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पुरातन-जैनवाक्य-सूची कुछ वर्ष हुए जव मैंने धवल और जयधवल नामक सिद्धान्त-ग्रंथों परसे उनका परिचय प्राप्त करनेके लिये एक हजार पेजके करीव नोट स लिये थे । इन नोटों में 'उक्त च' श्रादि रूपसे आए हुए सैकड़ो पद्य ऐसे संगृहीत हैं जिनके स्थलादिका उक्त सिद्धान्त-ग्रंथों में कोई पता नहीं है और इसलिये 'धवलादिश्रु तपरिचय' नामसे इन ग्रंथोंका परिचय निकालने का विचार करते हुए मेरे हृदयमे यह वात उत्पन्न हुई कि इन 'उक्तं च' आदि रूपसे उधृत वाक्योके विषयमे, जो नोटके समयसे ही मेरी जिज्ञासाका विपय बने हुए है, यह खोज होनी चाहिये कि वे किस किस ग्रंथ अथवा आचार्यके वाक्य है। दोनों ग्रंथों में कुछ वाक्य तिलोयपएणत्ती' के स्पष्ट नामोल्लेखके साथ भी उद्धत हैं और इससे यह खयाल पैदा हुआ कि इस महान् ग्रंथके और भी वाक्य विना नामके ही इन प्रथोमे उद्धृत होने चाहिये, जिनका पता लगाया जावे । पता लगानेके लिये इससे अच्छा दूसरा कोई साधन नहीं था कि 'तिलोयपएणत्ती के वाक्योकी पहले अकारादि क्रमसे अनुक्रमणिका तैयार कराई जाय; क्योंकि वह आठ हजार श्लोक-जितना एक बड़ा ग्रंथ है, उसको हस्तलिखित प्रतियोंपरसे किसी वाक्यविशेषका पता लगाना आसान काम नहीं है । तदनुसार वनारसके स्याद्वादमहाविद्यालयसे तिलोयपएएत्तीको प्रति मॅगाई गई और उसके गाथा-वाक्योको काों पर नोट करनेके लिये पं० ताराचन्दजी न्यायतीर्थको योजना की गई। परन्तु बनारसकी यह प्रति वेहद अशुद्ध थी और इसलिये इसपरसे एक कामचलाऊ पद्यानुक्रमणिकाको ठीक करनेमे मुझे बहुत ही परिश्रम उठाना पड़ा है। दूसरी प्रति देहली धर्मपुराक नये मन्दिरसे बा० पन्नालालजीकी मार्फत और तीसरी प्रति बा० कपूरचन्दजीको मार्फत आगराके मोतीक्टराके मन्दिरसे मॅगाई गई । ये दोनो प्रतियाँ उत्तरोत्तर पहुत कुछ शुद्ध रहीं और इस तरह तिलोयपएणत्तीकी एक अनुक्रमणिका जैसे तैसे ठीक होगई और उससे धवलादिके कितने ही पधोका नया पता भी चला है। इसके बाद और भी कुछ ग्रंथोंकी नई अनुक्रमणिकाएँ वीरसेवामन्दिरमे तैयार कराई गई हैं। और ये सब सूचियाँ अनुसन्धानकार्योमे अपने बहुत काम आती रही हैं।
- अपने पासकी इन सब पद्यानुक्रम-सूचियोका पता पाकर कितने ही दूसरे विद्वान भी इनसे यथावश्यकता लाभ उठाते रहे हैं-अपने कुछ पद्योको भेजकर यह मालूम करते रहे हैं कि क्या उनमें से किसी पद्यका इन अनुक्रमसूचियोंसे यह पता चलता है कि वह अमुक ग्रंथका पद्य है अथवा अमुक ग्रंथमें भी पाया जाता है। इन विद्वानोमे प्रोफेसर ए० एन० उपाध्येजी एम० ए० कोल्हापुर, प्रो० हीरालालजी एम० ए० अमरावती, पं० नाथूरामजी प्रेमी वम्बई, और पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचायके नाम खास तौरसे उल्लेखनीय हैं। कुछ विद्वानोंने तो इन वाक्यसूचियोमेंसे कईकी स्वयं कापियां भी की हैं तथा कराई हैं।
___ पुरातनवाक्यसूचियोंकी उपयोगिता और विद्वानोके लिये उनकी जरूरतको अनुभव करते हुए यह विचार उत्पन्न हुआ कि इन्हें प्राकृत और संस्कृतके दो विभागोंमे विभाजित करके यथाक्रम वोरसेवामन्दिरसे ही प्रकाशित कर देना चाहिये, जिससे सभी विद्वान् इनसे यथेष्ट लाभ उठा सकें । तदनुसार पहले प्राकृत-विभागको निकालनेका विचार स्थिर हुआ । इस विभागमें यदि अलग अलग ग्रंथक्रमसे ही प्रस्तुत संग्रह कर दिया जाता तो यह कभीका प्रकाशित होजाता; क्योंकि उस समय जो सूचियाँ तैयार थीं उन्हें हो अथक्रम डालकर प्रेसमें दे दिया जाता । परन्तु साथमें यह भी विचार उत्पन्न हुआ कि जिन ग्रंथोंके वाक्योका संग्रह . करना है उनका ग्रंथवार अनुक्रम न रखकर सबके वाक्योंका अकारादि-क्रमसे एक ही जनरल अनुक्रम तैयार किया जाय, जिससे विद्वानोंकी शक्ति और समयका यथेष्ट संरक्षण हो सके; क्योंकि अक्सर ऐसा देखने में आया है कि किसी भी एक वाक्यके अनुसंधानके लिये पचासों ग्रंथोंकी वाक्यसूचियोको निकालकर टटोलने अथवा उनके पन्ने पलटनेमे बहुत कुछ समय तथा शक्तिका व्यय हो जाता है और कभी कभी तो चित्त अकुला जाता है; जनरल अनुक्रममे