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पुरातन-जैनवाक्य-सूची ग्रन्थोकी सिद्धसेनीय सन्मतिसूत्रके साथ तुलना करके प० सुखलालजीने दोनो आचार्योंके इन ग्रन्थोमे जिस 'वस्तुगत पुष्कल साम्य'की सूचना सन्मतिको प्रस्तावना (पृ० ६६)मे की है उसके लिये सन्मतिसूत्रको अधिकांशमे सामन्तभद्रीय ग्रन्थोके प्रभावादिका आभारी समझना चाहिये।
अनेकान्त-शासनके जिस स्वरूप-प्रदर्शन एवं गौरव-ख्यापनकी ओर समन्तभद्रका प्रधान लक्ष्य रहा है उसीको सिद्धसेनने भी अपने ढगसे अपनाया है। साथ ही सामान्य-विशेष-मातृक नयोके सर्वथा-असर्वथा, सापेक्ष-निरपेक्ष और सम्यक-मिथ्यादि-स्वरूपविपयक समन्तभद्रके मौलिक निर्देशोंको भी आत्मसात् किया है। सन्मतिका कोई कोई कथन समन्तभद्रके कथनसे कुछ मतभेद अथवा उसमे कुछ वृद्धि या विशेष प्रायोजनको भी साथमे लिये हुए जान पडता है, जिसका एक नमूना इस प्रकार है:
दव्वं खित्त कालं भावं पज्जाय-देम-संजोगे ।
भेदं च पडुच्च समा भावाण पण्णवणपज्जा ॥३-६०॥
इस गाथामे बतलाया है कि 'पदार्थोंकी प्ररूपणा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पर्याय, देश. सयोग और भेदको प्राश्रित करके ठीक होती है, जब कि समन्तभद्रने "सदेव सर्वं को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात्" जैसे वाक्योके द्वारा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इस चतुष्टयको ही पदाथप्ररूपणका मुख्य साधन बतलाया है। इससे यह साफ जाना जाता है कि समन्तभद्रके उक्त चतुष्टयमे सिद्धसेनने बादको एक दूसरे चतुष्टयकी और वृद्धि की है, जिसका पहलेसे पूक्के चतुष्टयमं ही अन्तर्भाव था।
____ रही द्वात्रिशिकाओके कर्ता सिद्धसेनकी बात, पहली द्वात्रिशिकामे एक उल्लेख-वाक्य निम्न प्रकारसे पाया जाता है, जो इस विषयमें अपना खास महत्व रखता है:
य एष षड्जीव-निकाय-विस्तरः परैरनालीढपथस्त्वयोदितः । अनेन सयज्ञ-परीक्षण-क्षमास्त्वयि प्रसादोदयसोत्सवाः स्थिताः ॥१३॥
इसमे बतलाया है कि 'हे वीरजिन | यह जा पट प्रकारके जीवोंके निकायों (समूहों) का विस्तार है और जिसका मार्ग दूसरोके अनुभवमे नहीं आया वह आपके द्वारा उदित हुआ -बतलाया गया अथवा प्रकाशमें लाया गया है। इसीसे जो सर्वज्ञकी परीक्षा करनेमे समर्थ है वे (आपको सर्वज्ञ जानकर) प्रसन्नताके उदयरूप उत्सवके.साथ आपमे स्थित हुए हैं-वडे प्रसन्नचित्तसे आपके आश्रयमे प्राप्त हुए और आपके भक्त बने है। वे समर्थ-सर्वज्ञ-परीक्षक कौन है जिनका यहाँ उल्लेख है और जो प्राप्तप्रभु वीरजिनेन्द्रकी सर्वज्ञरूपमें परीक्षा करनेके अनन्तर । उनके सुदृढ भक्त बने है ? वे हैं स्वामी समन्तभद्र, जिन्होने प्राप्तमीमांसा द्वाग सबसे पहले सर्वज्ञकी परीक्षा की है, जो परीक्षाके अनन्तर वीरकी स्तुतिरूपमे 'युत्तयनुशासन' स्तोत्रके रचनेमें प्रवृत्त हुए है। और जो स्वयम्भू स्तोत्रके निम्न पद्योमें सर्वज्ञका उल्लेख करते हुए उसमें
अपनी स्थिति एवं भक्तिको त्वयि सुप्रसन्नमनसः स्थिता वयम्" इस वाक्पके द्वारा स्वयं व्यक्त /१ अकलङ्कदेवने भी 'अष्टशती' भाष्यमें प्राप्तमीमांसाको “सर्वज्ञविशेषपरीक्षा" लिखा है और वादि
राजसूरिने पार्श्वनाथचरितमें यह प्रतिपादित किया है कि 'उसी देवागम(आसमीमासा)के द्वारा स्वामी (समन्तभद्र)ने अाज भो सर्वज्ञको प्रदर्शित कर रक्खा है':____ "स्वामिनश्चरित तस्य कस्य न विस्मयावहम् । देवागमेन सर्वजो येनाऽद्यापि प्रदर्श्यते ॥' २ युक्तयनुशासनकी प्रथमकारिकामें प्रयुक्त हुए 'अद्य' पदका अर्थ श्रीविद्यानन्दने टीकामें "अस्मिन् काले परीक्षाऽवसानसमये" दिया है और उसके द्वारा प्राप्तमीमासाके बाद युक्तयनुशासनकी रचनाका सूचित किया है।