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पुरातन जैनवाक्य-सूची
लक्षणको एक विशेषरूप दिया गया है । यहाँ इस अनुमानज्ञानको अभ्रान्त या भ्रान्त ऐसा कोई विशेषण नहीं दिया गया, परन्तु न्यायविन्दुकी टीकामें धर्मोत्तरने प्रत्यक्ष - लक्षणकी व्याख्या करते और उसमे प्रयुक्त हुए 'अभ्रान्त' विशेषरणकी उपयोगिता बतलाते हुए “भ्रान्तं ह्यनुमानम्” इस वाक्यके द्वारा अनुमानको भ्रान्त प्रतिपादित किया है । जान पडता है इस सबको भी लक्ष्यमे रखते हुए ही सिद्धसेनने अनुमानके “साध्याविनाभुनो (वो) लिङ्गात्साध्य निश्चायकमनुमानं " इस लक्षणका विधान किया है और इसमे लिङ्गका 'साध्याविनाभावी' ऐसा एकरूप देकर धर्मकीर्तिके 'त्रिरूप' का - पक्षधर्मत्व, सपक्षेमत्व तथा विपक्षासत्वरूपका निरसन किया है। साथ ही, 'तदभ्रान्तं समक्षवत्' इस वाक्य की योजनाद्वारा अनुमानको प्रत्यक्षकी तरह अभ्रान्त बतलाकर बौद्धोकी उसे भ्रान्त प्रतिपादन करनेवाली उक्त मान्यताका खण्डन भी किया है । इसी तरह "न प्रत्यक्षमपि भ्रान्तं प्रमाणत्वविनिश्वयात्” इत्यादि छठे पद्यमे उन दूसरे बौद्धोंकी मान्यताका खण्डन किया है जो प्रत्यक्षको भ्रान्त नहीं मानते। यहाॅ लिङ्गके इस एकरूपका और फलतः अनुमानके उक्त लक्षणका आभारी पात्र स्वामीका वह हेतुलक्षण है जिसे न्यायावतारकी व कारिकामे “अन्यथानुपपन्नत्वं हेतोर्लक्षणमीरितम्” इस वाक्यके द्वारा उद्धृत भी किया गया है और जिसके आधारपर पात्रस्वामी बौद्धोके त्रिलक्षणहेतुका कदर्थन किया था तथा त्रिलक्षणकदर्थन '' नामका एक स्वतन्त्र अन्य ही रच डाला था, जो आज अनुपलब्ध है परन्तु उसके प्राचीन उल्लेख मिल रहे हैं । विक्रमकी वी - हवी शताब्दो के बौद्ध विद्वान् शान्तरक्षितने तत्त्वसग्रहमे त्रिलक्षणकदर्थन सम्बन्धी कुछ श्लोकोको उद्धृत किया है और उनके शिष्य कमलशीलने टोकामे उन्हें "अन्यथेत्यादिना पात्रस्वामिमतमाशङ्कते " इत्यादि वाक्योंके साथ दिया है । उनमेसे तीन श्लोक नमूनेके तौरपर इस प्रकार है—
अन्यथानुपपन्नत्वे ननु दृष्टा सुहेतुता । नाऽसति त्र्यंशकस्याऽपि तस्मात् क्लीवा खिलक्षणाः ।। १३६४ ।। अन्यथानुपपन्नत्व यस्य तस्यैव हेतुता । दृष्टान्तो द्वावपिस्ता वा मावा तो हि न कारणम् ||१३६८ || अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ' । नान्यथानुपपन्नत्व यत्र तत्र त्रियेण किम् ? ।। १३६६ ।।
'इनमेसे तीसरे पद्यको विक्रमकी ७वीं-टवी शताब्दीके' विद्वान् अकलङ्कदेवने अपने 'न्यायविनिश्चय' ( कारिका ३२३ ) मे अपनाया है और सिद्धिविनिश्चय ( प्र० ६ ) में इसे स्वामीका अमलालीढ पद प्रकट किया है तथा वादिराजने न्यायविनिश्चय-विवरणमे इस पद्यको पात्रकेसरीसे सम्बद्ध अन्यथानुपपत्तिवार्तिक' बतलाया है । '
धर्मकीर्तिका समय ई० सन् ६२५ से ६५० अर्थात् विक्रमकी ७वीं शताब्दीका प्रायः चतुर्थ चरण, धर्मोत्तरका समय ई० सन् ७२५ से ७५० अर्थात् विक्रमकी ८वीं शताब्दीका प्रायः चतुर्थ चरण और पात्रस्वामीका समय विक्रमकी वीं शताब्दीका प्रायः तृतीय चरण पाया । जाता है, क्योकि वे अकलङ्कदेवसे कुछ पहले हुए है । तब सन्मतिकार सिद्धसेनका समय वि० सवत् ६६६से पूर्वका सुनिश्चित है जैसा कि अगले प्रकरण मे स्पष्ट करके बतलाया
महिमा स पात्रकेसरिगुरोः पर भवति यस्य भक्तयासीत् । पद्मावती सहाया त्रिलक्षणकदर्थन कर्त्तुम् ॥ - मल्लिषेण प्रशस्ति ( श्र० शि० ५४ ) २ विक्रमसवत् ७०० में अकलङ्कदेवका बौद्धोंके साथ महान् वाद हुआ है, जैसा कि श्रकलङ्कचश्तिके निम्न पद्यसे प्रकट है -
विक्रमार्क-शकाब्दीय शतसप्त प्रमाजुषि । कालेऽकलङ्क -यतिनो बौद्ध र्वादो महानभूत ॥