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प्रस्तावना
१५५ करते हैं, जो कि " त्वयि प्रसादादयसोत्सवाः स्थिताः" इस वाक्यका स्पष्ट मूलाधार जान पडता है:
बहिरन्तरप्युभयथा च, करणमविधाति नाऽर्थकृत् । नाथ ! युगपदखिलं च सदा, त्वमिदं तलाऽऽमलकवद्विवेदिथ ॥१२॥ अत एव ते बुध-नुतस्य, चरित-गुणमन तोदयम् । न्याय-विहितमवधार्य जिने, त्वयि सुप्रसन्नमनसः स्थिता वयम् ॥१३०॥
इन्हीं स्वामी समन्तभद्रको मुख्यतः लक्ष्य करके उक्त द्वात्रिंशिकाके अगले दो पद्य: कहे गये जान-पडते हैं, जिनमेसे एकमें उनके द्वारा अर्हन्तमे प्रतिपादित उन दो दो बातोंका उल्लेग्व है जो सर्वज्ञ-विनिश्चयकी सूचक हैं और दूसरेमे उनके प्रथित यशकी मात्राका बड़े गौरवके साथ कीर्तन किया गया है। अतः इस द्वात्रिशिकाके कर्ता सिद्धसेन भी समन्तभद्रके उत्तरवर्ती हैं।(समन्तभद्रके स्वयम्भूस्तोत्रका शैलीगत, शब्दगत और अथगत कितना ही साम्य भी इसमे पाया जाता है, जिसे अनुसरण कह सकते है. और जिसके कारण इस द्वात्रिंशिकाको पढ़ते हुए कितनी ही वार इसके पदविन्यासादिपरसे ऐमा भान होता है मानो हम स्वयम्भूस्तोत्र पढ़ रहे हैं) उदाहरणके तौरपर स्वयम्भूस्तोत्रका प्रारम्भ जैसे उपजातिछन्दमें 'स्वयम्भुवा भूत' शब्दोसे होता है वैसे ही इस द्वात्रिशिकाका प्रारम्भ भी उपजातिछन्दमें 'स्वयम्भुव भूत' शब्दोंसे होता है। स्वयम्भूतोत्रमें जिस प्रकार समन्त, सहत, गत, उदित, समीक्ष्य, प्रवादिन, अनन्त, अनेकान्त-जैसे कुछ विशेष शब्दोंका, मुने, नाथ, जिन, वीर-जैसे सम्बोधन-पदोका और १ जितक्षुल्लकवादिशासनः, २ स्वपक्षसौस्थित्यमदावलिप्ताः, ३ नैतत्समालीढपदं त्वदन्यैः, ४ शेरते प्रजाः, ५ अशेषमाहात्म्यमनोरयन्नपि, ६ नाऽसमीक्ष्य भवतः प्रवृत्तयः, ७ अचिन्त्यमीहितम्, आहन्त्यमचिन्त्यमद्भुतं, ८ सहस्राक्षः, ६ त्वद्विषः, १० शशिरुचिशुचिशुक्ललोहित वपुः, ११ स्थिता वय-जैसे विशिष्ट पद-वाक्योका प्रयोग पाया जाता है उसी प्रकार पहली द्वात्रिंशिकामें भी उक्त शब्दों तथा सम्बोधन पदोंके साथ १ अपश्चिततुल्लकतर्कशासनैः, २ स्वपक्ष एव प्रतिबद्धमत्सराः, ३ परैरनालीढपथस्त्वयोदितः, ४ जगत् शेरते, ५ त्वदीयमाहात्म्यविशेषसभली भारती, ६ समीक्ष्यकारिणः, ७. अचिन्त्यमाहात्म्यं, ८ भूतसहस्रनेत्र, ह त्वत्प्रतिघातनोन्मुखैः, १० वपुः स्वभावस्थमरक्तशोणितं, ११ स्थिता वयजैसे विशिष्ट पद-वाक्योका प्रयोग देखा जाता है, जो यथाक्रम स्वयम्भूस्तोत्रगत उक्त पदोंके प्रायः समकक्ष हैं । स्वयम्भूस्तोत्रमें जिस तरह जिनस्तवनके साथ जिनशासन-जिनप्रवचन तथा अनेकान्तका प्रशसन एव महत्व ख्यापन किया गया है और वीरजिनेन्द्र के शासनमाहात्म्यको 'तव जिनशासनविभवः जयति कलावपि गुणानुशासनविभवः' जैसे शब्दोंद्वारा कलिकालमें भी जयवन्त बतलाया गया है उसी तरह इस द्वात्रिंशिकामें भी जिनस्तुतिके साथ जिनशासनादिका सक्षेपमें कीर्तन किया गया है और वीरभगवानको 'सच्छासनवर्द्धमान' लिखा है।
इस प्रथम द्वात्रिंशिकाके कर्ता सिद्धसेन ही यदि अगली चार द्वात्रिंशिकाओंके भी कर्ना हैं जैसा कि प० सुखलालजीका अनुमान है, तो ये पांचों ही द्वात्रिंशिकाएँ, जो वीरस्तुतिसे सम्बन्ध रखती हैं और जिन्हे मुख्यतया लक्ष्य करके ही आचार्य हेमचन्द्रने 'क्क सिद्धसेनV१ “वपुः स्वभावस्थमरक्तशोणित पराऽनुकम्पा सफल च भाषितम् ।
न यस्य सर्वज्ञ विनिश्चयस्त्वयि द्वय करोत्येतदसौ न मानुषः ॥१४॥ अलब्धनिष्ठाः प्रसमिद्धचेतसस्तव प्रशिष्याः प्रथयन्ति यद्यशः । न तावदप्येकसमूहसहताः प्रकाशयेयुः परवादिपार्थिवाः ॥१५॥