________________
प्रस्तावना
५०
सिद्ध है कि धवलाकारके सामने तिलोयपत्ति थी, जिसके विषय में दूसरी तिलोय पण ति होनेकी तो कल्पना की जाती है परन्तु यह नहीं कहा जाता और न कहा जा सकता है कि उसमे मंगलादिक छह अधिकारोंका वह सब वर्णन ही था जो वर्तमान तिलोयपत्ति में पाया जाता है, तब धवलाकार के द्वारा तिलोयपण्णत्तीके अनुसरणको बात ही अ संभव और युक्तियुक्त जान पड़ती है ।
ऐसी स्थिति में शास्त्रीजीका यह दूसरा प्रमाण वस्तुतः कोई प्रमाण ही नहीं है और न स्वतंत्र युक्ति के रूप मे उसका कोई मूल्य जान पड़ता है ।
(३) तीसरा प्रमाण अथवा युक्तिवाद प्रस्तुत करते हुए शास्त्रीजीने जो कुछ कहा है उसे पढ़ते समय ऐसा मालूम होता है कि 'तिलोय पण्णत्तम घवलापरसे उन दो संस्कृत श्लोकोंको कुछ परिवर्तनके साथ अपना लिया गया है जिन्हें घवला मे कहीं से उदधृत किया गया था और जिनमे से एक श्लोक कलंक देवके लवीयन्त्रयका 'ज्ञानं प्रमाणमात्मादेः' नाम का है ।' परन्तु दोनो ग्रंथोको जब खोलकर देखते है तो मालूम होता है कि तिलोयपणतिकारने घवलोद्धृत उन दोनों संस्कृत श्लोकोंको अपने ग्रन्थका श्रग नहीं बनाया - वहाँ प्रकरण के साथ कोई संस्कृत श्लोक हैं ही नहीं, दो गाथाएँ है जो मोलिक रूपमे स्थित हैं। और प्रकरण के साथ संगत है । इसी तरह लघीयस्त्रयवाला पद्य धवलामे उसी रूपसे उद्घृत नहीं जिस रूप मे कि वह लघीयस्त्रयमे पाया जाता है-उसका प्रथम चरण 'ज्ञानं प्रमाणमात्मादे.' के स्थान पर 'ज्ञान प्रमाणमित्याहुः' के रूपमे उपलब्ध है । और दूसरे चरण मे 'इष्यते' की जगह 'उच्यते' क्रिया पढ है । ऐसी हालत मे शास्त्रीजी का यह कहना कि "ज्ञान प्रमाणमात्मादेः' इत्यादि श्लोक भट्टाकलंक देवकी मोलिक कृति है, तिलोय पणत्तिकारने इसे भी नहीं छोड़ा " कुछ संगत मालूम नहीं होता । अस्तु, यहाँ दोनो ग्रन्थोके दोनो प्रकृत पद्योंको उद्धृत किया जाता है, जिससे पाठक उनके विपयके विचारको भले प्रकार हृदयङ्गम कर सकेंः---
जो पमाणायेहिं सिक्वेवेणं क्खिदे अत्थं । तस्साऽजुत्तं जुनं जुत्तमजुत्तं च (व) पडिहादि ॥ ८२ ॥ गाणं होदि पमाणं ओ विणादुस्स हिदयभावत्थो । णिक्खेव वि उवाओ जुत्तीए अत्यपडिगहणं ॥ ८३ ॥ -तिलोय पण्णत्ती
प्रमाण -नय-निक्षेपैर्योऽर्थो नाऽभिसमीक्ष्यते । युक्तं चाऽयुक्तवद् भाति तस्याऽयुक्तं च युक्तवत् ॥ १० ॥ ज्ञानं प्रमाणमित्य | हुरुपायो न्याम उच्यते । नयो ज्ञातुरभिप्रायो युक्तितोऽथपरिग्रहः ॥ ११ ॥
- धवला १, १, पृ० १६, १७,
तिलोयपण्णत्तोकी पहली गाथामे यह बताया है कि 'जो प्रमाण, नय और निक्षेपके द्वारा अर्थका निरीक्षण नहीं करता है उसको अयुक्त (पदार्थ) युक्त को तरह और युक्त (पदार्थ) अश्रुक्तको तरह प्रतिभासित होता है।' और दूसरी गाथा मे प्रमाण, नय और निक्षेप का उद्देशानुपार क्रमशः लक्षण दिया है और अन्त में बतलाया है कि यह सब युक्तिले अर्थका परिग्रहण है । अतः ये दोनो गाथाएं परस्पर संगत हैं । और इन्हें न्यसे अलग कर देने पर अगली 'इय गायं अवहारिय आइरियपरंपरागयं मणसा' (इस कार