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प्रस्तावना
हुई १६ पत्रात्मक प्रतिमें पाई जाती है और जिसकी नकल उक्त पं० परमानन्दजीके पास से ही देखनेको मिली है।
(३) पाण्डवपुराण जब १४६७ मे समाप्त हुआ तब उसके फर्ता यशःकोर्तिकी पाँचवीं गुरुपरम्परामे होनेवाले देवसेनका समय वि० स० १४०० के लगभग ठहरता है । ऐसी स्थितिमे इन देवसेनके साथ एकत्व स्थापित करते हुए भावसंग्रहके कर्ता और सुलोचनाचरित्रके कर्ता देवसेनको विक्रमकी १२वीं या १३वीं शताब्दीका विद्वान कैसे बतलाया जा सकता है ? १३वीं शताब्दी तो उन दो संवतों ११३२ और १३७२ के भी विरुद्ध जाती है जिनमेस किसी एकमे सुलोचनाचरित्रके रचे जानेकी संभावना व्यक्त की गई है।
(४) भावसग्रहकी 'सकाइदोसरहिय', 'रायगिहे णिस्संको', 'णिव्विदगिंछो राया', 'ठिदिय( क )रणगुणपउत्तो' । उवगृहणगुणजुत्तो' और ' एरिसगुणअट्ठजुयं', ये छह (२७६ से २८४ नं० की ) गाथाएँ वसुनन्दी आचार्यके श्रावकाचार में (नं० ५१ स ५६ तक ) उद्धृत की गई हैं, ऐसा वसुनन्दिश्रावकाचारकी उस देहली-धर्मपुरा के नये मन्दिरकी शुद्ध प्रतिपरसे जाना जाता है जो संवत् १६६१ की लिखी हुई है, और जिसमे उक्त गाथाओको देते हुए साफतौरसे लिखा है-"अतो गाथाषटकं भावसंग्रहात् ।" इन वसुनन्दी आचार्यका समय विक्रमकी ११वीं-१२वीं शताब्दी है । अतः भावसंग्रहके कर्ता देवसेन उनसे पहले हुए, तव सुलोचनाचरित्रके कर्ता देवसेन और पाण्डवपुराणकी गुरुपरम्परावाले देवसेनके साथ उनकी एकता किसी तरह भी स्थापित नहीं की जा सकती और न उन्हें १२वीं या १३वीं शताब्दीका विद्वान् ही ठहराया जा सकता है। और इसलिये जब तक भिन्न कर्तृ कताका द्योतक कोई दूसरा स्पष्ट प्रमाण सामने न आ जावे तब तक दर्शनसार और भावसग्रहको एक ही देवसेनकृत माननेमे कोई खास बाघा मालूम नहीं होती।
३३. भावसंग्रह-यह वही देवसेनकृत भावसग्रह है, जिसकी ऊपर दर्शनसारके प्रकरणमे चर्चा की गई है। इसमे मिथ्यात्वादि चौदह गुणस्थानोके क्रमसे जीवों के औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक ऐसे पॉच भावोका अनेकरूप से वर्णन है.और उसमे कितनी ही बातोंका समावेश किया गया है। माणिकचन्द्रप्रथमाला के संस्करणानुसार इस प्रथकी पद्यसंख्या ७०१ है परन्तु यह सख्या अभी सुनिश्चित नहीं कही जा सकती, क्योकि अनेक प्रतियोंमे हीनाधिक पद्य पाये जाते हैं। प० नाथूरामजी प्रमीने पूनाके भाण्डारकर ओरियटल रिसर्च इन्स्टिट्य टकी एक प्रति (नं० १४६३ सन् १८८६६२) का उल्लेख करते हुए लिग्वा है कि "इसके प्रारंभिक अशमें अन्य ग्रंथोंके उद्धहणोको भरमार है", जो मूल प्रथकारके द्वारा उद्धृत नहीं हुए हैं, और अनेक स्थानोंपर-खासकर पाँचवें गुणस्थानके वर्णनमे-इसके पद्योकी स्थिति रयणेसार-जैसी संदिग्ध पाई जाती है। अतः प्राचीन प्रतियोंको ग्वोज करके इसके मूलरूपको सुनिश्चित करनेकी खास जरूरत है।
३४. तत्त्वसार यह भी उक्त देवसेनका ७४ गाथात्मक प्रथ है । इसमे स्वगत और परगतके भेदसे तत्त्वका दो प्रकारसे निरूपण किया है और यह अपने विषयका अच्छा पठनीय तथा मननीय ग्रंथ है।
३५. आराधनासार-उक्त देवसेनका यह प्रथ ११५ गाथासख्याको लिये हुए है और हेमकीर्तिके शिष्य रत्नकीनिकी सस्कृत टीकाके साथ माणिकचन्द्र-ग्रंथमालामे मुद्रित हुआ है। इसमें दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपरूप चार आराधनाओके कथनका सार निश्चय और व्यवहार दोनों रूपसे दिया है । प्रथ अपने विषयका बड़ा ही सुन्दर है।।
३६. नयचक्र—यह भी उक्त देवसेनको कृति है और ८७ गाथासंख्याको लिये हुए है। इमे लघुनयचक' भी कहते हैं, जो किसी बड़े नयचक्रको दृष्टिमे लेकर बादको किए