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पुरातन-जैनवाक्य-सूची १५. सिद्धभक्ति-यह १२ गाथाओंका एक स्तुतिपरक अथ है, जिसमें सिद्धोंकी, उनके गुणों, भेदों, सुख, स्थान, आकृति और सिद्धि के मार्ग तथा क्रमका उल्लेख करते हुए, अति-भक्तिभावके साथ वन्दना की गई है । इसपर प्रभाचन्द्राचार्यकी एक सस्कृत टीका है, जिसके अन्तमे लिखा है कि-"संस्कृताः सर्वा भक्तयः पादपूज्यस्वामिकृताः प्राकृतास्तु कुन्दकुन्दाचार्यकृताः" अर्थात संस्कृतकी सब भक्तियाँ पूज्यपाद स्वामीकी बनाई हुई हैं और प्राकृतकी सब भक्तियाँ कुन्दकुन्दाचार्यकृत है । दोनो प्रकार की भक्तियोंपर प्रभाचन्द्राचार्यकी टीकाएँ हैं। इस भक्तिपाठके साथमें कहीं कहीं कुछ दूसरी पर उसी विषयकी, गाथाएँ भी मिलती हैं, जिनपर प्रभाचन्द्रकी टीका नहीं है और जो प्रायः प्रक्षिप्त जान पड़ती है। क्योंकि उनमेसे कितनी ही दूसरे ग्रंथोंकी अंगभूत हैं। शोलापुरसे 'दशभक्ति' नामका जो सग्रह प्रकाशित हुआ है उसमे ऐसी ८ गाथाओ का शुरूमें एक सस्कृतपद्य-सहित अलग क्रम दिया है। इस क्रमकी गमणागमणविमुक्के' और 'तवसिद्ध णयसिद्धेजैसी गाथाओको, जो दूसरे ग्रथोंमे नहीं पाई गई, इस वाक्य-सूचीमे उस दूसरे क्रमके साथ ही ले लिया गया है । परन्तु सिद्धाणहमला' और 'जयमगलभूदाणं' इन क्रमशः ५, ७ नंबरकी दो गाथाओंका उल्लेख छूट गया है, जिन्हें यथास्थान बढ़ा लेना चाहिये।
१६. श्रु तभक्ति-यह भक्तिपाठ एकादश-गाथात्मक है। इसमें जैन तके आचाराङ्गादि द्वादश अंगोंका भेद-प्रभेद-सहित उल्लेख करके उन्हें नमस्कार किया गया है। साथ ही, १४ पूर्वोमेंसे प्रत्येककी वस्तुसंख्या और प्रत्येक वस्तुके प्राभृतों (पाहुडो) की सख्या भी दी है।
१७. चारित्रभक्ति-इस भक्तिपाठकी पद्यसंख्या १० है और वे अनुष्टुभ् छन्दमे है । इसमे श्रीवर्द्धमान-प्रणीत सामायिक, छेदोपस्थापन, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंयम (सूक्ष्मसाम्पराय) और यथाख्यात नामके पांच-चारित्रों, अहिंसादि २८ मूलगुणों तथा दशधर्मों, त्रिगुप्तियों, सकलशीलों, परीषहोंके जय और उत्तरगुणोका उल्लेख करके उनको सिद्धि और सिद्धि-फल मुक्तिसुखकी भावना की है।
१८. योगि(अनगार)भक्ति-यह भक्तिपाठ २३ गाथाओंको अङ्गरूपमें लिये हुए है । इसमे उत्तम अनगारों-योगियोंकी अनेक अवस्थाओं, ऋद्धियो, सिद्धियों तथा गुणोके उल्लेखपूर्वक उन्हें बड़ी भक्तिभावके साथ नमस्कार किया है, योगियोके विशेषणरूप गुणोंके कुछ समूह परिसख्यानात्मक पारिभाषिक शब्दोंमे दोकी संख्यामे लेकर चौदह तक दिये हैं; जैसे 'दोदोसविप्पमुक्क' तिदडविरद, तिसल्लपरिसुद्ध, तिरिणयगारवरहिश्र, तियरणसुद्ध, चउदसगंथपरिसुद्ध, चउदसपुव्वपगम्भ और चउदसमलविवज्जिद' । इस भक्तिपाठके द्वारा जैनसाधुओंके आदर्श-जीवन एवं चर्याका अच्छा स्पृहणीय सुन्दर स्वरूप सामने आजाता है, कुछ ऐतिहासिक बातोंका भी पता चलता है, और इससे यह भक्तिपाठ बड़ा ही महत्वपूर्ण जान पड़ता है। ।
१६. आचार्यभक्ति-इसमें १० गाथाएँ हैं और उनमें उत्तम-प्राचार्योंके गुणोंका उल्लेख करते हुए उन्हें नमस्कार किया गया है। आचार्य परमेष्ठी किन किन खास गुणोंसे विशिष्ट होने चाहियें, यह इस भक्तिपाठपरसे भले प्रकार जाना जाता है।
२०. निर्वाणभक्ति-इसकी गाथासंख्या २७ है । इसमें प्रधानतया निर्वाणको प्राप्त हुए तीर्थंकरों तथा दूसरे पूतात्म-पुरुषों के नामोंका, उन स्थानोंके नाम-सहित स्मरण तथा वन्दन किया गया है जहाँसे उन्होंने निर्वाण-पदकी प्राप्ति की है। साथ ही, जिन स्थानोंके साथ ऐसे व्यक्ति-विशेषोंकी कोई दूसरी स्मति खास तौरपर जुड़ी हुई है ऐसे अतिशय क्षेत्रों