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पुरातन-जैनवाक्य-सूची दक्षिण-उत्तरदो पुण सत्त वि रज्जू हवेदि सव्वत्थ ।
उढ्ढो चउदस रज्जू सत्त वि रज्जू घणो लोगो ॥११॥ ये स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाकी गाथाए हैं, जो एक बहुत प्राचीन ग्रंथ है और वीरसेनसे कई शताब्दी पहलेका बना हुआ है । इनमे लोकके पूर्व-पश्चिम और उत्तर-दक्षिणके राजुओका उक्त प्रमाण बहुत ही स्पष्ट शब्दो में दिया हुआ है और लोकको चौदह राजु ऊंचा तथा सात राजुके घनरूप (३४३ राजु) भी बतलाया है। इन प्रमाणोके सिवाय, जवूद्वीपप्रज्ञप्ति मे दो गाथाएँ निम्न प्रकारसे पाई जाती हैं:
पच्छिम-पुवदिसाए विक्खंभो होइ तस्स लोगस्स । - सत्तेग-पंच-एया मूलादो होति रज्जूणि ॥ ४-१६॥ दक्षिण-उत्तरदो पुण विक्खंभो होड सत्त रज्जूणि ।
चदुसु वि दिसासु भागे चउदसरज्जूणि उत्तुंगो ॥ ४-१७ ॥ इनमे लोककी पूर्व-पश्चिम और उत्तर-दक्षिण चौड़ाई-मोटाई तथा ऊचाईका परिमाण स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाकी गाथाओंक अनुरूप ही दिया है । जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति एक प्राचीन ग्रन्थ है और उन पद्मनन्दो आचार्यकी कृति है जो बलनन्दिके शिष्य तथा वीरनन्दीके प्रशिष्य थे और भागमोपदेशक महासत्व श्रीविजय भी जिनके गुरु थे । श्रीविजयगुरुसे: सुपरिशुद्ध आगमको सुनकर तथा जिनवचन-विनिर्गत अमतभूत अर्थपदको घारण करके उन्हींके माहात्म्य अथवा प्रसादसे उन्होन यह ग्रंथ उन श्रीनन्दी मुनिके निमित्त रचा है जो माधनन्दी मुनिके शिष्य अथवा शिष्य (सकलचन्द शिष्य के शिष्य) थे, ऐसा ग्रन्थकी प्रशस्तिपरसे जाना जाता है। बहुत सभव है कि ये श्रीविजय वे ही हों जिनका दूसरा नाम अपराजितसूरि' था । जिन्होने श्रीनन्दी गणीकी प्रेरणाको पाकर भगवतीअाराधनापर 'विजयोदया' नामकी टीका लिखी है और जो बल्देवसूरिके शिष्य तथा चन्द्रनन्दीके। प्रशिष्य थे। और यह भी संभव है कि उनके प्रगुरु चन्द्रनन्दी वे ही हों जिनकी एक शिष्यपरम्पराका उल्लेख श्रीपुरुपके दानपत्र अथवा 'नागमंगल' ताम्रपत्रमे पाया जाता है, जो श्रीपुर के जिनालयके लिये शक सं०६६८ (वि० सं०८३३) मे लिखा गया है और जिसमे चन्द्रनन्दीके एक शिष्य कुमारनन्दी, कुमारनन्दीके शिष्य कीर्तिनन्दी और कीर्तिनन्दीके शिष्य विमलचन्द्रका उल्लेख है। और इससे चन्द्रनन्दीका समय शक संवत् ६३८ से कुछ पहलेका ही जान पड़ता है। यदि यह कल्पना ठीक है। तो श्री विजयका समय शक संवत् ६५८ के लगभग प्रारंभ होता है और तब जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिका समय शक स० ६७० अर्थात् वि० सं० ८.५ के आस-पासका होना चाहिये । ऐसी स्थितिमें जम्बुद्वीपप्रज्ञप्तिकी रचना भी धवलासे पहलेकी--कोई ६८ वर्ष पूर्वकी-ठहरती है।
ऐसी हालतमे शास्त्रीजीका यह लिखना कि "वीरसेनस्वामी के सामने राजवार्तिक आदिमे बतलाए गये आकारके विरुद्ध लोकके आकारको सिद्ध करने के लिये केवल उपयुक्त दो गाथाएँ ही थीं। इन्हींके आधारपर वे लोकके आकारको भिन्न प्रकारसे सिद्ध कर सके तथा यह भी कहने में समर्थ हुए
इत्यादि " न्यायसगत मालूम नहीं होता । और न इस आधारपर तिलोयपएणत्तिको वीरसेनसे बादकी बनी हुई अथवा उनके मतका अनुसरण करने वाली बतलाना ही न्यायसंगत अथवा युक्ति-युक्त कहा जा सकता है । वारसेनके सामने तो उस विषयके न मालूम कितने ग्रंथ थे जिनके आधारपर उन्होंने अपने १ सकलचन्द-शिष्यके नामोल्लेखवाली गाया अामेरकी वि० सं० १५१८ की प्राचीन प्रतिमें नहीं है बादकी कुछ प्रतियोंमें है, इसीसे श्रीनन्दीके विषयमे माघनन्दीके प्रशिष्य होने की कल्पना की गई है ।