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पुरातन-चैनवाक्य-सूची सो ण वसो इत्थिजणे सो ण जिओ इंदिएहि मोहेण ।
जो ण य गिलदि गंथं अभंतर बाहिरं सव्वं ॥ २८२ ॥
इनमेंसे पहली गाथामे चार प्रश्न किये गए हैं-"१ कौन स्त्रीजनोंके वशमें नहीं होता? २ मदन-कामदेवसे किसका मान खडित नहीं होता ?, कौन इद्रियों के द्वारा जीता नहीं जाता ?, ४ कौन कपायोसे संतप्त नहीं होता ?' दूसरी गाथामें केवल दो प्रश्नोका ही उत्तर दिया गया है जो कि एक खटकनेवाली बात है, और वह उत्तर यह है कि 'स्त्री जनों के वशमें वह नहीं होता, और वह इन्द्रियोंसे जीता नहीं जाता जो मोहसे बाह्य और आभ्यन्तर समस्त परिग्रहको ग्रहण नहीं करता है।'
इन दोनो गाथाओकी लोकभावनाके प्रकरणके साथ कोई संगति नहीं बैठती और न ग्रंथमें अन्यत्र ही कथनकी ऐसी शैलीको अपनाया गया है । इससे ये दोनों ही गाथाएँ स्पष्ट रूपसे प्रक्षिप्त जान पड़ती है और अपनी इस प्रक्षिप्तताके कारण उक्त विरला णिसुणहिं तच्च' नामकी गाथा न० २७६की प्रक्षितताकी संभावनाको और दृढ करती हैं। मेरी रायमे इन दोनों गाथाओकी तरह २७६ नम्बरकी गाथा भी प्रक्षिप्त है, जिसे किसीने अपनी प्रथप्रति मे अपने उपयोगके लिये संभवतः गाथा नं० २८० के आसपास हाशियेपर, उसके टिप्पणक रूपमें, नोट कर रक्खा होगा, और जो प्रतिलेखककी असावधानीसे मूलम प्रविष्ट होगई है। प्रवेशका यह कार्य भ० शुभचन्द्रकी टीकासे पहले ही हुआ है, इसीसे इन तोनो गाथाओंपर भी शुभचन्द्रकी टीका उपलब्ध है और उसमे (तदनुसार पं० जयचन्द्रजीकी भाषाटाकामे भी) बड़ी खींचातानीके साथ इनका सबंध जोड़नेकी चेष्टा की गई है; परन्तु सम्बन्ध जुड़ता नहीं है। ऐसी स्थिति में उक्त गाथाकी उपस्थितिपरसे यह कल्पित कर लेना कि उसे स्वामिकुमारने ही योगसारके दोहेको परिवर्तित करके बनाया है समुचित प्रतीत नहीं होताखासकर उस हालतमे जब कि ग्रंथभरमे अपभ्रंश भापाका और कोई प्रयोग भी न पाया जाता हो । बहुत संभव है कि किसी दूसरे विद्वान्ने दोहेको गाथाका रूप देकर उसे अपनी ग्रंथप्रतिमें नोट किया हो। और यह भी सभव है कि यह गाथा साधारणसे पाठभेदके साथ अधिक प्राचीन हो और योगीन्दुने ही इसपरसे थोड़ेसे परिवर्तनके साथ अपना उक्त दोहा बनाया हो, क्योंकि योगीन्दुके परमात्मप्रकाश आदि ग्रंथोमे और भी कितने ही दोहे ऐसे पाये जाते हैं जो भावपाहुड तथा समाधितंत्रादिके पद्यापरसे परिवर्तन करके बनाये गये हैं
और जिसे डाक्टर साहबने स्वय स्वीकार किया है, जब कि स्वामिकुमारके इस प्रथकी ऐसी कोई बात अभी तक सामने नहीं आई-कुछ गाथाएँ ऐसी जरूर देखने में आती हैं जो कुन्दकुन्द तथा शिवार्य जैसे आचार्यों के प्रथोंमे भी समानरूपसे पाई जाती हैं और वे और भी प्राचीन स्रोतसे सम्बन्ध रखनेवाली हो सकती हैं, जिसका एक नमूना भावनाओके नामवाली गाथाका ऊपर दिया जा चुका है। अतः इस विवादापन्न गाथाके सम्बन्धमे उक्त कल्पना करके यह नतीजा निकालना कि, यह ग्रंथ जोइन्दुके योगसारसे-ईसाकी प्रायः छठी शताब्दीसे-बादका बना हुआ है, ठीक मालूम नहीं देता । मेरी समझमे यह ग्रथ उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रसे अधिक बादका नहीं है-उसके निकटवती किसी समयका होना चाहिये । और इसके कर्ता वे अग्निपुत्र कातिकेय मुनि नहीं हैं जो आमतौरपर इसके कर्ता समझे जाते है और क्रौंच राजाके द्वारा उपसर्गको प्राप्त हुए थे, बल्कि स्वामिकुमारनामके आचार्य ही हैं जिस नामका उल्लेख उन्होंने स्वयं अन्तमंगलकी निम्न गाथामे श्लेषरूपसे भी किया है:
तिहुयण-पहाण-सामि कुमार-काले वि तविय तवयरणं । वसुपुज्जसुयं मल्लि चरम-तियं संथुये णिच्चं ॥ ४८६ ॥