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प्रस्तावना
जेण विया लोगस्स वि ववहारो सव्वहा ग णिव्वडह ।
तस्स भुवणेक्कगुरुणो णमो अगंतवास्स ॥ ६६॥
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इसमें बतलाया है कि 'जिसके विना लोकका व्यवहार भी सर्वथा बन नहीं सकता उस लोकके अद्वितीय (असाधारण) गुरु अनेकान्तवादको नमस्कार हो ।' इस तरह जो अनेकान्तवाद इस सारे ग्रंथकी आधार - र - शिला है और जिसपर उसके कथनोंकी ही पूरी प्राण-प्रतिष्ठा ही अवलम्बित नहीं है बल्कि उस जिनवचन, जैनागम अथवा जैनशासनकी भी प्राण-प्रतिष्ठा अवलम्बित है जिसकी अगली (अन्तिम) गाथामें मंगल कामना की गई है और ग्रंथकी पहली (आदिम) गाथामें जिसे 'सिद्धशासन' घोषित किया गया है, उसीकी गौरव-गरिमाको इस गाथामे अच्छे युक्तिपुरस्सर ढंगसे प्रदर्शित किया गया है। और इस लिये यह गाथा अपनी कथनशैली और कुशल - साहित्य - योजनापर से ग्रंथका अंग होने के योग्य जान पड़ती है तथा मंथकी अन्त्य मंगल - कारिका मालूम होती है । इसपर एकमात्र अमुक टीकाके न होने से ही यह नहीं कहा जा सकता कि वह मूलकार के द्वारा योजित न हुई होगी, क्योंकि दूसरे ग्रंथोंकी कुछ टीकाए ऐसी भी पाई जाती हैं जिनमे से एक टीकामे कुछ पद्य मूलरूप में टीका सहित हैं तो दूसरी मे वे नहीं पाये जाते / और इसका कारण प्रायः टीकाकार को ऐसी मूल प्रतिका ही उपलब्ध होना कहा जा सकता है जिसमे वे पद्य न पाये जाते हों । दिगम्बराचार्य सुमति (सन्मति ) देवकी टीका भी इस ग्रंथपर बनी है, जिसका उल्लेख वादिराज ने अपने पार्श्वनाथचरित ( शक सं० ६४७ ) के निम्न पद्यमे किया है :नमः सन्मतये तस्मै भव-कूप- निपातिनाम् | सुखधाम- प्रवेशिनी ॥
सन्मतिर्धिवृता येन
यह टीका अभी तक उपलब्ध नहीं हुई— खोजका कोई खास प्रयत्न भी नहीं हो सका। इसके सामने आनेपर उक्त गाथा तथा और भी अनेक बातोंपर प्रकाश पढ़ सकता है, क्योंकि यह टीका सुमतिदेवकी कृति होनेसे ११वीं शताब्दी के श्वेताम्बरीय आचार्य अभयदेवकी टीकासे कोई तीन शताब्दी पहले की बनी हुई होनी चाहिये । श्वेताम्बराचार्य मल्लवादी की भी एक टीका इस ग्रंथपर पहले बनी है, जो आज उपलब्ध नहीं है और जिसका उल्लेख हरिभद्र तथा उपाध्याय यशोविजयके ग्रंथो में मिलता है
इस ग्रथमे, विचारको दृष्टि प्रदान करनेके लिये, प्रारम्भसे ही द्रव्यार्थिक (द्रव्यास्तिक) और पर्यायार्थिक (पर्यायास्तिक) दो मूल नयोंको लेकर नयका जो विषय उठाया गया वह प्रकारान्तरसे दूसरे तथा तीसरे काण्ड मे भी चलता रहा है और उसके द्वारा नयवादपर अच्छा प्रकाश डाला गया है। यहाँ नयका थोड़ा-सा कथन नमूने के तौर पर प्रस्तुत किया जाता है, जिससे पाठकोंको इस विषय की कुछ झॉकी मिल सके :
प्रथम काण्डमे दोनों नयोंके सामान्य- विशेषविपयको मिश्रित दिखलाकर उस मिश्रितपनाकी चर्चाका उपसंहार करते हुए लिखा है -
दव्यति तम्हा णत्थि नियम सुद्धजाई ।
ण य पज्जवडिओ णाम कोई भयणाय उ विमेो ॥ ६ ॥
१ जैसे समयसारादि ग्रन्थोंकी श्रमृतचन्द्रसूरिकृत तथा जयसेनाचार्यकृत टीकाएँ, जिनमें कतिपय गाथान्यूनाधिकता पाई जाती है ।
२ “उक्तं च वादिमुख्येन श्रीमल्लवादिना सम्मतौ ” ( श्रनेकान्तजयपताका )
"इद्दार्थे कोटिशा भङ्गा पिदिष्टा मल्लवादिना ।
मूलसम्मति टीकायामिद दिमात्रदर्शनम् ॥" - ( ट स ह सी - टिप्पण) स० प्र० पृ०४०