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प्रस्तावना पढ़ते हैं तो अनेक स्थानों पर ऐसा महसूस होता है कि वहाँ मूलग्रंथका कुछ अंश त्रुटित है-छूट गया अथवा लिखनेसे रह गया है-, इसीसे पूर्वाऽपर कथनोकी सगति जैसी चाहिये वैसी ठीक नहीं बैठतो और उससे यह जाना जाता है कि यह अधिकार अपने वर्तमान रूप में पूर्ण अथवा सुव्यवस्थित नहीं है । अनेक शास्त्र-भंडारोंमे कर्मप्रकृति (कम्मपयडी), प्रकृतिसमुत्कीर्तन, कर्मकाण्ड अथवा कर्मकाण्डका प्रथम अंश जैसे नामों के साथ एक दुसरा अधिकार (प्रकरण) भी पाया जाता है, जिसकी सैकड़ोप्रतियाँ उपलब्ध हैं औरजो उस अधिकारके अधिक प्रचारका द्योतन करती हैं। साथ ही उसपर टीका-टिप्पण भी उपलब्ध है/
और उनपरसे उसकी गाथा-संख्या १६० जानी जाती है तथा ग्रंथ-कर्ताका नाम 'नेमिचन्द्र निद्धान्तचक्रवर्ती भी उपलब्ध होता है । उसमे ७५ गाथाएँ ऐसी हैं जो इस अधिकारमे नहीं पाई जातीं। उन बढ़ी हुई गाथाओंमेसे कुछ परसे उन अंशोंकी पूर्ति हो जाती है जो टित समझे जाते हैं और शेषपरसे विशेष कथनोकी उपलब्धि होती है। और इसलिये पं० परमानन्दजी शास्त्रीने 'गोम्मटसार कर्मकाण्डकी त्रुटि-पूर्ति' नामका एक लेख लिखा, जो अनेकान्त वर्ष ३ किरण ८-६ में प्रकाशित हुआ है और उसके द्वारा त्रुटियोंको तथा कर्मप्रकृतिकी गाथाओंपरसे उनकी पूर्तिको दिखलाते हुए यह प्रेरणा की कि कमप्रकृति की उन बढ़ी हुई गाथाओंको कर्मकाएडमें शामिल करके उसकी त्रुटिपूर्ति कर लेनी चाहिये। यह लेख जहाँ पण्डित कैलाशचन्द्रजी आदि अनेक विद्वानोंको पसन्द आया वहाँ प्रो० हीरालालजी एम० ए० आदि कुछ विद्वानोंको पसन्द नहीं आया, और इसलिये प्रोफेसर साहबने इसके विरोधमे पं० फूलचन्दजी शास्त्री तथा पं० हीरालालजी शास्त्रीके सहयोगसे एक लेख लिखा, जो 'गो० कर्मकाण्डकी त्रुटिपर विचार' नामसे अनेकान्तके उसी वर्षकी किरण ११ मे प्रकट हुआ है और जिसमें यह बतलाया गया है कि 'उन्हें कर्मकाण्ड अधूरा मालूम नहीं होता, न उससे उतनी गाथाओंके छूट जाने व दूर पड जानेकी संभावना जॅचता है और न गोम्भटसारके कता-द्वारा ही कर्मप्रकृतिके रचित होनेके कोई पर्याप्त प्रमाण दृष्टिगोचर होये हैं, ऐसी अवस्थामे उन गाथाओको कमकाण्डमे शामिल कर देनेका प्रस्ताव बड़ा साहसिक प्रतीत होता है।' इसके उत्तरमे पं० परमानन्दजीने दूसरा लेख लिखा, जो अनेकान्तकी अगली १२ वी किरणमे 'गो० कर्मकाण्डकी त्रुटि-पूर्तिके विचार पर प्रकाश' नामसे प्रकाशित हुआ है और जिसमे अधिकारके अधूरेपनको कुछ और स्पष्ट किया गया, गाथाओंके छूटनेकी संभावनाके विरोधका परिहाहर करते हुए प्रकारान्तरसे उनके छूटनेकी .. सभावनाको व्यक्त किया गया और टीका-टिप्पणके कुछ अंशोंको उद्धृत करके यह स्पष्ट करनेका यत्न किया गया कि उनमे ग्रन्थकाकर्ता 'नेमिचन्द्रसिद्धान्ती' 'नेमिचन्द्रसिद्धान्तदेव' ५ (क) संस्कृत टीका भट्टारक ज्ञानभूषणने, जो कि मूलसंघी भ० लक्ष्मीचन्द्र के पट्टशिष्य वीरचन्द्रके वशमें _ हुए हैं, सुमतिकीर्तिके सहयोग से बनाई है और टीकामें मूल ग्रथका नाम 'कर्मकाण्ड' दिया है:
तदन्वये दयाम्भोधिनिभूषो गुणाकर ।
टीका हि कर्मकाण्डस्य चक्रे सुमतिकीर्तियुक् ।। प्रशस्ति (ख) दूसरी भाषा टीका पं० हेमराजकी बनाई हुई है, जिसकी एक प्रति सं० १८२६ की लिखी हुई तिगोडा जि० सागरके नैन मन्दिर में मौजूद है।
(अनेकान्त वर्ष ३, किरण १२ पृष्ठ ७६४) (ग) सटिप्पण-प्रति शाहगढ जि० सागरके सिंधीजीके मन्दिरमें सवत् १५२७ की लिखी हुई है, जिसकी
अन्तिम पष्पिका इस प्रकार है:"इति श्रीनेमिचन्द्र-सिद्धान्त-चक्रवर्ति-विरचित-कर्मकाण्डस्य प्रथोशः समाप्तः । शुभ भवतु लेखकपाठकयोः श्रय सवत् १५२७ वर्षे माधवदि १४ रविवारे।"
(अनेकान्त वर्ष ३, कि० १२ पृ० ७६२-६४)