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प्रस्तावना इसमें वसुपूज्यसुत-वासुपूज्य, मल्लि और अन्तके तीन नेमि, पार्श्व तथा वर्द्धमान ऐसे पॉच फुमार-श्रमण तीर्थंकरोंकी वन्दना की गई है, जिन्होने कुमारावस्था में ही जिनदीक्षा लेकर तपश्चरण किया है और जो तीन लोकके प्रधान स्वामी है। और इससे ऐसा ध्वनित होता है कि ग्रंथकार भी कुमारश्रमण थे, बालब्रह्मचारी थे और उन्होंने बाल्यावस्थामे ही जिनदीक्षा लेकर तपश्चरण किया है-जैसाकि उनके विपयमे प्रसिद्ध है, और इसीसे उन्होने अपनेको विशेषरूपमे इष्ट पॉच कुमार तीर्थंकरोंकी यहाँ स्तुति की है।
स्वामि-शब्दका व्यवहार दक्षिण देशमे अधिक है और वह व्यक्तिविशेषोंके साथ उनकी प्रतिष्ठाका द्योतक होता है। कुमार, कुमारसेन, कुमारनन्दी और कुमारस्वामी जैसे नामोंके प्राचार्य भी दक्षिणमें हुए हैं । दक्षिण देशमे बहुत प्राचीन कालसे क्षेत्रपालकी पूजा का प्रचार रहा है और इस प्रथकी गाथा नं० २५ मे 'क्षेत्रपाल' का स्पष्ट नामोल्लेख करके उसके विपयमे फैली हुई रक्षा-सम्बन्धी मिथ्या धारणाका निषेध भी किया है। इन सब बातों परसे प्रथकार महोदय प्रायः दक्षिण, देशके आचार्य मालूम होते , जैसा कि डाक्टर उपाध्येने भी अनुमान किया है।
२८. तिलोयपएणची और यतिवृषभ-तिलोयपएणत्ती (त्रिलोकप्रज्ञप्ति) तीन लोकके स्वरूप, आकार, प्रकार, विस्तार, क्षेत्रफल और युग-परिवर्तनादि-विपयका निरूपक एक महत्वका प्रसिद्ध प्राचीन प्रथ है-प्रसंगोपात्त जेनसिद्धान्त, पुराण और भारतीय इतिहास-विषयको भी कितनी ही बातों एव सामग्रीको यह साथमे लिय हुए है । इसमे १ सामान्यजगत्स्वरूप, २ नारकलोक, ३ भवनवासिलोक, ४ मनुष्यलोक, ५ तिर्यकलोक, ६व्यन्तरलोक, ७ ज्योतिर्लोक, ८ सुरलोक और ६ सिद्ध लोक नामके ६ महाधिकार हैं)।
वान्तर अधिकारों की सख्या १८० के लगभग है, क्योंकि द्वितीयादि महाधिकारोके अवान्तर अधिकार क्रमशः १५, २४, १६, १६, १७ १७, २५, ५ ऐसे १३१ हैं और चौथे महाधिकारके जम्बूद्वीप, घातकोखण्डद्वीप और पुष्करद्वीप नामके अवान्तर अधिकारोंमेसे प्रत्येकके फिर सोलह सोलह (१६४३=४८) अन्तर अधिकार है। इस तरह यह ग्रथ अपने विपयके बहुत विस्तारको लिये हुए है । इसका प्रारभ निम्न मंगलगाथासे होता है, जिसमें सिद्धि-कामनाके साथ सिद्धोंका स्मरण किया गया है .
अट्टविह-कम्म-वियला णिट्ठिय-कज्जा पणह-संसारा । दिह-सयलह-सारा सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु ॥१॥ अथका अन्तिम भाग इस प्रकार है :
पणमह जिणवरवसहं गणहरवमहं तहेव गुण [हर]वसहं । दठ्ठण परिसवसहं (?) जदिवसहं धम्मसुत्तपाढगवसहं ॥४-७८॥ चुरिणसरूवं अत्थं करणसरूवपमाण होदि किं (१) जं तं ।
अहसहरूपमाणं तिलोयपएणत्तिणामाए ॥६-७६॥
एवं आइरियपरंपरागए तिलोयपण्णत्तीए मिद्धलोयसरूवणिरूवणपएणच रणाम णवमो महाहियारो सम्मत्तो ।
मग्गप्पभावण पवयण-भत्तिप्पचोदिदेण मया। भणिदं गंथप्पवरं सोहंतु बहुसुदाइरिया ॥६-८०॥
तिलोयपएणची सम्मचा ।।