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प्रस्तावना
१६३ अलङ्कारकी भाषामें दिया है और इसीसे सिद्धसेनके लिये उसका स्वतन्त्र उल्लेख प्राचीन'साहित्यमें प्रायः देखनेको नहीं मिलता (श्वेताम्बरसाहित्यका जो एक उदाहरण ऊपर दिया गया है वह रत्नशेखरसूरिकृत गुरुगुणषट् त्रिशत्पब्रिशिकाकी स्वोपज्ञवृत्तिका एकवाक्य होनेके कारण ५०० वर्षसे अधिक पुराना मालूम नहीं होता और इसलिये वह सिद्धसेनकी दिवाकर'रूपमें बहुत बादकी प्रसिद्धिसे सम्बन्ध रखता है। आजकल तो सिद्धसेनके लिये 'दिवाकर' नामके प्रयोगकी बाढ़-सी श्रारही है परन्तु अतिप्राचीन कालमें वैसा कुछ भी मालूम नहीं होता।
यहॉपर एक बात और भी प्रकट कर देनेकी है और वह यह कि उक्त श्वेताम्बर प्रबन्धों तथा पट्टावलियोंमें सिद्धसेनके साथ उज्जयिनीके महाकालमन्दिरमें लिङ्गस्फोटनादि-सम्बन्धिनी जिस घटनाका उल्लेख मिलता है उसका वह उल्लेख दिगम्बर सम्प्रदायमे भी पाया जाता है,
जैसा कि सेनगणकी पट्टावलीके निम्न वाक्यसे प्रकट है:" "(स्वस्ति ) श्रीमदुज्जयिनीमहाकाल-सस्थापन-महाकाललिङ्गमहीधर-वाग्वजदण्डविष्ट्याविष्कृत-श्रीपार्श्वतीर्थेश्वर-प्रतिद्वन्द-श्रीसिद्धसेनभद्दारकाणाम् ॥१४॥""
ऐसी स्थितिम द्वात्रिंशिकाओंके कर्ता सिद्धसेनके विषयमें भी सहज अथवा निश्चितरूपसे यह नहीं कहा जा सकता कि वे एकान्ततः श्वेताम्बर सम्प्रदायके थे, सन्मतिसूत्रके कर्ता सिद्धसेनकी तो बात ही जुदी है। परन्तु सन्मतिकी प्रस्तावनामें प. सुखलालजी और पण्डित वेचरदासजीने उन्हें एकान्ततः श्वेताम्बर सम्प्रदायका प्राचाय प्रतिपादित किया है-लिखा है कि 'वे श्वेताम्बर थे, दिगम्बर नहीं (पृ. १०४)। परन्तु इस बातको सिद्ध करनेवाला कोई समर्थ कारण नहीं बतलाया, कारणरूपमे केवल इतना ही निर्देश किया है कि 'महावीरके गृहस्थाश्रम तथा चमरेन्द्रके शरणागमनकी बात सिद्धसेनने वर्णन की है जो दिगम्बरपरम्परामे मान्य नहीं किन्तु श्वेताम्बर आगमोके द्वारा निर्विवादरूपसे मान्य है और इसके लिये फुट. नोटमें ५वीं द्वात्रिशिकाके छठे और दूसरी द्वात्रिशिकाके तीसरे पद्यको देखनेकी प्रेरणा की है, जो निम्न प्रकार हैं:
"अनेकजन्मान्तरभग्नमानः स्मरो यशोदाप्रिय यत्पुरस्ते । * चचार निहींकशरस्तमर्थ त्वमेव विद्यासु नयज्ञ कोऽन्यः ॥५-६॥" "कृत्वा नव सुरवधूभयरोमहर्ष दैत्याधिपः शतमुख-भ्रकुटीवितानः ।
त्वत्पादशान्तिगृहसश्रयलब्धचेता लज्जातनुद्य ति हरेः कुलिश चकार ॥२-३॥")
(इनमेसे प्रथम पद्यमे लिखा है कि 'हे यशादाप्रिय । दूसरे अनेक जन्मोंमें भग्नमान हुश्रा कामदेव निर्लज्जतारूपी बाणको लिये हुए जो आपके सामने कुछ चला है उसके अर्थको आप ही नयके ज्ञाता जानते हैं, दूसरा और कौन जान सकता है ? अर्थात् यशोदाके साथ आपके वैवाहिक सम्बन्ध अथवा रहस्यको समझनेके लिये हम असमथ है।' दूसरे पद्यमें देवाऽसुर-सग्रामके रूपमें एक घटनाका उल्लेख है, जिसमें दैत्याधिप असुरेन्द्रने सुरवधुओंको भयभातकर उनके रोंगटे खड़े कर दिये। इससे इन्द्रका भ्रकुटी तन गई और उसने उसपर वन छोड़ा, असुरेन्द्रने भागकर वीरभगवानके चरणोंका आश्रय लिया जो कि शान्तिके धाम हैं और उनके प्रभावसे वह इन्द्रके वञको लज्जासे क्षीणद्युति करनेमें समर्थ हुआ।
अलकृत भाषामें लिखी गई इन दोनों पौराणिक घटनाओका श्वेताम्बर सिद्धान्तोंके साथ काई खास सम्बन्ध नहीं है और इसलिये इनके इस रूपमें उन्लेख मात्रपरसे यह नहीं कहा जा सकता कि इन पद्योंके लेखक सिद्धसेन वास्तवमें यशोदाके साथ भ० महावीरका विवाह होना और असुरेन्द्र (चमरेन्द्र) का सेना सजाकर तथा अपना भयकर रूप बनाकर युद्धके लिये स्वर्गमें जाना आदि मानते थे, और इसलिये श्वेताम्बर सम्प्रदायके प्राचार्य थे,