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प्रस्तावना
१२७ विधि, जिसका उल्लेख उग्रादित्याचार्य (विक्रम हवीं शताब्दी) के 'कल्याणकारक' वैद्यक ग्रंथ (२०-८५) मे पाया जाता है। और ३ नीतिसारपुराण, जिसका उल्लेख केशवसेनसूरि(वि० सं० १६८८) कृत कर्णामतपुराणके निम्न पद्योमे पाया जाता है और जिनमें उसकी श्लोकसंख्या भी १५६३०० दी हुई है
सिद्धोक्त-नीतिसारादिपुराणोद्भूत-सन्मतिं । विधास्यामि प्रसन्नाथ ग्रन्थं सन्दर्भगर्भितम् ॥ १६ ॥ खखाग्निरसवाणेन्दु(१५६३००)श्लोकसंख्या प्रसूत्रिता ।
नीतिसारपुराणस्य सिद्धसेनादिसूरिभिः ॥ २० ॥
उपलब्ध न होने के कारण ये तीनों प्रन्थ विचारमे कोई सहायक नहीं हो सकते । इन आठ ग्रन्थोंके अलावा चार ग्रन्थ और है–१ द्वात्रिंशद्वात्रिशिका, २ प्रस्तुत सन्मतिसूत्र, ३ न्यायावतार और ४ कल्याणमन्दिर । 'कल्याणमन्दिर' नामका स्तोत्र ऐसा है जिसे श्वेताम्बर सम्प्रदायमे सिद्घसेनदिवाकरकी कृति सममा और माना जाता है; जवकि दिगम्बर परम्परामे वह स्तोत्रके अन्तिम पद्यमे सूचित किये हुए 'कुमुदचन्द्र' नामके अनुसार कुमुचन्द्राचार्यकी कृति माना जाता है। इस विपयमे श्वेताम्बर-सम्प्रदायका यह कहना है कि 'सिद्घसेनका नाम दीक्षाके समय 'कुमुदचन्द्र' रक्खा गया था, आचार्यपदके समय उनका पुराना नाम ही उन्हें दे दिया गया या, ऐसा प्रभाचन्द्रसूरिके प्रभावकचरित (सं० १३३४) से जाना जाता है और इसलिये कल्याणमन्दिरमे प्रयुक्त हुआ 'कुमुदचन्द्र' नाम सिद्धसेनका ही नामान्तर है. दिगम्बर समाज इसे पोछेकी कल्पना और एक दिगम्बर कृतिको हथियानेकी योजनामात्र समझता है क्योकि प्रभावकचरितसे पहले सिद्धसेन-विपयक जो दो प्रवन्ध लिखे गये हैं उनमे कुमुदचन्द्र नामका कोई उल्लेख नहीं है--पं० सुखलालजी और पं वेचरदासजीने अपनी प्रस्तावनामे भी इस वातको व्यक्त किया है। बोदके बने हुए मेरुतु. गाचार्यके प्रवन्धचिन्तामणि (सं० १३६१) मे और जिनप्रभसूरिके विविधतीर्थकल्प (सं० १३८६) में भी उसे अपनाया नहीं गया है। राजशेखरके प्रबन्धकोश अपरनाम चतुर्विंशतिप्रबन्ध (स० १४०५) मे कुमुदचद्र नामको अपनाया जरूर गया है परन्तु प्रभावकचरितके विरुद्ध कल्याणमन्दिरस्तोत्रको 'पार्श्वनाथद्वात्रिंशिका', के रूपमे व्यक्त किया है और साथ ही यह भी लिखा है कि वीरकी द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिका स्तुतिसे जब कोई चमत्कार देखनेमे नहीं आया तब यह पार्श्वनाथद्वात्रिंशिका रची गई है, जिसके ११वें से नहीं किन्तु प्रथम पद्यसे ही चमत्कारका प्रारम्भ हो गया ऐसी स्थितिमे पार्श्वनाथद्वात्रिंशिकाके रूपमे जो कल्याणमन्दिरस्तोत्र रचा गया वह ३२ पद्योंका कोई दूसरा ही होना चाहिये, न कि वर्तमान कल्याणमन्दिरस्तोत्र, जिसकी रचना ४४ पद्योंमे हुई है और इससे दोनो कुमुदचंद्र भी भिन्न होने चाहिये । इसके सिवाय, वर्तमान कल्याणमन्दिरस्तोत्रमे 'प्राग्भारसभृतनमासि रजांसि रोपात्' इत्यादि तीन पद्य ऐसे हैं जो पार्श्वनाथको दैत्यकृत उपसर्गसे युक्त प्रकट करते हैं, जो दिगम्बर मान्यताके अनुकूल और श्वेताम्बर मान्यताके प्रतिकूल हैं; क्योंकि श्वेताम्बरीय
जिसपरसे जैनग्रन्थावलीमें लिया गया है ? क्योंकि इसके साथमें जिस टीकाका उल्लेख है उसे 'गुणरत्न'
की लिखा है और हरिभद्रके षड्दर्शनसमुच्चायपर भी गुणरत्नकी टीका है। १ "शालाक्य पूज्यपाद-प्रकटितमधिक शल्यतत्र च पात्रस्वामि-प्रोक्त विषोग्रहशमनविधिः सिद्धसेनैः प्रसिद्धः।" २ "इत्यादिश्रीवीरद्वात्रिशद्वात्रिशिका कृता । परं तस्मात्तादृशं चमत्कारमनालोक्य पश्चात् श्रीपार्श्व
नाथद्वात्रिंशिकामभिकत्तु कल्याणमन्दिग्स्तवं चक्र प्रथमश्लोके एव प्रासादस्थिात् शिखिशिखामादिव लिङ्गाद् धूमवर्तिरुदतिष्ठत् ।”–पाटनकी हेमचन्द्राचार्य-ग्रन्थावलीमें प्रकाशित प्रबन्धकोश ।