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पुरातन जैनवाक्य-सूची
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करणरहित बतलाया है; अपने गुरु बलनन्दिको सूत्रार्थविचक्षण, मतिप्रगल्भ, परपरिवादनिवृत्त, सर्वसर्गानःसग, दर्शनज्ञानचरित्रमे सम्यक् अधिगतमन, परतृप्तिनिवृत्तमन, और विख्यात सूचित किया है, अपने दादागुरु वीरनन्दिको पचमहाव्रतशुद्ध, दर्शनशुद्ध, ज्ञानसंयुक्त, संयमतपगुणसहित, रागादिविवजित, घीर, पचाचारसमय, पट्जीवदयातत्पर, विगतमोह और हर्षविपादविद्दीन विशेषणो के साथ उल्लेखित किया है; और अपने शास्त्रगुरु श्रीविजयको नानानरपतिमहित, विगतभय, संगभंग उन्मुक्त, सम्यग्दर्शनशुद्ध, सयमतप- शीलसम्पूर्ण, जिनवरवचन व निर्गत-परमागमदेशक, महासत्व, श्री निलय, गुणसहित और विख्यात विशेपणो से युक्त प्रकट किया है। साथ ही, सत्ति (सति ) भूपालको सम्यग् - दर्शनशुद्ध, कृत - व्रत- कर्म, सुशीलसम्पन्न, अनवरतदानशील, जिनशासनवत्सल, धीर, नानागुणगणकलित, नरपतिसंपूजित, कलाकुशल, वारानगरप्रभु और नरोत्तम वतलाया है । परन्तु इतना सब कुछ बतलाते हुए भी अपने तथा अपने गुरुओ के संघ अथवा गणगच्छादिके विपयमे कुछ नहीं बतलाया, न सत्ति भूपाल अथवा सति भूपालके वंशादिकका कोई परिचय दिया और न ग्रंथका रचनाकाल ही निर्दिष्ट किया है । ऐसी हालत मे ग्रंथकार और ग्रथके निमाणकालादिकका ठीक ठीक पता चलाना आसान नहीं है; क्योंकि पद्मनन्दि नामके दसों विद्वान आचार्य भट्टारकादि हो गए हैं और वीरनन्दि, श्रीनन्दि, सकलचन्द्र, माघनन्दि, और श्री।वजय जैसे नामोंके भी अनेक श्राचार्यादिक हुए हैं । इसीसे सुवर पं० नाथूरामजी प्रेमीने, अपने 'जैन साहित्य और इतिहास' मे, इस ग्रंथके समय निर्णयको कठिन बतलाते हुए उसके विषयमे असमर्थता व्यक्त का है और अन्तको इतना कहकर ही सन्तोष धारण किया है कि - " फिर भी यह प्रथ हमारे अनुमानसे काफी प्राचीन है और उस समयका है जब प्राकृतमे ही ग्रंथरचना करनेकी प्रणाली अधिक थी, और जब संघ, गण आदि भेद अधिक रूढ नहीं हुए थे ।" वादको उन्हें महामहोपाध्याय श्रोमाजी के 'राजपूतानेका इतिहास' द्वि० भागपर से यह मालूम हुआ कि वारॉनगर जो वर्तमानमे कोटा राज्यके अन्तर्गत है वह पहले मेवाड के ही अन्तर्गत था और इसलिये मेवाड़ भी पारियात्र देशमे शामिल था, जिसे हेमचन्द्रकोपमें “उत्तरो विन्ध्यात्पारियात्र " इस वाक्य के अनुसार विन्ध्याचल के उत्तरमें बतलाया है। इस मेवाड़का एक गुहिलवंशी राजा शक्तिकुमार हुआ "है, जिसका एक शिलालेख वैशाख सुदि १ वि० संवत् १०३४ का आहाड मे ( उदयपुर के समीप) मिला है । अतः प्रेमीजीने अपने उक्त प्रथक परिशिष्टमे इस शक्तिकुमार और जम्बू• द्वीपप्रज्ञप्ति के उक्त सत्तिभूपालके एकत्वकी सभावना करते हुए अनिश्चितरूपमे लिखा है"यदि इसी गुहिलवंशीय शक्तिकुमार के समय मे जंबूदीपपण्णत्तीकी रचना हुई हो, तो उसके कर्ता पद्मनन्दिका समय विक्रमकी ग्यारहवीं शताब्दी मानना चाहिये ।" 1")
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ऐसी वस्तुस्थितिमे अब मैं अपने पाठकों को इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि भगवतीआराधनाकी 'विजयोदया' टीकाके कर्ता 'श्रीविजय' नामके एक प्रसिद्ध आचाये हुए हैं, जिनका दूसरा नाम 'अपराजित' सूरि है । (पं० आशाधरजीने, अपनी 'मूलारा घनादर्पण' नामकी टीकामे जगह जगह उन्हें 'श्रीविजयाचार्य' के नामसे उल्लेखित किया है और प्राय इसी नामके साथ उनकी उक्त संस्कृत टीकाके वाक्योंको मतभेदादिके प्रदर्शनरूपमे उधृत किया है अथवा किसी गाथाके श्रमान्यतादि विषयमे उनके इस नाम को पेश किया है ' । श्रीविजयने अपनी उक्त टीका श्रीनन्दीगरणीकी प्रेरणाको पाकर लिखी है । इधर यह जम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति भी एक श्रीनन्दि गुरुके निमित्त लिखी गई है और इसके क्र्ता पद्मनन्दिने अपने शास्त्रगुरुके रूपमे श्रीविजयका नाम खासतौर से कई बार उल्लेखित किया है। इससे बहुत संभव है कि दोनों 'श्रीविजय' एक हों और दोनों ग्रंथोंके निमित्त१ श्रनेकान्त वर्ष २ किरण १ पृ० ५७-६० ।
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