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प्रस्तावना
= = १. ग्रन्थकी योजना और उसकी उपयोगिता
साहित्यिक और ऐतिहासिक अनुसन्धान अथवा शोध-खोज-विषयक कार्योंके लिये जिन
" सूचियों या टेविल्स ( Tables) की पहले जरूरत पड़ती है उनमे ग्रन्थोंकी अकारादिक्रमसे वाक्य-सूचियाँ-पद्यानुक्रमणियाँ (श्लोकाऽनुक्रमणिकाएँ)-अपना प्रधान स्थान रखती हैं। इनके विना ऐसे रिसर्च-स्कॉलरका काम प्रगति ही नहीं कर सकता । इसीसे अक्सर रिसर्च-स्कॉलरोको ये सूचियाँ अपनी अपनी आवश्यकतानुसार स्वयं अपने हाथसे तय्यार करनी होती हैं और ऐसा करने मे शक्ति तथा समयका बहुत कुछ व्यय करना पड़ता है; क्योंकि हस्तलिखित ग्रन्थों मे तो ये सूचियाँ होती ही नहीं और मुद्रित प्रथोंमे भी इनका प्रायः अभाव रहा है-कुछ कुछ ऐसे ग्रन्थोंके साथ ही वे हाल में लग पाई हैं जिनके सम्पादन तथा प्रकाशनके साथ ऐसे रिसर्च स्कॉलरोंका यथेष्ट सम्पर्क रहा है जो इन सूचियोकी उपयोगिताको भले प्रकार महसूस करते हैं । चुनाँचे जैनसाहित्य और इतिहासके क्षेत्रमें जब मैंने कदम रक्खा तो मुझे पद-पदपर इन सूचियोंका अभाव खटकने लगा-किसी ग्रन्थमे उद्धत, सम्मिलित अथवा'उक्तं च' आदि रूपसे प्रयुक्त अनेक पद्योंके मूलस्रोतकी खोज में कभी कभी मेरे घंटे ही नहीं, किन्तु दिन तथा सप्ताह तक समाप्त हो जाते थे और बड़ी परेशानी उठानी पड़ती थी, अतः अपने उपयोगके लिये मैंने जीवनमे पचासों संस्कृत-प्राकृत ग्रन्थोंकी ऐसी वाक्य-सूचियाँ स्वयं तय्यार की तथा कराई हैं। और जव मुझे निर्णयसागरादि-द्वारा प्रकाशित किसी किसी ग्रन्थके साथ ऐसी पद्यानुक्रमणी लगी हुई मिलती थी तो उसे देखकर बड़ी प्रसन्नता होती थी। कितने ही ग्रन्थोंमे मैंने स्वय प्रेरणा करके पद्यसूचियाँ लगवाई हैं । अनगारधर्मामत ग्रन्थ मेरे पास बाइंडिंग होकर आगया था, जब मैंने देखा कि उसमें मूलपथकी तथा टीकामे आए हुए 'उक्तं च' आदि वाक्योंकी कोई भी अनुक्रमणी नहीं लगी है तब इस टिकी ओर सुह द्वर पं० नाथूरामजीका ध्यान आकपित किया गया, उन्होने मेरी बातको मान लिया और प्रथके बाइंडिगको रुकवाकर पद्यानुक्रमणिकाओंको तय्यार कराया तथा छपवाकर उन्हें प्रथके साथ लगाया। इन वाक्यसूचियोके तैयार करने-करानेमे जहाँ परिश्रम और द्रव्य खर्च होता है वहाँ इन्हें छपाकर साथमे लगानेसे प्रथकी लागत भी बढ़ जाती है, इसीसे ये अक्सर उपेक्षाका विषय बन जाती हैं और यही वजह है कि आदिपुराण, उत्तरपुराण, हरिवशपुराण, पद्मपुराण, यशस्तिलकचम्पू और श्लोकवार्तिक जैसे बड़े बड़े प्रथ विना पद्यसूचियोंके ही प्रकाशित हो गए हैं, जो ठीक नहीं हुआ। इन ग्रंथों के सैकड़ों-हजारों पद्य दूसरे ग्रंथोंमे पाए जाते हैं और ऐसे प्रथों में भी पाये जाते हैं जिन्हें पूर्वाचार्यों के नामपर निर्मित किया गया है और जिनका कितना ही पता मुझे प्रथपरीक्षाओं के समय लगा है। यदि ये ग्रन्थ पद्यानुक्रमणियोको साथमें ‘लिये हुए होते तो इनसे अनुसंधानकार्यमें बड़ी सहायता मिलती। अस्तु । १ ये ग्रन्थपरीक्षाएँ चार भागोंमें प्रकाशित होचुकी हैं, जिनमें क्रमशः (१) उमास्वामि-श्रावकाचार, कुन्दकुन्द-श्रावकाचार, जिनसेन-त्रिवर्णाचार, (२) भद्रबाहु-सहिता, (३) सोमसेन-त्रिवर्णाचार, धर्मपरीक्षा (श्वेताम्बरी) अकलक-प्रतिष्ठापाठ, पूज्यपाद-उपासकाचार, और (३) सूर्यप्रकाश नामक ग्रन्योंकी परीक्षाएँ हैं। उमास्वामिभावकाचार-परीक्षाका अलग संस्करण भी परीक्षा-लेखोंके इतिहास-सहित प्रकाशित हो गया है।