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प्रस्तावना
भूत श्रीनन्दि गुरु भी एक ही हों । श्रीविजयने अपने गुरुका नाम बलदेव सूरि और प्रगुरु का चन्द्रनन्दि (महाकर्मप्रकृत्याचार्य) सूचित किया है और पद्मनन्दि अपने गुरुका नाम बलनन्दि और प्रगुरुका वीरनन्दि लिख रहे हैं। हो सकता है कि बलदेव और बलनन्दिका व्यक्तित्व भी एक हो और इस तरह श्रीविजय और पद्मनन्दि दोनो परस्परमे गुरुभाई हों जिनमे श्रीविजय ज्येष्ठ और पद्मनन्दि कनिष्ठ हों, और इस तरह पद्मनन्दिने श्रीविजयका उसी तरह से गुरुरूपमें उल्लेख किया हो जिस तरह कि गोम्मटसारके कर्ता नेमिचन्द्रने इन्द्रनन्दि आदिका किया है, जो उन्हींके गुरु अभयनन्दिके बड़े शिष्योंमें थे। और दोनोंके प्रगुरुनामोंमे जो अन्तर है उसका कारण एकके अनेक गुरुओंका होना अथवा एक गुरुके अनेक नामोंका होना हो सकता है, जिनमेसे कोई भी अपनी इच्छानुसार चाहे जिस गुरु अथवा गुरुनामका उल्लेख कर सकता है, और ऐसा प्रायः होता आया है । यदि यह कल्पना ठीक हो तो फिर यह देखना चाहिये कि इस ग्रंथ और उसके कर्ता पद्मनन्दिका दुसरा समय क्या हो सकता है ?
चन्द्रनन्दीका सबसे पुराना उल्लेख उनकी एक शिष्य-परम्पराके उल्लेख-सहित, श्रीपुरुषके दानपत्र अथवा नागमंगल ताम्रपत्रमें पाया जाता है। जो श्रीपुरके जिनालयके लिये शक संवत् ६६८ (वि० स० ८३३) मे लिखा गया है और जिसमे चन्द्रनन्दीके एक शिष्य कुमारनन्दी, कुमारनन्दीके शिष्य कीर्तिनन्दी और कीर्तिनन्दीके शिष्य विमलचन्द्र का उल्लेख है, और इससे चन्द्रनन्दीका समय शक संवत् ६३८ से कुछ पहलेका ही. जान पड़ता है। बहुत संभव है कि उक्त श्रीविजय इन्हीं चन्द्रनन्दीके प्रशिष्य हों। यदि ऐसा है तो श्रीविजयका समय शक संवत् ६५८ के लगभग प्रारंभ होता है और तब जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति और उसके कतो पद्मनन्दिका समय शक संवत् ६७० अर्थात् वि० संवत् ८०५ के आसपासका होना चाहिये । उस समय पारियात्र देशके अन्तर्गत वारानगरका स्वामी कोई शक्ति या शान्ति नामका भूपाल (राजा) हुआ होगा, जिसका इतिहाससे पता चलाना चाहिये । और यह भी संभव है कि-वह कोई बड़ा राजा न होकर बारानगरका जागोरदार (जमींदार) हो 'भूपाल' उसके नामका ही अश हो अथवा उसे टाइटिलके रूपमे प्राप्त हो
और राजा या महाराजाके द्वारा सम्मानित होने के कारण ही उसे 'नरवइसंपूजिओ' (नरपतिसंपूजित) विशेषण दिया गया हो। ऐसी हालतमे उसका नाम इतिहासमे मिलना ही कठिन है। कुछ भी हो, यह ग्रंथ अपने साहित्यादिकपरसे काफी प्राचीन मालूम होता है।)
३६. धर्मरसायन यहा १६३ गाथाओंका प्रथ है, सरल तथा सुबोध है और माणिकचन्द्रग्रथमालामे सस्कृत छायाके साथ प्रकट हो चुका है । इसमें धर्मकी महिमा, धर्म-अधर्मके विवेककी प्रेरणा, परीक्षा करके धर्मग्रहण करने की आवश्यकता, अधर्मका फल नरकादिकके दुख, सर्वज्ञप्रणीत धर्मकी उपलल्धि न होनेपर चतुर्गतिरूप ससार-परिभ्रमण, १ "अष्टानवत्युत्तरे षट्छतेषु शकवर्षेष्वतीतेष्वात्मानः प्रवर्द्धमान-विजयवीयं-सवत्सरे पचशत्तमे प्रवर्त्तमाने मान्यपुरमधिवसति विजयस्कन्दावारे श्रीमूलमूलशर्णाभिनन्दितनन्दिसंघान्वय एरेगित्तुर्नाम्नि गणे मूलिकल्गच्छे स्वच्छतरगुणिकिरप्र(ग्य)तति-प्रल्दादित-सकललोकः चन्द्र इवापर. चन्द्रनन्दिनामगुरुरासीत् । तत्य शिष्यस्समस्तविबुधलोकपरिरक्षण-क्षमात्मशक्ति : परमेश्वरलालनीयमहिमाकुमारवद्विति(ने)य: कुमारनन्दिनाममुनिपतिरभवत् । तस्यान्तेवासि-समधिगतसकलतत्त्वार्थ-समर्पित बुधसाधे-सम्पत्सम्पादितकीर्तिः कीतिनन्द्याचार्यो नाम महामुनिस्सर्मजनि । तस्य प्रियशिष्य शिष्यजनकमलाकर-प्रबोधनकः मिथ्याज्ञानसततसनुतस्वसन्मानान्तक-सद्धर्म-व्योमावभासनभास्करः विमलचन्द्राचार्यस्समुदपादि । तस्य महर्षेधर्मोपदेशनया
( ताम्रपत्रका यह अश डा० ए० एन० उपाध्ये कोल्हापुरके सौजन्यसे प्राप्त हुआ है।)