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प्रस्तावना
"द्व ेष्य-श्वेतपटसिद्धसेनाचार्यस्य कृतिः निश्वयद्वात्रिंशिकैकोन विशतिः।”
दूसरी किसी द्वात्रिशिका अन्तमें ऐसा कोई पुष्पिकावाक्य नहीं है । पूर्वकी १८ और उत्तरवर्ती १ ऐसे १९ द्वात्रिंशिकाओंके अन्तमें तो कर्ताका नाम तक भी नहीं दिया हैद्वात्रिंशिकाकी संख्यासूचक एक पंक्ति 'इति' शब्दसे युक्त अथवा वियुक्त और कहीं कही द्वात्रिंशिका नामके साथ भी दी हुई है ।
(६) द्वात्रिंशिकाओंकी उपर्युक्त स्थितिमें यह कहना किसी तरह भी ठीक प्रतीत नहीं होता कि उपलब्ध सभी द्वात्रिंशिकाऍ अथवा २१वींको छोड़कर बीस द्वात्रिंशिकाऍ सन्मति - कार सिद्धसेनकी ही कृतियाँ हैं, क्योंकि पहली, दूसरी, पाँचवीं और उन्नीसवीं ऐसी चार द्वात्रिंशिकाओंकी बाबत हम ऊपर देख चुके हैं कि वे सन्मतिके विरुद्ध जानेके कारण सन्मति - कारकी कृतियाँ नहीं बनतीं । / शेष द्वात्रिंशिकाऍ यदि इन्हीं चार द्वात्रिंशिकाओके कर्ता सिद्धसेनोंमेंसे किसी एक या एकसे अधिक सिद्धसेनोंकी रचनाएँ हैं तो भिन्न व्यक्तित्वके कारण उनमेसे कोई भी सन्मतिकार सिद्धसेनकी कृति नहीं हो सकती । और यदि ऐसा नही है तो उनमेंसे अनेक द्वात्रिंशिकाऍ सन्मतिकार सिद्धसेनकी भी कृति हो सकती हैं, परन्तु हैं और अमुक अमुक हैं यह निश्चितरूपमे उस वक्त तक नहीं कहा जा सकता जब तक इस विषयका कोई स्पष्ट प्रमाण सामने न आ जाए 1)
(७) अब रही न्यायावतारकी बात, यह ग्रन्थ सन्मतिसूत्रसे कोई एक शताब्दीसे भी अधिक बादका बना हुआ है, क्योकि इसपर समन्तभद्रस्वामीक उत्तरकालीन पात्रस्वामी (पात्रकेसरी) जैसे जैनाचार्योंका ही नहीं किन्तु धर्मकीर्ति और धर्मोत्तर जैसे बौद्धाचार्यो का भी स्पष्ट प्रभाव है । डा० हर्मन जैकोबीके मतानुसार धर्मकीर्तिने दिग्नागके प्रत्यक्षलक्षण में-'कल्पनापोढ' विशेषणके साथ 'अभ्रान्त' विशेषणकी वृद्धिकर उसे अपने अनुरूप सुधारा था अथवा प्रशस्तरूप दिया था और इसलिये "प्रत्यक्ष कल्पनापोढमभ्रान्तम्” यह प्रत्यक्षका धमकीर्ति-प्रतिपादित प्रसिद्ध लक्षण है जो उनके न्यायबिन्दु ग्रन्थमे पाया जाता है और जिसमें 'अभ्रान्त' पद अपनी खाम विशेषता रखता है । न्यायावतार के चौथे पद्यमें प्रत्यक्षका लक्षण, अकलङ्कदेवकी तरह 'प्रत्यक्ष विशद ज्ञानं' न देकर, जो "अपरोक्षतयार्थस्य ग्राहक ज्ञानमीश प्रत्यक्षम् ” दिया है और अगले पद्यमें, अनुमानका लक्षण देते हुए, 'तद्भ्रान्त प्रमाणत्वात्समक्षवत् ” वाक्यके द्वारा उसे (प्रत्यक्षको) 'अभ्रान्त' विशेषणसे विशेषित भी सूचित किया हैं उससे यह साफ ध्वनित होता है कि सिद्धसेन के सामने — उनके लक्ष्य में — धर्मकीर्तिका उक्त लक्षण भी स्थित था और उन्होने अपने लक्षण 'ग्राहक' पदके प्रयोग द्वारा जहाँ प्रत्यक्षको व्यवमायात्मक ज्ञान बतलाकर धर्मकीर्तिके 'कल्पनापोढ' विशेषणका निरसन अथवा वेधन किया है वहाँ उनके अभ्रान्त' विशेषणको प्रकारान्तरसे स्वीकार भी किया है । न्यायावतारके टीकाकार सिद्धर्षि भी 'ग्राहक' पदके द्वारा बौद्धो (धर्मकीर्ति) के उक्त लक्षणका निरसन होना बतलाते हैं । यथा
“ग्राहकमिति च निर्णायकं दृष्टव्यं, निर्णयाभावेऽर्थग्रहणायोगात् । तेन यत् ताथागतैः प्रत्यपादि 'प्रत्यक्ष कल्पनापोढमभ्रान्तम्' [ न्या बि ४] इति, तदपास्तं भवति । तस्य युक्तिरिक्तत्वात् ।”
इसी तरह 'त्रिरूपाल्लिङ्गाद्यदनुमेये ज्ञानं तदनुमानं' यह धर्मकीर्तिके अनुमानका लक्षण है । इसमें 'त्रिरूपात्' पदके द्वारा लिङ्गको त्रिरूपात्मक बतलाकर अनुमान के साधारण
देखो, 'समराइच्चकहा' की जैकोबीकृत प्रस्तावना तथा न्यायावतारकी डा. पी एल. वैद्यकृत प्रस्तावना | " प्रत्यक्ष कल्पनापोढ नामजात्याद्यसंयुतम् । ” (प्रमाण समुच्चय ) ।
“प्रत्यक्ष कल्पनापोढ यज्ज्ञान नामजात्यादिकल्पनारहितम् ।” (न्यायप्रवेश) ।