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पुरातन-जैनवाक्य-सूची गए नामकरणका फल है। मूलके आदि-प्रतिज्ञा-वाक्यमे इसको 'नयलक्षण और समाप्तिवाक्यमे 'नयचक्र' प्रकट किया गया है। अन्यत्र भी 'नयचक्र' नामसे इसका उल्लेख मिलता है। इससे इसका मूलनाम 'नयचक्र' ही है। परन्तु यह वह 'नयचक्र' नहीं जिसका विद्यानन्द आचार्यने अपने श्लोकवार्तिकके नविवरण-प्रकरणमे निम्न शब्दोंद्वारा उल्लेख किया है :
संक्षेपेण नयास्तावद् व्याख्याताः सूत्रसूचिताः ।
तद्विशेषाः प्रपञ्चेन संचिन्त्या नयचक्रतः ॥ __ क्योंकि इस कथनपरसे वह नयचक्र बहुत विस्तृत होना चाहिये । प्रस्तुत नयचक्र बहुत छोटा है, इसस अधिक कथन तो श्लोकवार्तिकक उक्त नयविवरण-प्रकरणमें पाया जाता है, जिसमे विशेष कथनके लिये नयचक्रको देखनेकी प्रेरणा की गई है । बहुत संभव है कि यह बड़ा नयचक्र वह हो जिसको दुःसमीरसे पोत (जहाज ) की तरह नष्ट हो जानेका
और उसके स्थानपर देवसेनद्वारा दूसरे नयचक्र रचे जानेका उल्लेख माहल्लदेवने अपने 'दव्वसहावणयचक्क' के अन्तमे२ किया है । इसके सिवाय, एक दूसरा बड़ा नयचक्र संस्कृतमे श्वेताम्बराचाय मल्लवादिका भी प्रसिद्ध है, जिसे 'बादशार-नयचक्र' कहते हैं और जो आज अपने मूलरूपमे उपलब्ध नहीं है। उसकी ओर भी संकेत हो सकता है। अस्तु ।
देवसेनके इस नयचक्रमे नयोंका सूत्ररूपसे बड़ा सुन्दर वर्णन है, नयोके मूल दो भेद द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक किये गये हैं और शेष सब संख्यात असख्यात भेदोंका इन्हींके भेद-प्रभेद बतलाया गया है। नयोंके कथनका प्रारंभ करते हुए लिखा है कि-जो नयष्टिसे विहीन हैं उन्हें वस्तुस्वरूपकी उपलब्धि नहीं होती और जिन्हें वस्तुस्वरूपकी उप, लब्धि नहीं-जो वस्तुस्वभावको नहीं पहचानते-वे सम्यग्दृष्टि कैसे हो मकते हैं ? नहीं हो। , सकते,' यह बड़े ही मर्मकी बात है और इसपरमे प्रथ के विषयका महत्त्व स्पष्ट जाना जाता है। इसी तरह प्रथके अन्त में 'नयचक्र' के विज्ञानको सकल शास्त्रोंकी शुद्धि करनेवाला और दुर्णयरूप अन्धकार के लिये मार्तण्ड बतलाते हुए यह भी लिखा है कि 'यदि अज्ञान-महादधिको लीलामात्रमे तिरना चाहते हो तो नयचक्रको जानने के लिये अपनी बुद्धिको लगाओ -नयोंका ज्ञान प्राप्त किये विना अज्ञान-महासागरस पार न हो सकोगे।
३७. द्रव्यस्वभावप्रकाश-नयचक्र—यह ग्रंथ द्रव्यों, गुण-पर्यायों और उनके स्वरूपादिको सामान्य-विशेषादिकी दृष्टिसे प्रकाशित करनेवाला है और साथ ही उनको जाननेके साधनोंमे मुख्यभूत नयोंके स्वरूपादिपर प्रकाश डालनेवाला है, इसीसे इसका यह नाम प्रायः सार्थक है। वास्तव में यह एक संग्रह-प्रधान ग्रंथ है। इसमें कुन्दकुन्दादि आचार्यो के ग्रंथोंकी कितनी ही गाथाओं तथा पद्य-वाक्योंका संग्रह किया गया है । और देवसेनक नयचक्रको तो प्रायः पूरा ही समाविष्ट कर लिया गया है । नयचक्रकी स्तुतिक कई पद्य भी इसके अन्तमे दिये हुए हैं और इसीस इसे कुछ लोग बहत् नयचक्र भी कहन अथवा समझने लगे हैं जो ठीक नहीं हैं, क्योंकि इसमें बहत् नयचक्र जैसी कोई बात नहा है। इसकी पद्यसंख्या देवसेनके नयचक्रसे प्रायः पंचगुनी अर्थात ४२२ जितनी होने और अन्तिम गाथाओंमे नयचक्रका ही सविशेषल्पसे उल्लेख पाये जाने के कारण यह बहत् नयचक्र समझ लिया गया जान पड़ता है। प्रथके अन्य भागोंकी अपेक्षा अन्तका भाग कुछ विशेषरूपसे अव्यवस्थित मालूम होता है। 'जइ इच्छड उत्तरिदु' इस गाथा नं० ४१६ के श्वेताम्बराचार्य यशोविजयने 'द्रव्यगुणपर्ययरासा' में और भोजसागरने 'द्रव्यानुयोगतर्कणा' में भी देव
सेनके नामोल्लेखपूर्वक उनके नयचक्रका उल्लेख किया है। २ दुसमीरणेग्ण पोय पेरियसंतं जहा ति(चि)र णछ। सिरिदेवसेणमुणिणा तह णयचक्कं पुणो रइयं ॥