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प्रस्तावना
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द्वात्रिशिकामे 'महावोर' उल्लेख नहीं है - प्रायः 'वीर' या 'वर्द्धमान' नामका ही उल्लेख पाया जाता है । इसकी पद्यसंख्या ३३ है और ३३वें पद्य में स्तुतिका माहात्म्य दिया हुआ है; ये दोनों बातें दूसरी सभी द्वात्रिंशिकाओं से विलक्षण हैं और उनसे इसके भिन्नकर्तृ विकी द्योतक हैं । इसपर टीका भी उपलब्ध है जब कि और किसी द्वात्रिंशिकापर कोई टीका उपलब्ध नहीं है चंद्रप्रभसूरिने प्रभावकचरितमें न्यायावतारकी, जिसपर टीका उपलब्ध है, गणना भी ३२ द्वात्रिंशिकाओं में की है ऐसा कहा जाता है परन्तु प्रभावकचरितमें वैसा कोई उल्लेख नहीं मिलता और न उसका समर्थन पूर्ववर्ती तथा उत्तरवर्ती अन्य किसी प्रबन्धसे ही होता है । टीकाकारोंने भी उसके द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका का अंग होनेकी कोई बात सूचित नहीं की, और इसलिये न्यायावतार एक स्वतंत्र ही ग्रथ होना चाहिये तथा उसी रूप मे प्रसिद्धिको प्राप्त है।
२१ वीं द्वात्रिंशिका के अन्त में 'सिद्धसेन' नाम भी लगा हुआ है, जबकि ५ वीं द्वात्रिशिकाको छोडकर और किसी द्वात्रिंशिका में वह नहीं पाया जाता । हो सकता है कि ये नामवाली दोनों द्वात्रिंशिकाएं अपने स्वरूपपरसे एक नहीं किन्तु दो अलग अलग सिद्धसेनोंसे सम्बन्ध रखती हों और शेष विना नामवाली द्वात्रिंशिकाएं इनसे भिन्न दूसरे ही सिद्धसेन अथवा सिद्धसेनोंकी कृतिस्वरूप हों । पं० सुखलालजी और पं० बेचरदासजीने पहली पाँच द्वात्रिंशिकाओं को, जो वीर भगवानकी स्तुतिपरक हैं, एक ग्रूप ( समुदाय) में रक्खा है और उस ग्रूप ( द्वात्रिंशिका पंचक) का स्वामी समन्तभद्रके, स्वयम्भूस्त्रोत्र के साथ साम्य घोषित करके तुलना करते हुए लिखा है कि स्वयम्भूस्तोत्रका प्रारम्भ जिस प्रकार स्वयम्भू शब्द से होता है और अन्तिम पद्य (१४३) मे ग्रन्थकारने श्लेषरूपसे अपना नाम समन्तभद्र सूचित किया है उसी प्रकार इस द्वात्रिशिकापंचकका प्रारम्भ भी स्वयम्भू शब्द से होता हैं और उसके अन्तिम पद्य (५, ३२) में भी ग्रंथकारने श्लेषरूपमे अपना नाम सिद्धसेन दिया है ।" ( इससे शेष १५ द्वात्रिंशिकाएं भिन्न प्रूप अथवा पोंसे सम्बन्ध रखती हैं और उनमे प्रथम प्रूपकी पद्धतिको न अपनाये जाने अथवा अन्ते प्रथकारका नामोल्लेख तक न होनेके कारण वे दूसरे सिद्धसेन या सिद्धसेनोंकी कृतियाँ भी हो सकती हैं । उनमे से ११ वीं किसी राजाकी स्तुतिको लिये हुए हैं, छठी तथा आठवीं समीक्षात्मक हैं और शेष बारह दार्शनिक तथा वस्तुचर्चा वाली हैं।
इन सब द्वात्रिंशिकाओंके सम्बन्धमें यहाँ दो बातें और भी नोट किये जाने के योग्य - एक यह कि द्वात्रिंशिका (बत्तीसी) होने के कारण जब प्रत्येककी पद्यसख्या ३२ होनी चाहिये थी तब वह घट-बढ़रूप में पाई जाती है । १०वीं मे दो पद्य तथा २१वीं में एक पद्य बढ़ती है, और वह पद्योंकी, ११वींमे चारकी तथा १५वींमे एक पद्यकी घटती है। यह घट-बढ़ भावनगरकी उक्त मुद्रित प्रतिमे ही नहीं पाई जाती बल्कि पूना के भाण्डारकर इन्स्टिऔर कलकत्ताको एशियाटिक सोसाइटीकी हस्तलिखित प्रतियोंमे भी पाई जाती है । रचना - समय की तो यह घट-बढ़ प्रतीतिका विषय नहीं - पं० सुखलालजी आदि ने भी लिखा है कि 'बढ़-घटकी यह घालमेल रचना के बाद ही किसी कारण से होनी चाहिये ।' इसका एक कारण लेखकोंकी असावघानी हो सकता है; जैसे १६वीं द्वात्रिशिकामे एक पद्यकी कमी थी वह पूना और कलकत्ताकी प्रतियोंसे पूरी हो गई । दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि किसीने अपने प्रयोजनके वश यह घालमेल की हो । कुछ भी हो, इससे उन द्वात्रिंशिकाओं के पूर्णरूपको समझने में बाधा पड़ रही है, जैसे ११वीं द्वात्रिंशिका से यह मालूम ही नहीं होता कि वह कौनसे राजाकी स्तुति है, और इससे उसके रचयिता तथा रचना - कालको जानने में भारी बाघा उपस्थित है । यह नहीं हो सकता कि किसी विशिष्ट राजाकी स्तुति की जाय और उसमें उसका नाम तक भी न हो- दूसरी स्तुत्यात्मक द्वात्रिंशिका ओमे स्तुत्यका