुव- धवला० धवला १-१-२४ | यिदव्वजागरण धवला १, ६–१, २८ | गिराउआ जहण्या धवला श्र० १० ८३७ गिरयगई संपत्तो जयध० गा० १ | रियादिजहरणादिसु बोधपा० टी० ४३ | सिह अिडरत्तं धवला १-२ - १४ | पिस्संसयकरो वीरो तत्त्वार्थवृ० टि० १-८ खिस्सेसखीणमोहो धवला ११-१ १-६ (सु० पृ० ५३३ ) दव्वस० टी० २८४ धवला १-५-४ धवला० श्रा० प० ३७५ स० सि०२-१० वि० कौ० ५-४२ जयध० गा० १ धवला १-१-२० धवला १-१-१ धवला श्रा० प० ८८१ धवला १-१-१०१ धवला १-१-१३ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ पुरातन-जैनवाक्य-सूची तोयमिव णालियाए धवला० श्रा०प० ८४१ तत्तो चेव सुहाई धवला १-१-१ तत्तो रूवहियकमे- गो० जी०, जी० टी० ३२६ थिरकयजोगाणं पुण धवला श्रा० ५० ३७ तत्थ मइदुव्वले। य धवला श्रा० ५० ८३८ तद-विददो-घण-सुसिरो धवला श्रा०प० ८६७ तदियो य णियइ-पक्खे धवला १-१-२ दलिय-मयण-प्पयावा धवला -1-1 तम्हा अहिगयसुत्तेण धवला १-१-१ दव्वगुण पज्जए जे धवला श्रा०प०३७४ धवला श्रा०प०४०४ दवट्टिय-य-पयई धवला १-१-१ तवित कुणइ अमित्तो पारा० सा० टी० १० दव्बसुयादो भावं दव्वस० टी० २६५ तस्स य सम्मजणिय धवला श्रा० प० ८३८ दव्यसुयादो भाव दवस. टी. ३४७ तहब धवला श्रा०प० ८४० दस अट्ठारस दसयं धवला श्रा०प०४५३ श्रारा० सा० टी० ७ दस चरिंग सत्तारस धवला श्रा० ५० ४५० तारिसपरिणामट्ठिय- धवला १-१-१६ दस चोदस अट्ठट्ठारस धवला श्रा० ५० ५५० तालदि दलदि त्ति व विजयो० ११२३ दसविहसच्चे वयणे धवला १-१-५२ तिगहिय-सद णवणउदी धवला १-१-८ दस सएणीणं पाणा धवला १-१(मु०पृ० ४१८) तिएणं दलेण गुणिदा धवला श्रा० ५० ५६६ दहकोडाकोडीओ तत्वार्थवृ० टि० -७ तिरिण सया छत्तीसा स० सि० -८ | दहिगडमिव वामिस्सं धवला १-१-१६ तिरि-सहस्सा सत्त य स० सि० १- ८सयाकरितो मैथिली. ३-४० तिरह दोरह दोगह धवला १-१(मु०पृ०५३४) सामोडक्खवगम्स जयध० श्रा०प०८०० तित्थयर-गए।हरत्त ध्वल। १-१-१ दसणमोहुदयादो धवला १-१-१४५ तित्थयरणिरयदेवाउअं धवला श्रा०प० ४५१ | दंसणमोहुवसमदो धवला १-१-१४५ तित्थयरसत्तकम्मे अन० टी० १-५४ दंसण मोहवसामगस्स जयध० प्रा० ५० ५७८ तित्थयरस्स विहारो जयध० गा० १ धवला श्रा०प०१०१० तित्थयराण पहुत्त अन० टी०८-४१ धवला १-१-१ तित्थयरा प्पियरा बोधपा० टी० ३२ दिवंति जदो णिच्चं धवला १-१-२४ ति-रयण-तिसूलधारिय धवला १-१-१ दीस लोयालोओ पचस्थि० ता० वृ०१ तिरियपदे रूउणे गो० जी०, जी० टी० ३२६ | दीसंति दोणि वयपा जयध० गा० १३, १४ तिरियंति कुटिलभावं धवला १-१-१२४ दविध पण तिविधेण य विजयो० ११६ तिविहं तु पदं भणिदं धवला श्रा०प० ५४६ / देवाऊदेवच उक्काहार- धवला आ० प० ४५० तिविह पदमुद्दिटुं धवला श्रा० ५०८७६ | देवा वि य गरइया बोधपा० टी० ३२ तिविहा य आणुपुत्री धवला १-१-१ देवियमाणुसतेरिक्खगा विजयो० ७० तिमदि वदंति केई धवला १-२-१२ धवला १-१-१ तिय सत्तविह्त्तं तत्त्वार्थवृ० टि०८-१४ धवला १-७-२ तेतीसवजणाई धवला श्रा० १०८७२ देहणं भावणं चावि अन०टी०४-५७ तेरस पण णव पण एव धवला पा० ५० ५६० देहविचित्त पेच्छइ धवला श्रा०प०८४० तेरह कोडी देसे पण्णासं धवना १-२-४३ | देहाहिअउद्धपिट्टिा मैथिली०३-४ तेरह कोडी देसे बावण्णा धवला -२-४३ दो दो चउ चउ दो दो तस्त्रार्थवृ० टि० ४-२१ तो जत्थ समाहाणं धवला श्रा०प० ८३७ . दो दो य तिरिण तेऊ धवला १-५-३०७ तो देसकालचेट्ठा धवला श्रा०.५० ८३७ 'दोयक्खभुआ दिट्ठी अन०टी०-२३ विव Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीकादिग्रन्थोपलव्ध अन्यप्रा० पद्यसूची ३१७ प मैथिली दो रिसह-अजियकाले तत्त्वार्थ० वृ० श्रु० ३-२६ परमरहस्समिसीणं जयध० गा० १ परमाणु-आदियाई धवला १-१-१३५ जयध० श्रा०प०८१७ धद-गारवपडिवद्धो धवला १-१-१ | परिणिध्वदे जिशिंदे धवला श्रा०प० ५३६ . धम्माधम्मागासा धवला १-२-३ | | परितवइ थणाण मैथिली०३-१८ धम्माधम्मालोयाधवला १-२-१५ धवला १-५-४ धम्मे य धम्मफलम्हि दवस० टी० ३५ | पल्लासंखेज्जदिमो धवला श्रा०प०१२३ धम्मो मगलमुक्कट्ठ जयध० गा०१ पल्लो सायर-सूई धवला १-२-१७ धुवखधसातराणं धवला श्रा०प० ६२३ | पवयण-जलहि-जलोयर- धवला १-१-१ पंच-ति-चउविहेहिं धवला १-१-१२३ पंचत्थिकायमइय धवला श्रा०प०८३८ पअडिचउला कव्वेसु | पंच य मासा पच य धवला श्रा० ५० ५३७ पउमेसु अद्धणिम्मी- वि० कौ० ५-३ पच रस पंच वण्णा धवला श्रा०प०८६२ पक्खेवरासिगुणिदो धवना १-२-५ पच रस पच वरणा अन० टी०६-३७ पच्चय सामित्तविही धवला श्रा० ५० ४४६ | पंच-समिदो ति-गुत्तो धवला १-१-१२३ पञ्चाहरितु विसए धवला श्रा०प०८३७ धवला १-२-६ पच्छा पावा-गायरे धवला श्रा० ५० ५३६ । | पच-सेल-पुरे रम्मे धवला १-१-१ पज्जवणयवोकंत जयध० गा० १३, १४ जयध० श्रा०प०६२४ पडिवंधो लहुयत्त अन० टी०६-८१ पचासुहसघडया धवला श्रा०प०४५१ पढमप्पढम रिणयदं तत्त्वार्थवृ० टि० २-१ पंचेक छक्क एक य जयध० गा० १ पढमम्मि सव्वजीवा विजयो० ४२१ | पचेव अस्थिकाया धवला या प० ५३६ पढम चिय विगलियमच्छ- विजयो० ११ पचेव य कोडीओ मूला० द. १०५४ पढमे पयडिपमाणं धवला श्रा०प० ३७८ पंचेव सयसहस्सा धवला १-२-१४ पढमो अवंधयाण धवला श्रा०प०५४८ ! पावति लइम्मि दासियाओ मैथिली० ३-३ पढमो अरहताण धवला १-१-२ पावागमदाराइ जयध० गा० १ पणवएणा इर वण्णा धवला श्रा०प० ४५२ | पावेण णरय-तिरिय परम०टी०२-६३ पएट्ठी च सहस्सा धवला १-२-७ पासत्थो सच्छदो विजयो० २५ पएपारसकसाया विणु धवला श्रा० ५० ४५० पासुअभूमिपएसे श्रन टी० -११ पएणास तु सहस्सा धवला १-४-५० पीठिकासदपल्लंके विजयो. ६०६ पण्ह परिग्गहो जदि णियम०टी० ६० पुग्गलदव्वे जो पुण दव्वस० टी० १६ पत्तेयभगमेग गो० जी०, जी० टी० ३५४ | पुच्छावसेण भंगा तत्त्वार्थवा० ४-४२ पत्थेण कोदवेण य धवला १ २-४ पुढे सुणोदि सद्द स० सि० १-१६ पत्थो तिहा विहत्तो धवला १-२-३ | पुढवि जल च च्छाया धवला १-२-१ पदणिक्खेवविभाग जयध० श्रा०प० ४२० | पुढवि विडालपयमेत्त- प्रा० च० ११७ क्षे० १ पदमत्थस्स सिमेण जयध० गा० १ | पुढवी पुढवीकायो स० सि० २-१३ पदमिच्छमलागगुणा धवला श्रा०प०६६४ | पुढवी य सक्करा वालु- धवला १-१-४२ पदमीमासा सखा धवला श्रा०प० * पुण्णा मणोरहेहि य पचस्थि० ता.वृ० १ धवल। प्रा०प० ५३६ पुरुगुणभोगे सेदे धवला १-१-१०१ पभवञ्चुदस्त भागा धवला श्रा० प० ८६७ पुरुमहमुदारुराल धवला १-१-५६ पम्मा पउममवएगा धवला १-१ (मु०पृ०५३३)। पुवकयन्भासो भा- धवला श्रा०प०८३७ a Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ पुरातन-जैनवाक्य-सूची - पुवगहिदं पिणाणं विजयो० ५०६ वे मत्त चोदस सोलस धवला श्रा० ५० ३४८ पुवरहे मज्झरहे श्रन० टी०१-२ | भवणालयचालीमा श्रारा० सा० टी०१ पुवस्स दु परिमाणं स० मि०३-३१ | भविया सिद्धी जेनि धवला १-१-१४१ पुवापुवाफ्य धवला १-१-१६ | भावविहूगाउ जीव तु] भावपा० टी० ३६२ पुव्वुत्तवसेसाओ धवला श्रा०प० ४५० धवला १-१-१ पोग्गलफरणा जीवा पचस्थि० ता० ० २५ भासागदसमसेडिं धवला श्रा०प०८६८ भिएणममट्टिएहि दु धवला 1-1-१६ भूदीव धूलीयं वा विजयो० १७२२ फालिसलागहिया धवला श्रा० ५० ५६६ फालीसखं तिगुणिय धवला श्रा० ५० ५६६ फुल्ल पुकारइ वाडियहि बोधपा० टी०६ / मक्कडय-भमर-महुवर- धवला--३३ मणगुत्तो बचिगुत्तो अन० टी० ४-५७ ब मणसहियं सवियप्पं दवस० टी० १७२ मासा वचमा कायेण धवला १-१-४ बत्तीममट्टदाल धवजा १-२-१२।। मणु मरइ पयगु जहिं परम० टी० २--१६३ बत्तीसवाम जम्मे तत्वार्थ० ऋ० श्रु०६-१८ मणुवत्तण सुहमउलं धवला श्रा० ५० ५३६ बत्तीस सोल चत्तारि धवला १-२-६ मरा धवला-१-२४ बत्तीसं सोहम्मे धवला १-४-५० | मदिणाणं पुण तिविह पचस्थि० ता. वृ० ४३ बम्हे कप्पे बम्होत्तरे य धवला :-४-५० मरण पत्थेइ रणे धवला १-१-१३६ वहिरतपरमतच्च दव्वस० टी० ३२५ | महावीरेणत्थो कहिओ धवला १-१-१ बहुविह-बहुप्पयारा धवला १-१-१३१ | महिल अपुत्रआम वि मैथिली०३-११ बहुसत्थई जाणियइ भावपा० टी० १३६ / मगल-णिमित्त-हेऊ धवला १-१ पीठि०म० पृ० ७ वध पडि एयत्त स०सि०२-७ मदो वुद्धिविहीणो धवला १-१-१३६ बधे अधापमत्तो धवला श्रा० ५० १०८८ माणुसस ठाणा वि हु धवला :-१-१ बधण य सजोगो धवला श्रा० ५० ५४६ मासिय दुय तिय चउ मूला०द० २४६ बधोदय पुव वा धवला श्रा०प० ४४४ मिच्छत्तकसायासंजमेहि धवला श्रा०प० ३७४ बधो बधविही पुण धवला श्रा०प० ४४६ मिच्छत्तभयदुगछा- धवला श्रा०प० ४५० वारस दस अट्टेव य धवला १-२-२२ | मिच्छत्तं वेयंतो धवला १-१-६ बारसपदकोडीओ धवला श्रा० ५० ८७६ / धवला श्रा०प० ८७६ / मिच्छता अएगाणं पचस्थि० ता० ० ४३ बारस य वेदणिज्जे धवला १, ६-८, १६ / मिच्छत्ताविरदी विय धवला श्रा०प० ३७३ धवला १, ६-८. १६ वारसविहं पुराणं धवला १-१-२ | मिच्छत्ते दस भगा धवला १-७-२ बाव(ह)त्तरि वासागि। य धवला श्रा०प०५३५ मिच्छदगे, देवचऊ गो. क० जी० टी० ५४६ बाहिरपाणेहि जहा । धवला १-१-३४ मिच्छे खलु अोदइनो स० सि० १-७ बाहिरसूईवलयचा- गो० जी०, जी० टी० ५४७ मिस्से पाणाण तय तत्त्वार्थवृ० टि० १-5 बीजे जोणीभूदे धवला १-२-८८ | मह-तल-समास-अद्धं धवला १-२ बीपुरणजहएणो त्ति य गो० जी०, जी०टी० १८४ मह-ममीजोगदले गो० क०, जी० टी० २४६ बुद्धितवविगुव्वणोसधि- विजयो० ३४ । मुह-भूमिविसेसम्हि दु धवला १-३-५ बुद्धी तवो वि य लद्वी धवला श्रा० ५० ५२५ | मुहसहिदमूलमद्ध वेकोडि सत्तावीसा धवला १-२-१५ | मूल मज्झेण गुण धवला १-४-२ धवला-३-२ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीकादिग्रन्थोपलव्ध अन्य प्रा० पद्यसूची ३१६ विस वहइ चिहुरभारो वि० कौ०२-८ वंजामंग च सरं ग्रा० च० ८१ क्षे० १ रत्तो वा दुट्ठो चा जयध० गा० १ वासस्म पढममासे धवला १-१-१ रयणदिवदिण्यरुदम्हि पंचस्थि० ता० ० २७ वासंतिएहिं बहु महु मैथिली० प्र०५ रागादीलामणुप्पा स० सि०७-२२ वासारणूणत्तीसं धवला श्रा०प० ५३६० रायदोमा नहया अरस० सा० टी० ६. पचस्थि० ता. वृ०४३ विज्लमदी पुरण खाण रासिविसेसेणवहिद- धपला १-२-८७ विकहा तहा कसाया धवला १-१-१५ राहुस्स अरिदृस्स य अन० टी० ४-१२ धवला १-१-४ विग्गहगइमावरणा (तिलो. सा. ३३६ के सदृश) विणाये गुवक्कमित्ता मूला० द० ४१५ रूपेणोनो गच्छो क्षपणा० भा० टी० ५०३ वियणेण वीयंतोमा च० ११७ क्षे० २ रूवृणिच्छागुरिगद चला पा० ५० ५६६ विजयो०१२१ विरदीसावगवग्गे रूसइ पिदइ अरणे धवला १-१-१३६ विलिदइच्छ विगुखिय । धवला विरियोवभोगभोगे धवला श्रा०प०३७४ विवरीयमोहियाणं धवला १-१-११५ धवला १-१-५६ लद्वविसेसेच्छिण्ण विविहगुणइद्धिजुत्तं धचला १-२-५ धवला १-१-११५ लद्धतरसगुणिदे धवला १-२-५ धवला श्रा०प०८२७ लद्धीओ सम्मत्त धवला -७-१ लिपदि अप्पीकीरई धवला १-१-४ विसयह कारणि सन्चु जणु परम० टी० २-१३४ धवला १-२-७ लेस्सा य दन्वभाव धवलर :-१(मु०पृ० ७८८) विसहस्सं अडयालं लोगागासपदेसे स० सि० ५-३६ विहि तीहि चहि पंचहि धवला १-१-४२ लोयस्स य क्खिमो धवलर १-३-२ वीरा वेरग्गपरा परम० टी० २-८४ वीसणqसयवेदा तत्वार्थवृ० टि०१०-६ वेउव्वियमुत्तत्थं धवला १-१-१६ वेज्जेण व मतेण व अन० टी० ७-५५ । वेणुवमूलोरभय- धवला १-१-११६ चइमाहजोण्हपक्खे धवला त्रा० ५० ५३६ धवला १-१-४ वेदस्सुदीरणाए चग्गे वग्गे आई जयध० गा० १३,१४ वेय(द)एकसायदे उब्बिय- धवला १-३-२ वच्छक्खर भवसारित्थ पंचस्थि० ता. वृ० २७ वेयावचे विरहिउ भावपा टी० ५५ चजिय ठाणचउक्कं तत्त्वार्थवृ० टि० १-८ वत्तावत्तपमाए धवला १-१-१४ वयणियमसजमगुणेहिं पंचत्थि० ता० वृ० १ सकया-हलं जलं वा धवला ३-१-१६ वयणेहि वि हेऊहि वि धवला १-१-१४४ धवला सक्कं परिहरियन्वं जयध० गा.१ चय(द)समिदिकसायाएं धवला १-१-४ सक्कारपुरक्कारो भावपा० टी०६६ चयणं तु समभिरूढ धरला श्रा०प० ३७५ सक्को सक्कमहिस्सी दव्वस०टी०३५ बरिससक्खियाए प्रमेयक० २-१२ सदादिसु वि पवित्ती विजयो० ४२१ चवहारस्म टु वयणं धवला श्रा०प० ३५७ । सत्तट्ठी सट्टलवा तस्वार्थ० वृ० श्रु० ५-४० ववहारुद्धारद्धा स० सि०३-३८ सत्त राव सुरण पंच य धचला १-४- २५ चवहारे सम्मत्त विजयो० २६ सत्त एव सुरण पच य धवला १-२-४५ वसनीसु अ पडिबद्धो सन० टी० ७-१५ | सत्तसहस्सडसीदेहि धवला १-२-४५ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० पुरातनजैनवाक्य-सूची सत्तसहस्सा णवसद- धवला श्रा० ५० ५३७ । सपुरणं तु समग धरला १-१-११५ सत्ता जंतू य पाणी य धवला १-१-२ अनटो०४-१७१ सत्तादिदसुक्कस्पा- जयध० श्रा०प० ६२६ | संबास बंदणोपादाण विजयो० ११५ मत्तादी अट्टता धवला १-२-१४ | संसइटमभिमाहदं विजयो० ४४ सत्तादी छक्कना धवला १-२-१५२ / सा खलु दुबिहा भणिया दव्वस० टी० ३३६ सत्तावीसेदामो धवला श्रा० ५० ४५१ / सायारे पट्टवायो धवला १,६-5,8 सत्तेताल धुपायो धवला प्रा०प०५४१ । सावणबहुलपडिवदे धवला १-१-१ सत्थो चरणकदमो वि० को० ५-४ धवला श्रा०प०४५७ सद्दण्यस्स दु क्य धवला श्रा०प० ३७५ / सांतरणिरतरेदर- धवला श्रा०प० ६२३ सम्भावो सच्चमणे धवला १-१-४६ / सिक्खा किरियुवदेसा धवला-१-४ सम उप्पएणपधसी दवस० टी० २१ सिद्धत्तणस्स जोग्गा धवला १-१-४ समरसरसरगुं गमिण अन० टी० ४-७६ | सिद्धत्थ-पुण्णकुंभो धवला -- सम्मत्तरयणपवयधवला १-१-१० दव्वसं०टी०१८ सम्मत्तं चारित्तं धक्ला १-७-१ सिलपुढविभेदधूली घवला-१-१११ सम्मवरवेयपीए धवला श्रा०प०६५३ सीयाय(त)वादिए हिमि- धवला श्रा०प०८४० सम्माइट्टी जीको धवला १-१-१३ | सीसु गामतह कवणुगुणु भावपा० टी० १६२ सयणासण घरछित्तं श्रारा० सा० टी० ३० । सीह-य-वसह-मिय- पसु- धवला 1-1- सव्वजणणिव्वुदिपरा पचस्थि० ता. वृ०१ सुणि उण दुणाइणिहगा धवला श्रा० ५०८३८ सम्वहिदीणमुक्कस्स- तत्त्वार्थवा० ६-३ सुतवे सम्मत्ते वा । मूला०द० २६ सव्वम्हि लोयखेत्ते स० सि०२-१० सुत्तादो तं सम्म धवला १-१-३६ पचस्थि. ता. वृ० ४३ सव्वंहि ठिदिविसेसे धवला १,६-८,8 । सुदणाणं पुण णाणी सव्वाश्रो किट्टीओ सुरभिणा व इदरेण विजयो० ३४३ धवला १,६-८,१६ धवला श्रा०प० ५३५ सव्या पयडिट्टिदिओ स०सि०२-१० धवला श्रा०प०३४ सव्वासिं पगदीप धवला १-५-४ | सुहदुक्खसुबहुसस धवला १-१-४ सव्वासु वट्टमाणा धवला श्रा०प०८३७ सुहमट्ठिदिसंजुत्तं गो० जी० जी० टी ५६० सव्वुवरि मोहणीए धवला श्रा०प०६७४ सुहमा संति पाणा खु विजयो०६०६ सव्वुवरि वेयणीए धवला श्रा० ५० १-१३ सुहुमणुभागादुवरि घवला श्रा०प०८१२ सम्वेण वि जिणवयणं विजयो० ४४६ धवला श्रा०प०८४० मध्ये वि पुठ्वभंगा धवला प्रा०प० ३७८ सुहुमं तु हवदि खेत्तं धवला १-२-३ सम्ममयमावलिअवर गो० जी०, जी० टी० ५७५ / सहमं तु हवदि खेत्तं धवला १-२-१६ सस्मेदिमप्तमुच्छिम- धवला १-१-३३ ला १-१-३३ सुहुमो य हवदि कालो धवला १-२-३ संकाइ घवला श्रा०प०८३७ धवला-२-१६ संखा तह पत्तारो धवला या प ३७८ धवला १-१-५ सगहणिग्गहकुमलो धवला १-१-१ | सेज सेविजदि जदिणा विजयो० १७२ संगहिय सयलसंजम- धवला १-१-१२३ । सेडिअसंखेज्जदिमो धवला आ० प० ६२३ संजदधम्मकहा वि य जयध० गा० १ पचत्थि. ता. वृ० सजमहीणं च नवं विजयो० ११६ / सेयबरो य आर्सबरो य दसणपा० टी०१७ संजोगावरणहूँ धवला श्रा०प०८७२ सेलघण-भग्गघड-अहि धवला 1-1-1 संते वए ण णिट्ठादि धवला १-५-४ सेलटिकट्ठवेत्त घवला १-१-१११ संपयपडलहिं लोयणई अन० टी० २-६० / सेलेसिं संपत्तो धवला १-१-२२ . माण Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवला-जयधवलादिके मंगलादि-पद्योंकी सूची ३२१ 15 सो अइरा आरामो मैथिली० प्र०६ सोहम्मे माहिदे धवला पा० ५० १६२ सो इह भणिय सहावो दन्वस० टी० ३६५ सो जयइ जस्स परमो जयध० प्रा० ५० ४२० सो धम्मो जत्थ दया णियम० टी०६ हय-हत्थि-रहाणहिवा धवला १-१-१ सोलसगं चवीसं तत्वार्थवृ० टि० १-- | हरिततणोसहिगुच्छा विजयो० ११२३ सोलसयं चउवीसं धवला १-२-१ हिंडंति कलमा वि अ मैथिली० ३-1 सोलसयं छप्पएणं धवला श्रा० ५० ६०३ | हेट्ठा मज्झे उवरिं धवला ६-३-२ सोलसविधमुद्देसं विजयो० ४२६ हेदाहरणासंभवे य धवला श्रा०प० ८३८ सोलह-सय-चोत्तीसं जयध० गा० १ होति फमविसुद्धाश्रो धवला श्रा० ५०८५८ सोलह सोलसहिं गुणं धवला १-४-२५ । होति सुहासवसंवर- धवला श्रा० ५० ८३६ नोट-इस सूची में कुछ ऐसे वाक्योंको भी शामिल किया गया है जो यद्यपि पुरातन-जैनवाक्य सूचीके किसी न किसी ग्रन्थमें ऊपर पृष्ठ १ से ३०८ तक श्राचुके हैं। परन्तु वे उस अन्यसे पहिलेकी बनी हुई टोकानोंमें 'उक्तं च' आदि रूपसे उद्धृत भी पाये जाते हैं और जिससे यह जाना जाता है कि वे वाक्य संभवतः और भी अधिक प्राचीन हैं और वाक्य-सूचीके निम अन्यमें वे उपलब्ध होते हैं उसमें यदि प्रक्षिप्त नहीं हैं जैसे कि गोम्मटसारमें उपलब्ध होनेवाले धवलादिकके उद्धत वाक्य-तो वे किसी अज्ञात प्राचीन अन्यप-से लिये जाकर उसका अग बनाये गये हैं। और इस लिये उन्हें भी इस सूचीके शीर्षकमें प्रयुक्त हुए 'अन्य' शब्द-द्वारा ग्रहीत समझना चाहिये। ४ धवला-जयधवलाके मंगलादि-पद्योंकी सूची श्रजियं जिय-सयलविभ धवला,वेयणा-अणि १६ [ इय भाविण सम्म अयघ० पसन्थि । अजजणंदि-सिस्सेणु- धवला, पसस्थि ४ | इय सहमं दुरहिगम जयघ० चरित० ख०पसत्यि ३ अज्मप्पविजाणिवुणा जयध० पच्छिमख० ४ | उज्जोइदायसम्म . जयध पसरिथ ५ अठतीसम्दि सासिय (सत्तसए) धवला, पसथि ६ -उवणेउ मंगलं वो अयध. १२-१ अणुभागभागमेतो जयध०५-३-१ | उवसमिद-सयलदोसे अयध०१४-१ अण्णायंधयारे एत्थ समपइ धवलिय जयघ. पसत्थि १ अभपडलंबसुत्तं जयघ० चरित्त० ख० पसस्थि ५ फम्मकलंकुत्तिएणं धवला १-५-१ अरविंदगभगउरं धवला, वेयणा अणि ५ | कुम्मट्टजणियवेयण- धवला, वेयणा-अरिण० २ अरहंतपदो (अरहंतो) भगवंतो धवला, पसत्यि ३ | | कुंथ-महंत संथुव- धवला. वेयणा अणि १४ अवगयअसुद्धभावे धवला १-७-१ केवलणाणुज्जोइयछदव्व- धवला १-२-१ असरसुरणरवरोरग- धवला, वेयणा अमि० १३ । केवलणाणुजे इयलोयालोए- धवला --- अहिणंदणमहिवंदिय धवना,वेयणा-अणि० ११ सविय-घण-घाइ-कम्म जयप०११-१ अगंगवमारिणम्मी अयध०१-४ | गणहरदेवाण णमो जयध० चरित्त० खं०पसन्थि । अंताइममरहिया अयध०२-१ | गुणहर-वयण-विणिग्गय- जयध०१-७ अंताइमज्महीणं धवला ३-६-१ चावम्हि व(तोरणि-वुत्ते धवला, पमत्थि ८ इय पणमिय जिणणारे जयघ०१०-२ धवला, पसथि ७ Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ पुरातन-जैनवाक्य-सूची जयध०४-" जयइ धवलंगतेए जयध० १-१ / पणमिय णीसंकमणे जयउ धरसेणणाहो धवला २-१ / पर्णामय मोक्खपदेसं जयध०५-४-१ जयउ मुरणेकतिलो धवला, वेषणा-अणि०८ पणमिय संतिजिणिदं धवना, वेयणा-अणि० १० जस्म से(प)सारण मए धवला, पसत्थि १ पदणिक्खेवविभाग जयध० ३-२जं एत्थत्थ कवलिय जयध० चरित० ख० पसस्थि ६ | पद्धोरियधम्मपहा जयध० पच्छिमख० ३ जिण दिसंभरणमहा- जयध० ४ पसस्थि १ पसियउ महु धरसेणो धवला १-४ जेणिह कसायपाहुडजयध० १-६ बारहअंगग्गिज्मा धवला १-२ जे ते केवलदंसणजयध०७-१ | बोद्दणरायणरिंदे धवला, पसस्थिर जेते तिलोयमत्यय- जयध० पच्छिमखं०१ | भदं सम्ममण- जयध० ३-२ चूलि. २ जे मोहसेएणपच्छिम- जयघ० पच्छिमख०५, महुवरमहुवरवाउल- धवला, वेयणा-अणि० ११ जेसिं णवप्पभारा जयध० पच्छिमख० २ / मुणियपरमत्थवित्थर- जयध०, १५-१ जो अज्जमखुसीसो जयध० १-८ | मुणिसुब्बयजिणवसहं धवना, वेयणा-अणि० ४ झायइ जिणिंदचंदं जयध० ३-२ चूलि. १) मुणिसुब्बयदेसयरं धवला, वेयणा-अणि० १२ णमह गुणरयणभरियं जयध० १-५ लोयालोयपयासं धवला १-३-१ मिऊण पुप्फयंतं धवला, वेयणा- अणि० २२ वंजणलक्खणभूसिय जयप०६-१ मिण वड्ढमाणं धवला, वेयणा-अणि० २४ वंदामि उसहसेणं धवला-पसस्थि २ णमिऊण सुपासजिणं धवला, वेयणा-अणि० २० वेदगवेदगवेदग जयध०६-१ णमिऊणेलाइरिए धवला १-४-१ सयल-गण- पउम-रविणो धवला -३ णाणेण झाणसिद्धी जयध० पसत्थि ३ सयलिंदविंदवंदिय- भवला, वेयणा अणि०६ ट्ठिविय-अट्ठकम्मं धवला, वेयणा-अणि० ७ सयलोवसग्गणिवहा धवला, वेयणा-अणि०३ ट्ठिविय-अट्ठकम्म जयध०३-१ | संजमिदसयलकरणे जयध०१३-१ णिहविय-चउट्ठाणं जयध०८-१ संधारिय-सीलहरा धवला ४-६ तस्स णिवेदियपरिसुद्ध- जयध०५-२-१ संभव-मरणविवन्जिय- धवला, वेयणा-अणि० १७ तह वि गुरुसंपदायं जयध० चरित्त० ख० पसस्थि ४ | साहूवज्झाइरिए धवला ३-१ तित्थयरा चउवीस वि जयध०१-२ सिद्धमणतमणंदिय धवला १-१ ति-रयण-खग्गणिहाए धवला ४-३ सिद्धत-छंद-जोइसतिहुवरणभवणप्पसरिय धवला १-२ सिद्धा दद्धट्ठमला धवला ४-१ धवना १,६-१-१ सिद्धे विउद्धसयले धवला, वेयणा अणि० ६ तिहुवणसुरिंदवदिय- धवला, वेयणा-अणि १८ सीयलजिणमहिवंदिय धवला,वेयणा-यणि०२३ ते उसहसेण-पमुहा जयध० चरित्त खं० पसत्थि०२ सुअदेवयाए भत्ती जयध० पसत्यि २ तो अ देवया मिणमो जयध० १५-३ | सुयदेवयाए भत्ती जयध०१५-२ दुहतिव्वतिसाविणिदिय- धवला ४-५ | सहमयतिहवणसिहरट्ठि- जयध०३-२चूलिर पउम-दल-गब्भ-गउर धवला,वेयणा-प्रणि०१४ । सो जयड जस्स केवल- जयध० र पणमह कय-भूय-बलिं धवला ५-६ सो जयइ जस्स परमो जयध० ३-२-२ पणमह जिणवरवसह जयध० १०-१ | हंसमिव धवलममलं धवला, वेयणा-अणि० २१ पणमामि पुप्फदंत ___ धवन्ता १-५ | होइ सुगम पि दग्गम नयध० चरित्त०ख० पसस्थि ७ नोट-इस सूचीमें जिन वाक्योंके लिये वेयणा-अणि के नम्बरोंकी सूचना की गई है वे 'वेयणा' अपर नाम 'कम्मपयडीपाहुड' के 'कदि' श्रादि २४ अनुयोग-द्वारों मेंसे उस उस नम्बरके अनुयोगद्वार (अधिकार) सम्बन्धी धवला-टोकाके मंगल पद्य हैं। धवला, पसत्थि ५ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घ पृष्ठ अशुद्ध २ अग्गमहि समं अजधाचार ३७२ ४ अट्ठ १२-११३ ४ श्रट्टण्णव उत्रमारणा ४ प्रति ५ श्रहं बारस वग्गे • ५ अट्ठारस जोयणाई ६ अट्ठावीस ६ श्रयि ७ ७ ज • १०८ यत्ते जो अड्ढरस य अरणलस्स = पडसोलस बत्तीसा ६ अट्टी बंध तयं ६ ट्टि संखेज्जा गिदि दे १० १३ अपि य • १६ व २० अविरा ७०३६ २४ अंगुल असंखगुणिदा गो. क. २८ आदे ससहर राहणणिजुत्ती ३० ३२ आहदि मुणी ३२ आदि सरीराणं ३४ इसय अठार ३४ हगतीसं ४० ४७ उवरिल्लपंचया ५० ए ए पुव्वपदिट्ठा ५३ गक्क्क्क ५५ एत्थ पत्तो आऊ ५५ एत्थं गिर गईए ५६ एदम्मिय तम्मिस्से ६२ एवं जिणाांतरालं शुद्ध अगमहि ससमं अजधाचार ३-७२ | ६८ कत्तिय " कि हे ५४४ पृष्ठ अशुद्ध ६५ एसा जिणा अट्ठट्ठ १२ - १११ ६८ कद्दम पहव ६६ कमदारणी १७८१ अट्टगत्रवमाणा शुद्धि-पत्र ५ शुद्धि-पत्र • अट्ठतिय एवात्र अट्ठय बारHarit अट्ठरस-जोगाई अट्ठावीसं १०७ अट्ठियअणेयभुत्ते अव जोय अहि अड्ढस्स अरणलसस्स ड सोलस बत्तीसा अट्टीबंध तियं यही संखेज्जागिरहदि देहं एकेक अवि य विय विरा - १०३६ अंगुल असंख गुणिदा गो.जी. हे सर श्रराणिजुत्ती हरदि मुणी हरदि सरीराणं .. इगसयअठार इगतीसं उक्कट्टेहिं (उग्गाढेहिं) उवरिलपंचये X ७७ कुज्जा वामरण तरपुरणा कूडागारा महरिह ८३ गरिणणिज्जक्खसु ८४ गगाकूड पमुत्तो ८५ गंगा-सिंधुगणं ८६ गिद्धउ लय भारुंडो ६५ चरयाय १२२ जे भूदिकम्ममत्ता | १२३ जे मंदरजुत्ताइं | १२३ जे सोलस कप्पाणं १२४ जो इट्ठा (जोइस) २२८ जोयर य छस्स | १३६ णवदुत्तरसत्तस‍ १४१ गाभिगिरी १४२ क्खित्तु मूला० १४२ क्खित्त गो. जी. | १४२ णिग्गच्छ य १४५ गिरयबिला २१०१ | १४६ तच्चिय दीवं वासो (सं) १४६ तट्ठाण दो दो दो (१) | १५१ ततो तविदो ३२३ X X प० २-४३ एदम्मि तम्मि देसे | १५१ तत्तो दो इद (ह) एवं जिरणारण समयंतराल | १५१ तत्तो दो वे वासो शुद्ध एसा जाणं कत्तिय किएहे ७-५४४ कद्दम पह कमहाणी - ४ - १७८१ तिलो प. ६७ चागो ३३६ ६६ चोदसया छा सा जम-रियम - दीव | ११३ जंगियम- दीव | १२१ जुवराय - वकलत्ताण (?) जुवराय -महल्ला गं १२२ जे ग्रुपु जे पुरण जे भूदिकम्ममता कुज्जा वामण-तरणुगा astगार महारिह X गंगाकूड पत्ता गंगा-सिंधु हिं गिद्ध-उलूय - भारुडो चरया य तिलो. सा. धागो ३-३६ X जे सोलस - कप्पारिंग जोइ (जो इसगरण) जोयरणयछस्स X गाभि गिरिर णिक्खित्तु मूला० रिक्खित्तू गो.जी. णिग्गच्छिय रियचिला २- १०१ तच्चियदीवव्त्रासे ताणाधोधो तत्तो तविदो ' प०२-४३ तत्तो दोइद (दुइज्ज) ततो दोवे वासा Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची शुद्ध पृष्ठ अशुद्ध पृष्ठ अशुद्ध १५१ तत्तो परदो वेदीए तत्तो परदो वेदी २४१ मिच्छत्तपच्चये मिच्छत्तपच्चयो १५६ तबिवरीदं सव्वं तबिवरीदं सच्चं २४२ मिच्छाई (२०) मिच्छाई । १६७ तुसितव्वा तुसिदचा २५८ वरणालियेहिं रइओ वरणालिएररइओ १६७ ते चउकोणेसु एक्केक्क ते च उचउकोणेसुं २६२ वाहि-णिहाणं वाहिणिहाणं १७६ दाणे लोहे दाणे लाहे ४-६३७ ५८२ दुगुणाए सूजी (च) दुगुणाए सूजी (ची)-६३ विजयादिवासरग्गो विजयादिवासवग्गो १८७ दाणदं दुओणदं २६३ विजयादिसु"अंगह० विजयादिसु"अगप० १८६ धम्मम्मि संति-कुंथुसुं धम्मम्मि संति-कुंथू २६४ विजयो अचलो सुधम्मो विजयोप्रचलोधम्मो १६२ पचलिदसएणा अवमिदसंका २७१ सचइ सुदो सच्चइ-सुदो १६४ पडिचरये आपुच्छय पडिचरए आपुच्छिया२८८ संतादिल्ला संताइल्ला २०१ पद(ड)लहवेकपादा(?) पददलहदवेकपदा २६८ सुरणरणारप सुरणरणारय २०२ परदो अच्चत्तपदा४. · परदो अच्चियपादा८-२६८ सुरणारएसुचत्तारि४-५५ सुरणारएसुष्४-५५क्षे. २०४ पलिहाणं दराणं फलिहाणंदा ताणं १६६ सुहुमकिरिएण माण सुहुमकिरिएण झाणे२१५ पुव्वं कयधम्मेण य पुवि किएण धम्मेण ३०० सेणगिहथवादि सेण-गिहथवदि २१८ फुल्लंतकुमुद "४-७६७४ फुल्लंतकुमुद ४-७६५३०४ सोहम्मादि तिलो.प. सोहम्मादि' २१६ बझपकुव्व (ज्ज) बह्मप्पकुज्ज ४८८ तिलो.सा. ४८८ २२६ भरहे केत्तम्मि भरहे खेत्तम्मि ३०४ सोहम्मादिदिगिदाx २३३ मग्गिणि" ११७६ मरिगणि ११७८ ) क्रम-संशोधन ३. १ अजदाई खीणता पंचसं० ४-६४ । २ पव्वज्ज संगचाए' .............. " __२ अजधाचारविजुत्तो पवयणसा०३-७२ ३०० १ सूरपुर चंदेपुर णिचु"" ५ १ अट्टाणवदिविहत्तं तिलो०प० १-२४२ २ सूरप्पह भद्दमुहा " .. .. .. २ अट्टाणवदिविहत्ता तिलो०प०१-२५७ ३ सूरप्पह सूइवट्टी • .. .. .. ... १५६ १ १ तसचउ पसत्थमेय य ...... १ सेण-गिहथवदि पुरहो. .. ... .... १५६ १ १ तसचउ पसत्थमेव य ... . इसेणं अणोरयारं". ....... ....... २ तसचउ वरणचउर्क (चारोंपंक्ति) सेणं हिस्सरिदणं...... ........... २०५ १ पव्वजिदो मल्लिजिणो" ... ..... " नोट १-शुद्धिके कारण जिन दूसरे वाक्योंका कम बदलना श्रावश्यक जान पड़े उनपर अंक डाल कर उन्हें यथाक्रम कर लिया जाय अथवा यथास्थान लिख लिया जाय । नोट २-जिन वाक्योंके शुद्धि-स्थानपर यह x चिन्द दिया है उन्हें निकाल दिया जाय । नोट ३-अशुद्ध पाठादिको देते हुए जहाँ विन्दु " लगाये गये हैं वहीं वे उस अगले पाठके सूचक ६ जो सूचीमें छग है और अशुद्ध नहीं है। : श्रृति-दर्शन केन्द्र यदुर Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܕ '