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प्रस्तावना - जिस प्रकार कि ईश्वरको कर्ता-हर्ता न माननेवाला एक जैनकवि ईश्वरको उलहना अथवा उसकी रचनामें दोष देता हुआ लिखता है
"हे विधि ! भूल भई तुमतें, समुझे न कहाँ कस्तूरि बनाई । दीन कुरङ्गनके तनमें, तृन दन्त धरै करुना नहिं आई !! क्यों न रची तिन जीभनि जे रस काव्य करै परको दुखदाई !
साधु-अनुग्रह दुर्जन-दण्ड, दुहूँ सधते विसरी चतुराई !!" इस तरह सन्मतिके कर्ता सिद्धसेनको श्वेताम्बर सिद्ध करनेके लिये जो द्वात्रिशिकाओंके उक्त दो पद्य उपस्थित किये गये है उनसे सन्मतिकार सिद्धसेनका श्वेताम्बर सिद्ध होना तो दूर रहा, उन द्वात्रिंशिकाओके कर्ता सिद्धसेनका भी श्वेताम्बर होना प्रमाणित नहीं होता जिनके उक्त दोनो पद्य अङ्गरूप हैं । श्वेताम्बरत्वकी सिद्धिके लिये दूसरा और कोई प्रमाण उपस्थित नहीं किया गया और इससे यह भी साफ़ मालूम होता है कि स्वय सन्मतिसूत्रमें ऐसी कोई बात नहीं है जिससे उसे दिगम्बरकृति न कहकर श्वेताम्बरकृति कहा जा सके, अन्यथा उसे जरूर उपस्थित किया जाता। सन्मतिमें ज्ञान-दर्शनोपयोगके अभेदवादकी जो खास बात है वह दिगम्बर मान्यताके अधिक निकट है, दिगम्बरोंके युगपद्वादपरसे ही फलित होती है-न कि श्वेताम्बरोंके क्रमवादपरसे, जिसके खण्डनमें युगपद्वादकी दलीलोंको सन्मतिमें अपनाया गया है। और श्रद्धात्मक दर्शन तथा सम्यग्ज्ञानके अभेदवादकी जो बात सन्मति द्वितीयकाण्डकी गाथा ३२-३३में कही गई है उसके बीज श्रीकुन्दकुन्दाचार्यके समयसार ग्रन्थमें पाये जाते हैं। इन बीजोकी बातको प० सुखलालजी आदिने भी सन्मतिकी प्रस्तावना (पृ० ६२)में स्वीकार किया है—लिखा है कि "सन्मतिना (का० २ गाथा ३२) श्रद्धा-दर्शन अने ज्ञानना ऐक्यवादनु बीज कुदकुदना समयसार गा० १-१३ मा स्पष्ट छे।" इसके सिवाय, समयसारकी 'जो पस्सदि अप्पाण' नामकी १४वीं गाथामें शुद्धनयका स्वरूप बतलाते हुए जब यह कहा गया है कि वह नय आत्माको अविशेषरूपसे देखता है तब उसमें ज्ञान-दर्शनोपयोगकी भेद-कल्पना भी नहीं बनती और इस दृष्टिसे उपयोग-द्वयकी अभेदवादताके बीज भी समयसारमे सन्निहित है ऐसा कहना चाहिये।
हॉ, एक बात यहॉ और भी प्रकट कर देनेकी है और वह यह कि प० सुखलालजीने 'सिद्धसेनदिवाकरना समयनो प्रश्न' नामक लेखमे देवनन्दी पूज्यपादको "दिगम्बर परम्पराका पक्षपाती सुविद्वान्" बतलाते हुए सन्मतिके कर्ता सिद्धसेनदिवाकरको "श्वेताम्बरपरम्पराका समर्थक आचार्य' लिखा है, परन्तु यह नहीं बतलाया कि वे किस रूपमे श्वेताम्बरपरम्पराके समर्थक हैं।) दिगम्बर और श्वेताम्बरमें भेदकी रेखा खींचनेवाली मुख्यतः तीन बातें प्रसिद्ध हैं-१ स्त्रीमुक्ति, २ केवलिभुक्ति (कवलाहार) और ३ सवनमुक्ति, जिन्हें श्वेताम्बर सम्प्रदाय मान्य करता और दिगम्बर सम्प्रदाय अमान्य ठहराता है। इन तीनोंमेंसे एकका भी प्रतिपादन सिद्धसेनने अपने किसी ग्रन्थमे नहीं किया है और न इनके अलावा अलकृत अथवा शृङ्गारित जिनप्रतिमाओंके पूजनादिका ही कोई विधान किया है, जिसके मण्डनादिककी भी सन्मतिके टीकाकार अभयदेवसूरिको जरूरत पड़ी है और उन्होंने मूलमे वैसा कोई खास प्रमग न होते १ यहाँ जिस गाथाकी सूचना की गई है वह 'दसणणाणचरित्ताणि' नामकी १६वीं गाथा है । इसके
अतिरिक्त ववहारेणुवदिस्सइ णाणिस्स चरित्त दसण णाण' (७), 'सम्मद सणणाण एसो लहदि त्ति णवरि ववदेस' (१४४), और ''णाण सम्मादिट्ट दु सजमं सुत्तमंगपुव्वगयं' (४०४) नामकी गाथाओंमें भी अमेदवादके बीज संनिहित हैं।' २ भारतीयविद्या, तृतीय भाग पृ० १५४ ।