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________________ १२८ प्रस्तावना आचारात नियुक्ति में दुर्धमानको छोडकर शेष २३ तीर्थंकरोंके तपःकर्मको निरुपसर्ग वर्णित किया है। इससे भी प्रस्तुत कल्याणमन्दिर दिगम्बर कृति होनी चाहिये । I ( प्रमुख श्वेताम्बर विद्वान् पं० सुखलालजी और पं० वेचरदासजीने ग्रंथकी गुजराती प्रस्तावनामै २ विविधतीर्थकल्पको छोडकर शेप पाँच प्रबन्धोका सिद्धसेन - विपयक सार बहुपरिश्रम के साथ दिया है और उसमें कितनी ही परस्पर विरोधी तथा मौलिक मतभेदकी बातोंका भी उल्लेख किया है और साथ ही यह निष्कर्ष निकाला है कि 'सिद्धसेन दिवाकर का नाम मूलमें कुमुदचंद्र नहीं था, होता तो दिवाकर - विशेषणकी तरह यह श्र तिप्रिय नाम भी किसी-न-किसी प्राचीन ग्रंथ में सिद्धसेनकी निश्चित कृति प्रथवा उसके उधृत वाक्योंके साथ जरूर उल्लेखित मिलता - प्रभावकचरितसे पहलेके किसी भी ग्रंथ मे इसका उल्लेख नहीं है । और यह कि कल्याणमन्दिरको सिद्धसेनकी कृति सिद्ध करनेके लिये कोई निश्चित प्रमाण नहीं है, वह सन्देहास्पद है ।' ऐसी हालत मे कल्याणमन्दिरकी बातको यहाँ छोड़ ही दिया जाता है । प्रकृत- विपय के निर्णयमे वह कोई विशेष साधक-बाधक भी नहीं है। अब रही द्वात्रिंशद्वात्रिशिका, सन्मतिसूत्र और न्यायवितारकी बात । न्यायावतार एक ३२ श्लोकोंका प्रमाण-नय- विपयक लघुग्रंथ है, जिसके आदि - अन्त मे कोई मंगलाचरण तथा प्रशस्ति नहीं है, जो आमतौरपर श्वेताम्बराचार्य सिद्धसेनदिवाकर की कृति माना जाता है और जिसपर वे० सिद्धर्षि (सं० ६६२ ) की विवृति और उस विवृतिपर देवभद्रकी टिप्पणी उपलब्ध है और ये दोनो टीकाएं डा० पी० एल० वैद्यके द्वारा सम्पादित होकर सन १६२८ मे प्रकाशित हो चुकी हैं | सन्मतिसूत्रका परिचय ऊपर दिया ही जा चुका है । उसपर अभयदेवसूरिकी २५ हजार श्लोक - परिमाण जो संस्कृतटीका है वह उक्त दोनों विद्वानोंके द्वारा सम्पादित होकर संवत् १९८७ में प्रकाशित हो चुकी है। द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका ३२-३२ पद्योंकी ३२ कृतियाँ बतलाई जाती हैं, जिनमे से २१ उपलब्ध हैं । उपलब्ध द्वात्रिंशिकाएं भावनगरकी जैनधर्मप्रसारक सभाकी तरफसे विक्रम संवत् १९६५ में प्रकाशित होचुकी हैं। ये जिस क्रम से प्रकाशित हुई हैं उसी क्रमसे निर्मित हुई हो ऐसा उन्हें देखनेसे मालूम नहीं होता - वे बाद को किसी लेखक अथवा पाठक द्वारा उस क्रमसे संग्रह की अथवा कराई गई जान पड़ती हैं । इस बातको पं० सुखलालजी आदि ने भी प्रस्तावना मे व्यक्त किया है। साथ ही यह भी बतलाया है कि 'ये सभी द्वात्रिंशिकाएं सिद्धसेनने जैनदीक्षा स्वीकार करनेके पीछे ही रची हों ऐसा नहीं कहा जा सकता, इनमे से कितनी ही द्वात्रिंशिकाएं (बत्ती सियाँ) उनके पूर्वाश्रम में भी रची हुई होसकती हैं।' और यह ठीक है, परन्तु ये सभी द्वात्रिंशिकाएं एक ही सिद्धसेनकी रची हुई हों ऐसा भी नहीं कहा जा सकता; चुनाँचे २१ वीं द्वात्रिंशिका के विषय मे प० सुखलालजी दिने प्रस्तावना मे यह स्पष्ट स्वीकार भी किया है कि 'उसकी भाषा रचना और वर्णित वस्तुकी दूसरी बत्तीसियोंके साथ तुलना करनेपर ऐसा मालूम होता है कि वहु बत्तीसी किसी जुदे ही सिद्धसेनको कृति है और चाहे जिस कार से दिवाकर (सिद्धसेन) की मानी जानेवाली कृतियों में दाखिल होकर दिवाकर के नामपर चढ़ गई है।' इस महावीरद्वात्रिशिका लिखा है। महावीर नामका इसमे उल्लेख भी है, जबकि और किसी १ " सव्वेसि तवो कम्मं निरुवसग्ग तु वशिष्यं जिणाणं । नवरं तु वडमारास्स सोवसग्गं मुणेयव्वं ॥ २७६ ॥” ^5 यह प्रस्तावना ग्रन्थके गुजराती अनुवाद - भावार्थ के साथ सन् १६३२ में प्रकाशित हुई है और अन्यका यह गुजराती संस्करण बादको अग्रेजीमें अनुवादित होकर 'सन्मतितर्क' के नामसे सन् १६३६ में प्रकाशित हुआ है । ३ यह द्वात्रिशिका अलग ही है ऐसा ताडपत्रीय प्रतिसे भी जाना जाता है, जिसमें २० ही द्वात्रिंशिकाएं श्रंकित हैं और उनके अन्त में " ग्रन्थार ८३० मगलमस्तु" लिखा है, जो ग्रन्थकी समाप्ति के साथ उसकी श्लोकसख्याका भी द्योतक है । जैन ग्रन्थावली ( पृ० २८१) गत ताडपत्रीय प्रतिमें भी २० द्वात्रिशिकाएं हैं।
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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