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प्रस्तावना
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“असिद्ध इत्यादि, स्वलक्षणैकान्तस्य साधने सिद्धावङ्गीक्रियमानाया सर्वो हेतुः सिद्धसेनस्य भगवतोऽसिद्धः। कथमिति चेदुच्यते । ततः सूक्तमेकान्तसाधने हेतुरसिद्धः सिद्धसेनस्येति । कश्चित्स्वयूथ्योऽत्राह—सिद्धसेनेन क्वचित्तस्याऽसिद्धस्याऽवचनादयुक्तमेतदिति । तेन कदाचिदेतत् श्र त—‘जे सतवायदोसे सक्कोल्ल्या भांति सखाणं । सखा य सव्वाए तेसिं सव्वे वि ते सच्चा' ॥” इन्हीं सब बातोको लक्ष्यमे रखकर प्रसिद्ध श्वेताम्बर विद्वान् स्वर्गीय श्रीमोहनलाल दलीचन्द देशाई बीए. ए, एल-एल. वी. एडवोकेट हाईकोर्ट बम्बईने, अपने 'जैन - साहित्यनो सक्षिप्त इतिहास' नामक गुजराती ग्रन्थ (पृ. ११६ ) मे लिखा है कि “सिद्धसेनसूरि प्रत्येनो आदर दिगम्बरो विद्वानोमा रहेलो देखाय छे” अर्थात् (सन्मतिकार) सिद्धसेनाचार्य प्रि दिगम्बर विद्वानोंमे रहा दिखाई पड़ता है - श्वेताम्बरोमें नही । साथ ही हरिवंशपुराण, राजवार्तिक, सिद्धिविनिश्चय-टीका, रत्नमाला, पार्श्वनाथचरित और एकान्तखण्डन-जैसे ग्रन्थों तथा उनके रचयिता जिनसेन, अकलङ्क, अनन्तवीर्य, शिवकोटि, वादिराज और लक्ष्मीभद्र(धर) जैसे दिगम्बर विद्वानोंका नामोल्लेख करते हुए यह भी बतलाया है कि 'इन दिगम्बर विद्वानोने सिद्धसेनसूरि-सम्बन्धी और उनके सन्मतितर्क-सम्बन्धी उल्लेख भक्तिभाव से किये हैं. और उन उल्लेखोसे यह जाना जाता है कि दिगम्बर ग्रन्थकारोंमे घना समय तक सिद्धसेन के (रक्त) ग्रन्थका प्रचार था और वह प्रचार इतना अधिक था कि उसपर उन्होंने टीका भी रची है ।
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इस सारी परिस्थितिपरसे यह साफ समझा जाता और अनुभवमें आता है कि सन्मतिसूत्रके कर्ता सिद्धसेन एक महान दिगम्बराचार्य थे, और इसलिये उन्हे श्वेताम्बर - परम्पराका अथवा श्वेताम्बरत्वका समर्थक आचार्य बतलाना कोरी कल्पनाके सिवाय और कुछ भी नहीं है । वे अपने प्रवचन - प्रभाव आदिके कारण श्वेताम्बरसम्प्रदायमे भी उसी प्रकार से अपनाये गये हैं जिस प्रकार कि स्वामी समन्तभद्र, जिन्हें श्वेताम्बर पट्टावलियोमें पट्टाचार्य तकका पद प्रदान किया गया है और जिन्हें प० सुखलाल, प० बेचरदास और मुनि जिनविजय आदि बड़े-बड़े श्वेताम्बर विद्वान् भी अब श्वेताम्बर न मानकर दिगम्बर मानने लगे हैं ।
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कतिपय द्वात्रिंशिकाओके कर्ता सिद्धसेन इन सन्मतिकार सिद्धसेन से भिन्न तथा पूर्ववर्ती दूसरे ही सिद्धसेन हैं, जैसा कि पहले व्यक्त किया जा चुका है, और सम्भवतः वे ही उज्जयिनीके महाकालमन्दिरखाली घटनाके नायक जान पड़ते हैं। हो सकता है कि वे शुरूसे श्वेताम्बर सम्प्रदाय में ही दीक्षित हुए हो, परन्तु श्वेताम्बर आगमोंको सस्कृतमें कर देने का विचारमात्र प्रकट करनेपर जब उन्हें बारह वर्ष के लिये सघबाह्य करने जैसा कठोर दण्ड दिया गया हो तब वे सविशेषरूपसे दिगम्बर साधुओं के सम्पर्क में आए हों, उनके प्रभावसे प्रभावित तथा उनके सस्कारों एवं विचारोंको ग्रहण करनेमें प्रवृत्त हुए हो - खासकर समन्तभद्रस्वामी के जीवनवृत्तान्तों और उनके साहित्यका उनपर सबसे अधिक प्रभाव पडा हो और इसी लिये वे उन्हीं जैसे स्तुत्यादिक कार्योंके करने में दत्तचित्त हुए हों। उन्हींके सम्पर्क एव सस्कारोंमे रहते हुए हो सिद्धसेनसे उज्जयिनीकी वह महाकालमन्दिरवाली घटना बन पडी हो, जिससे उनका प्रभाव चारों ओर फैल गया हो और उन्हें भारी राजाश्रय प्राप्त हुआ हो । यह सब देखकर ही श्वेताम्बरसघको अपनी भूल मालूम पडी हो, उसने प्रायश्चित्तकी शेष अवधिको रद्द कर दिया हो और सिद्धसेनको अपना ही साधु तथा प्रभावक आचार्य घोषित किया हो । अन्यथा, द्वात्रिंशिका परसे सिद्धसेन गम्भीर विचारक एव कठोर समालोचक होने के साथ साथ जिस उदार स्वतन्त्र और निर्भय - प्रकृतिके समर्थ विद्वान् जान पड़ते हैं उससे यह आशा नहीं की जा मकती कि उन्होंने ऐसे अनुचित एव अविवेकपूर्ण दण्डको यो ही चुपके से गर्दन झुका कर मान लिया हो, उसका कोई प्रतिरोध न किया हो अथवा अपने लिये