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पुरातन-जैनवाक्य-सूची आराके उक्त भवनमे एक दूसरी प्रति भी है, जिसमे तीन गाथाएं और अधिक हैं और चे इस प्रकार हैं:
तिन्थसमे णिधिमिच्छे बद्धाउसि माणुमीगदी एग । मणुवणिरयाऊ भंगु पज्जत्ते भुज्जमाणणिरयाऊ ॥१५॥ णिरयदुगं तिरियदुगं विगतिगचउरक्खजादि थीणतियं । . उज्जोवं श्रादाविगि साहारण सुहुम थावरयं ॥३६॥ मझड कसाय संढं थीवेदं हस्सपमुहलकमाया ।
पुरिसो कोहो मायो अणियट्टी भागहीणपयडीओ ॥४०॥ (हालमे उक्त सत्वस्थानकी एक प्रति संवत् १८०७ को लिखी हुई मुझे पं० परमानन्दजीके पाससे देखनेको मिली जो दूसरे त्रिभंगी आदि प्रथोंके साथ सवाई जयपुर में लिखी गई एक पत्राकार प्रति है और जिसके अन्तमे ग्रन्थका नाम 'विशेषसत्तात्रिभंगी' दिया है। इस प्रथप्रतिमे गाथा-संख्या कुल ४१ है, अतः इस प्रतिके अनुसार गोम्मटसारके उक्त अधिकारमे केवल एक गाथा ही छूटी हुई है और वह ‘णारकछक्कल्वेल्ले' नामका गाथा (क० ३७०) के अनन्तर इस प्रकार है.
सिरियाऊ तिरयाऊ गिरिय-गराऊ तिरय-मणुवायु ।
तेरंचिय-देवाऊ माणस-देवाउ एगेगं ॥ १५ ॥ शेष गाथाओका क्रम प्राराकी प्रतिके अनुरूप ही है, और इससे गोम्मटसारमे किये गये क्रमभेदकी बातको और भी पुष्टि मिलती है।
यहाँ पर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि सत्वस्थान अथवा सत्व (सत्ता)त्रिभंगीकी उक्त प्रतियोंमें जो गाथाओंकी न्यूनाधिकता पाई जाती है उनके तीन कारण हो सकते हैं-(१) एक तो यह कि, मूलमे आचार्य कनकनन्दीने प्रथको ४० या ४१ गाथा-जितना ही निर्मित किया हो, जिसकी कापियाँ अन्यत्र पहुंच गई हों और वादको उन्होंने उसमे कुछ गाथाएं और बढ़ाकर उसे विस्तरसत्वत्रिभंगी' का रूप उसी प्रकार दिया हो जिस प्रकार द्रव्यसंग्रहके कर्ता नेमिचन्द्रने, टीकाकार ब्रह्मदेवके कथनानुसार, अपनी पूर्व-रचित २६ गाथाओंमे ३२ गाथाओकी वृद्धि करके उसे वर्तमान-द्रव्यसग्रहका रूप दिया है। और यह कोई अनोखी अथवा असभव बात नहीं है, आज भी ग्रन्थकार अपने प्रथोंके सशोधित और परिवर्धित संस्करण निकालते हुए देखे जाते हैं । (२) दूसरा यह कि बादको अन्य विद्वानोने अपनी-अपनी प्रतियोंमे कुछ गाथाओंको किसी तरह बढ़ाया अथवा प्रक्षिप्त किया हो। परन्तु इस वाक्यसूची के दूसरे किसी भी मूल प्रथमें उक्त बारह गाथा
ओमेसे कोई गाथा उपलब्ध नहीं होती, यह बात खास तौरसे नोट करने योग्य है।/। और (३) तीसरा कारण यह कि प्रतिलेखकोंके द्वारा लिखते समय कुछ गाथाए छूट गई हा, जैसा कि बहुघा देखनेमे आता है। (ग) प्रकृतिसमुत्कीर्तन और कर्मप्रकृति
इस ग्रंथके कर्मकाण्डका पहला अधिकार पयडिसमुक्त्तिण' (प्रकृतिसमुत्कीतन) नामका है, जिसमे मुद्रित प्रतिके अनुसार ८६ गाथाएं पाई जाती हैं । इस अधिकारको जव १ देखो, ब्रह्मदेव-कृत टीकाकी पीठिका । २ सूचीके समय पृथकपमें इस सत्वत्रिभो ग्रंथकी कोई प्रति अपने सामने नहीं थी और इसीसे इसके वाक्योंको सूचीमें शामिल नहीं किया जा सका। उन्हें अब यथास्थान बढाया जा सकता है।