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पुरातन - जैनवाक्य-सूची
(विक्रमसे दोसौ या तीनसौ वर्ष पहलेका १) प्राचीन नहीं है जितना कि दन्तकथाओंके आधार पर माना जाता है ) जिन्होंने ग्रंथकार कुमार के व्यक्तित्वको अन्धकार में डाल दिया है । और इसके मुख्य दो कारण दिये हैं, जिनका सार इस प्रकार है
( १ ) (कुमार के इस अनुप्रेक्षा प्रथमे बारह भावनाओंकी गणनाका जो क्रम स्वीकृत है वह वह नहीं है जो कि वट्टकेर, शिवार्य और कुन्दकुन्द के प्रथो (मूलाचार, भ० आराधना तथा बारसपेक्खा ) मे पाया जाता है, बल्कि उससे कुछ भिन्न वह क्रम है जो वादको उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रमे उपलब्ध होता है | )
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( २ ) (कुमारकी यह अनुप्रेक्षा अपभ्रंश भाषा में नहीं लिखी गई, फिर भी इसकी २७६ वी गाथा 'सुिरहि' और 'भावहि' (preferably हिं) ये अपभ्रंशके दो पद आ घुसे है जो कि वर्तमान काल तृतीय पुरुपके बहुवचन के रूप हैं । यह गाथा जोइन्दु (योगीन्दु) के योगसारके ६५ वे दोहे के साथ मिलती जुलती है, एक ही आशयको लिये हुए है और उक्त दोहे पर से परिवर्तित करके रक्खी गई हैं। परिवर्तनादिका यह कार्य किसी बादके प्रतिलेखकद्वारा सभव मालूम नहीं होता, बल्कि कुमारने ही जान या अनजानमे जोइन्दुकं दोहेका अनुसरण किया है ऐसा जान पड़ता है । उक्त दोहा और गाथा इस प्रकार हैं:विरला जाहि तत्तु बहु विरला सुहिं तत्तु । विरला काहिं तत्तु जिय विरला धारहि तत्तु ॥ ६५ ॥ - योगसार
विरला खिसुखहि तच विरला जाणंति तचदो तचं । विरला भावहि तच विरलाणं धारणा होदि ॥ ३७६ ॥
कार्तिकेयानुप्रेक्षा
(और इसलिये ऐसी स्थिति में डा० साहबका यह मत है कि कार्तिकेयानुप्रेक्षा उक्त कुन्दकुन्दोदिके बादकी ही नहीं बल्कि परमात्मप्रकाश तथा योगसार के कर्ता योगीन्दु आचार्य के भी बादकी बनी हुई है, जिसका समय उन्होने पूज्यपादके समाधितत्रसे बादका और चण्डव्याकरणसे पूर्वका अर्थात् ईसाकी ५ वीं और ७ वीं शताब्दी के मध्यका निर्धारित किया है, क्योकि परमात्मप्रकाशमे समाधितंत्रका बहुत कुछ अनुसरण किया गया है और चण्डव्याकरणमे परमात्मप्रकाशके प्रथम अधिकारका ८५ वॉ दोहा (कालु लहेविणु जोइया ' इत्यादि) उदाहरणके रूपमे उद्धृत है ।)
इसमे सन्देह नहीं कि मूलाचार, भगवती आराधना और बारसअणुवेक्खामे बारह भावनाओं का क्रम एक है, इतना ही नहीं बल्कि इन भावनाओ के नाम तथा क्रमकी प्रतिपादक गाथा भी एक ही है और यह एक खास विशेषता है जो गाथा तथा उसमें वर्णित भावनाओंके क्रमकी अधिक प्राचीनताको सूचित करती है । वह गाथा :स प्रकार है ऋद्ध्रुवमसरणमेग त्तमण्ण- संसार - लोगमसुचित्तं ।
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आसव-संवर- णिज्जर-धम्मं वोहिं च चिति (ते) ज्जो ||
उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रमे इन भावनाओं का क्रम एक स्थानपर ही नहीं बल्कि तीन स्थानोंपर विभिन्न है । उसमें अशरणके अनन्तर एकत्व - अन्यत्व भावनाओं को न देकर
१ पं० पन्नालालजी वाकलीवालकी प्रस्तावना पृ० १ । Catalogue of SK. and PK. Manuscripts in the C. P. and Berar p. XIV; तथा Winternitz. A History of Indian Literature, Vol. II p 577.
परमात्मप्रकाशकी अंग्रेजी प्रस्तावना पृ० ६४-६५; प्रस्तावनाका हिन्दीसार पृ० ११३ - ११५ ।
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