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प्रस्तावना
२५.
संसारभावनाको दिया है और संसारभावनाके अनन्तर एकत्व-अन्यत्व भावनाओंको रक्खा है, लोकभावनाको संसारभावनाके बाद न रखकर निर्जराभावनाके बाद रक्खा है
और धर्मभावनाको बोधि-दुर्लभसे पहले स्थान न देकर उसके अन्तमें स्थापित किया है, जैसाकि निम्न सूत्रसे प्रकट है
"अनित्याऽशरण-संसारैकत्वाऽन्यत्वाऽशुच्याऽऽस्रव-संवर-निर्जरा-लोक-बोधिदुर्लभ-धर्मस्वाख्याततत्त्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षाः ॥६-७॥
और इससे ऐसा जाना जाता है कि भावनाओं का यह क्रम, जिसका पूर्व साहित्यपरसे समर्थन नहीं होता, बादको उमास्वातिके द्वारा प्रतिष्ठित हुआ है । कार्तिकेयानुप्रेक्षामे इसी क्रमको अपनाया गया है । अतः यह प्रथ उमास्वातिसे पूर्वका नहीं बनता और जब उमास्वातिके पूर्वका नहीं बनता तब यह उन स्वामिकार्तिकेयकी कृति भी नहीं हो सकता जो हरिपेणादिकथाकोपोंकी उक्त कथाके मुख्य पात्र हैं, भगवती आराधनाकी गाथा नं० १५४६ मे 'अग्निदयित' (अग्निपुत्र) के नामसे उल्लेखित हैं अथवा अनुत्तरोपपाददशाङ्गमे वर्णित दश अनगारोमे जिनका नाम है। इससे अधिक ग्रंथकार और प्रथके समय-सम्बन्धमें इस क्रम-विभिन्नतापरसे और कुछ फलित नहीं होता।
___ अब रही दूसरे कारणकी बात, जहाँ तक मैंने उसपर विचार किया है और ग्रंथकी पूर्वापर स्थितिको देखा है उसपरसे मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं होता कि ग्रंथमें उक्त गाथा नं० २७६ की स्थिति बहुत ही संदिग्ध है और वह मूलतः ग्रंथका अंग मालूम नहीं होती-बादको किसी तरहपर प्रक्षिप्त हुई जान पड़ती है। क्योंकि उक्त गाथा 'लोकभावना' अधिकार के अन्तर्गत है, जिसमे लोकसस्थान, लोकवी जीवादि छह द्रव्य, जीवके ज्ञानगुण और अ तज्ञानके विकल्परूप नैगमादि सात न य, इन सबका संक्षेपमे बड़ा ही सुन्दर व्यवस्थित वर्णन गाथा नं० ११५ से २६८ तक पाया जाता है । २७८ वी गाथामे नयोंके कथनका उपसहार इस प्रकार किया गया है :
एवं विविह-णएहि जो वत्थू ववहरेदि लोयम्मि। ,
दंसण-णाण-चरितं सो साहदि सग्ग-मोक्खं च ॥ २७८ ॥ इसके अनन्तर विरला णिसुणहिं तच्चं' इत्यादि गाथा न० २७६ है, जो औपदेशिक ढगको लिये हुए है और ग्रंथकी तथा इस अधिकारकी कथन-शैलीके साथ कुछ संगत मालूम नहीं होती-खासकर क्रमप्राप्त गाथा नं० २८० की उपस्थितिमे, जो उसकी स्थितिको और भी संदिग्ध कर देती है, और जो निम्न प्रकार है:
तचं कहिज्जमाणं णिच्चलभावेण गिलदे जो हि । ___ तं चि य भावेइ सया सो वि य तच वियाणेई ॥ २८०॥
इसमे बतलाया है कि, 'जो उपर्युक्त तत्त्वको-जीवादि-विषयक तत्त्वज्ञानको अथवा उसके मर्मको-स्थिरभावसे- दृढताके साथ- ग्रहण करता है और सदा उसकी भावना रखता है वह तत्त्वको सविशेष रूपसे जाननेमे समर्थ होता है।'
__ इसके अनन्तर दो गाथाएँ और देकर एव लोयसहाय जो झायदि' इत्यादिरूपसे गाथा नं० २८३ दी हुई है, जो लोकभावनाके उपसंहारको लिये हुए उसकी समाप्तिसूचक है और अपने स्थानपर ठीक रूपसे स्थित है। वे दो गाथाएँ इस प्रकार हैं:
को ण वसो इत्थिजणे कस्स ण मयणेण खंडियं माणं । को इंदिएहिं ण जिओ को ण कसाएहिं संतत्तो॥ २८१ ।।